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________________ (८) नात्यद्भुतं भुवनभूषण ! भूतनाथ ! भूतैर्गुणैभुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः । तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा, भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥१०॥ अर्थ-हे लोक के भूषण ! हे प्राणियों के नाथ ! आपके वास्तविक गुणों के द्वारा आपकी स्तुति करने वाले भक्त आपके ही समान हो जाते हैं; यह कोई अद्भुत बात नहीं है। आखिर उस स्वामी से लाभ ही क्या है जो अपने आश्रित जन को अपने समान वैभव वाला नहीं बना देता है ! दृष्ट्वा भवन्तमनिमेषविलोकनीयं, नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः । पीत्वा पयः शशिकरद्य तिदुग्धसिन्धोः, चारं जलं जलनिधेरसितुम् क इच्छेत् ॥११॥ अर्थ-प्रभो! आप टकटकी लगाकर देखने योग्य हैं। आपको देख लेने के बाद भक्त के नेत्र किसी दूसरे को देखकर संतोष नहीं पाते । चन्द्रमा की किरणों के समान धवल क्षीरसागर का जल पी लेने के पश्चात् साधारण समुद्र का जल कौन पीना चाहेगा? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034899
Book TitleJawahar Kirnawali 19 Bikaner ke Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year1949
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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