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बीकानेर के व्याख्यान]
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नष्ट हो जाता है जैसे प्रकाश होने पर अंधकार ।
ऋषि मुनि कहते आये हैं कि-हे मानव ! तू बाहरी वैभव में क्यों उलझा है ? स्थूल और निर्जीव पदार्थों के फेर में क्यों पड़ा है ? उन्हें सुख-दुःख का विधाता क्यों समझ रहा है? सुख दुख के मूल स्त्रोत की खोज कर । देख कि यह कहाँ से
और कैसे उत्पन्न होते हैं ? अपने मन को स्थिर करके, अपनी दृष्टि को अन्तर्मुखी बनाकर विचार करेगा तो स्पष्ट दिखाई देगा कि तेरा आत्मा ही तेरे सुख और दुःख आदि का विधाता है। उसीने इनकी सृष्टि की है और वही इनका विनाश करता है । इस तथ्य को समझ जाने पर तेरी बुद्धि शुद्ध और स्थिर हो जायगी और तू बाह्य पदार्थों पर राग द्वेष करना छोड़ देगा। उस अवस्था में तुझे समता का ऐसा अमृत प्राप्त होगा जो तेरे समस्त दुःखों का, समस्त व्यथाओं का और समस्त अभावों का अन्त कर देगा।
तृ अपने बंधन का निर्माता आप ही है और मुक्ति का विधाता भी आप ही है। तू स्वयं दुःख का निर्माण करता है
और फिर हाय-हाय करता है, लेकिन निर्माण करना नहीं छोड़ता। मिथ्याज्ञान के कारण जीव दुखों का विनाश करने के लिए जो प्रयत्न करता है, उसी प्रयत्न में से अनेक दुःख फूट पड़ते हैं । इस प्रकार दुःखों की दीर्घ परम्परा चल रही है। इस परम्परा को समाप्त करने का उपाय सम्यग्ज्ञान ही है।
सम्यग्ज्ञान के अपूर्व प्रकाश में दुःखों के आद्य स्रोत को देख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com