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बीकानेर के व्याख्यान ]
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के समान निर्मल अवश्य हैं, मगर आप गुणों के सागर हैं और उनका जो बखान करना चाहेगा वह वृहस्पति के समान बुद्धिशाली होने पर भी परिमित बुद्धि वाला ही होगा ! ऐसी अवस्था में समस्त गुणों का वर्णन कर सकना किसी के लिए कैसे संभव है ? आपके गुणों का वर्णन करना इसी प्रकार असंभव है जैसे
कल्पान्तकालपवनोद्धतनक्रचक्र,
को वा तरीतुमलमम्बुनिधि भुजाभ्यां । समुद्र में जब प्रलयकाल का तूफान चलता है तब उसमें के जीवजंतुओं में उथलपुथल मच जाती है। जब ऐसा तूफान आया हो तब किसकी शक्ति है कि वह अपनी भुजाओं के बल से समुद्र को पार कर जाय ? ऐसा करना असंभव है । इसी प्रकार आपके गुणसमुद्र को कथन द्वारा पार करना मानव की शक्ति से परे है।
प्रश्न किया जा सकता है जब भगवान् की स्तुति करना इतना असंभव कार्य है तो फिर उसे आरंभ ही क्यों करते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्राचार्य कहते हैं- स्तुति के इस असंभव कार्य को क्यों प्रारंभ किया है, यह बात मेरा ही दिल जानता है। दूसरा कोई इसका मर्म नहीं समझ सकता। अगर कोई मनुष्य प्रलयकाल के तूफान से क्षुब्ध समुद्र में पड़ गया हो तो उसे उसी में पड़े-पड़े मर जाना चाहिए या किनारे लगने का प्रयत्न करना चाहिए ? समुद्र को पार करने का प्रयत्न
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