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[जवाहर-किरणावली
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चाना और अनावश्यक वस्तुएँ पेश की। तीसरे मित्र ने हृदय को पहचाना और उसी के अनुसार उपाय किया। इसलिए मित्र हो तो तीसरे मित्र के समान ही होना चाहिए ।
जम्बूकुमार कहने लगे-प्रधान के समान मेरे भी तीन मित्र हैं। नित्य मित्र यह शरीर है। इसे प्रतिदिन नहलाता धुलाता हूँ, खिलाता-पिलाता हूँ और सजाता है। परन्तु कष्ट का प्रसंग आने पर, जरा या रोग के आने पर सब से पहले शरीर ही धोखा देता है। इतना सत्कार सन्मान करने पर भी यह शरीर प्रात्मा के बंधन नहीं तोड़ सका। अतएव
आत्मा से शरीर को भिन्न और अंत में साथ न देने वाला समझकर उस पर ममता रखना उचित नहीं है।
माता, पिता, पत्नी आदि कुटुम्बी जन पर्व मित्र के समान हैं। पत्नी, पति पर प्रीति रखती है किन्तु जब कर्म रूपी राजा का प्रकोप होता है तब वह अपने पति को छुड़ा नहीं सकती।
जा दिन चेतन से कर्म शत्रुता करे
ता दिन कुटुम्ब से कोउ गर्जन सरे जिस दिन कर्म चेतना के साथ शत्रुता का व्यवहार करता है, उस दिन कुटुम्बी जन क्या कर सकते हैं ? वह व्याकुल भले ही हो जाएँ और सहानुभूति भले प्रकट करें किन्तु कष्ट से छुड़ाने में समर्थ नहीं होते ।
जम्बूकुमार अपनी पत्नी से कहते हैं-मेरे तीसरे मित्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com