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चार भावनाएँ
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भारतवर्ष के विभिन्न सम्प्रदायों एवं पन्थों में तत्त्वज्ञान की बड़ी महिमा गाई गई है। किसी पन्थ के शास्त्र को उठाकर देखिये, उसमें तत्त्वज्ञान का महत्त्व अवश्य बतलाया गया होगा। कई - एक दर्शनशास्त्र तो यहां तक आगे बढ़ गये हैं कि उन्होंने सिर्फ तत्त्वज्ञान की प्राप्ति से मुक्ति होने का विधान किया है । यह ठीक है कि चारित्र की परिपूर्णता के अभाव में निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती, मंगर चारित्र का प्रादुर्भाव तत्त्वज्ञान से ही होता है । अब तक दृष्टि मिथ्या है और मनुष्य मिथ्याज्ञान से घिरा हुआ हैं तब तक उसमें जागृति नहीं श्राती । कर्म के बंधन जब कभी ढीले पड़ते हैं और तत्त्वज्ञान का प्रादुर्भाव हो जाता है तो मनुष्य के नेत्र खुल जाते हैं। वह जिन वस्तुओं को पहले जानता था उन्हीं को बाद में भी. जानता है, लेकिन उसके जानने में आकाश-पाताल का अन्तर हो जाता है। अक्षरज्ञान से शून्य बालक भी पुस्तक के अक्षर
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