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[ जवाहर-किरणावली
इसी कारण तुम्हें लगता है कि व्यापार नहीं चलता ! पन्नालालजी के मन में मुनिजी की बात बैठ गई। उसी समय उन्होंने एक आना प्रति रुपया से अधिक नफा न लेने की मर्यादा कर ली। वह कपड़े की दुकान करते थे। उन्होंने सब कपड़ों पर अंक चढ़ा कर कीमत निश्चित कर दी । प्रारंभ में तो उन्हें कुछ असुविधाओं का सामना करना पड़ा परन्तु कुछ दिनों बाद ऐसा विश्वास जमा कि लोग उन्हीं की दुकान से खरीद करने लगे। भील भी उन्हीं के ग्राहक बन गये । पन्नालालजी की ऐसी प्रतिष्ठा जमी कि लाखों रुपया खर्च करने पर भी वैसी न जमती । इस प्रकार उनका व्यापार भी खूब चमक उठा और प्रतिष्ठा भी चमक उठी। लोगों में यह बात फैल गई कि पन्नालालजी झूठ नहीं बोलते !
प्रानन्द श्रावक की सम्पत्ति मर्यादित थी। व्रत ग्रहण करने के पश्चात् उसने अपना धन नहीं बढ़ाया। इसके अतिरिक्त आनन्द का धन उसी के भोग-विलास के लिए नहीं था, वरन् दूसरे को आपत्ति के समय सहायता पहुँचाने के लिए था। एक व्यक्ति वह है जो अपने दीपक से दूसरों के दीपक को प्रज्वलित करता है और दूसरा वह है जो दूसरों के दीपकों का तेल अपने दीपक में उड़ेल लेता है। इन दोनों व्यक्तियों में जो अन्तर है वही प्रायः प्रानन्द के और माधुनिक व्यापारियों के व्यापार में अन्तर है।
कहने का प्राशय यह है कि आरंभ और परिग्रह का स्याग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com