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[ जवाहर - किरणावली
स्वर्गसुख में न चहूँ देहु मुझे यों न कहूँ, घास खाय रहूँ मेरे दिल यही भाई हैं । जो तू यह जानत हैं वेद यों बखानत है, यज्ञ-जरौं जीव पावे स्वर्ग-सुखदाई है । डारो क्यों न वीर ! या में अपने कुटुम्ब ही को, मोहिं जिन जाएँ जगदीस की दुहाई हैं ||
पशुओं की यह प्रार्थना है । वे दीन से दीन स्वर में यज्ञ करने वाले से कहते हैं- क्या तुम ईश्वर के भक्त हो ? जिस वेद के नाम पर तुम हमें है। मते हो उसमें कहे हुए अहिंसा धर्म को छिपा कर हमें होमने में तुम्हारी कौन-सी बड़ाई है ? मैं स्वर्ग का सुख नहीं चाहता । मैं तो घास खाकर जीवित रहना चाहता हूँ । हे याज्ञिक ! अगर तू सच्चे दिल से समझता है कि यज्ञ में होमा हुआ जीवधारी स्वर्ग में जाता है तो अपने कुटुम्ब को ही स्वर्ग भेजने के लिए क्यों नहीं होम देता ? हम मूक पशुओं से क्यों रूठा है !
एक आदमी अपने हाथ में हरी-हरी घास लेकर खड़ा हो और दूसरा स्वर्ग में भेजने के लिए तलवार लिए खड़ा हो तो इन दोनों में से पशु किसे पसंद करेगा ? वह किसकी ओर मुँह लपकाएगा ?
'घास वाले की ओर "
इससे प्रकट है कि पशु स्वर्ग जाने के लिए भरना नहीं चाहता और घास खाकर जीवित रहना चाहता है । मंत्री Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com