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[ जवाहर-किरणावली
अन्याय करना और फिर उस अन्याय को गरीबों पर दया करना कहना आत्मा और परमात्मा के बीच दीवाल खड़ी करना है । जब तक यह दीवाल नहीं हटेगी और हृदय साफ नहीं होगा तब तक परमात्मा का दर्शन किस प्रकार हो सकेगा ? प्रारम्भ-परिग्रह का त्याग न कर सको तो कम से कम उपकारी के उपकार को तो स्वीकार करो।
आज समय बदल रहा है तो लोग रोते हैं, जैसे युगलिया रोते थे। यह रोना और हाय-हाय केवल भोग के लिए है। ऐश-आराम में कमी हो जाने के डर से ही यह रोना है। मगर मित्रो! भोग के लिए क्यों रोते हो ? जरा भगवान् ऋषभदेव को याद करो।
धनिक लोग सोचते हैं कि हमने पुण्य किया है। उसका फल भोग रहे हैं। अब उद्योग करने की शवश्यकता ही क्या है ? उनके कथन का आशय यह है कि जो परिश्रम न करे वह धर्मात्मा है और जो परिश्रम करके खाता है वह पापी है । यह समझ की बड़ी भूल है। अब समय पलट रहा है। समय की प्रगति को देखो और अपने धर्म का भी विचार करो। आपको सही गस्ता मिल जायगा। अगर आपका बिगड़ा हुआ नैतिक जीवन सुधर जाएगा और आरंभपरिग्रह के प्रति आपकी उग्र ममता छूट जाएगी तो परमात्मा की स्तुति आपके पापों का नाश कर देगी और आप निष्पाप बन जाएँगे । आपका कल्याण होगा।
बीकानेर,
१४-८-३०.
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