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[ जवाहर-किरणावली
पत्नी ने संन्यास ले लिया। स्त्री सुन्दरी थी। दम्पती वन में रहकर तप किया करते थे। एक बार दोनों नगर में आये । नगर के राजा ने स्त्री को देखा तो उसके चित्त में विकार पैदा हो गया । वह सोचने लगा-यह रमणीरत्न गलियों में क्यों पड़ा फिरना चाहिए? यह तो महल की शोभा बढ़ाने योग्य है। यह सोचकर उसने सोमदेव से कहा-यह स्त्री तेरे साथ शोभा नहीं देती।
सोमदत्त ने कहा-हाँ, शाभा नहीं देती। राजा-तो इसे हम ले जाएँ ? सोमदत्त-मेरी नहीं है, भले कोई ले जाय । राजा ने स्त्री से कहा- चलो, हमारे साथ चलो।
स्त्री ने सहज भाव से उत्तर दिया-चलिए, कहाँ चलना है ?
आगे-आगे राजा चला और पीछे-पीछे स्त्री। महल में पहुँच कर स्त्री ध्यान लगाकर बैठ गई। उसने ऐसा ध्यान लगाया कि कई अनुकूल-प्रतिकूल सत्ताएँ हार गई, मगर उसका ध्यान न टूटा। राजा को अपना पागलपन मालूम हुआ। उसका अज्ञान हट गया। वह उस संन्यासिनी के पैरों में गिर कर क्षमा माँगने लगा।
स्त्री ने, मानो कुछ हुआ ही नहीं है ऐसे, सहज भाव से उत्तर दिया-किसने और क्या अपराध किया है, वह मुझे मालूम ही नहीं है । मैं क्षमा क्या करूँ ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com