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[जवाहर-किरणापली
चाहिए। अगर उनमें दूसरा कोई साधु आचारांग निशीथ का ज्ञाता हो तो उसे अपना मुखिया स्थापित करना चाहिए ।
मतलब यह है कि शिक्षा के साथ उच्च क्रिया लाने का प्रयत्न तो करना ही चाहिए मगर मूर्ख रहना किसी के लिए भी उचित नहीं है।
विद्वान् और मूख के बुरे और अच्छे कामों में भी कैसा अन्तर होता है, इस विषय में ग्रंथकारों ने एक दृष्टान्त इस प्रकार दिया है:
एक विद्वान् को जुआ खेलने का व्यसन लग गया था। जुश्रा के फंदे में फँसकर उसने गांठ की सारी पूँजी गँवा दी और अपनी पत्नी के आभूषण भी बेच डाले। उसकी दशा बड़ी हीन हो गई। लोग उस की बात पर विश्वास नहीं करते थे
और घर के लोग मी उसे दुत्कारते थे। __धन संबंधी आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए उस विद्वान् को चोरी करने के सिवाय और कोई मार्ग दिखाई न दिया। अन्त में लाचार होकर उसने यही करने का निश्चय कर लिया। वह सोचने लगा-चोरी किसके घर करनी चाहिए ? अगर किपी सेठ के घर चोरी करूँगा तो वह चोरी में गये धन को भी हिसाब में लिखेगा । सेठ लोग पाई-पाई का हिसाब रखते हैं । और जब-जब वह हिसाब देखेगा तब तक गालियाँ देगा। अगर किसी साधारण आदमी के घर चोरी कसँगा तो वह रोएगा। उस बेचारे के पास पूँजी ही कितनी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com