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[ जवाहर किरणावली
प्रतिष्ठा आदि के लोभ से करते हैं। इस प्रकार की अशुद्ध भावना से की हुई क्रिया मनुष्य को स्वर्ग में भले ही पहुँचा दे, मगर उससे मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता ।
यह आवश्यक नहीं कि भक्ति या स्तुति के शब्द उच्च श्रेणी के हों, भाषा की दृष्टि से सुन्दर हों। ऐसा हो तो भी कोई हानि नहीं है । शब्द भले ही टूटे फूटे हों, लेकिन निन्दाप्रशंसा की परवाह न करके स्वाधीन और मिस्पृह भाव से भक्ति की जानी चाहिए ।
भक्ति करना ही भक्त का एक मात्र उद्देश्य होना चाहिए । भक्ति के लौकिक फल की ओर अगर उसकी भावना दौड़ गई तो समझ लीजिए कि भक्ति अशुद्ध हो गई । इह लोक के सुख, परलोक के चक्रवर्त्ती - इन्द्र आदि के सुख, कामभोग, जीवनमरण, इत्यादि में से किसी भी बात की इच्छा न रहे; पूर्ण निष्काम भाव से भक्ति की जाय तो महान् फल की प्राप्ति होती है। जैसे कोयल अपने गान के बदले में कुछ नहीं चाहती, उसी प्रकार आप भी भक्ति के बदले में कुछ न चाहें ।
लोग कहते हैं- कलकत्ता की गौहरजान नामक वेश्या का राग बहुत ऊँचा है । उसके गाने की फीस भी बहुत है । उसका गाना सुनने के लिए लोगों की भीड़ टूट पड़ती है । कई एक रईस तो उसके पीछे अपना घर बर्बाद कर चुके हैं।
मित्रो ! यह कितना अज्ञान है ! कैसी भ्रष्टता है ! पैसे की
लोभिनी हो और विषयों की कीड़ी हो, फिर वह कोई भी क्यों
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