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[जवाहर-किरणावली
के सामने रख दिया और कहा-सेठ साहब, मुझे विदाई दीजिए।
सेठ-अच्छी तरह सोच-विचार लीजिए। मैंने आपको रोज़गार ले लगाया है । सब कर्मचारियों का प्रधान बनाया है और श्राप मेरे साथ ऐसा सलूक करते हैं ?
मुनीम-जो अपनी इज्ज़त के महत्त्व को नहीं समझता वही दूसरे की इज्ज़त बिगाड़ता है। एक दिन वे भी मेरे मालिक थे। आज उनकी स्थिति ऐसी नहीं है, तो क्या में उनकी इज्ज़त बिगाड़ने लगूं? मैंने उनका नमक खाया है और वह मेरे सारे शरीर में व्यापा हुआ है। मैं उनकी प्रतिष्ठा नष्ट नहीं करूँगा। फिर भी अगर अाप रकम वसूल करना ही चाहेंगे तो मैं अपनी जायदाद से चुकाऊँगा। मैं सिर्फ पैसे का गुलाम नहीं हूँ। मैं धर्म से काम करने वाला हूँ।
मुनीम की बात सुनकर सेठ को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। उसने धन्यवाद देते हुए कहा- मुनीमजी, मैं आपकी कसौटी करना चाहता था। मेरी अाज तक की चिन्ता दूर हो गई। यह चाबियाँ संभालिये। अब आप जानें और दुकान जाने । अब यह घर और बाल-बच्चे मेरे नहीं, आपके हैं । मेरे सिर का भार अापके ऊपर है।
मित्रो! यदि मुनीम पैसे के प्रलोभन में पड़कर, भाजीविका रखने की चिन्ता से धर्म को भूल जाता तो क्या परिणाम निकलता?
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