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बीकानेर के व्याख्यान]
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मैं अपना योग्यता-अयोग्यता अथवा शक्ति-अशक्ति का खयाल कीं। बस, इसी हेतु मैं आपका स्तोत्र करने में प्रवृत्त हो गया हूँ और अपने हृदय के उद्गार प्रकट कर रहा हूँ।
प्रश्न हो सकता है-क्या भक्ति के वश होने पर मनुष्य को अपनी शक्ति-अशक्ति का भी विचार नहीं रहता? क्या वह अपनी अयोग्यता को भी भूल जाता है ? इसका उत्तर यह है कि परमात्मा की भक्ति का तो कहना ही क्या है, सन्तान प्रेम से भी मनुष्य ऐसा विवश हो जाता है कि जिस काम को करने की उसमें शक्ति नहीं होती, उस काम को भी करने में प्रवृत्त हो जाता है ! तात्पर्य यह है कि मनुष्य के हृदय में जब तक किसी भावना की प्रबलता नहीं होती तब तक तो उसमें संकल्प-विकल्प बना रहता है, मगर जब एक भावना उत्कट रूप धारण कर लेती है तो उसके संबंध में सब प्रकार के संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं । और न केवल मनुष्यों में ही, वरन् पशु-पक्षियों में भी भावना की यह उत्कटता पाई जाती है। पशु-पक्षी भी संतान प्रेम की उत्कटता के वश में होकर अपनी शक्ति-अशक्ति का और कार्य की शक्यता-अशक्यता का खयाल भूल जाते हैं और जिस कार्य के लिए वे समर्थ नहीं है, उसी में जुट पड़ते हैं । जिस समय सिंह हिरन के बच्चे पर हमला करने के लिए उद्यत होता है, उस समय उसके माता-पिता में यह शक्ति नहीं होती कि वे सिंह का सामना करके अपने बच्चे की रक्षा कर सकें, फिर भी संतानShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com