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[जवाहर-किरणावली
के लिए सगे को जबर्दस्ती खिलाने से पुण्य का बंध होता है या गरीब के प्राण बचाने के लिए उसे खिलाने से ? _ 'भूखे को खिलाने से !'
यह जानते और मानते हुए भी अपनी प्रवृत्ति बदलते क्यों नहीं? फिर कहते हो कि हम पुण्य और पाप को जानते हैं ?
बात काली महारानी की चल रही है । उनके अन्तःकरण में वह भावना उत्पन्न हुई कि मैं ने उत्तम-उत्तम भोजन किये परन्तु गरीबों को देना तो दूर रहा, उलटे उनकी नजर पड़ने से बचाव किया। अलवत्ता, मैं ने अपनी सरीखी रानियों को बड़े प्रेम से जिमाया है, पर उससे क्या हुआ? वह तो मोह था या लोकव्यवहार था; दया नहीं थी। हृदय में दया होती तो भूखे को खिलाया होता ! मैंने यह पाप किया है। मैं इस पाप को सहन नहीं करूँगी। अब मैं ऐसा भोजन करूँगी जिसे गरीब भी पसंद नहीं करते । ऐसा भोजन करके मैं संसार को दिखला दूंगी कि इस पाप का प्रायश्चित्त ऐसे होता है ! . मित्रो ! बढ़िया भोजन की अपेक्षा सादा भोजन करने से दया कितनी अधिक हो सकती है, इस बात पर विचार करो। आपके घर बाजरे की घाट बनी होगी और वह बच रहेगी तो किसी गरीब को देने की इच्छा हो जाएगी। अगर दाल का हलुआ बचा होगा तो शायद ही कोई देना चाहेगा ! उसे तो किसी संबंधी के घर मेजने की इच्छा होगी। इसलिए तो कहा है
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