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________________ १८] ही शत्रु है । श्री श्राचारांग सूत्र में भी यही कहा है कि- 'हे पुरुष ! तू ही तेरा मित्र है, बाहर के मित्र की तरफ़ क्यों ताकता है!' इसी वाक्य को पलट कर कहा जा सकता है कि- 'हे पुरुष ! तू ही मेरा शत्रु है तू दूसरे को क्यों शत्रु समझता है ?' [ जवाहर किरणावली मित्रो जब एक ही वस्तु फूल की छड़ी बन सकती है और नागिन भी बन सकती है और उसका बनाना भी तुम्हारे ही अधीन है तो उसे नागिन क्यों बनाते हो ? फूल की छड़ी क्यों नहीं बनाते ? आत्मा कब फूल की छड़ी बनती है और कब नागिन वनती है, इसके लिए कहा गया है दुप्पट्ट सुपट्टि । आत्मा जब दुष्कर्म में लगती है तो आप ही अपना शत्रु बन जाती है । दुष्कर्म में संलग्न आत्मा अपने आपका बैरी है । इसी प्रकार सत्कर्म में लगी हुई आत्मा अपना मित्र है। दुष्कर्म में लगने का फल दुःख के अतिरिक्त और क्या हो सकता है ? आत्मा दुष्कर्म में किस प्रकार प्रवृत्त होती है और सत्कर्म में किस प्रकार लगती है, इस बात को जरा स्पष्ट रूप से समझ लीजिए । पहले कानों को ही लीजिए। इन कानें से धर्मोपदेश सुना या वीतराग भगवान् की वाणी सुनी तो आत्मा ने अपने आपके मित्र बनाया। इसका फल क्या हुआ ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034899
Book TitleJawahar Kirnawali 19 Bikaner ke Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year1949
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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