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[ जवाहर - किरणावली
लिए शुद्ध अन्तःकरण की आवश्यकता है । उस अन्तःकरण में दान, शील, तप और भावना की सामग्री भरी हो मगर हो वह पवित्र ही । इन्हें अपवित्र कर देने पर परमात्मा से भेंट नहीं हो सकतीं । कल्पना कीजिए कि आपने दान किया । लेकिन दान के साथ अगर अभिमान आ गया तो समझ लीजिए कि आपकी पवित्र वस्तु को चाण्डाल का स्पर्श हो गया ! फिर वह अपवित्र वस्तु भगवान को चढ़ाने योग्य नहीं रही । इसी प्रकार अगर स्तुति के बदले कल्दार की कामना की तो वह भी अपवित्र हो गई । वह भगवान् को अर्पण करने योग्य नहीं रही ।
लोग मनुष्य के शरीर को अछूत मानकर उससे परहेज़ करते हैं। मगर हृदय की अपवित्र वासनाओं से उतना परहेज़ नहीं करते । वास्तव में अपावन वासनाएँ ही मनुष्य को गिराती हैं और उसकी छूत से अत्यधिक बचने की आवश्यकता है ।
कामना करने से वस्तु नहीं मिलती । निष्काम भावना से क्रिया करने पर ही अभीष्ट की प्राप्ति होती है । सुसराल में जाकर अगर कोई पकवान माँगे तो कदाचित् एक बार मिल जाएँगे, लेकिन न माँगने पर जैसे बार-बार और श्रादर के साथ मिलते हैं वैसे माँगने पर नहीं मिलते। धैर्य के साथ परमात्मा में अपने मन को लीन कर दो। फिर स्वयं ही अपूर्व आनन्द का झरना बहने लगेगा। उस समय आपको अनिर्व
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