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________________ १८६] [जवाहर-किरणावली अपने दुःख का निर्माण तो तू स्वयं करता है। सिर पर अंगारे जल रहे हैं और कोल्हू में पिल रहे हैं, तब भी तत्त्वज्ञानी क्या कभी अनाथ भावना उत्पन्न होने देते हैं ? नहीं। ऐसे समय में वे जरा भी दुःख का विचार करते तो नाथ न रहते । मगर उन्होंने ऐसा विचार ही नहीं किया । वे इस विचार पर दृढ़ थे कि हम अपनी ही आत्मा की शरण लेंगे; स्वयं सनाथ बनेंगे। दूसरे को नाथ नहीं बनाएँगे। जो परिस्थिति उत्पन्न हुई है वह हमारे ही प्रयत्नों का फल है। हमारे ही प्रयत्न से उसका अन्त होगा। दीन बनकर दूसरे का आश्रय लेने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। यही नहीं, ऐसा करने से दुःख बढ़ सकता है, घट नहीं सकता। दीनता स्वयं एक व्याधि है। उसका आश्रय लेने से व्याधि कैसे मिट सकती है ? ___ मतलब यह है कि सुख, दुख, कामधेनु, बैतरणी, कल्पवृक्ष और कृट शाल्मलि आदि सब वस्तुएँ आत्मा से ही उत्पन्न होती हैं । अब यह भी देखना चाहिए कि आत्मा इन सब को किस प्रकार बनाता है ? हे आत्मा ! तू अन्तर्मुख होकर विचार कर । स्वरूप की ओर देख । तू किस प्रकार सुख बनाना है और किस प्रकार दुःख का निर्माण करता है, इस बात को भलीभाँति समझ। कब समझा जाय कि तू अपने के लिए वैतरणी बना रहा है और कब समझा जाय कि तूने नन्दन वन और कामधेनु का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034899
Book TitleJawahar Kirnawali 19 Bikaner ke Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year1949
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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