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त्वत्संस्तवेन भवसन्ततिसग्निवद्धम् । पापं क्षणात् क्षयमुपैति शरीरभाजाम् ।। अाक्रान्तलोकमलिनीलमशेषमाशु । सूर्यांशुभिन्नमिव शावरमन्धकारम् ।।७।।
भवभवान्तर में बँधे हुए प्राणियों के पाप आपकी स्तुति से इस प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जिस प्रकार संसार में फैला हुआ, भोरे के समान काला-काला अंधकार सूर्य की किरणों से तत्काल नष्ट हो जाता है। __ स्तुतिकार आचार्य माततुंग कहते हैं-हे नाथ ! मैं भवभव में उत्पन्न किये हुए पापों के समूह को अपने प्रात्मा के साथ बांधे हुए हूँ। एक भव के पापों का ही पार नहीं होता तो भव-भव के पापों का पार कैसे हो सकता है ? वह अपार पाप मेरी आत्मा को सता रहा है। मगर जैसे चिरकाल के रोगी को महान् कुशल वैद्य के मिल जाने पर आनन्द होता है और वह मान लेता है कि अब मेरा रोग नष्ट हो जायगा, उसी प्रकार भव-भव में कष्ट सहने के बाद अब आपका संयोग मिला है। मैं अपने पापों की गुरुता को देखकर निराश हो
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