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बीकानेर के व्याख्यान ].
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अपने को दुस्सह दुःखों का पात्र बनाया है। फिर इससे ज्यादा हानि करने वाला दूसरा कौन है ?
हमारी आत्मा एक तरह से हमारा मित्र भी है और दूसरी तरह से शत्रु भी है। ऐसी स्थिति में हमारा कर्तव्य है कि हम मित्र-आत्मा के साथ भेंट करें और शत्रु आत्मा से वैर करें। शत्रु आत्मा हमें अनादि काल से ऐसे घोर कष्टों में डाले हुए है कि जिसका वर्णन कर सकना भी असंभव है। इस दुरात्मा ने हमारा जितना अहित किया है उतना अहित किसी भी दूसरे वैरी ने नहीं किया। इस दुरात्मा ने ही दूसरे बैरी पैदा किये हैं। अगर मैंने इसे दूर कर दिया तो फिर कोई वैरी ही नहीं रह जाएगा।
यह शिक्षा सभीमतों के शास्त्रों में मौजूद है। गीता भी कहती है
उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसीदयेत् । अपनी आत्मा से प्रात्मा का उद्धार करो। आत्मा से ही श्रात्मा का उद्धार होगा । जब तक तुम स्वयं तैयार न होओगे, कोई भी तुम्हें नहीं तार सकता; क्योंकि डरपोक या काय। को न तो किसी की सहायता मिली है और न मिलेगी ही । श्रीप्राचारांगसूत्र में भी कहा है
पुरिसा ! तुममेव तुम मित्त किं वहिया मिचिमिच्छासि ।
अर्थात्-अरे'नर ! तेरा असली मित्र तू स्वयं है । बाहरी मित्र की इच्छा क्यों करता है ? भारतीयों ने आध्यात्मिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com