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[ जवाहर-किरणावली
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सँभालने के लिए मैं अकेली ही काफी हूँ।
घर के लोग यही चाहते थे। फूलांबाई को घर छोड़कर सब विवाह में सम्मिलित होने के लिए रवाना हो गये।
उधर सब लोग विवाह के लिए गये और संयोगवश इधर सेठ की समानता रखने वाले एक सगे मेहमान सेठजी के यहाँ आ गये। मेहमान भी ईश्वर में निष्ठा रखने वाला भक्त था । फूलांबाई को मेहमान के पाने का समाचार मिला। उसने भोजन की तैयारी करके उसे जीमने के लिए बुलाया। मेहमान जीमने बैठा और भोजन का थाल उसके सामने आया। उसने जैसे ही भोजन करना प्रारंभ किया कि उसी समय फूलां ने कड़क कर कहा--कभी पहले भी ऐसे टुकड़े मिले हैं या नहीं ? एकदम भुखमरों की तरह भोजन पर टूट पड़े ! कुछ विचार भी नहीं किया और पेट में भरने लगे। कै दिन के भूखे आये हो ?
ऐसे समय में क्रोध आना स्वाभाविक था। भोजन करने के अवसर पर यह शब्द कह कर फूलांबाई ने भोजन को ज़हर बना दिया था। पर मेहमान ने सोचा-मैं भक्त हूँ। इसने भोजन को ज़हर बना दिया है, उसका मैं अमृत न बना सका तो फिर मैं भक्त ही कैसा ? इसमें और मुझमें फिर अन्तर ही क्या रहेगा ? मैं तो आज आया हूँ और आज ही चला भी जाऊँगा, मगर इसके घर के लोग कितने दयाशील
और सहिष्णु होंगे जो रोज़-रोज़ इसके ऐसे बर्ताव को सहन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com