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बीकानेर के व्याख्यान ] .
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इनके पास गई; फिर भी यह शान्त नहीं हुए। मैंने छहों शत्रुओं को मारने की तैयारी की। मैं ने यह तो समझ लिया था कि इन्हें मारना उचित है, पर मिथ्या देव की संगति के कारण यह नहीं समझ सका कि इन्हें किस प्रकार मारना चाहिए ? अतएव में ने कई बार जलसमाधि लेकर, कई बार दूसरी तरह से बालमरण से मर कर यह दिखाया कि मैं इन्हें मारता हूँ, पर वास्तव में ऐसा करके मैं स्वयं ही मरा, शत्रु नहीं मरे । जैसे अर्जुन यह समझता था कि मैं इन छह शत्रुओं को मारता हूँ, मगर उसे अपनी स्थिति का भान नहीं रहा, इसी प्रकार मैं भी समझता रहा कि मैं इन छह विकार-- शत्रुओं को मार रहा हूँ, मगर इस तरह मारने का परिणाम क्या होगा, यह मुझे मालूप ही नहीं था । परिणाम यह हुआ कि शत्रुओं को मारने के पागलपन में मैं ने न जाने कितनों पर अन्याय किया । मुझमें अज्ञान बना ही रहा । इतने में सौभाग्य से विवेक रूपी सुदर्शन सेठ की संगति मिल गई । उसने सच-झूठे देव का भान कराया, सुकृत्य-कुकृत्य का भेद समझाया, और सुगुरु-कुगुरु की पहिचान कराई। विवेक रूपी सुदर्शन ने मन रूपी अर्जुन माली के सामने ध्यान किया अर्थात्
आत्मा को एकाग्र बनाया। विवेक की शक्ति के प्रताप से मन में विचार आया कि यह तो ईश्वर का दर्शन है ! इस प्रकार विवेक-देव के दर्शन होते ही मिथ्यात्व-कुदेवमोह रूपी यक्ष भाग गया। उसके भागते ही आत्मा ने विवेक का हाथ पकड़
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