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________________ २६८ ] [ जवाहर किरणावली है कि फर्नीचर के विना इस मकान की इज्ज़त नहीं होगी और यह सोचकर वह दिखावे के लिए फर्नीचर बसा लेता है; इसी तरह लोग सोचते हैं- दुनियादारी के सब काम - काज करते हैं, अगर धर्म न करेंगे तो अच्छा नहीं लगेगा । करीब-करीब ऐसे ही विचारों से लोग धर्मक्रिया करते हैं । मगर जो धर्मात्मा है, जिसने धर्म का मर्म समझ लिया है, उसके विचार निराले होते हैं । वह सोचता है - संसारव्यवहार के काम माथे आ पड़े हैं तो मकान में फर्नीचर बसाने की तरह करने पड़ते हैं, लेकिन धर्म तो मकान ही है । फर्नीचर के चक्कर में फँसकर मकान की उपेक्षा नहीं की जा सकती । मकान ही न होगा तो फर्नीचर किसमें बसाएँगे ? जल में रहने वाली मछली खाती तो है, मगर उसके भीतर ही बाहर नहीं । वह देखती भी है, मगर जल के भीतर ही । जल के बाहर तो उसके लिए घोर अंधकार है । वह चलती-फिरती भी है, मगर जल के बाहर नहीं । इसी प्रकार जिसमें सच्ची धर्मभावना होगी वह धर्मभावना से बाहर कभी नहीं निकलेगा । उसे धर्मभावना से बाहर निकलना उसी प्रकार अरुचिकर होगा, जिस प्रकार जल से बाहर निकलना मछली के लिए रुचिकर होता है । ऐसी प्रगाढ़ धर्मभावना की प्रशंसा इन्द्र भी करते हैं । इन्द्र पौधशाला में बैठे हुए की प्रशंसा करे तब तो के।ई बात ही नहीं, मगर इन्द्र जहाज में बैठे हुए धर्मात्मा की, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034899
Book TitleJawahar Kirnawali 19 Bikaner ke Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherJawahar Vidyapith
Publication Year1949
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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