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बीकानेर के व्याख्यान ]
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तं महप्फललं खलु एगस्स वि प्रायरिस्स,
धम्मियस्स सुबयण स्स सवणयाए । अर्थात्-तथा रूप के श्रमण निन्थ के प्रवचन का एक भी वाक्य सुन ले तो उसके फल का पार नहीं रहता।
इसके विपरीत कानों को अगर वेश्या का गान सुनने में लगाया या विकथा सुनने में लगा दिया तो आत्मा दुःप्रतिष्ठित हो गया। अतएव मनुष्य को विचार करना चाहिए कि-इन कानों की बड़ी महिमा है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों की अवस्था में अनन्त काल तक आत्मा रहा है और उस अवस्था में उले कानों की प्राप्ति नहीं हो सकी। किसी प्रकार अनन्त पुण्य का उदय होने पर पंचेन्द्रिय दशा प्राप्त हुई और तब कानों की प्राप्ति हुई है। प्रबल पुण्य का व्यय करके आत्मा ने कानइन्द्रिय प्राप्त की है सो क्या इसलिए कि उसे पाप के उपार्जन में लगा दिया जाय ? नहीं ! इनसे परमात्मा की वाणी सुनना चाहिए । यही कानों का सदुपयोग है।
कहा जा सकता है कि दिन भर तो धर्मोपदेश होता नहीं है: फिर दिन भर इनका क्या उपयोग किया जाय ? इसका उत्तर यह है कि जब धर्मोपदेश सुनने का अवसर न हो तो आत्मा का नाद सुनो। भगवान् के स्मरण का नाद
आत्मा में चलने दो और इसी अन्तर्नाद की बोर कान लगाये रहो। इतना भी न कर सको तो परमात्मा का भजन सुनो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com