Book Title: Avashyaka Kriya Sadhna
Author(s): Ramyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
Publisher: Mokshpath Prakashan Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपूर्ण सचित्र पंच प्रतिक्रमण के सूत्र-अर्थ, पद-संपदा, उच्चार पद्धति, आदान गौण नाम. विविध मुद्रा, छंद के प्रचलित राग, तपाचारकीति दशत्रिक-जिन-पूजा विधि, प्रतिक्रमण-विधि-रहस्य इत्यादि वीर्याचारकी शुद्धि चारित्राचार की शुद्धि पच्चक्खाण सर्वाचारी कीशुद्धि कायोत्सर्ग दर्शनाचारकोशलिसामायिक प्रतिक्रमण पांच आचारमय छह आवश्यक छानादिकी शुद्धि चउव्विसन्यो वंदन संपादक-मार्गदर्शक परम पूज्य आचार्य देव श्रीमद् विजय रामचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साहब के शिष्यरत्न मुनिराज श्री रम्यदर्शन विजयजी महाराज साहब संकलक :परेशकुमार जे.शाह (शिहोरीबाले) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥शत्रुजय तीर्थाधिराज श्री ऋषभदेव स्वामिने नमः ॥ mअनंत लब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ॥ mनमामि नित्यं श्री गुरु-रामचन्द्रम् ॥ संपूर्ण सचित्र आवश्यक क्रया साधना पंच प्रतिक्रमण के सूत्र-अर्थ, पद-संपदा, उच्चारण पद्धति, आदान-गौण नाम, विविध मुद्रा, प्रतिक्रमण-विधि-रहस्य, छंद के प्रचलित राग, दशत्रिक के साथ जिन-पूजा विधि इत्यादि । प्रेरक 03632a सूरिमंत्र पंचप्रस्थानसमाराधक, सुप्रसिद्ध प्रवचनकार, पूज्यपाद आचार्यदेव 11 श्रीमद् विजय श्रेयांसप्रभसूरीश्वरजी महाराज साहब संपादक एवं मार्गदर्शक परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब के अन्तेवासी शिष्यरत्न मुनिराज श्री रम्यदर्शनविजयजी महाराज साहब संयोजक अध्यापक श्री परेशकुमार जशवंतलाल शाह (शिहोरीवाले) प्रकाशक श्री सम्यग्ज्ञानरम्य पर्षदा - मोक्षपथ प्रकाशन ५०२, नालंदा एन्कलेव, सुदामा रीसोर्ट के सामने, प्रीतमनगर के पहले ढाल में, एलीसब्रीज, अहमदाबाद-३८०००६ फोन - (0) 079-26581521 www.jainelibraryng Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपूर्ण सचित्र आवश्यक क्रिया साधना R.३८२००९ gyanmandir@kobatirth.org संपादक एवं मार्गदर्शक : मुनि श्री रम्यदर्शनविजयजी महाराज साहब संयोजक : अध्यापक श्री परेशकुमार जशवंतलाल शाह ( शिहोरीवाले) प्रकाशक : श्री 'सम्यग्ज्ञान रम्य पर्षदा' संचालित 'मोक्ष पथ प्रकाशन' एलीसब्रीज, अहमदाबाद प्रकाशन वर्ष : विक्रम संवत -२०६३, ई.सन २००७, वीर संवत - २५३३ प्रथम हिंदी आवृत्ति : ४००० प्रतिया; समर्पण समारोह : वि. सं. २०६३, मुंबई. प्रथम गुजराती आवृत्ति : ५००० प्रतिया; समर्पण समारोह : वि.सं. २०६२, अहमदाबाद, द्वितीय गुजराती आवृत्ति : ५००० प्रतिया; समर्पण समारोह : वि. सं. २०६३,मुंबई, श्रुतभक्ति का अनमोल लाभ : रु. ३००/प्राप्तिस्थान : (1) मोक्ष पथ प्रकाशन, श्री "सम्यग्ज्ञान रम्य पर्षदा, ५०२, नालंदा एन्कलेव, सुदामा रीसोर्ट के सामने, प्रीतमनगर के पहले ढाल में, एलीसब्रीज, अहमदावाद-६ फोन : (0) 079-26581521 : (2) परेशकुमार जसवंतलाल शाह जी-२, निर्मित एपार्टमेन्ट, जेठाभाई पार्क के सामने, Serving Jinshasan नारायण नगर रोड, पालडी, अहमदावाद-७. मो. 98250-74889, 9228266501 137430 (3) जैन प्रकाशन मंदिर, ३०९/४,खतरीनी खडकी, दोशीवाडानी पोळ, अहमदावाद-१. Ph. (0) : 079-25356806. (R): 079-26639275 : (4) Dilip. D. Gudhka, Akshay Book R. No. 111, 1st Floot, P.J.Mewawala Chamber, 13, Kazi Sayed Street, (Sak Galli), Masjid Bunder, (W), Mumbai-09. (M): 09224433033 : (5) सेवंतीलाल वी. जैन, Clo. श्री अजयभाई एस. जैन, डी-५२, ग्राउन्ड फ्लोर, सर्वोदय नगर, पांजरापोल पहेली गली, भूलेश्वर, मुंबई-४, फोन : 022-22404714 : (6) Khushalbhai P.Zaveri, No. 7, Vinayaka Mudali Street, Near Elphant Gate, 1st, floor, Sowcarpet, Chennai-600 079 (T.N). (7) MItesh &Moksha Sheth 12, Pollack Street, 3rd Floor, Kolkatta-700 001 (M) 98300-40578,93310-11604 (8) Shree Vardhman Jain upkaran bhandar B-5, 1st Floor, A.M. Lane, Chick pet, Banglore-560053, Ph : (0) 41149167,9449787356 डीझाईन एवं प्रिन्टींग : बोधिदर्शन ग्राफिक्स, पालडी, अहमदावाद. श्री परेशकुमार जे. शाह मो. 098250-74889, 09228266501 नोधः श्री संघ में अथवा कोई विशिष्ट धार्मिक महोत्सवादि में पारितोषिक हेतु १०० अथवा अधिक प्रतियों की आवश्यकता हो, तो प्रकाशक के पते पर पूछताछ करें। For Prate Femei Lee Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ የሰ सर्व वांछित दातारं, मोक्षफल प्रदायकम् । शंखेश्वर पुराधीशं, पार्श्वनाथ जिनं स्तुवे ।।. ሰበ ለሰ፡ VAMAVA Mea ॥ ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं धरणेन्द्र पद्मावती परिपूजिताय श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः ॥ Jain Education Internation Private & Fexsonal Use Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पुंडरिक स्वामी का चौथा चैत्यवंदन श्री शांतिनाथ प्रभु का दुसरा चैत्यवंदन सिद्धवड के पास आदिनाथ का मंदिर चिलणतालाब के पास सिन्दशिला पर काउम्सग . नलटुंक पांचवा श्री आदिनाथ प्रभु का चैत्यवंदन 1 घेटीपाग की देरी में प्रभुजी के पगले. - तीसरा श्री रायणपगलां का चैत्यवंदन 'राम, भरत थावच्चा पुत्र शुक्राचार्य और शैलकाचार्य की मूर्ति । द्राविड, वारिख्खलजी, अईमुत्ता और नारदजी की मूर्ति बाब का मंदिर श्री पूज्यजी की टुंक MMS समवसरण मंदिर - chna Mahar श्री नेमिनाथ, धर्मनाथ, कुंथुनाथप्रभु की देरी पहला जय तलेटी का चैत्यवंदन Jain&ducation in tina|| Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सचारित्र-चूडामणी, कर्मसाहित्य-निष्णात, मरुधर- भूमिभूषण, सुविशालगच्छ-प्रणेता, पूज्यपाद् आचार्य देवेश श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजा के चरणारविंद में कोटिशः वंदनावलि... संपूर्ण चित्र आवश्यक क्रिया साधना mantra करुणावरुणागारं, मोक्षमार्गस्य देशकम् । रक्षकं सत्यमार्गस्य, रामचन्द्रं गुरुं नुमः ॥ पांच साचारमय पाचारमबहावयक क्रिया साधना क नम्र सूचन इस ग्रन्थ के अभ्यास का कार्य पूर्ण होते ही नियत समयावधि में शीघ्र वापस करने की कृपा करें. जिससे अन्य वाचकगण इसका उपयोग कर सकें. भारतवर्षजवाहिर, व्याख्यान वाचस्पति, सुविशुद्ध-देशना-दक्ष, सुविशाल-गच्छाधिपति, परमशासन प्रभावक, पूज्यपाद् आचार्य देवेश श्रीमद् विजय रामचंद्रसूरीश्वरजी महाराजा के करकमल में समर्पण। Jain Education Intemational Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समता समर्पण मूर्ति, आजीवन-गुरुचरणसेवी, ज्योतिर्विद्या-मार्तण्ड, सुविशाल-गच्छनायक, पूज्यपाद् आचार्य देव श्रीमद् विजय महोदयसूरीश्वरजी महाराजा के चरणो में भावभरी वंदना । वर्तमान में वीरशासन में स्वयं श्री प्रशांत मुर्तिता, विद्वत्ता एवं पूण्य प्रभावकता से देदीप्यमान, एसे सुविशाल गच्छाधिपति पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय हेमभूषणसूरीश्वरजी महाराजा को कोटिशः वंदन. & Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुप्रसिद्ध प्रवचनकार, सूरिमंत्र समाराधक, परमकृपालु, पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय श्रेयांसप्रभसूरीश्वरजी महाराजा को वंदन.... प्रस्तुत पुस्तक के संपादक-मार्गदर्शक, सूरि रामचन्द्र के विनयी शिष्यरत्न प.पू. मुनिराजश्री रम्यदर्शनविजयजी महाराज साहब को वंदन.... lain E ction Intemational For Private Per SEO www.jainelibrary.co Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਹਨ आवश्यककिया साधना अनन्त उपकारी श्री जिनेश्वरदेव प्रणीत द्वादशांगी का प्रत्येक श्राविकाओं के द्वारा जो अवश्य करने योग्य क्रियाएँ हैं, वे अक्षर प्रभावकारी व पवित्र है । पाठसिद्ध मन्त्र का मात्र (सामायिक आदि) छह आवश्यक कहलाती हैं । सार यह है कि उच्चारण, उसके अर्थ के ज्ञान रहित होते हुए भी जिस प्रकार छह आवश्यक चतुर्विध श्रीसंघ के प्रत्येक व्यक्ति को अवश्य साधक को सिद्धि प्राप्त कराता है। उसी प्रकार द्वादशांगी के करना चाहिए। श्री तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि..."आवश्यक प्रत्येक अक्षर में पाप को धोकर आत्मा को पवित्र बनाने की की विशिष्ट आराधना में प्रमाद नहीं करनेवाली आत्मा तीर्थंकर शक्ति भरी पड़ी है। द्वादशांगी के इस महिमावन्त पदों के अर्थ नामकर्म का उपार्जन करती है।" 'मन्ह जिणाणं' की सज्झाय में भी यदि भली-भांति समझ में आ जाए तो इस परम तारक श्रावक के छत्तीस (३६) कर्त्तव्य कहे गए हैं । उसी प्रकार छह द्वादशांगी का अभ्यास, अनुष्ठानों को आशयशुद्ध तथा आवश्यकों को भी एक कर्त्तव्य के रूप में बतलाया गया है। ये विधिशुद्ध बनाने में अत्यन्त सहायक होता है । अवश्य करने छह आवश्यक कौन-कौन से हैं, यह देखते हैं। योग्य होने के कारण आवश्यक के रूप में प्रसिद्ध प्रतिक्रमण आवश्यक के सार्थक नाम क्रिया के सूत्रों का अर्थ के साथ अध्ययन किया जाए तो वह आवश्यक, अवश्यकरणीय, ध्रुव, निग्रह, विशोधि, षट् प्रतिक्रमण तथा अन्य धार्मिक क्रियाएँ भी कर्मनिर्जरा का अध्ययन, वर्ग, न्याय, आराधना तथा मार्ग । ये दस आवश्यक के अभूतपूर्व साधन बन जाती हैं । परमात्मा श्री महावीरदेव ने पर्यायवाची शब्द श्री विशेषावश्यक भाष्य में बतलाए गए हैं। केवली अवस्था में जो अर्थपूर्ण धर्मदेशना दी, उन्हें गणधर छह आवश्यकों के नाम, अर्थ तथा विवरण भगवन्तों ने सूत्ररूप में गुम्फित किया, जो आगमसूत्र के रूप में (१) सामायिक-सावधयोग की विरति । पू. साधु-साध्वीजी प्रसिद्ध हैं । आवश्यकसूत्र भी आगम कहलाता है । यह गणधर भगवन्तों ने तो जीवन भर के लिए सामायिक व्रत भगवन्त के द्वारा रचित है । परमात्मा के साथ साक्षात् सम्बन्ध स्वीकार किया होता है । श्रावक-श्राविकाओं को करानेवाले ये सूत्र मन्त्राक्षरों के रूप में अवस्थित हैं, जिसमें यथाशक्ति अधिक से अधिक सामायिक करनी चाहिए। तत्त्वज्ञान रूपी महासागर छिपा हुआ है। उसका अर्थ विशिष्ट है। पापयुक्त प्रवृत्ति के त्याग तथा पापरहित प्रवृत्ति के सेवन उसके पीछे विविध प्रकार के रहस्य भरे पड़े हैं। से सामायिक के द्वारा चारित्र गुण की शुद्धि तथा वृद्धि छह आवश्यकों की महत्ता होती है। सामायिक की प्रतिज्ञा 'करेमि भंते !' सूत्र के आवश्यक अर्थात् अवश्य करने योग्य । विश्वकल्याणकारी द्वारा की जाती है । "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! जगद्गुरु तारक तीर्थंकर भगवन्त गणधर भगवंतों को प्रश्न के देवसिअ पडिक्कमणे ठाउं?" इस सूत्र से प्रतिक्रमण की उत्तर में त्रिपदी देते हैं। (१) उपन्नेड वा-जगत के पदार्थ उत्पन्न क्रिया प्रारम्भ की जाती है। उसके बाद 'करेमि भंते !' से होने के स्वभाव से युक्त हैं। (२) विगमेइ वा-जगत् के पदार्थ 'नाणम्मि' तक की आठ गाथाओं के काउस्सग्ग तक नश्वरता के स्वभाव से युक्त हैं। (३) धुवेइ वा-जगत् के पदार्थ प्रथम आवश्यक कहलाता है। स्थिरतायुक्त स्वभाववाले हैं । इस त्रिपदी को सुनकर गणधर चउव्विसत्थो : चतुर्विंशतिस्तव-चौबीस तीर्थंकरों के नाम भगवंतों को द्वादशांगी (बारह अंग, जिसमें चौदह पूर्व भी ग्रहण पूर्वक कीर्तन । द्वादशांगी तथा छह आवश्यक के समाहित हैं।) का प्रद्योत (क्षयोपशम) होता है। यह द्वादशांगी मूल में तो तीर्थंकर परमात्मा का ही उपकार है । उन्हें कभी ज्ञानात्मक (ज्ञानस्वरूप) है । परन्तु उसका सार क्रियात्मक भुलाया नहीं जा सकता है। लोगस्स सूत्र' के द्वारा २४ (क्रियास्वरूप) छह आवश्यक हैं। तीर्थंकरों की स्तवना की जाती है। उसके द्वारा दर्शन गुण चतुर्विध श्रीसंघ स्वरूप साधु-साध्वी तथा श्रावक की शुद्धि तथा वृद्धि होती है । 'नाणम्मि' की आठ श्राविकाओं को यह क्रियात्मक छह आवश्यक अवश्य करना गाथाओं के काउस्सग्ग के बाद लोगस्स सूत्र बोला जाता चाहिए । विशिष्ट तप, लाखों रुपयों के दान आदि न हो सके तो है। यह लोगस्स' द्वितीय आवश्यक कहलाता है। अधिक चिन्ता की बात नहीं है, परन्तु सामायिक आदि छह । (३) वंदन-सद्गुरु को वंदन । ज्ञान चारित्र तथा तप में वीर्य आवश्यक तो नियमित रूप से करने ही चाहिए । इसीलिए (उत्साह-पराक्रम) दिखलाते हुए सद्गुरु को प्रतिदिन सामायिक आदि छह क्रियाओं को आवश्यक कहा गया है। दिन वंदन करना चाहिए । तीर्थंकरों की वाणी हमें सद्गुरु तथा रात्रि के अन्तिम प्रहर में साधु-साध्वी तथा श्रावक- भगवंतों से प्राप्त होती है। अत: उनके प्रति विनय प्रदर्शित Jailed cation Interational Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना चाहिए। क्योंकि इसके द्वारा ज्ञानादि (६) गर्हा-चारित्रपालन में लगे हुए दोषों की गुरु आदि की गुणों की विशुद्धि और वृद्धि होती है । साक्षी के द्वारा निन्दा करना । (७) शुद्धि-विविध प्रकार के "लोगस्स" के बाद मुहपत्ति पडिलेहण तथा प्रायश्चित के द्वारा चारित्र के दोषों को दूर करना । इस प्रकार दो वांदणा दिये जाते हैं । यह तीसरा प्रतिक्रमण आवश्यक के अन्य पर्यायवाची शब्द सम्भव हैं, आवश्यक कहलाता है। परन्तु उन सब का अर्थ एक ही है- अप्रशस्त भावों से पीछे (४) प्रतिक्रमण- की गई भूलों से विराम की प्रक्रिया । मूल मुड़कर प्रशस्त भाव में आना। गुणों अथवा उत्तर गुणों में हुई स्खलना (भूल) की प्रतिक्रमण आवश्यक से होनेवाले लाभ आत्मा की साक्षी में निन्दा करना । गुरुभगवंतों के पास प्रश्न : हे भगवंत ! प्रतिक्रमण से जीव को क्या प्राप्त होता है? गर्दा (निन्दा) करना तथा गुरुभगवंत के पास आलोचना उत्तर : हे गौतम ! प्रतिक्रमण से जीव के व्रत में होनेवाले छिद्र (कथन) करना । यह प्रतिक्रमण नामक आवश्यक आवश्यक भर जाते हैं। व्रत के छिद्र भर जाने के कारण आश्रव का निरोध कहलाता है । इसके द्वारा मूल तथा उत्तर गुणों की होता है। आश्रव का निरोध होने से चारित्र निर्दोष बनता है तथा विशुद्धि तथा वृद्धि होती है । वांदणा के बाद निर्दोष चारित्रवाला जीव अष्टप्रवचनमाता के पालन में उपयोग "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! देवसिअं आलोउं ? से युक्त बनकर संयम में अनन्यरूप से सुप्रणिधान पूर्वक विचरण 'आयरिय उवज्झाये' तक चौथा आवश्यक कहलाता है करता है। (उत्तराध्ययनसूत्र-अध्ययन-२९) ।" (पक्खी-चौमासी तथा संवत्सरी प्रतिक्रमण का चौथे जिज्ञासा : प्रतिक्रमण की क्रिया योगस्वरूप क्यों कहलाती है? आवश्यक में समावेश होता है।) तृप्ति : सच्चा योग मोक्षसाधक ज्ञान तथा क्रिया उभयस्वरूप है। (५) काउस्सग्ग- स्थान से, मौन से तथा ध्यान से काया का भगवान् श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज 'योग विंशिका' नामक त्याग । भावप्राण को जलानेवाली राग-द्वेष रूपी अग्नि ग्रन्थरत्न में कहते हैं किकी शान्ति के लिए तथा दर्शन-ज्ञान व चरित्र की मखेण जोयणाओ जोगो सव्वोवि धम्मवावारो आराधना के निमित्त काउस्सग्ग करना चाहिए । मोक्षेण योजनाद्योगः सर्वेऽप्याचार इष्यते। काउस्सग्ग के द्वारा वीर्याचार की विशुद्धि तथा वृद्धि भावार्थ : जीव को परम सुखस्वरूप मोक्ष के साथ होती है। "आयरिय उवज्झाये" के बाद दो लोगस्स तथा जोड़नेवाला, सम्बन्ध करानेवाला सभी साधु-भगवंतों का एक-एक लोगस्स का काउस्सग्ग करना होता है । यह भिक्षाटनादि तथा उपचार से श्रावकों का भी हर प्रकार का पाचवा आवश्यक कहलाता है। धर्मव्यापार-सर्व प्रकार का धर्माचरण योग है। दूसरे शब्दों में (६) पच्चक्खाण- मर्यादापूर्वक की प्रतिज्ञा । त्याग रूपी गुण विचार किया जाए तो मोक्ष में कारणभूत आत्मा का सम्पूर्ण को विकसित करने तथा प्रत्येक कार्य की सिद्धि हेतु व्यापार ही सचमुच में योग कहलाता है । अथवा पच्चक्खाण (प्रतिज्ञा) का सहारा होना आवश्यक है। धर्मव्यापारत्वमेव योगत्वम्-धर्मव्यापार ही योग का उत्तम लक्षण पच्चक्खाण से तपाचार की विशुद्धि तथा वृद्धि होती है। है। इस लक्षण से युक्त प्रतिक्रमण की क्रिया सच्ची योगसाधना वीर्याचार की शुद्धि होती है। प्रातःकाल नवकारशी तथा है । इसके अतिरिक्त मात्र आसन, प्राणायाम, ध्यान, धारणा सन्ध्याकाल में चौविहार का पच्चक्खाण लिया जाता है। अथवा समाधि की क्रिया मोक्षसाधक योग स्वरूप बनती है उसके द्वारा तपाचार का पालन होता है। ऐसा नियम नहीं है । मोक्ष के ध्येय से होनेवाली अष्टांगयोग की काउस्सग्ग के बाद पच्चक्खाण ग्रहण-स्मरण-धारण प्रवृत्ति को जैनाचार्यों ने मान्यता दे रखी है। फिर भी उसमें दोष आदि किया जाता है।" यह छट्टा आवश्यक कहलाता है। तथा भयस्थान विद्यमान हैं। वह भी बतलाया गया है। इस प्रकार छह आवश्यकों के द्वारा ज्ञानाचार, दर्शनाचार, जैन सिद्धान्त कहता है कि किसी भी आसन में तथा किसी चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार, इन पाच आचारों की भी (बैठे, खड़े, सोए ) अवस्था में मुनि केवलज्ञान तथा मोक्ष विशुद्धि तथा वृद्धि होती है। प्राप्त कर सकते हैं। इसके सम्बन्ध में कोई निश्चित नियम नहीं है। प्रतिक्रमण आवश्यक के नियम मात्र परिणाम की विशुद्धि का है। परिणाम की विशुद्धि पर्यायवाची शब्द तथा विवरण जिस प्रकार हो, उसी प्रकार का वर्तन करना चाहिए । कर्मक्षय (१) प्रतिक्रमण-अप्रशस्त योग में से पीछे मुड़ना । (२) अथवा मोक्षलाभ का यह असाधारण कारण (उपाय) है और प्रतिचरणा-संयम की परिचर्या करनी। (३) प्रतिहरणा-चारित्र वही वास्तविक योग हैं। प्रतिक्रमण की क्रिया परिणाम की की रक्षा के लिए असावधानी को छोड़ देना । (४) वारणा- विशुद्धि का एक अनुपम उपाय है। अतः वह भी एक प्रकार का इन्द्रियों को विषय वासना विमुख करना (रोकना) । (५) योग ही है और साथ ही मोक्ष का कारण है। इस आलम्बन को निवृत्ति-चारित्रपालन में लगे हुए अतिचारों से निवृत्त होना ।' लेकर हम शीघ्र निरालम्बी बनें इसी अन्तर्भाव के साथ...... Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकोत्तर साधना का सक्ष्मावलोकन सम्पादक की कलम से इस नश्वर शरीर के माध्यम से शाश्वत आत्मा के स्वरूप मेरे सर्व आत्मप्रदेश भी कर्मरहित हो, ऐसी शक्ति हमें देना" ऐसी की प्राप्ति हेतु जिनशासन की अनुपम साधना का आलम्बन भावना करनी चाहिए।" लेना चाहिए । ऐसे शास्त्रोक्त वचन अनेक स्थान पर देखने उपकरण के रहस्यों के सम्बन्ध में कटासना लम्बचोरस के को मिलते हैं। छोटे बालकों से लेकर वयोवृद्ध आराधक बदले समचौरस होना चाहिए । समता की साधना करने के लिए साधना करते रहते हैं। परन्तु उनमें कितनी अज्ञानता तथा एक बैठे हुए आराधक में विशेष प्रकार की शुभ-शुद्ध ऊर्जा उत्पन्न दूसरे का देखकर करने की वृत्ति के कारण विभिन्नता देखने होती रहती है। जब पालथी लगाकर बैठते हैं, तब घुटने का भाग को मिलती है। उसका मुख्य कारण साधना के रहस्य तथा बाहर रहने के कारण ऊर्जा के बाहर फैल जाने की सम्भावना गूढार्थों का अल्पज्ञान है । जिसके कारण साधना करने के रहती है, जब कि समचौरस में वैसा नहीं होता है । अतः बावजूद भी पर्याप्त भावोल्लास जागृत नहीं होता है । ऐसे समचौरस-अखण्ड, शुद्ध ऊन व सफेद कटासना होना चाहिए। संयोगों में जैन शासन के आराधकों को साधना का रहस्य मुहपत्ति भी सूती, सफेद व जिसका एक किनारा बंद हो, तथा गूढार्थों का ज्ञान सरल भाषा में प्रस्तुत करना आवश्यक वैसी तथा १६ अगुल की होनी चाहिए । चरवला भी दंडी २४ होने के कारण इस पुस्तक को प्रकाशित करने का पुरुषार्थ अंगुल की+८ अगुल की दशी अथवा दंडी+दशी का कुल माप किया गया है। | ३२ अगुल का होना चाहिए । (खड़े रहे हुए किसी भी आराधक प्रस्तुत पुस्तक में शुद्ध उच्चारण का विशेष ध्यान रखा के हाथ की ऊगली से पैरों के तलुए तक का माप प्रायः ३२ गया है । साथ ही मुद्राज्ञान-छंदज्ञान इत्यादि विषयों का अगुल का होता है।) चरवले से कमर से नीचे का तथा मुहपत्ति वर्णन सरल भाषा में किया गया है। सामायिक के उपकरण से कमर के ऊपर के अंग-उपांगों का प्रमार्जन करना चाहिए। तथा प्रभुभक्ति हेतु उपयोगी 'दशत्रिक' का सुन्दर आलेखन कटासने के ऊपर पैरों का स्पर्श होने के कारण उसके ऊपर किया गया है। प्रत्येक क्रिया करते समय शरीर की शास्त्रोक्त पुस्तक, नवकारवाली, मुंहपत्ति-ज्ञान के उपकरण आदि नहीं अवस्था सुन्दर चित्रों के द्वारा जैन शासन में प्रथम बार दी गई रखने चाहिए । चरवले की डंडी में घुघरी-चाबी, नवकारवाली है । जिससे अल्पायु के साधक प्रारम्भ से ही शुद्ध क्रिया तथा ज्ञानोपकरण नहीं रखना चाहिए । मुहपत्ति को किसी भी सीख सकते हैं, इसके अतिरिक्त क्रियाओं के ज्ञाता भी इस प्रकार की पुस्तक-ज्ञानोपकरण तथा कटासना में साथ नहीं पुस्तक की सहायता से शुद्ध क्रिया कर सकते हैं। रखनी चाहिए। उदाहरण:-"खमासमणा' देते समय जब पाचों अंग ऐसी अनेक बातों का संग्रह इस पुस्तक में किया गया है। एकत्र हों, तब त्रसकाय जीवों की विराधना की सम्भावना से चातुर्मास के समय जिनवाणी के माध्यम से पर्वाधिराज पर्युषण बचने हेतु पीछे से ऊचा नहीं होना चाहिए.....।" "वंदना करते से पहले तथा उन दिनों कभी-कभी आराधना हेतु आनेवाले समय 'अहो कायं' आदि बोलते हुए दसों ऊंगलिया मुहपत्ति श्रावकों को यथोचित समय पर क्रिया का कुछ आंशिक वर्णन (रजोहरण) तथा मस्तक-प्रदेश को स्पर्श करना चाहिए तथा करते समय श्रावकों के मुख से सहज व्यवहार से निकलने वाला 'संफासं, खामेमि' बोलते समय नीचे झुकते हुए पीछे से हृदयोद्गार तथा अनुपम आनन्द की अविस्मरणीय बातें आज शरीर को ऊपर नहीं उठाना चाहिए....।" "योगमुद्रा में दोनों भी याद करने से सारे शरीर में रोमांच हो जाता है । बस उस हाथों की ऊंगलिया एक दूसरे के अन्दर तथा कुहनी को आत्मिक आनन्द का रसास्वाद समस्त जैन संघ के महानुभाव एकत्र कर पेट पर रखना चाहिए । उस समय नाभि प्रदेश के अनुभव करें, ऐसी भावना वर्षों से मन में रमण कर रही थी। पास स्थित सदा सर्व कर्म रहित आठ रुचक प्रदेशों की भांति उन्हीं दिनों जामनगर चातुर्मास के दौरान श्रद्धेय पण्डित श्री १० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परेशभाई भी ऐसी ही कोई पुस्तक प्रकाशित करने की भावना | आचार्यदेव श्रीमद् विजय श्रेयांसप्रभसूरीश्वरजी महाराजा की के साथ मुझसे मिले । अतः उस पुस्तक में मार्गदर्शन देने तथा शीतल छाया में पालीताणा में प्रारम्भ हुआ। उन्ही की प्रेरणा से उसका सम्पादन करने की सहमति उन्हें दे दी तथा इस भगीरथ प्रस्तुत पुस्तक का आलेखन संभवित हुआ है। कार्य का प्रारम्भ देव-गुरु की कृपादृष्टि से हो गया। परमशासन-प्रभावक, सुमधुर-देशनादक्ष, परमश्रद्धेय, सत्यमार्ग-प्ररूपक, सुविशुद्ध-क्रियामार्गदर्शक, शरणागतवत्सल, कृपासागर, सुविशाल गच्छाधिपति, अनंतोपकारी, परमशासन-प्रभावक, परमतारक-गुरुदेव, पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय हेमभूषणसूरीश्वरजी परमाराध्यपाद, पूज्य आचार्यदेवेश श्रीमद् विजय महाराजा की कृपादृष्टि की सतत वृष्टि भी इस सुकत का एक रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की अनवरत बरसती दिव्य कृपादृष्टि अविभाज्य अंग है। से तथा वात्सल्यसागर, आजीवन-गुरुचरणोपासक, प्रस्तुत पुस्तक के सम्पादन द्वारा शुद्ध आत्मस्वरूप को समर्पणमूर्ति, समतासाधक, करुणासिन्धु, सुविशाल-गच्छ- प्राप्त करूं तथा जीवन के अन्तिम क्षणों तक चित्त-प्रसन्नतामय अधिनेता, परमोपकारी, पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय समाधि-साधक बनू, परमात्मा से यही..... महोदयसूरीश्वरजी महाराजा की अनुपम दिव्यदृष्टि से अस्वस्थावस्था में भी इस पुस्तक का सम्पादन कार्य करने में समर्थ हो सका हूँ। प्रथम आवृत्ति का गुजराती भाषा में आलेखन करने का शुभारम्भ सरल स्वभावी पूज्य पंन्यास श्री भव्यरत्नविजयजी गणिवर की शुभ निश्रा में जामनगर में हुआ । वह पुस्तक समस्त श्री जैनसंघ को समर्पण (विमोचन) करने का विशिष्ट कार्यक्रम तथा द्वितीय गुजराती आवृत्ति के साथ प्रथम हिन्दी लि. आवृत्ति का शुभारम्भ व शास्त्रीय विशिष्ट मार्गदर्शन आदि पूज्यपाद आचार्यदेवेश श्रीमद् निःस्पृह उपकार की वृष्टि करने वाले परमशासन-प्रभावक, वि.सं. २०६३ विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी प्रसिद्ध-प्रवचनकार, सूरिमन्त्र-पंचप्रस्थान-समाराधक, विशुद्ध निज. ज्येष्ठ सुद-३, महाराजा का चरणोपासक क्रिया-उपासक, शरणागत हितचिन्तक, परमोपकारी पूज्यपाद मुंबई-४००००६. मुनि रम्यदर्शन विजय AN प्रकाशकीयो निवेदन ____ जिनशासन के समस्त आराधकों के लिए उपयोगी बने तथा विधिशुद्धता के आग्रह के साथ जिनाज्ञा के अनुसार सारे अनुष्ठान सम्पन्न हों, इस शुभ तथा शुद्ध आशय से प्रस्तुत पुस्तक प्रकाशित करने का निर्णय किया गया है। इसमें 'सरिरामचन्द्र' के शिष्यरत्न प्रवचनकार, पूज्य मुनिराज श्री रम्यदर्शन विजयजी महाराज साहब ने अपनी अस्वस्थता के बावजूद भी पूर्ण मार्गदर्शन देकर सम्पादन कार्य किया है। हम उनके प्रति आभारी हैं साथ ही हमारी संस्था के मैनेजिंग ट्रस्टी श्रद्धेय पण्डित श्री परेशभाई जसवंतलाल शाह (शिहोरीवाले) ने जिस सम्पूर्ण उत्साह के साथ तथा अत्यन्त परिश्रम से धैर्यपूर्वक संयोजन कर यह पुस्तक तैयार किया है, उसे स्मरण कर हम आनन्द का अनुभव करते हैं। इस शुभ अवसर पर पुस्तक प्रकाशन में सुकृत के सहभागी सभी श्रुतज्ञानोपासक दानवीर महानुभावों का भी हम कृतकृत्य भाव से आभार मानते हैं । अन्त में इस पुस्तक के माध्यम से समस्त आराधकवर्ग जिनाज्ञा के अनुसार आराधना करनेवाले बनें, यही शुभकामना है। ल. सम्यग्ज्ञानरम्यपर्षदा संचालित मोक्षपथ प्रकाशन के समस्त टस्टीगण पंडितवर्य श्री चन्द्रकान्तभाई एस. संघवी, पाटण श्रेष्ठिवर्य श्री मोहनभाई प्रभुलाल मालू, अहमदाबाद अध्यापक श्री परेशकुमार जे. शाह, अहमदाबाद श्रेष्टिवर्य श्री अरविंदभाई रमणलाल शाह, U.S.A. श्रेष्ठिवर्य श्री संजयभाई भरतभाई कोठारी, अहमदाबाद श्रेष्ठिवर्य श्री मितेशभाई चंद्रकांतभाई शेठ, कलकत्ता श्रेष्ठिवर्य श्री प्रदीपभाई कचराभाई शाह, अहमदाबाद | श्रेष्ठिवर्य श्री मोक्षभाई चंद्रकांतभाई शेठ,कलकत्ता Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जगदुर्जगदुपकृतिधुरीणाः कर्मारपारीणाः प्ररूपणानिपुणाः , परिभाषया प्रयुज्यते प्रतिक्रमणं प्रथम चरमयोर्जिनयोः शासने भगवन्तोऽर्हन्तः सर्वं पदार्थसार्थं सर्वथा सर्वत्र सर्वदा सदैव कर्त्तव्यम्, मध्यमानां च द्वाविंशतेर्जिनानां शासने सर्वजनीनतया परमार्थतया च । परमश्चासौऽर्थो न धर्ममृते, धर्मश्च यावदतिचारमाचरणीयम् । यतः पञ्चमारे वर्तमाने नाऽहिंसां विना,अहिंसाचन ज्ञानमन्तरा। वर्द्धमानजिनशासने प्रतिदिनान्तं प्रतिनिशान्तं प्रतिपक्षान्तं ज्ञानं तु तदेव यदात्यन्तिकमनन्तमनुपाधिकममलञ्च प्रतिचातुर्मासान्तं प्रतिवर्षान्तं तत् प्रतिक्रमणमवश्यमेव विधिवद् तदाऽवस्था च ज्ञानस्य न सम्भवति कर्ममर्मविध्वंसनाभावेन । वयं विधेयंसुविहितैः श्रमण-श्रमणी-श्रावक-श्राविकाजनैः॥ च किल तथाविधं ज्ञानं ज्ञानांशमपि नो दध्महे । तन्निमित्तं तत्प्रतिक्रमणं राइअं-देवसिअं पक्खिअं चाउम्मासिअं चावश्यकं निष्कलसकलाविकलशाश्वतज्ञानवज्जिनपुङ्गवान् संवच्छरिअं चेति पञ्चविधस्वरूपमिति पञ्चप्रतिक्रमणसन्निधातुं, सन्निधानमपि जगति केषामपि द्विधा भवति प्रत्यक्षं मित्यप्युच्यते।। परोक्षं चेति। तस्य पञ्चप्रतिक्रमणस्य अवश्याचरणीयस्य सविध्यान चाऽत्र भरतक्षेत्रे पञ्चमे च दुःषमविषमे करालकाले चरणार्थं यानि सूत्राणि समुपयुक्तानि, तान्यनेकैर्मेधाविभिकेवलालोकभास्करास्तीर्थकराः, तन्न क्षमाः वयं तेषां प्रत्यक्षतः मुनिभिर्स-पादितानि प्राज्ञैश्च पण्डितैः प्रकाशितानि । तेषु स सन्निधानमाधातुम्, तथाऽतः कर्त्तव्यतामास्कन्दति परोक्षतया मुद्रितप्रकाशितेषु पञ्चप्रतिक्रमणसूत्रग्रन्थेषु वैविध्यं विद्यते-यथा सन्निधानं तेषां परमेश्वराणां, परोक्षसन्निधानं खलु, केचिन्मूलत एव, केऽपि तदर्थसमेताः, केचन प्रतिक्रमणप्रणिधानाभिधानवाच्यं, प्रणिधानं च तदाज्ञानुगमनेन, क्रियाविधिपुरस्सराः केऽपि तु सविर आज्ञानुगमनं तु आज्ञानुसारमाचार एव । साज्ञामाचार एव कतिपयास्त कया रीत्या को विधिविधेय इति विधिदर्शयदशिवाय, तद्वैपरीत्येन स भवाय । प्रोक्तमेतत् कलिकालसर्वज्ञेन भिश्चित्रैश्चित्रकरा इति । तेषु विविधैर्विधि-विद्भिर्विद्वद्भिः प्रभुणा हेमचन्द्राचार्येण। प्रकाशितेषु प्रतिक्रमणसूत्रग्रन्थेषु प्रकाश्य-मानमिदं आज्ञाऽऽराद्धा विराद्धा च शिवाय च भवाय च । "आवश्यक-क्रियासाधनासूत्रम् सचित्रम्" पुस्तकं सविशेष (वीतरागस्तोत्र) चेतोहरंसम्पत्स्यते स्वकीयविविधवैशिष्ट्येन। तथाप्रकारः शिवप्रदानप्रधानः सम्यगाचारो वैविध्यमस्येदं यथा :विरतिधर्मभूतः तत्राऽप्यावश्यकक्रिया प्रधानतमा । धर्मस्य ( सूत्रमस्खलितमुच्चारणीयमित्यत्र सगुरुलघुताविधेयत्वेन बालानां व्यवहारनयप्रधानत्वात् तीर्थस्थापनानन्तरं माश्रणीया, अतोऽस्मिन् सम्पादने सूत्राणां पदगणभृद्वरैराधितत्वाच्च। संपदा-गुरु-लघुवर्णादिकं सुस्पष्टतामाटीकते। सा षड्विधा - सामायिक, चतुर्विंशतिस्तवः, वन्दनकं, सूत्रप्रप्त्यै सूत्राभिधानं प्रधानम्-अतोऽस्मिश्च सूत्राणि प्रतिक्रमणं, कायोत्सर्गः, प्रत्याख्यानं चेति। त्रैविध्येनाऽभिधानमादधति, तत्रैविध्यं (१) गौणं आवश्यकस्य कर्तव्यस्य क्रिया आज्ञाप्रतिषिद्धेभ्यः (२)आदानं(३)शास्त्रायंचेति। पापेभ्यः निर्वृत्तिरूपा, आवश्यकस्य आज्ञाविहितस्य प्रवृत्तिरूपाः तत्र गुणनिष्पन्नं नाम गौणं, व्यवहारप्रवर्त्तकमपि नाम च, तयोर्द्विविधयोः क्रिययोर्फलं पापविध्वंसनरुपमेव हि, न गुणीभूतमतः सर्वैरादीयमानमादानं नाम, पापप्रतिक्रमणरूपैवेत्यावश्यकक्रिया, प्रतिक्रमणमिति यच्चावश्यक सूत्र-वृयादौ प्रयुक्तं तत् शास्त्रीयं, Personal Use Only www.jainelibrary Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) एवम-भिधानत्रैविध्यमत्र प्राज्ञानां प्रज्ञामाकर्षति। प्रथमं तु भरतेऽत्र क्षेत्रे प्रथमोपकारि-प्रथमनिग्रंथनाथकेन छन्दसा कथं रीत्या च सूत्राणीमानि प्रोच्यानि, नाभिनंदनजिनस्य भव्यत्वमुद्राप्रदानक्षम विमलाचलतन्निमित्तं छंदोऽभिधानं सूत्राणिमण्डयति। महातीर्थमण्डनस्य चित्रं, तच्च यथावदखिलतयाऽद्रेरस्य अत्रसत्रगतानां संयक्तव्यंजनानामच्चारणविधिरपि विविधशिखराणां तद्गतानां च जिनालयानां सक्ष्मालेख्यता विधेयतामादधाति, यथाच्छंदो व्यंजनादीनां चक्षुषामाक्षेपदक्षत्वमीक्षितृणामाक्षिपति एकञ्च शङ्केश्वरपुरवरायथावदुच्चारणत एवार्थप्रतीतिरिति प्रथमतः धीश्वरपार्श्वदेवस्य चित्रं भक्तचेतांसि भक्त्योल्लासपूरेणाप्लावयति, सूत्रशकलस्य तदनन्तरं सकलसूत्रस्याऽर्थः सम्यक् । द्वितीयं यथामुद्रं विधिदर्शकानि चित्राणि विधिप्रकटीकृतः। विधीत्सनामपयक्तानि, तत्र क्षमाक्षमणसत्रस्य, मख सूत्रेषु वर्णोच्चारणविषयेऽल्पमेधसां बालानां वा वस्त्रिकाप्रतिलेखनायाः, वन्दनकसूत्रस्य, ईर्यापथिकीसूत्रस्य, कतिपयाऽशुद्धिरनाभोगेनावश्यं शक्येति मत्वाऽत्र चतुर्विंशतिस्तवस्य, जगचिन्तामणिसूत्रस्य, शक्रस्तवस्य एवं पुस्तके साभिप्रायमशुद्धिप्रदर्शनपूर्वकमेव शुद्धि- बहुविधानां सूत्राणां चित्राणि प्रतिपदमर्थोद्योतकराणि सन्ति। बुद्धेरादर्श प्रदर्शिता सम्पादकमहोदयेन। सविशेषमत्र पुस्तके प्रतिक्रमणसूत्राणां छंदसां विस्तृतं सूत्रेष्वक्षरोच्चारणशुद्धिविधिबुद्धावधार्यार्थप्राधान्यं विवरणं विदुषां मुदुन्मेषं प्रथयिष्यति । तत्र छन्दसां च धियामाधाय सुधीः प्रतिक्रमणक्रियाचिकीः कथं लक्षणाभिधायकं गणसूत्रं छन्दसो गणानां विस्तारः, सूत्रत प्रतिक्रमणाऽऽचारमाचरेदिति सर्वावश्यकक्रियायाः एवोदाहरणं, केषुचित् केन रागेण गीयते इत्यपि सूचितमस्ति। विधेर्विधानमभिहितं । तद्यथा (१) नवपदविधिः एवमनेकप्रकारैर्नूतनसँयोजनैरिदं प्रकाशनं सर्वेषां स्थापनाचार्यस्य स्थापनोत्थापनयोविधिः, (२) प्रतिक्रमणसूत्राध्येतृणां प्रतिक्रमणसूत्राणामर्थावबोधोच्चारणसहेतुविवरणं गुरुवन्दन-चैत्यवन्दनयोर्विधिः, विधिज्ञानछंदोविच्छित्तिप्रभृतिषु जिज्ञासापूर्ति विरचयि-तुमलं मुखवस्त्रिकाप्रतिलेखनाविधिः, (४) सामायिका- भविष्यति। वश्यकस्यादानमोचनयोर्विधिः, (५) प्रत्याख्यान- अत एते सम्यगावश्यकक्रियायाः साधनां समाहितेन सूत्राणां सविस्तारा सार्था विधिः। चित्तेन सविधि विधाय, दोषक्षयं च कृत्वा निरन्तरमात्मदैवसिक-रात्रिक -पाक्षिक-चातुर्मासिक- सौख्यलीनाः भव्याः भवेयुरित्यभिलषामि। सांवत्सरिक-प्रतिक्रमणयोर्हेतुगर्भोऽखिलविधिः। अत्र किञ्चिदप्यर्हदाज्ञाविरुद्धं, तत्र मम प्रज्ञापराधो मयि चित्राणि स्पष्टतयाऽर्थभावमाविर्भावयन्ति, ततोऽत्र महतोपरोधेन विबुधैः समाधेय इति। सम्पादने सूत्राणां भावार्थं स्पष्टयितुमान्वितानि समुचितानि चित्राण्यपि सबालाऽबलानां चतुराणां चेतांसि चित्रीयन्ते। अमदावाद (३) (८) अमृत पटेल EnEducation international www.inelibra 3 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः ॥ प्रस्तावना नन्तानन्त परमतारक परमात्मा के द्वारा प्ररूपित प्रभुशासन विश्व में अद्वितीय-अमूल्य तथा प्रभु के समान ही परमतारक है। प्रभुशासन का छोटे से छोटा संयोग भी यदि मिले तो वह अमूल्य है । वह योग परमशाश्वत सुख का बीज है । इसीलिए पंचसूत्र के प्रथमसूत्र का नाम पापप्रतिघात तथा गुणबीजाधान रखा गया है । ज्ञानी-पुरुषों के वचन त्रिकरण शुद्ध आवश्यक क्रियाओं के माध्यम से गुणबीजाधान शीघ्र होता है । आवश्यक क्रियाओं की विधि शुद्ध करने के लिए सूत्रों के सूक्ष्म ज्ञान तथा सूत्र के सूक्ष्मार्थ का विचार करना आवश्यक है। जिनशासन की प्रत्येक आराधना षडावश्यकमय है । परमात्मा की रथयात्रा हो या प्रतिक्रमण रूप अनुष्ठान हो, प्रत्येक आराधना में सूक्ष्म विचारणा से षडावश्यक हो सकता है। श्री विशेषावश्यक भाष्य (गाथा-८७३) में आवश्यक शब्द के विविध अर्थ तथा पर्यायवाची शब्दों का विशद वर्णन किया गया है। जिनशासन में आवश्यक का मूल्य अत्यधिक है । शरीर के प्रमादभाव को दूर करने के लिए तथा आत्मा में उर्जा प्रगट करने के लिए आवश्यक क्रियाएँ अनिवार्य हैं। सूत्रों से व्याप्त इन क्रियाओं में सूत्रशुद्धि अत्यन्त आवश्यक है । सूत्र शुद्धि हेतु उच्चारज्ञान, पदज्ञान, वर्णज्ञान, अर्थज्ञान, संपदाज्ञान, छंदज्ञान इत्यादि अत्यन्त आवश्यक हैं । प्रस्तुत पुस्तक इन सारी की सारी आवश्यकताओं को पूर्ण करने में सक्षम है । विशेष में, प्रत्येक सूत्र में उच्चारण की शुद्धि के लिए संयुक्ताक्षरवाले पदों को अलग करके बतलाया गया है। प्रस्तुत पुस्तक में जिनशासन के इतिहास में प्रथमवार छन्दज्ञान के साथ प्रत्येक सूत्र को दर्शाया गया है। श्रीसंघ में छन्दों का ज्ञान यदि शिष्य-परंपरा की अभ्यास प्रक्रिया में प्रारम्भ कर दिया जाए तो अभ्युदय होकर रहेगा। अप्रशस्त भावों की उपशान्ति तथा शुभभावों की उपलब्धि सहज हो जाएगी । छंदों के नियमों के साथ-साथ स्तवन सज्झाय-स्तुति-स्नात्रपूजा आदि प्रचलित रागों के साथ समन्वय कर कठिन विषय को सरल बनाने का प्रयत्न किया गया है, जो प्रशंसनीय है । इसके अतिरिक्त खमासमण-अब्भुट्ठिओ-इच्छामि ठामि-वांदणा-सात-लाख जैसे जो गद्यात्मक सूत्र हैं, जिनकी सम्पदा आगमग्रन्थों में प्रसिद्ध नहीं थीं (अश्रुतप्रायः थीं), उन सूत्रों की संपदा भी बतलाई गई हैं। इसके अतिरिक्त जिनपूजा का वर्णन-सम्यग्ज्ञान-चारित्र के उपकरण-खमासमण-वांदणा-अब्भुट्टिओ आदि के आसन कैसे हों, मुद्राएँ कैसी हों तथा कौन-कौन से पदों में कौन-कौन सी विधि करनी चाहिए -मुंहपत्ति-शरीर पडिलेहण विधि इत्यादि का सुरम्य चित्रसंपुट के द्वारा हूबहू ज्ञान जिनशासन में सर्वप्रथम बार इस पुस्तक में है, पुस्तक को रसप्रद-आनन्दप्रद-ज्ञानपद तथा बालभोग्य बनाने का सुकृत पूज्य मुनिराज श्री रम्यदर्शन विजयजी महाराज साहब ने अस्वस्थता में भी प्रसन्नतापूर्वक किया है, जो अत्यन्त प्रशंसनीय है । संकलक-संयोजक श्री परेशभाई जे. शाह ने सकल श्रीसंघ को यह अनमोल साहित्य अर्पण कर अनन्य भक्ति की है। वह अत्यन्त स्तुत्य है। प्रस्तुत पुस्तक का हम सुन्दर उपयोग कर, आवश्यक क्रिया तथा जिनपूजा से सम्बन्धित अज्ञानता रुप अन्धकार को दूर कर, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की विशुद्ध आराधना के प्रभाव से चिरसंचित कर्मों का नाश कर अन्त में शांति, समाधि और जन्मान्तर में सद्गति तथा परंपरा से सिद्धिगति के स्वामी बनें, यही मंगल प्रार्थना है। यदि जिनाज्ञा विरूद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो मिच्छा मि दुक्कडं... प्रेषक : प्रा. श्री चन्द्रकान्त एस. संघवी श्री सिद्धहेमज्ञानपीठ वाडी जिन विद्यापीठ श्री नीतिसूरिजी संस्कृत पाठशाला, पाटण ( उ.गु.) Jail sucation International For Friwala Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्य आधार स्तंभ ! जीमीत शेठ विदिशा शेठ धर्मेश शेठ हर्षिल शेठ क्रियेशा शेठ यह पुस्तक देखकर हम प्रफुल्लित होते हैं । यह पुस्तक पढ़कर हम रोमाचिंत होते हैं । यह पुस्तक रखकर हम पुलकित होते हैं। यह पुस्तक देकर हम आनंदित होते हैं । वत्सल शेठ समस्त जैन शासन के आराधकों को उपयोगी इस साहित्य प्रकाशन में हमे लाभ लेने की सहज प्रेरणा करनेवाले 'सूरिरामचन्द्र' के शिष्यरत्न कुशल प्रवचनकार, पूज्य मुनिराज श्री रम्यदर्शन विजयजी म.सा. के हम सदा ऋणी रहेंगे । नीव शेठ लि. श्री नंदप्रभा प्रासाद रीलीजियस ट्रस्ट (कोलकत्ता, मुंबई) Marg Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ COLEJ हा मुख्य दाता । BABASASA RRAGAURA 50000000000000 पिताश्री मीठालालजी दलीचंदजी ढुमावत लघुभ्राता श्री जवेरचंदजी मीठालालजी दुमावत आपकी मधुरी मीठी यादे हमें गौरवान्वित करती हैं। आपकी खुमारी भरी बाते हमें विभूषित करती हैं। आपकी जिंदादिली भरी बाते हमें आभूषित करती हैं। आपकी परोपकार भरी बाते हमें अलंकृत करती हैं। आपकी उपस्थिति हमें जीने का जोश देती थी।आप रुठगए, मगर आपका जीवन हमें अनेक आदर्श दे गया उपाश्रय में-मंदिरमें आपकी गुंजन महसुस होती है। बस, आपही की पावन स्मृति में यहसाहित्य समर्पित करते हैं। पुत्र पुत्री पुत्रवधू पौत्र मातुश्री रतनीबेन मीठालालजी ढुमावत अमीत अमीता अरुणाबेन क्रिश वडीलभ्राता - भाभी यतीश निकीता चीमनलालजी - ताराबेन मयूर मेघा गं.स्व. पुष्पाबेन - जवेरचंदजी ढुमावत लि. श्री मीठालालजी दलीचंदजी ढुमावत (येरवडा, पूना, महा.) परिवार के प्रणाम !! SHESARNAUSERONLINEBSITAMARHINOSANSINISM S ABH दायमा S Y refeladaad अनुमोदक C श्रीमती मनोरीबाई कवरलालजी वैद्य __फलोदीवाले (हाल : चेन्नई) 95ation laternational wwwjaineibrary.org, Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्यदिाता | पिताश्री पूनमचंदजी ताराचंदजी लुणिया मातुश्री विजयकॅवरबेन. पू. लूणिया आपकी छत्रछाया में रहकर हम कुछ धार्मिक बने, आपकी शुभाशिष में रहकर हम कुछ पावन बनें। आपके सानिध्य में रहकर हम कुछ उदात्त बनें, आपके संस्कारो में रहकर हम कुछ संस्कारी बने । आपके जीवन के अगणित गुणवैभव हमे गौरवान्वित करते है। इसकी पावनस्मृति में यह प्रस्तुत प्रकाशन में यत्किंचित् लाभ लेकर आनंद की अनुभूति का अहेसास करते है। सुपुत्र पुत्रवधु सुपुत्री जमाईराज डॉ. युगेशकुमार रानीबेन कुमकुम वैद सुरेन्द्रसिंह वैद श्री प्रदीपकुमार सुनीताबेन पौत्र दोहित्र दोहित्री शीटू समृद्धि हर्षवर्धन वैद वर्षा वैद दिव्य रिद्धि निखीता लि. श्री पुनमचंदजी ताराचंदजी लुणिया परिवार का प्रणाम !!, (न्यु दिल्ही) refeladaed शुभेच्छक Kahaniy १. आर्य मौनीश भणशाली, हस्ते : शिरीषभाई, पालनपुर (हाल : मुंबई) २. श्रीमती गौरीबहेन शरेमलजी भेरुमलजी सांकरीया, भायखला, मुंबई ३. श्री चंपालालजी दलीचंदजी राठोड, राणीगाँव वाले, (हाल : येरवडा, पूना) ४. श्रीमती सुंदरबाई जीवराजजी कांकरीया, येरवडा, पूना पौत्री NIRTANTARALICIATIHAR Dan Education international For Private & Personal use only wjapale १७ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्य दाता DRONAULA 00000000000000000000000000 SARAKAASAATHARVA 3000000000000000000 पाश्वे परिवार ACCOMWS आपके सौम्य व्यवहार से आप सर्वत्र प्यारे बनें, आपके सौहार्द वर्तन से आप सर्वत्र सबके बनें। आपके मधुर वचन से आप सर्वत्र अपने बनें, आपकी धार्मिक श्रद्धा से आप सर्वत्र न्यारे बनें । सदा धर्म को अग्रसर बनाकर अपने जीवन को पावन कर हमे भी कुछ अच्छे संस्कारों का सिंचन कराने में उद्यमवंत रहनेवालो के जीवन सुकृत्यों की अनुमोदना हेतु इस प्रस्तुत प्रकाशन में यत्किचित् लाभ लेकर हम धन्य बने हैं। स्व. प्रभुलाल तगामलजी मालू, स्व. शंकरलाल तगामलजी मालू, स्व. संपत शंकरलाल मालू एवं स्व. ओमप्रकाश रिखबदासजी मालू की पुण्य स्मृति में पार्श्व परिवार गाव : रामसर, जि. बाड़मेर (राज), हाल : मुंबई, अहमदाबाद, जोधपुर हस्ते : श्री मोहनलाल प्रभुलालजी मालू feladana सह शुभेच्छुक C ontiy १.शा. कृष्णाजी शेषमलजी एन्ड कंपनी (भायखला, मुंबई) २. श्रीमती विमलाबेन घीसुलालजी शेषमलजी, कोसेलाव (राज.), भायखला, मुंबई ३. श्री कान्तिलालजी भीखमचंदजी जैन, चैन्नई ४. स्व. फुलवतीबहेन मणिलालजी पितालालजी (दावणगिरी, कर्णाटक) ५. एक सद्गृहस्थ की ओर से... उदयपुर (राज.) ६. श्री भीडभंजन पार्श्वनाथ सामायिक महिला मंडल - चैन्नई JameducationLoterratioce of private a Personal use only Powew.jare foSS Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० उपकारी को श्रद्धासुमन से व 0000000000000000 RASASARASAKARAMABARAMA84848ASA DOCOCCOO पिताश्री खुशालभाई पोपटभाई झवेरी मातुश्री उर्मिलाबेन खुशालभाई झवेरी 'जननीनी जोड, सखी ! नहि जडे रे लोल...' इस लोकगीत की पंक्ति स्मरण पथ पर आते ही मस्तक शत-शत झुक जाता है। जननी को किसी की भी उपमा से करवाना बालचेष्य मात्र ही है। उसमें धर्मदात्री व धर्मपथदर्शककी तो क्या बात करें? दक्षिण भारत में कर्मसंयोग से रहते हुए भी सद्गुरु का समागम उन्ही के संस्कारों से प्राप्त हुआ। ___ मातृहृदया साध्वीजी श्री रंजनश्रीजी के सत्संग से धर्मपथ के प्रति अभिरुचि प्रगट हुई । उन्ही की संसारी पुत्री व पट्टधररत्ना वात्सल्यहृदया साध्वीजी श्री रतिप्रभाश्रीजी के सानिध्य से धर्म प्रति श्रद्धा द्रढ बनी। उन्ही की शि मेरे संसारी मौसी साध्वीजी श्री रम्यक्चन्द्राश्रीजी तथा साध्वीजी श्री फाल्गुनचन्द्राश्रीजी की छत्र-छाया में आने से संयम के प्रति अभिलाषा प्रगट हुई। संसारी वडील बहनें जो संसारी वडील मौसी साध्वीजी के शिष्या व प्रशिष्या के पद पर आरुढ हैं, ऐसे साध्वीजी श्री कल्पपर्णाश्रीजी व साध्वीजी श्री आगमरसाश्रीजी के प्रेरणादायी वचनों से और प्रतिपल संयम ग्रहण की महत्ता से मन को अभिवासित करने से मैं संयम जीवन स्वीकृत करने में समर्थ बना। ___संयमी महात्मा और साध्वीजी भगवंत उपकार करने में समर्थ तब ही बन शके, जब जन्मदाता माता-पिताश्री ने बचपन से धर्म संस्कारों का सिंचन किया । यौवन वय में विषय-वासना से विमुख बनाकर और कषायों की भयंकरता समझाकर पूज्य गुरु भगवंत के सानिध्य में रहने का सौभाग्य भी उन्ही की प्रेरणा से प्राप्त हुआ।जो संयम ग्रहण में फलीभूत बना। वृद्धावस्था में सेवा-शुश्रूषा की अपेक्षा को सर्वथा गौण करके, अपने स्वार्थ के बन्धन से निर्मोही बनकर, अपनी कुक्षि नोको श्रमण भगवान श्री महावीर प्रभ के संयम पथ पर प्रयाण करवाने का परम सौभाग्य आपही ने प्राप्त किया।आपके अगणित गुणों को इन वामन शब्दों के माध्यम से कैसे वर्णन कर सकता हुँ ? आप ही के शुभाशिष से प्राप्त यहसंयम जीवन अशाता में भी शाता का संवेदन कराने में समर्थ बने, ऐसी मंगल कामना के साथ..... मुनि श्री रम्यदर्शन विजय वालकेश्वर, मुंबई F ates Persional us Deliarmy.o१९ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व उपकारियों का गुणगुंजन eeeeeeeeeeeeee 18888ASARAASARAMBABAISAURABARABARAMARAN 18488484848ASARIBABASAHEBAAR 000000000000 पिताश्री जशवंतलाल बचुभाई शाह माताश्री हंसाबेन जशवंतलाल शाह अनन्त उपकारी, चरम तीर्थपति, श्रमण भगवान श्री महावीर प्रभु ने अपनी शक्ति से घातिकों का क्षय कर केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी का वरन किया । समवसरण की रचना होते ही करुणासिन्धु प्रभुजी वहाँ पधारे और सुयोग्य पात्र देखकर अपने पट्टधर शिष्यरत्नों को गणधर पद प्रदान करने के साथ-साथ उन्हें त्रिपदी प्रदान की। उस त्रिपदी के आधार पर बीज बद्धि निधान के स्वामि गणधर भगवन्तों ने अन्तर्महल में द्वादशांगी की रचना की, इसमें 'आवश्यक क्रिया' सम्बन्धित अधिकांश सूत्रों की रचना भी उनके द्वारा ही की गई है। ___ इन सूत्रों को कौन से राग में, किन प्रकार के शुद्ध उच्चारणों के द्वारा तथा कौन सी मुद्रा में बोलने से कर्म की निर्जरा होती है, इनसे संबंधी सम्पूर्ण माहिती प्रस्तुत पुस्तक में दी गई है। जो साधना आज मात्र क्रियारूप बन गई है तथा क्रिया न करनेवालों के लिए हसी का पात्र बन गई है, उस साधना को सम्पूर्ण भावमय बनाने के लिए प्रस्तुत पुस्तक में यत्किचित प्रयत्न किया गया है। 'सूरिरामचन्द्र' के शिष्यरत्न पूज्य मुनिराज श्री रम्यदर्शनविजयजी म. सा. से प्रस्तुत पुस्तक के विषय में मेरे हृदय की बात जामनगर चातुर्मास के समय करने पर उन्होंने अल्प परिचय में भी अत्यन्त उत्साह के साथ जैनशासन में अत्यन्त उपयोगी प्रस्तुत पुस्तक के सम्पादक-मार्गदर्शक बनने के निवेदन को स्वीकार कर मेरे उत्साह में अभिवृद्धि की । मैं सदैव उनका आभारी रहूँगा। जीवन में धार्मिक संस्कारों का सतत सिंचन करनेवाले, परोपकारी पूज्य पिताश्री जशवन्तलालभाई तथा पूज्य माताश्री हंसाबेन का असीम वात्सल्य तथा उपकार कभी भुलाया नहीं जा सकता। समस्त कार्यों को गौण रखकर मेरे इस कार्य में सतत सहायक बननेवाली धर्मपत्नी श्री रूपा (दिल्पा) तथा कोमल पुष्प के समान सुपुत्री धन्या और सुपुत्र रत्न के सहयोग को भी इस प्रसंग पर स्मृतिपथ में लाकर आनन्द का अनुभव हो रहा है। यदि जिनाज्ञा के विरुद्ध कुछ भी लिखा या छापा गया हो अथवा चित्रादि का संयोजन किया गया हो, तो मिच्छा मि दुक्कडं । पूज्यों के चरणारविन्द में वन्दनावलि परेश जे. शाह FematokPartoorpronly www.jainelitaramy.org Jain Education international २० Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आपका यह उपकारकभी भी भुलाया नहीं जा सकता है। WHAIR * * * * * * * * * * * * * परमाराध्यपाद पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा। वात्सल्य निधि, समर्पणमूर्ति, पूज्यपाद आचार्य देव श्रीमद् विजय महोदयसूरीश्वरजी महाराजा। श्राद्धप्रतिक्रमण-सूत्र चित्र आल्बम रचयिता पूज्यपाद आचार्यदैव श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराजा। सदा आशीर्वाद बरसानेवाले पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय हेमभूषणसूरीश्वरजी महाराजा। पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय श्रेयांसप्रभसूरीश्वरजी महाराज साहब । पूज्य पंन्यासप्रवर श्री तपोरत्नविजयजी गणिवर्य । 'सूरि रामचन्द्र' शिष्यरत्न पूज्य मुनिराज श्री रम्यदर्शन विजयजी म. सा. । पण्डितवर्य श्री चन्द्रकान्तभाई एस. संघवी, पाटण । पण्डितवर्य श्री अमृतभाई पटेल, अहमदाबाद। निःस्पृह स्वभावी श्री कुमारपालभाई . वी. शाह, धोलका। मोक्षपथ प्रकाशन के माननीय ट्रस्टीगण। * सदा उत्साह प्रेरणादाता, नामी - अनामी स्नेही-साधार्मिक बन्धुगण.... । लि. परेशकुमार जे. शाह अहमदाबाद (शिहोरीवाले) पुस्तक में उपयोगी ग्रंथो की यादी और आभार स्वीकार। (१) आवश्यक नियुक्ति (आगमसूत्र) (२) धर्मसंग्रह भाग१-२ (३) छन्दानुशासनम् (४) वृत्तरत्नाकर (५) प्राकृत पैंगल भाग-१-२ (६ )प्रबोधटीका भाग - १-२-३ (७)सूत्र परिशीलन (८) भाव प्रतिक्रमण नुं तालुं खोलो (९) चालो जिनालय जईए (१०) सूत्र संवेदना भाग-१-२ (११) वाचनाश्रोत-१ (१२) श्री श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र चित्र आल्बम (१३) द्रव्यक्रियामांथी भावक्रियामां केवी रीते आवीशुं ? (१४) जैन तत्त्व प्रकाश (१५) सूत्रार्थसार (१६) सूत्रोना रहस्यो भाग-१-२ (१७) प्रबोधटीका श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र (१८) तीर्थंकर चरित्र सचित्र । इत्यादि अनेक ग्रन्थों के सहयोग से प्रस्तत पस्तक तैयार किया गया है। उपरोक्त पुस्तकों के सम्पादक, लेखक, संकलक, संयोजक, प्रकाशक, ट्रस्ट आदि के हम सदा ऋणी रहेंगे। लि. www.anerbrary.org सम्यग्ज्ञानरम्यपर्षदा संचालित Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम दर्शन कौन से पृष्ठ पर क्या पढ़ेंगे / देखेंगे? क्रमांक विषय पृष्ट नं. क्रमांक विषय (A) श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ ८. श्री अन्नत्थ सूत्र (B) श्री शत्रुजय गिरिराज ४ ९. श्री लोगस्स सूत्र (C) श्री गुरुवर्य ५ १०. श्री करेमि भंते ! सूत्र आवश्यक क्रिया साधना श्री सामाइय-वय जुत्तो सूत्र संपादक की कलम से सामायिक लेने/पारने की विधि प्राक्कथन मुहपत्ति सचित्र विवरण (G) प्रस्तावना १४ १२. श्री जग चिंतामणि चैत्यवंदन सूत्र ग्रंथ के दातार १५ १३. श्री जं किंचि सूत्र हे उपकारी ! नमस्कार - प्रणाम (J) रंगो की जानकारी श्री नमुत्थुणं सूत्र (K) छंद का वर्णन श्री जावंति चेइआई सूत्र सूत्र कंठस्थ करने से पहले ध्यान में रखे श्री जावंत केवि साहू सूत्र (M) श्री वज्रपंजर स्तोत्र-श्री आत्मरक्षा स्तव श्री नमोऽर्हत् सूत्र श्री नवकार सूत्र श्री उवसग्गहरं सूत्र श्री पंचिंदिय सूत्र श्री जय वीयराय सूत्र श्री खमासमण सूत्र श्री अरिहंत चेइआणं सूत्र ४. श्री इच्छकार सूत्र चैत्यवंदन विधि श्री अब्भुट्ठिओ सूत्र (s) पच्चक्खाण सूत्र-सार्थ (N) विविध मुद्रा - १ (T) जिनपूजा विधि श्री ईरियावहियं सूत्र ५८ २१. श्री कल्लाण-कंदं सूत्र श्री तस्स उत्तरी सूत्र २२. श्री संसार-दावा सूत्र १०३ १०४ १११ १३८ १४० Jain इश Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम दर्शन कौन से पृष्ठ पर क्या पढ़ेंगे / देखेंगे ? पृष्ट नं. १४३ १४६ पृष्ट नं. १९३ १९४ १९४ १९६ १४८ १५० २७. १५० २०० १५१ २०१ २०३ १५२ १५४ ४९. श्री २०४ २०७ १५६ २२१ १५८ १६४ क्रमांक विषय २३. श्री पुक्खर-वरद्दी सूत्र २४. श्री सिद्धाणं बुद्धाणं सूत्र २५. श्री वेयावच्चगराणं सूत्र २६. श्री 'भगवान्हं सूत्र' २७. श्री देवसिअ पडिक्कमणे ठाउं सूत्र (U) प्रभुजी व नवपदजी पूजा वर्णन २८. श्री इच्छामि ठामि सूत्र २९. श्री पंचाचार की गाथा सूत्र (v) वांदणा सचित्र ३०. श्री सुगुरु वंदन (वांदणा) सूत्र३१. श्री देवसिअं आलोउं सूत्र ३२. श्री सात लाख श्री अठारह पापस्थानक ३४ श्री सव्वस्सवि सूत्र (W) विविध मुद्रा -३ श्री वंदित्तु सूत्र ___३६. श्री आयरिअ उवज्झाए सूत्र ३७. श्री श्रुतदेवता स्तुति ३८. श्री क्षेत्रदेवता स्तुति ३९. श्री कमलदल स्तुति ४०. श्री नमोऽस्तु वर्द्ध मानाय सूत्र ४१. श्री विशाललोचन सूत्र ४२. श्री वरकनक स्तुति क्रमांक विषय ४३. श्री भवन देवता स्तुति ४४. श्री क्षेत्रदेवता स्तुति ४५. श्री अड्ढाइज्जेसु सूत्र श्री लघुशांतिस्तव श्री चउक्कसाय सूत्रदेवसिअ-राइअ प्रतिक्रमण आदेश श्री मन्नह जिणाणं सूत्र ४९. श्री भरहेसर सज्झाय महापुरुष-महासती चरित्र श्री सकलतीर्थ वंदना श्री पौषध व्रत पच्चक्खाण सूत्र श्री पौषध पारने का सूत्रे देवसिअ प्रतिक्रमण विधि के हेतु राइअ प्रतिक्रमण की विधि के हेतु देवसिअ प्रतिक्रमण विधि राइअ प्रतिक्रमण विधि श्री स्नातस्या स्तुति श्री सकलाऽर्हत् चैत्यवंदन श्री संतिकर स्तव श्री अजित शांति स्तव ५३ श्री बृहत्छांति सूत्र श्री अतिचार सूत्र पक्खी आदि प्रतिक्रमण विधि सम्यग्जान रम्य पर्षदा २२६ २२७ २२९ १६५ १६६ २३४ १६८ २३८ १६९ २४२ १७० २४५ १८६ २४७ १८७ २५३ १८८ २५६ १८९ २६७ १८९ २७३ १९२ २७९ 903 vate & Personal use only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रंगों के सम्बन्ध में जानकारी • प्रत्येक सूत्र का नाम- सफेद रंग (White colouri) • प्रायः प्रत्येक सूत्र में चार सम्पदा की एक गाथा होती है। प्रत्येक सम्पदा का रंग बदल दिया गया है। अर्थात् जब भी रंग बदले, तब किंचित् रुकना चाहिए। प्रथम सम्पदा कत्थई रंग (Brown Colour) लोगस्स उज्जोअगरे, द्वितीय सम्पदा बैगनी रंग (Violet Colour) धम्मतित्थयरेजिणे। तृतीय सम्पदा हरा रंग (Green colour) अरिहन्ते कित्तइस्सं, चतुर्थ सम्पदा नीला रंग (Blue Colour) चउवीसंपि केवली ॥१॥ विशेष में श्री नवकार मन्त्र तथा छन्दों के विवरण में दर्शाए गए गद्यात्मक सूत्रों में गाथाओं के अनुसार सम्पदा या संख्या नहीं बतलाई गई है। परन्तु अनेक आगमसूत्र आदि के आधार पर गाथा के शब्दों की संख्या के अनुसार सम्पदा निश्चित कर उपर्युक्त रंगों के अनुसार ही बताई गई है। • प्रत्येक सूत्र का गाथार्थ काले रंग (Black Colour) में दिया गया है। • प्रत्येक सूत्र के विषय काले रंग (Black Colour) में दिये गये हैं। प्रत्येक सूत्र के आदान नाम, गौण नाम, पद, सम्पदा, गाथा, लघु अक्षर, गुरु अक्षर, सर्व अक्षर लाल रंग (Red Colour) में दिए गए हैं। प्रत्येक मुद्रा का परिचय नीले रंग (Blue Colour) में दिया गया है। • सूत्रों के शुद्ध उच्चारण के लिए प्रयुक्त किए गए रंगों (Colour) का वर्णन : सूत्रों में जहाँ भी सन्ध्यक्षर आते हैं, वहाँ विशेष जोर देकर बोलने के लिए तथा शुद्धता बनी रहे, इसके लिए वहाँ गुलाबी रंग (Meganta Colour) दिया गया है। उदाहरण के लिए - लो-गस्-स उज्-जोअ-गरे, • सूत्रों के अनुक्रम से दी गई अर्थ सम्पदा को भी रंगों के अनुसार दिया गया है। शुद्ध - अशुद्ध उच्चारण विभाग में गुलाबी रंग (Meganta Colour) में शुद्ध उच्चारणवाले अक्षर रखे गए हैं। उदाहरण के लिए अशुद्ध कितइसं कित्तइस्सं Jairq yica Screenal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच प्रतिक्रमण सूत्र में विहित छन्द का विवरण छन्दों की सूची सूत्र के नाम (१) सिलोगो,श्लोक, श्री नवकार मंत्र, श्री जयवीयराय सूत्र गा.५, श्री लोगस्स सूत्र गा. १, श्री वंदित्तु सूत्र गा. ३८,३९,४९,अनुष्टप् ५०, श्री नमोऽस्तु सूत्र गा. १, श्री विशाललोचन सूत्र गा.१, श्री लघुशान्ति सूत्र गा. १८, श्री सकलार्हत् स्तोत्र गा.१-२७,३१ श्री बृहत्छान्ति स्तोत्र गा.१३,१४,२३,२४. (२) गीति, उद्गाथ श्री पंचिंदिय सूत्र गा.१. (३) गाहा,गाथा, आर्या श्री पंचिंदिय सूत्र गा.२, श्री लोगस्स सूत्र गा.२-७,श्री सामाइय-वय-जुत्तो सूत्र गा.१,२,श्री जग चिंतामणि सूत्र गा. ४,५, श्री जं किंचि सूत्र, श्री नमुत्थुणं सूत्र गा.१०, श्री जावंति केवि सूत्र, श्री जावंत सूत्र, श्री उवसग्गहरं, श्री जय वीयराय सूत्र गा.१-४,श्री पुक्खरवर-द्दीवड्डेगा. १,२ श्री सिद्धाणं- बुद्धाणं सूत्र, श्री नाणंमि सूत्र, वंदित्तु सूत्र गा. १-३७,४०,४८, श्री आयरिय-उवज्झाए सूत्र गा.१-३, श्री सुअदेवया सूत्र, श्री खित्तदेवया सूत्र, श्री भवनदेवया सूत्र, श्री वरकनक सूत्र, श्री लघुशान्ति सूत्र, श्री भरहेसरसज्झाय, श्रीमन्नह जिणाणं सज्झाय, श्री नमोऽस्तु सूत्र, गा.१, श्री विशाल-लोचन-सज्झाय गा.१, श्री अड्डाइज्जेसु सूत्र, श्री सकलार्हत् स्तोत्र गा.२८,श्री बृहत्छान्ति-स्तोत्र गा.१५,१६,१७,२१,२२, श्री संतिकरं स्तोत्र, (तिजयपहुत्त स्तोत्र, नमिऊण स्तोत्र) (४) रोला छंद श्री जगचिंतामणि सूत्र गा.१ (५) वस्तु(रड्डा ) छंद श्रीजगचिंतामणि सूत्र गा.२,३ (६) इन्द्रवज्रा छंद श्री कल्लाण-कंदं स्तुति गा.१ (७) उपजाति छंद श्री कल्लाण-कंदं सूत्र गा.२,३,४,श्री बृहत्छान्ति-स्तोत्र गा.२०. (८) वसंततिलका छंद श्री पुक्खर-वर-दीवड्ढेसूत्र गा.३, श्री संसार-दावानल स्तुति गा. २, (श्री भक्तामर स्तोत्र तथा कल्याणमन्दिर स्तोत्र) (९) मन्दाक्रान्ता छंद श्री संसार-दावानल स्तुतीगा.३,श्रीबृहत्छान्ति-स्तोत्र गा.१. (१०) स्रग्धरा छंद श्री संसार-दावानल स्तुती गा.४,श्री स्नातस्या.स्तुति गा.३,४. (११) शार्दूलविक्रीडित छंद श्री पुक्खर-वर-द्दीवड्डे सूत्र गा.४,श्री स्नातस्या.स्तुति गा.१,२, श्री सकलाहत् स्तोत्र २९,३२,३३. (१२) औपच्छन्दसिक छन्द श्री नमोऽस्तु सूत्र गा.२ श्री विशाल-लोचन स्तुति गा.२ (१३) वंशस्थ छंद श्री नमोऽस्तु सूत्र गा.३ श्री विशाल-लोचन स्तुति गा.३ (१४) पादाकुलकछन्द श्री चउक्कसाय सूत्र गा.१ (१५) अडिल्लछंद श्री चउक्कसाय सूत्र गा.२ (१६) चौपाई छंद श्री सकलतीर्थ सूत्र गा.१-१५ (१७) मालिनी छंद श्री सकलकुशलवल्ली, श्री सकलार्हत् स्तोत्र गा. ३०. अजितशान्ति स्तवन के छन्द अत्यन्त प्रसिद्ध होने के कारण यहाँ नहीं दिये गए हैं, अतः अन्य ग्रन्थों में से देख लें। गद्यात्मक सूत्र खमासमण, इच्छकार, अब्भुट्ठिओ, ईरियावहियं, तस्स उत्तरी, अन्नत्थ, करेमि-भंते, नमुत्थुणं, नमोऽर्हत्, अरिहंत चेइयाणं, वेयावच्चगराणं, भगवान्हं, सव्वस्सवि, इच्छामि ठामि, वांदणा, सातलाख, अढारपापस्थानक । नोंध : छंद का विस्तृत वर्णन - गुजराती : प्रथम आवृति आवश्यक क्रिया साधना पुस्तक में प्रकाशित है। २५ FORPrivate &Personarut Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र कंठस्थ करने से पहले ध्यान रखने योग्य बातें (१) पुस्तक को जमीन पर, कटासना अथवा पैरों पर न रखकर आशातना से बचने के लिए सापडा पर ही रखें। पुस्तक को अध्ययन करते समय थूक-श्वासोश्वास से बचाने के लिए उसे अपने से १४ ईंच दूर रखें। सूत्रों की मूल गाथा के साथ अन्वय किए गए अक्षरों को ध्यान में रखकर याद करने से उन शब्दों का शुद्ध उच्चारण होगा। पुस्तक के पृष्ठ पलटते समय ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध से बचने के लिए थूक लगाकर पृष्ठ नहीं पलटना चाहिए। पुस्तक का पठन पूर्ण होने पर उसे जहाँ-तहाँ रखने के बदले, उसे आदरपूर्वक योग्य स्थान पर रखना चाहिए। सम्यग् ज्ञान का अभ्यास प्रारम्भ करने से पूर्व ज्ञानपद के निमित्त पाँच खमासमणा देने से क्षयोपशम बढ़ता है। जो शब्द, जिस शब्द के साथ, जिस प्रकार बोलना आवश्यक हो, उसे उसी प्रकार बोलने का प्रयास करना चाहिए। ह्रस्व स्वर तथा दीर्घ स्वर को ध्यान में रखकर क्रमशः धीमे तथा ऊँचे स्वर में बोलना चाहिए। ऐसा नहीं करने से अर्थ का अनर्थ होने की सम्भावना रहती है। उदाहरण :- फरियाद-किसी की शिकायत करना; फरी याद = पुनः स्मरण करना, दिन = दिवस; दीन = निर्धन... (९) सूत्र में जब '' अनुस्वार हो तथा वह पद के अन्त में हो, उस समय बोलते हुए नाक में से आवाज आनी चाहिए तथा दोनों होंठ बंद रहने चाहिए । उदाहरण : करतां, हुं, साहूणं, गयायं, वंदिऊं, आलोऊं, पडिक्कमिऊं इत्यादि शब्दों में अनुस्वार का ध्यान रखना चाहिए। (१०) सूत्रों में जब सन्धिवाले अक्षर आएँ, तब मूल शब्द लिखने के साथ-साथ कोष्ठक ( ) में भी वे अक्षर बतलाए गए हैं, परन्तु उच्चारण करते समय मूल शब्द अथवा कोष्ठक में लिखे शब्दों को ही बोलना चाहिए । उदाहरण :- (द्यो)। (११) (अ) सूत्रों में जब संयुक्ताक्षर आए, तब आधे अक्षर से पहलेवाले पूर्ण अक्षर के साथ जोड़कर बोलने से ही शुद्ध उच्चारण होगा । उदाहरण : सिद्धाणं-सिद्धाणं, पच्+चक्+खामिपच्चक्खामि । (ब) जब दो आधे अक्षर एक साथ आए तब पहला आधा अक्षर उसके पहले वाले अक्षर के साथ तथा दूसरा आधा अक्षर उसके बादवाले अक्षर के साथ उच्चारण करने से शुद्ध उच्चारण होगा । उदाहरण :- सम्यक्त्व -सम्यक्त्व। (१२) सूत्रों में जब पूर्ण अक्षर (स्वर सहित) आए तब उन्हें स्वर के साथ ही उच्चारण करना चाहिए। उदाहरण:- एसो पंच नमुक्कारो-यहा 'पंच' न बोलकर 'पंच' बोलना चाहिए । 'सात लाख पृथ्वीकाय' यह अशुद्ध है। 'पृथ्वीकाय' यह शुद्ध है। (१३) सूत्र में जब अर्थ की पूर्णाहुति आए, तब थोड़ा रुकना चाहिए । तथा जब गाथा पूरी हो तो थोड़ा अधिक देर तक रुकना चाहिए। उदाहरण : नवकार मन्त्र में पद नौ तथा सम्पदा आठ हैं । आठवें तथा नौवें पद की अर्थ संकलना समान होने के कारण उन्हें एक साथ ही बोलना चाहिए। www.janeliorary.org Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र कंठस्थ करने से पहले ध्यान रखने योग्य बातें (१४) दो-तीन-चार शब्द एकत्र होकर कभी-कभी एक सामासिक शब्द बनता है, तब वे सभी शब्द एक साथ ही बोलना चाहिए । उदाहरण :- 'तह नवविह बंभचेर गुत्तिधरो' में 'नवविह' सामासिक शब्द है, अतः 'तह नव विह' न बोलकर तह नवविह' ऐसा बोलना चाहिए। (१५) शुद्ध मुद्रणवाली पुस्तक में छपे हुए सूत्रों के प्रत्येक अक्षर पर ध्यानपूर्वक दृष्टि रखकर कण्ठस्थ करने से अथवा पुनरावर्त्तन करने से अशुद्ध उच्चारण से बचा जा सकता है। (१६) पूर्ण उपयोगपूर्वक शुद्ध उच्चारण करने से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है, तथा लापरवाही आदि के कारण उपयोग रहित अशुद्ध उच्चारण अथवा अर्ध शुद्ध उच्चारण करने से ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है। (१७) उपयुक्त समय में अध्ययन नहीं करने से तथा अनुपयुक्त समय में अध्ययन करने से, अध्येता (अध्ययन करनेवाले) का (सहायक नहीं बनने से) अन्तराय करने से तथा छह महीने में एक गाथा कण्ठस्थ करने की शक्ति होने पर भी नया ज्ञान प्राप्त करने का पुरुषार्थ नहीं करने से भी ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है। (१८) दुनिया की किसी भी भाषा की लिपि में लिखे हुए अक्षरवाले कपड़े, जूते-चप्पल, रुमाल, बनियान, प्लेट, गिलास आदि का उपयोग करने से ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है। (१९) किसी भी मनुष्य-कार्टून-पशु-पक्षी आदि की आकृतिवाला (चित्रवाला) कपड़ा, चादर आदि का उपयोग करने से तथा साथ ही उसे जब-जब धोया जाए, तब-तब उन आकृतियों की हिंसा का पाप लगता है तथा ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है। उसके फलस्वरूप अगले जन्म में तुतलापन, हकलाहट, लंगड़ापन, बहरापन, शृंगापन तथा अंधापन आता है। (२०) ज्ञान के उपकरण जैसे पुस्तक, नोटबुक, रजिस्टर, कलम, रबर, पेन्सिल, स्केल आदि को उपर से फेंकने अथवा अपवित्र स्थान में रखने से, तोड़ने से, पैरों से स्पर्श करने से तथा थूक लगाने से ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है। (२१) ज्ञान देनेवाले ज्ञानी, शिक्षक, अध्यापक, माता-पिता तथा गुरुजनों का उपहास करने से, उनकी उचित आज्ञा का उल्लंघन करने से, उनकी निंदा अथवा शिकायत करने से, उनका तिरस्कार-अपमान करने से तथा उचित आदर-सम्मान नहीं करने से भी ज्ञानावरणीय कर्मबंध होता है। (२२) खाते, पीते तथा जूठे मुँह से बोलने से अथवा शौच करते समय अपने पास पर्स, रुपये पैसे, कागज, घड़ियाल, मोबाईल आदि अक्षरोंवाला अथवा सादा कागज आदि वस्तु रखने से भी ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है। (२३) सूत्रों में कहे गए शब्दों, अक्षरों से अधिक अथवा कम बोलने से तथा भूल का पता लगने पर भी उसी के अनुसार करते रहने से भी ज्ञानावरणीय कर्म बंधता है। (२४) मन्त्र से भी अधिक प्रभावशाली, गणधरों के द्वारा रचित इन प्रतिक्रमण सूत्रों का ज्ञानी गुरुजनों के मुख से शुद्ध अभ्यास करने का आग्रह रखने के साथ-साथ, शीघ्रता की इच्छा छोड़कर तथा एक दूसरे से सुनकर करने की वृत्ति को त्याग कर आराधक भव्यात्मा को सम्यग् क्रियामय जीवन जीना चाहिए। Jain Education Internationa For Prate & Personal se Only www.jainelitiary.R.O Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मरक्षा वज्रपंजर स्तोत्र की सचित्र व्याख्या पहली, सातवीं तथा आठवीं गाथा बोलते समय की स्पष्ट मुद्रा। 'ॐ नमो सव्वसिद्धाणं' बोलते 'ॐ नमो आयरियाणं' बोलते समय 'ॐ नमो अरिहंताणं' बोलते समय दोनों हथेली को प्रदक्षिणाकार दोनों हाथों की हथेली को कन्धे से नीचे समय अपने मस्तक पर रक्षायंत्र की ___ में मुंह के चारों ओर तीन बार घुमाते माओतीन बारमाते कहनी तक तीन बा कुहनी तक तीन बार स्पर्श करते हुए अंगों स्थापना का कल्पना करना चाहिए। हुए मुख की रक्षा करते हों, इस प्रकार की रक्षा की कल्पना करनी चाहिए। कल्पना करनी चाहिए। 'ॐ नमो उवज्झायाणं' बोलते 'ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं' समय दोनों हाथ की हथेली की बोलते समय दोनों हाथों की चारों उँगलियों को दबाकर हथेली के द्वारा पैरों के बीच मध्य अगूठा ऊपर की ओर रखकर भाग से पीछे के मध्य भाग तक हाथों में शक्तिशाली शस्त्र की स्पर्श करते हुए दोनों पैरों की रक्षा कल्पना करनी चाहिए। की कल्पना करनी चाहिए। 'एसो पंच नमुक्कारो' बोलते समय 'सव्व पावप्पणासणो' बोलते आसन के मध्य भाग को आगे से समय दोनों हाथों की तर्जनी को ऊपर स्पर्श करते हुए पीछे के मध्य भाग की ओर रखकर दोनों हाथों को पीछे तक स्पर्श करते हुए अपने चारों ओर के मध्य भाग तक ले जाकर अपने की भूमि वज्रमय हो गई है, ऐसी चारों ओर वज्रमय किले की रचना कल्पना करनी चाहिए। हुई हो, ऐसी कल्पना करनी चाहिए। ०° RS 'मंगलाणं च सव्वेसिं' बोलते समय दोनों। पद्मासन करते समय सर्वप्रथम बाएँ पैर को दाएँ हाथों को एक साथ मिलाकर अपने शरीर से । पैर की जड़ में टिकाकर तथा दाएं पैर को बाएँ -थोड़ी दूरी पर मध्यभाग से पृष्ठभाग के 'पढम हवइ मंगलं' बोलते समय दोनों । पैर की जड़ में टिकाकर रखना चाहिए। पूर्ण मध्यभाग तक स्पर्श करते हुए वज़मय किले हाथों को सिर से थोड़ा ऊपर रखकर किले - पद्मासन होने के बाद दोनों घुटनों को सहजता के बाहर चारों ओर किनारे-किनारे अंगारों की के उपर ढक्कन की कल्पना करनी चाहिए। से जमीन का स्पर्श कराना चाहिए। खाई की कल्पना करनी चाहिए। (नोट : १ से ९ चित्रमें पद्मासन करते समय पहले बाएं पैर को मोडना चाहिए।) jainelibrary.org Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मरक्षा वज्रपंजर स्तोत्र छंद का नाम : अनुष्टप्ः राग : दर्शनं देवदेवस्य...(प्रभुस्तुति) आदान नाम : श्री वज्रपंजर स्तोत्र | विषय: गोणनाम :नमस्कार महामंत्र मंत्र द्वारा शरीर शुद्धि ॐ परमेष्ठि-नमस्कार, सारं नवपदात्मकम् । पद :३२ संपदा और अशुभ से रक्षण :३२ आत्मरक्षाकरं वज्र-पंजराभं स्मराम्यहम् ॥१॥ गाथा : ८ करने द्वारा नमस्कार । अर्थ : सारभूत, नवपदमय, वज्र के पिंजरे के समान आत्मा की रक्षा करनेवाला, ऐसे परमेष्ठि नमस्कार का मैं ॐकारपूर्वक स्मरण करता हूँ। 'ॐ नमो अरिहंताणं' शिरस्कं शिरसि स्थितम् । 'ॐ नमो सव्वसिद्धाणं' मुखे मुखपटं वरम् ॥२॥ अर्थ : 'ॐ नमो अरिहंताणं' यह पद मस्तक पर स्थित शिरस्त्राण है तथा 'ॐ नमो सव्वसिद्धाणं' मुख पर श्रेष्ठ मुखरक्षक वस्त्र है। 'ॐ नमो आयरियाणं', अंगरक्षातिशायिनी। 'ॐ नमो उवज्झायाणं' आयुधं हस्तयोर्दृढम् ॥३॥ अर्थ : 'ॐ नमो आयरियाणं' यह पद उत्तम अंगरक्षा कवच है तथा 'ॐ नमो उवज्झायाणं' यह पद दोनों हाथों में स्थित मजबूत शस्त्र है। 'ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं', मोचके पादयोः शुभे। 'एसो पंच नमुक्कारो', शिला वज्रमयी तले ॥३॥ अर्थ : 'ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं' यह पद दोनों पैरों की रक्षा करनेवाले मोजे हैं तथा 'एसो पंच नमुक्कारो' यह पद साधक के नीचे स्थित पृथ्वी वज्रमयी शिला का सूचक है। 'सव्व पावप्पणासणो', वप्रो वनमयो बहिः । 'मंगलाणं च सव्वेसिं',खादिरांगार-खातिका ॥५॥ अर्थ : 'सव्व पावप्पणासणो' यह पद बाहर चारों ओर वज्रमय किला है। मंगलाणं च सव्वेर्सि' यह पद वज्रमय किले के बाहर चारों ओरखेर के अंगारों से भरी हई खाई है। स्वाहान्तं च पदं ज्ञेयं, 'पढमं हवड़ मंगलं'। वज्रोपरि वज्रमयं, पिधानं देहरक्षणे ॥६॥ अर्थ : 'स्वाहा' अन्त वाला अर्थात् “पढमं हवइ मंगलं" यह पद शरीर की रक्षा के लिए वज्रमय किले के ऊपर का ढक्कन है। महाप्रभावा रक्षेयं, क्षुद्रोपद्रव-नाशिनी । परमेष्ठि-पदोद्भूता, कथिता पूर्वसूरिभिः ॥७॥ अर्थ : परमेष्ठि पदों से निर्मित यह रक्षा महाप्रभावशाली है, क्षुद्र उपद्रव को नाश करनेवाली है। यह पूर्वाचार्यों के द्वारा कही गई है। यश्चैवं कुरुते रक्षा, परमेष्ठि पदैः सदा। तस्य न स्याद्भयं-व्याधि-राधिश्चापि कदाचन ॥८॥ अर्थ : जो (जीव) परमेष्ठि पदों के द्वारा इस प्रकार सदा रक्षा करता है, उसे भय, रोग तथा मानसिक चिन्ताएं कभी भी नहीं होती हैं। For Private & Personal userging" Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नवकार मंत्र नमो अरिहंताणं अमंतज्ञान अनंतवीर्य ज्ञानावरणीय कर्म मोहनीय कर्म वेदनीय कर्म अनंतदर्शन अगुरुलधु दर्शनावरणीय कर्म -अरुपीपणा नामकर्म आयुष्य कर्म अव्याबाधसुख गौत्र कर्म अनंतचारित्र अंतराय कर्म अक्षयस्थिति नमो सिद्धाणं नमो आयरियाणं _ नमो उवज्झायाणं नमो लोए सव्वसाहूणं Jaiz 6 Sonalee For Private-8Personali -O www.jainelibrary Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તમો સામે १.३८२००९ १ श्री नमुक्कार सुत्त' आदान नाम : नवकार मंत्र गौण नाम :पंचमंगल महाश्रुतस्कंध पद विषय: श्री पंच परमेष्ठि को नमस्कार के साथ उसका फल कथन । संपदा गुरु-अक्षर :७ लघु-अक्षर :६१ सर्व अक्षर :६८ BREAK मूल सूत्र नमोअरिहंताण 0800 नमो सिद्धाणं ॥२॥ नमोआयरियाणं ॥३ नमो उवज्झायाणं॥४॥ नमो लोए सव्व-साहूणं ॥५॥ उच्चारण में सहायक नमो अरि-हन्-ता-णम् 0 नमो-सिद्-धा-णम्। नमो-आय-रि-या-णम् । नमो-उवज्-झा-या-णम्। नमो-लोए-सव्-व-साहू-णम्। पद क्रमानुसारी अर्थ पमस्कार होअरिहंत भगवंतों को। नमस्कार हो सिद्ध भगवंतों को। घमास्कार होआचार्य भगवनों को। नमस्कार हो उपाध्याय भगवंतों को। | नमस्कार हो लोक में रहेहुए सर्वसाधु भगवंतों को। छंद का नाम : सिलोगो; राग : दर्शन देव देवस्य... (प्रभु स्तुति) एसो पंच-नमुक्कारो ॥६॥ एसो-पञ् (पन्)-च-नमुक्-कारो। यह पंचनमस्कार / इन पाँचों को किया हुआ नमस्कारसव्व-पाव-प्पणासणो ॥७॥ सव्व-पावप्-प-णा-सणो। सर्व पापों का नाश करने वाला है। मंगलाणंच सव्वेसिं ॥८॥ मङ्ग -ला-णम्-च-सव-वेसिम्। और सर्व मंगलों मेंपढम हवइ मंगलं ॥९॥ पढ-मम्-हव-इ-मङ्-ग-लम्। प्रथम मंगल है। गाथार्थ : अरिहंत भगवंतों को नमस्कार हो । सिद्ध भगवंतों को नमस्कार हो । आचार्य भगवंतों को नमस्कार हो । उपाध्याय लोक में रहे हए सर्व साध भगवंतों को नमस्कार हो । इन पाँचों को किया हआ नमस्कार सर्व पापों का नाश करने वाला है और सर्व मंगलों में (यह नमस्कार) प्रथम मंगल है। १... -- - - - - - - -- - - - - - - उपयोग के अभाव से होते प्रस्तुत पुस्तक में उपयोगी शब्दों के सरल अर्थ-सुगमार्थ अशुद्ध उच्चार के सामने शुद्ध उच्चारण • सम्पदा = सूत्र बोलते समय अटकने का स्थान । अशुद्ध पद = सूत्र बोलते समय थोड़ा सा अटकने का स्थान । नमोरिहंताणं नमो अरिहंताणं • आदान नाम = सूत्र के प्रथम अक्षर से प्रचलित नाम । नमो अरिअंताणं नमो अरिहंताणं • गौण नाम = सूत्र के गुण तथा विषय के आधार पर दिया गया नाम । नमो सिध्दाणं नमो सिद्धाणं • गुरु (दीर्घ) अक्षर = थोड़े अधिक परिश्रम से बोले जानेवाले अक्षर, जिसकी नमो अरियाणं नमो आयरियाणं मात्रा २ है। नमो उवझायाणं नमो उवज्झायाणं लघु (हस्व) अक्षर = अल्प प्रयत्न से बोले जानेवाले शब्द, जिनकी मात्रा १ है। साहुणं साहूणं • सर्वाक्षर = ह्रस्व तथा दीर्घ अक्षरों की कुल संख्या का प्रमाण। पंच नमुकारो पंच नमुक्कारो • पद क्रमानसारी अर्थ = सत्र में आनेवाले पदों के क्रमानसार अर्थ । सवपावपणासणो सव्व-पावप्पणासणो सव्वेसिग् सव्वेसिम् गाथाओं का सामूहिक अर्थ = गाथाओं में विभक्ति के क्रमानुसार होनेवाला सरल-सुगम अर्थ। Late ary99 JainEld e n Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अरिहन्त परमात्मा का स्वरूप केवलज्ञान प्राप्त कर पृथ्वी को पवित्र करनेवाले श्री अरिहन्त परमात्मा १२ गुणों से युक्त होते हैं, जिनमें आठ प्रातिहार्य तथा चार अतिशय का समावेश होता है। जिनमंदिर में अष्ट प्रातिहार्य युक्त व पंच तीर्थिवाली जिनप्रतिमाजी को अरिहंत अवस्थावाली' कही जाती है। अष्ट प्रातिहार्यों का वर्णन १. अशोक वृक्ष प्रातिहार्य : जहाँ भगवान के समवसरण क्षेत्र में तथा एक योजन प्रमाण समवसरण भूमि में देवता घुटनों की रचना होती है, वहाँ भगवान के शरीर से १२ गुना तक, जल तथा स्थल में उत्पन्न छह ऋतुओं की सुगन्धि से युक्त ऊँचे अशोक वक्ष की रचना देवतागण करते हैं। पंचवर्ण के सचित्त पुष्पों की वृष्टि करते हैं । प्रभुजी के अनुपम जिसके नीचे बैठकर भगवान धर्मदेशना देते हैं । उस प्रभाव से लोगों के आने-जाने के कारण उन सचित्त पुष्यों को अशोकवृक्ष के ऊपर ( भगवान ने जिस वृक्ष के नीचे कोई पीड़ा नहीं होती है। केवल-ज्ञान प्राप्त किया हो, वह) एक चैत्यवृक्ष भी ३. दिव्यध्वनि प्रातिहार्य : मालकोश राग में प्रवाहित प्रभु की वाणी होता है। को देवता बांसुरी, वीणा, मृदंग आदि के स्वरों के साथ जोड़ते हौं २. सुर पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य : प्रभुजी जहाँ विहार करते हैं, उस ४. चवर प्रातिहार्य : रत्न जड़ित सुवर्ण के दण्डों से युक्त चार जोड़ी श्वेत चवर, जो देवतागण भगवान के आस-पास ढुलाते हैं। ५. सिंहासन प्रातिहार्य : भगवान को बैठने के लिए देवता समवसरण में रत्नजड़ित सुवर्णमय सिंहासन निर्माण करते हैं। . भामंडल प्रातिहार्य : भगवान के मस्तक के पीछे शरद् ऋतु के सूर्य की किरणों के समान उग्र तेज से युक्त भामंडल (तेज का मंडल) का निर्माण देवता करते हैं। ७. देवदुंदुभि प्रातिहार्य : प्रभुजी जब विहार करते हों अथवा समवसरण में देशना देने पधारते हों, उस समय देवतागण दुंदुभि बजाते हैं । वह ध्वनि यह सूचित करती है कि "हे, भव्यात्मा ! आप शिवपुर के सार्थवाह समान इस भगवन्त की सेवा करो।" छत्र प्रातिहार्य : जब प्रभुजी विहार करते हैं, उस समय शरद ऋतु के चन्द्रमा के समान उज्ज्वल तथा मोतियों के हार से सुशोभित तीन छत्र होते हैं। समवसरण में देशना देते समय पंद्रह छत्र होते है। उसमें पूर्वादि चार दिशाओं में तीन-तीन और पूर्व दिशा में चैत्यवृक्ष (=जिस वृक्ष के नीचे केवलज्ञान पाते है वह) के उपर तीन छत्र होते है। इस प्रकार ४ x ३=१२+३=१५। छत्र नीचे बड़े और उपर छोटे होते है। तीन छत्र यह सूचित करते हैं कि “हे प्रभुजी ! प्रभु का अष्टप्रातिहार्य के साथ विहार आप तीन भुवन के स्वामी हो।" JEIREOLcation International For Prwate & Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ALLLLE प्रभुजी समवसरण में देशना देते हुए चार अतिशयों का वर्णन १. अपायापगमातिशय : प्रभुजी जहाँ विचरण करते हैं, वहां छहों दिशाओं को मिलाकर सवा सौ योजन तक प्रभुजी के प्रभाव से छह महीने तक रोग, मृत्यु, वैर, अतिवृष्टि, दुष्काल, स्वराज्य तथा पर राज्य का भय आदि उपद्रव नहीं होता है, तथा यदि उसके पूर्व हो चुका हो तो वह नष्ट हो जाता है। २. ज्ञानातिशय : प्रभुजी की वाणी पैंतीस गुणों से युक्त होती है, जिसके कारण भव्य जीवों के संशयों का छेदन होता है। ३. पूजातिशय : नरेन्द्र, असुरेन्द्र तथा सुरेन्द्र भी प्रभुजी की पूजा करते हैं। ४. वचनातिशय : प्रभुजी की वाणी सभी जीव अपनी-अपनी भाषा में समझ सकते हैं। परमात्मा की वाणी के पैंतीस गुण (१) शब्दालंकार तथा अर्थालंकार से युक्त 'संस्कारवाली' विवेचना के साथ भूमिका के साथ गम्भीर अर्थों से युक्त होने (२) स्पष्टतथा उच्च स्वरसे युक्त होने के कारण उदात्त'(३) कारण 'अभिजात्य'(२०) अमृत से भी मधुर तथा भूख-प्यासउदार-शिष्टाचारी-संस्कारी तथा विद्वानों को भाए ऐसी उपचार थकान-परेशानी तथा निद्रा को भूलानेवाली होने के कारण परीत' (४) समद्र का मंथन की तरह, ऐसी गम्भीर ध्वनि से स्निग्धमधर' (२१) चारों ओर लोगों के द्वारा गुणगान का घोष अलंकृत व मेघ के समान गम्भीर'(५)वाणी के पीछे-पीछे सुनने को मिले तथा श्रोतागण प्रशंसा करते हुए थकें नहीं अर्थात् मानो गम्भीर घंटानाद हो रहा हो, ऐसी ‘प्रतिनादयुक्त' (६) 'प्रशंसनीय'(२२)किसी भी श्रोता के मर्म को आहत न करने के बोलने तथा समझने में अत्यन्त सरल 'दाक्षिण्य गुण युक्त' कारण 'अमर्मवेधी' (२३) कहने का विषय महान तथा गम्भीर (७) अत्यन्त मधुर'मालकोश रागयुक्त' (८) विशाल तथा । होने के कारण 'उदार' (२४) वाणी-धर्म तथा उत्तम अर्थों से गम्भीर अर्थों से युक्त होने के कारण महार्थयुक्त'(९) बाद में संबद्ध होने के कारण धर्मार्थ प्रतिबद्ध'(२५) व्याकरण की दृष्टि कहे गए वचन पूर्व कथित वचन की अधिक पुष्टि करे तथा । से कर्त्ता-कर्म आदि विभक्ति, पुल्लिंग आदि लिंग, भूत, भविष्य, बिना किसी अवरोध के सतत प्रवाहित होती रहे, ऐसी वर्तमान आदि काल में कहीं भी स्खलना अथवा परिवर्तन रहित 'अव्याघातगुण युक्त'(१०)सिद्धान्तों का अनुसरण करने के होने के कारण 'कारकादि का अविपर्यास' (२६) भ्रान्ति, कारण तथा शिष्ट लोगों में प्रिय होने के कारण शिष्ट' (११) विक्षेप, क्षोभ, भय आदि दोषों से रहित होने के कारण श्रोताओं की शंकाओं को दूर करने में समर्थ तथा सन्देह रहित 'विभ्रमादिवियुक्त' (२७) श्रोता के दिल में सरसता, आतुरता ऐसी 'असंदेहकर' (१२) अनवरत प्रवाहित वाणी में से कोई तथा जिज्ञासा को जगाए रखने में समर्थ होने के कारण भी व्यक्ति किसी भी प्रकार का दोष निकालने में असमर्थ 'चित्रकारी'(२८) अन्य वक्ता की अपेक्षा श्रेष्ठ तथा चमत्कारपूर्ण अर्थात् 'अन्योत्तर-रहित' (१३) रुचिकर तथा सुगमतापूर्वक होने के कारण अद्भुत'(२९) न अत्यन्त शीघ्रता से, न अत्यन्त हृदयग्राह्य होने के कारण 'अतिहृदयंगम' (१४) पद तथा धीरे से, बल्कि सामान्य रूप से बोली जानेवाली वाणी होने के वाक्य एक दूसरे के साथ अपेक्षायुक्त तथा युक्तिसंगत होने के कारण 'अनतिविलम्बी' (३०) वास्तविकता का वर्णन रस पूर्ण कारण 'साकांक्ष'(१५) प्रत्येक शब्द में औचित्य का दर्शन व मधुर वाणी में प्रस्तुत करने के कारण विविधविचित्र'(३१) होने के कारण तथा श्रोतागण को चमत्कारपूर्ण रूप से प्रत्येक वचन में अन्य वचनों की अपेक्षा अधिक विशेषता निहित प्रभावित करने के कारण औचित्यपूर्ण'(१६) वस्तुतत्त्व को होने के कारण 'आरोपित विशेषतायुक्त' (३२) पराक्रमयुक्त करने के लिए सदा अनुकरण करनेवाली होने से वाणी होने के कारण सत्त्व प्रधान'(३३) प्रत्येक अक्षर-वाक्य'तत्त्वनिष्ठ' (१७) सम्बन्धित पदार्थों का वर्णन करनेवाली पद भलीभांति अलग होने के कारण 'विविक्त' (३४) वाणी तथा अकारण अतिविस्तार से रहित होने के कारण अप्रकीर्ण युक्ति-तर्क-दृष्टान्त तथा प्रमाण से युक्त होने के कारण प्रस्तुत' (१८) आत्मप्रशंसा तथा परनिन्दा से रहित होने के 'अविच्छिन्न' और (३५) वक्ता को खेद अथवा परिश्रम नहीं कारण 'स्वश्लाघा-परनिन्दा रहित' (१९) उत्तम कोटि की। लगने के कारण अखेद होती है। JaIREucation international 1933 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अरिहन्त परमात्मा ३४ अतिशयों से युक्त होते हैं (१) बाल, रोम तथा नाखून मर्यादा से अधिक नहीं बढ़ते हैं । (२) शरीर रोगरहित होता है। (३) रक्त तथा मांस दूध के समान सफेद होता है । (४) श्वासोच्छ्वास में कमल की सुगन्ध होती है । (५) आहार तथा निहार (मलत्याग) की विधि चर्मचक्षुवाले नहीं देख सकते हैं। (६) मस्तक के ऊपर आकाश में तीन छत्र होते हैं। (७) परमात्मा के आगे आकाश में धर्मचक्र होता है। (८) परमात्मा के दोनों ओर श्रेष्ठ दो चँवर होते हैं। (९) आकाश के समान स्वच्छ स्फटिक मणि से निर्मित सिंहासन पादपीठ सहित होता है । (१०) परमात्मा के आगे आकाश में इन्द्रध्वज चलता रहता है। ३४ ( ११ ) जहाँ-जहाँ परमात्मा स्थिरता करते हैं तथा बैठते हैं, वहाँ-वहाँ उसी समय पत्ते फूल तथा पल्लव से अलंकृत और छत्र, ध्वजा, घंट व पताका से सुशोभित अशोकवृक्ष उत्पन्न हो जाता है। (१२) भगवान के पीछे मुकुट के स्थान पर तेजोमंडल (आभामंडल ) होता है। (१३) जिस स्थान पर परमात्मा पधारते हैं, पृथ्वी का वह भाग समतल हो जाता है। (१४) जिस स्थान पर परमात्मा पधारते हैं, उस स्थान के काटे उल्टे मुँहवाले हो जाते हैं । (१५) जिस स्थान पर परमात्मा पधारते हैं, उस स्थान की ऋतु अनुकूल हो जाती हैं। (१६) जिस स्थान पर परमात्मा पधारते हैं, उस स्थान पर संवर्तक वायु के द्वारा एक योजन तक का क्षेत्र शुद्ध हो जाता है। (१७) मेघ के द्वारा धूलकण शान्त हो जाते हैं । (१८) देवताओं के द्वारा की गई पुष्पवृष्टि से घुटनों तक ऊँचे फूलों के ढेर लग जाते हैं तथा वे फूल उल्टे मुखवाले हो जाते हैं। (१९) अमनोज्ञ ( प्रतिकूल) शब्द-रूप-रस-गन्ध तथा स्पर्श नहीं होता है । (२०) मनोज्ञ (अनुकूल) शब्द-रूप-रस- गन्ध तथा स्पर्श प्रगट होता है। (२१) योजन पर्यन्त सुनाई देनेवाली धर्मदेशना हृदयस्पर्शी होती है। (२२) अर्धमागधी भाषा में उपदेश देते हैं । (२३) वह अर्धमागधी भाषा उपस्थित आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी तथा कीट-पतंगे आदि के लिए उनकी भाषा में परिवर्तित हो जाती है तथा वह उनके लिए हितकारी, सुखकारी व कल्याणकारी सिद्ध होती है। (२४) देव, असुर, नाग, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गन्धर्व तथा महोरग आदि परस्पर के वैरभाव को भूलकर प्रसन्नचित्त से परमात्मा की धर्मदेशना सुनते हैं । (२५) अन्य तीर्थिक नत मस्तक होकर परमात्मा को नमन करते है । (२६) परमात्मा के पास आनेवाले अन्य तीर्थिक निरुत्तर हो जाते है। (२७) जहाँ-जहाँ परमात्मा पधारते हैं, वहाँ-वहाँ सवा सौ योजन तक चूहे आदि का उपद्रव नहीं होता हैं। (२८) प्लेग आदि महारोग का उपद्रव नहीं होता है। (२९) अपनी सेना का विप्लव (उपद्रव) नहीं होता है। (३०) अन्य राज्य की सेना का विप्लव नहीं होता है। (३१) अतिवृष्टि (अधिक वर्षा ) नहीं होती है। (३२) अनावृष्टि (वर्षा नहीं हो ) ऐसा नहीं होता है । (३३) दुर्भिक्ष (दुकाल ) नहीं पड़ता हैं । (३४) परमात्मा के चरणस्पर्श से उस क्षेत्र में पूर्व में उत्पन्न उत्पात तथा व्याधि उपशान्त होती हैं। श्री अरिहंत परमात्मा १८ दोषों से रहित होते हैं (१) दानान्तराय, (२) लाभान्तराय, (३) भोगान्तराय, ( ४ ) उपभोगान्तराय, (५) वीर्यान्तराय, (६) हास्य, (७) रति, (८) अरति, ( ९ ) भय, (१०) शोक, (११) जुगुप्सा, (१२) काम, (१३) मिथ्यात्व (१४) अज्ञान ( मूढ़ता ), (१५) निद्रा, (१६) अविरति, (१७) राग तथा (१८) द्वेष । अन्य प्रकार से १८ दोषों रहित (१) मिथ्या, (२) अज्ञान, (३) मद, (४) क्रोध, (५) माया, (६) लोभ, (७) रति, (८) अरति, (९) निद्रा, (१०) शोक, (११) अलीक (असत्य), (१२) चौर्य, (१३) मात्सर्य (१४) भय, (१५) हिंसा, (१६) प्रेम, (१७) क्रीडा तथा (१८ ) हास्य । श्री अरिहन्त परमात्मा की शारीरिक शक्ति का एक औपमिक संकलन प्राणी में छुपी हुई अनन्त शक्तियों को प्रगट करने का स्थान अर्थात् तीर्थंकर । वे अनन्त शक्तिमान होते हैं । १२ योद्धा - १ सांड़ (बैल); १० सांड़ = १ घोड़ा; १० घोड़े = १ भैंसा; १५ भैंसे =१ हाथी; ५०० हाथी =१ केसरी सिंह; २००० सिंह = १ अष्टापद प्राणी; १० लाख अष्टापद ( शक्तिशाली प्राणी) = १ बलदेव; २ बलदेव =१ वासुदेव; २ वासुदेव = १ चक्रवर्ती; १ लाख चक्रवर्ती =१ नागेन्द्र; १ करोड़ नागेन्द्र =१ इन्द्र ऐसे असंख्य इन्द्रों में जितनी शक्ति होती है, उसकी तुलना तीर्थंकर भगवान की सबसे छोटी (कनिष्ठा ) ऊँगली से भी नहीं की जा सकती है। [ श्री विशेषावश्यक भाष्य ] www.jinelibrary.org Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -: श्री अरिहन्त परमात्मा सृष्टि कर्त्ता नहीं है : परमात्मा जब केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, तब संसारी भव्य जीवों को धर्म का उपदेश देकर संसार का स्वरूप बतलाते हैं। परन्तु वे संसार को बनाते नहीं हैं । यह संसार अनादिकाल से विद्यमान है। इसका कोई कर्त्ता नहीं है। जो कुछ भी रूपान्तर होता है, वह काल का स्वभाव है। भले ही काल्पनिक विचार से एक बार यह मान भी लिया जाए कि तीर्थकर परमात्मा ही जगत् के स्पष्ट हैं, तो परम दयालु तथा स्वतन्त्र सर्वशक्ति सम्पन्न ऐसे परमात्मा ने किसी जीव को सुखी तथा किसी को दुःखी क्यों बनाये ? । अतः यह मानना ही उचित है कि सुखी-दुःखी, धनवान-निर्धन, स्वरूपवान - कुरूप इत्यादि में मुख्य कारण जीवात्मा के द्वारा स्वयं किए गए शुभ-अशुभ कर्म ही हैं। श्री सिद्ध भगवन्तों का स्वरूप । सिद्ध भगवन्त घाति तथा अघाति आठ कर्मों से सर्वथा मुक्त होने के कारण आठ गुणों से अलंकृत होते हैं कोई जीवात्मा जब सिद्ध होता है, तब अनादिकाल से अव्यवहार राशि- निगोद में स्थित एक जीवात्मा व्यवहार राशि में आता है। इसमें श्री सिद्धभगवन्तों का ही महान उपकार है। जिन मंदिर में प्रातिहार्य रहित जिन प्रतिमा को 'सिद्धावस्थावाली' कही जाती है। आठ कर्मों का १. अनन्तज्ञान २. अनन्तदर्शन ६. अदृश्यता ७. अगुरुलघु ८. अनन्तवीर्य पंच परमेष्ठि में श्री अरिहन्त परमात्मा की प्रधानता के कारण तीर्थों की स्थापना के द्वारा जगत के जीवों को सन्मार्ग दिखलानेवाले होने के कारण तथा तीर्थ के आलंबन से अनेक भव्यात्माओं को मोक्ष की ओर प्रयाण ३. अव्याबाधसुख = वेदनीय कर्मों का क्षय होने से सर्व प्रकार की पीड़ा रहित निरुपाधिता प्राप्त होती है। ४. अनन्तचारित्र करने में समर्थ होने के कारण, अघाति कर्म सहित ऐसे श्री तीर्थंकर परमात्मा को पंच परमेष्ठियों में प्रधानता दी गई है। पंच परमेष्ठि के क्रम का कारण तीर्थस्थापना की प्रधानता के कारण श्री अरिहन्त परमात्मा को सर्वप्रथम स्मरण किया जाता है। तीर्थ के आलंबन के कारण धर्मोपदेश के प्रति सम्पूर्णतया समर्पित होकर अष्टकर्म से मुक्त होने के कारण श्री सिद्ध भगवन्तों को दूसरे क्रम में स्मरण किया जाता है। परमात्मा की अनुपस्थिति में परमात्मा के वचन के प्रति समर्पित सुविशुद्ध मोक्षमार्ग की देशना के द्वारा उपकार करने के कारण श्री आचार्य भगवन्तों को तीसरे क्रम में स्मरण किया जाता है। विनय-स्वाध्याय तथा स्थिरीकरण के गुणों से विशिष्ट योगदान देने के कारण श्री उपाध्याय भगवन्तों को चौथे क्रम में स्मरण किया जाता है। मोक्षमार्ग में सदा सहायक ऐसे श्री साधु भगवन्तों को पांचवें क्रम में स्मरण किया जाता है। क्षय करके जिन्होंने सिद्धिपद-मोक्षपद प्राप्त किया है, उन सिद्ध भगवन्तों के आठ गुण = ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय होने से यह गुण प्राप्त होता है, जिससे संसार के स्वरूप का ज्ञान होता है। = दर्शनावरणीय कर्मों का क्षय होने से यह गुण प्राप्त होता है, जिससे संसार के स्वरूप को समस्त प्रकार से देखा जाता है। ५. अक्षयस्थिति = आयु:कर्म का क्षय होने से कभी नाश नहीं हो, ऐसी अनन्तस्थिति प्राप्त होती है। सिद्ध की स्थिति का आदि (प्रारम्भ ) है, परन्तु अन्त नहीं है। अतः वे सादि अनन्त कहलाते हैं। = नामकर्म का क्षय होने से वर्ण, गन्ध, रस तथा स्पर्श से रहित होता है। क्योंकि यदि शरीर हो, तभी ये गुण होते हैं। परन्तु सिद्ध को शरीर नहीं है। अतः अदृश्यता प्राप्त होती है। = मोहनीय कर्मों का क्षय होने से यह गुण प्राप्त होता है, इसमें क्षायिक सम्यक्त्व तथा यथाख्यात चारित्र का समावेश होता है। इससे सिद्ध भगवन्त अपने स्वभाव में सदा अवस्थित होते हैं। यहाँ इसे ही चारित्र कहा जाता है। Jain Education international = गोत्रकर्म का क्षय होने से यह गुण प्राप्त होता है। जिससे भारी, हल्का तथा ऊंच-नीच का व्यवहार नहीं रहता है। = अन्तरायकर्म का क्षय होने के कारण अनन्त दान, अनन्त लाभ, अनन्त भोग, अनन्त उपभोग तथा अनन्त वीर्यशक्ति प्राप्त होती है। समस्त लोक को अलोक में तथा अलोक को लोक में परिवर्तित करने की स्वाभाविक शक्ति सिद्ध में होती है। फिर भी वे उस वीर्य का उपयोग नहीं करते हैं, और कभी करेंगे भी नहीं, क्योंकि पुद्गल के साथ प्रवृत्ति, यह उनका धर्म नहीं है। इस गुण से अपने आत्मिक गुणों को ज्यों का त्यों धारण करते हैं, उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है। For Private & Peroatial Life COMMITWA ३५ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आचार्यभगवन्तों का स्वरूप श्री अरिहंत परमात्मा के अभाव में "शुद्ध प्ररूपक गुण थकी, अरिहा सम भाख्या रे..." (नवपदजी की पूजा की ढाल) के वचन के अनुसार अरिहंत के समान तथा धर्म के नायक ऐसे श्री आचार्य भगवन्त ३६ गुणों से अलंकृत होते हैं, 'श्री पंचिंदिय सूत्र' में उसका विस्तार से वर्णन किया गया है। फिर भी अत्यन्त संक्षिप्त में यहाँ बतलाया जा रहा है ।[एक से पाँच ]:- पाँच इन्द्रियों के विषयों का निग्रह करते हैं,[६ से १४] :-नौ प्रकार की ब्रह्मचर्य गुप्ति को धारण करते हैं, [१५ से १८] :- क्रोध, मान, माया तथा लोभ रूपी चार कषायों से मुक्त रहते हैं, [१९ से २३] :- पाँच महाव्रतों से युक्त हैं, [२४ से २८] :- पाच प्रकार के आचारों का पालन करते हैं, [२९ से ३३] :- पाँच समिति का पालन करते हैं तथा [३४ से ३६] :- तीन गुप्तियों से गुप्त होते हैं। [अन्य ग्रन्थों के अनुसार ये छत्तीस गुण छत्तीसी (३६४३६=१२९६) से भी सुशोभित होते हैं।] श्री उपाध्याय भगवन्तों का स्वरूप पाठक तथा वाचक के उपनाम से प्रसिद्ध श्री उपाध्याय भगवन्त सिद्धान्तों का अध्ययन करते हैं तथा कराते हैं, साथ ही शरण में आए हुए संयमी को संयम में स्थिर करने का महान कार्य करते हैं । युवराज तथा मन्त्री की उपमा को धारण करनेवाले श्री उपाध्याय भगवन्त गच्छ-समुदाय की अभ्यन्तर पर्षदा को स्वाध्याय-विनय-वेयावच्च आदि की शिक्षा देनेवाले होते हैं, वे २५ गणों से अलंकृत होते हैं।। (१) श्री आचाराङ्ग सूत्र (२) श्री सूयगडाङ्ग सूत्र (३) श्री ठाणांग सूत्र (४) श्री समवायाङ्क सूत्र (५) श्री भगवती सूत्र (६) श्री ज्ञाताधर्मकथा सूत्र (७) श्री उपासकदशाङ्ग सूत्र (८) श्री अन्तःकृतदशांग सूत्र (९) श्री अनुत्तरोववाई सूत्र (१०) श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र (११) श्री विपाकसूत्र, ये ग्यारह अंग तथा (१) श्री उववाई सूत्र (२) श्री रायपसेणी सूत्र (३) श्री जीवाभिगम सूत्र (४) श्री पन्नवणा सूत्र (५) श्री जंबूद्वीपपन्नत्ति सूत्र (६) श्री चन्द्रपन्नत्ति सूत्र (७) श्री सूरपन्नत्ति सूत्र (८) श्री कप्पिया सूत्र (९) श्री कप्पवडंसिया सूत्र (१०) श्री पुफिया सूत्र (११) श्री पुण्फचूलिया सूत्र तथा (१२) श्री वण्हिदशाङ्ग सूत्र इन बारह उपाङ्गों को पढ़ें तथा पढ़ाए, इस प्रकार ये २३ गुण हैं (२४) चरणसित्तरि तथा (२५) करणसित्तरि का पालन करें, इस प्रकार कुल २५ गुण हैं। श्री साधु भगवन्तों का स्वरूप जो मोक्ष प्राप्त करने के लिए सतत साधना करें तथा दूसरे जीवों को मोक्ष में जाने के लिए सहायता करें, वे साधु भगवन्त कहलाते हैं। उनके मुख्य २७ गुण होते हैं। (१) सर्वथा प्राणातिपात-विरमण महाव्रत, (२) सर्वथा मृषावाद-विरमण महाव्रत, (३)सर्वथा अदत्ता-दान-विरमण महाव्रत, (४) सर्वथा मैथुन-विरमण महाव्रत, (५) सर्वथा परिग्रह-विरमण महाव्रत, (६) सर्वथा रात्रिभोजन-विरमण व्रत, (७) से (१२) पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वाउकाय, वनस्पतिकाय तथा त्रसकाय की रक्षा करें, (१३) से (१७) पाच इन्द्रियों के विषयों का निग्रह करें, (१८) लोभ का निग्रह करें, (१९)क्षमा को धारण करें, (२०) चित्त की निर्मलता रखें, (२१) विशुद्ध रूप से वस्त्र की पडिलेहणा करें, (२२) संयमयोग में प्रवृत्त करनेवाली पाँच समिति तथा तीन गुप्तियों का पालन करें, (निंदा-विकथा तथा अविवेक का त्याग करें) (२३) अकुशल मन का संरोध करें अर्थात् कुमार्ग में जाते हुए मन को रोकें, (२४) अकुशल वचन का संरोध करें, (२५) अकुशल काया का संरोध करें, (२६) शीत-उष्ण आदि २२ परिषहों को समभाव से सहन करें तथा (२७) मृत्यु आदि उपसर्ग को भी समभाव से सहन करें, इस प्रकार कुल २७ गुण हैं। अनवरत मोक्षमार्ग की साधना करते हुए अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करने के कारण उनका वर्ण काला होता है। पू. साधु-साध्वीजी भगवन्त का संयम से पवित्र शरीर मैल-पसीना आदि के कारण मलिन दिखाई देता है, अतः उनके प्रति अरुचि करने से विचिकित्सा अतिचार लगता है तथा उनका आदर तथा सम्मान करने से निर्विचिकित्सा आचार का पालन होता है। इस प्रकार श्री अरिहंत भगवन्त के १२, श्री सिद्धभगवन्त के८,श्री आचार्य भगवन्त के ३६, श्री उपाध्याय भगवन्त के २५ तथा श्री साधु भगवन्तके २७ गुणों को जोड़ने पर कुल १०८ गुण पंच परमेष्ठि के होते हैं। i nternational Jai S Par PVPECIELLE www.jainelibrary Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2016-06 once Vaa नमस्कार महामन्त्र के स्मरण तथा जाप की पात्रता के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण - श्री महानिशीथसूत्र में कहा गया है कि 'श्रावकों को नवकारशी = साढ़े बारह उपवास के समान तप होता है। तप उपधान किए बिना श्री नमस्कार महामन्त्र का स्मरण अथवा पूर्ण होने के बाद पूज्य गुरुभगवंत के पास श्री नमस्कार जाप नहीं करना चाहिए ।' श्री उपधान तप का प्रथम महामन्त्र का श्रवण कराना चाहिए और शक्ति प्राप्त होते ही अढारिया (अठारह दिनों का पौषध) करने से श्री नमस्कार उपधान तप कर लेना चाहिए । बालकों के अतिरिक्त अन्य महामन्त्र के स्मरण तथा जाप का अधिकार प्राप्त होता है। भव्यात्माएं भी शक्ति के अभाव में अथवा संयोग की परन्तु छोटे बालक, जो उपधान तप करने में असमर्थ होते हैं, अनुकूलता के अभाव में शायद उपधान तप करने में समर्थ उन बालकों को साढ़े बारह उपवास के समान तप नवकारशीन हों, ऐसी भव्यात्माए भी आराधना से वंचित न रह जाए, पच्चक्खाण के द्वारा पूर्ण करवाना चाहिए । शास्त्रीय विधि इस शुभ आशय से श्री नमस्कार महामन्त्र के स्मरण व जाप के अनुसार ४८ नवकारशी = १ उपवास; ५९० दिनों तक की अनुमति जीताचार से जैनशासन में दिया जाता है। विधिपूर्वक किया गया मन्त्रजाप अवश्य फलदायी होता है। श्री नमस्कार महामन्त्र की आराधना तीन प्रकार से बतलाई गई है। (१) उत्कृष्ट आराधना, (२) मध्यम आराधना तथा (३) जघन्य आराधना (१) उत्कृष्ट आराधना : (२) मध्यम (३)जघन्य आराधना ___ श्री उपधान तप का प्रथम अढारिया आराधना 1 . नौ दिनों तक खीर का एकासणा कर प्रतिदिन दो हजार होता है। जिसमें : (अ) १८ दिनों तक शुभ दिन में श्री श्री नवकार मन्त्र का जाप करना चाहिए। दिन-रात पौषधव्रत के साथ अखंड उपधान नवकार महामन्त्र . उन दिनों परमात्मा में सतत ध्यान लगाना चाहिए। तप (ब) १८०० लोगस्स सूत्र का का जाप प्रारम्भ पूज्य गुरुभगवन्त के श्रीमुख से श्री नवकार महामन्त्र काउस्सग्ग तथा खमासमणा (क) ९ करना चाहिए। । ग्रहण करने की विधि उपवास तथा ९ नीवी (एकासणा) उसमें अठारह .पू. गुरुभगवन्त के पास से पहले ही शुभ मुहर्त्त जान लेना (मूलविधि के अनुसार-५ उपवास, उसके दिनों तक चाहिए। . घर में प्रभुजी के चित्र के समक्ष धूप तथा शुद्ध घी बाद ८ आयंबिल तथा ३ उपवास) जिस में लगातार खीर का का दीपक जलाना चाहिए। . शुभस्थल को अशोक आदि के पंच परमेष्ठि की प्रधानता है, ऐसे श्री एकासणा पत्तों से यथाशक्ति सजाना चाहिए । . उस दिन उपवास, नवपदजी की आराधना आश्विन तथा चैत्र अथवा १८ आयंबिल अथवा एकासणा करना चाहिए । . जिनालय में मास में शाश्वती ओली की आराधना करनी आयंबिल करना। प्रभुजी का चैत्यवन्दन करना चाहिए । • गीत वाद्य के साथ पू. चाहिए। चाहिए। गुरुभगवन्त के पास जाना चाहिए । पू. गुरुदेव की वन्दना कर उपधान तप की महत्ता तथा पवित्रता • उन दिनों प्रत्येक मांगलिक सुनते हुए प्रार्थना करनी चाहिए कि.. हे पूज्य किसी भी श्रुत को ग्रहण करने के लिए नवकार मन्त्र के परमोपकारी गुरुभगवन्त ! मैं आपकी वन्दना करता हूँ। मुझ पर किए गए विशिष्ट तप को उपधान कहा जाता साथ एक सफेद कृपा की नवकार मन्त्र प्रदान किजिएजी ..। . उसके बाद है, अर्थात् जिससे श्रुतज्ञान की पुष्टि होती है, फूल प्रभुजी को |गुरुभगवन्त साधक के कान में ६८ अक्षरोंवाला श्री नवकार उसे उपधान कहते हैं। श्री गुरुभगवन्त के समीप विधिपूर्वक तपश्चर्या करने के बाद चढ़ाकर श्री मन्त्र सुनाएं। • पुनः पू. गुरुभगवन्त की भावपूर्वक वन्दना कर, नवकार महामन्त्र कृतज्ञता व्यक्त करते हुए जाप करने की अनुमति मांगनी चाहिए। श्रुत को ग्रहण कर उसे धारण किया जाता का जाप करना .पू. गुरुभगवन्त के अगणित उपकारों की स्तवना करनी चाहिए। है, वह भी उपधान कहलाता है । चाहिए । प्रतिदिन - उपधान-विशेष प्रकार का एक तप । श्री नमस्कारमहामन्त्र का नियमित जाप कहा,कब और प्रथम उपधान तप में की जानेवाली कैसे करना चाहिए? ५००० नवकार मन्त्र का जाप आराधना का संक्षिप्त वर्णन .जाप की जगह निश्चित तथा पवित्र होनी चाहिए । . करना चाहिए। | तीर्थंकर भगवान के कल्याणक जिस स्थान पर हुए हो, वहाँ तथा .एक लाख श्री नवकारमन्त्र का जाप, दिनों में जहां उन्होंने स्थिरता की हो, उस शुभ परमाणुमय क्षेत्र में करना ७ हजार लोगस्स का काउस्सग्ग, • १५०० बार श्री नमुऽत्थुणं सूत्र का पाठ, चाहिए । • तीर्थस्थानों में, • पवित्र शान्त एकान्त स्थान में, . लाख श्री •२१ उपवास, १० आयंबिल तथा १६ नवकार महामन्त्र अशोकवृक्ष, शालवृक्ष आदि उत्तम वृक्ष के नीचे,. नदी किनारे. • प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में सूर्योदय से पहले की चार घड़ी (१ का जाप पूर्ण नीवि.... ४७ दिनों तक दिन-रात पौषध घंटा ३६ मिनट) पहले उठकर जाप करना उत्तम है। की आराधना, हजारों खमासमणा। करना चाहिए। ३७ Jain Education international y jainelib Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाप करने के मुख्य तीन प्रकार हैं पूज्यपाद पादलिप्तसूरिजी महाराज ने जाप के तीन प्रकार बतलाए हैं । १. २. १. मानस जाप : सहज भाव से होंठ बन्द रखकर दाँत, एक दूसरे को स्पर्श न करें, मात्र स्वयं ही जान सकें, इस प्रकार मन में ही जाप करना मानस जाप कहलाता है। उत्तम कार्य तथा शान्ति हेतु यह जाप उपयोगी कहलाता है और श्रेष्ठ भी है । २. उपांशु जाप होंठों का कम्पन सीमित रखते हुए दूसरे को सुनाई न दे, इसप्रकार मौनपूर्वक मन ही मन जाप करना उपांशु जाप कहलाता है। यह मध्यम कक्षा के कार्य के लिए उपयोगी तथा मध्यम जाप कहलाता है । (१) धारणा जाप : हाथ अथवा माला की सहायता के बिना मानसिक संकल्पना के अनुसार किया जानेवाला जाप । उदाहरण : ध्यानस्थ मुद्रा में बैठकर, किसी भी द्रव्य की सहायता के बिना जब परमात्मा का ध्यान किया जाए तो उसे धारणा जाप कहा जाता है। सिद्धावर्त इस ३. भाष्य जाप : तालबद्ध, शुद्ध उच्चारण के साथ, दूसरे सुन सकें, प्रकार बोलकर किया जानेवाला जाप भाष्य जाप कहलाता है। यह जाप स्वयं के कार्य के लिए उपयोगी माना जाता है। जाप करने के अन्य तीन प्रकार ३८. नंदावर्त पूर्वानुपूर्वी क्रमानुसार पदों की गिनती करनी चाहिए, उदाहरण: नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं आदि.. । जाप करने की पद्धति के मुख्य तीन प्रकार नवपदावर्त जाप शंखावर्त जाप 000 0000 ॐ कारावर्त यह आवर्त्त नन्दावर्त, शंखावर्त, ॐकारावर्त्त, ह्रीँकारावर्त्त, श्रींकारावर्त्त, सिद्धावर्त्त, नवपदावर्त्त आदि अनेक प्रकार के होते हैं। आवर्त्त में अंगूठा फिराते समय अंगूठे का नाखून किसी भी पर्व में न लगे इसका ध्यान रखना चाहिए तथा १ से १२ दाहिने हाथ में तथा १ से ९ बाँए हाथ में क्रमश: गिनते हुए अंगूठा अखंड फिरना चाहिए। अंगूठा बीच में से उठाना नहीं चाहिए। कर जाप अनन्त गुणा फल देता है। ( आवर्त्त के चित्रों के क्रमांक के अनुसार जाप करना चाहिए। ) पश्चानुपूर्वी उल्टे क्रम से गिनना, अर्थात् उत्क्रमण से गिनना, ये दो प्रकार के माने जाते हैं । १. पद के उत्क्रम से तथा २. अक्षर के उत्क्रम से उदाहरण: (१) पद का उत्क्रम-पढमं हवड़ मंगलं, मंगलाणं च सव्वेसिं...इत्यादि । (२) अक्षरों का उत्क्रम-लंगमं इवह मंडप... सिंव्वेस च णंलागमं... इत्यादि । ३. अनानुपूर्वी पद्धति विशेष से गीन सके वह । उदा : ७ अंक की जगह पर सव्वपावपणासणो, २ अंक की जगह नमो सिद्धाणं इत्यादि । acababa (२) कर जाप ऊँगलियों के पर्वो पर अलग-अलग आवत्त के सहारे जो जाप किया जाए, उसे कर-जाप (कर हाथ) कहा जाता है। यदि धारणा जाप करने में असुविधा हो तो कर जाप किया जा सकता है। इसमें दोनों हाथों की ऊंगलियों के पर्वो के सहारे संख्या का परिमाण कर-जाप में किया जाता है। पर्वों के सहारे दोनों हाथों के अंगूठे से गिनने का विधान कहा गया है। एक निश्चित आवर्त्त के अनुसार गिनते हुए जाप करने से श्रेष्ठ फलदायक होता है। दाहिने हाथ में १२ तथा बाएँ हाथ में ९ की संख्या होती है। नौ बार १२ की संख्या गिनने से कुल १०८ होता है । Printe & Person Use On सरल आवर्त जाप ही कार आवर्त Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) माला जाप : शक्ति के अनुसार माला खरीदनी चाहिए। सूत की माला सर्वथा योग्य मानी जाती है। इसके अतिरिक्त रेशम की माला, चन्दन, रुद्राक्ष, अकलबेर, स्फटिक, मूगा आदि की माला भी शक्ति के अनुसार ली जा सकती है। शान्ति तथा शुभ कार्य के लिए सफेद रंग की माला लेनी चाहिए । जाप में उपयोग करने से पहले माला को पूज्य गुरुभगवन्त के पास अभिमन्त्रित करा लेनी चाहिए। 34A FO अंगूठा तर्जनी मध्यमा LOC00 MASOOOG BOBO AAA अनामिका कनिष्ठिका माला गिनते समय ध्यान में रखने योग्य बातें • स्वयं की तथा अभिमन्त्रित माला का ही प्रयोग करना चाहिए। एकाग्रता बढ़ती है। .चन्दन अथवा सूत की माला का प्रयोग करना चाहिए। माला गिनते समय एक मनका पर मन्त्र पूरा हो जाने के एक निश्चित समय तथा स्थल पर माला गिननी चाहिए। बाद ही दूसरे मनके को स्पर्श करना चाहिए। मुंह पूर्व दिशा में रहे, इस प्रकार बैठकर जाप करना चाहिए। माला गिनते समय प्रमादवश नीद आने पर यदि माला .यदि पूर्व दिशा में अनुकूलता न हो तो उत्तर दिशा में मुंह रखकर गिर जाए तो दूसरी बार पुनः पहले से माला गिननी जाप करना चाहिए। चाहिए तथा माला गिर गई है, इसकी आलोचना पूज्य • जाप में शुद्ध तथा अखण्ड वस्त्र धारण करना चाहिए। गुरु-भगवन्त के पास से लेनी चाहिए। सफेद गर्म ऊन का समचौरस आसन होना चाहिए। माला टूट जाए, खो जाए अथवा अन्य कोई नुकशान हो •माला गिनते समय मणकों को नाखून से स्पर्श नहीं करना चाहिए। जाए तो उसकी भी आलोचना लेनी चाहिए। •माला हृदय के नजदीक, नाभि से ऊपर तथा नाक से नीचे होनी.यदि माला भूल से नीचे गिर जाए तो पू. गुरुभगवन्त के चाहिए। पास दुबारा अभिमन्त्रित करा लेनी चाहिए। • माला शरीर के कोई भी भागों को तथा वस्त्र को स्पर्श नहीं माला भूमि पर, आसन पर, चरवाला अथवा मुंहपत्ति पर करनी चाहिए। नहीं रखना चाहिए। •माला के ऊपर एक बड़ा दाना होता है, जिसे मेरु कहा जाता है। जिस माला से श्री वीतराग परमात्मा तथा श्री • एक माला पूर्ण हो तो मेरु का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। सिद्धचक्रजी का जाप किया जाता हो, उस माला से श्री अर्थात् माला पूरी होने पर वापस दूसरी बार अंतिम से गिनने की सरस्वती देवी मन्त्र, विद्यामन्त्र-अधिष्ठायक देव-देवी मन्त्र शुरुआत करनी चाहिए। आदि नहीं गिनना चाहिए। यदि भूल से गिना गया हो तो माला गिनते समय पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन अथवा उस माला पर पुनः परमात्मा का मन्त्र नहीं गिनना चाहिए। पालथी लगाकर सुखासन में बैठना चाहिए। जिस माला से देव-देवी आदि का मन्त्रजाप किया जाता • माला गिनते समय मेरुरज्जु को बिल्कुल सीधा रखने से हो, उस माला से प्रभु का जाप नहीं करना चाहिए। ३९ E nterintionaly A rsonal Use Only www brary Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प विविध प्रकार की नवकारवाली (माला) से होनेवाले लाभों का वर्णन • सूत की नवकारवाली से जाप सुख गुणा लाभ प्रदान करता है। प्रदान करता है। 1. प्रवाल की नवकारवाली से जाप १००० गुणा लाभ प्रदान करता है। चांदी की नवकारवाली से जाप शान्ति •स्फटिक की नवकारवाली से जाप १०,००० गुणा लाभ प्रदान करता है। प्रदान करता है। • मोती की नवकारवाली से जाप १,००,००० गुणा लाभ प्रदान करता है। • सोने की नवकारवाली से जाप • सोने की नवकारवाली से जाप १ करोड़ गुणा लाभ प्रदान करता है। सौभाग्य प्रदान करता है। चंदन की नवकारवाली से जाप १०० करोड़ गुणा लाभ प्रदान करता है। मोती की नवकारवाली से जाप • रत्न की नवकारवाली से जाप १२,००० करोड़ गुणा लाभ प्रदान करता है। आरोग्य प्रदान करता है। •प्लास्टिक तथा हलकी लकड़ी की नवकारवाली से प्रयोग नही करना चाहिए। • शंख की नवकारवाली से जाप १०० क्योंकि वह फल रहित मानी जाती। .... नवकारवाली के १०८ मनकों का रहस्य ....... श्री पंच परमेष्ठि के १२+८+३६+२५+२७ = करने के लिए, उसमें १०८ मनके होते हैं। अपने मन में स्थित पाप करने की १०८ गुण होते हैं। उन समस्त गुणों के प्रति आदर, वृत्ति तथा पापकर्म की शक्ति का नाश करने के लिए प्रत्येक जैन गृहस्थ को सत्कार तथा सम्मान का भाव प्रगटाने के लिए तथा कम से कम एक माला श्री नवकारमहामन्त्र की अवश्य गिननी चाहिए। ऐसा माला (नवकारवाली) गिनते समय एक-एक गुण करने से आधि, व्याधि, उपाधि तथा विघ्नों की हारमाला का नाश होने के का स्मरण कर अपने अन्दर उतारने का पुरुषार्थ साथ-साथ परम शान्ति तथा आनन्द स्वरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। "दिन से रात तक आकाश के रंगों में होनेवाले परिवर्तन के अनुसार किया जानेवाला जाप - अक्षरमाला १) रात्रि के अन्तिम प्रहर में आकाश का वर्ण 'सफेद' होता है, उस समय नमो अरिहंताणं का जाप करना चाहिए। २) प्रातः काल सूर्योदय के समय आकाश का वर्ण'लाल' होता है, उस समय 'नमो सिद्धाणं' का जाप करना चाहिए। ३) दोपहर( मध्याह्न) के समय आकाश का वर्ण पीला' होता है, उस समय नसीआयरियाण का जाप करना चाहिए। ४) सूर्यास्त के समय आकाश का वर्ण 'नीला' होता है, उस समय 'नमो उवज्झायाणं' का जाप करना चाहिए। ५) मध्य रात्रि में आकाश का वर्ण 'काला' होता है, उस समय 'नमो लोए सव्वसाहूणं' का जाप करना चाहिए। षडावश्यकमय श्री नमस्कारमहामन्त्र १) नमो-सामायिक-आवश्यक (नम्र-समता भाव की प्राप्ति)।।५) मंगलाणं च सव्वेर्सि - कायोत्सर्ग आवश्यक २) अरिहंताणं, सिद्धाणं-चतुर्विंशतिस्तव-आवश्यक (चौबीस (काउस्सग्ग परम मंगल है)। तीर्थंकरों का नामस्तव)। ६) पढमं हवइ मंगलं-प्रत्याख्यान आवश्यक (सर्वश्रेष्ठ ३) एसो पंच नमक्कारो, सव्व पावप्पणासणो प्रतिक्रमण मंगल प्रतिज्ञा है)। आवश्यक (पाप से पीछे हटना)। प्रथमपद के स्मरण से निर्विकल्प दशा की प्राप्ति का वर्णन नमो अरिहंताणं:='न'-दाहिने कान के विवर में; 'मो'-बाएँ कान के विवर में; 'अ'-दाहिनी आंख में; 'रि'-बायीं आंख में; 'हं'दाहिने नाक के विवर में; 'ता' वाम नाक के विवर में और ‘णं'-मुंह में स्थापना करके ध्यान करने से संकल्प-विकल्प दूर होता है। Jain Egatalignomiamin ate & Personal Use Only www.ajpetibrary.org Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद का नाम १. श्री अरिहंत पद २. श्री सिद्ध पद ३. श्री आचार्य पद ४. श्री उपाध्याय पद क्रम ५. श्री साधु पद ६. श्री दर्शन पद ७. श्री ज्ञान पद ८. श्री चारित्र पद ९. श्री तप पद सहस्रदल पद्म द्विदल पद्म घोडशदल पद्म द्वादशदल पद्म दशदल पद्म श्री शाश्वत नवपद की ओली की विधि निम्नलिखित है । वर्ण धान्य अनुसार चावल गेहूँ चना मूँग उड़द चावल चावल चावल चावल घद्दल पद्म चतुर्दल पदा काउस्सग्ग लोगस्स में प्रदक्षिणा खमासमण स्वस्तिक १२ ८ ३६ २५ २७ ३६ २५ २७ ६७ ५१ ७० ५० ५० ५० इस नवपदजी की आराधना करनेवाला यश, कीर्त्ति, रिद्धि, सिद्धि, समृद्धि आदि को प्राप्त करता है तथा इस आराधना का अन्तिम तथा सम्पूर्ण फल परमपद (मोक्ष) की प्राप्ति है । षट्चक्र ६७ ५१ ७० १२ ८ ३६ २५ २७ ६७ ५१ ७० ५० -शून्य चक्र आज्ञा चक्र विशुद्ध चक्र अनाहत चक्र - मणिपूर चक्र १२ ८ स्वाधिष्ठान चक्र मूलाधार चक्र हमारे शरीर में ७२,००० नाड़ियाँ होती हैं। उनका उत्पत्ति स्थान (मूल- कंद) जननेन्द्रिय से दो अंगुल नीचे होता है । मूल-कंद से इडा-पिंगला तथा सुषुम्णा नामक तीन नाड़ियाँ निकलती हैं, जो अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । उनमें सुषुम्णा नाड़ी मूलाधार चक्र से ब्रह्मारंध्रचक्र तक लंबी है । वह लाल रंग की होती हैं तथा उसमें 'वज्र' नामक नाड़ी होती है । वज्र-नाड़ी में ‘चित्रा' नामक दूसरी नाड़ी होती है । वज्रनाड़ी तेजस्वी तथा चित्रा नाड़ी सात्त्विक होती । १२ ८ ३६ २५ २७ ६७ ५१ ७० श्री नवकारमंत्र के ध्यान से सात चक्र प्रगट होते हैं । For नवकारवाली पद (२०) ॐ नमो अरिहंताणं ॐ नमो सिद्धाणं ॐ नमो आयरियाणं ॐ नमो उवज्झायाणं ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं ॐ नमो दंसणस्स ॐ नमो नाणस्स ॐ नमो चारित्तस्स ॐ नमो तवस्स उस चित्रा नाड़ी में एक (अतिशय पतली ) नाड़ी होती है, वह ब्रह्मनाड़ी कहलाती । जब कुंडलिनी जाग्रत होती है, तब ब्रह्मनाड़ी के द्वारा मूलाधार से सहस्त्रार की ओर आगे बढ़ती है। इस बह्यनाड़ी में सात चक्र (१) मूलाधार, (२) स्वाधिष्ठान, (३) मणिपुर, (४) अनाहत, (५) विशुद्ध, (६) आज्ञा चक्र तथा (७) सहस्रार चक्र होते हैं। श्री नवकार मंत्र के उच्चारण के साथ ७२,००० नाड़ियों में चैतन्य शक्ति का संचार होता है । श्री नवकारमंत्र से अंतःकरण पर असर होती है। Portional Lise Only ४१ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रों के चतुर्विधध्यान स्तोत्र से कमल की पंखुड़ियों का ध्यान श्री श्रीतपसे सिद्धेभ्यो श्रीदर्शनाय नमः नमः नमः TTI श्रीसर्वसाधुभ्यो श्रीअर्हद्भयो श्रीसूरिभ्यो नमः नमः नमः ता सि । मः हं श्रीचारित्राय श्री श्रीज्ञानाय नमः उपाध्यायेभ्यो नमः नमः गुदलिङ्गमध्ये आधारचक्रं प्रथमम् । (१)मूलाधार चक्र (गुदा तथा लिंग के बीच): चारपंखुड़ियों वाला कमल होता है। वह 'नमः सिद्धम्' इन चार अक्षरों से समृद्ध होता है । कर्णिका में प्रणव ( ॐ कार),जो पंचपरमेष्ठि के पाँच वर्णों से युक्त है। इसका ध्यान सुख देनेवाला है । (पंचपरमेष्ठि के प्रथम अक्षर से ॐकार-अ+अ(अशीरी) + आ + उ+ म्(मुनि)= ॐ होता है।) लिङ्गमूले स्वाधिष्ठानचक्रं द्वितीयम् । २)स्वाधिष्ठान चक्र (लिग का मूल) षट्कोणीय आकृतिवाला होता है। वह इस आकृति के मध्य से लेकर प्रदक्षिणा में अर्थात् क्रमशः 'नमो अरिहंताणं' यह सात अक्षरों का महामन्त्र है। इसका ध्यान दुःख का हरण कर लेता है। नाभौ मणिपूरचक्रं तृतीयम् । (३) मणिपूर चक्र (नाभि पर) आठ पंखुड़ियोंवाला होता है। इसके मध्य स्थान पर तथा मूल दिशाओं में पंच-परमेष्ठि और नाभिप्रदेश पर विदिशा में दर्शन - ज्ञान - चारित्र - तप का ध्यान करना चाहिए। सिद्धाविका चक्रेश्वरी भी अजितबला दुरितारि। गोमुख महायक्ष उनका पद्मावती सिखा मातंग गांधारी अंबिक अब पार्थ विशाला मादेवी कदेती विजया भाभकुटिगोन शिवा वाम अमित संभव/ नसी रोहिणी मा सिद्धारी मंगल छ वक्षनावमबुरू कालिका महाकाली मानसी महामानसी/ अ: |आ3 रोट्या अच्छुमा आॐ Harea धारिणी धरणाप्रिया नरदान अहेवकुबर करुणा/ साहे अहँ नमः Jahanipa श्रीगौतमस्वामिने श्यामा | शांता JHAARAamiry बडाकुशवक्रारी मातंग विजय/ X AAAA उ/ गन्धर्व एए/ A उसाला मानवी/ १० १ 2010 namah RA प्रकुटि सुतारका अशोका DIRI PXRels HERI कंदी निर्वाणी m Magne Dhanh le May ISAR USE हृदये अनाहतचक्रं चतुर्थम् । (४) अनाहत चक्र (हृदय पर) सोलह पंखुड़ियोंवाला कमल होता है। उसमें सोलह अक्षरवाली महाविद्या होती है तथा सोलह स्वर से सूचित सोलह विद्यादेवियों से युक्त है । इसकी कर्णिका में 'गौतमस्वामिने नमः' मंत्र है । उसे नमस्कार करना चाहिए। कण्ठे विशुद्धिचक्रं पञ्चमम् । (५) विशुद्धचक्र (कंठपर) चौबीस पंखुड़यों वाला कमल होता है । उसमें चौबीस तीर्थकर, उनकी माताएँ तथा यक्षयक्षिणियाँ होती हैं। इसकी कर्णिका में जिनशक्ति अर्थात् अहँ नमः है। उसका ध्यान करना चाहिए। XIREdesstion International Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ঔ Elite द्वीपकुमारेंद्र अग्निकुमारेंद्र _दिक्कुमारद्र सि अ Jain Eduitieron international ६२०२१२२ २३ २४ २५ २६ २७ 48200 भूतेंद्र राक्षसेंद्र यक्षेद्र आ सा वातकुमारेंद्र सौधर्मेंद्र ईशानेंद्र सनत्कुमारेंद्र माहेंद्र घ स क सरस्वत्यै नमः 62d6d3d मः F 130 (६) ललना चक्र (जीह्वा पर) : बत्तीस पंखुड़ियोंवाला कमल होता है। वह बत्तीस इन्द्रों से समृद्ध है तथा 'ह' रहित अर्थात् 'क' से 'स' तक, यह चक्र बत्तीस व्यंजनों से युक्त 'सरस्वत्यै नमः' मंत्र से सिद्ध सरस्वतीदेवी मुझे स्वर प्रदान करो । है । 2210 21 मस्तके सोमकलाचक्रं अष्टमम् । (८) सोमकला चक्र (सिरपर) : जो अर्ध चन्द्राकार की आकृति जैसी सोमकला है। उसमें 'अ, सि, आ, उ, सा, नमः' मन्त्र का चन्द्रमा के समान सफेद वर्ण पर ध्यान करने से, यह मोक्ष प्राप्ति में कारणभूत होता है। 5 प धण्टिकायां ललनाचक्रं षष्ठम् ॥ དུན། ན ག ས ཏི ME चंद्रद्र आदित्येंद्र ब्रह्मेन्द्र लातकेंद्र शुकेंद्र ਤੋਂ ब्रह्मद्वारे ब्रह्मबिन्दुचक्रं नवमम् । (९) ब्रह्मबिन्दु चक्र (ब्रह्मेन्द्र पर ) : यह ब्रह्मनाडी (सुषुम्णानाडी ) से संयुक्त है । उसका प्रणव ( ॐकार) से पूर्ण ध्यान, भव्य जीवों का कल्याण करता है। ळ न 55 (७) आज्ञा चक्र ह मः भ्रूमध्ये आज्ञाचक्रं सप्तमम् । इस चतुर्विध ध्यान स्तोत्र में रहे हुए परमेष्ठिमय सर्वश्रेष्ठ तत्व का, जो आत्मा निरंतर ध्यान करती है, वह परमानंद (मोक्ष) को पाती है। क्ष (दोनों भ्रमर-भौंहों के बीच ) : तीन पंखुड़ियोंवाला कमल होता है । वह'ह', 'ल' व 'क्ष' से युक्त है तथा 'ॐ नमः' से संकलित (ह्रीँकार स्वरूप) एकाक्षरी महाविद्या से युक्त है । यह महाविद्या समग्र सिद्धि को देनेवाली है। हंस: ब्रह्मद्वारोपरि हंसनादचक्रं दशमम् । (१०) हंसनाद चक्र (ब्रह्मेन्द्र के उपर ) : हंस ( जीव - आत्मा) का अत्यन्त शुद्ध स्फटिक जैसा, जो गलित मनवाला अर्थात् क्षीणवृत्तिवाला योगी पुरुष इसका ध्यान करते हैं, उन ( योगी पुरुषों) को समग्र सिद्धियाँ वशीभूत होती हैं। Brygre Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TX 'गुरु स्थापना करते समय खड़े पैर बैठने की मुद्रा I' मूल सूत्र पंचिंदिय-संवरणो, अशुद्ध तहनह विय पंचविचार पालण पंचमहावय जुत्तो छत्तीस गुरु गुरु २ श्री पंचिदिय सूत्र आदान नाम : श्री पंचिदिय सूत्र : सुगुरु स्थापना सूत्र : ८ गौण नाम पद संपदा गुरु-अक्षर लघु-अक्षर सर्व अक्षर शुद्ध तह नवविह २ : १० : ७० : ८० 'गुरु स्थापना करते समय पालथी में बैठकर करने की मुद्रा ।' १८ गुणो दोष त्याग स्वरुप है, छंद का नाम : गीति; राग : जिण जम्म समये मेरु सिहरे (स्नात्र पूजा ) उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ पाँच इंद्रियों को वश में रखने वाले, तथा नव प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुप्तियों को धारण करने वाले, चार प्रकार के कषायों से मुक्त, इन अट्ठारह गुणों से युक्त । १. चउ-विह कसा-य-मुक्-को, चडविह- कसाय - मुक्को, इअ अट्ठारस-गुणेहिं संजुत्तो ॥१॥ इअ अट्-ठा-रस गुणो-हिम् सञ् (सन् ) जुत्-तो ॥१॥ गाथार्थ : पाँच इंद्रियों को वश में रखने वाले, नव प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुप्तियों को धारण करने वाले, चार प्रकार के कषायों से मुक्त-इन अट्ठारह गुणों से युक्त । १. पञ् (पन् )- च महव् - वय जुत्-तो, १८ गुणो गुण स्वीकार स्वरुप है। छंद का नाम : गाहा; राग : मचकुंद-चंपमालई (स्नात्र पूजा) पंच- महव्वय-जुत्तो, पाँच महाव्रतों से युक्त, पंच- विहा - यार - पालण - समत्थो पंच-समिओ ति-गुत्तो, छत्तीस - गुणो गुरु मज्झ ॥२॥ । पञ् (पन्) - च- विहा - यार - पाल-ण- समत्-थो। पञ् (पन् )- च-समि-ओ-ति-गुत्-तो, छत् तीस-गुणो गुरु-मज्-झ ॥२॥ पञ् (पन्)- चिन्-दिय - सर्वं (सम्) - वर-णो, तह नव-विह-बंभचेर-गुत्तिधरो । तह नव-विह-बम्-भ-चेर-गुत्-ति-धरो । पंचविहायार पालण पंच महव्वय जुत्तो छत्तीस गुणो गुरु 'उत्थापन मुद्रा' खड़े पैर करने की विधि' उत्थापन मुद्रा' | विषयः १८ गुण दोषत्याग स्वरूप तथा १८ गुणस्वीकार स्वरूप कुल ३६ गुणों का वर्णन । पालथी में बैठकर करने की विधि। Personal Use Only पाँच प्रकार के आचारों का पालन करने में समर्थ, पाँच समितियों से युक्त और तीन गुप्तियों से युक्त, (इन) छत्तीस गुणों वाले मेरे गुरु हैं । २. गाथार्थ : पाँच महाव्रतों से युक्त, पाँच प्रकर के आचारों का पालन करने में समर्थ, पाँच समितियों से युक्त और तीन गुप्तियों से युक्त (इन) छत्तीस गुणों वाले मेरे गुरु है । २. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आचार्य भगवन्त के ३६ गुणों का वर्णन पू. गुरुभगवन्त की निश्रा में धर्मक्रिया करके नौ प्रकार की ब्रह्मचर्य गुप्ति को धारण करनेवाले: संसारसागर को पार करना है। अतः मन-वचन-काया: (१)जिस स्थान पर स्त्री, पशु तथा नपुंसक नहीं रहते हों, वहाँ के योगों का जिनके चरणों में समर्पण करना है, उन स्थिरता करे, (२) स्त्रीकथा तथा स्त्री के साथ बातें न करे, उद्धारक की पहचान सबसे पहले करनी चाहिए। (३) जिस आसन पर स्त्री बैंठी हो, उस आसन पर पुरुष दो पाच इन्द्रियों के विषयों का निग्रह करनेवाले: घड़ी न बैंठे तथा जिस आसन पर पुरुष बैठा हो, उस आसन पर चर्म, जीभ, नाक, आख, कान स्वरूप पाच इन्द्रिय : स्त्री तीन प्रहर [ प्रायः ९ घण्टे तक न बैंठे (४) स्त्री के तथा उनके विषय क्रमशः स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण व : अंगोपांग रागपूर्वक न देखे, (५) एक दीवार के अन्तर से स्त्री शब्द हैं । (१) स्पर्श-८-गुरु, लघु, मृदु, कर्कश, का आवास हो, वहाँ पुरुष वास न करे तथा यदि पुरुष का शीत, उष्ण, स्निग्ध, तथा रुक्ष (२) रस-५-तीखा, आवास हो, वहा स्त्री वास न करे (६) पूर्व में भोगे हुए कटु, खट्टा, मधुर व कषाय, (३) गन्ध-२ सुगन्ध, विषयों का स्मरण न करे, (७) स्निग्ध आहार न ले, (८) दुर्गन्ध( ४) वर्ण-५-लाल, पीला, नीला, सफेद और नीरस आहार भी अति मात्रा में न ले तथा (९) शरीर का काला (५) शब्द-३-सचित्त, अचित्त, मिश्र, इस शृंगार न करे। प्रकार पाँच इन्द्रियों के (८+५+२+५+३)२३ विषय :. चार कषायो से मुक्त :यदि अनुकूल मिले तो राग न करे और प्रतिकूल मिले: संसार की परम्परा जिससे बढ़े, उसे कषाय कहा जाता है, वह तो द्वेष न करे। चार प्रकार का है, क्रोध, मान, माया और लोभ। पाँच महाव्रत से युक्त १. सर्वथा प्राणातिपात विरमण महाव्रत-सर्वथा-हर प्रकार से, प्राण-जीव को, अतिपात-मारने से विरमणअटकना ।२. सर्वथा मृषावाद विरमण महाव्रत-सर्वथा-हर प्रकार से, मृषा-झूठ, वाद-बोलने से विरमण-अटकना ।३. सर्वथा अदत्तादान विरमण महाव्रत-सर्वथा-हर प्रकार से, अदत्त-नहीं दिया गया, आदान-लेने से, विरमण-अटकना। ४. सर्वथा मैथुन विरमण महाव्रत-सर्वथा-हर प्रकार से, मैथुन-विषयसुख के उपभोग से, विरमण-अटकना । ५. सर्वथा परिग्रह विरमण महाव्रत-सर्वथा-हर प्रकार से, परिग्रह-धन-धान्य आदि के संग्रह से, विरमण-अटकना। च प्रकार के आचार के पालन में समर्थ ज्ञानाचार : पढ़े, पढ़ाए, लिखे, लिखाए तथा पढ़नेवाले रूपी आठ प्रवचन की माताओं का पालन करना आवश्यक है। को सहायक बने। (१) इर्यासमिति : साढ़े तीन हाथ आगे दृष्टि नीचे रखकर भूमि पर देखते दर्शनाचार :शुद्ध सम्यक्त्व का स्वयं पालन करे, दूसरों : हुए चलना। से पालन कराए तथा सम्यक्त्व से विमुख (२) भाषासमिति : हितकारी, मित, प्रियकारी निरवद्य वचन बोलना। व्यक्ति को समझा कर स्थिर करे। (३) आदानभंडमत्त निक्षेपणासमिति : वस्त्र-पात्र, पाट आदि रखते, चारित्राचार :स्वयं शुद्ध आचरण पाले, दूसरों से पालन : लेते समय प्रमार्जन करने का उपयोग रखना। कराए, तथा शुद्ध आचरण का पालन : (४) पारिष्ठापनिका समिति : मल, मूत्र, श्लेष्म, कफ आदि त्याग करने करनेवाले की अनुमोदना करे। योग्य पदार्थों का जिस स्थान पर जीवन हो, वहा विसर्जन करना। तपाचार :छह बाह्य तथा छह अभ्यन्तर, इस प्रकार तीन गुप्तिया: बारह प्रकार के तप स्वयं करे । दूसरों से : (१) मनगुप्ति : मन में आतं, रौद्र ध्यान नहीं करना। कराए तथा करनेवाले की अनुमोदना करे। : (२) वचनगुप्ति : निरवद्य वचन भी बिना कारण के नहीं बोलना। वीर्याचार :धर्मानुष्ठान (धर्मक्रिया) में शक्ति होते हुए : (३) कायगुप्ति : पडिलेहण किए बिना शरीर नहीं हिलाना। उसे गुप्त न रखे तथा हर प्रकार के आचार पाँच इन्द्रियों का निग्रह करनेवाले, नौ प्रकार की ब्रह्मचर्य गुप्ति को का पालन करने में वीर्यशक्ति का सम्पूर्ण : धारण करनेवाले, चार प्रकार के कषायों से मुक्त, पाँच प्रकार के महाव्रत उपयोग करे। : से युक्त, पाच प्रकार के आचारों का पालन करने में समर्थ, पांच समिति पाँच समिति और तीन गुप्ति के धारक : चारित्र धर्म की का पालन करनेवाले और तीन गुप्ति से गुप्त (५+९+४+५+५+५+३ =), रक्षा के लिए मुनि को पाँच समिति तथा तीन गुप्ति : इस प्रकार के ३६ गुणों से युक्त हमारे पूज्य गुरुभगवन्त होते हैं। For Private & Personaliseren Susow.jainelibrary.org Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापना की महत्ता गुणों की प्राप्ति हेतु किया जानेवाला कोई भी अनुष्ठान गुणवान् गुरुभगवन्त के समक्ष ही करना चाहिए । क्योंकि गुरु भगवन्त की उपस्थिति में धर्मक्रिया करने से प्रमाद (आलस्य) को स्थान नहीं मिलता है, भूलों से बचा जा सकता है तथा पुण्यप्रभावी गुरुभगवन्त की उपस्थिति में आनन्द व वीर्योल्लास की भी वृद्धि होती है । अतः यदि सम्भव हो तो हर । पूज्यपाद श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने श्री विशेषावश्यक भाष्य में लिखा है कि “जब साक्षात् गुणवन्त गुरु भगवन्त की उपस्थिति न हो, तब गुरुभगवन्त की उपस्थिति का साक्षात् अनुभव करने हेतु स्थापना करनी चाहिए । जिस प्रकार जिनेश्वर के विरह में उनकी प्रतिमा का सेवन तथा आमंत्रण सफल होता है, उसी प्रकार गुरुभगवन्त के विरह में गुरुभगवन्त की स्थापना के समक्ष किया गया विनय तथा तमाम क्रियाओं के लिए आमंत्रण आत्मा के लिए हितकारी होता है।' स्थापना से होनेवाले पूज्यपाद श्री देवेन्द्रसूरिजी महाराज ने श्री गुरुवन्दन भाष्य में लिखा है कि ( धर्मानुष्ठान करते समय ) जब साक्षात् गुरुभगवन्त विद्यमान न हों तब गुरुभगवन्त के गुणों से युक्त हो, उसकी गुरुभगवन्त के रूप में स्थापना Jay Edu प्रकार की धर्मक्रिया गुरुभगवन्त की निश्रा में ही करनी चाहिए । यदि गुरुभगवन्तों की उपस्थिति न हो तब यह स्थापनासूत्र बोलकर, उसके एक-एक पद के विचार के द्वारा विद्यमान गुरुभगवन्त को दृष्टि के समक्ष लाकर गुरुस्थापना की जाती है। इस प्रकार स्थापना करने से हम गुरुभगवन्त की निश्रा में ही हैं, ऐसा अनुभव किया जा सकता है। लाभों का वर्णन करनी चाहिए अथवा उसके स्थान पर अक्षादि या ज्ञान-दर्शनचारित्र के उपकरणों की स्थापना करनी चाहिए । 'मैं गुरुभगवन्त के समक्ष हूँ", ऐसा भाव यदि सूत्र बोलते समय उत्पन्न हो तो विनय अवश्य फलदायी होता है । परन्तु यदि सूत्र बोला जाए लेकिन सूत्र के द्वारा ऐसे गुरुभगवन्त को उपस्थित नहीं कर सके, ऐसे मनुष्य की क्रिया मात्र द्रव्यक्रिया कहलाती है। क्योंकि सूत्र से होनेवाले भाव उत्पन्न नहीं होने के कारण भाव गुरुभगवन्त की स्मृति उन्हें नहीं होती है और इसी कारण से गुरु भगवन्त के प्रति विनय अथवा सम्मान की क्रिया में कोई भाव नहीं आ सकता । अतः इस सूत्र 'के 'द्वारा भाव से गुरुभगवन्त को स्मृति में लाने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। स्थापना करने की मुद्रा को आह्वान (स्थापना) मुद्रा कहा गया है । स्थापना की उत्थापना करने की मुद्रा को उत्थापन मुद्रा कही जाती है । (२) स्थापना के दो प्रकार चौदह पूर्वधर - श्रुतकेवली - कल्पसूत्र जैनागम रचयिता पूज्यपाद श्री भद्रबाहुस्वामीजी ने नौवें पूर्व से उद्धृत कर स्थापना- कल्प का वर्णन किया है, जो दो प्रकार का है। ( १ ) इत्वरकथित स्थापना : अल्पसमय के लिए की गई स्थापना । अपने गुरुभगवन्त जो अक्षवाले स्थापनाचार्यजी रखते हैं, उसमें श्री पंच परमेष्ठि भगवन्त की स्थापना की हुई होती है। यदि वह हो तो अन्य किसी प्रकार की स्थापना की आवश्यकता नहीं होती । उसके सामने सारी क्रियाएँ की जा सकती हैं। परन्तु यदि गुरु भगवन्त के स्थापनाचार्यजी न हो, तो क्रिया करने के लिए श्रीनवकार मन्त्र + पंचिदिय सूत्रवाली पुस्तक, यदि वह न हो तो अन्य कोई धार्मिक पुस्तक अथवा नवकारवाली अथवा चरवला जैसा कोई भी सम्यग्ज्ञानदर्शन - चारित्र का उपकरण अपने समक्ष रखकर अल्प • समय के लिए स्थापना की जाती है, उसे इत्वरकथित · स्थापना कही जाती है । ( इस में प्लास्टिक, लोहा आदि जघन्यद्रव्य की स्थापना नहीं की जा सकती है)। यावत्कथित स्थापना : गुरु प्रतिमा अथवा अक्षादि की स्थापना को चिरकाल (लम्बे समय) तक की जाती है, उसको यावत्कथित स्थापना कही जाती हैं । उसमें दक्षिणावर्त्त आदि विशिष्ट लक्षणोंवाले अक्ष, वराटक विशिष्ट फलदायी होते हैं। यह स्थापना दो प्रकार से की जाती है । (१) सद्भाव = गुरुभगवन्त की प्रतिमाप्रतिकृति (चित्र) की स्थापना, (२) असद्भाव = अक्ष, वराटक, पुस्तक आदि में आकृति रहित स्थापना की जाती है। अक्ष-गोल शंखाकृति, वर्त्तमान में यह प्रायः स्थापनाचार्यजी के रूप में प्रयुक्त होता है । वराटक-तीन रेखाओं से युक्त कौड़ी, इसकी स्थापना वर्त्तमान में प्रायः देखने में नहीं आती है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापनाजी स्थापित करने की विधि (१) इत्वरकथित स्थापना की विधि : सम्यग्ज्ञान- आगे रखकरमंगल हेतु श्री नवकारमन्त्र'बोलकर उसके बाद पंचिंदिय दर्शन-चारित्र के उपकरण को चौकी पर रखकर (जो सूत्र'बोलना चाहिए। नाभि के ऊपर तथा नाक से नीचे रहे) इस प्रकार (२)स्थापनाजी उत्थापन की विधि :सारी क्रियाएँ पूर्ण हो जाने के बाद गुरुभगवन्त के ३६ गुणों की स्थापना की जाती है। दाहिने हाथ को सीधा रखकर बाएं हाथ में मुख के आगे मुंहपत्ती रखकर उसके समक्ष दाहिना हाथ (सर्पाकाररूप) स्थापना मुद्रा उत्थापन मुद्रा में श्री नवकारमन्त्र गिनना चाहिए। यह क्रिया करने के बाद में रखना चाहिए तथा बायें हाथ से मुहपत्ति को मुख के स्थापित वस्तुको हिलाया जा सकता है। यावत्कथित स्थापनाचार्यजी के प्रतिलेखन की विधि खमासमणा (सत्रह संडासा के रूप में ) देकर श्री ईरियावहियं' करके १३ बोल से पडिलेहन करना चाहिए। स्थापनाचार्यजी के प्रतिलेखन के १३ बोल (१) शुद्धस्वरूप के धारक गुरु, (२) ज्ञानमय, (३) दर्शनमय, (४) चारित्रमय, (५)शुद्ध श्रद्धामय, (६)शुद्ध प्ररूपणामय, (७) शुद्ध स्पर्शनामय (८-९-१०) पंचाचार का पालन करे, करावे व अनुमोदन करे, (११) मनगुप्ति (१२) वचनगुप्ति व (१३) कायगुप्ति से गुप्त। प्रतिलेखन करने का क्रम प्रातःकाल के प्रतिलेखन में दोनों हाथ जोड़कर दोनों हाथों से आदरपूर्वक ठवणी पर रखना चाहिए। र स्थापनाचार्यजी को ग्रहण कर (महपत्ति-रुमाल- झोली =२५ बोल से, ठवणी- पाटली स्थापनाचार्यजी की झोली को २५ बोल से प्रतिलेखन = १० बोल से तथा स्थापनाचार्यजी को १३ बोल से प्रतिलेखन) करनी चाहिए । फिर झोली से ठवणी के दण्डे को १०- अक्ष एक-दूसरे को स्पर्श न करें, वैसे रखना चाहिए । (ठवणी १० बोल से प्रतिलेखन कर झोली को ठवणी पर रखना | उत्तम द्रव्य (चन्दन की लकड़ी) की होनी चाहिए।) चाहिए । स्थापनाचार्यजी को (मुहपत्ति सहित) पू. साधु-साध्वीजी भगवन्त दोनों समय स्थापनाचार्यजी की प्रतिलेखन किए हुए शुद्धवस्त्र (कम्बल आदि) पर पडिलेहणा करे तथा पौषधार्थी श्रावक-श्राविकाओं को भी दोनों रखनी चाहिए । स्थापनाचार्यजी के ऊपर रखी हुई प्रथम समय स्थापनाचार्यजी की प्रतिलेखन करनी चाहिए । यदि हपत्ति को २५ बोल से प्रतिलेखन करनी चाहिए । उस स्थापनाचार्यजी की आवश्यकता न हो तो चतुर्विध श्रीसंघ (साधमुंहपत्ति को दाहिने हाथ की उंगलियों से पकड़कर साध्वीजी तथा श्रावक-श्राविका) उस स्थापनाचार्यजी को प्रत्येक अक्ष (स्थापनाचार्यजी) को १३-१३ बोल से भलीभांति ढंककर रखें, इस प्रकार वास -(क्षेप) चूर्ण ऊपर-नीचे प्रतिलेखन करनी चाहिए । प्रतिलेखन की हुई पाटली पर रखकर योग्य साधन में रख देना चाहिए। अनुक्रम से अक्ष (स्थापनाचार्यजी) को रखे तथा उसके स्थापनाचार्यजी साढ़े तीन हाथ की दूरी पर रखना चाहिए । ऊपर प्रतिलेखन की हुई प्रथम मुहपत्ति से ढंकना चाहिए इसे अपने शरीर का पिछला भाग न दिखे, उसका ध्यान रखना । उसके बाद क्रमशः दो मुंहपत्ति तथा उसके ऊपर खुले चाहिए। क्रियाएँ करते समय स्थापनाचार्यजी यदि दरवाजे के अन्दर दो रुमालों को २५-२५ बोल से प्रतिलेखन करना हो तो उसके अन्दर जाकर ही क्रियाएँ करनी चाहिए । चाहिए । प्रतिलेखन की हुई सभी मुहपत्ति आदि को स्थापनाचार्यजी का आदर करने के लिए बिना कारण के उसे एक क्रमशः रखकर स्थापनाचार्यजी को व्यवस्थित रखना स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं ले जाना चाहिए । स्थापनाचार्यजी की चाहिए तथा झोली बाँधकर ठवणी के ऊपर स्थापना स्थापना करने से पहले "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! श्री करनी चाहिए । दोपहर के प्रतिलेखन के समय झोली- सुधर्मास्वामी स्थापना स्थापित करूँ?" इस प्रकार आदेश मांगने ठवणी तथा दो रुमालों व तीन मुहपत्तियों का पडिलेहण की आवश्यकता नहीं है । क्योंकि स्थापनाचार्यजी की स्थापना से करने के बाद स्थापनाचार्यजी (अक्षों) की क्रमशः पहले उससे आज्ञा कैसे मांगी जा सकती है ? । साधक यदि किसी प्रतिलेखन करने के बाद पाटली की प्रतिलेखन करनी कारण से कुर्सी (CHAIR) पर बैठकर क्रियाएँ करता है, तो वह भी चाहिए। उसके बाद पाटली पर अक्षों (स्थापनाचार्यजी) स्थापनाचार्यजी की स्थापना इस तरह करे कि वह नाभि से ऊपर की स्थापना कर मुहपत्ति से ढंककर तथा उसे बांधकर और नासिका से नीचे रहे। tion Pvg Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खमासमण देते समय करने योग्य सत्रह संडासा (प्रमार्जना) 'इच्छामि खमासणो' बोलते समय की मुद्रा। 'वंदिउं' बोलते समय की मुद्रा। चरवला के (छोर पर स्थित) गरम ऊन के कोर से पीछे के भाग में बाई ओर कमर से पैर की एडी तक प्रमार्जना करनी चाहिए। पीछे के भाग में नजर करते हुए मध्य स्थान पर कमर से नीचे तक प्रमार्जना करनी चाहिए। पीछे के भाग में दाहिनी ओर कमर से एड़ी तक प्रमार्जना करनी चाहिए। आगे के भाग में बाई ओर पैर के मूल से पैर के पंजे तक प्रमार्जना करनी चाहिए। आगे के भाग में मध्यस्थान में नाभि के नीचे से दोनों पैरों के बीच की अन्तिम जगह तक प्रमार्जना करनी चाहिए। आगे के भाग में दाहिनी ओर पैर के मूल से पैर के पंजे तक प्रमार्जना करनी चाहिए। घुटने की स्थापना नीचे करने के लिए योग्य अन्तर पर बाए से दाहिने, दाहिने से | बाएं और बाएं से दाहिने क्रमशः तीन बार प्रमार्जना करनी चाहिए। Jain Asation in For Private , Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खमासमण देते समय करने योग्य सत्तर संडासा (प्रमार्जना) प्रमार्जना बाद किसी की सहायता बिना नीचे बैठना चाहिए। मुख के आधे भाग की बाई ओर आख-नाक-होठ तथा गले की प्रमार्जना करते समय कन्धे से पंजे तक प्रमार्जना करनी चाहिए। बाएँ हाथ की हथेली की सीधी प्रमार्जना कर थोडा सा हाथ ऊंचा कर पीछे के भाग से कुहनी तक प्रमार्जना करनी चाहिए। १४ १५ चित्र सं. ११ तथा १२ के अनुसार बाएँ के बदले दाहिनी ओर प्रमार्जना करनी चाहिए। चरवले को गोद में रखकर मुँहपत्ति से मस्तक की स्थापना करने की जगह पर बाएं से दाहिने ओरोमार्क के अनुसार तीन बार क्रमशः प्रमार्जना करनी चाहिए। दो हाथ-दो पैर तथा शिर को नीचे झुकाते समय पीछे से ऊचा नहीं होना चाहिए। १६ -दो पैर तथा माथा ये ५ अंग जब नीचे जमीन को स्पर्श करे तभी 'मत्थएण वंदामि' बोलना चाहिए। खड़े होते समय सबसे पहले पीछे की ओर थोडी सी नजर कर बाएं से दाहिने, इस प्रकार क्रमशः तीन बार पैर के पंजे की स्थापना करने की भूमि पर प्रमार्जना करनी चाहिए। पीछे प्रमार्जना करने के बाद (बिना किसी की सहायता के) खड़े होना चाहिए। ४९ Jain Eclations Fon Private & Penn USE OIL Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'खमासमण' देते समय की स्पष्ट मुद्रा । मूल सूत्र इच्छामि खमा-समणो ! ॥१॥ वंदिउं जावणिज्जाए निसीहिआए ॥२॥ मत्थएण वंदामि ॥३॥ अशुद्ध ईच्छामी खमासणो निसीयाओ वंदिउ (वंदेउ) जावणिजाए मत्थेण वंदामि 'खमासमण' देते समय पीछे से ऊँचा नहीं होना चाहिए। Jain Qo शुद्ध इच्छामि खमासमणो निसीहिआए वंदिडं जावणिज्जाए मत्थएण वंदामि १. पीछे कमर के भाग से नीचे पैरों की एड़ी तक चरवला से दाएँ, बीच तथा बाएँ में क्रमशः प्रमार्जन करना चाहिए। (१ से ३) २. आगे पैरों के मूल से नीचे पैरों के तलवे तक चरवला से दाएँ, बीच तथा बाए में क्रमश: प्रमार्जन करना चाहिए । (४ से ६ ) ३. घुटने रखने की जगह पर नीचे जमीन पर चरवला से तीन बार प्रमार्जन करना चाहिए ( ७ से ९ ) ४. मुँहपत्ति से बाईं ओर के अर्धमुख से कन्धा, iterational ३. श्री खमासमण सूत्र विषय : : श्री खमासमण सूत्र : पंचांग प्रणिपात सूत्र (अत्यन्त संक्षेप में) : २ : २ : ३ : २५ : २८ 'क्षमाश्रमण' जिससे संसार का लाभ अर्थात् संसार की अभिवृद्धि जिससे होती है, उसे कषाय कहते है । कषाय चार प्रकार के हैं । १. क्रोध २. मान ३. माया और ४. लोभ । जीवन के उच्च शिखरों पर पहुंचे हुए धर्मात्मा को भी भयंकर पतन की ओर क्रोध-कषाय ले जाता है । सब से खतरनाक दोष ' क्रोध' है, तो उसका प्रतिपक्षी आत्म गुण सत्रह प्रमार्जना या आदान नाम गौण नाम उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ इच्-छा-मि खमा-सम-णो ! ॥ १ ॥ मैं चाहता हूँ हे क्षमावान् महाराज ! १. वंदन करने के लिए शक्ति के अनुसार वन्- दिउम् जाव- णिज्-जाएनि-सी - हि आए ॥२॥ मत्-थ-एण वन् - दामि ॥३॥ पद संपदा गुरु-अक्षर लघु-अक्षर सर्व अक्षर परमात्मा तथा | गुरुभगवंतों की वंदना | गाथार्थ : हे क्षमावान महाराज ! आपको मैं शक्ति के अनुसार पापमय प्रवृत्तियों को त्याग कर मस्तक ( आदि पाँच अंगों ) से वंदन करता हूँ । १. पापमय प्रवृत्तिओं (व्यापारों ) को त्याग कर, २. मस्तक (आदि पाच अंगों) से मैं वंदन करता हुँ । ३. 1 शब्द का तात्पर्यार्थ विकास में सहायक गुण 'क्षमा' है । श्री अरिहंत भगवंत में यह 'क्षमा' गुण पूर्णतया विकसित होता है । जब पूज्य साधु-साध्वीजी भगवंत इह क्षमा गुण को पूर्ण विकसित करने के लिए उद्यमशील होते हैं । अतः श्री अरिहंतादि पंच परमेष्ठि को 'क्षमाश्रमण' कहते हैं और उनको इस 'खमासमण सूत्र' के माध्यम से वन्दना की जाती है। संदशक का क्रमबद्ध वर्णन हाथ, कुहनी, पंजा तथा हाथ के पीछे के आधे भाग तक और इसी तरह दाई ओर से प्रमार्जन करना चाहिए। (१० से ११) ५. जिस स्थान पर मस्तक टिकाना हो उस स्थान का मुँहपत्ति से तीन बार प्रमार्जन करना चाहिए। (१२ से १४ ) For Private & Persons Only ६. दोनों हाथों को जोड़कर, दोनों कुहनियों को पेट पर रखकर, चरवला को गोद में रखकर, दोनों हाथों को जमीन पर पैरों के बिल्कुल नजदीक रखकर, पीछे से जरा भी ऊँचा हुए बिना, प्रमार्जन की हुई भूमि पर मस्तक टिकाकर 'मत्थएण वंदामि' बोलना चाहिए। वंदन करने के बाद खड़े होते समय पैरों के पीछे दृष्टि करने के बाद चरवला से तीन बार प्रमार्जन कर खड़े होना चाहिए । (१५ से १७) ७. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा । इस सूत्रको थोभवंदन' सूत्र भी कहा जाता है है। गुणवान् व्यक्ति के प्रति किया गया आदर,गुणों की प्राप्ति में विघ्न उत्पन्न क्योंकि तीन प्रकारके वन्दनों में मुख्यतया थोभवंदन करनेवाले कर्मो को नाश करता है। इस प्रकार वन्दन करनेवाले साधकों के में इस सूत्र का अधिक उपयोग होता है। गुरुवन्दन का लिए गुणवान् के प्रति आदरभाव गुणों की प्राप्ति का कारण बनता है, अतः लाभ अपरंपार है । परन्तु इसके लिए गुरुवन्दन की क्षमादि गुणों को प्राप्त करने की इच्छावाले प्रत्येक साधक को इस सूत्र के शास्त्रीय विधि भली-भाति समझकर तैयार करना द्वारा अत्यन्त भावपूर्वकवन्दन करना चाहिए। आवश्यक है। प्रतिक्रमण में थोभवन्दन सूत्र का महिलाओं को अकेले अथवा अशिष्ट वस्त्रों में साधु भगवन्तों के उपयोग प्रायः होता है। इसके अतिरिक्त चैत्यवंदन तथा उपाश्रय में नहीं जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त साधुभगवन्त के उपाश्रय में अन्य धार्मिक क्रियाओं में भी इसकी आवश्यकता महिलाओं की उपस्थिति भी उचित नहीं है। अतः दैनिक वन्दन के लिए पड़ती है। अतः इस सूत्र की गणना एक अत्यन्त महिलाओं को साध्वीजी भगवन्त के उपाश्रय में ही जाना चाहिए । हा, | उपयोगी सूत्र में की जाती है। वाचना, व्याख्यान आदि के अवसर पर महिलाओं को भी साधुभगवन्तों के इस सूत्र के द्वारा क्षमादिगुणों से विभूषित देव वन्दन का लाभ अवश्य लेना चाहिए । किन्ही अनिवार्य संयोगों में तथा गुरु की वन्दना की जाती है। गुणवान् व्यक्ति के साधुभगवन्त के उपाश्रय में महिलाएं पहले से आज्ञा लेकर सामूहिक वन्दन दर्शन होते ही उनके गुणों के प्रति आदरभाव प्रगट होता करने जा सकती हैं। इस प्रकार क्षमाश्रमण गुरुभगवन्तों को वन्दन करने के तीन प्रकार शास्त्रों में बतलाए गए हैं (१) जघन्य गुरुवन्दन : फिट्टावन्दन : फिट्टा-मस्तक प्रणिपात के साथ इच्छकार, अब्भुट्ठिओ सूत्र बोलते हुए | रास्ते में आते-जाते यदि साधु भगवन्त अथवा साध्वी भगवन्त किया जानेवाला वन्दन । दो हाथ, दो घुटने तथा मस्तक इन मिलें, तो उनको विधिपूर्वक वन्दन करना सम्भव नहीं हो, तब इन पाँच अंगों को जमीन पर टिकाकर किये जानेवाले वन्दन को संयोगों में मस्तक को नमाने से वन्दन किया जाता है, उसे 'पंचांग प्रणिपात' कहा जाता है। इसीलिए खमासमण सूत्र फिट्टावन्दन कहा जाता है। सामने से साधु-साध्वीजी भगवन्त आते का दूसरा नाम पंचांग प्रणिपात सूत्र है। हुए दिखाई दें कि तुरन्त वाहन आदि में से उतरकर, पैरों से जूते- थोभ वन्दन साधुभगवन्त अपने से ज्येष्ठ साधुभगवन्तों चप्पल उतारकर, दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक झुकाकर 'मत्थएण को, साध्वीजी को सभी साधुभगवन्तों तथा ज्येष्ठ साध्वीजी वंदामि' कहना चाहिए। यह फिट्टावन्दन कहलाता है। को, श्रावक सभी साधुभगवन्तों को तथा श्राविका सभी गुरुभगवन्त सामने मिलें, फिर भी देखे बिना आगे बढ़ जाना, साधुभगवन्तों व साध्वीजी भगवन्त को करते हैं । पुरुषों को हाथ नहीं जोड़ना, मस्तक नहीं झुकाना, यह गुरुभगवन्त का साध्वीजी भगवन्तों को फिट्टावन्दन करना चाहिए, परन्तु अनादर माना जाता है। ऐसा अनादर नहीं करना चाहिए । बल्कि मध्यम अथवा उत्कृष्ट वन्दन नहीं करना चाहिए। ऐसे समय में फिट्टावन्दन अवश्य करना चाहिए । यदि ट्रेन, बस (३) उत्कृष्ट गुरुवन्दन : द्वादशावर्त्त वन्दन :आदि वाहनों में जा रहे हों तथा वाहन से उतर न सकें, तो उस समय द्वादश-बारह, अर्थात् जिस वन्दन में बारह आवर्त्त करना पैरों से जूते चप्पल निकालकर बैठे-बैठे भी दोनों हाथ जोड़कर होता है, उस वन्दन को द्वादशावर्त्त वन्दन कहा जाता है। मस्तक झुकाकर मत्थएणवंदामि' अवश्य कहना चाहिए। . उत्कृष्ट अर्थात् श्रेष्ठ, तीनों प्रकार के वन्दनों में यह सबसे बड़ा फिट्टावन्दन साधुभगवन्त सभी साधुभगवन्तों को तथा | वन्दन है । इसमें वांदणासूत्र बोलकर गुरु भगवन्तों को साध्वीजी सभी साधुभगवन्तों व साध्वीजी भगवन्तों को करना चाहिए । श्रावक-श्राविकाओं को भी साधु-साध्वीजी भगवन्तों विशिष्ट रूप से वन्दन किया जाता है। को अवश्य करना चाहिए । (रास्ते में विहार करते हुए गणिवर्य, पंन्यासजी, उपाध्यायजी, आचार्य भगवन्त आदि साधुभगवन्तों को श्राविका के फिट्टावन्दन का प्रत्युत्तर नहीं देना पदवीधारी गुरुभगवन्तों को ही यह द्वादशावत वन्दन किया जाता चाहिए । उसी प्रकार साध्वीजी भगवन्तों को भी श्रावक के भावना है। पौषध में पदवीधारी गुरुभगवन्त के अभाव में मुनि फिट्टावन्दन का प्रतिभाव नहीं देना चाहिए।) महाराज की उपस्थिति में स्थापनाचार्यजी को भी राइयदि रास्ते में श्रावक-श्राविका मिले तो उन्हें आदरपूर्वक 'जय मुंहपत्ति के द्वारा द्वादशावर्त्त वन्दन किया जाता है। जिनेन्द्र' नहीं कहना चाहिए, बल्कि दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम' ★ थोभ वन्दन करने के लिए प्रस्तुत खमासमण सूत्र करना चाहिए । साधर्मिक भाईयों को प्रणाम करना उचित है। की आवश्यकता होती है। मात्र गुरु भगवन्त को ही नहीं, परन्तु यदि सामने अजैन भाई-बन्धु मिले और वे 'जय बल्कि अरिहंत भगवान्, सिद्ध भगवान् तथा ज्ञान को वन्दन सियाराम' अथवा 'जय श्रीकृष्ण' बोलें तो उनके सामने हमें भी करने के लिए भी यह खमासमण सूत्र उपयोगी है । परन्तु 'जय सियाराम' अथवा 'जय श्रीकृष्ण' नहीं कहना चाहिए । उस कुलदेवता अथवा माता-पिता आदि को वन्दन करने के समय दोनों हाथ जोड़कर, जूते-चप्पल उतार कर मुखशुद्धि के साथ लिए इस सूत्र का उपयोग कभी नहीं करना चाहिए। आदरपूर्वक 'जय जिनेन्द्र' बोलना चाहिए। २४ तीर्थंकरों के यक्ष-यक्षिणी, १६ विद्यादेविया, (२) मध्यम गुरुवन्दन : थोभ वन्दन : तपागच्छ संरक्षक यक्षाधिराज आदि अधिष्ठायक देव देवियों 'थोभ' का अर्थ होता है खड़ा होना, अर्थात् खड़े होकर पंचांग को भी इस खमासमण सूत्र के द्वारा वन्दन नहीं करना चाहिए। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'गुरुवंदन' करते समय बोलते-सुनते समय की मुद्रा । मूल सूत्र इच्छकार ! सुह-राइ ? (सुह-देवसि ? ) सुख-तप ? शरीर निराबाध? ४. श्री इच्छकार सूत्र : श्री इच्छकार सूत्र : सुगुर सुखशाता पृच्छा सूत्र : ७ आदान नाम गौण नाम Jan 2 पद संपदा गुरु-अक्षर लघु-अक्षर सर्व अक्षर उच्चारण में सहायक इच्-छ-कार ! सुह-राइ ? (सुह-देव-सि ? ) सुख-तप ? शरीर - निरा- बाध? १. पुरिमड्ड के पच्चक्खाण से पहले 'सुहराइ' तथा बाद में 'सुहदेवसि' बोलना चाहिए । दोनों एक साथ नहीं बोलना चाहिए । 10 २. 'सुहराइ / सुहदेवसि... से स्वामी ! शाता छे जी' तक के सारे वाक्य अलग-अलग प्रश्नों को सूचित करते हैं। अतः ये सारे वाक्य इस प्रकार बोलने चाहिए, मानो प्रश्न पूछ रहे हों। ये वाक्य बोलते समय मुख पर उन प्रश्नों के उत्तर जानने की इच्छा का भाव प्रगट होना चाहिए । जैनशासन में 'गुरु' की सुन्दर व्याख्या : जो संसार का शोषण करे और मोक्ष का पोषण करे, वे गुरु कहलाते हैं । जैनशासन में गुरुपद का गौरव अद्भुत है। परमात्मा के द्वारा बतलाए गए जैनशासन को आज हमारे तक पहुँचानेवाले यदि कोई है तो वे गुरुभगवन्त ही हैं। अज्ञान रूपी अंधकार का नाश करनेवाले गुरु हैं। विषय रूपी विष का वमन कराकर आराधना रूपी अमृत का पान करानेवाला यदि कोई है तो वह गुरु ही है। जो कंचन और कामिनी के सर्वथा त्यागी होते हैं, पाँच महाव्रतों का सुंदर ४ ४८ : ५२ 10 सुख-सञ् (सन्) - जम-जात्-रा निर्वहो छो जी ? स्वामी ! शाता छे जी ? भात- पाणी नो लाभ देजो-जी ॥१॥ ७ सुख संजम जात्रा निर्व हो छो जी ? स्वामी ! शाता छे जी ? भात पाणी नो लाभ देजोजी ॥४॥ गाथार्थ : (हे गुरुजी !) मैं (पूछना चाहता हूँ । रात्रि में आप सुख पूर्वक रहे हो ? ( दिन में आप सुख पूर्वक रहे हो ? ) आपको तप सुख पूर्वक होता है ? आपका शरीर पीड़ा रहित है ? आप अपनी संयम यात्रा का सुख पूर्वक निर्वाह करते हो जी ? हे स्वामी, आप सुख- शांता में हो जी ? आहार, पानी आदि को ग्रहण कर लाभ देनाजी । सूत्र के संबंध में विवरण विषय : सद्गुरु को संयम यात्रा की सुखशाता पूछना । पद क्रमानुसारी अर्थ मैं ( पूछना चाहता हूं। आप रात्रि में दिन में सुख पूर्वक रहे हो ? आपको तप सुख पूर्वक होता है ? आपका शरीर पीड़ा रहित है ? आप अपनी संयम यात्रा का सुख - पूर्वक निर्वाह करते हो जी ? हे स्वामी ! आप सुख शाता में हो ? आहार, पानी आदि को ग्रहण कर लाभ देना जी । ४ पालन करते हैं, परमात्मा के द्वारा बतलाए गए मार्ग पर यथाशक्ति चलते हैं, परमात्मा की आज्ञा के विरुद्ध कभी नहीं बोलते हैं, मोक्ष प्राप्ति की जिन्हें लालसा होती है, सांसारिक जनों के हृदय का ताप शान्त कर दे, ऐसी प्रशान्त मुखमुद्रा को धारण करते हैं । संसार के समस्त पदार्थों के प्रति अनासक्त होकर, आत्मा के अद्भुत आनन्द को प्राप्त करने के साथ-साथ उसका रसास्वादन करते हैं, ऐसे गुरुभगवन्त के संसर्ग-परिचय से भवोभव के पाप क्षय हो जाते हैं। उनके चरणों में वंदना करने से भवोभव के कर्मबंधन टूट जाते हैं। उन्हें की जानेवाली वन्दना चंदन से भी अधिक शीतलता प्रदान करने में समर्थ है। चंदन तो शरीर को कुछ ही देर तक ठंडक देता है । परन्तु गुरुभगवंतों को की जानेवाली वंदना, कषाय के भावों को शांत कर, भवोभव के संताप का शमन कर, अद्भुत शीतलता प्रदान करती है। भूतकाल में दृष्टिपात करेंगे तो ज्ञात होगा कि सामान्य रूप से जो लोग महान बने हैं, उन सभी को सबसे पहले गुरु ही मिले थे । गुरुभगवंत के सत्संग के प्रभाव से वे पतन की खाई में से महानता के उच्च शिखर को सर कर सके थे । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवा लाख जिनचैत्यों तथा सवा करोड़ जब हम 'स्वामी शाता हैं ! जी' यह प्रश्न पूछते हैं तो गुरुभगवन्त जिनबिम्बों का सर्जन करनेवाले सम्राट् सम्प्रति उत्तर देते हैं-'देव-गुरु-पसाय' यह 'देव-गुरु-पसाय' जैन शासन का महाराज को गुरु के रूप में आर्य सुहस्तिसूरिजी मिले अद्भुत वाक्य है। अनादिकाल से मजबूत किए गए अहंभाव को नाश थे तथा गुर्जरेश्वर कुमारपाल को कलिकाल सर्वज्ञ श्री करने के लिए यह वाक्य एक अमोघ शस्त्र है। हेमचन्द्राचार्यजी मिले थे । क्रूर तथा खूखार मुगल जिस प्रकार 'देव-गुरु-पसाय' एक सुन्दर वाक्य है, उसी प्रकार दो सम्राट अकबर के हृदय में जीवदया का भाव अन्य सुन्दर वाक्य भी समझने जैसे हैं, जगानेवाले भी जगद्गुरु श्री हीरसूरीश्वरजी ही थे। १.वर्तमानजोग तथा २. कालधर्म । जिनशासन में गुरु की इच्छा के बिना कोई भी १. पू. गुरुभगवन्त की शाता पूछने के बाद गोचरी-पानी ग्रहण कार्य नहीं हो सकता है। यही कारण है कि गुरु करने के लिए 'भात-पानीनो लाभ देजो जी' वाक्य के द्वारा विनति की महाराज की शाता पूछने से पहले इसके सम्बन्ध में जाती है। (आहार-पानी माने पू. : गुरुभगवन्त के संयम के प्रति योग्य उनकी इच्छा जाननी जरूरी है। अतः कहा गया है कि खाने-पीने की सारी वस्तु इस विनति को सुनकर पू. गुरुभगवन्त छकार का शब्द रखा गया है। वर्तमान जोग' कहते हैं । अर्थात् उस समय जैसी अनुकूलता होगी, शाता पूछने के लिए भी गुरुजी की इच्छा आवश्यक 'आज', 'अभी' 'शाम' अथवा 'कल' आऊंगा, ऐसा कभी नहीं कहते होती है, यदि उनकी इच्छा न हो तो गुरुजी की शाता हैं। क्योंकि उस समय यदि कोई आकस्मिक कार्य उपस्थित हो जाए तो भी नहीं पूछी जा सकती है, तो फिर गुरुजी की इच्छा श्रावक को दिया गया वचन व्यर्थ (झूठा) होने की सम्भावना होगी | के बिना अन्य कोई कार्य कैसे किया जा सकता है ? || अर्थात् मृषावाद विरमण महाव्रत में दोष लगता है। संक्षिप्त में कहा जाए तो गुरुजी की इच्छा के विरुद्ध २. पू. गुरुभगवन्त की आयु जब पूरी हो जाती है, तब 'मृत्यु को कार्य स्वप्न में भी नहीं किया जाए, इसका ध्यान रखा प्राप्त हुए' अथवा 'मर गए' ऐसा नहीं कहते हैं । बल्कि 'कालधर्म' को जाना चाहिए। इसीलिए कहा गया है कि प्राप्त हुए, ऐसा कहा जाता है। कालधर्म-काल अर्थात् समय का धर्म है "गुरु की इच्छा का पालन अमृतकुम्भ के समान है, नये को पुराना करना, सड़न, गलन आदि भी काल के धर्म हैं । उसी जबकि गुरु का एक-एक निःश्वास वधस्तम्भ के प्रकार बाल्यावस्था, युवावस्था आदि भी काल के धर्म हैं। आयुष्यपूर्ण समान है"। । होते ही काल ने अपना धर्म बजाया, इसलिए 'कालधर्म' कहा जाता है सुखशाता पृच्छा के साथ जानने योग्य कुछ महत्त्वपूर्ण बातें | • पौषधार्थी भाई व बहनें भी भात-पानी बोलें। 'भात-पानी' की पृच्छा में आ जाता है। • इच्छकार सूत्र के द्वारा सूर्यास्त तक वन्दना करनी चाहिए। • साधु भगवन्त साधु भगवन्तों को तथा साध्वीजी भगवन्त सूर्यास्त के बाद श्रावक-श्राविका अथवा साधु-साध्वीजी साधु-साध्वीजी भगवन्त को भात-पानी' नहीं बोलते हैं। भगवन्तों को थोभ-वन्दन नहीं करना चाहिए। सूर्यास्त के बाद दोनों हाथ को जोड़कर गुरुभगवन्त को सूर्यास्त के समय वन्दना करते समय श्रावक-श्राविकाओं! 'त्रिकाल वन्दना' कहना चाहिए। को 'भात-पानी' अवश्य बोलना चाहिए । क्योंकि उस . साधुभगवन्त और साध्वीजी भगवन्त परस्पर 'त्रिकाल समय अथवा रात्रि के समय शरीर अस्वस्थ होने के कारण वन्दना' नहीं बोलते हैं, बल्कि 'मत्थएण वंदामि' बोलते हैं। अनिवार्य संयोगों में अनाहारी औषध अथवा डॉक्टर • सूर्यास्त होने के कुछ समय बाद तक गुरुवन्दन करने का आदि के उपचार की आवश्यकता पड़ती है, वह भी व्यवहार मिलता है। Jain. Ett temat swww.jaineliFICE Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. श्री अब्भुट्टिओ सूत्र आदान नाम : श्री अब्भुट्ठिओ सूत्र | विषय : गौण नाम : गुरु खामणा सूत्र | श्री गुरुभगवंत के प्रतिक्रमण करते समय उपाश्रय में गुरुवंदन गुरु-अक्षर : १५ करते हुए यह सूत्र गुरुवंदन करते हुए यह सूत्र पास अपराधों लघु-अक्षर : १११ बोलते समय की मुद्रा। बोलते - सुनते समय की सर्व अक्षर : १२६ की क्षमा माँगनी। (हाथ खुले रखना जरूरी है।) स्पष्ट मुद्रा। मूलसूत्र उच्चारण में सहायक पदक्रमानुसारी अर्थ इच्छा-कारेण संदिसह भगवन्! इच्-छा-कारे-णसन्-दि-सहभग-वन्! हेभगवन् ! स्वेच्छा से आज्ञा प्रदान करो अब्भुट्टिओमि अभितर- अब्-भुट्-ठि-ओ-मि-अब्-भिन्-तर मैं उपस्थित हूँ , दिन में रात्रि में देवसिअं(राइअं)खामेउं? देव-सिअम्-(रा-इ-अम्- )खामे-उम्? किये हुए ( अपराधों की ) क्षमा मांगने के लिये, इच्छं,खामेमि देवसिअं इच्-छम्,खामे-मि देव-सिअम्- आपकी आज्ञा स्वीकार करता हूँ, (राइअं) । (रा-इ-अम्-) दिन में रात्रि में हुए( अपराधों) की मैं क्षमा मांगता हूँ। गाथार्थ : हे भगवन् ! स्वेच्छा से आप आज्ञा प्रदान कीजिये । दिन में (रात्रि में ) किये हुए (अपराधों की) क्षमा मांगने के लिये मैं उपस्थित हुआ हूँ। आपकी आज्ञा स्वीकार करता हूँ। दिन में (रात्रि में ) हुए (अपराधों) की मैं क्षमा मांगता हूँ। जं किंचि अपत्तिअं, जङ्-किञ् (किन्)-चि अ-पत्-ति-अम् । जो कोई अप्रीतिकारक, पर-पत्तिअं, भत्ते, पाणे, पर-पत्-ति-अम्, भत्-ते, पाणे, विशेष अप्रीतिकारक हुआ हो आहार-पानी में, विणए, वेयावच्चे, विणए-वेया-वच्-चे विनय में, वैयावृत्त्य में, आलावे, संलावे, आला-वे, सल (सम्)-लावे, | बोलने में, बातचीत करने में, उच्चासणे, समासणे, उच्-चा-सणे, समा-सणे, (गुरु से ) ऊंचे आसन पर बैठने से, (गुरु के) समान आसन पर बैठने से, अंतर-भासाए, अन्-तर-भासा-ए, (गुरु के ) बीच में बोलने से, उवरि-भासाए, उव-रि-भासा-ए, (गुरु की बात पर) टीका टिप्पणी करने से, गाथार्थ : आहार-पानी में, विनय में, वेयावृत्य में, बोलने में, बातचीत करने में, ऊँचे आसन पर बैठने से, समान आसन पर बैठने से, बीच में बोलने से, टीका करने से जो कोई अप्रीतिकारक, विशेष अप्रीतिकारक हुआ हो..। जं किंचि मज्झ विणय-परिहीणं जङ्-किञ्-चि-मज्-झविण-य-परि-हीणम् मुझसे जो कोई विनय रहित (वर्तन) हुआ हो, सुहमंवा बायरं वा सुहुमम्-वा बायरम्-वा सूक्ष्म( छोटा )या बादर(बड़ा)तुब्भे जाणहअहं नजाणामि, तुब्-भे-जाण-ह, अहम्-न-जाणा-मि, आप जानते हो, मैं नहीं जानता हूं, तस्स मिच्छामि दुक्कडं। तस्-स मिच्-छा-मि-दुक्-क-डम्। मेरे वे दुष्कृत्य मिथ्या हों। उपयोग के अभाव से होते अशुद्ध के सामने शुद्ध उच्चारण गाथार्थ : छोटा या बड़ा विनय रहित (वर्तन) मुझसे हुआ हो, अशुद्ध (जो) आप जानते हो, मैं नहीं जानता हूँ, मेरे वे अपराध मिथ्या हों। अब्भुठिओमि अभ्यन्तर अब्भट्रिओमि अब्भितर विणिए विणए सुहम वा सुहुमं वा - - - - - - - -- Personal use only www. library Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस सत्र की प्रथम तीन पंक्तियाँ खडे-खडे. दोनों हाथ जोडकर, उठाने में समर्थ बनता है। यह अन्य किसी के वश की मस्तक झुकाकर बोलें, उसमें 'खामे' बोलते समय विशेष झुकना बात नहीं है। श्रावक-श्राविकाओं को भी गुरुभगवंत चाहिए । शेष 'जंकिंचि' से लेकर सम्पूर्ण सूत्र हाथ रोपकर बोलना को वंदन करने से विनय का गुण प्राप्त होता है । क्षमा चाहिए । हाथ रोपने में दाहिना हाथ जमीन पर खुला अथवा चरवला मांगना दीनता नहीं है, बल्कि यह जागृत आत्मा को पर स्थापित करना चाहिए । बायां हाथ मुख के पास रखना चाहिए। स्वस्थता प्राप्त कराने के लिए एक उत्तम प्रयत्न है तथा दोनों घुटनों को जमीन से टिकाकर तथा मस्तक झुकाकर रखना उससे चित्त-प्रसन्नता प्राप्त होती है। चाहिए । 'मिच्छा' 'मि' 'दुक्कडम्' ये तीन अलग-अलग पद हैं । इस उच्चारण से सम्बन्धित सूचनाए : बात का ध्यान रखना चाहिए। १. 'अभ्यंतर' शब्द नहीं है। बल्कि 'अभितर' शब्द है। (१) सद्गुरु के पास अनेक प्रकार के अपराधों की क्षमा उसी समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए। भावयुक्त होकर मांगी जा सकती है, जब गुरुभगंवत के प्रति२. इस सूत्र में दो स्थानों पर 'राइअं-देवसिअं' शब्द हृदय में पर्याप्त अहोभाव हो । इस प्रकार यह सूत्र गुरु के प्रति आते हैं। उसमें राइअं-पुरिमडू पच्चक्खाण से पहले सर्वोत्कृष्ट अहोभाव को सूचित करता है। ____ तथा 'देवसिअं' पुरिमड्ड पच्चक्खाण के बाद बोलना (२) एक के बाद एक सारे अपराधों को याद कर, उसकी क्षमा चाहिए। मांगी जा सकती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जीव को पाप ३. 'मज्झ' पद में 'झ' का उच्चारण झंडे के 'झ' के का भय रखना चाहिए । शुद्धि की लालसा रखनी चाहिए। समान करना चाहिए। एक भी पाप का प्रायश्चित किए बिना नहीं रहना चाहिए। ४. 'अब्भितर देवसिअंखामे' कितने समय के दौरान इसके लिए हृदय में सच्चे अर्थों में पश्चात्ताप भी होना चाहिए। हुए अपराधों की क्षमा चाहते हैं ? वह इस पद के इस प्रकार जिनशासन में सद्गुरु तथा पाप के प्रायश्चित का द्वारा जाना जाता है। (एक दिन का, दिन-रात का, महत्व पर्याप्त दिया गया है यह इस सूत्र से स्पष्ट होता है। पन्द्रह दिनों का, चार महीने का अथवा एक वर्ष के गुरुभगवंत के चरणों की सेवा में जो लीन है, गुरुभगवंत की अपराधों की क्षमा के लिए अनुक्रम से देवसिअं, आज्ञा का पालन आदि करने के लिए आराधना में जो सदा तत्पर रहता राइअं, पक्खिअं, चोमासिअं अथवा संवच्छरिअं है, वही साधु कहलाता है । वही साधु चारित्रजीवन का भारी बोझ बोला जाता है।) गुरुवंदन विधि सर्व प्रथम दोनों हाथ जोड़कर तथा मस्तक झुकाकर [रुभगवंत 'खामेह' कहें, उसके बाद 'इच्छं, खामेमि देवसिअं' गुरुभगवंत को 'मत्थएण वंदामि' बोलना चाहिए । उसके बोलकर नीचे की भूमि की प्रमार्जना कर वहां घुटनों की स्थापना बाद उनकी वन्दना करने के लिए अनुज्ञा (अनुमति) कर चरवले के ऊपर चित्र के अनुसार दाहिना हाथ खुला रखकर मांगनी चाहिए । अनुमति मिलने पर सर्वप्रथम दो तथा बायां हाथ मुख के पास रखकर 'जंकिंचि...मिच्छा मि खमासमणां सत्रह संडासा पूर्वक विधि के साथ देना चाहिए दुक्कडं...' तक पूर्ण सूत्र बोलना चाहिए । (कोई भी श्रावक । फिर खड़े होकर दोनों पैरों के बीच आगे के भाग में अपने श्राविका अथवा (दीर्घकालीन मुमुक्षु हो या दीक्षा लेने की चार ऊंगलियों का अन्तर तथा पीछे के भाग में उससे कुछ तैयारी में हो तो भी) गुरुवंदन करते समय 'अब्भुट्टिओ' बोलते कम अन्तर रखकर, दोनों हाथों की ऊंगलियाँ एक दूसरे के समय गुरुभगवंत के चरण आदि का स्पर्श न करें। यदि ऐसा अन्दर रखकर, दोनों हाथों की कुहनियाँ एक दूसरे के साथ करे तो गुरुभगवंत की आशातना का दोष लगता है)। फिर सटाकर पेट पर रखकर 'इच्छकार...' सूत्र के द्वारा प्रश्न पूछ दूसरी बार (सत्रह संडासा पूर्वक) एक खमासमणा देना चाहिए। रहे हों, उस भाव के साथ बोलना चाहिए। प्रतिदिन उपाश्रय में बिराजमान गुरुभगवंत की वंदना पू. साधु भगवंतों में कोई गणिवर्य अथवा कोई करनी चाहिए । जब वे न हों तब उनकी प्रतिकृति को तथा यदि पंन्यासप्रवर, कोई उपाध्याय अथवा आचार्य आदि पदस्थ वह भी न हो तो पुस्तक की स्थापना करके भी अवश्य गुरुवंदन हों तो 'इच्छकार !' सूत्र बोलने के बाद बीच में एक करना चाहिए । सारे दिन में तीन बार वंदन करना चाहिए । खमासमणा देना चाहिए । पदस्थ न हों तो ' इच्छकार...! सूर्यास्त के बाद जयणा पालन की सम्भावना कम होने के सूत्र के बाद तुरन्त 'इच्छा...संदिसह. भगवन् ! अब्भुट्ठिओमि कारण तीनों काल का वंदन करने की भावना से 'त्रिकाल अब्भितर देवसिअं खामेउं ?' ऐसा प्रश्न पूछने पर वंदना' दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर करना चाहिए। D i gtion intomatogal ५५ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवंदन का फल तरणतारण परमात्मा ने कहा है कि हे गौतम ! आदि आठ कर्मों के गाढ बंधन हो, वे शिथील हो जाते हैं, गुरुवंदन करने से जीव नीच गोत्र के कर्मों को काटता है दीर्घस्थितिवाले हों तो अल्पस्थितिवाले, तीव्ररसवाले हों तथा तथा उच्चगोत्र के कर्म का बंध करता है तथा अप्रतिहत अधिक प्रदेशवाले बांधे हों तो अल्परसवाले तथा अल्पप्रदेशवाले आज्ञावाले व्यक्ति, अर्थात् जिसकी आज्ञा का कोई भी होते हैं, जिससे जीवात्मा अनादि-अनंत संसार रूपी जंगल में लंबे उल्लंघन न कर सके, ऐसे फलवाले सौभाग्य नामकर्म की समय तक परिभ्रमण नहीं करता है। अर्थात् शीघ्र ही परमपद-मोक्ष भी बांधता है। हे गौतम ! गुरुवंदन करने से ज्ञानावरणीय सुख का भोक्ता बनता है। गुरुवंदन नहीं करने से होनेवाली हानि पू. गुरुभगवंत को वंदन नहीं करने से तीर्थंकर आपत्तिया तथा परम्परा से अनन्त दु:खों की खान के समान संसार भगवन्त की आज्ञा का अनादर होता है। अविधिपूर्वक में परिभ्रमण करना पड़ता है। वंदना करने से अहंकार - अविनय - उइंडता आदि दोष श्री गुरुभगवंत को कब वन्दन करना चाहिए, कब नहीं लगते हैं । वह लोगों से तिरस्कृत होता है। नीचगोत्र कर्म करना चाहिए उसका श्री गुरुवंदन भाष्य में विस्तार से वर्णन का बंध होता है, इस लोक में तथा परलोक में अनेक किया गया है। वह इस प्रकार है श्री गुरु भगवंत को वंदन-कब नहीं करना चाहिए? श्री गुरु भगवंत को वंदन-कब करना चाहिए? १.गुरु जब धर्म चिन्तन में हों। १. गुरु जब शान्त बैठे हों। २. जब वन्दन करनेवाले पर गुरु का लक्ष्य न हो। २. गुरु जब अप्रमत्त हों। ३. गुरु जब प्रमाद में अर्थात् क्रोध में अथवा निद्रा में हों। ३.गुरु जब आसन पर बैठे हों। ४. जब गुरु के आहार लेने का अथवा शौच जाने का समय हो। ४. गुरु जब 'छंदेण' कहने के लिए उद्यत हों। पू. गुरुभगवंत को किस-किस समय वन्दन करना चाहिए • सुबह-शाम पच्चक्खाण लेते समय 'गुरुवंदन' . 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! वायणा लेशुं ?' गुरुभगवंत कहें कर 'इच्छकारी भगवन् ! पसाय करी 'लेजो' उसके बाद 'इच्छं बोलना चाहिए। पच्चक्खाण करानाजी !' इस प्रकार आदेश 'इच्छाकारी भगवन् ! पसाय करी वायणा प्रसाद कराना जी !' मांगकर पच्चक्खाण लेना चाहिए । परन्तु रास्ते कहकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर खड़ा रहना चाहिए । में आते-जाते हुए अथवा वंदन किए बिना व्याख्यान अथवा वाचना का समय हो और पू. गुरुभगवंत मांगलिक पच्चक्खाण नहीं लेना चाहिए। फरमावे तो एकाग्रचित्त से सुनना चाहिए। पू गुरुभगवंत के पास व्याख्यान-वाचना श्रवण किसी धार्मिक वांचन की अनुमति प्राप्त करनी हो अथवा गाथा लेनी करने से पहले तथा बाद में और गाथा लेने से हो तब मांगलिक सुनने की आवश्यकता नहीं रहती है। पहले तथा बाद में गुरुवंदन करना चाहिए। उपाश्रय में बिराजमान पू. गुरुभगवंत को संयम पर्याय के क्रमानुसार व्याख्यान श्रवण-वाचना-गाथा लेने से पहले छोटे-बड़े की मर्यादा के अनुसार अवश्य वंदन करना चाहिए । यदि गुरुवंदन करने के बाद निम्नलिखित आदेश किन्हीं अनिवार्य संजोगों के कारण यह सम्भव न हो तो फिट्टा वंदन एक-एक खमासमणा के साथ मांगना चाहिए। 'मत्थएण वंदामि' प्रत्येक पू. गुरुभगवंत को भावपूर्वक करना चाहिए। 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! वायणा एक स्थान पर खड़े रहकर सभी साधु भगवंतों को एक साथ ही वन्दन संदिसाहुं ?' गुरुभगवंत कहें 'संदिसावेह' उसके नहीं करना चाहिए । शुद्ध उच्चारण तथा शुद्ध विधि के साथ किया गया बाद 'इच्छं' बोलना चाहिए। । गुरुवंदन विपुल कर्म निर्जरा में सहायक बनता है। US Jain Echt e rnational Paris Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध आवश्यक क्रिया की सच्ची मुद्राएँ-१ २. सामायिक, पच्चक्खाण पारते समय तथा १. गुरुस्थापना मुद्रा। अविधि आशातना करते समय की मुद्रा । थोड़ा हाथ को सीधे सर्पाकार में रखना चाहिए। झुकना चाहिए। चादर कोर के साथ रखना चाहिए। मुहपत्ति का उपयोग करें। चरवले के बिना कभी भी सामायिक नहीं की जाती है। ४. वंदिउँ' 'वंदामि''वंदे' तथा 'नमंसामि' बोलते समय की मुद्रा । वंदन नमस्कार ३. खमासमण के समय की मुद्रा। नीचे झुकते समय पीछे से उँचा नहीं होना चाहिए। दोनों कुहनियों को अन्दर रखना चाहिए। करते समय अधिक झुकना चाहिए। सामायिक में भी करधनी (कंदोरा) . पहनना चाहिए। दोनों घुटनों को आस-पास रखना चाहिए। दो हाथ, दो पैर और मस्तक ये पाँचों अंग भूमि को स्पर्श करे तब 'मत्थएण वंदामि' बोलना चाहिए। C anal For Private sPep all Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ईरियावहियं सूत्र तेइंदिया चउरिंदिया ईरायवहियाए विराहणाए गमणागमणे पंचिंदिया पाणक्कमणे बीयक्कमणे इच्छाकारेण संदिसह भगवान् ! ईरियावहियं पडिक्कमामि? इच्छं, इच्छामि पडिक्कमिउं, हरियक्कमणे वत्तिया सया ओसा उतिंग संघाइया संघट्टिया पणग-दगमट्टी HE परियाविया किलामिया मक्कडा-संताणा संकमणे उद्दविया तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥ जे मे जीवा विराहिया एगिदिया ठाणाओ ठाणं संकामिया बेइंदिया 300 जीवियाओ ववरोविया Jain Ecupation International For Private & ParsohalteeDNA Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववन्दन तथा चैत्यवन्दन करते समय यह सूत्र बोलते सुनते समय की मुद्रा । प्रतिक्रमण तथा आलोचना करते समय यह सूत्र बोलते सुनते समय की मुद्रा । मूल सूत्र इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! ईरियावहियं पडिक्कमामि ? इच्छं, इच्छामि पडिक्कमिउं ॥ १ ॥ गमणागमणे ॥३॥ पाण-कमणे, बीय-क्कमणे, हरिय- क्कमणे, ओसा-उतिंग-पणग- दग-मट्टी ६ श्री ईरियावहियं सूत्र : श्री ईरियावहियं (ऍर्यापथिकी) सूत्र विषय : : लघु प्रतिक्रमण सूत्र पद : २६ संपदा : ७ गुरु-अक्षर : १४ लघु-अक्षर : १३६ सर्व अक्षर : १५० आदान नाम गौण नाम उच्चारण में सहायक इच् छा कारेण सन्-दि-सह भगवन् ! ईरि-या-वहि-यम् पडिक्-कमा-मि ? इच्-छम्, १. अभ्युपगम संपदा इच् छा - मि पडिक्-कमि - उम् ॥१॥ २. निमित्त संपदा मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ । १. ईरियावहियाए विराहणाए ॥२॥ ईरि-या वहि-याए विरा-हणा - ए ॥२॥ मार्ग में चलते समय हुई विराधना का । २. गाथार्थ : हे भगवन् ! स्वेच्छा से आज्ञा दीजिये। आने-जाने की क्रिया से लगे पाप का प्रतिक्रमण करूं ? आपकी आज्ञा मैं स्वीकारकरता हूँ। मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ । १. मार्ग में चलते समय हुई जीव विराधना का । २. ३. ओघ संपदा गम-णा-गम-णे ॥३॥ ४. ईतर संपदा पाणक्-कम-णे, बीयक्-कम-णे, हरि-यक्-कम-णे, ओसा - उत्- तिङ्-ग-पण-ग- दग-मट् टी मक्कडा - संताणा संकमणे ॥४॥ मक्- कडा-सन्-ताणा सं-कम-णे ॥४॥ गाथार्थ: प्राणियों को दबाने से, बीज को दबाने से, हरी वनस्पति को दबाने काई, पानी भीगी मिट्टी, मकड़ी के जाल को कुचलने से । ४. गमनागमन करने से हुई जीवों की विराधना हेतु क्षमापना । or Private & Personal Us पद क्रमानुसारी अर्थ हे भगवन् ! स्वेच्छा से आज्ञा दीजिये । आने जाने की क्रिया से लगे पाप का प्रतिक्रमण करूं ? आपकी आज्ञा मैं स्वीकार करता हूँ । आते जाते । ३. प्राणियों को दबाने से, बीज को दबाने से, वनस्पति को दबाने से, ओस की बूंद, चींटियों के बिल, पंच वर्णी काई, पानी भीगी मिट्टी, मकड़ी के जाल को कुचलने से । ४. से, ओस की बूंद, चींटियों के बिल, पंच वर्णी ८९ ary.org Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.संग्रह संपदा जे मे जीवा विराहिया ॥५॥ जे मे जीवा विरा-हिया ॥५॥ मेरे द्वारा जो कोई जीव पीड़ित हुए हों । ५. ६.जीव संपदा एगिदिया, बेइंदिया, एगिन्-दिया,बेइन्-दिया एक इंद्रिय(स्पर्शेद्रिय ) वाले, दो इंद्रिय(स्पर्शेद्रिय औररसनेंद्रिय) वाले, तेइंदिया, चउरिंदिया, ते इन्-दिया, चउ-रिन्-दिया, तीन इंद्रिय(स्पर्शेद्रिय, रसनेंद्रिय और घ्राणेंद्रिय वाले )चार इंद्रिय(स्पर्शेद्रिय,रसनेंद्रिय, घ्राणेंद्रिय औरचक्षुरिंद्रिय)वाले, पंचिंदिया॥६॥ पञ्-(पन्)-चिन्-दिया॥६॥ पांच इंद्रिय वाले।६. गाथार्थ : एक इन्द्रिय वाले, दो इन्द्रिय वाले, तीन इन्द्रिय वाले, चार इन्द्रिय वाले, पाँच इन्द्रिय वाले जीवो... ६. ७. विराधना संपदा अभिहया, वत्तिया, लेसिया, अभि-हया, वत्-तिया, लेसि-या, | चौट पहुंचाई गई हों, धूल से ढके गये हो, भूमि के साथ मसले गये हो, संघाइया, संघट्टिया,परियाविया स(सन्)-घाइया,सइ (सन्)-घट-टिया परस्पर शरीर से टकराये गये हो, थोड़ा स्पर्श किलामिया परि-या विया, किला-मिया, कराया गया हो, कष्ट पहुंचाया गया हो, उद्दविया, ठाणाओ ठाणं उद्-द-विया, ठाणाओ ठाणम् डराये गये हो, एक स्थान से दूसरे स्थान पर संकामिया, सङ्-का-मिया रक्खे गये हो, जीवियाओ ववरोविया, जीवि-याओ वव-रो-विया, प्राण रहित किये गये हो, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥७॥ तस्-स मिच्-छा मि दुक्-क-डम् ॥७॥ मेरे ये सर्व दुष्कृत्य मिथ्या हो । ७. गाथार्थ : पाँव से चोट पहुंचाई हो, जमीन पर मसले गये हो, धूल से ढंके हो, परस्पर शरीर से टकराये गये हो, थोड़ा स्पर्श कराया गया हो, कष्ट पहुंचाया गया हो, खेद पहुंचाया गया हो, डराये गये हो, एक स्थान से दूसरे स्थान पर रक्खे गये हो, डराये गये हो, प्राण रहित किये गये हो, मेरे ये सब दुष्कृत्य मिथ्या हो । ७. उपयोग के अभाव से होते उच्चारण आदि से सम्बन्धित सूचनाए अशुद्ध उच्चारो के सामने शुद्ध उच्चार (जिस सूत्र में गाथा न हो, फिर भी अंक दिए गए हो तो उसे सम्पदा समझना चाहिए।) शुद्ध • 'इच्छाकारेण..ईरियावहियं पडिक्कमामि ?' यह पद बोलते समय प्रश्न पूछते हो, ईच्छा.संदि. भगवान् इच्छा. संदि. भगवन् ऐसा भाव मन में लाना चाहिए। ईरियावियाए ईरियावहियाए |• 'पडिक्कमिउं' में अन्त में स्थित ''(अनुस्वार) का उच्चारण करते समय दोनों ईच्छामि पडिकमिउ इच्छामि पडिक्कमिउं होंठ सटे होने चाहिए। एकिदिया एगिदिया 'पडिक्कमामि, पडिक्कमिउं, पाणक्कमणे' आदि शब्दों में 'क्क' सन्ध्यक्षर का अभिया अभिहया उच्चारण शुद्धता पूर्वक करने के लिए अक्षर पर जोर देना चाहिए। संधाया संघाइया • 'पणग' के बाद आंशिक रुककर 'दग-मट्टी', उसके बाद 'मक्कडा-संताणा' मकडा मक्कडा एक साथ बोलकर 'संकमणे'अलग से बोलना चाहिए। उर्दुविया उद्दविया इसी प्रकार 'ठाणाओ ठाणं संकामिया', 'जीवियाओ ववरोविया' एक साथ वतिया वित्तिया बोलना चाहिए, 'परन्तु तस्स-मिच्छा-मि-दुक्कडं' अलग से बोलना चाहिए। श्री ईरियावहियं सूत्र की महत्ता हृदय में पश्चात्ताप के भाव के साथ श्री। उस समय पू. साधु-साध्वीजी भगवंत, पौषधार्थी तथा श्रावक-श्राविका अइमुत्ता महामुनि ने यह ईरियावहियं सूत्र को (लघु करते हैं । १०० कदम से अधिक बाहर जाना हो अथवा शायद १०० प्रतिक्रमण सूत्र) बोलते-बोलते केवलज्ञान प्राप्त कर कदम के अन्दर भी जीव की विराधना हुई हो, उस समय सामायिक, लिया था । हमें भी यह सूत्र पश्चाताप से भावपूर्ण पौषध, चैत्यवंदन, देववंदन, स्वाध्याय, ध्यानादि करने से पहले तथा एक बनकर गद्गद होकर बोलना चाहिए। क्रिया से दूसरी क्रिया में प्रवेश करने से पूर्व यह ईरियावहियं सूत्र सर्वजीव श्री लघु प्रतिक्रमण सूत्र मात्र गमनागमन की की क्षमापना के लिए बोला जाता है। सर्व जीवों के साथ क्षमापना किए क्रिया का प्रतिक्रमण कहलाता है । इस सूत्र का बिना अन्तःकरण में मैत्रीभाव उत्पन्न नहीं होता है। इस मैत्रीभाव से रहित उपयोग रास्ते में आते-जाते (गमनागमन करते हुए) सारी क्रिया व्यर्थ सिद्ध होती है। अतः 'क्षमा' प्रधान जैनधर्म में यह सूत्र यदि किसी भी जीव की विराधना का पाप लगा हो, अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता है। अशुद्ध Jain Acation International a aye aaryory. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराधना-विराधना से सम्बन्धित जानकारी इस विराधना से बचने के लिए यह 'ईरियावहियं सत्र' सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्र स्वरूप मोक्षमार्ग की बोला जाता है । विराधना चार प्रकार की होती है। उपासना करनी चाहिए अर्थात् संयम मार्ग का विधि के (१)अतिक्रम : आराधना भंग के लिए कोई प्रेरणा करे तथा स्वयं अनुसार पालन करना चाहिए। उसे आराधना कही जाती उसका निषेधन करें। है। इस आराधना से विपरीत-विकृत-आचरण अथवा (२)व्यतिक्रम : विराधना की तैयारी करें। दोष या त्रुटियुक्त आचरण, जिसके करने से दुःख उत्पन्न (३)अतिचार : कुछ अंशों में दोष का सेवन करें। हो, उसका आचरण करना, उसे विराधना कही जाती है। (४)अनाचार : आराधना का सम्पूर्णतया भंग करें। श्री ईरियावहियं सूत्र के द्वारा विराधना की क्षमापना से सम्बन्धित जानकारी • एकेन्द्रिय = २२, द्विइन्द्रिय = २, त्रिइन्द्रिय • राग द्वेष =२, मन-वचन-काया-३, करना-करवाना-अनुमोदन करना =३ =२, चतुरिन्द्रिय =२ कुल = २८ भूतकाल - वर्तमानकाल - भविष्यकाल = ३, इन सारी विराधनाओं के • पंचेन्द्रिय में नरक = १४, देव = १९८, लिए ६ की साक्षी से क्षमा मांगता हूँ । अरिहंत - सिद्ध - साधु - मनुष्य = ३०३, तिर्यंच =२० कुल =५६३ सम्यग्दृष्टिदेव - गुरु तथा आत्मा =६ । ५६३ भेदवाले जीवों की १० (अभिहया... • ५६३०x२xxx ३ x ६ = १८,२४,१२० से ववरोविया तक) प्रकार की विराधना = इस सूत्र के द्वारा अठारह लाख, चौबीस हजार एक सौ बीस प्रकार की क्षमापना मांगी जाती है। श्री ईरियावहियं सूत्र की ७ संपदा तथा तस्स उत्तरी सूत्र की ८ वीं संपदा कहलाती है। (१) अभ्युपगमसंपदा : आलोचना प्रतिक्रमण रूप में (५) संग्रह संपदा : जिस जीव की विराधना की हो उसका प्रायश्चित को अंगीकार करने का भाव समूह 'जे मे जीवा विराहिया ॥५॥ होने के कारण दो पद की संपदा (६)जीव संपदा संग्रह में एकत्र जीवों के प्रकार बताना 'इच्छाकारेण...से पडिक्कमिउं' ॥१॥ ___ 'एगिदिया..पंचिंदिया' ॥६॥ (२) निमित्त संपदा : विराधना होने का निमित्त अर्थात् किस (७) विराधना संपदा : हर प्रकार के जीवों की १० प्रकार से पाप की आलोचना करनी है? विराधना 'अभिहया... ववरोविया... 'ईरियावहियाए विराहणाए'॥२॥ दुक्कडं' ॥७॥ (३) ओघसंपदा : विराधना होने का सामान्य कारण (८)प्रतिक्रमण संपदा : जो पाप हुए हैं, उन पापों का प्रतिक्रमण अर्थात् मार्ग में गमनागमन करते हुए 'तस्स उत्तरी... काउस्सग्गं' ॥८॥ विराधना हुई हो ‘गमणागमणे' ॥३॥ इसमें प्रथम पाँच संपदा श्री ईरियावहियं सूत्र की मुख्य (४) इतरहेतु संपदा : विराधना होने का विशेष कारण.... संपदा कहलाती है। साथ ही जीव संपदा, विराधना संपदा तथा 'पाणक्कमणे...संकमणे'॥४॥ प्रतिक्रमण संपदा व चूलिका संपदा कहलाती है। LiR Personalismolya marकहि Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री तस्स उत्तरी सूत्र पद आदान नाम : श्री तस्स उत्तरी सूत्र । गौण नाम : उत्तरीकरण सूत्र विषयः पापो की विशेष संपदा : १ शुद्धि करने के लिए चैत्यवन्दन तथा देववन्दन प्रतिक्रमण में रत्नत्रयी गुरु-अक्षर : १० के समय यह सूत्र की शुद्धि हेतु यह सूत्र कायोत्सर्ग करने लघु-अक्षर : ३९ का संकल्प। बोलने की मुद्रा। बोलते-सुनते समय की मुद्रा।। सर्व अक्षर : ४९ । ८. प्रतिक्रमण संपदा मूल सूत्र । उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ तस्स उत्तरी करणेणं, तस्-स उत्-तरी-कर-णे-णम्, उन्ही की (उन पापों की / ईरियावहिया सूत्र में बताये पापों की) | फिर से विशेष शुद्धि करने के द्वारा, पायच्छित्त-करणेणं, पा-यच-छित्-त-करणे-णम् प्रायश्चित करने के द्वारा (विशेष आलोचना एवं निंदा करने के द्वारा), प्रायश्चितकरण का उपाय विसोही-करणेणं, विसो-ही-कर-णे णम्, विशुद्धि करने के द्वारा, विशोधीकरण का उपाय विसल्ली करणेणं, विसल्-ली-करणे-णम्, शल्य रहित करने के द्वारा, कायोत्सर्ग का प्रयोजन पावाणंकम्माणं निग्घायणट्ठाए, पावा-णम् कम्-माणम्, निग्-घा-यणट्-ठाए पाप कर्मों का संपूर्ण नाश करने के लिये ठामिकाउस्सग्गं ॥१॥ ठामि काउस्-सग्-गम्॥१॥ मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।१. उपयोग के अभाव से होते अशुद्ध उच्चारो के सामने शुद्ध उच्चार गाथार्थ : उन ( पापों ) की फिरसे शुद्धि करने के अशुद्ध शुद्ध द्वारा, प्रायश्चित्त करने के द्वारा, विशुद्धि करने के द्वारा, शल्य पायछित कर्णणं । पायच्छित्त करणेणं रहित करने के द्वारा.पापकर्मों का संपर्ण नाश करने के लिये निग्घायण ठाए निग्घायणट्ठाए मैं कायोत्सर्गकरताह काउसगं काउस्सग्गं श्री तस्स उत्तरी सूत्र की महत्ता तथा इसके गूढ़ रहस्य का ज्ञान विराधना के पाप से लिप्त आत्मा ईरियावहियं' सूत्र से शुद्ध ३. अन्य कोई विकृति पैदा न हो, इसके लिए ज्ञानहोती है. फिर भी यदि कोई अशुद्धि रह गई हो, उसे विशेष रूप से दर्शन-चारित्र की आराधना के द्वारा आत्मा की शुद्ध करने के लिए इस सूत्र में क्रमशः प्रक्रिया बतलाई गई है. विशुद्धि करने के लिए(विशोधीकरण)। १. पापरूपी शल्य को सर्वप्रथम लाने का प्रयत्न करने के लिए ४. निन्दित, गर्हित तथा आलोचित पापों को आत्मा से (उत्तरीकरण)। सदा के लिए बाहर निकालने हेतु तथा उन पापों के २. आलोचना, निन्दा, गर्हा आदि प्रायश्चित के द्वारा शल्य को उपद्रव से मुक्ति हेतु कायोत्सर्ग करने के लिए ऊपरलाने के लिए(प्रायश्चित्तकरण)। (विसल्लीकरण)। Jain R For Parvates Personal use only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. श्री अन्नत्थ सूत्र आदान नाम : श्री अन्नत्थ सूत्र गौण नाम : आगार सूत्र विषयः पद : २८ कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा, संपदा आगार (छूट, अपवाद), गुरु-अक्षर : १३ चैत्यवंदन तथा प्रतिक्रमण में रत्नत्रयी की 'अप्पाणं वोसिरामि' | लघु-अक्षर : १२७ समय की मर्यादा देववंदन के समय यह शुद्धि के लिए यह सूत्र बोलने के सर्व अक्षर : १४० सूत्र बोला जाता है। बोलते सुनते समय की मुद्रा। बाद की मुद्रा तथा स्वरूप का वर्णन। १. एकवचनान्त आगार संपदा मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ अन्नत्थ ऊससिएणं, अन्-नत्-थ ऊस-सि-ए-णम्, इस के सिवाय श्वास लेने से, नीससिएणं, नीस-सि-ए-णम्, श्वास छोडने से, खासिएणं, छीएणं, खासि-ए-णम्, छीए-णम्, खांसी आने से, छींक आने से, जंभाइएणं, उड्डुएणं, जम्-भा-इए-णम्-उड्डु -ए-णम्, जम्हाई आने से, डकार आने से, वाय-निसग्गेणं, वाय-नि-सग्-गे-णम्, अधोवायु निकलने से, भमलीए पित्त-मुच्छाए ॥१॥ भम-लीए पित्-त मुच्-छाओ॥१॥ चक्कर आने से पित्त विकार के कारण मूर्छा आने से । १. गाथार्थ : इसके सिवाय श्वास लेने से, श्वास छोड़ने से, खांसी आने से, छींक आने से, जम्हाई आने से, डकार आने से, अधो वायु निकलने से, चक्कर आने से, पित्त विकार के कारण मूर्छा आने से । १. २. बहुवचनान्त संपदा सुहुमेहंअंग-संचालेहि, सुहु-मे-हिम्-अङ्ग-सञ् (सन्)-चा-लेहिम्, सूक्ष्म रूपसे अंग हिलने से, सुहुमेहिखेल-संचालेहि, सुहु-मे-हिम्-खेल-सञ्(सन् )चा-लेहिम्, सूक्ष्म रूपसेकफ और वायुके संचालनसे, सुहुमेहिं दिट्ठि-संचालेहिं॥२॥ सुहु-मे-हिम्-दिट्-ठि-सञ् (सन् )-चा-लेहिम्।॥२॥ सूक्ष्म रूप से दृष्टिहिलने से।२. गाथार्थ : सूक्ष्म रूप से अंग संचालन से, सूक्ष्म रूप से कफ और वायु के संचालन से, सूक्ष्म रूप से दृष्टि के संचालन से ।२. ३. आगंतुक आगार संपदा एवमाइ एहिंआगारेहि, एव-माइ-ए-हिम्आ गा-रे-हिम्, इत्यादि आगारों ( अपवादों) से अभग्गो अविराहिओ, अभग्-गो अवि-राहि-ओ, अभंग अविराधित / अखंडित हुज्जमे काउस्सग्गो॥३॥ हुज्-ज मे काउस्-सग्-गो॥३॥ मेरा कायोत्सर्ग हो।३. कोवा (गांधीनगर गाथार्थ : इत्यादि आगारों से मेरा कायोत्सर्ग अभंग और अविराधित हो ।३. वि.३८२००९ ४. उत्सर्ग अवधि संपदा जाव अरिहंताणं भगवंताणं, जाव अरि-हन्-ताणम् भग-वन्-ताणम्, जब तक अरिहंत भगवंतों को नमुक्कारेणंन पारेमि ॥४॥ नमुक्-कारे-णम्न पारे-मि॥४॥ नमस्कार करने के द्वारा (कायोत्सर्ग) पूर्ण न करूं। ४. गाथार्थ : जब तक अरिहंतभगवंतो को नमस्कार करने के द्वारा (कायोत्सर्ग) पूर्ण न करु । ४. Jain Education intonational maruse only www.jainelibrary.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. स्वरुप संपदा तावकार्य, ठाणेणंमोणेणं, तावकायम,ठाणे-णम्,मोणे-णम्, । तब तक स्थान पूर्वक (एक स्थान में स्थिरता पूर्वक),मौन पूर्वक, झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि ॥५॥ झाणे-णम् अप्-पा-णम्-वोसि-रामि ॥५॥ ध्यान पूर्वक अपनी काया का त्याग करता हूँ।५. गाथार्थ : तब तक अपनी काया को स्थिरता पूर्वक, मौन पूर्वक(और) ध्यान पूर्वक त्याग करता हूँ।५. उपयोग के अभाव से होते १९ दोषों का त्याग कर कायोत्सर्ग करना चाहिए । वह इस प्रकार है अशुद्ध उच्चारो के सामने शुद्ध उच्चार (१) घोड़े की भांति एक पैर ऊँचा, टेढा रखना, वह घोटक दोष (२) लता के अशुद्ध शुद्ध समान शरीर को हिलाए, वह लता दोष (३) मुख्य स्तम्भ को टिकाकर खड़ा रहे, अनत्थ अन्नत्थ वह स्तंभादि दोष (४) उपर बीम अथवा रोशनदान हो, उससे सिर टिकाकर रखे, खाससिएणं खासिएणं वह माल दोष (५) बैलगाड़ी में जिस प्रकार सोते समय अंगूठे को टिकाकर बैठा जंभाएणं जंभाइएणं जाता है, उस प्रकार पैर रखे, वह उद्धित दोष (६) जंजीर में जिस प्रकार पैर रखे भम्मलीए भमलीए जाते हैं, उस प्रकार पैरों को चौड़ाकर रखे, वह निगड दोष (७) नग्न भील के सुहमेहि सुहमेहि समान गुप्तांग पर हाथ रखे, वह शबरी दोष (८) घोड़े के चौकड़े के समान संचालेही संचालेहि रजोहरण(चरवले )की कोर आगे रहे, इस प्रकार हाथ रखे, वह खलिण दोष (९) एवमाई आगारहि एवमाइएहिं आगारेहि नव विवाहित वधू के समान मस्तक नीचे झुकाए रखे, वह वधू दोष (१०) माणेणं मोणेणं नाभि के ऊपर तथा घुटने के नीचे लम्बे वस्त्र रखे, वह लंबोत्तर दोष (११) वोसरामि वोसिरामि मच्छर के डंक के भय से, अज्ञानता से अथवा लज्जा से हृदय को स्त्री के समान ढंककर रखे, वह स्तन दोष (१२) शीतादि के भय से साध्वी के समान दोनों कंधे ढंककर रखे अर्थात् समग्र शरीर आच्छादित रखे, वह संयति दोष (१३) आलापक गिनते समय अथवा कायोत्सर्ग की संख्या गिनते समय ऊगली तथा पलकें चलती रहे, वह भूअङ्गुलि दोष, (१४) कौए के समान इधर-उधर झांकता रहे, वह वायस दोष (१५) पहने हए वस्त्र पसीने के कारण मलिन हो जाने के भय से कैथ के पेड की तरह छिपाकर रखे, वह कपित्थ दोष । (१६) यक्षावेशित के समान सिर हिलाए, वह शिरःकंप दोष (१७) गूंगे के समान हं हं करे, वह मूक दोष (१८) आलापक गिनते समय शराबी के समान बड़बड़ाए, वह मदिरा दोष तथा (१९) बन्दर के समान इधर-उधर देखा करे, होंठ हिलाए, वह प्रेक्ष्य दोष कहलाता है। साधु भगवंत तथा श्रावक को कायोत्सर्ग के १९ दोष लगते हैं । साध्वीजी भगवंत को स्त्री जाति होने के कारण शरीर की बनावट भिन्न प्रकार की होने से १०३, ११वें तथा १२वें दोष के अतिरिक्त १६ दोष लगते हैं। श्राविका को भी इन्हीं कारणों से ९, १०, ११वें तथा १२वें दोष के अतिरिक्त १५ दोष लगते हैं। जिनका त्याग करना आवश्यक है। Jaiyo imemational Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ adana प्रक्ष्य दोष... 15157 शबरी दोष दोनों पैरों के बीच अंतर, चरवला पकड़कर होंठ की फड़फड़ाहट के साथ चारों ओर दृष्टि करे, वह अविधि कहलाती है । शुद्ध कायोत्सर्ग तथा कायोत्सर्ग के १९ दोष वायस दोष शिरःकम्प दोष संयतिदोष निगड दोष शुद्ध काउस्सग्ग की Jain Education Interna नग्न भील की भांति दोनों हाथों से गुप्तांग को ढंककर रखना, वह अविधि कहलाती है। मुद्रा कौए के समान इधर-उधर गर्दन घुमाए, तो अविधि कहलाती है । भ्रू अङ्गुली दोष खलिण दोष ऊँगली के पोर में काउस्सग की संख्या गिनना अथवा नवकारवाली से गिनना, वह अविधि कहलाती है। स्त्री की भांति चादर से सम्पूर्ण छाती ढंककर रखना, वह अविधि कहलाती है। Sakaaatiy वधूदोष घोटक दोष नव विवाहित स्त्री की भांति मुँह नीचे झुकाकर रखना तथा घोड़े के समान पैरों को ऊपर-नीचे करना, वह अविधि कहलाती है। जम्हाई आए तो काउस्सग्ग में मुँहपत्ति का उपयोग मुख के आगे नहीं करना । एक हाथ में एक साथ मुँहपत्ति तथा चरवला रखना वह भी एक अविधि है । शुद्ध काउस्सग्ग की मुद्रा दोनों हाथ जोड़कर पैरों के माप का अंतर रखे बिना कायोत्सर्ग करना, वह अविधि कहलाती है। ६५ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगस्स उज्जोअगरे, धम्म-तित्थयरे जिणे। श्री लोगस्स सूत्र अरिहंते कित्तइस्सं चउवीसं पि केवली ॥१॥ उसभ- -मजिअंच वंदे, सुविहिं च पुष्पदंतं, कथ मल्लि , अरंच संभव- मभिणंदणं च सुमइं च ।। सीयल- सिज्जंस- वासपज्जं च ।। वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च । पउमप्पहं सुपासं, विमल- मणंतं च जिणं वंदामि रिट्टनेमि जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥२॥ धम्म संतिं च वंदामि ॥३॥ पासं तह वद्धमाणं च ॥४॥ एवं मए अभिथुआ, वियरय-मला पहीणजर-मरणा। कित्तिय-वंदिय-महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा। चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ॥५॥ आरुग्ग बोहिलाभ, समाहिवर मुत्तमं किंतु ॥६॥ चंदेस निम्मलयरा, आईच्चेस अहियं पयास-यरा। सागर-वर गभीरा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥७॥ ६६ D ointernational jainel ten Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. श्री लोगस्स सूत्र आदान नाम : श्री लोगस्स (नामस्तव) सूत्र, | विषय : गौण नाम : चतुर्विशतिस्तव (चउवीसत्थय) :२८ पद श्री २४ भगवंतों की देववन्दन - प्रतिक्रमण में कायोत्सर्ग संपदा :२८ नाम पूर्वक स्तवना चैत्यवन्दन रत्नत्रयी की शुद्धि ध्यान में इस सूत्र गुरु-अक्षर : २७ कर मोक्षपद की करते समय यह के लिए यह सूत्र का चिन्तन करते लघु-अक्षर : २२९ सत्र बोलते-सनते बोलते-सनते समय समय की मुद्रा। याचना की जाती है। समय की मुद्रा। की मुद्रा। छंद का नाम : सिलोगो; राग : 'दर्शनं देवदेवस्य'(प्रभु स्तुति) मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पदक्रमानुसारी अर्थ लोगस्स उज्जोअ-गरे, लो-गस्-स उज-जोअ-गरे, लोक में उद्योत (प्रकाश) करने वाले,लोक में स्थिर सर्व द्रव्यों के यथार्थ स्वरूप को प्रगटकरने वाले, धम्म-तित्थ-यरे जिणे। धम्-म-तित्-थ-यरे जिणे। धर्म रूपी तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले, अरिहंते कित्तइस्सं, अरि-हन-ते-कित्-त-इस-सम्, | त्रैलोक्य पूज्यों की स्तुति करूँगा। चउवीसं पिकेवली॥१॥ चउ-वी-सम्-पिकेव-ली॥१॥ चौबीसों,केवलियों की।१. छंद का नाम : गाहा; राग : 'जिण जम्म समये मेरु सिहरे'(स्नात्र पूजा) उसभ-मजिअंचवंदे, उस-भ-मजि-अम् च वन्-दे, श्री ऋषभदेव और श्री अजितनाथको मैं वंदन करता है। संभव-मभिणंदणंच- सम्-भव-मभि-णन्-दणम् श्रीसंभवनाथ और श्रीअभिनंदन स्वामी को और श्री सुमइंच। च सुम-इम्-च। सुमतिनाथ को, पउम-प्पहं सुपासं, पउ-मप्-पहम्-सुपा-सम्, श्री पद्मप्रभ स्वामीको, श्रीसुपार्श्वनाथ को, जिणंच चंद-प्पहं वंदे ॥२॥ जिणम् च चन्-दप-पहम् वन्-दे॥२॥ और श्रीचंद्रप्रभ जिनेश्वरको मैं वंदन करता हू।२. ___गाथार्थ : लोक में प्रकाश करने वाले, धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करने वाले, राग-द्वेषादि के विजेता एवं त्रैलोक्य पूज्य चौबीसों केवलियों की मै स्तुति करूँगा। श्री ऋषभदेव, श्री अजितनाथ, श्री संभवनाथ, श्री अभिनंदन स्वामी और श्री सुमतिनाथ को मैं वंदन करता है। श्री पद्मप्रभ स्वामी, श्री सुपार्श्वनाथ और श्री चंद्रप्रभ जिनेश्वर को मैं वंदन करता हूँ। १.२. सुविहिं च पुष्फ-दंतं, सुवि-हिम् च पुप्-फ-दन्-तम्, 1 श्री सुविधिनाथ यानि श्री पुष्पदंत (श्री सुविधिनाथ का दूसरा नाम) को, सीअल-सिज्जंस- सीअ-ल सिज्-जन्-स श्री शीतलनाथ, श्री श्रेयांसनाथ और वासुपुज्जं च। वासु-पुज्-जम् च। श्री वासुपूज्य स्वामी को, विमल-मणंतं च जिणं, विमल-मणन्-तम् च जिणम्, श्री विमलनाथ और श्री अनंतनाथ जिनेश्वर को धम्म संति च वंदामि ॥३॥ धम्-मम् सन्-तिम् च वन्-दामि ॥३॥ श्री धर्मनाथ और श्री शांतिनाथ को मैं वंदन करता है।३. गाथार्थ : श्री सुविधिनाथ यानि श्री पुष्पदंत, श्री शीतलनाथ, श्री श्रेयांसनाथ, श्री वासुपूज्य स्वामी, श्री विमलनाथ, श्री अनंतनाथ, श्री धर्मनाथ और श्री शांतिनाथ जिनेश्वर को मैं वंदन करता हूँ। ३. कुंथुअरं च मल्लिं, कुन्-थम् अरम्चमल्-लिम्, कुंथुनाथ,श्रीअरनाथ और श्रीमल्लिनाथको वंदे मुणिसुव्वयं वन्-दे मुणि-सुव्-वयम्- श्री मुनिसुव्रत स्वामी और नमि-जिणंच। नमि जिणम्च। श्रीनमिनाथ जिनेश्वर को मैं वंदन करता हूँ। वंदामि रिटु-नेमि, वन्-दामि रिट्-ठ-नेमिम्, मैवंदन करताहूँ।श्रीअरिष्टनेमि (नेमिनाथ )को पासंतह वद्धमाणंच॥४॥ पासम्तह वद्-ध-माणम्च॥४॥ और श्री पार्श्वनाथ तथा श्रीवर्धमान(महावीर) स्वामी को।४. गाथार्थ : श्री कुंथुनाथ, श्री अरनाथ, श्री मल्लिनाथ, श्री मुनिसुव्रत स्वामी और श्री नमिनाथ जिनेश्वरको मैं वंदन करता हूँ। श्री अरिष्टनेमि, श्री पार्श्वनाथ और श्रीवर्धमान स्वामी को मैं वंदन करताह।४. Dreyer Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल सूत्र । उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ एवं मए अभिथुआ, एवम्-मए अभि-थुआ, इस प्रकार मेरे द्वारा स्तुति किये गये, विहुय-रय-मलाविहु-य-रय-मला कर्म रूपी रज (नये बंधने वाले कर्म) और मल पहीण-जर-मरणा। पही-ण-जर-मरणा। (पहले बंधे हुए कर्म ) से रहित, वृद्धावस्था और मृत्यु से मुक्त, चउ-वीसं पि जिणवरा, चउ-वी-सम्-पि जिण वरा, चौबीसों जिनेश्वर, तित्थ-यरा मे पसीयंतु ॥५॥ तित्-थ-यरा मे पसी-यन्-तु ॥५॥ तीर्थ के प्रवर्तक मेरे उपर प्रसन्न हों । ५. गाथार्थ : इस प्रकार मेरे द्वारा स्तुति किये गये, कर्म रूपी रज और मल से रहित, वृद्धावस्था और मृत्यु से मुक्त, तीर्थ के प्रवर्तक चौबीसों जिनेश्वर मेरे उपर प्रसन्न हों। ५. कित्तिय-वंदिय-महिया, कित्-तिय-वन्-दिय-महि-या, कीर्तन-वंदन-पूजन किये गए हैं, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा। जे ए लोगस-स् उत्-तमा सिद्-धा। जो इस लोक में उत्तम हैं, सिद्ध हैं, आरुग्ग-बोहिलाभ, आरुग्-ग बोहि-लाभम्, आरोग्य (मोक्ष) के लिये बोधिलाभ (सम्यक्त्व) समाहिवर-मुत्तमं दितु ॥६॥ समाहि-वर-मुत्-त-मम् दिन्-तु ॥६॥ उत्तम भाव समाधि प्रदान करें। ६. गाथार्थ : जो कीर्तन-वंदन-पूजन को प्राप्त हुए हैं, लोक में प्रधान सिद्ध हैं, वे आरोग्य के लिये बोधिलाभ और उत्तम भाव समाधि प्रदान करें। ६. चंदेसु निम्मलयरा, चन्-देसुनिम्-म-लय-रा, चंद्रों से अधिक निर्मल, आईच्चेसु अहियं पयासयरा। आईच्-चेसुअहि-यम्पया-सयरा। सूर्यों से अधिक प्रकाशमान, सागरवरगंभीरा, सागर-वर-गम्-भीरा, श्रेष्ठसागर(स्वयंभू-रमण समुद्र) से अधिक गंभीर सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥७॥ सिद्-धा सिद्-धिम्मम दिसन्-तु ॥७॥ सिद्ध भगवंत मुझे सिद्धि(मुक्ति) प्रदान करें।७. गाथार्थ : चंद्रों से अधिक निर्मल, सूर्यों से अधिक प्रकाशवान, श्रेष्ठ सागर से अधिक गंभीर सिद्ध भगवंत मुझे सिद्धि प्रदान करें। ७. (नोंध:- श्री लोग्गस्स सूत्र में 'चउविसंपि' के स्थान पर चउव्वीसं का मत होने के कारण गुरु अक्षर २७ के बदले २८ होते हैं।) सत्र की आवश्यकता से सम्बन्धित कछ तथ्य प्रातःकाल व सन्ध्याकाल प्रतिक्रमण चतुर्विंशति स्तव है। उसमें २४ भगवान की स्तवना की जाती है । इस हेतु लोगस्ससूत्र में छह आवश्यकों का आचारण होता है। का उपयोग किया जाता है। रत्नत्रयी की शुद्धि हेतु तथा विविध आराधना हेतु साथ ही इन छह आवश्यकों में दूसरा आवश्यक क्षुद्रोपद्रव-कर्मक्षय आदि हेतु श्री लोगस्स सूत्र का कायोत्सर्ग में स्मरण किया जाता है। उपयोग के अभाव से होते कहा कितने प्रमाण में कायोत्सर्ग करना चाहिए? अशुद्ध उच्चारो के सामने शुद्ध उच्चार 'कुसुमिण' का कायोत्सर्ग दृष्ट-स्वप्न अथवा स्वप्नरहित रात्रि हो तो 'चार लोगस्स, चंदेसु-निम्मलयरा' तक किया अशुद्ध शुद्ध जाता है तथा चौथे व्रत से सम्बन्धित स्खलना = कुत्सित : कितईसं कित्तइस्सं स्वप्न आया हो तो चारलोगस्स,सागर-वर-गम्भीरा'तक। संभव-मभिअणंदणंच संभव-मभिणंदणंच क्षद्रोपद्रव का नाश करने तथा छींक का काउस्सग्ग भी पउमपहं पउमप्पहं 'सागर वर गम्भीरा' तक किया जाता है। लघुशांति तथा : कुंथु कुंथु बृहत्-शांतिस्तव आदि शांतिकर्म में सम्पूर्ण लोगस्स का एव महे अभित्थुआ एवम्-मए अभिथुआ कायोत्सर्ग किया जाता है। किसी भी पद की आराधना विहुयरयमल्ला विहुय रयमला अथवा कर्मक्षय निमित्त का कायोत्सर्ग'चंदेसु निम्मलयरा' सिद्धा सिद्धि मम दिसतु सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु तक किया जाता है। कि सूर हट Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जियां जिणं ि विशुद्धारव्या चक्र षोडशदल पद्म -सुपासं, सुषुम्नावज्रा चित्रिणीब्रह्मनाडी कुमारीका PH: २४ जिननाम देहस्थ चक्रस्थानो में न्यास की विधि मूलाधार चक्र चतुर्दलपम चक्रस्थान = कंठ शमारिका આ अमृत घराती ध्यानफल : उत्तम वक्ता, काव्य रचना में समर्थ शांत चित्त आरोग्यवान बनते हैं। सुषुम्नाबज्रा चित्रिणीब्रह्मनाडी स्वाधिष्ठान चक्र षद्दल पद्म श्री पा र्श्व नाथ इल्तला कालधर्मिनी ध्यानफल: वक्ता श्रेष्ठ पुरुष विनोदी आनंदित आरोग्य सिद्धि होती है। सुषुम्ना बज्रा चित्रिणी ब्रह्मनाडी प्रभु चक्रस्थान कमर हाड he ૐ सूत्रा शंखीनी ध्यानफल : अविकारी संत पुरुष बनते है। आज्ञाख्य चक्र द्विदल पद्म चक्रस्थान = उदर सुषुम्ना वज्रा चित्रिणीब्रानाडी विश्वा इवन्तिका अनाहत चक्र द्वादशदल पद्म चक्रस्थान - नेत्र सुषुम्ना वज्राचित्रिणीब्रह्मनाडी क्ष गांधारी हस्ति जिह्व ध्यानफल : वाक्य सिद्धि 8 मणिपूर चक्र दशदल पद्म इल्लिका युक्ता पीता नीला वृंदा' शारदा ध्यानफल : वचन रचना में समर्थ, योगीश्वर, ज्ञानवान इन्द्रिय विजेता बनते है। अतीता ॐ काही सुषुम्ना वज्राचित्रिणीब्रानाडी मुनि चक्रस्थान = हृदय शुक्र ध किगोलिका ध्यानफल : सरस्वती की पूर्ण कृपा होती है। तारा शून्य चक्र सहस्त्रदल पद्म चक्रस्थान = आंतर तारका माधवी चक्रस्थान = मस्तिष्क ध्यानफल आकाशगामी समाधि युक्त महातपस्वी होते हैं। ६९ w Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • इस सूत्र में अनेक अक्षरों के साथ कुल ५०'० 'अनुस्वार आते हैं । अतः ध्यानपूर्वक उच्चारण करना चाहिए। • इस सूत्र में 'च' ग्यारह बार आता है। दस बार 'च' का अर्थ ' और' तथा एक बार (सुविहिंच पुप्फदंतं) का अर्थ ' अथवा ' होता है । • इस सूत्र में श्री सुविधिनाथ भगवान का दूसरा नाम 'पुष्पदंत 'कहा गया है। दूसरी-तीसरी तथा चौथी गाथा में चौबीस प्रभुजी का क्रम नाम १. २. श्री लोगस्स सूत्र के साढ़े तीन वलय शरीर के सात चक्रों पर साढ़े तीन वलय में कुंडलिनी नामक सूक्ष्म सुषुप्त शक्ति को जागृत करने के लिए तथा कायोत्सर्ग का फल प्राप्त करने के लिए इस तरह ध्यान करना चाहिए । मूलाधार आदि सात चक्रों में साढ़े तीन वलय के सहारे चौबीस तीर्थंकर परमात्मा का स्मरण किया जाता है । उसमें प्रथम चित्र के अनुसार पहले वलय में श्री ऋषभदेव भगवान से श्री सुपार्श्वनाथ भगवान तक (सात भगवान) का स्मरण कर अंत में 'जिणं' शब्द का प्रयोग किया गया है। दूसरे वलय में श्री चंद्रप्रभस्वामी से श्री अनंतनाथ भगवान तक (सात भगवान ) का स्मरण कर उसके अंत में सात चक्रों के नाम-स्थान तथा वलयों ३. ४. ५. ६. ७. उच्चारण से सम्बन्धित सूचनाएँ मूलाधार चक्र स्वाधिष्ठान चक्र मणिपूर चक्र अनाहत चक्र विशुद्ध चक्र आज्ञा चक्र सहस्त्रार चक्र 190 Jain uucation International स्थान पीछे के भाग में नीचे नाभि के नीचे आगे नाभि के स्थान पर हृदय के स्थान पर कंठ के स्थान पर ललाट के स्थान पर शिखा के स्थान पर १ला वलय उसभ मजिअं संभव मभिणंदणं सुमई पउमप्पहं सुपासं १. दर्शन : १ला वलय पूरा होते ही सातवें भगवान श्री सुपार्श्वनाथ आए, अतः सम्यग्दर्शन गुण के पास आए। (सुपासं= सुन्दर के पास ) २. ज्ञान : २ रा वलय पूरा होते ही चौदहवें भगवान श्री अनंतनाथ आए। (अनंतनाथ = अनंतज्ञान ) समावेश किया गया है। उसमें 'वंदे', 'वंदामि' बोलते समय मस्तक विशेष झुकाना चाहिए। • श्री आदेश्वरदादा, श्री पद्मप्रभु तथा श्री चन्द्रप्रभु उच्चारण अशुद्ध है । • श्री आदीश्वरदादा, श्री पद्मप्रभस्वामी तथा श्री चन्द्रप्रभस्वामी उच्चारण शुद्ध है । से सम्बन्धित जानकारी । 'जिणं' शब्द रखा गया है। तीसरे वलय में श्री धर्मनाथ से श्री नमिनाथ तक ( सात भगवान ) का स्मरण कर अंत में 'जिणं' शब्द रखा गया । चौथे आधे वलय में श्री अरिष्ट नेमिनाथ से श्री वर्धमान स्वामी भगवान तक ( तीन भगवान) का स्मरण किया गया है। प्रथम तीन वलय के अन्त में 'जिणं' शब्द का प्रयोग होने के कारण अंतिम ( आखिरी ) तीन भगवान को चौथे आधे वलय में स्मरण किया जाता है। में २४ भगवन्तों का विवरण For Private usonal u २रा वलय ३रा वलय चंदप्पहं धम्मं सुविहिंच पुष्पदंतं संतिं सीयल कुंथुं सीज्जंस अरं वासुपूज्जं मल्लि विमल मणतं साढ़े तीन वलय में दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा तप की आराधना । मुणिसुव्वयं नमि ४था वलय रिट्टनेमिं पासं वद्धमाणं ३. चारित्र : ३ रा वलय पूरा होते ही इक्कीसवें भगवान श्री नेमिनाथ आए। (नमि= नम्रता = सम्यक् चरित्र ) ४. तप : ४ था वलय आधा पूरा होते ही चौबीसवें भगवान श्री महावीरस्वामी आए। (महावीर पूर्ण तपस्वी सम्यक् तप ) = www.jain ary.org Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. श्री करेमि भंते सूत्र 'सामायिक दंडक' सूत्र श्रवण (सुनते ) तथा बोलते समय की विनम्र मुद्रा । आदान नाम : श्री करेमि भंते सूत्र | विषय : गौण नाम : पच्चक्खाण सूत्र सावद्य प्रवृत्ति के गुरु-अक्षर : ७ लघु-अक्षर : ६९ त्याग स्वरूप सर्व अक्षर : ७६ प्रायः शाश्वत सूत्र है। मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ करेमि भंते ! सामाइअंकरे-मि-भन्-ते ! सामा-इ-अम्हे भगवन् ! मैं सामायिक करता हूँ। सावज्जं जोगं पच्चक्खामि, सावज्-जम्-जोगम् पच्-चक्-खामि; सावध (पापवाली) योग (प्रवृत्त) का मैं जाव नियमं पज्जुवासामि, जाव निय-मम् पज-जु-वासा-मि, जब तक मैं नियम का सेवन करता हूँ। दुविहं तिविहेणं, दुवि-हम् तिवि-हे-णम्, दो प्रकार से और तीन प्रकार से, मणेणं, वायाए, काएणं, मणे-णम् वाया-ए, काए-णम्, मन से, वचन से और काया (शरीर) से न करेमि न कारवेमि, न करे-मि न कार-वेमि, न करूं और न कराऊँ। तस्स भंते ! पडिक्कमामि तस-स भन-ते ! पडिक-कमा-मि उनका (उन पाप प्रवृत्तियों का) हे भगवन् ! मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। निंदामि गरिहामि, निन्-दामि-गरि-हामि, मैं निंदा करता हूँ , मैं गर्दा करता हूँ। अप्पाणं वोसिरामि। अप्-पा-णम् वोसि-रामि। (इस प्रकार ) अपनी आत्मा को पाप क्रिया से छुडाता हुँ। अशुद्ध गाथार्थ : हे भगवन् ! मैं सामायिक करता हूँ। जब तक मैं नियम का पालन करता हूँ। सावजं सावज्जं (तब तक) सावध योग का दो प्रकार से - न करू और न कराऊँ और तीन प्रकार से - मन, वचन नियम नियम और काया से पच्चक्खाण करता हूँ, हे भगवन् । उनका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। मैं गर्दा करता हूँ और तिविएणं तिविहेणं (इस प्रकार ) मैं अपनी आत्मा को पाप क्रियासे छुडाता हूँ। पक्किममि पडिक्कमामि इस सूत्र का गूढ़ रहस्य 'भंते !' बोलते समय प्रश्न पूछते हों, ऐसा वे 'जाव नियम' के बदले 'जावज्जीवाए' तथा 'दुविहं तिविहेण' के भाव आना चाहिए। बदले 'तिविहं तिविहेण' तथा 'न करेमि न कारवेमि' के साथ 'करंतंपि सामायिक में 'जाव नियमं', पौषध में 'जाव अन्नं न समन्नुजाणामि' बोलते हैं। पोषहं' तथा वाचना-व्याख्यान श्रवण करते. आरंभ-समारंभ का त्याग सामायिक लेनेवाले गृहस्थ करने के कारण समय 'जाव सुयं'(=जब तक व्याख्यान- 'साधु जैसे' भी कहलाते हैं। वाचना चलती रहे, तब तक) बोला जाता है।. श्री तीर्थंकर परमात्मा दीक्षा ग्रहण करें तब यह सूत्र 'भंते' के अतिरिक्त पू. साधु-साध्वीजी भगवन्त दीक्षा ग्रहण करते साधु योग्य पच्चक्खाण करने के कारण अतिमहिमावान् कहलाता है। समय जीवनभर का सामायिक लेने के कारण इसके कारण प्रायः शाश्वत भी कहलाता है। छह आवश्यक का गर्भित अर्थ 'करेमि भंते में (१) 'मैं सामायिक करता हूँ।' (=करेमि सामाइअं शब्द के द्वारा (४) 'मैं पापों की क्षमा मांगता हूँ।(= समता भाव की प्राप्ति)= सामायिक-आवश्यक। पडिक्कमामि) = प्रतिक्रमण - आवश्यक । (२) 'हे भगवंत' = (भंते) शब्द के द्वारा चौबीस भगवन्तों की (५) 'हे प्रभु ! मैं इस सामायिक में पापयुक्त स्तुति = चउवीसत्थो-आवश्यक। कार्य नहीं करने की प्रतिज्ञा करता हूँ।'(= (३) 'हे भगवंत ! मैं आपको नमस्कार कर पाप नहीं करने की सावज्जं जोगं पच्चक्खामि) = प्रतिज्ञा करता हूँ।'(तस्स भंते !)= वंदन-आवश्यक। पच्चक्खाण - आवश्यक। Jinaugation ७१ lervore Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक पारते समय की मुद्रा । मूल सूत्र सामाइय-वय-जुत्तो, जाव मणे होइ नियम संजुत्तो । ७२ Jain Ed समणो इव सावओ हवइ जम्हा । एएण कारणेणं, बहुसो सामाइअं कुज्जा ॥२॥ अशुद्ध छिनइ जातिया ११. श्री सामाइय-वयजुत्तो सूत्र : श्री सामाइय वयजुत्तो सूत्र : सामायिक पारने का सूत्र : २ : ८ : ८ गुरु-अक्षर : ७ : ६७ लघु-अक्षर सर्व अक्षर : ७४ छंद का नाम : गाहा; राग : मचकुंद चंपमालाइ ... ( स्नात्र पूजा) उच्चारण में सहायक सामा- इय वय-जुत्-तो, जाव मणे होइ नियम-सञ् (सन् ) - जुत्-तो । उक्कए एएण कारणेण सामायिक व्रत (पच्चच्खाण ) से युक्त है । जब तक ( सामायिक व्रत धारी का) मन नियम (व्रत) से युक्त होता है, अशुभ कर्मों को नाश करता है सामायिक जितनी बार करता है । १. छिन्नड़ असुहं कम्मं, सामाइय जत्तिया वारा ॥ १ ॥ छिन्- नइ असु-हम् कम्-मम्, सामा-इअजत् तिया-वारा ॥१॥ गाथार्थ : जब तक (सामायिक व्रत धारी का) मन सामायिक व्रत के नियम से युक्त होता है और जितनी बार सामायिक करता है, (तब तक और उतनी बार वह) सामाइअम्मि उकए, अशुभ कर्मों का नाश करता है । १. सामा-इ-अम्-मिउ कए, सम-णो इव साव- ओ हवइ जम्-हा। ए-ए-ण कारणे- णम्, इस कारण सामायिक बहु- सो सामा-इ- अम् कुज्-जा ॥२॥ अनेक बार करना चाहिये । २. गाथार्थ : सामायिक व्रत लेने पर, श्रावक जिस कारण श्रमण के समान होता है इस कारण सामायिक अनेक बार करना चाहिये । २. सामायिक विधिए लीधुं, विधिए पार्यु, विधि करता जे कोई अविधि हुई होय ते सवि हु मनवचन काया एकरी मिच्छा मि दुक्कडं ॥ दस मनना, दस वचनना, बार कायाना, आ बत्तीस दोषों मांथी जे कोई दोष लाग्यो होय ते सवि हुं मन-वचन-कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं ॥ सामायिक में त्याग करनेवाले ३२ दोष भाषण करे (५) कलह करे । (६) आओ जाओ कहे (७) गाली बोले (८) बालक को खिलाए ( ९ ) विकथा करे तथा (१०) उपहास करे । काया के बारह दोष : (१) आसन चपल हो (२) चारों दिशाओं में देखे (३) सावद्य काम करे (४) आलस्य करे (५) अविनय पूर्वक बैठे (६) पीठ टिकाकर बैठे (७) मैल उतारे (८) अंगों को खुजलाए ( ९ ) पैरों पर पैर चढाए (१०) अंग संपूर्ण खुले रखे ( ११ ) अंग संपूर्ण ढँककर रखे (१२) नीद ले । (ये सभी मिलकर बत्तीस दोष सामायिक में अयतना से लगते हैं, अतः इनका त्याग करना चाहिए ।) शुद्ध छिन्नइ जत्तिया उकए एएण कारणेणं हु वचनना वचन मन के दस दोष : (१) वैरी को देखकर द्वेष करे (२) अविवेक चिंतन करे ( ३ ) अर्थ का चिंतन न करे (४) मन में उद्वेग धारण करे (५) यश की इच्छा करे ( ६ ) विनय न करे (७) भय का चिंतन करे (८) व्यापार का चिंतन करे (९) फल का संदेह रखे तथा (१०) उपहास करे । वचन के दस दोष : (१) कुवचन बोले (२) हुंकार करे ( ३ ) पाप का आदेश दे (४) मिथ्या उच्चारण शुद्धि से सम्बन्धित सूचनाएँ १. ‘करेमि भंते !' सूत्र में ‘नियमं ' आता है तथा इस सूत्र में 'नियम' आता है, इसका ध्यान रखना चाहिए। २. 'हुं' का अर्थ 'स्वयं' नहीं, बल्कि 'सचमुच' होता है । अतः इसका उपयोग रखना चाहिए। आदान नाम गौण नाम गाथा पद संपदा विषय : बारंबार सामायिक करने से होनेवाले लाभ तथा उसमें लगे हुए दोषों की क्षमा याचना । पद क्रमानुसारी अर्थ सामायिक व्रत लेने पर श्रावक जिस कारण श्रमण के समान होता है सूत्र रचना से सम्बन्धित कुछ तथ्य पहली दो गाथाएँ प्राकृत में हैं तथा अन्तिम दो गाथाएँ गुजराती में हैं। वर्धमानसूरिकृत 'आचार - दिनकर', श्री महिमासागरजी कृत 'षडावश्यक विवरण' आदि जिन पाठों के अन्तिम वाक्यों का गुजरातीकरण किया गया है। वह १९वीं सदी से इस सूत्र के बाद बोलने की परम्परा शुरू हुई हो, ऐसा प्रतीत होता है। y.org Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक पारने (पूर्ण करने ) की मुद्रा प्रतिक्रमण प्रारम्भ करते समय पच्चक्खाण पारते समय क्रिया के अंत में 'मिच्छामि दक्कडं मांगते समय चरवला/आसन पर दाहिने हाथ की मुट्ठी बनाकर तथा बाएँ हाथ में मुहपत्ति को मुख के सामने रखकर करने योग्य क्रिया का स्पष्ट चित्र सामायिक में काया के १२ दोष बार-बार किसी कारण बिना उठकर खड़े होना अथवा आसन उठाना। चारों ओर देखते रहना। पैरों के ऊपर पैर चढाकर बैठना। चरवले की डंडी से शरीर खुजलाना । हथेली में मस्तक रखकर सो जाना। सारे शरीर को वस्त्र से ढंक देना। दोनों पैरों को दोनों हाथों से बांधकर आलस्य-प्रमाद करना । शरीर के मैल को हाथ से घिसकर निकालने का प्रयत्न करना। बालकों के साथ खेलना या झगड़ा करना ७३ Education brary.org Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक के उपकरण (१) पुरुषों के लिए धोती, चादर : बिना सिले हुए अखंड, सफेद, २४ अंगुल डंडी+८ अंगुल दशी अथवा २० अंगुल स्वच्छ तथा सुती होना चाहिए । चादर दोनों ओर से किनारीवाली डंडी+१२ अंगुल दशी) होनी चाहिए तथा स्त्रियों के लिए तीन वस्त्र : मर्यादा का भली- (५) सापड़ा तथा पुस्तक : लकड़ी का सापड़ा तथा भांति पालन हो तथा मस्तक ढंका हुआ हो, ऐसे हल्के रंग के, स्वाध्याय में उपयोगी पुस्तक रखना चाहिए। अखंड व स्वच्छ सूची वस्त्र होना चाहिए। (६) मोरपंख : पुस्तक के पन्ने पलटते समय उसे प्रमार्जन (२) कटासना : डेढ़ हाथ लम्बा व चौड़ा, गर्म, स्वच्छ, बिना सिले करने के लिए मोरपंख रखना चाहिए। हुए तथा जयणा का पालन ठीक तरह से हो सके इस हेतु सफेद (७) नवकारवाली : पू. गुरुभगवंत के द्वारा अभिमंत्रित कटासना का ही उपयोग करना चाहिए। सूती स्वच्छ नवकारवाली लकड़ी की डब्बी में रखनी (३) मुहपत्ति :१६ अंगुल लम्बी तथा १६ अंगुल चौड़ी अर्थात् चाहिए। समचौरस, सूती, स्वच्छ, एक ओर बंध किनारीवाली, बिना सिली (८) स्थापनाचार्यजी : अक्ष अथवा स्थापनाचार्यजी न हों हुई तथा अक्षर रहित होनी चाहिए। तो कोई भी पुस्तक आदि नाभि के ऊपर और नाक से नीचे (४) चरवला : पुरुषों के लिए गोल डंडी तथा स्त्रियों के लिए आए, इस प्रकार सापड़ा आदि में स्थापित करना चाहिए। चौकोर डंडी होनी चाहिए । दशी गर्म ऊन की ऊपर से बनी हुई तथा (९) कंबल : गर्म ऊनी शाल लघुशंका (पेशाब) आदि नीचे से बिना बुनी हुई होनी चाहिए । डंडी चन्दन, शीशम आदि में उपयोग के लिए साथ में रखनी चाहिए। बड़े प्रतिक्रमण लकड़ी की होनी चाहिए । (डंडी+दशी का नाप ३२ अंगुल अथवा ' में विशेष रूप से रखनी चाहिए। कर्मबंध में सहायक सामायिक आदि के अधिकरण शास्त्रों में वर्णित कर्मनिर्जरा में सहायक उपकरण घुघरी के साथ रखे, बत्तीस अंगुल से अधिक या कम रखे, दसी गर्म ऊ अधिक या कम अथवा अनुपयुक्त स्थान पर प्रयोग करने से वह की न रखे अथवा पूरा बुने बिना रखे तो वह अधिकरण बनता है 'अधिकरण बनते हैं। साथ ही कर्मबंध में सहायक भी बनते हैं। (चरवला में चाबी, नवकारवाली आदि लटकाकर नहीं रखनी चाहि (१)(a) पुरुषों के लिए धोती : चादर की जगह पायजामा, तथा उसे स्वच्छ रखना चाहिए।) चरवले की डंडी से शरीर खुजलान अण्डरवियर, पतलून आदि सिले हुए वस्त्र पहनना ।पोलीएस्टर, दशी से मच्छर-मक्खी आदि भगाना, कन्धे पररखकर अन्य क्रिया करन टेरीलीन, सिन्थेटीक, रेशमी तथा प्रमाण से अधिक अथवा वह भी अधिकरण कहलाता है। कम माप का, गंदा, शौच आदि किए हुए, अशुद्ध तथा पुराने (४) मुंहपत्ति : सूती के अतिरिक्त पोलीएस्टर अथवा रेशमी र वस्त्र, पूजा के वस्त्र पहनना तथा धोती पहनने पर और गांठ अक्षरवाली रखे, मुड़ी हुई तथा एक छोर बंद न हो, १६ अंगुल से अधि बांधने पर अधिकरण कहलाता है। (लुंगी के समान धोती कभी या कम, गंदी तथा फटी हुई -छिद्रयुक्त रखे, उल्टी रखे, तो अधिका नहीं पहननी चाहिए।) बनती है। (b) स्त्रियों के लिए वेष-भूषा : मर्यादा का पालन न हो, ऐसे (५) पुस्तक-सापड़ा : पुस्तक को कटासने पर या पैर पर अथवा न तथा तीन से अधिक वस्त्र रखे। साथ ही सूती के अतिरिक्त जो जमीन पर रखे,सापड़ा प्लास्टिक आदि निम्न कोटि का रखे तथा टूर वस्त्र पहनकरमल-मूत्र त्याग किया हो, ऐसे अशुद्धवस्त्र रखे तो फूटा रखे और दैनिक-समाचार-मैगेज़िन, विशेषांक आदि वाचन करे वह अधिकरण कहलाता है। अधिकरण बनता है। (पुस्तक का कटासना-चरवला, मुहपत्ति (नोट:-सामायिक-पौषध करते समय पुरुष साधु भगवंत की और नाभि से नीचे के अंगों का स्पर्श नहीं करना चाहिए।) भांति तथा स्त्रिया साध्वीजी भगवंत के समान मानी जाती है। (६) कांबली : रेशम अथवा केशमीलॉन की हो, रंगीन हो, प्रमाण अतः पुरुष किसी भी प्रकार के अलंकार, जैसे अगूठी, चेन, अधिक या कम लंबी-चौड़ी हो (शास्त्रीय प्रमाण : मस्तक से लेकरदे घड़ी, ब्रेसलेट आदि न पहनें तथा स्त्रिया सौभाग्य चिह्न के हाथ तथा आधा शरीरढंका हुआ होना चाहिए।)कांबली उपयुक्त काल अतिरिक्त कुछ भी न पहने । विद्युत् घड़ी (इलेक्ट्रीकल वॉच) ओढ़ने के बाद तुरन्त मोड़कर रख दे, अस्वच्छ रखे, गंदी, मैली-कुचै आदि कोई भी साधन न तो पहनना चाहिए, न रखना चाहिए, न फटी-पुरानी तथा छिद्रयुक्त होने से वह अधिकरण बनती है। उसका स्पर्श भी करना चाहिए।) । (७) मातरिया : पुराने पूजा के वस्त्र,सूती के अतिरिक्त अन्य कोई वस्त्र, (३)चरवला : पुरुष चौरस डंडी तथा स्त्रिया गोल डंडी न रखे, हुए,जुड़े हुए, सिले हुए तथा छिद्रवाले रखे,लुंगी या तौलिए के समाना डंडी प्लास्टिक, एल्युमिनियम, स्टील, चांदी अथवा सोने की अथवा मैला-कुचैला रखेतोवहअधिकरण बनता है। सामायिक लेने की विधि •शुद्ध-स्वच्छ-अखंड तथा सूती वस्त्र पहनना चाहिए .चरवले से हल्के हाथ से जमीन की प्रमार्जना करके कटासना बिछाएँ। (धोती पहनते समय गांठ नहीं बांधनी चाहिए।) .नाभि से ऊपर-नासिका से नीचे रहे इस प्रकार स्थापनाचार्यजी की स्थापना ७४ rates www.jptiograry.org Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • स्वाध्याय में उपयोगी पुस्तक सुयोग्य सापड़े पर रखें। (६) कहें 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक संदिसाई ? नवकारवाली डब्बी में रखें। गुरुभगवंत कहें 'संदिसावेह' तब 'इच्छं' कहें। • समय का उपयोग रखने के लिए रेतीवाली घड़ी अथवा (७) एक खमासमणा देकर खड़े होकर कहें 'इच्छाकारेण संदिसह चाबीवाली घड़ी निश्चित दूरी पर रखें। भगवन् ! सामायिक ठाउं?' गुरुभगवंत कहें 'ठावेह' तब 'इच्छं' कहें। • खिड़की-दरवाजे को साधना के दौरान बार-बार (८) उसके बाद दोनों हाथ जोड़कर एकबार श्री नवकारमंत्र बोलकर कहें खोलना-बंद करना न पड़े, ऐसी परिस्थिति में रखें। 'इच्छकारी भगवन् पसाय करी सामायिक दंडक उच्चरावोजी !' (१) पैरों के पंजे के बल पर बैठकर दाहिने हाथ की गुरुभगवंत 'करेमि भंते' का उच्चारण कराएँ अथवा पहले सामायिक हथेली को उलटी सर्पाकार में पुस्तक + सापडा स्वरूप लिए हुए 'श्रावक-श्राविका को' तथा श्राविका 'श्राविका को' उच्चारण स्थापनाचार्यजी के सामने रखकर तथा बाएं हाथ की कराए अथवा वह भी न हो तो सामायिक लेनेवाले साधक स्वयं 'मुख के हथेली में बंद किनारी वाला भाग बाहर दिखे इस प्रकार आगे मुहपत्ति रखकर करेमि भंते सूत्र बोलें। मुहपत्ति मुह से तीन अंगुल आगे रखकर 'श्री नमस्कार (९) उसके बाद खमासमणा देने के बाद खड़े होकर कहे 'इच्छाकारेण महामंत्र तथा श्री पंचिंदिय सूत्र' बोलकर स्थापना करें। संदिसह भगवन् ! बेसणे संदिसाहं?' गुरुभगवंत कहें -'संदिसावेह' तब • स्थापनाचार्यजी की स्थापना करने के बाद वह अंश मात्र 'इच्छं' कहकर एक खमासमणा देकर खड़े होकर कहे... ___ भी हिलने नहीं चाहिए तथा अनिवार्य संयोगों के अतिरिक्त (१०) 'इच्छाकरेण संदिसह भगवन् ! बेसणे ठाउं ?' गुरुभगवंत कहें एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं ले जा सकते है। 'ठावेह' तब 'इच्छं' कहकर एक खमासमणा दें। • दो घड़ी के सामायिक में बिना कारण के उठना-बैठना, (११) उसके बाद 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सज्झाय संदिसाहुं ?' हिलना-डुलना, गमनागमन आदि नहीं करना चाहिए किन्तु गुरुभगवंत कहें 'संदिसावेह तब'इच्छं' कहकर एक खमासमणा दे। व्याख्यान-वाचना-गाथा लेने-देने की क्रिया करते समय (१२) उसके बाद 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सज्झाय करूं?' कहें. गुरुवंदन कर सकते हैं, उसके अतिरिक्त नहीं । फिर गुरुभगवंत कहें करेह' तब 'इच्छं' कहें उसके बाद.... (२) 'गुरु स्थापना करने के बाद सत्रह संडासा (प्रमार्जना (१३) पुरुष खड़े होकर अथवा बैठकर स्त्रिया खड़ी-खड़ी दोनों हाथ पूर्वक एक खमासमणा देना चाहिए। जोड़कर तीन बार श्री नवकारमंत्र का स्मरण करें। (३) उसके बाद खड़े होकर इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! नोट : 'करेमि भंते !' सूत्र के उच्चारण के बाद दो घड़ी (४८ मिनिट) ईरियावहियं पडिक्कमामि ?' बोलकर गुरुभगवंत से प्रश्न तक सामायिक करें । एक साथ तीन सामायिक करने की प्रथा प्रचलित है करें । गुरु भगवंत कहें 'पडिक्कमेह' उसके बाद कहें 'इच्छं, । उनमें अन्तिम आदेश 'सज्झाय करूं ?' के बदले 'सज्झाय में हूँ।' इच्छामि...तस्स उत्तरी...अन्नत्थ सूत्र' 'अप्पाणं वोसिरामि दूसरी-तीसरी सामायिक लेते समय (सामायिक पारने की विधि किये बिना) बोलकर १९ दोष रहित 'एक लोगस्स, चंदेसु निम्मलयरा' बोलें । लगातार चौथी सामायिक करने से पूर्व सामायिक पारने के बाद तक का काउस्सग्ग करें। (श्री लोगस्स सूत्र नहीं आता हो ही सामायिक लेने की विधि करें। तो चार बार श्री नवकारमंत्र का काउस्सग्ग करें।) व्याख्यान-वाचना श्रवण करते समय बीच में सामायिक लेने-काउस्सग्ग पूर्ण हो, तब हाथ उठाने से पहले 'नमो पारने की विधि करने से जिनवाणी की आशातना न लगे, इसलिए 'जाव अरिहंताणं' बोलते हुए पारना चाहिए। नियम' के बदले 'जाव सुयं (सुअं)' बोलकर श्रवण करें तथा कम से कम (४) उसके बाद लोगस्स सूत्र पूरा बोलकर दूसरी बार एक दो घड़ी (४८ मिनिट) उसमें बैठे, अधिक समय के लिए कोई समय खमासमणा दें...फिर खड़े होकर... मर्यादा नहीं है । जिनवाणी पूर्ण हो, तब (श्रुत सामायिक) 'जावसुयं' (५) 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक मुँहपत्ति सामायिक पूर्ण हुई समझें । ४८ मिनिट के प्रमाण से सामायिक की पडिलेहं ?' कहें, तब गुरुभगवंत कहें 'पडिलेह'...तब संख्या की गिनती की जा सकती है । परन्तु दूसरी-तीसरी सामायिक पूर्ण 'इच्छं' कहकर ५० (पचास) बोल से मुहपत्ति-शरीर की करने के लिए ४८ मिनिट से कम समय की पूर्ति करने के लिए बैठा नहीं जा पडिलेहणा करें। फिर एक खमासमणा देकर खड़े रहें। सकता है। सामायिक पारने (पूर्ण करने) की विधि • सत्तर संडासा पूर्वक एक खमासमणा दें । फिर खड़े. 'नमो अरिहंताणं' बोलते हुए काउस्सग्ग पारकर हाथ जोड़कर श्री होकर कहें.. लोगस्स सूत्र पूरा बोलें। 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! ईरियावहियं पडिक्कमामि उसके बाद खमासमणा देकर खड़े होकर 'इच्छाकारेण संहिसह ?' तब गुरुभगवंत कहें 'पडिक्कमेह' फिर 'इच्छं' बोलें। भगवन् ! मुहपत्ति पडिलेहं?' गुरुभगवंत कहें 'पडिलेवेह' उसके श्री ईरियावहियं सूत्र - तस्स उत्तरी सूत्र-अन्नत्थ सूत्र बाद 'इच्छं' बोलें, फिर मन में क्रमशः ५० बोल बोलकर क्रमशः बोलें। मुहपत्ति एवं शरीर की पडिलेहणा करें। 'एक लोगस्स चंदेसु निम्मलयरा तक' न आए तो चार उसके बाद एक खमासमणा देकर खड़े होकर कहें 'इच्छाकारण बार श्री नवकारमंत्र का काउस्सग्ग करें। संहिसह भगवन् ! सामायिक पारूं ?' तब गुरुभगवंत कहें Parervatio L ISonly www.jane regleforg Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पुणरवि कायव्वं'( अर्थ : दूसरी बार सामायिक करने योग्य है।) इस प्रकार) मुहपत्ति मुंह से दो-तीन अंगुल दूर रखकर तब कहें यथाशक्ति' ('अर्थ : शक्ति होगी तो अवश्य करूगा।') 'श्री नवकार मंत्र तथा श्री सामाइय वय-जुत्तो सूत्र' उसके बाद एक खमासमणा देकर खड़े होकर कहें 'इच्छाकारेण बोलें (श्राद्धविधिग्रन्थ के अनुसार खड़े-खड़े दोनों हाथ संदिसह भगवन् ! सामायिक पार्यु?' तब गुरुभगवंत कहें 'आयारो 1 जोड़कर श्री नवकार मंत्र गिनकर उसके बाद पैरों के पंजे न मोत्तव्यो'( अर्थ : सामायिक का आचार छोड़ने योग्य नहीं है।) के सहारे बैठकर पारने का सूत्र बोलने का विधान है। तब कहें तहत्ति !'(अर्थ : आपके वचन प्रमाण हैं।) पुस्तक आदि की स्थापना की गई हो तो उसके बाद पैरों के पंजे के सहारे बैठकर चरवले के ऊपर दाहिने स्थापनाचार्यजी से सीधा हाथ रखकर एक बार श्री हाथ की हथेली की ( अंगूठा अन्दर रहे, इस प्रकार) मुट्ठी बांधकर नवकार मंत्र बोलकर उत्थापन मुद्रा में उत्थापन करें। उसके तथा बाएं हाथ की हथेली में (बंद किनारेवाला भाग बाहर दिखे, बाद योग्य स्थान पर स्थापनाचार्यजी को रख दें। सामायिक व्रत के पाच अतिचार सामायिक में अष्टप्रवचनमाता का पालन १. काया का अयोग्य प्रवर्तन, २. वाणी का अयोग्य १.ईया समिति, २. भाषा समिति, ३. एषणा समिति, ४. आदानउच्चारण, ३. मन का अयोग्य चिंतन ४. अनादर तथा भंडमत्त-निक्खेवणा समिति ५. परिष्ठापनिका समिति, ६. मन गुप्ति, ७ ५.स्मृतिभ्रंश ।(योगशास्त्र प्रकाश-४) वचन गुप्ति, ८. काय गुप्ति ये पाच समिति, तीन गुप्ति, अष्टप्रवचनमाता सामायिक कब व्यर्थ होता है? श्रावक को धर्म के रूप में सामायिक-पौषध लिया हो, परन्तु अच्छी तरहसे सामायिक कर के आर्त्तध्यान के वश में हुआ पालन नहीं किया हो, जो कुछ भी अविधि-आशातना हुई हो, उन सबके श्रावक यदि घरकार्य की चिन्ता करे, तो उसका लिएसचमुच मन-वचन-काया से मिच्छामि दुक्कडं। सामायिक निरर्थक कहलाता है। (यह अष्टप्रवचनमाता सूत्र सामायिक-पौषध में यदि १०० कदम से (पू.हरिभद्रसूरिजी कृत-श्रावकधर्मविधि प्रकरणम्) अधिक दूर बाहर जाना हो, काजा (कचरा) विसर्जित करना हो, जसकाय जीवों की विराधना हुई हो अथवा मल-मूत्र त्याग कर उसे विसर्जित कर सामायिक में आवश्यक मुद्राए वापस लौटते हुए ईरियावहियं करने के बाद बोलना होता है।) १. स्थापना मुद्रा : दाहिने हाथ की हथेली को उलटी सर्पाकार मुद्रा में हृदय के सामने अपनी तरफ रखकर ___३. योग मुद्रा : दाहिने हाथ की तर्जनी (प्रथमा) ऊँगली ऊपर रहे, तथा दोनों हाथों की ऊँगलियाँ एक दूसरे के अन्दर रहे, इस प्रकार रखकर तथा बाएं हाथ की हथेली में मुहपत्ति (बंद किनारीवाला कमल की अधखिली कली के समान आकृति बनाकर दोनों हाथों की भाग बाहर दिखे, इस प्रकार) को मुंह से तीन अंगुल दूर रखने से यह (गुरु) स्थापना मुद्रा बनती है। कुहनी पेट पर स्थापन करने से 'योगमुद्रा' बनता है। (चैत्यवंदन भाष्य) २. उत्थापना मुद्रा : दाहिने हाथ की हथेली को सीधी ४.जिन मुद्रा : खड़ा होते समय दोनों पैरों के पंजों के बीच की दूरी । अपनी ओर करके तथा बाएं हाथ की हथेली में मुंहपत्ति आगे से चार अंगुल तथा पीछे से चार से कम व तीन से अधिक अंगुल रखने से उत्थापन मुद्रा बनती है। रखने से जिनमुद्रा बनती है। '"""............................ .....................---------------- सामायिक मोक्ष का परम अंग हैं। सामायिक का फल (अ) सामायिक शब्द की व्याख्या: निश्चय को जाननेवाले साधुभगवंत सामायिक रूपी सलाके से १. सामायिक : पाप प्रवृत्ति का त्याग, निष्पाप प्रवृत्ति का एकत्र कर्म तथा जीव (आत्मा) को अलग करता है। सामायिक रूपी आचरण, आर्त्त-रौद्रध्यान का परित्याग, सर्वजीवों के प्रति सूर्य से रागादि अंधकार का नाश करने से योगी पुरुष अपनी आत्मा में समता-संयम-शुभ भावना आदि... (विशेषावश्यक भाष्य ) ही परमात्मा का स्वरूप देखते हैं। जो कोई भी भव्यात्मा मोक्ष में गई २ सामायिक : पाप कार्य से मुक्त तथा दुर्ध्यान से रहित है. जाती है तथा जाएगी. वह सभी सामायिक के ही प्रभाव से। आत्मा का दा घड़ा ( ४८ मानट) क लिए समभाव, माक्ष कोई एक व्यक्ति प्रतिदिन एक लाख खांडी (बीस मन का प्रमाण) साधन के प्रति समान सामर्थ्यवाले सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र सुवर्ण (सोने) का दान करे और कोई एक व्यक्ति बत्तीस दोष रहित का लाभ, सर्वजीवों के प्रति मैत्री भाव रूप लाभ, निंदा |त्रिकरण शुद्धि सहित एक सामायिक करे, तो भी दान देनेवाला व्यक्ति अथवा प्रशंसा, मान या अपमान, स्वजन या परिजन में सामायिक करने वाले व्यक्ति के बराबरी का नहीं हो सकता है। एक समानवृत्ति का लाभ, सभी त्रस तथा स्थावर जीवों के ऊपर समान परिणाम का लाभ तथा आत्मस्वभाव में स्थिर होने सामायिक करनेवाला बानवे करोड़ उनसठ लाख पच्चीस हजार नौ सौ में सहायक ऐसे केवली भगवन्तों के द्वारा कथित यह पच्चीस तथा तीन अष्टमांश पल्योपम (९२,२५,९२५३/८ पल्योपम) सामायिक है। प्रमाण देवलोक का आयुष्य बांधता है। सामायिक-पौषध में स्थित 'अप्पा सामाइयं अप्पा सामाइयस्स अट्रो ।' आत्मा जीव का जो काल (समय) व्यतीत होता है, उसे सफल माने, उसके सामायिक है तथा आत्मा ही सामायिक का अर्थ है। अतिरिक्त समय संसार के परिभ्रमण का कारण है। (कलिकालसर्वज्ञ (धर्मसंग्रह ग्रंथ) श्री हेमचन्द्राचार्यजी कृत योगशास्त्र प्रकाश-४) Jain (Gg i nal Fools Pet O nly Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुँहपत्ति तथा शरीर की प्रतिलेखना के ५० बोल का सचित्र सरल ज्ञान यथाजात मुद्रा में बैठकर दोनों हाथ दोनों पैरों के बीच रखकर मुंहपत्ति को बाएँ हाथ में स्थापित करें। मुँहपत्ति के बंद किनारी वाला भाग दाहिने हाथ में पकड़कर मुहपत्ति खोलनी चाहिए। खुली हुई मुंहपत्ति को पकड़कर दृष्टि प्रतिलेखना करें। फिर मुंहपत्ति को बाएँ हाथ से छोड़कर नीचे के भाग को पकड़ें, इस प्रकार तीन बार करते हुए 'सूत्र अर्थ, तत्त्व करी सहहुँ' बोले । मुंहपत्ति को बाएं हाथ से झाड़ते हुए 'सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय परिहरु बोलें तथा दाहिने हाथ से झाड़ते हुए 'काम-राग, स्नेह राग, दृष्टि राग परिहरु' बोलें।' उसके बाद बाएं हाथ में मुंहपत्ति की स्थापना कर मुंहपत्ति के बीच के भाग को पकड़कर मुहपत्ति को मोड़ना चाहिए। । मुंहपत्ति के बन्द किनारेवाला भाग मोड़कर अंदर रहे, उस तरह अन्त से मुहपत्ति के दाहिने हाथ के अंगूठे तथा तर्जनी उंगली से पकड़ना चाहिए। पकड़ी हुई उस मुंहपत्ति को अनामिका ऊगली के सहारे पकड़कर थोड़ा सा बाहर निकालकर चित्र के अनुसार रचित- अनामिका बीच में रहनी चाहिए। इसी तरह अनामिका-मध्यमा तथा मध्यमा-तर्जनी से बीच में मोड़कर चित्र के अनुसार तीन विभाग करें। बाएँ हाथ की उंगलियों के छोर से स्पर्श किए बिना मुहपत्ति को उपर रखकर मन में 'सुदेव' बोले। Jain adicalion literato 1969 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहपत्ति तथा शरीर की प्रतिलेखना के ५० बोल का सचित्र सरल ज्ञान १२ इसी तरह हथेली के बीच में स्पर्श किए बिना मुंहपत्ति रखकर 'सुगुरु' बोलना चाहिए। इसी तरह हथेली के अन्त में स्पर्श किए बिना मुहपत्ति रखकर 'सुधर्म' बोलना चाहिए। हथेली के अन्त से कहनी तक स्पर्श किए बिना मुहपत्ति को ले जाते हुए मन में 'आदरूं' बोले । (चित्र सं.९ से । १२ के अनुसार आगे क्रमानुसार 'ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदरूं' और मन-गुप्ति, वचन-गुप्ति, काय-गुप्ति आदरूं'...बोलें।') हाथ के मध्यभाग से जैसे पखारते हों, हाथ के तीन विभाग की कल्पना कर इस प्रकार मुँहपत्ति को स्पर्श कर कुदेव, कुगुरु, सीधा प्रतिलेखन करते हुए 'हास्य', कुधर्म परिहरु' बोलना चाहिए। (चित्र सं. १३ के बीच में प्रतिलेखन करते हुए 'रति' ___ अनुसार 'ज्ञान विराधना, दर्शन विराधना, तथा उल्टा प्रतिलेखन करते हुए चारित्र विराधना परिहरु' तथा 'मनदंड, वचनदंड, 'अरति-परिहरूं' ऐसा बोलना चाहिए। कायदंड परिहरु क्रमशः बोलें। चित्र सं. १४ के अनुसार मुंहपत्ति बाएँ हाथ में तैयार कर दाहिने हाथ के तीन विभाग की कल्पना कर क्रमशः 'भय, शोक, दर्गछा परिहरूं' ऐसा बोलना चाहिए। १८ आँखों आदि अंगों की प्रतिलेखना के लिए मुहपत्ति के छोर खुले और कड़े रहें, इस प्रकार चित्र के अनुसार तैयार करें। वैसी महपत्ति से दोनों आँखों के । बीच के भाग की प्रतिलेखना करते हुए कृष्ण लेश्या' बोलें। तैयार किए गए खुले तथा कड़े छोर को सीने की ओर फिराना चाहिए तथा उस समय दोनों हथेलियों को खोलकर सीने की तरफ करें। (चित्र सं. १६-१७ के अनुसार मुहपत्ति तैयार करने से उन अंगों की मुहपत्ति से मात्र स्पर्शना ही नहीं बल्कि प्रतिलेखना होगी।) day Jain Educationpatellignals ७८ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुँहपत्ति तथा शरीर की प्रतिलेखना के ५० बोल का सचित्र सरल ज्ञान १९ इसी तरह बाई आँखों की प्रतिलेखना करते हुए 'नील लेश्या' मन में बोलें । २२ मुंह के समान सीने के तीन विभागों में बीच में- दाहिने-बाएँ क्रमशः 'माया शल्य, नियाण शल्य, मिथ्यात्व शल्य परिहरु' बोलें । २५ २० इसी तरह दाई आँखों की प्रतिलेखना करते हुए लेश्या परिहरु' मन में बोलें। 'कपोत २३ बाएँ कन्धे को ऊपर से नीचे प्रतिलेखन करते हुए 'क्रोध' तथा दाहिने कन्धे का प्रतिलेखन करते हुए 'मान परिहरु' मन में बोलें । बाएँ पैर की बांई ओर, बीच में और दांई ओर चरवले की अंतिम दशी (कोर) धुटन से लेकर पैर के पंजे तक प्रतिलेखन करते हुए क्रमशः 'पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय की जयणा करुं 'बोलें । २६ २१ आँखों के समान मुँह के भी तीन विभागों में बीच में दाहिने- बाएँ क्रमशः 'रस गारव, ऋद्धिगारव, साता गारव परिहरु' बोलें । २४ कांख में बाई ओर ऊपर से नीचे प्रतिलेखन करते हुए 'माया' तथा दाहिनी ओर प्रतिलेखन करते हुए 'लोभ परिहरु' बोलें । दाहिने पैर की बांई ओर, बीच में और दांई ओर चरवले की अंतिम दशी (कोर) से घुटन से लेकर पैर के पंजे तक प्रतिलेखन करते हुए क्रमश: 'वाउकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय की जयणा (रक्षा) करूं' बोले । ७९ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहपत्ति पडिलेहण के २५ बोल तथा शरीर पडिलेहण के २५ बोल 'कुल ५० बोल का विवेचन तथा विधि से सम्बन्धित मार्गदर्शन प्रसंग पर किया जाएगा। वह इस प्रकार है : 'हास्य, रति, अरति, परिहरु' तथा 'भय, शोक, जुगुप्सा परिहरु' अर्थात् जो हास्यादि षट्क (छह) (चारित्रमोहनीय) कषाय से उत्पन्न होता है, उसका त्याग करने से मेरा चारित्र संपूर्णतया निर्मल हो जाए । 'कृष्ण लेश्या, नील लेश्या तथा कापोत लेश्या परिहरु' कारण कि इन तीनों लेश्याओं में अशुभ अध्यवसायों की प्रधानता है, और उसका फल आध्यात्मिक पतन है, अतः इनका त्याग करता हूँ । 'रसगारव, ऋद्धिगारव तथा सातागारव परिहरु' कारण कि उसका फल भी साधना में विक्षेप तथा आध्यात्मिक पतन है, अतः उनका त्याग करता हूँ । उसके साथ 'मायाशल्य, नियाणशल्य तथा मिथ्यात्वशल्य परिहरु' कारण कि वह धर्मकरणी के अमूल्य फल का नाश करनेवाला है। इन सबों का उपसंहार करते हुए मैं ऐसी भावना रखता हूँ कि 'क्रोध, मान, माया तथा लोभ परिहरु' जो अनुक्रम से राग तथा द्वेष स्वरूप हैं । सामायिक की साधना को सफल बनानेवाली जो मैत्रीभावना है, उसका मैं यथाशक्ति प्रयोग में लाकर 'पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा त्रसकाय', इन छह कायों के जीवों की हिंसा से बचूँ, यदि इतना करूँ तो मुँहपत्ति रूपी साधुता का जो प्रतीक मैंने हाथ में लिया है, वह सफल होगा। वृद्धसंप्रदाय के अनुसार यह 'बोल' मन में ही बोला जाता है और उसके अर्थ का विचार किया जाता है। उसमें 'उपादेय' तथा 'हेय' वस्तुओं का विवेक अत्यन्त विशेष रूप से किया गया है। उदाहरण के लिए प्रवचन, यह तीर्थ होने के कारण प्रथम उसके अंगरूप 'सूत्र की तथा अर्थ की तत्त्व के द्वारा श्रद्धा की जाती है।' अर्थात् सूत्र व अर्थ दोनों को तत्वरूप - सत्यरूप स्वीकार कर उसमें श्रद्धा रखनी चाहिए और उस श्रद्धा में अंतरायरूप सम्यक्त्व मोहनीय आदि कर्म होने के कारण उनके परिहार की भावना की जाती है। मोहनीय कर्म में भी राग का विशेष रूप से परिहार करना चाहिए। उसमें सर्वप्रथम कामराग को, उसके बाद स्नेहराग को तथा अन्त में दृष्टिराग को छोड़ना चाहिए । कारण कि यह राग छूटे बिना सुदेव, सुगुरु तथा सुधर्म का आदर नहीं किया जा सकता है । यहाँ सुदेव, सुगुरु तथा सुधर्म की महत्ता विचारकर उनके आदर की भावना करनी है। जिससे कुदेव, कुगुरु तथा कुधर्म के परिहार करने का दृढ संकल्प करना है। यदि इतना हो जाए तो ज्ञान, दर्शन व चारित्र का आदर करना है । जिसका दूसरा नाम 'सामायकि' है, उसकी साधना यथार्थ हो सकती है। ऐसी आराधना करने के लिए ज्ञान विराधना, दर्शन विराधना तथा चारित्र विराधना के परिहार करने की आवश्यकता है । संक्षेप में मनगुप्ति, वचनगुप्ति तथा कायगुप्ति का पालन करने योग्य हैं, अतः उपादेय है तथा मनदंड, वचनदंड व कायदंड परिहार करने योग्य है, अतः हेय है। इस प्रकार 'उपादेय' तथा 'हेय' से सम्बन्धी भावना करने के बाद जो वस्तुएँ विशेष रूप से त्याग करने योग्य हैं, तथा जिनके लिए प्रयत्न करने की विशेष आवश्यकता है, उनका विचार शरीर की पडिलेहणा के Jain at मुहपत्ति पडिलेहण करते समय मन में बोलने-विचारने योग्य २५ बोल गुरुवंदन करनेवाले प्रथम सत्रह संडासापूर्वक खमासमणा देकर तथा गुरु की आज्ञा लेकर मुँहपत्ति पडिलेहण उत्कटिक आसन ( दोनों पैरों के पंजे के सहारे) बैठे। नीचे बैठकर दोनों पैरों के बीच दो हाथ रखना चाहिए। उसमें मुँहपत्ति के २५ बोल ( १ ) दृष्टि पडिलेहणा + (६) उर्ध्व पप्फोडा (पुरिम) + (९) अक्खोडा + (९) पक्खोडा = २५ ( १ ) दृष्टि पडिलेहणा : मुँहपत्ति के परतों को उलटकर दृष्टि विस्तार कर मुँहपत्ति के ऊपर सूक्ष्म दृष्टि से भली-भांति निरीक्षण करें। यदि उसमें कोई जीव जंतु दिखलाई पड़े तो उसे सावधानीपूर्वक योग्य स्थान पर रखें। उसके बाद मन में बोलें अथवा (नीचे बड़े अक्षरों में जो छपे हुए हैं, उन्हें मन में बोलें तथा उसके अर्थ का विचार करें। ) १ सूत्र (इस समय मुँहपत्ति के एक तरफ की प्रतिलेखना होती है । अर्थात् उसके एक ओर के परत का निरीक्षण भली-भांति करें ।) (२) उसके बाद मुँहपत्ति को दोनों हाथों से पकड़कर ऊपर का भाग बाएँ हाथ पर ( दाहिने हाथ से ) रखकर उसे दूसरी ओर इस तरह उलट देना चाहिए कि पहले बाएँ हाथ में पकड़ा हुआ कोना दाहिने हाथ में आए तथा दूसरा कोना दृष्टि के समक्ष हो जाए। उसके बाद उस तरफ के परत को भी सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण करें। इस प्रकार मुँहपत्ति के दोनों परतों का सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण करने को निरीक्षण करने की क्रिया को 'दृष्टि पडिलेहण' मानें। उस समय मन में बोलें । 'अर्थ, तत्त्व करी सद्दहुं.' सूत्र तथा अर्थ दोनों को तत्त्वरूप अर्थात् सत्य स्वरूप समझता हूँ तथा उसकी प्रतीति कर, उसके ऊपर श्रद्धा करता हूँ। इस समय मुहपत्ति की दूसरी ओर की प्रतिलेखना होती है । अर्थात् मुहपत्ति की दूसरी परत का भली-भांति निरीक्षण किया जाता है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. उर्ध्व-पप्फोडा (=पुरिम) पडिलेहण विधि (३) दूसरी परत की दृष्टि पडिलेहणा करने के बाद ऊर्ध्व अर्थात् ऊपर की ओर से विस्तृत मुहपत्ति का सबसे पहले बाए हाथ तरफ का भाग तीन बार घुमाएँ, उसे पहला 'तीन उर्ध्व पप्फोडा (पुरिम) कहा जाता है। मन में बोलें। २. सम्यक्त्व मोहनीय ३. मिश्र मोहनीय ४. मिथ्यात्व मोहनीय परिहरु । (४) उसके बाद (दृष्टि पडिलेहणा में जैसा कहा गया है, उसके अनुसार) मुंहपत्ति की दूसरी परत बदलकर उसका सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण कर दाहिनी ओर का भाग तीन बार फिराए, यह दूसरा 'तीन ऊर्ध्वपप्फोडा (पुरिम) कहलाता है, उस समय मन में बोलें.... ५. कामराग ६. स्नेहराग ७. दृष्टिराग परिहरूं। इस प्रकार पहला तीन तथा दूसरा तीन, कुल मिलाकर छह ऊर्ध्वपप्फोडा (पुरिम-प्रस्फोटक) कहलाता है । (५) मुहपत्ति का मध्यभाग बाए हाथ पर रखकर, बीच का परत पकड़कर उसे परत कर । (यहा से मुहपत्ति को समेटना शुरु होता है।) (९) अक्खोडा और (९) पक्खोडा पडिलेहण विधि (९) अक्खोडा के बाद मध्यभाग का छोड़ दाहिने हाथ से इस प्रकार खींच लें कि दो समान परत बन जाए । तथा वह (दो परतोंवाली मुहपत्ति) दृष्टि के समक्ष आ जाए। उसके बाद तुरन्त ही उसके तीन परत कर दाहिने हाथ की चार ऊगुलियों की तीन अन्तराओं में दबा लें और इस प्रकार तीन परत की गई मुहपत्ति को बाएं हाथ की हथेली पर हथेली को स्पर्श न करे, इस प्रकार प्रथम तीन बार किनारे तक ले जाए और इस प्रकार तीन बार बीच-बीच में आगे कहलानेवाले पक्खोडा करते हुए तीन-तीन बार अन्दर लें। इसे ९ अक्खोडा, ९ आखोटक अथवा ९ आस्फोटक कहा जाता है ।(उसमें ग्रहण करने के कारण इसे स्पर्श कराए नहीं। ) (९) पक्खोडा (प्रमार्जना): ऊपर कहे अनुसार पहली बार किनारे की तरफ चढते हुए तीन अक्खोडा कर नीचे उतरते समय हथेली को मुहपत्ति स्पर्श करे, इस प्रकार (मुहपत्ति के द्वारा) तीन बार बाई हथेली पर फिराए, वह पहली ३ प्रमार्जना । उसके बाद (किनारे की ओर चढ़ते हुए ३ अक्खोडा कर) दूसरी बार उतरते हुए ३ प्रमार्जना और उसी प्रकार (बीच में ३ अक्खोडा कर) पुनः तीसरी बार ३ प्रमार्जना करें, यह ९ प्रमार्जना, ९ पक्खोडा अथवा ९ प्रस्फोटक कहलाता है। ऊपर कहे अनुसार ६ प्रस्फोटक इससे अलग माने । कारण कि विशेष रूप से ६ ऊर्ध्व पप्फोडा अथवा ६ पुरिम कहलाता है, परन्तु प्रसिद्धि में ९ पक्खोडा माना जाता है. वह तो इस ९ प्रमार्जना का नाम है। यह ९ अक्खोडा तथा ९ पक्खोडा तिग तिग अंतरिया अर्थात् परस्पर तीन-तीन के अन्तर से होता है। उसके अनुसार प्रथम हथेली पर चढते हुए ३ अक्खोडा करें, उसके बाद हथेली के ऊपर से उतरते हुए पक्खोडा करें, उसके बाद पुनः ३ अक्खोडा, पुनः ३ पक्खोडा, पुनः ३ अक्खोडा, पुनः ३ पक्खोडा, इस अनुक्रम से ९ अक्खोडा तथा ९ पक्खोडा परस्पर अंतरित माना जाता है । अथवा अक्खोडा के अन्तर से पक्खोडा भी माना जाता है। ८.सुदेव ९. सुगुरु १०. सुधर्म आदरूं। (६)सुदेव, सुगुरु, सुधर्म के प्रति हमारे अन्दर श्रद्धा की भावना आए, ऐसी इच्छा है । अतः मुहपत्ति को ऊगलियों के अग्रभाग से अन्दर की ओर लाने की क्रिया की जाती है, उसमें पहले मुंहपत्ति ऊँगली के अग्रभाग पर रखें और उस समय ',सुदेव' बोलें और दूसरी बार हथेली के मध्य स्थान पर 'सुगुरु' बोलें और तीसरी बार महपत्ति को हाथ के किनारे तक लाए समय 'सुधर्म' बोलें, जिससे आगे कुहनी तक पहुचने पर 'आदरूं' शब्द बोलते हुए मुँहपत्ति हाथ को स्पर्श नहीं करनी चाहिए। ___ (७) अब उपर्युक्त विधि से विपरीत मुँहपत्ति को किनारे से ऊँगलियों की नोंक तक घिसते हुए ले जाएँ, उस समय जिस प्रकार झटक कर कुछ निकालते हों, उस प्रकार मुँहपत्ति घिसते हुए ले जाएँ तथा मन में बोलें। ११. कुदेव १२. कुगुरु १३. कुधर्म परिहरूं। (यह एक प्रकार की प्रमार्जना विधि है। अतः उसकी क्रिया भी उसी प्रकार रखी जाती है।) (८) अब मुंहपत्ति के तीनों परतों को ऊगली के अग्रभाग से हथेली के किनारे तक मुहपत्ति थोड़ा ऊपर रखकर अन्दर की ओर लें जाएँ और बोलें। १४. ज्ञान १५. दर्शन १६. चारित्र आदरूं। (ये तीन वस्तुएँ हमारे अन्दर आएं, इसके लिए इसका व्यापक-न्यास किया जाता है। (९) अब ऊपर से उलटी, अर्थात हथेली के किनारे से हाथ की उंगलियों तक मुंहपत्ति घिसते हुए ले जाएँ, और बोलें.. १७. ज्ञान-विराधना १८. दर्शन-विराधना १९. चारित्र-विराधना परिहरु (ये तीन वस्तुएँ बाहर निकालनी है, अतः उसे घिसकर प्रमार्जन किया जाता है।) २०. मनगुप्ति २१. वचनगुप्ति २२. कायगुप्ति आदरूं। (ये तीन वस्तुएँ हमारे अन्दर आए, इसके लिए उसका व्यापक न्यास किया जाता है।) (१०) अब मुँहपत्ति को हथेली के किनारे से हाथ की ऊंगलियों तक घिसते हए ले जाए और बोलें... २३. मनदंड २४. वचनदंड २५. कायदंड परिहरूं। (ये तीन वस्तुएं बाहर निकालनी है, अतः उनका प्रमार्जन किया जाता है।) Pri tem Karoly.org Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर की पडिलेहना करते समय विचारने योग्य २५ बोल (१) अब ऊंगलियों में स्थित मुंहपत्ति से बाएं हाथ के ऊपर ४२. मान परिहरूं दोनों ओर तथा नीचे, इस प्रकार तीन स्थानों पर प्रदक्षिणाकार में (८) उसके बाद इसी प्रकार दोनों हाथों में मुँहपत्ति प्रमार्जन करते हुए मन में बोलना चाहिए... रखकर बाएं हाथ की कांख पर से नीचे की ओर प्रमार्जना २६. हास्य २७. रति २८. अरति परिहरूं। करते हुए मन में बोलना चाहिए। (२) इसी प्रकार बाएं हाथ की उंगलियों में स्थित मुहपत्ति से ४३. माया दाएं हाथ के दोनों ओर तथा नीचे, इस प्रकार तीन स्थानों पर (९)उसके बाद इसी प्रकार दोनों हाथों में महपत्ति प्रदक्षिणाकार में प्रमार्जन करते हुए मन में बोलना चाहिए। रखकर दाएँ हाथ की कांख पर से नीचे की ओर प्रमार्जना २९. भय ३०. शोक ३१. दुर्गच्छा परिहरूं। करते हुए मन में बोलना चाहिए। (३) उसके बाद ऊंगलियों में से महपत्ति को निकालकर, ४४.लोभ परिहरूं दुहरी रखकर दोनों हाथों की उंगलियों के बीच में रखकर, मुंहपत्ति (इस प्रकार पीठ कन्धे की ४ प्रमार्जना हुई । इन चार के नीचे का भाग सीधा रहे, इस प्रकार रखना चाहिए । (देखें चित्र पडिलेहणाओं को दोनों कन्धों पर पीठ की पडिलेहणा सं. १८ व ) महपत्ति से सुयोग्य प्रमार्जना हो, इस प्रकार मस्तक मानने का व्यवहार प्रसिद्ध है। उसके बाद चरवला के मध्यभाग में (बीच में) तथा दाएं-बाए दोनों ओर इस प्रकार (ओघा) से बाएं पैर के मध्यभाग में (बीच में ) तथा तीन स्थानों में प्रमार्जना करते हुए अनुक्रम से मन में बोलना बाएँ-दाएँ भाग इस प्रकार तीनों जगहों पर प्रमार्जना करते चाहिए। हुए अनुक्रम से मन में बोलना चाहिए (पू. साधु-साध्वीजी ३२. कृष्णलेश्या ३३. नीललेश्या भगवंत 'रक्षा करूं' बोलें) ३४. कापोतलेश्या परिहरूं। ४५. पृथ्वीकाय ४६. अप्काय (४) इसी प्रकार मुँहपत्ति से मुख के बीच में तथा दाएं-बाएँ ४७. तेउकाय की जयणा करूं ( रक्षा करूं.) दोनों ओर प्रमार्जना करते हुए अनुक्रम से मन में बोलना चाहिए। उसके बाद चरवला (ओघा) से दाएं पैर के मध्यभाग ३५. रसगारव ३६. ऋद्धिगारव में (बीच में ) तथा भाग इस प्रकार तीन जगहों ३७. सातागारव परिहरु पर प्रमार्जना करते हुए अनुक्रम से मन में बोलना चाहिए। (५) इसी प्रकार मुंहपत्ति से हृदय के बीच में तथा दाएं-बाएँ ४८. वायुकाय ४९. वनस्पतिकाय दोनों ओर प्रमार्जना करते हुए अनुक्रम से मन में बोलना चाहिए। ५०. त्रसकाय की जयणा (रक्षा) करु। ३८. मायाशल्य ३९. नियाणशल्य (मुँहपत्ति + शरीर पडिलेहण विशेष सुयोग्य अनुभवी ४०. मिथ्यात्वशल्य परिहरूं. के पास सीखना चाहिए।) (६) इसी प्रकार दोनों हाथों में मुहपत्ति रखकर बाएं कन्धे पर द्वादशावर्त वन्दन के २५ आवश्यक तथा उपलक्षण से से घुमाकर कन्धे (पीठ के ऊपर के भाग ) का प्रमार्जन करते हुए मुहपत्ति व शरीर की २५-२५ पडिलेहणा मन-वचन-काया मन में बोलना चाहिए। रूप तीन करण से उपयोगवाला होकर तथा न्यूनाधिक अंश ४१. क्रोध रहित संपूर्ण रूप से प्रयत्नपूर्वक जो जीवात्मा आराधना करत (७) इसी प्रकार महपत्ति को दाएं कन्धे पर से घमाकर कन्धे है, वह अधिक से अधिक कर्म निर्जरा को साधता है। तथ (पीठ के ऊपर के भाग ) का प्रमार्जन करते हुए मन में बोलना उपयोग रहित अविधि से हीन-अधिक आराधना करनेवाले चाहिए। मुनिभगवंत भी विराधक कहलाते हैं। स्त्री के शरीर की १५ पडिलेहणा से सम्बन्धी बातें। स्त्रियों का शिर, हृदय तथा कन्धा वस्त्र से हमेशा ढंका होता है। अतः शिर मुहपत्ति तथा शरीर की प्रतिलेखन के तीन, हृदय के तीन तथा कन्धे के ( कांख के भी) चार इस प्रकार कुल १० विधिपूर्वक भली-भांति हो, परन्तु माः प्रतिलेखना नहीं होती है। अतः उन्हें मात्र दो हाथों की, तीन-तीन =छह, इस मुहपत्ति का स्पर्श न हो, इस बात का ध्यान प्रकार कुल १५ प्रतिलेखना होती हैं, उनमें साध्वीजी भगवंत को प्रतिक्रमण रखते हुए उपयोगपूर्वक प्रतिलेखना करने करते समय शिर खुला रखने का व्यवहार होने के कारण शिर की तीन चाहिए। प्रतिलेखना के साथ १८ प्रतिलेखना होती हैं। JalRuction or Private Renal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध आवश्यक क्रिया की सही मुद्राए-२ १. देव वंदन-चैत्यवंदन की क्रिया की सही मुद्रा. २. प्रतिक्रमण-आलोचना के समय की योग मुद्रा आंखें स्थापनाजी-प्रभुजी के चरवले की डंडी दोनों हाथों की उँगलियों समक्ष खुली रखनी चाहिए। मुख से दो अगुल की दूरी पर अपनी दाहिनी ओर मुंहपत्ति रखनी चाहिए। को एक-दूसरे के अन्दर रखनी चाहिए। रखनी चाहिए। 4D दोनों कुहनियों को पेट के ऊपर नाभि की बगल में रखनी चाहिए। पेट के ऊपर दोनों हाथों को कुहनी के साथ रखना चाहिए। चादर का उपयोग करना चाहिए। दोनों पैरों के बीच आगे ४ अंगुल का अंतर रखना चाहिए। दोनों पैरों के बीच पीछे ३ अंगुल से अधिक तथा ४ अंगुल से कम अंतर रखना चाहिए। ४. प्रतिक्रमण आलोचना के समय की जिन मुद्रा दोनों आँखें स्थापनाचार्यजी अथवा नाक की नोंक के सामने रखनी चाहिए। श्वासोश्छवास की क्रिया सहज भाव से करनी चाहिए. ३. देववंदन तथा चैत्यवंदन के समय की जिन मुद्रा। जीह्वा (जीभ ) सहज भाव से अंदर स्थिर होनी चाहिए। दोनों ओष्ट (होठ) सहजता से ऊपर नीचे की एक दूसरे को स्पर्श करें। दंत-श्रेणी एक -दूसरे को स्पर्श बाए हाथ में चरवले की न करें। कोर को पीछे तथा चादर का डंडी को आगे उपयोग करना रखनी चाहिए। चाहिए। बाएँ अथवा दाहिने हाथ की ऊँगलियों की गांठ पर काउस्सग्ग की संख्या नहीं गिननी चाहिए। दोनों हाथों को इस तरह रखना चाहिए की शरीर अथवा कपडे का स्पर्श न हो सके। दाहिने हाथ में मुंहपत्ति को तर्जनी कनिष्ठा ऊँगली के अन्दर रखनी चाहिए। दंडी को नीचे से चार ऊँगलियों से पकड़ना चाहिए तथा उसके ऊपर अंगूठे को सीधा रखना चाहिए। दोनों पैरों के बीच पीछे ३ से अधिक तथा ४से कम (ऊँगली का) अंतर रखना चाहिए। दोनों पैरों के बीच आगे ४ ऊँगली का अंतर रखना चाहिए। D rivatiPersonal USEcolor juniorary.org Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगचिंतामणि जगबन्धव DIS उत्कृष्ट १७० तीर्थंकर Jain Etion erational जगनाह Doo-cod जगगुरु जगसत्यवाह For Private & Par जगरक्खण जगभावविअक्खण Courpis एक्रोड केवलज्ञानी ९००० क्रोड सुनि 00000000 00 अट्ठावयसंठविअरुव चवीस पि जिणवर जयंतु कर्म 100 कम्मविणासा अप्पडिय Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. श्री जग चिंतामणि चैत्यवंदन सूत्र विषय : आदान नाम : श्री जगचिन्तामणि सत्र गौण नाम : चैत्यवंदन सूत्र शाश्वत-अशाश्वत गाथा जिनालय, जिनप्रतिमाएं, गुरु-अक्षर देववंदन, चैत्यवंदन तथा तीर्थ, विचरण करते : ३३ राइअ प्रतिक्रमण के समय लघु-अक्षर : २९८ अरिहंत तथा अरिहंत के यह सूत्र बोलते-सुनते अपवादिक मुद्रा। सर्व अक्षर समय की मुद्रा। : ३३१ गुणों की वंदना। मूल सूत्र उच्चारण मंसहायक पदक्रमानुसारी अर्थ इच्छा-कारेण संदिसह भगवन् ! इच्-छ-कारे-ण सन्-दि-सहभग-वन्! है भगवन् ! स्वेच्छा से आज्ञा प्रदान करो चैत्यवंदन करूं? इच्छं, चैत्-य-वन्-दन करुम् ? इच्-छम्, (मैं) चैत्य-वंदन करूं(मैं)आपकी आज्ञा स्वीकार करता हूं। गाथार्थ : हे भगवन् ! स्वेच्छा से आज्ञा प्रदान करो । (मैं) चैत्यवंदन करूँ ? (मैं) आपकी आज्ञा स्वीकार करता हूँ। छंद का नाम : रोला; राग : "भीमपलाश"'श्री पार्श्वनाथजी दादा वात सुणो एक मोरी रे...' जग चिंतामणि ! जग नाह! जग-चिन्-ता-मणि ! जग-नाह! जगत के जीवों के लिये चिंतामणि रत्न समान! जगत के स्वामी ! जगगुरु! जग रक्खण! जग-गुरु!जग-रक्-खण! जगत के गुरु! जगत के जीवों का रक्षण करने वाले! जगबंधव! जगसत्थवाह! जग-बन-धव!जग-सत्-थ-वाह! जगत के बन्धु ! जगत के सार्थवाह! जग भाव विअक्खण! जग-भाव-वि-अक्-खण! जगत के सर्व भावों को जानने और प्रकाशित करने वाले! अट्ठावय संठविअ-रुव! अट्-ठा-वय-सण-ठ-विअ-रुव! अष्टापद पर्वत पर स्थापित की गई हैं प्रतिमाएं जिनकी ऐसे! कम्मट्ठ-विणासण! कम्-मट्-ठ-विणा-सण! |आठों कर्मों का नाश करने वाले! चउवीसं पिजिणवर! चउ-वीसम्-पिजिण-वर! है चोबीसों जिनेश्वर! जयंतु अप्पडिहय-सासण॥१॥ जयन्-तुअप्-पडि-हय-सा-सण॥१॥ आपकी जयहो,अखंडित शासनवाले।१. गाथार्थ : जगत् के लिये चिंतामणि रत्न समान !, जगत् के स्वामी!, जगत् के बंधु !, जगत् के सार्थवाह!, जगत् के सर्व भावों को जानने और प्रकाशित करने में निपुण !, अष्टापद पर्वत पर स्थापित की गई हैं जिनकी प्रतिमाएं ऐसे ! ,आठों कर्मों को नाश करने वाले!, अखंडित शासन वाले ! हे चौबीसों जिनेश्वर! आपकी जय हो । १. छंद का नाम : वस्तु; राग : अवधिज्ञाने अवधिज्ञाने..... (स्नात्र पूजा) कम्म भूमिहि कम्म भूमिहिं कम्-म-भूमि-हिम् कम्-म-भूमि-हिम् । कर्म भूमियों में (जहाँ आजीविका के लिये प्रजा को कर्म/कार्य करना पड़ता हैं।) पढम-संघयणि, पढ-म-सङ्-(सन्)-घ-यणि, प्रथम संघयण(अस्थियों की उत्कृष्ट रचना) वाले छंद का नाम : वस्तु; राग : मचकुंद चंपमालई.... (स्नात्र पूजा) उक्कोसयसत्तरिसयउक्-को सय सत्-तरि-सय, उत्कृष्ट से एक सौ सित्तर जिणवराण विहरंत लब्भइ, जिण-वरा-ण विह-रन्-त लब्-भइ, जिनेश्वर विचरण करते हुए पाये जाते हैं, नवकोडिहिं केवलिण, नव-कोडि-हिम केव-लिण, नवक्रोड़ केवली कोडिसहस्सनव साहू गम्मइ, कोडि-सहस्-स-नवसाहूगम्-मइ, नव हजार क्रोड(नब्बे अरब) साधु होते हैं, छंद का नाम : वस्तु; राग : कुसुमाभरण उतारीने... (स्नात्र पूजा) संपइ जिणवर वीस। सम्-पइ जिण-वर- वीस वर्तमान काल के बीसमुणि बिहुँ कोडिहिं वरनाण, मुणि बिहुम् कोडि-हिम् वर-नाण, जिनेश्वर मुनि दो क्रोड़ केवल-ज्ञानी / केवली समणह कोडि सहस्स दुअ, सम-णह-कोडि सहस्-स दुअ, दो हजार क्रोड़ (बीस अबज) साधु थुणिज्जइ निच्च विहाणि ॥२॥ थुणिज्-जइ निच-च विहा-णि ॥२॥ स्तवन किया जाता है नित्य प्रातः काल में । २. गाथार्थ : कर्म भूमियों में प्रथम संघयण वाले उत्कृष्ट से एक सौ सत्तर जिनेश्वर नव क्रोड़ केवली और नव हजार क्रोड़ (९० अरब) साधु विचारण करते हुए पाए जाते हैं। वर्तमान काले के बीस जिनेश्वर मुनि, दो क्रोड़ केवलज्ञानी और दो हजार क्रोड़ (२० अरब ) साधुओं का प्रातःकाल में नित्य स्तवन किया जाता है । २. GRO waliorary.org Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयउसामिअ! जयउसामिअ! रिसहसजि श्री ऋषभदेव भगवान 'श्री शत्रुजय तीर्थ 'श्री नेमनाथ भगवान' 'श्री गिरनार तीर्थ' उज्जित पह नेमिजिण जयउ वीर! सच्चउरि-मंडण 'श्री सांचोर तीर्थ मुहरि पास दुह दुरिअ-खंडण श्री महावीर स्वामी श्री मुहरी पार्श्वनाथ भगवान !' . भरुअच्छहिं मुणिसुव्वय अवर विदेहि तित्थयरा श्री मुनिसुव्रत स्वामी FEDED ल % 3 Song नवदीय वदीप चधातकाखडी पक्षिय पुष्कराधी पूर्व 'श्री भरुच तीर्थ' BaingEE CG ntemptional Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिता छंद का नाम : वस्तु; राग : मचकुंद चंपमालई... (स्नात्र पूजा) जयउसामिअ! जयउ सामिअ! जय-उसामि-अ! जय-उसामि-अ! हे स्वामी ! आपकी जय हो रिसह ! सत्तुंजि, रिस-ह ! सत्-तुन्-जि! शत्रुजय तीर्थ में विराजित श्री ऋषभदेव भगवान ! उज्जिति पहु नेमि जिण ! उज्-जिन्-ति-पहु-नेमि-जिण ! गिरनार मंडन श्री नेमिनाथ प्रभु ! जयउ वीर! सच्चउरिमंडण! जय-उ वीर! सच्-च-उरिमण-डण ! सत्यपुर (सांचोर) के शृंगार रूप हे श्री महावीर स्वामी ! भरु अच्छहिं मुणि सुव्वय ! भरु-अच्-छहिम् मुणि-सुव्-वय ! भरूच में विराजित हे श्री मुनिसुव्रत स्वामी ! मुहरि पास ! दुह-दुरिअ-खंडण ! मुहरि-पास ! दुह-दुरि-अ-खण्-डण! दुःख और दुरित (पाप) का नाश करने वाले, मथुरा में विराजित हे श्री मुहरि पार्श्वनाथ ! अवरविदेहि तित्थयरा, अव-र-विदे-हिम् तित्-थ-यरा, महाविदेह क्षेत्र के अन्य तीर्थकर, चिहुं दिसि विदिसि जिं के वि, चिहुम्-दिसि वि-दिसि-जिङ्(जिम्)-के वि ! चारों दिशाओं और विदिशाओं में जो कोई भी तीआणा गय संपइअ, तीआ-णा-गय सम्-प-इ-अ, भूत काल में हुए हों, भविष्य काल में होने वाले हों और वर्तमान काल में विहरते हैं, . वंदं जिण सव्वे वि ॥३॥ 'वन्-दुं जिण सव्-वे-वि ॥३॥ सर्व जिनेश्वरों को मैं वंदन करता हूँ। गाथार्थ : हे स्वामी ! आपकी जय हो ! हे स्वामी ! आपकी जय हो ! शत्रुजय तीर्थ पर विराजित हे श्री ऋषभदेव भगवान !, गिरनार पर्वत पर विराजमान हे श्री नेमिनाथ प्रभु !, साचोर के शृंगार रूप हे श्री महावीर स्वामी!, भरूच में विराजित हे श्री मुनिसुव्रत स्वामी ! दुःख और पाप का नाश करने वाले मथुरा में विराजित हे श्री मुहरि पार्श्वनाथ ! आपकी जय हो ! महाविदेह क्षेत्र के तथा चारों दिशाओं और विदिशाओं में जो कोई भी अन्य तीर्थंकर भूतकाल में हुए हों, भविष्यकाल में होने वाले हों और वर्तमानकाल में हुए हों, (उन) सर्व जिनेश्वरों को मैं वंदन करता हूँ। ३. छंद का नाम : गाहा; राग : "जिणजम्म समये मेरु सिहरे" (स्नात्र पूजा) सत्ताणवइ-सहस्सा, । सत्-ताण-वइ-सहसू-सा, । सत्तानवे(९७)हजार लक्खा छप्पन्न अट्ठकोडीओ।। लक्-खाछप-पन्-न अट्-ठ-कोडीओ। छप्पन (५६)लाख, आठ(८)क्रोड़ बत्तीस सय-बासीआई, बत्-तीस-सय-बासी-आ-इम्, बत्तीस सौ बयासी(३२८२) तिअलोएचेइएवंदे ॥४॥ तिअ-लोएचेइ-एवन्-दे॥४॥ । तीनों लोक में स्थित चैत्यों(मंदिरों)को मैं वंदन करता हूँ।४. गाथार्थ : तीनों लोक में स्थित आठ क्रोड़ सत्तानवे लाख दो सौ बयासी (८,५७,००,२८२) जिन चैत्यों को मैं वंदन करता हूँ। ४. पनरस-कोडि-सयाई, पन-रस-कोडि-सया-इम्, पंद्रहसौ(१५००)क्रोड़(पंद्रह अरब) कोडिबायाल लक्ख अडवन्ना। कोडिबाया-ललक्-ख अड-वन्-ना। बयालीस(४२)क्रोड़ अट्ठावन (५८)लाख छत्तीस-सहस्स असीइं, छत्-तीस-सहस्-स-असी-इम्, छत्तीस,हजारअस्सी(३६०८०) सासय बिंबाई पणमामि ॥५॥ सास-य-बिम्-बा-इम् पण-मामि ॥५॥ शाश्वत प्रतिमाओं को मैं वंदन करता हूँ।५. | उपयोग के अभाव से होनेवाले गाथार्थ : तीनों लोक में स्थित पंद्रह अरब बयालीस क्रोड़ अट्ठावन लाख छत्तीस हजार अशुद्ध उच्चारों के सामने शुद्ध उच्चार अस्सी (१५,४२,५८,३६,०८०)शाश्वत जिन प्रतिमाओं को मैं वंदन करता हूँ। ५ अशुद्ध श्री गौतमस्वामी गणधर अष्टापदजी महातीर्थ की यात्रा करने पधारे, तब प्रभुजी के समक्ष अपडिहय अप्पडिहय इस सूत्र की पहली दो गाथाओं की रचना की। इसके अतिरिक्त की तीन गाथाएं बाद में जोड़ी मुणि बिहु मुणि बिह गई हैं । इस चैत्यवंदन सूत्र के अतिरिक्त अन्य गणधर रचित्र सूत्र पंचम गणधर श्री सुधर्मा बासियाई बासियाई आसिई स्वामीजी के द्वारा रचित माने जाते हैं। असिइं उज्जित उज्जिति श्री अष्टापद महातीर्थ की रचना से सम्बन्धित कुछ बातें कम्मभूमिहि कम्मभूमिहि एक-एक योजन की आठ सीढियों के द्वारा जिस तीर्थ का नाम अष्टापदजी पड़ा है, वह सयाई सयाई भरतक्षेत्र में है, परन्तु वर्तमान में यह तीर्थ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता है। वहा श्री ऋषभदेव भगवान ने दस हजार साधुओं के साथ निर्वाण प्राप्त किया था। उस हेतु तत्पर श्री सगरचक्रवर्ती के ६० हजार पुत्रों ने पर्वत निर्वाणस्थल के नजदीक उनके पुत्र श्री भरतचक्रवर्ती ने वार्धकीरत्न को के चारों ओर गहरी खाई खोदी, नागकुमार देव के क्रोध आदेश देकर सिंह-निषद्या( = सिंह आगे के पैरों को उठाए हुए बैठा हो से भस्म होकर देवलोक में गए। वैसी आकृति) प्रसाद चतुर्मुखी (चौमुखी) बनाया गया है । उसमें । श्री गौतमस्वामी गणधर अष्टापदजी के दक्षिण चौबीस प्रभुजी की ऊँचाई-वर्ण के अनुसार सबकी नासिका एक समान 1 दिशा की ओर से पधारे । इसीलिए चत्तारि-अट्ठ-दसश्रेणी में आए, उसके अनुसार रत्नमयी प्रतिमाएँ दक्षिण दिशा में तीसरे, । दोय (=४,८,१०,२) पाठ प्रचलित है। श्री मुनिसुव्रत चोथे, पाचवें, छठे भगवान, पश्चिम दिशा में सातवें से चौदहवें भगवान, स्वामी भगवान के समय में अयोध्यानगरी के बाहर उत्तरदिशा में पन्द्रहवें से चौबीसवें भगवान तथा पूर्वदिशा में पहले व विशाल वृक्ष की चोटी पर से अष्टापदजी तीर्थ की दूसरे भगवान की बनाई गई है। साथ ही ९९भाई, ब्राह्मी-सुंदरी बहनें । ध्वजा लहराती हुई दिखाई देती थी। सती दमयंती जब तथा मरुदेवी माता की सिद्धावस्था की मूर्तियां स्थापित की गई हैं। पूर्वभव में 'वीरमति' थी, तब उसने इस तीर्थ की यात्रा तीर्थरक्षा के आशय से दंडरत्न से आस-पास के पर्वतो के शिखरों को करते हुए चोबीस परमात्मा को रत्न के तिलक चढाए तोडकर तथा उस स्फटिकाचल पर्वत को काटकर एक-एक योजन थे, इसी के प्रभाव से सती के भव में गाढ अंधकार में प्रमाण सीढ़िया बनाकर यन्त्र मानव स्थापित किया गया है। विशेष रक्षा भी ललाट से तेजपुंज निकल रहा था। M Pra Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. श्री जं किंचि सूत्र पद आदान नाम : श्री जकिंचि सूत्र | विषय: गौण नाम : तीर्थ वंदना स्वर्ग, पाताल तथा मनुष्यलोक में स्थित संपदा देववंदन, चैत्यवंदन तथा गुरु-अक्षर :३ समस्त तीर्थ व उनमें प्रतिक्रमण के समय यह लघु-अक्षर :२९ विराजमान प्रतिमाओं सूत्र बोलते-सुनते अपवादिक मुद्रा। सर्व अक्षर : ३२ को वंदना। समय की मुद्रा। छंद का नाम : गाहा, राग : "जिण जम्म समये मेरु सिहरे" (स्नात्र पूजा) मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ जं किंचि नाम तित्थं, जङ्-(जम्)-किम् (किन्)-चि नाम-तित्-थम्, जो कोई भी नामरूपी तीर्थ हो सग्गे पायालि माणुसे लोए।। सग्-गे पाया-लि माणु-से लोए। स्वर्ग, पाताल और मनुष्य लोक में जाई जिण बिंबाई, जाइम् जिण-बिम्-बाइम्, जो भी जिन प्रतिमाएँ ताई सव्वाई वंदामि ॥१॥ ताइम्-सव-वाइम् वन्-दामि ॥१॥ उन सब को मैं वंदन करता हूँ। १. गाथार्थ : स्वर्ग, पाताल और मनुष्य लोक में जो कोई भी नाम रूपी तीर्थ हो, जो भी जिन प्रतिमाएँ हो, उन सब को मैं वंदन करता हूँ।१. उपयोग के अभाव से होते ४५ लाख योजन प्रमाण अढाई द्वीप - मनुष्य लोक का नकशा अशुद्ध उच्चारो के सामने शुद्ध उच्चार १. जंबुद्वीप = १ लाख योजन धातकी खंड = ८ लाख अशुद्ध शुद्ध २ लवण समुद्र योजन माणसे लोओ माणुसे लोओ ४ लाख योजन (दोनो ओर २-२) जाई जिणबिंबाई जाइंजिणबिंबाई (दोनों ओर २-२)KA ताई सव्वाईताई सव्वाई तीन लोक में स्थित जिनबिंबों का विवरण पाताले यानि बिंबानि, यानि बिंबानि भूतले । स्वर्गेऽपि यानि बिंबानि, तानि वंदे निरन्तरम् ॥ ___उर्ध्वलोक में १,५२,९४,४४,७६०, अधोलोक में १३,८९,६०,००,००० तथा तीर्छालोक में जंबूद्वीप में ६३५ चैत्यों में, धातकीखंड में १२७२ चैत्यों में पुष्करावर्त्त द्वीप में १२७६ चैत्यों में, नंदीश्वरद्वीप में ६८ चैत्यों में, रूचकद्वीप में ४ चैत्यों में तथा कुंडल द्वीप में ४ चैत्यों में (कुल ३२५९ चैत्यों में)३,९१,३२० प्रतिमाएं हैं । ये सब मिलाकर १५,४२,५८,३६,०८० जिनप्रतिमाएं तथा इसके अतिरिक्त अशाश्वत चैत्यों में विराजमान जिनप्रतिमाओं अर्ध को नजर के समक्ष लाकर भक्तिभावना उत्साह के कालोदधि पुष्कर द्वीप साथ उत्कृष्ट बहुमान भाव उत्पन्न कर कृतज्ञता भाव को समुद्र = १६ लाख १६ लाख योजन योजन ( दोनों ओर ८-८) प्रगट करने के साथ ही अनंतानंत पाप कर्म का नाश ( दोनों ओर ८-८) करने के लिए बारम्बार वंदना करनी चाहिए। M HD SO STAREEFटा ITHOUdith કુલાધિ (સમુ SHIPnish Man chan । Gledon) International For Private & Personal use only i Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नमस्कार महामंत्र के रहस्य 'प्रणाम' के अद्भुत लाभ समस्त विश्व में (परम =) सर्वश्रेष्ठ स्थान में बिराजमान, जब अरस-परस साधर्मिक (समान धर्म के पालक) बंधओं अतः इच्छित ऐसे पंच परमेष्ठि को किया गया नमस्कार, सर्व मिले, तब 'जय जिनेन्द्र' बोलने की जगह दो हाथ जोडकर पापो का नाश करता है। 'प्रणाम' बोलना चाहिए। श्री अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व सर्वसाधु भगवंत कोई भी उमरवाले अर्थात् छोटे या बडे हो, तो भी 'प्रणाम' स्वरुप परम पावन पंच परमेष्ठि को नमस्कार करने से सर्व । बोलना चाहिए। प्रकार के पापकर्म का नाश होता है और उसके अन्तिम फल 'प्रणाम' बोलने से उस व्यक्ति को ही नमन होता है, ऐसा अति स्वरुप मोक्ष की प्राप्ति होती है। संक्षिप्त अर्थ न करके, उस व्यक्ति में जैनधर्म की प्राप्ति के माध्यम श्री नमस्कार महामंत्र में पूजनीय परमेष्ठि के नामोच्चार से से खिले हुए आत्मिक गुणों (जैसे कि, समता, धीरता, उदारता, पहले 'नमो'शब्द का उल्लेख (निर्देश) पहले किया गया है। सरलता आदि...) को भी 'प्रणाम' होता है। ऐसा अर्थ करें। 'नमो' शब्द विनय, नम्रता, निहंकार द्योतक है। यह गुण •गुणवान साधर्मिक को सच्चे हृदय से 'प्रणाम करने से अपने में आने के बाद ही भावपूर्वक किया हुआ नमस्कार सर्व पापों वह गुण प्रगट होता है। का नाश करता है। •जिसको 'प्रणाम' किया हो, उसके साथ कलह-क्रोध आदि • इसलिए जैन धर्म में विनयगुण को अतिमहत्त्व का स्थान अपने आप बन्ध हो जाता है। दिया गया है। । 'प्रणाम' से अहंकार का त्याग होता है और नम्रता का स्वीकार • श्री नमस्कार महामंत्र के जप से नव निधियाँ और आठ होता है। सिद्धिया भी प्राप्त होती है। 'प्रणाम' करने से विनय'नाम केअभ्यंतर तपकी आराधना होती है। • यह महामंत्र स्वयं ही सिद्ध होने से उसे सिद्ध मंत्र भी कहते हैं। 'प्रणाम' करने से दूसरों के दोष देखने का त्याग और गुणों के यह महामंत्र आत्म स्वरुप की प्राप्ति हेतु क्रमशः साधु- प्रति अनुराग पेदा होता है। उपाध्याय-आचार्य व सिद्ध पद देने में समर्थ बनता है और 'प्रणाम' करने से संसारवर्धक मिथ्यात्व का त्याग और विशिष्ट पुण्यशाली भव्यात्मा को अरिहंत पद भी देता है। संसारमोचक सम्यकत्व का लाभ होता है। • यह महामंत्र में आकार संपन्न व्यक्ति की नहीं, मगर निराकार.'प्रणाम करने से एक-दूसरे के प्रति बंधी हुई कटुता-शत्रुता का गुणों की स्तवना है। त्याग होता है। • यह महामंत्र चौदह पूर्व का सार और पंचमंगल महाश्रुत 'प्रणाम' करने से एक-दुसरे के प्रति मित्रता-सहकारिता व स्कन्ध के नाम से विख्यात है। सौहार्दता बढ़ती है। • यह महामंत्र अनादि-अनंत स्वरुप शाश्वत व त्रिकाल, 'प्रणाम' करने से अक्कड़ता व जड़ता का त्याग अपनेआप हो त्रिलोक स्थायी मंत्र है। जाता है। • इस महामंत्र के नव लाख जाप से नरक गमन का निवारण प्रणाम' से अभिमान का त्याग होते ही पशुयोनि स्वरुप दुर्गति और विघ्न प्रणाशन होता है। के द्वार बन्ध हो जाते हैं। इस महामंत्र के नौ करोड जाप से प्रायः ८ या ९ भव में 'प्रणाम से लोगों में प्रियपात्र बनने के साथ प्रशंसापात्र भी बनते हैं। मुक्तिपुरी में वास प्राप्त होता है। 'प्रणाम' से अहंकारी भी नम्र बन जाता है और आत्महितवचन इस महामंत्र १००८ विद्याओं व देवों से अधिष्ठित कहा गया ग्राह्य बनते हैं। 'प्रणाम' शब्द प्रेम, करुणा, मुदृता, कोमलता व गुणानुरागका • इस महामंत्र के ६८ अक्षर का भावपूर्वक स्मरण ६८ वाचक हैं। तीर्थयात्रा का फल देता है। .'प्रणाम'शब्द के उच्चार से अंतर में पडे हए क्लिष्ट कर्म भी नाश इस महामंत्र के एक अक्षर से सात, एक पद से ५० और पूर्ण होते हैं। मंत्र से ५०० सागरोपम के नरकगति के अति दुःखदायी.'प्रणाम' शब्द विनय गुण द्योतक है, सभी प्रकार की ऋद्धि, पापो का नाश होता है। सिद्धियों की प्राप्ति विनय से होती है। इस महामंत्र में रहे हुए शिर्फ 'न' अक्षर का उच्चार करने में 'प्रणाम' शब्द आठों कर्मो को नाश करने में अमोघ शस्त्र समान है। वही सफल बनता है, जो सभी कर्मों की स्थिति एक कोटा 'प्रणाम' शब्द आधि- व्याधि - उपाधि को शान्त करके परम कोटी सागरोपम से न्युन बना देता है, अर्थात् जो ग्रन्थि प्रदेश समाधि देता है। पर आती है, वह आत्मा समर्थ बनती है। 'प्रणाम' बोलते समय मुख-शुद्ध होना चाहिए और जुत्ते आदि द्रव्य नमस्कार : दो हाथ जोडकर मस्तक को झुकाकर शरीर का त्याग करना और दो हाथ जोडकर मस्तक को विनम्रता से को संकुचित करना। जुकाना जरुरी है। भाव नमस्कार : संसार वर्धक वर्तन-व्यवहार-उच्चार-विचार •भाव अरिहंत प्रभु समवसरण में सिंहासन पर बैठने से पहले से अपने आप को मोडना और जिनाज्ञा अनुसार जीवन अवश्यमेव 'नमो तित्थस्स' बोलकर कृतज्ञता अभिव्यक्त करते हैं। बनाना। भाव नमस्कार भक्त को भगवान बनाता है। जैन धर्म सिवाय के अनुयायी (अजैन) को 'जय जिनेन्द्र' रोज कम से कम महामंत्र की एक पूर्ण माला अवश्य गिननी उपरोक्त सर्व प्रकार की शुद्धि के साथ बहुमानभाव पूर्वक चाहिए। प्रभुजी को लक्ष्य में रखकर बोलना चाहिए। 1.6g९ है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमुन्शुणं भगवंता 25 रिहा साय संबुद्धाण विश्वपल्याण पुरिसुतसारो रिसीहाणा । पुरिस पुरिस-वस्पाघहत्यीणं पुण्डरीआणं 'चित्र से सम्बन्धित सामान्य ज्ञान' (१) नमुऽत्थुण' शब्द प्रत्येक विशेषण के साथ जोड़ें तथा 'नमस्कार हो' ऐसा भाव समझें । 'अरिहंताणं' आठ प्रातिहार्यों के वैभव से युक्त बारह पर्षदा शोभित अरिहंत प्रभु के चरणों में नमन । (२) भगवंताणं' आठ प्रातिहार्यों के साथ केवलज्ञानी अरिहंत भगवंत को विहारकरते हए देखकर उनके चरणों में नमन ।(३) आइगराणं गणधरभगवंतों को त्रिपदी देते हुए श्रुतप्रवचन का प्रारंभ करते हुए देखकर नमन करना । तित्थयराणं गणधर भगवंतो को वासचूर्ण का क्षेप करके तीर्थ की स्थापना करनेवाले भगवन्त को देखकर नमन।(४) सयंसंबुद्धाणं गुरु के बिना स्वयं प्रतिबोध प्राप्त प्रभुजी सर्वविरति का उच्चारण करते हैं, यह देखकर उन्हें नमन । (५) पुरिसुत्तमाणं'= खान में पड़े हुए जात्यरत्न के समान अनादि निगोद से आज तक प्रभुजी को उत्तम देखने हेतु (चरणों में नमन) । (६) 'पुरिस-सीहाणं' = प्रभुजी उपसर्ग-परिसह को सहन करने में सिंह के समान पराक्रमी देखकरनमन करना।(७) पुरिस-वर-पुंडरियाणं'कर्म रूपी कीचड में उगे हुए, भोगरूपी जल से पले हुए, फिर भी दोनों से ऊंचे कमल के समान निर्लिप्त रहनेवाले प्रभुजी को देखकर उनके चरणों में नमन करना । (८) 'पुरिस वर गंधहत्थीणं' जिस प्रकार गंधहस्ती के आते ही क्षुद्र हाथी भाग जाते हैं, उसी प्रकारपरमात्मा जहाँ विहारकरें, वहाँ १२५ योजन तक महामारी-हैजा मूषक-रोग-दुर्भाग्य आदि भाग जाते हैं। यह देखकरनमन।(९) लोगुत्तमाणं भव्य जीवों में उत्तम प्रभुजी को देखकर उन्हें नमन । (१०) 'लोगनाहाणं'चरमावर्त्त में स्थित भव्य जीवों को आत्मगुणों का संयोग करानेवाले तथा प्राप्त गुणों का रक्षण करनेवाले ऐसे योग-क्षेम करनेवाले प्रभुजी सच्चे अर्थों में नाथ हैं, यह देखकरनमन ।(११) लोग-हिआणं' भव्यजीव रूपी लोक का अनवरत आत्महित करनेवाले प्रभूजी को देखकर नमन । (१२) 'लोग-पर्डवाणं'=भव्यजीव रूप लोगों के हृदय में दीप प्रज्वलित करनेवाले प्रभुजी के देखकर नमन । (१३) लोग-पज्जोअगराणं' = प्रभुर्ज गणधर भगवंत रूपी लोक में विशेष ज्ञान प्रदान करनेवाले वे रूप में देखकर नमन । (१४) 'अभयदयाणं'= समस जीवराशि को ७ भयों से मुक्त करनेवाले प्रभुजी को देखक नमन । (१५)'चक्खुदयाणं' = धर्म के प्रति आकर्षी करानेवाली दृष्टि देनेवाले प्रभुजी को देखकर नमन । (१६ 'मग्गदयाणं' धर्म का मार्ग दिखलाने वाले तथा अनुकू सरल चित्त धारण करनेवाले प्रभुजी को देखकर नमन (१७) सरण दयाणं' सरल चित्त में तत्त्वजिज्ञासा पै करनेवाले तथा रक्षण करनेवाले प्रभुजी को देखकर नमन (१८) बोहिदयाणं'तत्त्व का सच्चा ज्ञान दिलानेवा प्रभुजी को देखकरनमन।(१९) धम्मदयाणं'चारित्र को प्रदान करनेवाले प्रभुजी को देखकर नमन । (२. 'धम्मदेसयाणं'=धर्म देशना के द्वारा भवसंताप को हरनेव प्रभुजी को देखकर नमन । (२१) 'धम्मनायगाणं' प्रभुजी नट के समान धर्मनेता नहीं होते, बल्कि स परिसह-उपसर्गों के बीच तप-संयम-ध्यान स्वरुप धर्म उत्कृष्ट आराधना करके धर्मनेता बनते हैं । (२ 'धम्मसारहीणं' विषय कषाय में अनासक्त भव्य जीवों मोक्ष की ओर प्रयाण करानेवाले प्रभुजी को देखकर ना (२३)'धम्मवर-चाउरंत-चक्कवड़ीणं'= धर्म में प्रधान चारगति का अन्त करनेवाले अतः श्रेष्ठ चक्रवर्ती स प्रभुजी को देखकर नमन। o rating पदवाण शामसवाणी लोगृत्तमाणं बम्मनायगाणं CITA लोपहियाण धम्ममारहाण लोग-पज्जोगरार्ण व SHAधी लोगाईलाण एपरिपाइरन चक्कवीण ROEducation inta For Private & Personal use only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. श्री नमुऽत्थु णं सूत्र देववंदन, चैत्यवंदन तथा प्रतिक्रमण करते समय यह सूत्र बोलते-सुनते समय की मुद्रा। आदान नाम : श्री नमुत्थुणं सूत्र गौण नाम : शक्रस्तव सूत्र गाथा ९+१ : १० पद संपदा गुरु-अक्षर : ३३ लघु-अक्षर :२६४ सर्व अक्षर :२९७ | विषयः श्री तीर्थंकर परमात्मा की उनके गुणों के द्वारा स्तवना। अपवादिक मद्रा। १.स्तोतव्य संपदा मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ नमुऽत्थुणं अरिहंताणं नमुत्-थु-णम्,अरि-हन्-ता-णम्, नमस्कार हो अरिहंत भगवंताणं ॥१॥ भग-वन्-ता-णम् ॥१॥ भगवंतों को। १. गाथार्थ : अरिहंत भगवंतों को नमस्कार हो।१ २. ओघहेतु संपदा आइगराणं तित्थयराणं, आइ-गरा-णम्, तित्-थ-यरा-णम्, । (श्रुत की) आदि करने वाले, तीर्थंकर, सयं-संबुद्धाणं ॥२॥ सयन्-सम्-बुद्-धा-णम् ॥२॥ स्वयं बोध प्राप्त किये हुए । २. गाथार्थ : श्रुत की आदि करने वाले, तीर्थंकर, स्वयं बोधप्राप्त किये हुए । २. ३.विशेष हेतु संपदा पुरिसुत्तमाणं पुरिस-सीहाणं, पुरि-सुत्-त-मा-णम्, पुरि-स-सीहा-णम्, पुरुषों में उत्तम, पुरुषों में सिंहसमान निर्भय, पुरिस-वरपुंडरीआणं, पुरि-स-वर-पुण्-डरी-आणम्, पुरुषों में पुंडरीक कमल समान श्रेष्ठ, पुरिस-वरगंध-हत्थीणं ॥३॥ पुरि-स-वर-गन्-ध-हत्-थी-णम्॥३॥ पुरुषों में गंधहस्ती (हाथी)समान श्रेष्ठ,३. गाथार्थ :पुरुषों में उत्तम, पुरुषों में सिंहसमान, पुरुषों में पुंडरीक कमल समान श्रेष्ठ, पुरुषों में गंधहस्ती के समान श्रेष्ठ।३. ४. सामान्योपयोग संपदा लोगुत्तमाणंलोग-नाहाणं लोगुत्-त-मा-णम्,लोग-नाहा-णम्, लोक में उत्तम,लोककेनाथ, लोग-हियाणंलोग-पईवाणं लोग-हिया-णम्,लोग-पई-वा-णम्, लोकका हित करनेवाले,लोक में दीपक समान, लोग-पज्जोअगराणं॥४॥ लोग-पज्-जो-अ-गरा-णम्॥४॥ लोक में प्रकाश करने वाले, ४. गाथार्थ : लोक में उत्तम,लोक के नाथ,लोकका हित करनेवाले,लोक में दीपक समान,लोक में प्रकाश करने वाले।४. ५. तद्-हेतु संपदा अभय-दयाणंचक्खु-दयाणं, अभ-य-दया-णम् ,चक्-खु-दया-णम् अभय प्रदान करने वाले,(सम्यक्त्व रूपी) नेत्र प्रदान करने वाले, मग्ग-दयाणं सरण-दयाणं, मग-ग-दया-णम्, सर-ण-दया-णम्, (मोक्ष)मार्ग-दर्शक,शरण देनेवाले, बोहि-दयाणं ॥५॥ बोहि-दया-णम् ॥५॥ बोधि-बीज देनेवाले,५.. गाथार्थ:अभय प्रदान करने वाले, नेत्र प्रदान करने वाले,मार्ग दिखाने वाले,शरण देने वाले,बोधि-बीज देने वाले।५. ६.विशेषोपयोग संपदा धम्मद-याणं, धम्म-देसयाणं, धम्-म-दया-णम्, धम्-म-देस-याणम्, धर्म प्रदान करने वाले, धर्मोपदेश देने वाले धम्म-नायगाणं, धम्म-सारहीणं, धम्-म-नाय-गा-णम्, धम्-म-सार-हीणम्, धर्म के स्वामी, धर्म के सारथी / प्रवर्तक, धम्म-वर-चाउरंतधम्-म-वर-चाउ-रन्-त चतुर्गति नाशक श्रेष्ठ धर्म (मोक्षमार्ग) रूपी चक्कवट्टीणं ॥६॥ चक्-क-वट-टीणम् ॥६॥ चक्र धारण करने वाले चक्रवर्ती । ६. गाथार्थ : धर्म प्रदान करने वाले, धर्मोपदेश देने वाले, धर्म के स्वामी, धर्म के सारथी, चतुर्गति नाशक श्रेष्ठ धर्म रूपी चक्र को धारण करने वाले चक्रवर्ती । ६. २१ Jamedicationintmetuna FOR Private Personaruwaonly Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 808 सर्वा-सर्वदी, ब-अबल-अरुज-अनंत-अक्षय-अव्यांबाध पुनरावृत्ति सिविपति-नाम-स्थान-संप्राप्त साण मोमगाण. (मामा -मको भरनेमाले) अपडिहय-वर-नाणदंसण-घराणं STIA राजता और अंदन और माउ अत्तिवाले तोक आवरण दूर करनेवाले वियदृछउमाण 'अप्पडिहय-वरनाण-दसण धराणं' = शुक्लध्यान से प्रगट हुए केवलज्ञान तथा केवलदर्शन से युक्त प्रभुजी को तीनों काल तथा समस्त विश्व को देखते हुए देखकर नमन करना । वियट्ट-छउमाणं = प्रभुजी के ध्यानरुपी अग्नि से Raiplomagraney DOORamannaal छनास्थ अवस्था में कारणभूत चार घाति (ज्ञानावरणीय, DISCOOKIP दर्शनावरणीय, मोहनीय तथा अंतराय) कर्म को जलाते हुए डाण बोहयाथ ऐसे प्रभुजी को देखकर नमन करना । जिणाणं-जावयाणं ooooo = १०वे गुणस्थानक के अन्त में राग-द्वेष विजेता वीतराग को देखना और ऐसे वे अन्यों को भी बनाने में समर्थ देखकर नमन । 'तिन्नाणं-तारणाणं' = १२वे गुणस्थानक के अन्त में शेष रहे घातिकर्म अज्ञान-निद्रा-अन्तराय के महासागर को तीर जाते प्रभुजी को गोदोहिका आसन में देखना और ऐसे ही अन्यों को भी तारने में समर्थ देखकर नमन । 'बुद्धाणं-बोहयाणं' = १३वे गुणस्थानक में बुद्ध सर्वज्ञ बनकर समवसरण पर विराजित देखना और ऐसे वे अन्यो को भी बुद्ध बनाने में समर्थ देखर नमन । 'मुत्ताणंमोअगाणं' = १४ वे गुणस्थानक के अन्त में सर्वकर्ममल से मुक्त सिद्धशिला पर ज्योति स्वरुप रहे हुए देखना और ऐसे वे अन्यों को भी मुक्त करने में समर्थ देखकर नमन । सव्वन्नूणं सव्व दरिसीणं = सर्वज्ञ तथा सर्वदेशी अरिहंत भगवंतों को देखकर नमन । 'सिव-मयल-मरुअ-मणंतमक्खय-मवाबाह-मपुनरावित्ति = कल्याण स्वरूप, निश्चल, निरोगी, अंतरहित, अक्षयस्थितिरूप किसी भी प्रकार की बाधा से रहित (अव्याबाध) तथा पुनरागमन रहित ऐसी...' सिद्धि गड नामघेय ठाणं संपत्ताणं'सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त.. 'नमो जिणाणं जिअ भयाणं'-राग-द्वेष को जीतने वाले तथा सर्वभयों को संपड़ अ वट्टमा जीतनेवाले श्री अरिहंत भगवंतों को भावपूर्वक नमस्कार हो । 'जे अ अईया सिद्धा, जे अ भविस्संति णागए काले, संपइ अ वट्टमाणा, सव्वे तिविहेण वंदामि॥ साधना करनेवाला साधक दाहिनी ओर अष्टकर्म रखते हुए भूतकाल में हुए अनंत अरिहंत भगवंतों की कल्पना करनी, बाई ओर भविष्य में अष्टकर्मों से मुक्त अनन्त अरिहंतों की कल्पना सले तिविहेण बंकानि करनी तथा सन्मुख वर्तमान पाँच महाविदेह क्षेत्र में विहार करनेवाले श्री सीमंधर स्वामि आदि बीस विहरमान अरिहंत भगवंतों की कल्पना कर तीनों काल के अरिहंत भगवंतों को मन-वचन-काया से भावपूर्वक नमन करना। ७. स्वरुप संपदा अप्पडिहय-वरनाण 1 अप्-पडि-हय-वर-नाण- नष्ट न होने वाले, श्रेष्ठ ज्ञान और दंसणधराणं वियट्ट-छउमाणं ॥७॥ दन्-सण-धरा-णम्- दर्शन को धारण करने वाले छद्मस्थता से रहित ॥७॥ वियट-ट-छउ-माणम् ॥७॥ गाथार्थ : नष्ट न होने वाले श्रेष्ठ ज्ञान और दर्शन को धारण करने वाले, छद्मस्थता से रहित ७ ८.जिनसमफल संपदा जिणाणं जावयाणं जिणा-णम् जाव-याणम्, । (इंद्रिय आदि को) जीतने वाले और जिताने वाले, तिन्नाणं तारयाणं तिन्-नाणम् तार-याणम्, (संसार समुद्र से) तरे हुए और तारने वाले, बुद्धाणं बोहयाणं बुद्-धा-णम् बोह-याणम्, बोध प्राप्त किये हुए और बोध प्राप्त कराने वाले, मुत्ताणं मोअगाणं ॥८॥ मुत्-ता-णम्-मोअ-गा-णम् ॥८॥ मुक्त और मुक्ति प्राप्त कराने वाले ८. गाथार्थ : जीतने वाले और जिताने वाले, तरे हुए और तारने वाले, बोध पाये हुए और बोध प्राप्त कराने वाले, मुक्त (मुक्ति को पाये हुए) और मुक्ति प्राप्त कराने वाले ८. जे अ अविस्संति मागए काले जे अअइया सिद्धा Freeapoeकककन Jain Brason Interational wwwn o Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९.मोक्ष संपदा सव्वन्नूणं सव्वदरिसीणं सव-वन्-नू-णम्, सव्-व-दरि-सी-णम्, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी सिव-मयल-मरुअ-मणंत- सिव-मय-ल-मरु-अ-मणन्-त- शिव (उपद्रव रहित), अचल (स्थिर), अचल (रोग रहित), अनंत (अंत रहित), मकखय-मव्वाबाहमक्-खय-मव-वा-बाह अक्षय (क्षय रहित), अव्याबाध (कर्म जन्य पीड़ा रहित), मपुणरावित्तिमपु-ण-रावित्-ति अव्याबाध (कर्म जन्य पीड़ा रहित), पुनरागमन रहित सिद्धि गइनामधेयं सिद्-धि-गइ-नाम-धेयम् (पुनरागमन रहित/जहाँ जाने के बाद पुनः संसार में आना नहीं पडता /पुनर्जन्म मृत्यु रहित) सिद्धिगति नामक ठाणं संपत्ताणं ठाणम् सम्-पत्-ताणम् स्थान को प्राप्त किये हुए, नमो जिणाणं जिअ-भयाणं ॥९॥ नमो जिणा-णम् जिअ-भया-णम् ॥९॥ जिनेश्वरों को नमस्कार हो। भय को जीतने वाले ९. गाथार्थ : सर्वज्ञ और सर्वदर्शी, शिव, अचल, अरुज, अनंत, अक्षय, अव्याबाध, पुनरागमन रहित, सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त किये हुए और भय को जीतने वाले जिनेश्वरों को नमस्कार हो । ९. छंद का नाम : गाहा; राग : जिण जम्म समये मेरु सिहरे... (स्नात्र-पूजा) जे अ अईआ सिद्धा, जे अ अई-आ सिद्-धा, और जो भूत काल में सिद्ध हुए हैं, जे अ भविस्संति णागए काले। जे अ-भविस्-सन्-ति-णा-गए काले। और जो भविष्य काल में (सिद्ध) होंगे संपइ अ वट्टमाणा, सम्-पइ अवट-ट-माणा, और वर्तमान काल में विद्यमान हैं, सव्वे तिविहेण वंदामि ॥१०॥ सव-वे तिवि-हेण वन-दामि ॥१०॥ (उन) सब (अरिहंतों) को मैं तीनों प्रकार (मन, वचन और काया) से वंदन करता हूँ।१०. गाथार्थ : जो भूत काल में सिद्ध हुए हैं, भविष्य काल में अशुद्ध उच्चारो उसके सामने शुद्ध उच्चार (सिद्ध) होंगे और वर्तमान काल में विद्यमान हैं (उन) सर्व अशुद्ध (अरिहंतों ) को मैं तीनों प्रकार से वंदन करता हूँ। १०. नमुथुणं नमुत्थुणं नमुत्थुणं सूत्र के ३३ पदों में ९ संपदाओं के नामों के आयगराणं आइगराणं धम्मदेसीयाणं धम्मदेसयाणं कारण व अर्थ का विवरण लोगपज्जोगराणं लोगपज्जोअगराणं (१) स्तोतव्य संपदा : स्तुति-स्तवना करने योग्य एक अरिहंत चखुदयाणं,मग्दयाणं चक्खुदयाणं,मग्गदयाणं परमात्मा ही है, जिससे दो पदोंवाली पहली संपदा 'नमुत्थुणं से धम्दयाणं धम्मदयाणं भगवंताणं' तक। अपडिहयवरनाणं अप्पडिहयवरनाण (२) ओघ हेतु संपदा : अरिहंत परमात्मा को ही नमस्कार करने का जिण्णाणंजावयाणं जिणाणं जावयाणं ओघ (सामान्य) हेतु को दर्शानेवाली तीन पदोंवाली तिन्नाणंतारियाणं तिन्नाणंतारयाणं 'आईगराणं से सयं-संबुद्धाणं' तक। बुद्धाणंबोहियाणं बुद्धाणं बोहयाणं (३) विशेषहेतु संपदा : अरिहंत परमात्मा को ही नमस्कार करने के सवनूणं सव्वन्नृणं विशेष हेतु (कारण) को दर्शानेवाली चार पदोंवाली मपुणराविति मपुणरावित्ति 'पुरिसुत्तमाणं से पुरिसवरगन्धहत्थीणं' तक। जे अईआ सिद्धा जे अअईआ सिद्धा सामान्य-उपयोग संपदा : अरिहंत परमात्मा सामान्य रूप से भविसंति अणागओकाले भविस्संतिणागओकाले सर्वलोक के परार्थ व परमार्थ करने से उपकारी होने के कारण तिवेहण तिविहेण उसे दर्शाने के लिए पांच पदोंवाली 'लोगुत्तमाणं से लोगपज्जो-अगराणं' तक। (८) जिनसमफल संपदा : अरिहंत परमात्मा का (५) तद्-हेतु संपदा : सामान्य उपयोग में अर्थात् समस्त लोगों जैसा स्वरूप है, वैसा स्वरूप वे हमें तथा अन्य के परमार्थ करने में कारणभूत पांच पदोंवाली 'अभयदयाणं से जीवों को भी देते हैं, उसे दर्शाने वाली बोहिदयाणं' तक। 'जिणाणं से मोअगाणं' तक। (६) विशेष उपयोग संपदा : जो विशेष उपयोग प्रयोजनरूप अर्थ (९) मोक्ष संपदा : अरिहंत परमात्मा अघातिकर्म का पाँच पदोंवाली'धम्मदयाणं से धम्मवर चाउरंत-चक्कवठीणं' तक। नाश कर सिद्ध-अवस्था को प्राप्त करते हैं। (७) स्वरूप संपदा : अरिहंत परमात्मा के स्वरूपों का वर्णन करते तथा सिद्धावस्था को दर्शानेवाली पदावली हुए दो पदोंवाले 'अप्पडिहय...से विअट्ट-छउमाणं' तक। 'सव्वन्नणं से जिअभयाणं' तक। SED TorrivateSPREAL mmerserg Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बायां पैर थोड़ा ऊँचा रखकर दोनों हाथों को अंजलि के समान रखकर ललाट प्रदेश को स्पर्श कर रखने की मुद्रा । सव्वाइं ताइं वंदे, इह संतो तत्थ संताई ॥ १ ॥ अशुद्ध जावंत चेईयाई सव्वाई ताई ईअ संतो तत्थ संताई सूत्र बोलते समय की यह सन्मुख चित्र की स्पष्ट मुद्रा । अपवादिक सन्मुख मुद्रा । मूल सूत्र जावंत के वि साहू, भरहे-वय-महाविदेहे अ । सव्वेसिं तेसिं पणओ, अशुद्ध जावंति के वि साहू महाविदेहे पणहो तिदंड वीरियाणं छंद का नाम : गाहा; राग : जिण जम्म समये मेरु सिहरे... (स्नान-पूजा) मूल सूत्र जावंति चेइआई, उच्चारण में सहायक जावन्-ति चेइ आइम्, उड्ढे अ अ अ तिरिअ लोए अ । उड् ढे -अ- अहे - अ - तिरि-अ- लोए अ । ९४ शुद्ध जावति चेइयाई सव्वाई ताई इह संतो तत्थ संताई १५. श्री जावंति चेइआई सूत्र : श्री जावंति चेइआई सूत्र विषय : 14 चैत्यवंदन सूत्र आदान नाम गौण नाम गाथा साईड पोझ में मुक्ता शुक्ति मुद्रा । सव्-वाइम् ताइम् वन्-दे, इह सन्-तो तत्-थ सन्-ता-इम् ॥१॥ पद संपदा गुरु-अक्षर लघु-अक्षर सर्व अक्षर शुद्ध जावंत के वि साहू महाविदेहे अ पणओ तिदंड विरयाणं आदान नाम गौण नाम गाथा पद संपदा : १ : ४ : ४ गुरु-अक्षर लघु-अक्षर सर्व अक्षर तिविहेण तिदंड - विरयाणं ॥ १ ॥ तिवि-हे-ण ति-दण् ड विर- याणम् ॥१॥ : ३ : ३२ : ३५ गाथार्थ : उर्ध्व लोक, अधो लोक और तिर्यक् लोक में जितने जिन चैत्य हैं, वहाँ रहे हुए उन सब (चैत्यों) को यहाँ रहा हुआ मैं वंदन करता हूँ । १. पद क्रमानुसारी अर्थ जितने जिन चैत्य १६. श्री जावंत के वि साहू सूत्र : श्री जावंत के वि साहू सूत्र विषय : : मुनिवंदन सूत्र : १ : ४ ४ : ३ : ३७ : ४० (३८) For Private & Pers उर्ध्व लोक (स्वर्ग), अधो लोक (पाताल) और तिर्यक् / मध्य (मनुष्य) लोक में उन सब को मैं वंदन करता हूँ यहाँ रहा हुआ वहां रहे हुए । १. छंद का नाम : गाहा; राग : जिण जम्म समये... (स्त्रात्र-पूजा ) उच्चारण में सहायक जा-वन्-त के वि साहू, भर-हे-रव-य महा-विदे-हे-अ । सव्-वे-सिम् तेसिम् पण-ओ, पद क्रमानुसारी अर्थ जितने कोई भी साधु स्वर्ग, पाताल तथा मनुष्यलोक में स्थित जिनचैत्यों की वंदना । भरत - ऐरावत महाविदेह क्षेत्र में स्थित साधु भगवंतों की वंदना | त्रिकरण पूर्वक तीन प्रकार के दंड से निवृत्त । १. गाथार्थ : भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में जितने भी साधु त्रिकरण पूर्वक तीन दंड से निवृत हैं, उन सबको मैं प्रणाम करता हूँ । १. भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में उन सबको मैं प्रणाम करता हूँ । • श्री वीतराग परमात्मा की पहचान करानेवाले, समझाने वाले और सन्मार्ग को दिखानेवाले साधु भगवन्त हैं । उन्ही को यह सूत्र से वंदन किया जाता है । योग्य बहुमान आदर- अहोभाव से वंदना करने से कर्म निर्जरा होती है । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. श्री नमोऽर्हत् सूत्र 'अर्हत्' आदान नाम : श्री नमोऽर्हत् सूत्र विषय: गौण नाम : पंच परमेष्ठि नमस्कार अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, गुरु अक्षर :७ उपाध्याय तथा साधु 'सिद्ध' लघु अक्षर:८ स्वरूप पंचपरमेष्ठि सर्व अक्षर : १५ को नमस्कार। मूल सूत्र उच्चारण अर्थ नमोऽर्हत्- नमोऽर्-ऽहत्- नमस्कार हो अरिहंत सिद्धा- सिद्-धा सिद्ध -चार्यो चार-यो आचार्य पाध्याय- पा-ध्या-य उपाध्याय और 'उपाध्याय' सर्व- सर-व साधुभ्यः ॥ सा-धु-भ्यः ॥ साधुओं को॥ गाथार्थ : अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधुओं को नमस्कार हो। इस सूत्र के सम्बन्ध में विशेष जानकारी यह सूत्र पूर्व में से उद्धृत होने के कारण साध्वीजीभगवंत तथा श्राविकाओं को बोलने का अधिकार नहीं है। उन्हें इस सूत्र की जब आवश्यकता होती है, तब श्री नवकारमन्त्र बोलने की प्रथा प्रचलित है। यह सूत्र विविधरागों में बोला जाता है। परन्तु इसमें गुरु-लघु अक्षर व जोडाक्षर की उच्चारण विधि में बाधा नहीं पहुचे, उसी प्रकार बोलना चाहिए । गुरु आज्ञा के बिना श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरिजी ने यह सूत्र पूर्व में से उद्धृत करके बनाने के कारण उन्हें संघ में से बाहर निकाला गया तथा योग्य प्रायश्चित कर राजा को प्रतिबोध करने के कारण उन्हें पुनः श्रीसंघ में सम्मानपूर्वक स्वीकार किया गया। 'आचार्य' सर्व 'सर्वसाधु १८. श्री उवसग्गहरे सूत्र देववन्दन, आदान नाम : श्री उवसग्गहरं सूत्र | विषय : चैत्यवन्दन तथा गौण नाम : उपसर्गहर स्तोत्र धर्ममार्ग में प्रतिक्रमण करते पद :२० अंतरायभूत विघ्नों समय यह सूत्र संपदा : २० के निवारण की बोलते-सुनते गुरु-अक्षर : २१ प्रार्थना गर्भित समय की मुद्रा। लघु-अक्षर : १६४ पार्श्वनाथ प्रभु की अपवादिक मुद्रा। सर्व अक्षर : १८५ स्तवना। छंद का नाम : गाहा; राग : जिण जम्म समये मेरु सिहरे...(स्नात्र-पूजा) मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ उवसग्गहरं पासं, उवसग्-ग हरम्-पासम्, उपसर्गों को दूर करने वाले, पार्श्व यक्ष सहित पासं वदामि कम्मपासम्-वन्-दामि-कम्-म श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं वंदन करता हूँ। घण-मुक्कं। घण-मुक्-कम्। कर्म समूह से मुक्त, विस-हर-विस-निन्नासं, विस-हर-विस-निन्-ना-सम्, विषधर (सर्प) के विष को नाश करने वाले मंगल-कल्लाण-आवासं ॥१॥ मङ्-गल-कल्-लाण-आ-वा-सम् ॥१॥ मंगल और कल्याण के गृह रूप । १. गाथार्थ : उपद्रवों को दूर करने वाले पार्श्व यक्ष सहित, कर्म समूह से मुक्त, सर्प के विष का नाश करने वाले, मंगल और कल्याण के गृह रूप श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं वंदन करता हूँ। १. Jan Education जिERPersonal use Only www.jainelibrarpog Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसहर फुलिंग मंतं, विस-हर-फु-लिङ्-ग-मन्-तम्, विसहर फुर्लिग मंत्र का (सर्पादि के विष एवं अग्नि आदि का निवारण करने वाला मंत्र) कंठे धारेइ जो सया मणुओ। कण्-ठे धारे-इ जो सया मणु-ओ। जो मनुष्य सदा कंठ में धारण करता है / जो मनुष्य सदा स्मरण करता है। तस्स गह-रोग मारी, तस्-स गह-रोग-मारी, | उसके ग्रह दोष, महारोग, महामारी, दुट्ट-जरा जंति उवसामं ॥२॥ दुट्-ठ जरा जन्-ति उव-सा-मम् ॥२॥ विषम ज्वर शांत हो जाते हैं। २. गाथार्थ : जो मनुष्य विसहर फुलिंग मंत्र का नित्य स्मरण करता है, उसके ग्रह दोष, महारोग, महामारी और विषम ज्वर शांत हो जाते हैं । २. चिट्ठउ दूरे मंतो, चिट्-ठउ दूरे मन्-तो, मंत्र तो दूर रहे, तुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ तुज्-झ पणा-मो वि-बहु-फलो होइ। आपको किया हुआ प्रणाम भी बहुत फल देने वाला है। नर तिरिएसु वि जीवा, नर-तिरि-एस वि-जीवा, मनुष्य और तिर्यंच गति में भी जीव पावंति न दुक्ख-दोगच्चं ॥३॥ पावन्-ति न दुक्-ख-दो-गच्-चम् ॥३॥ दुःख और दरिद्रता को प्राप्त नहीं करते हैं । ३. गाथार्थ : मंत्र तो दूर रहे, आपको किया हुआ प्रणाम भी बहुत फल देने वाला है। मनुष्य और तिर्यंच गति में भी जीव दुःख और दरिद्रता को प्राप्त नहीं करते हैं । ३. तुह सम्मत्ते लद्धे, तुह सम्-मत्-ते लद्-धे, आपके सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर चिंतामणि-कप्पपाय- चिन्-ता-मणि कप-प-पाय- चिंतामणि रत्न और कल्पवृक्ष से भी वब्भहिए। वब-भ-हिए। अधिक (शक्तिशाली) पावंति अविग्घेणं, पावन्-ति-अविग्-घेणम्, जीव सरलता से जीवा अयरामरं ठाणं ॥४॥ जीवा-अय-रा-मरम् ठाणम् ॥४॥ अजरामर स्थान (वृद्धावस्था और मृत्यु से रहित स्थान / मोक्षपद) को प्राप्त करते हैं। ४. ___गाथार्थ : चिंतामणि रत्न और कल्पवृक्ष से भी अधिक शक्तिशाली आपके सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर जीव सरलता से अजरामर (मुक्ति) पद को प्राप्त करते हैं। ४. इअसंथुओ महायस!, इअसन्-थुओ महा-यस!, इस प्रकारआपकी स्तुति की हैहेमहायशस्विन् ! भत्तिब्भर निब्भरेण हियएण। भत्-तिब्-भर निब्-भ-रेण-हिय-एण। भक्ति से भरपूरहृदय से तादेव! दिज्ज बोहिं, तादेव!दिज्-जबो हिम्, इसलिये हेदेव! भवोभव बोधि (सम्यक्त्व)को भवे भवेपास जिणचंद!॥५॥ भवे भवेपास-जिण-चन्-द!॥५॥ प्रदान कीजिए जिनेश्वरों में चन्द्रसमानहे श्री पार्श्वनाथ!५. ___ गाथार्थ : हे महायशस्वी ! मैंने इस प्रकार भक्ति से भरपूर हृदय से आपकी स्तुति की है। इसलिये हे देव ! जिनेश्वरों में चंद्र समान हे श्री पार्श्वनाथ ! भवोभव बोधि को प्रदान कीजिए।५. शुद्ध प्रस्तुत सूत्र की रचना-रचयिता के सम्बन्ध में कुछ दिग्दर्शन मंगल कल्याण आवासं मंगल कलाण आवासं श्री संघ के ऊपर जब व्यन्तरदेव द्वारा उपद्रव किया गया तब तुअसमत्तेलद्धे तुहसम्मत्ते लद्धे उसके निवारण के लिए लगभग २२०० वर्ष पहले अंतिम चौदपूर्वधर श्री आर्य भद्रबाहस्वामीजी ने इस स्तोत्र की ७ गाथा प्रमाण रचना की थी। पावंति अविधेणं पावंति अविग्घेणं विषमकाल में उन मंत्राक्षरों का दुरुपयोग होने के कारण शासनरक्षक इह संथुओ महायस्स इअसंथुओ महायस अधिष्ठायक देव की विनती से बाद में दो गाथाए लुप्त की गई । वर्तमान भत्तिभर भत्तिब्भर में, पाच गाथाओं का यह स्तोत्र पूर्वधर के द्वारा रचित होने के कारण यह दिज्ज बोहि दिज्ज बोहि सूत्र भी कहलाता है। इन्हीं पूर्वधर भगवंत के द्वारा श्री कल्पसूत्र की भी रचना की गई है। वे आर्य स्थूल भद्रस्वामीजी के विद्यागुरु थे। अशुद्ध ९६Jain Education mematikan Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ता सुक्ति मुद्रा प्रथम दो गाथा बोलें । मग्गाणुसारिआ कलह अपवादिक मुद्रा । सारा कृपया दान वारिज्जई... से संपूर्ण सूत्र 'मुद्रा में बोलें in Education International योग सिहरे... (स्त्रात्र पूजा) मूल सूत्र पद क्रमानुसारी अर्थ जय वीयराय ! जगगुरु !, जय वीय-राय ! जग-गुरु !, हे वीतराग प्रभु ! आपकी जय हो, हे जगद् गुरु ! होउ ममं तुह पभावओ भयवं । होउ म मम् तुह-पभा-वओ भय-वम् । मुझे हो, हे भगवन् ! आपके प्रभाव से भव्यनिव्वेओ भव- निव्-वेओ भव निर्वेद (संसार के प्रति वैराग्य ) फलसिद्धी ॥१॥ मग्-गा-णु- सारि-आइट्-ठ-फल-सिद्धी ॥ १ ॥ गाथार्थ : हे वीतराग प्रभु ! हे जगद् गुरु ! आपकी जय हो ! हे भगवन् मार्ग के अनुसार प्रवृत्ति, इष्ट फल की सिद्धि (मुझे प्राप्त हो ) । १. 'जयवीयराय जगगुरु १) जयवीयराय !.. पभावओ भयवं !' प्रभुजी के समक्ष णिधान करते हुए मस्तक पर अंजलि कर १३ वस्तु की । प्रतापूर्वक याचना । मार्गानुसारिता = B १९. श्री जय वीयराय सूत्र छंग का नाम : गाहा; राग : जिण जम्म सेरु उच्चारण में सहायक आदान नाम : श्री जय वीयराय सूत्र : प्रणिधान (प्रार्थना ) सूत्र गौण नाम : २० : २० : १९ : १७२ : १९१ अनीति पद संपदा गुरु-अक्षर लघु-अक्षर सर्व अक्षर नीति ईर्ष्या शुभेच्छा ३) मग्गाणुसारिया = मार्गानुसारी के ३५ गुण अपनी अंतरात्मा में प्रगट हों तथा मोक्षमार्ग को अनुसरण करने की तत्त्व जज्ञासा उत्पन्न हो, ऐसी प्रभु से प्रार्थना । For P विषय 8 परमात्मा के पास भक्ति के फल के रूप में १३ प्रकार की प्रार्थना- याचना | (मोक्ष) मार्ग के अनुसार प्रवृत्ति (मोक्ष मार्ग में गमन करने में सहयक इष्ट फल की सिद्धि । १. ! आपके प्रभाव से संसार के प्रति वैराग्य, (मोक्ष) रोग में समाधि खमय भी संसार असार भवनिर्वेद (२) ' भव-निव्वेओ' = देव-मनुष्यभव में सुखमय संसार भी असार ही है, ऐसी भावना अंतरात्मा में प्रगट हो, प्रभु से ऐसी प्रार्थना..। इष्टफलसिद्धि ( ४ ) 'इट्ठफलसिद्धि' निर्मळ चित्त से प्रभुजी का दर्शनपूजन करने की शक्ति, रोग में समाधिभाव रहे, आजीविका समाधि/ देवदर्शन सुयोग्य आजीविका मिलती रहे तथा यथायोग्य प्रसन्नातारूप समाधि रहे, ऐसी प्रभु से प्रार्थना । www.jalinetiorary Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोग-विरुद्धच्-चाओ, लोक विरुद्ध प्रवृत्ति का त्याग, लोग - विरुद्ध-च्चाओ, गुरुजणपूआ-परत्थकरणं च । गुरु-जण-पूआ-परत्-थ-कर-णम् च । गुरुजनों के प्रति सन्मान और परोपकार की प्रवृत्ति, सुहगुरु जोगो तव्वयण सुह-गुरु-जोगो तव्-व-यण सद्गुरु का योग, उनकी आज्ञा सेवणा आभव-मखंडा ॥२॥ सेव - णा - आभ-व- मखण्डा ॥२॥ पालन में प्रवृत्ति पूरी भव परंपरा में अखंडित रूप से । २. गाथार्थ : लोक विरुद्ध प्रवृत्ति का त्याग, गुरुजनों के प्रति सन्मान, परोपकार प्रवृत्ति, सद्गुरुओं का योग और उनकी आज्ञा के पालन की प्रवृत्ति पूरी भव परंपरा में अखंडित रूप से मुझे प्राप्त हो । २. आज्ञा स्वीकार पुरुजनपूजा पितृसेवा निन्दा • लोकविरुद्धत्याग मश्करी धर्मी की हसी ९८ ईर्ष्या बहुजनविन का संग देशाचा रोल्लंघन उद्भट भोग परसंकटतोष आदि लोकविरुद्ध कार्यो का त्याग (५) लोगविरूद्धच्चाओ = धार्मिक लोगों का उपहास, मजाक, निंदा, ईर्ष्या, बहुजनविरुद्ध का साथ, देश के आचार का उल्लंघन, दूसरे को दुःखी देखकर आनंदित होना, इत्यादि लोक विरुद्ध आचरणों का त्याग करूँ, ऐसी प्रभु से प्रार्थना । सद्गुरु योग = (८) सुहगुरु जोगो पंचमहाव्रतधारी, संसार शोषक-मोक्ष पोषक, देशना दक्ष ऐसे सद्गुरु भगवंतों का सदा समागम हो, ऐसी | प्रभुजी से प्रार्थना....। (९) तव्वयणसे वणा (सद्गुरुवयण सेवणा) = ऐसे सद्गुरुभगवंत के मुख से निकलती जिनवाणी को एकाग्रचित्त से श्रवण करना तथा उसके वचनों के अनुसार देवदर्शन पूजन, गुरुजन पूजन, जीवरक्षा कार्य, - वारिज्जइ जइ वि, नियाण बंधणं वीयराय !तुह समये । तह वि मम हुज्ज सेवा, भवे भवे तुम्ह चलणाणं ॥३॥ रामचन्द्रजा (६) गुरुजणपूआ = पू. माता-पिताजी की सेवा-शुश्रुषा, विद्यादाता गुरु का यथोचित सम्मान, पू. श्रेष्ठ लोगों की आज्ञा का सहर्ष स्वीकार, निंदा-चुगाली-मजाक का सदा त्याग हो, ऐसी प्रभुजी से प्रार्थना । गुरुवचनसेवा साधर्मिक भक्ति - वात्सल्य, रथयात्रा-जलयात्रा आदि शासनप्रभावक कार्य, सामायिक-पौषधव्रत स्वीकार, संयमग्रहण की तीव्र उत्कंठा, तत्त्व-चिंतन, अनुप्रेक्षा, स्वाध्याय, तप, त्याग आदि कार्य करने की भावना मेरी अंतरात्मा में सदा हों, ऐसी प्रभुजी से प्रार्थना... ( यह सब मुझे जब तक मोक्ष प्राप्ति न हो, तब तक अखंडित हों, ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए । ) वारिज् - जइ जइ वि, निया-ण बन्-ध-णम् वीय-राय !तुह समये । तह वि मम हुज्-ज सेवा, हितोपदेश & Personal Use Only तप परार्थकरण (७) परत्थकरणं = दूसरों को सहायक बनने की तीव्र भावना, अपेक्षारहित परोपकार करने में आनंद, रोगिष्ठबीमार - पराधीन की सेवा-शुश्रुषा, यथायोग्य पात्र को हितकारी बातों का उपदेश इत्यादि परार्थकरण की भावना मुझे सदा हो, ऐसी प्रभुजी से प्रार्थना...। दया परोपकार चारित्र सामायिक व्रत श्रील दान जिवयक्ति (१०) 'भवे भवे तुम्ह चलणाणं '= प्रत्येक भव में प्रभुजी आपकी सेवापूजा-दर्शन का लाभ मिलने के साथ आपके वचनों के प्रति अविचल श्रद्धा मुझे प्राप्त हो, ऐसी प्रभुजी से प्रार्थना । यद्यपि निदान बंधन का निषेध किया जाता है, हे वीतराग ! आपके शास्त्र में तथापि आपके चरणों की सेवा मुझे भवों-भव (मोक्ष प्राप्त होने तक ) प्राप्त हो ! ३. भवे भवे तुम्-ह चल-णा - णम् ॥३॥ गाथार्थ : हे वीतराग ! आपके शास्त्र में यद्यपि निदान बंधन निषेध किया गया है, तथापि भवोभव मुझे आपकी चरण सेवा प्राप्त हो । ३. www.jainelibra Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुक्ख-खओ कम्म-खओ, दुक्-ख-खओ-कम्-म-खओ, दुःख का नाश, कर्म का नाश, समाहिमरणं च बोहिलाभो अ। समा-हि मर-णम् च बोहि-लाभो अ। और समाधिमरण और बोधिलाभ संपज्जउ मह एअं, सम्-पज्-जउ मह-ए-अम्, यह मुझे प्राप्त हो। तुह नाह ! पणाम करणेणं ॥४॥ तुह नाह ! पणाम-कर-णे-णम् ॥४॥ हे नाथ ! आपको प्रणाम करने से ४. गाथार्थ : हे नाथ ! आपको प्रणाम करने से दुःख का नाश, कर्म का नाश, समाधिमरण और बोधिलाभ मुझे प्राप्त हो। ४. दुरखक्षय का शाका कर्मक्षय बोधिलाभ सहर्ष सहन वही लहानता आधि-चिता आभामा समाधिमरण (१४) बोहिलाभो= प्रभुजी (११) दुक्ख-खओ= रोग (१२) कम्म-खओ = की आत्मा को 'नयसार' के का नाश, दौर्भाग्य का नाश, अशाता वेदनीयकर्म से (१३) समाहि-मरणं = भव में 'बोधिलाभ' की प्राप्ति दीनता का त्याग, मानसिक होने वाली अस्वस्थता, किसी भी तरह की हुई, उसी प्रकार मुझे भी अस्वस्थता का नाश, आधि- लाभान्तराय कर्म से लाभ में अस्वस्थता में तथा किन्हीं बोधिलाभ की प्राप्ति हो तथा व्याधि-उपाधि का त्याग, विघ्न, ज्ञानावरणीय कर्म के संयोगों में अंतिम समय में उसके प्रभाव से जिनवचन के विषयों की लोलुपता का उदय से अज्ञानता, जीवदया (तथा जीवन पर्यंत) चित्त प्रति श्रद्धा, सम्यग्ज्ञानत्याग, कषायों की पराधीनता | नहीं पालने के कारण उत्पन्न की प्रसन्नता स्वरूप दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रयी की का त्याग...इत्यादि दुःख का चिन्ता ...इत्यादि कर्मों का समाधिमरण की प्राप्ति हो, प्राप्ति आदि सम्यक्त्व का क्षय हो, ऐसी प्रभुजी से क्षय हो, ऐसी प्रभुजी से ऐसी प्रभुजी से प्रार्थना। लाभ हो, ऐसी प्रभुजी से प्रार्थना...। प्रार्थना...। प्रार्थना...। (१५) संपज्जउ मह एअंतुह नाह पणाम करणेणं = हे नाथ ! मुझे आपके प्रणाम के प्रभाव से उपरं बतलाई गई १३ वस्तुओं की सदा प्राप्ति हो। छंद का नाम : अनुष्टप राग : दर्शनं देवदेवस्य (प्रभु स्तुति) सर्व-मंगल मांगल्यं, सर-व-मङ्ग ल-माग-ल-यम्, सर्व मंगलों में मंगल रूप, सर्व-कल्याण-कारणम् । सर-व-कल्-याण कार-णम्। सर्व कल्याणों का कारण, प्रधानं सर्वधर्माणां, प्रधा-नम् सर-व धर्-मा-णाम्, सर्व धर्मों में श्रेष्ठजैन जयति शासनम् ॥५॥ जै-न्म-ज-य-ति-शा-स-नम् ॥५॥ जैन शासन जयवंत है।५. गाथार्थ : सर्व मंगलों में मंगल, सर्व (१६) सर्व मंगल मांगल्यं, सर्वकल्याण कारणं । प्रधानं TM जैन जयति शासनम् । कल्याणों का कारण, सर्व धर्मों में श्रेष्ठ, जैन सर्वधर्माणां,जैन जंयति शासनम् ॥= श्री अरिहंत परमात्मा शासन जयवंत है।५. तथा उनका शासन और प्रथम गणधर तथा जिनबिंब जिनमंदिर-जिनागम व चतुर्विध श्री संघ (साधु-साध्वीअशुद्ध श्रावक-श्राविका) तथा रत्नत्रयी (सम्यग्दर्शन-ज्ञानजय वीराय जयवीयराय चारित्र) इस जगत के सर्व मंगलों में मंगल, सर्व कल्याण होउमम होउ ममं का कारण तथा सर्व धर्मों में प्रधान है, ऐसा जैनशासन सदा मग्गा अणुसारिआ मग्गाणुसारिआ जय प्राप्त करे-विजय प्राप्त करे। लोगविरुद्धचाओ लोगविरुद्धच्चाओ प्रस्तुत सूत्र से सम्बन्धित कुछ विशेष जानकारी तवयणसेवणा तब्बयणसेवणा इस सूत्र की पहली दो गाथाएँ श्री गणधर भगवंत के द्वारा रचित है तथा वारिजई वारिज्जइ अन्तिम तीन गाथाओं की रचना बाद में की गई है। प्रभुजी के प्रभाव से अर्थात् नियाणबंधण नियाणबंधणां भक्ति के प्रभाव से आठवस्तुओं की याचना ( पहली दो गाथाओं में ) करते समय प्रणामकर्णेणं पणाम करणेणं मुक्ताशुक्ति मुद्रा करनी चाहिए तथा प्रभुजी के प्रणाम से चार वस्तुओं की याचना प्रधान सर्वधर्माण प्रधानं सर्वधर्माणां (अन्तिम तीन गाथाओं में ) करते समय योगमुद्रा करनी चाहिए। याकवि ०० ww.jain liDiary.org Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन, , चैत्यवंदन तथा प्रतिक्रमण करते समय यह सूत्र बोलते-सुनते समय की मुद्रा । मूल सूत्र अरिहंत चेइआणं, २०. श्री अरिहंत चेइआणं सूत्र आदान नाम : श्री अरिहंत चेइआणं सूत्र विषय : गौण नाम : चैत्यस्तव सूत्र : १५ : ३ गुरु-अक्षर : १६ लघु-अक्षर : ७३ | सर्व अक्षर : ८९ पद संपदा उच्चारण में सहायक अरि-हन्त चेड़-आ- णम्, करे-मि काउस्- सग्-गम् ॥१॥ करेमि काउस्सग्गं ॥ १ ॥ गाथार्थ : अरिहंत भगवान की प्रतिमाओं की आराधना के लिये मैं कायोत्सर्ग करना चाहता हूँ । १. १. अभ्युगपगम संपदा अशुद्ध शुद्ध पूर्ण वतियाए पूअण वत्तियाओ Janocation international ३. हेतु संपदा सद्-धाए, मेहा-ए, धिई-ए, सद्धाए, मेहाए, धिईए, धारणाए, अणुप्पेहाऐ, धार-णा, अणुप्-पेहा-ए, वड्डूमाणी ए ठामि काउस्सग्गं ॥३॥ वड्-ढ-माणी-ए, ठामि काउस्- सग्-गम् ॥३॥ २. निमित्त संपदा वंदण-वत्तियाए, पूण-वत्तियाए, वन्-दण-वत्-ति-याए, पूअ-ण-वत्-ति-याए, सक्कर- वत्तियाए, सम्माण- वत्तिआए, सक्- कारवत्-ति-याए, सम्-माण- वत्-ति-याए, बोहिलाभ-वत्तियाए, बोहि- लाभ-वत्-ति-याए, निरुवसग्ग-वत्तियाए ॥ २ ॥ निरु-व-सग्-ग-वत्-ति-याए ॥२॥ निरुपसर्गस्थिति (मोक्ष) प्राप्त करने के निमत्त से । २. गाथार्थ : वंदन करने के निमित्ते से, पूजन करने के निमित्त से, सत्कार करने के निमित्त से, सन्मान करने के निमित्त से, बोधिलाभ के निमित्त से, मोक्ष प्राप्त करने के निमित्त से । २. प्रभुजी की वंदनादि करने के लिए श्रद्धादि द्वारा आलंबन लेकर कायोत्सर्ग करने का विधान । पद क्रमानुसारी अर्थ अरिहंत भगवान के चैत्यों की (आराधना के लिये) मै कायोत्सर्ग करना चाहता हूँ । १. वंदन करने के निमित्त से, पूजन करने के निमित्त से, सत्कारकरने के निमित्त से, सन्मान करने के निमित्त से, बोधिलाभ के निमित्त से, श्रद्धा / विश्वास से, मेघा / बुद्धि से, धृति से, चित्त की स्वास्थता, मन की एकाग्रता से, धारणा से, अविस्मृति से, वृद्धि पाती हुई अनुप्रेक्षा के चिंतन से मैं कायोत्सर्ग करता हूँ । ३. गाथार्थ : बढते परिणाम के साथ वृद्धिवंत श्रद्धा, बुद्धि, धीरता, धारणा, अविस्मृति और अनुपेक्षा के चिंतन से मैं कायोत्सर्ग करता हू । ३. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्कार ELP(वस्वालंकारादि से -पूजन पुष्पादिसे) MODOG:006 पंदनी सन्मान (स्तुति आदि मे) भरिहतचझ्याण ६ निरुपमर्ग (मोक्ष) शुदा मेवाण-womamimmeमाश्मा विमोnyaarpan जीवादितत्व प्रतीति सेकेआदर कौशल्प मे मनासमाथिम्पर्य में सामा durana जलशोधकमसिन चिनमालिन्यशोधक अद्धा औषध के समान चनामणि सामान सिनो धर्म की वितरोगनाशक सध्यण्णायके गाण चिन्तामुदित आदर-कौशल्य मेघाति -धर्य मोनीमाला ये पाये मोतीवर चिन्तनपार्थों का दुइ संकलन धारणा मसाल से कर्मकमणगोधक ग्निमाम अनपेशा अलमल अध्याथिोष परभाविद्वता अधिकाधिक संप्रन्यायकामशानहान RATARALARALSARAATAASY (१) अरिहंत चेइआणं =अष्टप्रातिहार्य युक्त श्री अरिहंत परमात्मा के जिनालय में जिनप्रतिमा की कल्पना कर नमस्कार करना चाहिए। (२) वंदणवत्तियाए =प्रभुजी के गर्भगृह के बाहर प्रभुजी को देखते ही आधा झुककर वंदन करते हुए महानुभावों को देखें। (३) पूअणवत्तियाए =प्रभुजी के हाथ की अंजलि में पंचवर्णीय पुष्प लेकर प्रभुजी की पुष्प पूजा करते हुए श्रद्धालु लोगों को देखें। (४) सक्कार-वत्तियाए =प्रभुजी की भव्य अंगरचना (आंगी) करने के बाद सवर्णादि अंलकार चढाते हुए महानभावों को देखें। (५) सम्माण-वत्तियाए =प्रभुजी के गर्भगृह से बाहर खड़े रहकर विनम्रभाव से भाववाही स्तुति बोलते हुए प्रभुजी का सम्मान करते हुए महानुभावों को देखें। (६) बोलिलाभ-वत्तियाए =प्रभुजी के वचन के प्रति अविचल श्रद्धा स्वरूप बोधि (सम्यक्त्व) का लाभ प्राप्त करते हुए महानुभावों को देखें। (७) निरुवसग्ग-वत्तियाए =सर्वकर्म मल विमुक्त श्री सिद्ध भगवंतों के स्थान रूप उपसर्ग रहित एवं मोक्ष को प्राप्ति के लिए तरसते हुए महानुभावों को देखें । (कायोत्सर्ग में सहायक ५ साधनों की वृद्धि हेतु।) सद्धाए =जल को स्वच्छ करनेवाले मणिरत्न की भांति, श्रद्धा भी चित्त की मलिनता को दूर करने में सहायक बनती है। (२) मेहाए =जिस प्रकार रोगी को औषध के प्रति प्रेम होता है, उसी प्रकार मेधा (बुद्धि) भी शास्त्रग्रहण के प्रति अत्यन्त आदर, सत्कार तथा कौशल्य स्वरूप है। (३)धिईए = जिस प्रकार चितामणिरत्न इच्छित वस्त को प्रदान करने में समर्थ है, उसी प्रकार जिनेश्वर भगवंत प्ररूपित जिनधर्म भी धैर्य-धृति को प्रदान करने में समर्थ है। (४) धारणाए =मोती की माला में पिरोए हुए मोतियों के समान चिंतन करने योग्य पदार्थों की दृढ श्रेणीबद्ध संकलना भी धारणा से सम्भव बनती है। (५) अणुप्पेहाए =जिस प्रकार अग्नि हरे-भरे वृक्ष को क्षण भर में भस्मीभूत कर देती है, उसी प्रकार परम संवेग की दृढता आदि के द्वारा तत्त्वार्थ चिंतन स्वरूप अनुप्रेक्षा सर्वकर्म रूपी मल को भस्मीभूत करने में समर्थ बनती है। co १०१ For Private & Peradreal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अरिहंतचेइआणं सूत्र की तीन संपदा तथा श्री अन्नत्थ सूत्र की पाँच संपदा से सम्बन्धी १. अभ्युपगम संपदा : एक चैत्य (मंदिर) में स्थित । ५. बहुवचनांत आगार संपदा : कायोत्सर्ग में अनिवार्य छूट प्रतिमाओं की आराधना करने के लिए कायोत्सर्ग करना (आगार) बहुवचनांत वाले ३ पदों में 'सहमेहि... से दिट्रिस्वीकार करने से इन दो पदोंवाली ('अरिहंत चेइआणं संचालेहिं तक वर्णित होने के कारण वह बहुवचनांत आगार से...काउस्सग्गं' तक की) अभ्युपगम संपदा है। संपदा है। २. निमित्त संपदा : कायोत्सर्ग करने का निमित्त ६. आगंतुक आगार संपदा : एकवचन तथा बहुवचन के अंत में (प्रयोजन) इन छह पदोंवाली संपदा में ('वंदण- वर्णित आगार के अतिरिक्त उपलक्षण से अन्य चार आगारवाली वत्तियाए से...निरुवसग्ग वत्तियाए' तक में) वर्णित होने तथा ६ पदोंवाली अन्य (एवमाइ एहि... से... काउस्सग्गं तक) के कारण निमित्त संपदा है। संपदा को आगंतुक आगार संपदा कही जाती है। ३. हेतु संपदा : श्रद्धादि के बिना किया गया कायोत्सर्ग ७. उत्सर्ग अवधि संपदा : काया का उत्सर्ग (त्याग) कितने इच्छितफल को प्रदान करने में समर्थ नहीं होता है । समय तक करना है, उस अवधि (मर्यादा) को जाननेवाली कायोत्सर्ग के हेतु ७ पदोंवाली ('सद्धाए से....ठामि चार पदोंवाली ('जाव अरिहंताणं...से...न पारेमि' तक की) काउस्सग्गं' तक की) हेतु संपदा है। संपदा को उत्सर्ग अवधि संपदा कही जाती है। ४. एकवचनांत आगार संपाद : कायोत्सर्ग में अनिवार्य ८. स्वरूप संपदा : कायोत्सर्ग कैसे करें, उसका स्वरूप छूट (आगार) एकवचनांत वाले ९ पदों में 'अन्नत्थ बतलानेवाली छह पदोंवाली संपदा को ('ताव कायं...से... से...भमलीए पित्तमुच्छाए' तक वर्णित होने के कारण अप्पाणं वोसिरामि' तक की) संपदा 'स्वरूप - संपदा' वह एकवचनांत आगार संपदा है। कहलाती है। इस सूत्र में आनेवाले क्रम सम्बन्धी रहस्य श्री अरिहंतभगवंत के चैत्य (प्रतिमा अथवा चित्त की स्वस्थता) रखी जाए, धारणा (पदार्थ के दृढ जिनमंदिर) का आलंबन लेकर कायोत्सर्ग किया जाता है। संकल्परूप) का अभ्यास किया जाए तथा अनुप्रेक्षा (बारंबार उनका आलंबन (सहारा-आधार) लेने से मन स्थिर होता तत्त्वचितंन) का आश्रय लिया जाए, तो चित्त एक निश्चित है । अत: पहले उनके वंदन का निमित्त लेकर (वंदण विषय में एकाग्र हो सकता है। वत्तियाए) चित्त को एकाग्र किया जाता है । फिर पूजन ऐसी चित्त की एकाग्रता के साथ किया गया कायोत्सर्ग का निमित्त लेकर(पूअण वत्तियाए), सम्मान का निमित्त कर्मनिर्जरा में अपूर्व सहायक बनता है। लेकर (सम्माण वत्तियाए), बोधिलाभ का निमित्त लेकर इस सूत्र को लघु चैत्यवंदन सूत्र भी कहा जाता है। अनेक (बोहिलाभ वत्तियाए) तथा मोक्ष का निमित्त लेकर जिनालयों के दर्शन-वंदन का अवसर एक साथ हो, तब (निरुवसग्ग वत्तियाए) के द्वारा चित्त को एकाग्र किया प्रत्येक स्थान पर चैत्यवंदन करना सम्भव न हो तो सत्रह जाता है। उससे (वंदनादि से) जो लाभ मिलता है, वह संडासा (प्रमार्जना) के साथ तीन बार खमासमणा देने के मिले, ऐसी इच्छा की जाती है। बाद योगमुद्रा में यह सूत्र बोलकर, एक बार श्री नवकारमंत्र साथ ही यदि श्रद्धा (आस्था) विकसित की जाए, का कायोत्सर्ग कर स्तुति =थोय बोलकर पुनः एक ज्ञान (मेधा-बुद्धि) विकसित किया जाए, धैर्य (वृत्ति, खमासमणा देने से लघु चैत्यवंदन का लाभ प्राप्त होता है। J१९२० FORan a uberonly Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चैत्यवंदन विधि (यह शुद्ध क्रिया जिनप्रतिमा अथवा उसकी स्थापना के समक्ष करनी चाहिए। ) १. ऐर्यापथिकी क्रिया : सत्रह संडासापूर्वक खमासमण देकर गमनागमन की क्रिया की विराधना अथवा त्रसकाय की विराधना की शुद्धि हेतु योगमुद्रा में 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! ईरियावहियं पडिक्कमामि ?... तस्सउत्तरी... अन्नत्थ' सूत्र बोलकर एक लोगस्स (चंदेसु निम्मलयरा तक), यदि नहीं आए तो चार बार श्री नवकार मंत्र का जिनमुद्रा में कायोत्सर्ग करना चाहिए। उसके बाद 'नमो अरिहंताणं' बोलने के साथ कायोत्सर्ग को पूर्णकर योगमुद्रा में श्री लोगस्स सूत्र संपूर्ण बोलना चाहिए। (१०० कदम के अन्दर गमनागमन के समय विराधना न हुई हो तो एक चैत्यवंदन के बाद दूसरा चैत्यवंदन ईरियावहियं के बिना करना चाहिए । ) २. प्रणिपात : योगमुद्रा में हाथ जोड़कर सत्रह संडासापूर्वक खमासमण (पंचांग प्रणिपात की क्रिया) तीन बार देना चाहिए । ३. क्रिया का आदेश माँगना : उसके बाद खड़े होकर योगमुद्रा में हाथ जोड़कर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! चैत्यवंदन करूँ ?' का विनम्रभाव से उच्चारण कर आदेश माँगना चाहिए । ४. आदेश स्वीकार : 'इच्छं' पद बोलकर आदेश का स्वीकार करना । ५. आसन : उसके बाद खड़े पैर बैठकर दायां घुटना जमीन से स्पर्श करे ऐसा तथा बायां घुटना जमीन से थोड़ा ( ५-६ अंगुल ) ऊँचा रखकर योगमुद्रा में हाथ जोड़कर 'चैत्यवंदन' के प्रारंभ में..... ( छंद का नाम : मालिनी : राग 'अवनितलगतानां कृत्रि... ' (सकलाऽर्हत् स्तोत्र ) सकल- कुशल- वल्लि-पुष्करावर्त्त - मेघो । दुरित तिमिर- भानुः कल्पवृक्षोप-मानः । भव-जल- निधि - पोतः, सर्वसंपत्ति-हेतुः । स भवतु सततं वः, श्रेयसे शांतिनाथः ॥ १ ॥ बोलकर पूर्वाचार्य द्वारा रचित भाववाही संस्कृत-प्राकृत-गुजराती अथवा हिन्दी भाषा में चैत्यवंदन बोलना चाहिए। (श्रेयसे पार्श्वनाथः आदि आगे बोलना उचित नहीं है । ) ६. सकलतीर्थ-वंदना : के बाद 'जं किंचि' सूत्र का पाठ योगमुद्रा में बोलना चाहिए । 1 मुक्ता = मोती, शुक्ति = सीप । सीप में मोती हो, उस समय उसका जैसा आकार दिखाई देता है, वैसी मुद्रा । दोनों हाथों की ऊँगलियों का सिरा एक दूसरे को स्पर्श करे तथा अंजलि के समान बीच का भाग गहरा हो तथा कनिष्ठा (सबसे छोटी) ऊँगली से हाथ के ७. अर्हद्-वंदना : के बाद 'नमुत्थुणं सूत्र' का पाठ योगमुद्रा में बोलना चाहिए । ८. सर्व चैत्यवंदना : के बाद 'जावंति चेइआई' सूत्र का पाठ मुक्ताशुक्ति मुद्रा में बोलना चाहिए तथा उसके बाद पंचांग प्राणिपात स्वरूप एक खमासमण सत्रह संडासापूर्वक देना चाहिए । ९. सर्वसाधुवंदना : के बाद 'जावंत के वि साहू' सूत्र का पाठ मुक्ताशुक्ति मुद्रा में बोलना चाहिए । १०. अरिहंतादि स्तवना : के बाद पुरुष 'नमोऽर्हत्' सूत्र का पाठ तथा महिलाएँ श्री नवकारमंत्र स्तवन के मंगलाचरण के रूप में बोलें । For Private & Pertu ११. स्तवना : के बाद उवसग्गहरं सूत्र अथवा प्रभुगुण गर्भित अथवा स्वदोष गर्भित पूर्वाचार्यों के द्वारा रचित शास्त्रीय राग वाले भाववाही स्तवन मंदस्वर में ( अन्य को असुविधा न हो इस प्रकार) बोलना चाहिए । १२. प्रणिधान : बाद 'जय वीयराय' सूत्र का पाठ प्रथम दो गाथाएँ मुक्तिशक्ति मुद्रा में तथा अंतिम तीन गाथाएँ योगमुद्रा में बोलना चाहिए । ( महिलाएँ पूर्ण सूत्र योगमुद्रा में बोलें ।) १३. कायोत्सर्ग : के बाद जयणापूर्वक (सहारा लिए मुक्ताशक्ति मुद्रा बिना) खड़े होकर योगमुद्रा में 'अरिहंत-चेइआणं' सूत्र का पाठ बोल कर तथा अन्नत्थ बोलकर जिनमुद्रा में श्री नवकारमंत्र का एक कायोत्सर्ग करना चाहिए । 'नमो अरिहंताणं' बोलते हुए कायोत्सर्ग पूर्णकर 'नमोऽर्हत् सूत्र' ( मात्र पुरुष) बोलकर एक भाववाही स्तुति बोलना चाहिए । (सामूहिक चैत्यवंदन करनेवाले स्तुति सुनने के बाद कायोत्सर्ग पारना चाहिए । ) १४. अंतिम प्रणिपात : के बाद सत्रह संडासा पूर्वक एक 'खमासमण' स्वरूप पंचांग- प्रणिपात देना चाहिए तथा पच्चक्खाण लेना हो तो लेना चाहिए। किनारे तक का भाग बंद हो तथा दोनों कुहनियाँ एक दूसरे से मिली हुई हो, तब हाथ मस्तक को स्पर्श करे या नहीं करे तब यह मुद्रा कहलाती है। 'जावंति चेइआइ, जावंत' केवि साहू' तथा 'जय वीयराय ! आभवखंडा' तक के सूत्र इस मुद्रा में बोलने चाहिए । १०३ www.jainen ry.org Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चकखाण लेते समय की मुद्रा पच्चक्खाण पारने की मुद्रा श्री पच्चक्खाण सूत्र - अर्थ व जानकारी पच्चक्खाण लेनेवाले को उस पच्चक्खाण के समय की मर्यादा १. नवकार-सहिअंपच्चक्खाण : सूर्योदय के बाद ४८ मिनट (दो घड़ी) तक। २. पोरिसि-पच्चक्खाण : सूर्योदय के बाद दिन के चौथे भाग (एक प्रहर) तक। ३. साढ-पोरिसि-पच्चक्खाण : सूर्योदय से दिन के छठे भाग (डेढ़ प्रहर) तक। ४. पुरिमङ्क-पच्चक्खाण : सूर्योदय से दिन के मध्यभाग (मध्याह्न) (दो प्रहर) तक। ५. अवडू-पच्चक्खाण : सूर्योदय से दिन के पौने भाग(तीसरे प्रहर) तक। (दिन जितने घंटे का हो, उसे चार से भाग देने पर जो समय निकलता हो, उसे एक प्रहर कहा जाता है। जब १२ घंटे का दिन हो तब उसे चार से भाग देने पर ३ घंटे होते हैं।) : पच्चक्खाण लेनेवाले के (ज्ञान तथा अज्ञान के विषय में ) विशुद्धि आदि भेद : १. विशुद्ध : पच्चक्खाण सूत्र तथा उसके अर्थ को जाने तथा उसके जानकार के पास ग्रहण करे। २. शुद्ध : पच्चक्खाण सूत्र तथा उसके अर्थ को जाने तथा अज्ञानी के पास ग्रहण करे।। ३. अर्धशुद्ध: पच्चक्खाण सूत्र तथा उसके अर्थ को न जाने परन्तु जानकार के पास ग्रहण करे। ४. अशुद्ध : पच्चक्खाण सूत्र तथा उसके अर्थ को न जाने तथा अज्ञानी के पास ग्रहण करे। (पहली-दूसरी अवस्था उत्तम है, दूसरी अवस्था अच्छी है, तीसरी जानकार के पास ज्ञान प्राप्त करेगा, इस आशा से कुछ अर्थ में अच्छा है, परन्तु चौथी अवस्था सर्वथा अयोग्य कहलाती है।) पच्चक्खाण लेते समय तथा उसकी महत्ता से सम्बन्धित जानकारी श्री अरिहंत परमात्मा के गुणों के स्मरण के रूप में पच्चक्खाण तथा मुट्टिसहिअं पच्चक्खाण सद्गति की इच्छा प्रातःकाल उठते ही १२ बार श्री नवकार मन्त्र का स्मरण करनेवाले प्रत्येक भाग्यशाली को अवश्य करना चाहिए । मन में करना चाहिए । उस समय यथाशक्ति आत्मसाक्षी में पंचमकाल में संघयणबल कम होने के कारण अनिवार्य संजोगों में पच्चक्खाण की धारणा करनी चाहिए । राइअ प्रतिक्रमण लिए गए पच्चक्खाण का भंग न हो, इसके लिए आगार (छूट) में तपचिंतवणी के कायोत्सर्ग के समय भी धारणा करनी पच्चक्खाण में बतलाया गया है। परन्तु उसका उपयोग करने की चाहिए। उसके बाद प्रातःकाल की वासचूर्ण (क्षेप) पूजा परमीशन नहीं है। यदि प्रमादवश दोष लग जाए तो गुरुभगवंत को करने जिनालय जाना चाहिए । वहा प्रभु की साक्षी में भी निवेदन कर उसका प्रायश्चित (=आलोचना) कर लेना चाहिए। धारण किए गए पच्चक्खाण को सूत्र के द्वारा ग्रहण करना नमुक्कारसहिअं (नवकारशी) आदि दिन से सम्बन्धित सारे चाहिए। उसके बाद उपाश्रय जाकर गुरुभगवंत की वंदना पच्चक्खाणों के साथ मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाण भी अवश्य लिया कर उसके मुख से अर्थात् गुरुसाक्षी में पच्चक्खाण ग्रहण जाता है। पच्चक्खाण पारते समय अंगूठा अन्दर रहे इस प्रकार मट्टी करते समय मन में उन सूत्रों का उच्चारण करना चाहिए बांधकर पच्चक्खाण पारना चाहिए । पच्चक्खाण का समय बीत तथा 'पच्चक्खाइ-वोसिरह' के बदले 'पच्चक्खामि-जाने के बाद विशेष आराधना के निमित्त तथा किन्हीं संजोगों के वोसिरामि' अवश्य बोलें । इस प्रकार आत्म-साक्षी में, कारण शायद पच्चक्खाण नहीं पारा जा सके, फिर भी देवसाक्षी में तथा गुरुसाक्षी में हमेशा पच्चक्खाण करने पच्चक्खाणवाले महानुभाव को 'मुट्ठिसहिअं' का लाभ निश्चित ही का आग्रह रखें। मिलता है। उदाहरण के लिए नवकारशी पच्चक्खाण करनेवाले __नवकारशी से साढपोरिसी तक का पच्चक्खाण भाग्यशाली प्रभुभक्ति अथवा जिनवाणी श्रवण अथवा सूर्योदय से पहले ले लेना चाहिए तथा पुरिमक-अवड्डू के व्यावहारिक संजोगों के कारण उस समय शायद पच्चक्खाण नहीं पच्चक्खाण सूर्योदय के बाद भी लिया जा सकता है। पारे, फिर भी उसे नवकारशी का समय हो जाने पर भी मुट्टिसहिअं चउविहार-तिविहार तथा पाणाहार का पच्चक्खाण सूर्यास्त पच्चक्खाण का लाभ मिलता है। से पहले ले लें अथवा धारण कर लें। नमुक्कारसहिअं से तिविहार उपवास तक के पच्चक्खाण कम से कम नवकारशी का, रात्रिभोजन त्याग का विधिपूर्वक पारना चाहिए । उसमें 'श्री ईरियावहियं से लोगस्ससूत्र १०४ Iminsfedes s Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक...' फिर खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! आसपास करनेवाले) तथा एकलठाणा-ठाम चउविहार चैत्यवंदन करूं?' इच्छं कहकर जगचिंतामणि से पूर्ण जयवीयराय ! आयंबिल-एकासणा के बाद चौविहार का पच्चक्खाण सूत्र तक बोलकर चैत्यवंदन करना चाहिए। उसके बाद खमासमण उसी समय करना चाहिए । शाम को गुरु की साक्षी में देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सज्झाय करूं?'इच्छं, कहकर तथा देवसाक्षी में भी चौविहार का पच्चक्खाण लेना गोदोहिका आसन (गाय दुहने की मुद्रा) में बैठकर श्री नवकारमंत्र चाहिए । एक साथ चार प्रकार के आहार का त्याग करने तथा 'श्री मन्नह जिणाणं' (पू. साधु-साध्वीजी भगवंत के लिए श्री के कारण विशिष्ट तप (आयंबिल-एकासणा आदि) दशवैकालिक सूत्र का प्रथम अध्ययन) बोलकर खड़े होकर होने पर भी 'पाणाहार के बदले 'चौविहार' का ही खमासमण देकर इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! मुहपत्ति पडिलेहुं ?' पच्चक्खाण लेना चाहिए। इच्छं, कहकर ५० बोल से मुहपत्ति-शरीर की पडिलेहणा करनी छट्ट-अट्ठम या उससे अधिक उपवास का चाहिए । फिर दूसरी बार खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह पच्चक्खाण एक साथ लिया हो तो उसके दूसरे दिन पानी भगवन् ! पच्चक्खाण पारूं?' 'यथाशक्ति' बोलकर सत्रह संडासा पीने से पहले दूसरी बार पच्चक्खाण लेनेवालों को सूत्र पूर्वक खमासमण देकर खड़े होकर योगमुद्रा में 'इच्छाकारेण संदिसह के अनुसार पाणाहार पोरिसि...' का पच्चक्खाण अवश्य भगवन् ! पच्चक्खाण पार्यु ?''तहत्ति' कहकर घुटने के सहारे पंजे लेना चाहिए। चउविहार उपवास का पच्चक्खाण लिया के बल पर बैठकर चरवला/रजोहरण/जमीन पर दाहिने हाथ की मुट्ठी हो तो उस दिन शाम को गुरुसाक्षी में तथा देवसाक्षी में बांधकर बाए हाथ की हथेली में मुहपत्ति (बंद किनारे दिखे, इस दूसरी बार पच्चक्खाण का स्मरण करना चाहिए। एक प्रकार) मुख के पास रखकर श्री नवकारमंत्र बोलकर पच्चक्खाण | साथ कई उपवास का पच्चक्खाण एक ही दिन में लेने पारने का सूत्र उसी प्रकार बोलें, जिस प्रकार पच्चक्खाण लेने का के बाद अथवा मन में मात्र धारण करने के बाद दूसरे - सूत्र बोला जाता है। तीसरे आदि दिनों में दूसरी बार पच्चक्खाण नहीं लेने से ___पूज्य साधु-साध्वीजी भगवंत, पौषधव्रतधारी श्रावक- उपवास का लाभ नहीं मिलता है। पानी मुंह में डालने के श्राविकागण तथा श्री नवपदजी की ओली की विधिपूर्वक आराधना बाद सुबह में कोई भी पच्चक्खाण नहीं लेना चाहिए। करनेवाले आराधकवर्ग उपरोक्त पच्चक्खाण पारने की विधि करते हैं वर्तमान में, नवकारशी आदि पच्चक्खाण में कुछ । उसके अतिरिक्त प्रतिदिन नवकारशी से तिविहार उपवास आदि तप अज्ञानता तथा देखादेखी के कारण पच्चक्खाण पारने के करनेवाले आराधक श्रावक-श्राविकागण में पच्चक्खाण पारने की बाद तुरन्त कुल्ला करने, दांत साफ करने अथवा थोड़ा विधि आज विस्मृत हो गई है, यह उचित नहीं है । इस हेतु यथा पानी पीने की प्रवृत्ति विधिरूप में प्रारम्भ हो गई है, यह सम्भव प्रयत्न करना चाहिए । शायद प्रतिदिन नवकारशी में उचित नहीं है। पहले नंबर पर तो पच्चक्खाण पारने की अनुकूलता न रहे, परन्तु जब विशेष तप करने का अवसर हो तब विधि का आग्रह रखना आवश्यक है। फिर भी यदि (पौषध में न हो, फिर भी) पच्चक्खाण पारने की विधि का आग्रह सम्भव हो तो मुट्ठी बांधकर तीन बार श्री नवकारमंत्र अवश्य रखना चाहिए । नवकारशी का पच्चक्खाण करनेवाले गिनकर पच्चक्खाण पारने की प्रथा प्रचलित है। भाग्यशाली को सारा दिन पूर्ण मुखशुद्धि हो, उस समय याद करके सूर्योदय के बाद दो घड़ी (४८ मिनट) के बाद 'मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाण' करना चाहिए। साथ ही पहला बियासणा नवकारशी का पच्चक्खाण आता है, इसी प्रकार सूर्यास्त करके उठते समय तथा तिविहार उपवास में जब-जब पानी का से पहले दो घड़ी (४८ मिनट) के बाद चारों प्रकार के उपयोग (पीना) हो जाने के बाद याद करके मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाण आहार के त्याग के रूप मे चौविहार का पच्चक्खाण करना चाहिए । हमेशा कम से कम नवकारशी तथा चौविहार का करने की प्रथा जैनशासन में प्रचलित थी तथा आज भी पच्चक्खाण करने के साथ ही मुखशुद्धि हो, तब याद करके मुट्ठिसहिअं चतुर्विध श्री संघ में कुछ वर्ग इसके अनुसार सूर्यास्त से पच्चक्खाण करनेवाले महानुभाव को २५ से २८ उपवास का लाभ पहले दो घडी के बाद आहार-पानी का त्याग करते हैं, एक महीने में होता है। वह लाभ छोड़ने जैसा नहीं है। वह अनुकरणीय है। आयंबिल, एकासणा तथा बियासणा करके उठते समय, उन यदि वह (दो घडी पहले पच्चक्खाण करना) महानुभावों को तिविहार तथा मुट्ठिसहिअं का पच्चक्खाण करना सम्भव न हो, तो बारह महीने चउविहार का पच्चक्खाण चाहिए । दूसरी बार जब पानी पीने की आवश्यकता हो तो मुट्ठी (सूर्यास्त से पहले) भोजन कर लेना चाहिए । रात्रिभोजन बांधकर श्री नवकार मंत्र तथा मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाण पारने का सूत्र नरक का प्रथम द्वार है। रात्रि में आहार-पानी कुछ भी नहीं बोलकर पानी का उपयोग किया जा सकता है । शायद किसी लिया जा सकता है । फिर भी धर्म में नया प्रवेश आराधक को मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाण पारना नहीं आता हो तो शीघ्र करनेवाले महानुभाव को थोड़ा लाभ मिले, इस आशय ही गुरुभगवंत के पास सीख लेना चाहिए। वह जब तक न आता हो से तिविहार का पच्चक्खाण दिया जाता है। उसमें पानी तब तक तिविहार का पच्चक्खाण तो अवश्य करना चाहिए। | कितना कितनी बार तथा कितने बजे तक पीना चाहिए, आयंबिल-एकासणा तथा दूसरा बियासणा (सूर्यास्त के इसका निर्णय नहीं कर पाते हैं । प्यासे रहने की शक्ति न १०५ in cui PEED Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो तथा असमाधि होने की सम्भावना हो तब तिविहार का पच्चक्खाण करनेवाले महानुभाव लोटा-गलास या जग लोटा-गलास या जग भरकर पानी गटगटा जाने के बदले औषध के रूप में कम से कम, कम बार तथा कम से कम मात्रा में, गला भीग जाए, इतना ही दुःखी मन से पीना चाहिए। तिविहार पच्चक्खाण करने में असमर्थ फिर भी उस दिशा में आगे बढ़ने की पूर्ण भावना वाले महानुभाव यदि किसी असाध्य रोग के कारण औषध लिए बिना रात्रि में समाधि टिकाए रखना यदि असम्भव हो तथा गुरुभगवंत के पास उससे सम्बन्धित निर्बलता तथा असमाधि होने के कारणों का निवेदन कर सम्मति ले ली हो, तो रात्रिभोजन त्याग की भावना वाले आराधकों को सूर्यास्त से पहले दुविहार का पच्चक्खाण दिया जाता है। उसमें जितना सम्भव हो उतना टालने का प्रयत्न करे, फिर भी यदि लेना ही पड़े, ऐसे संजोग उपस्थित हो जाएं तो सूर्यास्त के बाद औषध तथा पानी लिया जा सकता है। सूर्यास्त के बाद भोजन करनेवाले को चडविहार तिविहार- दुविहार का पच्चक्खाण नहीं करना चाहिए। उन्हें गुरुभगवंत के पास जाकर 'धारणा अभिग्रह पच्चक्खाण' (भोजन के बाद कुछ भी नहीं खाने का नियम) लेना चाहिए । उन्हें रात्रिभोजन का दोष लगता है, इसमें किसी प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिए । पूज्य साधु-साध्वीजी भगवंत दीक्षाग्रहण करते हैं, तब से जब तक जीते हैं, तब तक चाहे कैसा भी शारीरिक-मानसिक आदि संजोग उपस्थित हो तो भी कभी भी रात्रि में चारों प्रकार के आहार में से कोई भी आहार ग्रहण नहीं करते हैं। जीवन पर्यंत रात्रिभोजन त्याग रुप छठे व्रत का पालन करते हैं। पू. गुरुभगवंत पच्चक्खाण दें, तो एक या दो बार खाने की छूट आदि का पच्चक्खाण नहीं देते है । परन्तु एकासणा पच्चक्खाण में एक बार के अतिरिक्त अन्य समय के भोजन के त्याग का पच्चकखाण देते हैं। इसके अनुसार सारे पच्चक्खाणों में समझ लेना चाहिए। नवकारशी का पच्चक्खाण करनेवाले किन्हीं संजोगों में ‘पोरिसी' अथवा 'साढपोरिसि' तक कुछ भी खाए पीए बिना रहे तथा आगे का पच्चक्खाण न करे तो उसे मात्र नवकारशी का ही लाभ मिलता है। शायद समय अधिक होने पर ध्यान आए तथा आगे का पच्चक्खाण करे तो उस पच्चक्खाण का लाभ मिलता है। परन्तु सूर्योदय से पहले लिए गए पच्चक्खाण जितना लाभ नहीं मिल सकता है। आयंबिल -एकासणा अथवा बियासणा का पच्चक्खाण किया हो तथा उपवास करने की भावना जगे, तो यदि पानी नहीं पीया हो तो तथा उपवास का पच्चक्खाण करे, तभी उपवास का लाभ मिलता है। उसी १०६ Education International प्रकार एकासणा का पच्चक्खाण लेने के बाद आयंबिल की रूक्ष नीवि करने की भावना जागे तो नीवि करने की भावना जागे तो कुछ भी खाए पीए बिना यदि पच्चक्खाण लिया हो तभी पच्चक्खाण का लाभ मिल सकता है। शायद प्रथम बियासणा करने के बाद दूसरा बियासणा करने की भावना न हो तो तिविहार का पच्चक्खाण किया जा सकता है। अन्य पच्चक्खाणों में पानी पीया गया हो तथा उससे विशेष तप करने की भावना जागे तो 'धारणा अभिग्रह पच्चक्खाण किया जा सकता है। लिए गए पच्चक्खाण की अपेक्षा से विशेष पच्चक्खाण किया जा सकता है, परन्तु प्राणान्त कष्ट आए तो भी उससे कम नहीं करने का ध्यान रखना चाहिए । तिविहार या चडविहार उपवास के पच्चक्खाण एक से अधिक एक साथ ( यथाशक्ति ) लेने से विशेष लाभ मिलता है। एक साथ १६ उपवास का पच्चक्खाण लिया जा सकता है। जैनधर्म की प्राप्ति के कारण जीवन में कभी आचरण करने की सम्भावना न हो, ऐसे अनाचारों का पच्चक्खाण करने से उन पापों से बचा जा सकता है। जीवन के दौरान कभी भी उन पापों का सेवन न करते हुए पच्चक्खाण न करने के कारण उन पापों के विपाकों की भयंकरता सहन करनी पड़ती है। त्याग करने योग्य अनाचार सात व्यसन = मांस, मदिरा, जुआ, परस्त्री (परपुरुष) सेवन, चोरी, शिकार तथा वेश्यागमन, चार महाविगड़ - मधु (Honey), मदिरा (शराब), मक्खन (Butter ) तथा मांस ( Mutton), तैरना, घुड़सवारी, उड़नखटोला, सर्कस, प्राणी संग्रहालय (200) देखने जाना, पंचेन्द्रिय जीवों का वध, आईस्क्रीम, ठंडा पेय (Cold Drinks), परदेशगमन आदि अनाचारों में से जितना सम्भव हो, उतनी वस्तुओं का 'धारणा अभिग्रह' पच्चक्खाण देव-गुरु- आत्मसाक्षी में करने से उन पापों से बचा जा सकता है। सम्भव हो तो श्रावक-श्राविकागण सम्यक्त्वमूल १२ व्रत ग्रहण करना चाहिए । दिन और रात सम्बन्धी प्रतिदिन उपभोग में आनेवाली वस्तुओं आदि का भी नवकारशी तथा चउविहार पच्चक्खाण लेते समय परिमाण करके 'देशावगासिक' का पच्चक्खाण करना चाहिए। देशावगासिक पच्चक्खाण में १४ नियमों की धारणा करने से उसके अतिरिक्त संसार की सभी वस्तुओं के पाप से बचा जा सकता है। प्रातः काल धारणा किए गए १४ नियमों तथा सूर्यास्त के समय रात्रि से सम्बन्धित नियम ग्रहण करने होते हैं। रात्रि के नियमों को प्रातःकाल संकलित कर नए नियम लेने होते हैं। परन्तु वे सामायिक अथवा पौषध में नहीं संकलित किये जा सकते हैं और धारण भी नही कर सकते हैं। देवसिअ तथा राइअ प्रतिक्रमण के साथ-साथ पूरे दिन आठ सामायिक करने से देशावगासिक व्रत का पालन होता है। मानवभव में ही जहाँ तक सम्भव हो सर्वसंग त्याग स्वरूप सर्वविरतिधर्म को (संयम को) प्राप्त करने के लक्ष्य के साथ-साथ यथाशक्ति व्रतनियम-पच्चक्खाण करना चाहिए । For Private & Personal Free Only www.nelibrary.org Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चक्खाण सूत्र १. नवकारशी पच्चक्खाण सूत्र-अर्थ सहित १. नवकारशी का पच्चक्खाण पारने का सूत्र अर्थ सहित उग्गए सूरे, नमुक्कार-सहिअं मुट्ठिसहिअं, उग्गए सूरे नमुक्कारसहिअं मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाण किया चउविहार पच्चक्खाइ (पच्चक्खामि) चउव्विहं पि आहारं पच्चक्खाण फासिअं, पालिअं, सोहिअं, तीरिअं, कीट्टिअं, आराहिअं, जं च न असणं, पाणं, खाइम, साइमं अन्नत्थणा-भोगेणं, आराहिअंतस्स मिच्छामि दक्कडं॥ सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि- वत्तिया अर्थ : सूर्योदय के बाद दो घड़ी( ४८ मिनिट) तक नमस्कार सहित-गारेणं वोसिरह (वोसिरामि)॥ मुट्ठिसहित पच्चक्खाण में चारों प्रकार के आहार का त्याग किया है। इस अर्थ : सूर्योदय से दो घड़ी (४८ मिनिट) पच्चक्खाण को मैंने स्पर्श किया (=विधि सहित उचित समय में जो तक नमस्कार सहित-मुट्ठिसहित नामक पच्चक्खाण लिया हो, वह) है, पालन किया (किए गए पच्चक्खाण को बारबारयाद करना) है,शोभित (वडील जन को ) गुरु को देकर शेष बचे हुए पच्चक्खाण करता है (करता हूँ)। उसमें चारों अन्न से भोजन करना) है, तीरना (=कुछ अधिक समय तक धीरज रखकर प्रकार के आहार अर्थात् अशन (=भूख को शान्त पच्चक्खाण पारना)है,कीर्तन करना (= भोजन के समय पच्चक्खाण पूरा होने करने में समर्थ चावल आदि द्रव्य), पान (=सादा पर उसे याद करना) है तथा आराधना करना (= उपरोक्त प्रकारों से किया गया पानी), खादिम (=सेंके हुए अन्न, फल आदि) पच्चक्खाण) है, उसमें जो आराधना नहीं की गई हो उसका पाप मिथ्या हो । तथा स्वादिम (=दवा पानी के साथ) का (पच्चक्खाण की छह शुद्धि भी कही गई है।(१) श्रद्धावान् व्यक्ति के पास अनाभोग (-उपयोग नहीं करने के कारण भूल पच्चक्खाण करना श्रद्धा शुद्धि कहलाती है, (२) ज्ञान प्राप्ति के लिए जाने से कोई चीज मुख में डाला जाए, वह), पच्चक्खाण करना ज्ञान-शुद्धि कहलाती है,(३) गुरु का वंदन करते हुए विनय सहसात्कार ( स्वयं अनायास मुख में कोई वस्तु पूर्वक पच्चक्खाण लेना विनय शुद्धि कहलाती है, (४) गुरु जब पच्चक्खाण । दें, तब मंदस्वर से मन में पच्चक्खाण बोलना अनुभाषण शुद्धि कहलाती है, के कारण) तथा सर्व-समाधि-प्रत्याकार (किसी (५) संकट में भी लिये गए पच्चक्खाण का भली-भांति पालन करे, वह भी प्रकार से समाधि नहीं रहना) ये चार आगार अनुपालन शुद्धि कहलाती है, (६) इहलोक-परलोक के सुख की इच्छा के (छूट ) रखकर त्याग करता है (करता हूँ।) 'बिना (केवल कर्मक्षय के लिए)पालन करे,वह भावशुद्धि कहलाती है। २. पोरिसी तथा साड्डपोरिसी पच्चक्खाण का सूत्र अर्थ सहित उग्गए सूरे पोरिसिं साड्ढ-पोरिसिं मुट्ठिसहिअं (करता हूँ )। उसमें चारों प्रकार के आहार का अर्थात् अशन, पच्चक्खाइ (पच्चक्खामि) चउव्विहं पि आहारं असणं, पान, खादिम तथा स्वादिम का अनाभोग, सहसात्कार, पाणं, खाइमं, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, प्रच्छन्नकाल (=मेघ-बादल आदि से ढंके हुए काल का पच्छन्न-कालेणं, दिसा-मोहेणं, साहु-वयणेणं, महत्तरागारेणं, (=समय पता नहीं चलना), दिग्मोह (=दिशा का भ्रम होना), सव्वसमाहि वत्तियागारेणं वोसिड( वोसिरामि)॥ साधु-वचन ( = 'बहुपडिपुन्ना पोरिसि' ऐसा पात्रा पडिलेहण के अर्थ : सूर्योदय से एक प्रहर (=दिन के चौथे भाग) समय साधु भगवन्त का वचन सुनने से पच्चक्खाण आ गया है, तक पोरिसी, डेढ़ प्रहर तक (=दिन के छठे भाग तक) ऐसा समझ गया हो), महत्तराकार, तथा सर्व-समाधि-प्रत्याकार साड्ढपोरिसि-मुट्ठिसहित नामक पच्चक्खााण करता है ये छह आगार (छूट) रखकर त्याग करता है (करता हूँ।) ३. पुरिमड्ड तथा अवड्ड पच्चक्खाण का सूत्र अर्थ सहित पोरिसि-साडपोरिसि-पुरिम तथा सूरे उग्गए, पुरिम8 अवटुं मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाइ अवडू पच्चक्खाण पारने का सूत्र अर्थ सहित (पच्चक्खामि) चउव्विहंपि आहारं असणं, पाणं,खाइम, साइमं, उग्गए सूरे पोरिसिं, साङ्कपोरिसिं, सूरे उग्गए पुरिमडूं, अवई अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, दिसामोहेणं, साहवयणेणं, मुट्ठि सिहिअं पच्चक्खाण कर्यु चोविहार, पच्चक्खाण फासिअं, महत्तरागारेणं,सव्वसमाहि-वत्तियागारेणं वोसिरह ( वोसिरामि)। पालिअं, सोहिअं, तीरिअं, किट्टिअं, आराहिअं, जं च न । अर्थ : सूर्योदय से मध्याह्न अर्थात् दोपहर तक ( पुरिमड्ड) आराहिअं तस्स मिच्छा मि दुक्कडं॥ अर्थ : सूर्योदय के बाद पोरिसी, साढपोरिसी, पुरिमङ्क, अवड्डू अथवा अपराध अर्थात् तीन पहर तक (अवड्ड) मुट्ठिसहित सहित (जो पच्चक्खाण किया हो, वह बोलना) पच्चक्खाण पच्चक्खाण करता है (करता हूँ)। उसमें चारों प्रकार के आहार उसम चारा प्रकार क आहार में मैंने चारों प्रकार के आहार का त्याग किया है। यह पच्चक्खाण अर्थात् अशन, पान, खादिम तथा स्वादिम का अनाभोग, | मैंने स्पर्श किया, पालन किया, शुद्ध किया, तीरन किया, सहसात्कार, प्रच्छन्नकाल, दिग्मोह, साधुवचन, महत्तराकार तथा कीर्तन किया, आराधना की है, उनमें जिनकी आराधना नहीं सर्वसमाधि-प्रत्याकारपूर्वक त्याग करता है( करता हू)। की गई हो, वह मेरा पाप मिथ्या हो अर्थात् नष्ट हो। Jain Education interational brodog Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. एकासणा, बियासणा, एकलठाणा, नीवि तथा आयंबिल का पच्चक्खाण सूत्र अर्थ सहित उग्गए सूरे नमुक्कारसहिअं, पोरिसिं, साड्ढ-पोरिसिं, सूरे अर्थ : सूर्योदय से दो घडी, एक पहर, डेढ पहर, दो पहर अथवा तीन पहर उग्गए पुरिमढें, अवई मुट्ठिसहिअंपच्चक्खाइ (पच्चक्खामि) तक मुट्ठिसहित पच्चक्खाण करता है (करता हूँ।)। उनमें चारों प्रकार के चउव्वर्हि पि आहारं असणं, पाणं,खाइम,साइमं, अन्नत्थणा- आहार का अर्थात् अशन, पान, खादिम व स्वादिम का अनाभोग, भोगेण, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, सहसात्कार, पच्छन्नकाल,दिग्मोह,साधुवचन,महत्तरकारतथा सर्व-समाधिसाहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सव्व-समाहि-वत्तियागारेणं, प्रत्याकार पूर्वक त्याग करता है (करता हूँ।)। आयंबिल/नीवि/विगई का आयंबिलं, निव्विगइओ, विगइओ पच्चक्खाइ त्याग अनाभोग,सहसात्कार, लेपालेप(=गंदे (खरडे हुए) कलछी आदि को (पच्चक्खामि) अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, साफकरवहोराया हुआ आहारग्रहण करते हुए भी मुनिको(आयंबिल अथवा लेवालेवेणं, गिहत्थ-संसटेणं, उक्खित-विवेगेणं, पडुच्च-नीवि का) भंग न होना), गृहस्थ-संसृष्ट = साग-सब्जी आदि घी-तेल से मक्खिएणं, पारिद्वावणिया-गारेणं, महत्तरागारेणं सव्व- संस्करित वे मुनि को (नीवि आदि) में भंग न होना, वह उत्क्षिपसमाहि-वत्तियागारेणं, एगासणं, बियासणं पच्चक्खाइ विवेक सब्जी रोटी पर से पिंड विगई को यदि गृहस्थ ने उठाकर अलग रख (पच्चक्खामि),तिविहंपि, चउविहंपि आहारं असणं, पाणं, हो तो उसे वहोराते समय मुनि को (नीवि आदिका)भंगन होना, वह प्रतीत्यखाइम,साइम,अन्नत्थणा-भोगेणं, सहसागारेणं,सागारिया- मेक्षित( =घी आदि से ऊंगलियों के द्वारा मसली हुई वस्तु का प्रयोग कर गारेणं, आउंटण-पसारेणं, गुरु-अब्भुटाणेणं, परिट्ठा- समय मुनि को (नीवि-विगइ त्याग का) भंग न हो, परन्तु आयंबिल का भंग वणियागारेणं, महत्तरा-गारेणं, सव्व-समाहि-वत्तियागारेणं, हो) पारिष्ठापनिकाकार (= विधिपूर्वक ग्रहण किया गया आहार विसर्ज पाणस्स लेवेण वा, अलेवेण वा अच्छेण वा, बहुलेवेण वा, करने योग्य हो (तो गुरुभगवंत की आज्ञा से ) उसका उपयोग करना, वह ससित्थेण वा, असित्थेण वा वोसिरइ( वोसिरामि)॥ महत्तराकार,सर्व-समाधि-प्रत्याकारपूर्वक त्याग करता है(करता हूँ।)। सूचना : (बियासणा का पच्चक्खाण लेनेवाले एकासणा/बेयासणा का पच्चक्खाण करता है (करता हूँ) उस नमुक्कारसहिअं बोलें, एकासणा-एकलठाणा-नीवि तथा अनाभोग, सहसात्कार, सागरिकाकार(गृहस्थादि की दृष्टि पड़ने पर मुनि व आयंबिल का पच्चक्खाण करनेवाले साइपोरिसिं अथवा एकासणा आदि में से उठना पड़े), आकुंचन प्रसारणा (हाथ-पैर आदि अंग उससे अधिक का पच्चक्खाण बोलें, एकलठाणा-ठाम को सिकोड़ना),गुरु अभ्युत्थान (श्रेष्ठ गुरुभगवन्त आए तो उनके सम्मान हे चउविहार, एकासणा, नीवि अथवा आयंबिल करनेवाले एकासणा आदि में से उठना), पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार एवं सब 'एगासणं पच्चक्खामि चउविहंपि आहारं' बोलें, ठाम समाधि-प्रत्याकार पूर्वक त्याग करता है (करता हू) अचित्त पानी के ह चउविहार के अतिरिक्त पच्चक्खाणवालों को 'एगासणं आगारलेप (दाल के पानी आदि का (बर्तन में लगा हुआ )अवशिष्ट जल बियासणं पच्चक्खामि तिविहंपि आहारं असणं, खाइम, अलेप (लपशी अथवा छाश का अलेपकृत पानी), अच्छ (तीन बार उबार साइमं बोलना चाहिए । लुखी नीवि अथवा कडा विगई की हुआ निर्मल गर्म जल), बहुलेप (चावल, फल आदि के धोने से बचा हुड नीवि (उपधान तप) करनेवाले 'निव्विगईओ पच्चक्खामि जल), ससिक्थ (दाना अथवा आटा आदि के कणों से युक्त जल) त तथा 'एगासणं पच्चक्खामि' पाठ बोलें, विगई का सर्वथा असिक्थ (कपड़े से छाना हुआ परन्तु धूलकण से युक्त जल) पूर्वक त्य त्याग करनेवाले अथवा कुछविगई(१)घी,(२)तेल,(३) करता है(करता हूँ)। गुड़, (४) दुध, (५) दही तथा (६) कडा, ये छह विगइ विशेष नोट : लेपालेप, गृहस्थ-संसृष्ट, उत्क्षिप्त-विवेक, प्रतीत कहलाते हैं।) का त्याग करनेवाले 'विगइओ पच्चक्खामि' प्रक्षित, पारिष्ठापनिकाकार, सागरिकाकार तथा अचित्त पानी के अच्छ का पाठ बोलें, आयंबिलं करनेवाले'आयंबिलं पच्चक्खामि' अतिरिक्त आगार ४२ दोषों से रहित, भोजन-पानी की गवेषणा (शोर तथा 'एगासणं पच्कखामि' भी बोलें व उबाले हुए अचित्त करनेवाले पूज्य साधु-साध्वीजी भगवन्तों के लिए ही है। यदि गृहस्थ पाणी का उपयोग करनेवाले 'पाणस्स...'का पाठअवश्य बोलें, आगार का उपयोग करता है तो पच्चक्खाण का भंग होता है। अतः इस आयंबिलकरनेवाले पडुच्च-मक्खिएणं'आगारन बोलें।) विशेष रूपसे ध्यान रखा जाना चाहिए। एकासणा, बियासणा, एकलठाणा, नीवि तथा आयंबिल का पच्चक्खाण सूत्र अर्थ सहित उग्गए सूरे नमुक्कार सहिअं, पोरिसिं, साड्डपोरिसिं, सूरे उग्गए तीरण किया है, कीर्तन किया है तथा आराधना किया है, इनमें पुरिमटुं, अवढं मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाण कर्यु चउविहार आयंबिल, यदि किसी की आराधना नहीं हुई हो, मेरा वह पाप मिथ्या नीवि एकासण, बियासण पच्चकखण कर्यु तिविहार, पच्चक्खाण अर्थात् नष्टहों। फासिअं, पालिअं, सोहिअं, तीरिअं, कीट्टिअं, आराहिअं, जं च न (नोट: 'नमुक्कारसहियं' से 'अवत' तक का पाठा आराहिअंतस्स मिच्छा मि दुक्कड्म॥ साथ न बोलकर जो पच्चक्खाण किया हो, वही बोलें. साथ अर्थ : सूर्योदय के बाद दो घड़ी/एक पहर/डेढ़ पहर/दो आयंबिल से बेयासणा तक में भी एकासणा अथवा बेयास पहर/तीन पहर मुट्ठीसहित पच्चक्खाण में मैंने चारों प्रकार के आहार बोलें, परन्तु यदि आयंबिल अथवा नीवि किया हो तो आ का त्याग किया है. आयंबिल/ नीवि/ एकासणा/ बेयासणा पानी अथवा नीवि के उच्चारण के साथ एकासणा अवश्य बे के अतिरिक्त तीन आहार के त्याग के साथ किया है। मैंने अपना यह भोजन के बाद तिविहार/मुट्ठिसहियं का पच्चक्खाण पच्चक्खाण को स्वीकार किया है, पालन किया है, शोधन किया है, अधिक उपयुक्त होगा।) १०%Educareonlinema Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.तिविहार-उपवास पच्चक्खाण सूत्र अर्थ सहित सूरे उग्गए (चोथ-अब्भत्तट्ट) अब्भत्तटुं पच्चक्खाई। अर्थ : सूर्योदय से अगले दिन के सूर्योदय तक के उपवास का (पच्चकखामि) तिविहंपि आहारं असणं, पाणं खाईमं, पच्चक्खाण (अगले दिन तथा पारणा के दिन एकासणा करनेवाले को साईमं अन्नत्थणा-भोगेम्णं, सहसागारेणं, पारिट्ठा-चौथ-अब्भत्तटकरना) करता है(करता है), उसमें तीन प्रकारके आहार वणियारेणं महत्तरागारेणं, सव्व-समाहि-वत्तियागारेणं का अर्थात असन, खादिम और स्वादिम का अनाभोग, सहसात्कार, महत्तरागारेणं, सव्व-समाहि-वत्तियागारेणं पाणहार पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार तथा सर्व-समाधि-प्रत्याकार पूर्वक पोरिसिं, साड्डपोरिसिं सूरे उग्गए पुरिमटुं, अवड्ढे मुट्ठिसहिअं करता है (करता हूँ)। उसमें पानी का आहार एक पहर ( पोरिसि)/डेढ़ पच्चखाई (पच्चखामि) अन्नत्थणाबोगेणं, साहवयणेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामो हेणं, साहुवयणेणं, पहर(साढ पोरिसि)/दो पहर (पुरिमड्ड)/तीन पहर(अवड्ड) मुट्ठिसहित महत्तरागारेणं सव्व-समाहि-वत्तियागारेणं,पाणस्स लेवेण पच्चक्खाण का अनाभोग, सहसात्कार, प्रच्छन्नकाल, दिग्मोह, वा अलेवेण वा, अच्छेण वा, बहलेवेण वा. ससित्थेण वा साधुवचन, महत्तराकार तथा सर्वसमाधिप्रत्याकार पूर्वक त्याग करता है असित्येण वा अलेवेण वा, अच्छेण वा, बहलेवेण वा, (करता हू)।पानी का (आगार)लेप, अलेप, अच्छ, बहलेप,ससिक्थ ससित्थेण वा असित्थेण वा वोरिसई (वोसिरामि)॥ तथा असिक्थ पूर्वक त्याग करता है( करता हूँ। ६.चउविहार-उपवास पच्चक्खाण सूत्र अर्थ सहित सूरे उग्गए (चोथ-अब्भत्तटुं) अब्भत्तटुं पच्चक्खाई| एकासणा/आयंबिल करनेवाले को चौथ-अब्भत्तट्ट कहना चाहिए) (पच्चकखामि) चउव्विहं पि आहारं असणं, पाणं, करता है (करता हूँ), उसमें चारों प्रकार के आहार का अर्थात् असन, खाईमं, साईमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पान, खादिम और स्वादिम का अनाभोग, सहसात्कार, पारिद्वावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्व-समाहि-पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार तथा सर्व-समाधि-प्रत्याकार पूर्वक वत्तियागारेणं वोसिरई (वोसिरामि) करता है (करता हू)। अर्थ : सूर्योदय से अगले दिन के सूर्योदय तक के (चौविहार-उपवास नहीं तोड़ना पड़ता है. सन्ध्याकाल में उपवास का पच्चक्खाण (उपवास के अगले दिन प्रतिक्रमण-देवदर्शन करते समय स्मरण हेतु दूसरी बार पच्चक्खाण एकासणा/ आयंबिल उपवास के पारणा के दिन भी लेने की विधिप्रचलित है। यदि भूल जाए तो दोष नहीं लगता है।) ७. छट्ठ-अट्ठम-आदि तिविहार उपवास पच्चक्खाण सूत्र अर्थ सहित सूरे उग्गए छट्ठभत्तं (बे उपवास)/ अट्ठमभत्तं(त्रण दिन के सूर्योदय तक सात उपवास/नौवें दिन के सूर्योदय तक आठ उपवास) / दसमभत्तं (चार उपवास) / द्वादशभत्तं (पांच उपवास (एक-एक दिन बढ़ाते हुए १६ उपवास तक एक साथ उपवास)/चतुर्दशभत्तं (छह उपवास)/ षोडश भत्तं (सात पच्चक्खाण लिया जा सकता है।) का पच्चक्खाण करता है उपवास) / अष्टादश भत्तं (आठ उपवास) / (करता ह.)। उसमें तीन प्रकार के आहार अर्थात् अशन, खादिम पच्चक्खाइ( पच्चक्खामि) तिविहंपि आहारं असणं खाइमं, तथा स्वादिम का अनाभोग, सहसात्कार, पारिष्ठापनिकाकार, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसाभोगारेणं, पारिट्ठा- महत्तराकार तथा सर्व-समाधि-प्रत्याकार पूर्वक करता है (करता हूँ वणियागारेणं महत्तरा-गारेणं, सव्व-समाहि-वत्तियागारेणं, ।), उसमें पानी का आहार एक प्रहर/डेढ प्रहर/दो प्रहर/तीन प्रहर पाणहार पोरिसिं, साढपोरिसिं सूरे उग्गए पुरिमा, अवहूं | मुट्ठिसहित प्रत्याख्यान का अनाभोग, सहसात्कार, प्रच्छन्नकाल, मुट्ठिसहिअं पच्क्खाइ( पच्चक्खामि) अन्नत्थाणाभोगेणं, दिग्मोह, साधुवचन, महत्तराकार तथा सर्वसमाधिप्रत्याकारपूर्वक सहसागारेणं, पच्छन्न-कालेणं, दिसामोहेण, साहुवयणेणं, त्याग करता है करता हूँ।)। अचित्त पानी का (आगार) लेप, महत्तरागारेणं, सव्व समाहि-वत्तियागारेणं, पाणस्स लेवेण अलेप, अच्छ, बहुलेप, ससिक्थ तथा असिक्थ पूर्वक त्याग करता है वा,अलेवेण वा, बहलेवेण वा,ससित्थेण वा,असित्थेण वा, (करता हू।)। वोसिरह( वोसिरामि)॥ (नोट: एक साथ एक से अधिक उपवास पच्चक्खाण लेने के ___अर्थ : सूर्योदय से लेकर तीसरे दिन सूर्योदय तक दो बाद दूसरे दिन पानी पीने से पहले 'पाणाहार पोरिसिं से वोसिरामि' उपवास/चौथे दिन के सूर्योदय तक तीन उपवास/पाचवें दिन तक का पच्चक्खाण अवश्य लेना चाहिए। यह पच्चक्खाण पारने के सूर्योदय तक चार उपवास/छठे दिन के सूर्योदय तक पाच का सूत्र एक उपवास में बतलाए गए सूत्र के अनुसार है। उसमें उपवास/सातवें दिन के सूर्योदय तक छहः उपवास/आठवें अब्भत्तटुंके बदले जितने उपवास किए हों वह बोलना जरूरी है। देशावगासिक पच्चक्खाण सूत्र अर्थ सहित देसावगासियं उवभोगं, परिभोगं पच्चक्खाइ (पच्चक्खामि) (नोटः सचित्तदव्वविगई.... इत्यादि १४ नियमों की धारणा अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्व-समाहि- करनेवाले सुबह-शाम यहपच्चक्खाण अवश्य लें) वत्तियागारेणं वोसिरह ( वोसिरामि)। lain Education Intematon १०९ ................... te & Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारणा-अभिग्रह पच्चक्खाण सूत्र अर्थ सहित धारणा अभिग्रहं पच्चक्खाइ ( पच्चक्खामि ) करता है ( करता हूँ)। उसका अनाभोग, सहसात्कार, महत्त अन्नत्थणा-भोगेणं, सहसा -गारेणं, महत्तरा-गारेणं, सर्वसमाधिप्रत्याकारपूर्वक त्याग करता है (करता हूँ) । सव्व-समाहि-वत्तियागारेणं वोसिरइ (वोसिरामि )। (नोट : विगई त्याग, द्रव्य संक्षेप, अनाचारों का त्याग, कर्मवश रात्रि में भोजन के बाद भोजन का त्याग आदि की धारणा कर पच्चक्खाण लेने के लिए यह सूत्र अत्यन्त उपयोगी तथा आवश्यक है ।) अर्थ : एक नियत समय की मर्यादा के लिए धारण किये गए अभिग्रह का पच्चक्खाण (प्रत्याख्यान) मुट्ठिसहिअ पच्चक्खाणं सूत्र अर्थ सहित मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाइ (पच्चक्खामि) अन्नत्था - भोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्व-समाहिवत्तियागारेण वोसिरइ (वोसिरामि ). अर्थ : मुट्ठिसहित प्रत्याख्यान करता है (करता हूँ) उसका अनाभोग, सहसात्कार, महत्तराकार तथा सर्वसमाधिप्रत्याकार पूर्वक त्याग करता है (करता हूँ । ) नोट : दिन भर में जब भी मुख शुद्ध हो तब यह पच्चक्खाण करना उचित है। पाणहार दिवस - चरिमं पच्चक्खाड़ (पच्चक्खामि ) अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि वत्तियागारेण वोसिरइ ( वोसिरामि)। अर्थ : दिन के शेष भाग से रात्रि-पर्यंत पानी नामक आहार का प्रत्याख्यान करता है ( करता हूँ)। उसका शाम के पच्चक्खाण ११ पाणाहार पच्चक्खाण सूत्र अर्थसहित दिवस- चरिमं पच्चक्खाइ ( पच्चक्खामि ), चडव्विहंपि आहारं असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्व-समाहि-वत्तियागारेणं वोसिरइ ( वोसिरामि ) | अर्थ : दिन के शेष भाग से संपूर्ण रात्रिपर्यंत पच्चक्खाण करता है (करता हूँ) । उसमें चारों ११० Jain Education Intern linnal मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाण पारने का सूत्र अर्थ सहित मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाण फासिअं, पालिअं, सोहिअं, तीरिअं, किट्टिअं, आराहिअं, जं च न आराहिअं तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥ अर्थ : मुट्ठीसहित प्रत्याख्यान मैंने स्पर्श किया है, पाला है, शोधन किया है, कीर्त्तन किया है, आराधना की है। उसमें जो आराधना नहीं हुई हो, वह मेरा पाप मिथ्या हो अर्थात् नष्ट हो । (नोट: मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाण पारने के लिए यह सूत्र कंठस्थ करना अत्यन्त आवश्यक है ।) १२ चउविहार पच्चक्खाण सूत्र अर्थ सहित दिवस चरिमं पच्चक्खाइ (पच्चक्खामि ) तिविहंपि आहारं असणं, खाइमं, साइमं, अन्नत्थाण-भोगेण, सहसा गारेणं, महत्तरा-गारेणं, सव्वसमाहि वत्तियागारेणं वोसिरइ (वोसिरामि) अनाभोग, सहसात्कार, महत्तराकार तथा सर्वसमाधिप्रत्याकार पूर्वक त्याग करता है (करता हूँ ) । (नोट : आयंबिल-एकासणा- नीवि या दूसरे बियासणा वाले आराधक सूर्यास्त से पहले तिविहार का पच्चक्खाण करने वाले भाग्यशालियों को यह पाणाहार- पच्चक्खाण करना चाहिए ।) प्रकार के आहार का अर्थात् अशन, पान, खादिम और स्वादिम का अना-भोग, सहसात्कार, महत्तराकार, सर्वसमाधिप्रत्याकार पूर्वक त्याग करता है (करता हूँ) । (नोट : ठाम चउविहार आयंबिल नीवि - एकासा तथा दूसरे बियासणावाले, तथा छूटेमुँहवाले चारों आहार के त्यागवाले सूर्यास्त के आसपास चारों आहार छोड़नेवाले यह प्रत्याख्यान करें ।) १३ तिविहार पच्चक्खाण सूत्र अर्थ सहित अर्थ : दिन के शेष भाग से संपूर्ण रात्रि-पर्यंत पच्चक्खाण करता है (करता हूँ)। उसमें तीनों प्रकार के आहार अर्थात् अशन, खादिम और स्वादिम का अना-भोग, सहसात्कार, महत्तराकार, सर्वसमाधिप्रत्याकार पूर्वक त्याग करता है ( करता हूँ) । (नोंध: आयंबिल - नीवि - एकासणा तथा दूसरा बीयासणा करके उठते समय तथा छूटेमुहवाले रात्रि दरम्यान पानी पीने की छूट रखनेवाले को यह पच्चक्खाण अवश्य करना चाहिए ।) १४ दुविहार पच्चक्खाण सूत्र अर्थ सहित दिवस- चरिमं पच्चक्खाइ ( पच्चक्खामि ) दुविहं पि आहारं असणं, खाइमं, अन्नत्थणा-भोगेणं, सहसा-गारेणं महत्तरा-गारेणं, सव्व-समाहि-वत्तियागारेणं वोसिरइ (वोसिरामि ) ॥ अर्थ : दिन के शेष भाग से संपूर्ण रात्रि-पर्यंत पच्चक्खाण करता है ( करता हूँ)। उसमें दो प्रकार के आहार अर्थात अशन और For Private - का अनाभोग, सहसात्कार, महत्तराकार, सर्वसमाधिप्रत्याकारपूर्वक त्याग करता हैं (करता हूँ) । (नोट : पूज्य गुरु भगवंत की अनुज्ञा प्राप्त करने के बाद यह पच्चकखाण लेनेवाले रात्रि दौरान समाधि में स्थिर रहने हेतु औषध और पानी दुःखार्त्त हृदय से ले सकते हैं ।) www.jainelit Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन दर्शन विधि • सुयोग्य वस्त्र पहनकर जिनमंदिर में सिर्फ दर्शन करने जाने वाले भाग्यवानों को विधि मुताबिक क्रमबद्ध द्रव्य पूजा और भाव पूजा करनी चाहिए । • • बर्मुडा हाफपेन्ट - नाईटी मेक्सी स्लीवलेस आदि उद्भटअनार्य वस्त्र पहनकर दर्शन करने नहीं जाना चाहिए । • स्कूल बेग-ओफीस बेग-कोस्मेटीक (शृंगार साधन ) पर्स मौजें (Socks), औषध व खाने-पीने की सामग्री लेकर नहीं जाना चाहिए । • मोबाईल आदि यांत्रिक साधनो का त्याग करना चाहिए । द्रव्य व भाव पूजा शायद यह शक्य न हो तो उसकी स्वीच ओफ (बंध) रखनी चाहिए । जोगींग आदि अंग कसरत (व्यायाम) से वस्त्र में ज्यादा पसीना हुआ हो, तो वैसी अवस्था में नहीं जाना चाहिए । जूठे मुह व मैले कपडे पहनकर नही जाना चाहिए । • परमात्म भक्ति मे उपयोगी सामग्री लेकर जिनमंदिर में दर्शनपूजा करने जाना चाहिए। खाली हाथ नहीं जाना चाहिए । घर से जिन मंदिर दर्शन करके वापस घर ही आना हो, तो चंपल-जूतों का त्याग करना चाहिए । क्रम बद्ध वर्णन का • • दूरी से जिनमंदिर की ध्वजा या कोई भी भाग देखते ही, उसके सन्मुख दृष्टि रखकर दो हाथ जोडकर 'नमो जिणाणं' बोलना चाहिए । • • • मुख व पैरों की शुद्धि करने के पश्चात् ही जिनमंदिर के प्रवेशद्वार में प्रवेश करना चाहिए। • • जिनमंदिर के परिसर में प्रवेश करते ही सांसारिक चिंता के त्याग स्वरुप 'प्रथम- निसीहि' बोलनी चाहिए । ( निसीहि = निषेध ) । फिर तिलक करके प्रवेश करें। • गर्भगृह के बहार रंग मंडप में खडें रहकर प्रभुजी के दर्शन कर हृदय में स्थापित करें। • • स्वद्रव्य से पूजा करने की भावना होते हुए भी जिनमंदिर में वह सामग्री लाने में असमर्थ आराधकों को शक्ति अनुसार कुछ नगद रुपये भंडार में भरने के बाद मंदिर की सामग्री का उपयोग करना चाहिए । • भाईयों और बहनों को प्रभुजी की बांई ओर खड़े रहकर धूपकाठी / धूपदानी हृदय के नजदीक स्थिर रखकर धूपपूजा करनी चाहिए । • भाईयों को दाहिनी तरफ और बहनों को बांई ओर खड़े रहकर फानूस युक्त दीपक को प्रदक्षिणाकार नाभि से उपर और नासिका से नीचे रखकर दीपक पूजा करनी चाहिए । • प्रभुजी के दाहिनी ओर से जयणा पालन पूर्वक 'काल अनादि अनंतथी....' दूहा बोलते हुए तीन प्रदक्षिणा देनी चाहिए । • • उसके पश्चात् मूलनायक प्रभुजी समक्ष आते ही 'नमो जिणाणं' बोलकर मंदिर संबंधित चिंता के त्याग स्वरूप 'दूसरी निसीहि' बोलनी चाहिए। • प्रभुजी के दाहिनी ओर भाईयों और बांई ओर बहनों को एक तरफ खडें रहकर भाववाही स्तुतियाँ अन्यों को अन्तरायभूत न हो, वैसे एकी संख्या में बोलनी चाहिए । • स्वद्रव्य से अग्र पूजा करने की भावना वालो को धूप व दीपक प्रगट करना चाहिए। • • भाईयों को दाहिनी तरफ और बहनों बांई ओर खड़े रहकर दर्पण को हृदय की बांई ओर स्थापित कर उसमे प्रभुजी का दर्शन होते ही सेवकभाव से पंखे को ढालना चाहिए। भाईयों को दाहिनी तरफ और बहनो बांई ओर खड़े रहकर चामर नृत्य करना चाहिए । आरती मंगलदीपक या शांतिकलश मंदिर में चलता हो, तो उसमें यथाशक्ति समय का योगदान देना चाहिए। मध्याह्न काल की पूजा के मुताबिक अक्षत - नैवेध - फल पूजा अनुक्रम से करनी चाहिए । • हाथ रुमाल से या सुयोग्य वस्त्र से तीन बार भूमि प्रमार्जना करके द्रव्य - पूजा के त्याग स्वरूप 'तीसरी निसीहि' बोलनी चाहिए । ईरियावहियं सहित चैत्यवंदन करके पच्चक्खाण लेकर एक खमासमण देकर 'जिन - भक्ति करते समय मुझसे जो कुछ भी अविधि- आशातना हुइ हो, तो मन-वचन काया से मिच्छा मि दुक्कड' मुठ्ठी लगाकर बोलना चाहिए । जिनमंदिर से बाहर निकलते समय प्रभुजी को अपनी पीठ न दिखे, वैसे बाहर निकलते हुए घंट के पास आना चाहिए । बाए हाथ को हृदय के मध्यस्थान पर स्थापन कर दाहिने हाथ से तीन बार घंटनाद करना चाहिए। जिनमंदिर के चबूतरे के पास आकर, वहाँ बैठकर प्रभुजी की भक्ति से उत्पन्न हुए आनंद को बार-बार याद करना और प्रभुजी का अब विरह होगा, ऐसी हृदय द्रावक अपरंपार वेदना का अनुभव करते हुए, उपाश्रय की ओर निर्गमन करना चाहिए । उपाश्रय में पूज्य गुरुभगवंतों को गुरुवंदन करके यथाशक्ति पच्चक्खाण लेना चाहिए । • विशेष सूचना : सुबह से दोपहर तक प्रभुजी के दर्शन करने वाले महानुभावों को उपर्युक्त सभी क्रियाएं करनी चाहिए । शाम को या सूर्यास्त के बाद दर्शन करने जाने वाले महानुभावों को केशर तिलक, तीन प्रदक्षिणा, घंटनाद, दर्पण - अक्षत - नैवेध - फल पूजा को छोडकर सभी क्रियाएँ करनी चाहिए । 999 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिकाल 'पूजा- -विधि (१) प्रातः काल की पूजा : रात्रि-संबंधित पापों का नाश करती है। स्वच्छ सूती वस्त्र (सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण में उपयोग किये जाने वाले वस्त्रों के अतिरिक) धारण करना चाहिए। दो हाथ + दो पैर + मुख = ५ अंगों की सचित निर्मल जल से शुद्धि करनी चाहिए । स्वच्छ थाली मे धूप के साथ धूपदानी, फानूस युक्त दीपक, अखंड चावल, रसवंती मिठाई, ऋतु के मुताबिक उत्तम फल, वास (क्षेप) चूर्ण को रखने के लिए सोना-चांदी या तांबे - पीतल की डिब्बी, सुगंधित द्रव्यों से सुवासित वास (क्षेप) चूर्ण और वासचूर्ण को पूजा के समय संग्रहित करने के लिए एक चांदी की कटोरी ग्रहण करें। जिनमंदिर के परिसर में प्रवेश करने के पूर्व अल्प जल से पाँवों के तलवों की शुद्धि करे। परिसर में प्रवेश करते ही 'प्रथम निसीहि' बोले । प्रभुजी का मुख दर्शन होते ही अर्ध-अवनत होकर 'नमो जिणाणं' बोले । प्रभुजी को अति बारीकाई से निरीक्षण करके अपने हृदय में स्थापित करके जयणा पूर्वक तीन प्रदक्षिणा देनी चाहिए । मूलनायक प्रभुजी के सन्मुख आते ही भाववाही स्तुतियाँ बोलनी चाहिए । प्रभुजी के दर्शन न हो, ऐसे स्थल पर जाकर आठ पडवाला मुख-कोश बांधकर वासपूर्ण डिब्बी में से चांदी की कटोरी में वासचूर्ण जरुर मुताबिक ग्रहण करे । अपने वस्त्र के स्पर्श से अशुद्ध हुए हाथों को शुद्ध जल से स्वच्छ कर गर्भगृह के पास आना चाहिए। दोनों हाथों में सिर्फ वास चूर्ण की कटोरी व थाली ग्रहण कर अंदर प्रवेश करे । उस समय 'दुसरी - निसीहि' बोलनी चाहिए । प्रभुजी के पबासन से कुछ दूर और यथोचित अंतर रखकर खड़े रहें । अंगुष्ठ और अनामिका ऊंगली के सहारे वासचूर्ण को लेकर प्रभुजी को स्पर्श किये बिना (पूजा के वस्त्र हो तो भी) अंगों से थोडी सी दूरी से वासचूर्ण पूजा करे। वासचूर्ण पूजा करते समय उसको छिडकना या जल्दी से एक साथ सभी अंगो में करना, यह एक प्रकार का अनादर है । बहुत धीरज से व बहुमान भावपूर्वक पूजा करनी चाहिए । वासचूर्ण पूजा करने के बाद या पहले अपने हाथों से प्रभुजी के अंगों पर से वासचूर्ण अपने मस्तक पर डालना, यह घोर आशातना है। प्रभुजी का स्पर्श भी नही करना चाहिए । वासचूर्ण पूजा करने के पश्चात् प्रभुजी को अपनी पीठ न दिखें, वैसे गर्भगृह से बहार निकलना चाहिए। बाद में रंगमंडप में आकर भाईओं व बहनों को प्रभुजी की बांई ओर खड़े-खडे धूपदानी या धूपकाठी को हृदय के नजदीक स्थिर रखकर धूप पूजा करनी चाहिए । फिर प्रभुजी के दाहिनी ओर भाई और बांई ओर बहनों को खड़े-खडे प्रदक्षिणाकार से दीपक पूजा करनी चाहिए । धूप या दीपक पूजा करते समय थाली में धूप या Ja Pocation Internationa For Privat दीपक ही रखना चाहिए, मगर दोनों एक साथ नही रखने चाहिए । बाद में पाट पर अक्षत - नैवेद्य व फल पूजा ( इसक विस्तृत वर्णन मध्याह्नकाल की पूजा में बताया गया है। करनी चाहिए । फिर तीन बार दुपट्टा से भूमि प्रमार्जना कर अंग व अग्र पूजा स्वरुप द्रव्य पूजा से भाव पूजा में प्रवि होने के लिए तीसरी निसीहि बोलनी चाहिए । उसके बा ईरियावहियं करके चैत्यवंदन करना चाहिए । अन्त यथाशक्ति पच्चक्खाण लेना चाहिए। जिनमंदिर से उपाश्रय जाकर पूज्य गुरुभगवंतों क गुरुवंदन करके उनसे पच्चक्खाण लेना चाहिए । प गुरु भगवंत को गोचरी-पानी के लिए विनति करके अपन पीठ न दिखे, वैसे उपाश्रय से निर्गमन करना चाहिए। विशेष सूचना : राइअ प्रतिक्रमण करने से पहले मंदि नहीं जाना चाहिए। मंदिर जाने के बाद राइअ प्रतिक्रमण नह करना चाहिए । प्रात: काल की पूजा का समय अरुणोद से मध्याह्न को १२.०० बजे तक । (२) मध्याह्नकाल की पूजा : इस भव के पापों का ना करती है । जिन पूजा-विधि में इस पूजा का विस्तृत वर्ण किया गया है । यह अष्ट प्रकारी पूजा दोपहर के भोजन पहले पुरिमड्ड पच्चक्खाण के आस-पास करने का विधान है (३) सायंकाल की पूजा :- सात भव के पापों का ना करती है । सूर्यास्त से पहले शाम का भोजन लेने के बाद पानी पी लेने के बाद स्वच्छ सूती वस्त्र धारण करने चाहिए स्वच्छ थाली मे धूपकाठी व धूपदानी और फानूस युक्त दीप लेकर जिनमंदिर जाना चाहिए । परिसर मे प्रवेश करते 'पहली - निसीहि' बोलनी चाहिए। मुख दर्शन होते ही अध अवनत होकर 'नमो जिणाणं' बोलना चाहिए। सूर्यास्त के ब जयणा पालन मुश्किल होने से प्रदक्षिणा नहीं देनी चाहिए प्रभु के समक्ष खड़े रहकर भाववाही स्तुतियाँ बोलनी चाहिए फिर 'दूसरी- निसीहि' बोलकर प्रातःकाल की पूजा तरह ही अनुक्रम से धूप पूजा व दीपक पूजा करनी चाहिए उसके बाद तीन बार भूमि प्रमार्जना खेस (दुपट्टा ) से कर 'तीसरी - निसीहि' बोलकर ईरियावहियं सहित चैत्यवन्दन कर चाहिए । सांयकालीन पच्चक्खाण लेकर अपनी पीठ प्रभु को न दिखे, वैसे बहार निकलकर उपाश्रय की ओर जा चाहिए । सूर्यास्त के बाद घंटनाद करना उचित नहीं है उपाश्रय में पूज्य गुरुभगवंत को गुरुवंदन करके पच्चक्खा लेकर सायंकालीन देवसिअ आदि प्रतिक्रमण करना चाहिए ( देवसिअ आदि सायंकालीन प्रतिक्रमण से पहले ही यह पू की जाती है।) www Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन-पूजा विधि (मध्याह्नकाल की पूजा) स्वार्थमय संसार से मुक्ति पाने एवं निःस्वार्थ प्रभु की शरण में जाने हेतु . शरीर-वस्त्र व अन्य किसी का भी स्पर्श न हो, मन में भावना करनी चाहिए। इस प्रकार ध्यानपूर्वक पूजा की सामग्री के साथ स्नान के मन्त्र बोलते हुए उचित दिशा में बैठकर जयणापूर्वक स्नान करे।। गर्भद्वार के पास जाना चाहिए। वस्त्र से सम्बन्धित मन्त्रों का उच्चारण करते हुए धूप से सुवासित अत्यन्त गर्भद्वार में दाहिने पैर से प्रवेश करते हुए आधा स्वच्छ वस्त्र, स्वच्छ ऊनी शाल पर खड़े होकर धारण करना चाहिए। शरीर झुककर दूसरी बार तीन बार निसीहि द्रव्यशुद्धि के मन्त्रों से पवित्र किए हुए न्यायोचित वैभव से प्राप्त बोलना चाहिए। अष्टप्रकारी पूजा की सामग्री नाभि से ऊपर रहे, इस प्रकार ग्रहण करे। मृदु-कोमल हाथों से प्रभुजी को चढाये गये दूर से जिनालय के शिखर, ध्वजा अथवा अन्य किसी भाग के दर्शन बासी फूल , हार, मुकुट, कुंडल, बाजूबंद, होते ही मस्तक झुकाकर'नमो जिणाणं बोलना चाहिए। चांदी की आंगी आदि उतारना चाहिए। ईर्यासमिति का पालन करते हुए प्रभु के गुणों का हृदय से स्मरण करते फिर भी कहीं-कहीं रह गए निर्माल्य को दूर हुए मौन धारण कर जिनालय की ओर प्रस्थान करना चाहिए। करने के लिए कोमल हाथों से मोरपिच्छ मंदिर के मुख्य प्रवेशद्वार पर प्रवेश करने से पहले तीन बार निसीहि बोले। फिराना चाहिए। मूलनायक भगवान का दर्शन कर 'नमो जिणाणं' कहकर चंदन-घर में पबासन में एकत्रित निर्माल्य को दूर करने के जाना चाहिए। लिए स्वच्छ पूंजणी का उपयोग करना चाहिए। सिलबट्टे, चंदन व कटोरी को धूप से सुगन्धित करे। गर्भद्वार के फर्श को साफ करने के लिए लोहे अष्टपड मुखकोष बांधने के बाद ही केसर-चन्दन घिसने के लिए के तारों से रहित झाडू का जयणापूर्वक उपयोग सिलबट्टे को स्पर्श करना चाहिए। करना चाहिए। केसर-अंबर-कस्तूरी-चन्दन मिश्रित एक कटोरी तथा कपूर चन्दन की शुद्ध पानी की बाल्टी में से कलश भरके उससे एक कटोरी घिसना चाहिए। चन्दन आदि को गीला कर दूर करना चाहिए। तिलक करने के लिए एक छोटी कटोरी में अथवा स्वच्छ हथेली में केसर विशेष शुद्धि के लिए तथा बासी चन्दन को दूर मिश्रित चन्दन लेकर मस्तक आदि अंगो में तिलक करना चाहिए। करने के लिए यदि आवश्यक हो तो कोमलता पूजा के लिए उपयोगी सारी सामग्री हाथ में लेकर मूलनायक भगवान के । पूर्वक वाला-कूची का प्रयोग करना चाहिए। समक्ष जाकर 'नमो जिणाणं बोलना चाहिए। सादा पानी आदि के द्वारा एकत्रित निर्माल्य को • मूलनायक भगवान की दाहिनी ओर जयणापूर्वक सामग्री के साथ तीन पबासन पर हाथ फिराकर छेद की तरफ ले जाना चाहिए। प्रदक्षिणा करनी चाहिए। गर्भद्वार के बाहर जाकर अस्वच्छ हाथों को • प्रभु के सामने आधा झुककर योग मुद्रा में भाववाही स्तुतियाँ मन्द स्वर में जयणा पूर्वक स्वच्छ कर धूप से सुगन्धित करना बोलनी चाहिए। चाहिए। पूजा की सामग्री, दोनों हथेली तथा मुखकोश वस्त्र को धूप से सुगन्धित पंचामृत को सुगन्धित कर कलश में भरकर करना चाहिए। मौन पूर्वक मस्तक से प्रक्षाल करना चाहिए। जहां से प्रभुजी दिखाई न दें, वहाँ जाकर अष्टपड मुखकोश बांधकर शुद्ध पानी को भी सुगन्धित कलश में भरकर स्वच्छ जल से दोनों हाथ धोना चाहिए। मौनपूर्वक मस्तक से प्रक्षाल करना चाहिए। |११३ www.jane brary.org Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभ के अंग पोंछने वाले महानुभाव को शुद्ध जल से प्रक्षाल करते चाहिए । दर्पण में प्रभुजी के दर्शन होते ही पंखा समय प्रभुजी के सर्वांग को कोमलता से स्पर्श करना चाहिए। डुलाना चाहिए। शरीर-वस्त्र-पबासन-नाखून-पसीना आदि के स्पर्श दोष से • शुद्ध तथा अखंड अक्षत से अष्टमंगल/ नंदावर्त/ बचते हुए कोमलता पूर्वक प्रभुजी के अंगों को अंग-लंछन से स्वस्तिक का आलेखन मन्त्रोच्चार पूर्वक करना चाहिए। पौंछना चाहिए। अक्षत से दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्रतिकृति तथा उसके अंग-लुंछन करने से पहले पबासन को साफ करने के लिए ऊपर सिद्धशिला का आलेखन करना चाहिए। 'पाटपौंछना' का प्रयोग, इस प्रकार करना चाहिए कि भगवान मन्त्रोच्चार करते हुए सुमधुर मिठाईयों के थाल से को स्पर्श न करें। स्वस्तिक के ऊपर नैवेद्य चढ़ाना चाहिए। पबासन के सिवाय गर्भगृह के फर्श को जमीन-पौंछने से साफ ऋतु के अनुसार उत्तम फलों के थाल में से मन्त्रोच्चार करना चाहिए। करते हुए सिद्धशिला के उपर फल चढ़ाना चाहिए। • अंग-पौंछना, पाट-पौंछना तथा जमीन-पौंछना का परस्पर स्पर्श अंगपूजा तथा अग्रपूजा की समाप्ति के रूप में तीसरी कभी नहीं करना चाहिए। बार तीन बार निसीहि बोलना चाहिए। तीन बार अंग-लुंछना करने के बाद दशांगधूप के द्वारा भगवान एक खमासमण देकर ईरियावहियं... से लोगस्स तक को सुवासित करना चाहिए। उच्चारण कर तीन बार खमासमण देना चाहिए। • कपूर-चन्दन मिश्रित कटोरी में से पाँचों ऊँगलियों से प्रभुजी के योगमुद्रा में भाववाही चैत्यवन्दन करते हुए भगवान अंगों में मौन का पालन करते हुए चन्दन पूजा करनी चाहिए। की तीन अवस्थाओं का स्मरण करना चाहिए। • सुयोग्य तथा स्वच्छ वस्त्र से भगवान के सर्वांग को कोमलता शास्त्रीय रागों के अनुसार प्रभुगुणगान तथा स्वदोष पूर्वक विलेपन पूजा के बाद पौंछना चाहिए। गर्भित बातें स्तवन के द्वारा प्रगट करनी चाहिए। मौनपूर्वक मन ही मन दोहा बोलते हुए केशर-चन्दन-कस्तूरी इसके बाद धीरे-धीरे भगवान की ओर अपनी पीठ न मिश्रित चन्दन से प्रभुजी के नव अंगों में पूजा करनी चाहिए। हो, इस प्रकार बाहर निकलते हुए घंटानाद करना शुद्ध, अखंड तथा सुगन्धित पुष्प व पुष्पमाल से मौनपूर्वक मन चाहिए। ही मन मन्त्रोच्चार करते हुए पुष्पपूजा करनी चाहिए। मंदिर के बरामदे में पहुंचकर प्रभुजी की भक्ति के दशांग आदि उत्तम द्रव्यों के द्वारा गर्भगृह के बाहर बाई ओर आनन्द का स्मरण करना चाहिए। मन्त्रोच्चारपूर्वक धूपपूजा करनी चाहिए। प्रभुजी की भक्ति का आनन्द तथा प्रभुजी के विरह का शुद्ध घी तथा रूई की बाती से पुरुषों को प्रभु की दाहिनी ओर विषाद साथ रखकर जयणापूर्वक घर की ओर तथा स्त्रियों को बाई ओर खड़े होकर मन्त्रोच्चार पूर्वक दीपपूजा प्रस्थान करना चाहिए। करनी चाहिए। पू. साधु-साध्वीजी भगवंत तथा पौषधार्थी स्त्री-पुरुष • नृत्य के साथ चामर-पूजा तथा शुभ भाव से दर्पण पूजा करनी ही निकलते हुए 'आवस्सही' का उच्चारण करें। मंदिर में ले जाने योग्य सामग्री निम्नस्तरीय वस्तुए प्रभु के * सोना-चांदी-पित्तल अथवा चन्दन की डिब्बी * सोने-चांदी अथवा समक्ष नहीं ले जानी चाहिए पित्तल की थाली* तीन कलश ऊपरसे ढके हुए तथा एक वृषभाकारकलश * शुद्ध बिस्कुट, पिपरमिन्ट, चॉकलेट, केशर-कपूर-अंबर-कस्तूरी * गाय का दूध * कुएँ का अथवा बरसात का शुद्ध जल अभक्ष्य मिठाई,जामुन, बेर जैसे अभक्ष्य * न्हवण के लिए 'गाय का घी-दूध-दही, शक्कर-पानी' * सुगन्धित फूलों की फल, सुगंध से रहित अथवा खंडित फूल, डलीया (छाबडी)* सोने तथा चांदी के बरख* शुद्ध रेशम के पक्के रंग के पान-मसाला, व्यसन-उत्तेजक वस्तु, डार/लच्छा* सुगान्धत धूप* गाय का शुद्ध घा तथा रूइ का बाता फ़ानूस युक्त दवा-औषध अथवा पूजा में उपयोगी नहीं दीपक के साथ * दो सुन्दरचामर * आईना * पंखा * अखंड चावल * स्वादिष्ट हो, ऐसी वस्तुएं, खाने-पीने की अथवा मिठाईया * ऋतु के अनुसार स्वादिष्ट उत्तम फल * एक पाटपौंछना * भगवान को शृंगारकी वस्तुए (Cosmatic Items), बिराजमान करने के लिए योग्य थाली* सोने-चांदी के सिक्के अथवा रुपये * सुन्दर अथवा अन्य तुच्छ सामग्री मंदिर में नहीं ले घण्टिया * गम्भीरस्वरों से युक्त शंख * पित्तल अथवा चांदी की डिब्बी में घी-दूध- जानी चाहिए। ले जाने से अविनय का पानी (पैरधोने के लिए लोटे में पानी)।इसके अतिरिक्त परमात्मा की भक्ति में उपयोगी दोष लगता है। यदि भूल से मंदिर में ले गए वस्तुएँ प्लास्टिक, लोहे अथवा अलुमिनम के सिवाय अन्य धातु के बर्तन में ले जाना हों तो उन वस्तुओं को स्वयं के लिए चाहिए। प्रभुभक्ति के साधनों का उपयोग स्वयं के लिए करने से देवद्रव्य के भक्षण का उपयोग में लाने से पहले प.पू.गुरु भगवंत महानदोष लगता है। बटवेका उपयोग टालना चाहिए। के पास आलोचनालेनी चाहिए। - - - ----------- , Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँच प्रकार के अभिगम (विनय) १. सचित्त त्याग : प्रभुभक्ति में उपयोग में न आए, ऐसी खाने-पीने की सचित्त वस्तुओं का त्याग। २. अचित्त अत्याग : निर्जीव वस्त्र-अलंकार आदि तथा प्रभु-भक्ति में उपयोगी वस्तुओं का त्याग नहीं करना । ३. उत्तरासन : दोनों छोर सहित एक परत वाला स्वच्छ चादर धारण करना चाहिए। ४. अंजलि : प्रभुजी के दर्शन होते ही दोनों हाथों को जोड़कर अंजलि करनी चाहिए। 1-.-- एकाग्रता : मन की एकाग्रता बनाए रखनी चाहिए। दश-त्रिक (दस प्रकार से तीन-तीन वस्तुओं का पालन) १. निसीहि त्रिक: पहली निसीहि - मंदिर के मुख्य दरवाजे में प्रवेश करते समय संसार के त्याग स्वरूप । दूसरी निसीहि गर्भगृह में प्रवेश करते समय जिनालय से सम्बन्धित त्याग स्वरूप। तीसरी निसीहि चैत्यवन्दन प्रारम्भ करने से पूर्व द्रव्यपूजा के त्याग स्वरूप । २. प्रदक्षिणा त्रिक: प्रभुजी के दर्शन-पूजन करने से पहले सम्पूर्ण जिनालय को/मूलनायक भगवान को/ त्रिगडे में स्थापित भगवान को सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति के लिए 'काल अनादि अनंत थी...'दोहा बोलते हुए तीन प्रदक्षिणा देनी। ३. प्रणाम त्रिक (१) अंजलिबद्ध प्रणाम : जिनालय के शिखर का दर्शन होते ही दोनों हाथों को जोड़कर मस्तक पर लगाना चाहिए। (२) अर्द्ध अवनत प्रणाम : गर्भद्वार के पास पहुंचते ही दोनों हाथों को जोड़कर मस्तक पर लगाकर आधा झुक जाना चाहिए। (३) पंचांग-प्रणिपात प्रणाम : खमासमण देते समय पांचों अंगों को विधिवत् झुकाना चाहिए। ४. पूजा त्रिक (१) अंग पूजा : प्रभुजी के स्पर्श करके होनेवाली पक्षाल, चंदन, केसर तथा पूष्प पूजा। (२) अग्र पूजा : प्रभुजी के आगे खड़े होकर की जानेवाली धूप, दीप, चामर, दर्पण, अक्षत, नैवेद्य, फल तथा घंट पूजा। (३) भाव पूजा : प्रभुजी की स्तवना स्वरूप चैत्यवन्दन आदि करना। (नोट : अन्य प्रकार से भी पूजा त्रिक होती है। पाँच प्रकारी पूजा : चंदन, पुष्प, धूप, दीप तथा अक्षत पूजा। अष्ट प्रकारी पूजा : न्हवण, चंदन, पुष्प, धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य तथा फल पूजा। सर्वप्रकारी पूजा : उत्तम वस्तुओं के द्वारा प्रभुजी की विशिष्ट भक्ति करना। ५. अवस्था त्रिक (१)पिंडस्थ अवस्था : प्रभुजी की समकित प्राप्ति से अन्तिम भव युवराज पद तक की अवस्था का चिंतन करना। (२) पदस्थ अवस्था : प्रभुजी के अन्तिम भव में राज्यावस्था से केवली अवस्था तक का चिंतन करना। (३)रूपातीत अवस्था : प्रभुजी के अष्टकर्म नाश के द्वारा प्राप्त सिद्धावस्था का चिंतन करना। (नोट : प्रक्षाल तथा द्रव्य पूजा के द्वारा प्रभुजी की अवस्था का भावन) (१) जन्म-अवस्था : प्रक्षाल। (२) राज्य-अवस्था : चन्दन, पुष्प, अलंकार, आंगी। (३) श्रमण-अवस्था : केश रहित मस्तक, मुख देखकर भाव से तथा आठ प्रातिहार्य द्वारा प्रभुजी की केवली अवस्था के भाव से तथा प्रभुजी को पर्यंकासन में काउस्सग्ग मुद्रा में देखते हुए सिद्धावस्था की भावना । cation interat Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. तीन दिशाओं के निरीक्षण त्याग स्वरूप दिशि त्याग त्रिक: प्रभुजी के सम्मुख स्थापित दृष्टि से युक्त होकर तथा अपने पीछे, दाहिनी तथा बाई दिशा में देखने का त्याग करना। ७. प्रमार्जना त्रिक : प्रभुजी की भावपूजा स्वरूप चैत्यवन्दन प्रारम्भ करने से पहले भूमि का तीन बार प्रमार्जन करना। ८. आलंबन त्रिक (१) सूत्र (वर्ण) आलंबन : अक्षर पद-सम्पदा व्यवस्थित बोलना। (२) अर्थ-आलंबन : सूत्रों के अर्थ हृदय में विचारना। (३) प्रतिमा-आलंबन : जिन प्रतिमा अथवा भाव अरिहन्त के स्वरूप का आलंबन करना। ९. मुद्रा त्रिकः (१) योगमुद्रा : दोनों हाथों की ऊंगलियों को परस्पर जोड़ना। (२) जिनमुद्रा : जिनेश्वर की भांति कायोत्सर्ग की मुद्रा । (३) मुक्ताशुक्ति मुद्रा : मोती के शीप के समान आकृति करना । १०. प्रणिधान त्रिक: : 'जावंति चेइआई'सूत्र के द्वारा चैत्यों की स्तवना । (२) मुनिवन्दन प्रणिधान : 'जावंत केवि साहू' सूत्र के द्वारा मुनि भगवंतों की वन्दना। (३) प्रभु-प्रार्थना प्रणिधान : 'जय वीयराय' सूत्र के द्वारा प्रभुजी को प्रार्थना करना। (नोट : मन की स्थिरता, वचन की स्थिरता तथा काया की स्थिरता स्वरूप तीन प्रणिधान भी कहलाते हैं।) स्नान करने की विधि सुगन्धित तेल तथा आमला आदि के चूर्ण को एकत्र कर विधिपूर्वक तेलमर्दन (मालिश) आदि प्रक्रिया कर स्वस्थ बनना। उसके बाद पूर्व दिशा के सामने बैठकर अपने नीचे पित्तल आदि का कठौता (थाल ) रखकरदोनों हाथों को अंजलिबद्ध करस्नान के मन्त्र बोलने चाहिए। ॥ॐ अमले विमले सर्व तीर्थ जले पा पा वा वा अशुचिःशुचीर्भवामि स्वाहा ॥ अंजलि में सर्व तीर्थों का जल है, ऐसा विचार कर ललाट से लेकर पैरों के तलवे तक मैं स्नान करता हू, ऐसा सोचना । यह क्रिया मात्र एक बार करनी चाहिए। उसके बाद थोडे स्वच्छसुगंधित द्रव्यों से मिश्रित निर्मल सचित्त जल से स्नान करना चाहिए।स्नान में प्रयुक्त जलगटरआदि में नहीं जाना चाहिए।स्नान करने के बाद अतिस्वच्छ तौलिये से शरीर पौंछना चाहिए।(मूल विधि के अनुसार स्नान करने के बाद शरीरपौंछने की विधि नहीं है. मात्र पानी गारना होता है।) स्नान विधि पूजा के कपड़े पहनने की विधि • दशांगादि धूप से सुवासित शुद्ध रेशम के पूजा के वस्त्र तहोंवाला मुखकोश बांधा जा सके, वैसा होना चाहिए। पहनने चाहिए। प्रभुजी की भक्ति करने जाते समय वैभव के अनुसार दसों धोती पहनते समय गांठ नहीं बांधनी चाहिए। यह विधि ऊँगलियों में अंगूठियाँ होनी चाहिए । उसमें अनामिका तोकिसी योग्य भाग्यशाली के पास सीख लेनी चाहिए। अलंकृत होनी ही चाहिए। • धोती को आगे तथा पीछे व्यवस्थित रूप से पहनना • वीरवलय-बाजूबंद-नौ सेर सोने का हार, मुकुट आदि अलंकार चाहिए। पहनने चाहिए। • धोती के ऊपर सोने-चांदी अथवा पित्तल का . स्त्रियों को भी सोलह शृंगार सजकर रूमाल सहित चार वस्त्र कमरबन्ध अवश्य पहनना चाहिए। पहनने चाहिए। • दुपट्टा के दोनों छोरों में प्रमार्जन हेतु उपयोगी रेशम के • स्त्रियों को आर्य मर्यादा के अनुकूल सुयोग्य वस्त्र पहनने डोरेवाली किनारी अवश्य रखनी चाहिए। चाहिए । शिर हमेंशा ढंके रहना चाहिए। • दुपट्टा पहनते समय दाहिना कंधा खुला रखना चाहिए। . स्त्रियों के पजा का रुमाल छोटा नहीं बल्कि स्कार्फ के समान स्त्रियों की भांति दोनों कंधे नहीं ढंकने चाहिए। बड़ा होना चाहिए। • दुपट्टा लम्बाई तथा चौड़ाई में पर्याप्त तथा आठ • पुरुषों को पूजा में सिलाई रहित अखंड, स्वच्छ तथा निर्मल ११६ laim t onal CRAFSPate only wwwija nelibra v.org Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से गांठ लगाए बिना धोती पहेनें । कमरबन्ध पहनना जरुरी हैं। पूजा के वस्त्र स्वयं के ही पहनने चाहिए । पुरुषों को कुर्ता-पायजामा, गंजी- शाल, पेन्ट-शर्ट, टी-शर्ट आदि पहनकर पूजा : नहीं करनी चाहिए। दो वस्त्र पहनना चाहिए। • पूजा के वस्त्रों से नाक, पसीना, मैल आदि साफ करने जैसे अपवित्र कार्य नहीं करना चाहिए । • पूजा के वस्त्रों का प्रयोग मात्र पूजा के लिए ही करना चाहिए । सामायिक आदि में इनका प्रयोग नहीं करना चाहिए । • पूजा के वस्त्र प्रतिदिन स्वच्छ निर्मल जल से धोने चाहिए । बिना धुला हुआ वस्त्र नहीं पहनना चाहिए । पीना, अशुचि कर्म, लघुनीति आदि भी नहीं करनी चाहिए । यदि ऐसा हो जाए तो उन वस्त्रों को पूजा में नहीं पहनना !• चाहिए । उसके बाद विधिपूर्वक वस्त्र पहनना चाहिए । अपने वैभव तथा शानो शौकत के अनुसार आडंबर - पूर्वक ऋद्धि के साथ सुयोग्य नयन रम्य पूजा की सामग्री लेकर ही मंदिर जाना चाहिए । दर्शन करने जाने वाले को भी सुयोग्य सामग्री साथ में रखनी चाहिए । अपने घर से लाए हुए लोटे के जल से खुली जगह में पैर धोने चाहिए । संस्था में रखे हुए पाणी से पैर धोने से पहले 'जमीन जीव-जंतु के • पूजा के वस्त्रों में कुछ भी खानाअलग से रखनी चाहिए। गर्भगृह प्रवेश पूर्व उसका भी त्याग करना । घर से स्नान कर सामान्य वस्त्र पहनकर मंदिर आकर पुन: स्नान किए बिना पूजा : के कपड़े पहनकर पूजा करने से दोष लगता है । इस तरह आगे की ओर पहनें । जयणा पालन के साथ मंदिर की ओर गमन । पूजा करने जाते समय घड़ी, चाबी, टोकन आदि कुछ भी साथ में नहीं रखना चाहिए । जाड़े (ठंडी ) के दिनों में सिले हुए वस्त्र पहनने के बदले गर्म शाल की व्यवस्था • व्यस्त दिनचर्या के कारण मोबाईल के ऊपर हाथ फिराना चाहिए । जयणा-पूर्वक पैरों का शुद्धिकरण । इस तरह पीछे की ओर पहनें । आदि दर्शन करने जाते समय यदि रखना पड़े तो स्वीच ऑफ रखना चाहिए । पूजा के वस्त्र अनेक प्रकार से लाभदायी होने के कारण शुद्ध १००% सिल्क (रेशम) के वस्त्रों का ही प्रयोग करना चाहिए । पूजा के वस्त्र पहनते समय 'ॐ ह्रीँ आँ नमः ' यह मन्त्र बोलकर वस्त्र • से रहित है या नहीं' इस बात का निश्चय कर लेना चाहिए । • पैरों को धोते समय एक पैर के पंजे को दूसरे पैर के पंजे पर कभी नहीं घिसना चाहिए। ऐसा करने से अपयश फैलता है। • पैर धोया हुआ पाणी गटरनिगोद आदि में नहीं जाना चाहिए । @ थोड़े से पाणी का ही पर्याप्त उपयोग करना चाहिए । • जयणापूर्वक की गई सारी क्रियाएँ कर्म - निर्जरा में सहायक बनती हैं। www. ११७ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंदिर में प्रवेश करते समय की विधि • पूजा की सामग्री के साथ मंदिर में प्रवेश करते समय प्रभुजी की दृष्टि पड़ते ही सिर झुकाकर, दोनों हाथ जोड़कर मंद स्वर में 'नमो जिणाणं' का उच्चार करना चाहिए। विद्यार्थी स्कूल बैग तथा ऑफिस जानेवाले व्यक्ति पर्श, सूटकेस आदि किसी भी प्रकार की वस्तु तथा अन्य दर्शनार्थी खाने-पीने की वस्तु, शृंगार की वस्तु आदि मंदिर के बाहर ही रखकर प्रवेश करें। उन्हें भी मस्तक झुकाकर'नमो जिणाणं' बोलना चाहिए। पिता के साथ मंदिर में प्रवेश पहली निस्सीहि शकरते समय मंडप में प्रवेश पहली निसीहि बोलते समय की विधि । मंदिर के मुख्य द्वार में प्रवेश करते समय तीन बार निसीहि बोलना चाहिए । (निसीहि = निषेध, मनाई) इस निसीहि में मंदिर में प्रवेश करते समय आधा झुककर दोनों हाथों को जोड़कर सन्मान का भाव प्रगट करना चाहिए। 'पहली निसीहि' बोलने से संसार की सभी प्रकार की वस्तुओं का मन-वचन-काया से त्याग किया जाता है। • मंदिर सम्बन्धी किसी भी प्रकार के सूचन तथा स्वयं सफाई आदि कार्य करने की छूट होती है। अधिकृत व्यक्ति आज्ञा करे तो वह उचित कहलाता है। आराधक वर्ग अत्यन्त कोमलता पूर्वक निर्देश करें। जयणा पूर्वक मंदिर की शुद्धि-रक्षण-पोषण-पालन का कार्य प्रदक्षिणा त्रिक स्वयं करने से अनन्त गुणा लाभ मिलता है। प्रदक्षिणा के दोहे प्रदक्षिणा देने की विधि काल अनादि अनंतथी, भव भ्रमण नो नहि पार, मूलनायक प्रभुजी की दाहिनी ते भव भ्रमण निवारवा, प्रदक्षिणा दऊंत्रण वार . १ ओर से (प्रदक्षिणा देनेवाले की भमती मां भमता थकां, भव भावठ दूर पलाय, बांई ओर से) ईर्यासमिति के दर्शन ज्ञान चारित्र रूप, प्रदक्षिणा त्रण देवाय .२ पालन पूर्वक तीन प्रदक्षिणा करनी चाहिए। जन्म मरणादि सवि भय टळे, सीझे जो दर्शन काज, रत्नत्रयी प्राप्ति भणी, दर्शन करो जिनराज .३ हो सके तो मंदिर के पूरे परिसर की अथवा मूलनायक प्रभुजी ज्ञान वर्ल्ड संसारमा, ज्ञान परमसुख हेत, की अथवा त्रिगड़े में बिराजमान ज्ञान विना जग जीवडा, न लहे तत्त्व संकेत . ४ प्रभुजी की प्रदक्षिणा करनी चय ते संचय कर्मनो, रिक्त करे वळी जेह, चाहिए। चारित्र नियुक्तिए का, वंदो ते गुण गेह .५ . शत्रंजयतीर्थ का दोहा बोलने के बदले 'काल अनादि अनंतथी...' दोहे | दर्शन ज्ञान चारित्र ए, रत्नत्रयी शिवद्वार, तीन प्रदक्षिणा में बोलने चाहिए। त्रण प्रदक्षिणा ते कारणे, भवदुःख भंजनहार .६ दोहा मन्दस्वर में, गम्भीर आवाज में तथा एक लय में 'सम्यग् दर्शनप्रदक्षिणा देने के बाद प्रभुजी सन्मुख ज्ञान-चारित्र' की प्राप्ति के लिए बोलना चाहिए। मंदस्वर में भाववाही स्तुति बोलनी चाहिए। प्रदक्षिणा देते समय कपड़े व्यवस्थित करना व इधर-उधर देखना, वह दोष कहलाता है। पूजा की सामग्री साथ में रखकर ध्यान पूर्वक जयणा का पालन करते हुए प्रदक्षिणा देनी चाहिए। प्रदक्षिणा नहीं देनी, एक ही प्रदक्षिणा देनी, अधूरी प्रदक्षिणा देनी अथवा पूजा करने के बाद प्रदक्षिणा देनी, यह अविधि कहलाती है। Jaink ketiaunter For Priete n nelibra Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टपड मुखकोष बांधने की विधि प्रभुजी की दृष्टि न गिरे ऐसी जगह पर खड़े रहकर पूर्णतया आठ परत का मुखकोश बांधे,फिर पाणी से हाथ धो ले। ..पुरुषों को खेस से ही मुखकोश बांधना चाहिए। तथा महिलाओं को भी पूरी लम्बाई तथा चौड़ाई वाले स्कार्फ रुमाल से अष्टपड मुखकोश बांधना चाहिए। इस तरह आठ इस तरह परत वाला मुखकोश मुखकोश को • मुखकोश के आठ परत से नाक के दोनों छिद्र तथा दोनों होंठ तैयार करे। बांधे। सम्पूर्ण रूप से ढंक जाने चाहिए। मुखकोश एक बार व्यवस्थित रूप से बांधने के बाद बार-बार भाववाही- स्तुतियाँ मुखकोश का स्पर्श करे अथवा उसे ऊपर-नीचे करे तो दोष १. दर्शनं देव-देवस्य, दर्शनं पाप-नाशनम् । दर्शनं स्वर्ग-सोपानं, दर्शनं मोक्ष-साधनम् ॥ लगता है। २. जेना गुणोना सिंधुना, बे बिंद पण जाणं नही, • खेस अथवा रुमाल एक ही हाथ से मुंह पर रखकर केसरपूजा, पण एक श्रद्धा दिल महि, के नाथ सम को छे नही; पुष्पपूजा करने से अथवा प्रभुजी को स्पर्श करने से दोष लगता है। जेना सहारे क्रोडो तरीया, मुक्ति मुज निश्चय सही, . मुखकोश बांधकर ही चन्दन घिसा जाता है, पूजा की जाती है, एवा प्रभु अरिहंतने, पंचांग-भावे हुं नमुं ।.... आंगी की जाती है तथा प्रभुजी का खोखा, मुकुट आदि पर ३. संसार घोर अपार छे, तेमां डूबेला भव्यने, आंगी की जाती है। हे तारनारा नाथ ! शुं भूली गया निजभक्तने । मारे शरण छे आपर्नु, नवि चाहतो हुं अन्य ने, चन्दन घिसते की विधि तो पण प्रभु मने तारवामां, ढील करो शा कारणे? • कपूर-केसर-अंबर-कस्तूरी आदि घिसने योग्य द्रव्य साफ हाथों ४. जे द्रष्टि प्रभु दरिसण करे, ते द्रष्टिने पण धन्य छे, से स्वच्छ कटोरी में निकाल लेने जे जीभ जिनवरने स्तवे, ते जीभने पण धन्य छे ; चाहिए । सुखड को पाणी से पीवे मुदा वाणी सुधा, ते कर्ण युगने धन्य छे, धोना चाहिए। तुज नाम मंत्र विशद धरे, ते हृदय ने पण धन्य छे ।। ५.सुण्या हशे, पूज्या हशे, निरख्या हशे पण कोक क्षणे, अष्टपड मुखकोश बांधने के बाद हे जगत बंधु ! चित्तमां, धार्या नहि भक्ति पणे; ओरसिया का स्पर्श करना चाहिए जनम्यो प्रभु ते कारणे, दुःखपात्र आ संसारमा, तथा शद्ध जल एक स्वच्छ कटोरी आ भक्ति ते फलती नथी, जे भाव शून्य आचारमा । में लेना चाहिए। . ओरसिया (=शिलबट्टे) स्वच्छ हो जाए, उसके बाद कपूर में पानी मिलाकर सुखड को ओरसिया पर घिसना चाहिए और घिसा हुआ चन्दन ले लेना चाहिए। उसके बाद केशर आदि में पानी का मिश्रण कर सुखड घिसना चाहिए तथा तैयार केशर को स्वच्छ हथेली से कटोरी में ले लेना चाहिए। - केसर-चन्दन कटोरी में लेते समय तथा घिसते समय शरीर का पसीना अथवा नाखून उसमें स्पर्श नहीं करना चाहिए तथा तिलक करने के लिए एक अलग कटोरी में घिसा हुआ केशर ले लेना चाहिए। - केशर आदि घिसते समय तथा ओरसिया के आस-पास रहते समय सम्पूर्ण मौन धारण करना चाहिए। • प्रभुजी की भक्ति के अतिरिक्त शारीरिक रोग-उपशान्ति के सांसारिक कार्यों के लिए चन्दन आदि घिसने से देव-द्रव्य - भक्षण का दोष लगता है। इस तरह चंदन-केशर घिसा जाता है। SG११९ SOICElelibrarmony COM PRISORRECTA. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मासन लगाकर कपाल पर स्य तिलक करने की विधि तथा नाभि पर भी तिलक करना चाहिए तथा पुरुषों को दीपक की ज्योति के आकार का महिलाओं को कंठ तक तिलक करना चाहिए। तथा महिलाओं को बिन्दी के समान . तिलक करने से पहले 'ॐ आ ही क्लौ अर्हते. गोलाकार तिलक करना चाहिए। नमः' मन्त्र सात बार बोलकर केशर को प्रभुजी की दृष्टि न पड़े, वैसी जगह पर पद्मासन अभिमन्त्रित करना चाहिए। में बैठकर अथवा खड़े होकर दोनों भ्रमरों के . 'मैं भगवान की आज्ञा शिरोधार्य करता हूँ,' मध्य स्थान में तिलक करना चाहिए। ऐसी भावना रखते हुए कपाल पर आज्ञाचक्र' पुरुषों को दोनों कानों पर, गले पर, हृदय पर के स्थान पर तिलक करना चाहिए। कानों पर कंठ पर हृदय पर नाभि पर कपाल पर खडे हुए प्रक्षाल हेतु पंचामृत तैयार करने की विधि • गाय का दूध-५०% निर्मल पानी-२५% दही-१०% तथा गाय का घी-५% शक्कर-१०%= १००% पंचामृत। मुखकोश बांधकर प्रक्षाल के लिए पंचामृत स्वयं ही मौन पूर्वक बनाना चाहिए। कुआं, तालाब अथवा बरसात का पानी छानकर प्रयोग करना चाहिए । परन्तु नल का पानी अथवा बिना छाने हुए पानी का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यदि मात्र दूध से ही पक्षाल करना हो तो दूध में मात्र एक चम्मच पानी डालकर पक्षाल के लिए तैयार करना चाहिए। पंचामृत अथवा इक्षु के रस (अखातीज) का प्रक्षाल करने के बाद उसकी चिकनाहट सम्पूर्ण रूप से साफ हो जाए, इस ऐसे शुद्ध जल प्रक्षाल के ऐसे अभिषेक के लिए बात का खास ध्यान रखना लिए ग्रहण करे। पंचामृत आदि को तैयार करे। चाहिए। गर्भद्वार में प्रवेश करने की विधि • प्रक्षाल हेतु तैयार किया गया पंचामृत - दूध - पानी गर्भगृह में प्रवेश करने से पूर्व मंदिर आदिवाले कटोरी आदि को से सम्बन्धित कार्यों के त्याग स्वरूप ढककर रखना चाहिए। दूसरी निसीहि तीन बार बोलनी प्रक्षाल में थूक-पसीना चाहिए। खखार आदि न गिरे, इसका अंगपूजा में उपयोगी सामग्री ही साथ खास ध्यान रखना चाहिए। में रखनी चाहिए । बटुआ, डिब्बी, बैग, थैला आदि गर्भगृह में नहीं ले जाए। गर्भगृह में प्रवेश करते समय राग-द्वेष रूपी सिंह के मस्तक पर दाहिना पैर रखकर अन्दर प्रवेश करना चाहिए। • अतिस्वच्छ हाथों को तथा पूजा की सामग्री को गर्भगृह में जहाँ-तहाँ पर स्पर्श नहीं कराना चाहिए। • अंगपूजा के ध्येय से ही गर्भगृह में प्रवेश करना चाहिए । वहाँ सम्पूर्ण मौन रखना चाहिए । दुहा आदि भी मन में ही दुहराना चाहिए। आठ परतवाले मुखकोश बांधे बिना गर्भद्वार में प्रवेश नहीं करना चाहिए। गर्भगृह में प्रवेश करते समय १२. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्माल्य उतारने की विधि तथा प्रक्षाल की विधि स्वच्छ थाल प्रभुजी के आगे समय पानी का अभिषेक नहीं रखकर अति कोमलता पूर्वक धैर्य करना चाहिए। के साथ जीव-जंतु की जयणा अभिषेक करते समय अपने पूर्वक फूल आदि उतारना चाहिए। वस्त्र, कोई भी अंग, नाखून बासी फूलवाली थाली को योग्य आदि कर्कश वस्तु प्रभुजी को स्थान पर रखकर खोखा-मुकुट स्पर्श नहीं करना चाहिए। कुंडल आदि एक के बाद एक प्रक्षाल करने के लिए अन्य उतारना चाहिए। भाविकों को जोर-जोर से खोखा-मुकुट-कुंडल आदि आवाज देकर बुलाने से प्रभुजी जमीन पर न रखकर शुद्ध पित्तल की आशातना लगती है। की थाल में सन्मान पूर्वक रखना प्रभुजी की सुन्दर आंगी की गई चाहिए। मोर पीछ से वासी शुद्धीकरण करें। पूंजणी से सिर्फ पबासण। हो तथा उससे भी विशिष्ट आंगी सुकोमल मोरपंख से प्रभुजी के करने की क्षमता यदि हो तो ही अन्य अंगों में रहे हुए निर्माल्य को सुबह प्रक्षाल किए गए प्रभुजी धैर्य पूर्वक उतारना चाहिए। को सम्मान पूर्वक बिराजमान कर बासी चंदन-केशर आदि को दूर पुनः दूसरी बार प्रक्षाल किया जा करने के लिए तथा सोना-चांदी सकता है, अन्यथा नहीं। के बरख-बादला आदि को दूर यदि प्रक्षाल हो गया हो अथवा करने के लिए कटोरे में स्वच्छ अंगपौंछना चल रहा हो या सम्पन्न पानी लेना चाहिए। हो गया हो अथवा केशरपूजा स्वच्छ पानी से गीला कर हल्के आदि भी चल रही हो अथवा हाथों से केसर-चंदन-बरक स्वयं चैत्यवन्दन आदि भावपूजा बादला आदि उतारकर कटोरे में इस तरह वासी केशर को उतारे। इस तरह पंचामृत-ध-जल का प्रक्षाल मस्तक से करें कर रहे हो, उस समय भगवान के संग्रह करना चाहिए। अंगूठे पर भी प्रक्षाल नहीं किया कटोरे में स्वच्छ पानी लेकर स्वच्छ जा सकता है। सूती वस्त्र के टुकड़े को भिगोकर वृषभाकार कलश से प्रभुजी का उससे बाकी रहे चंदन आदि को प्रक्षाल किया जा सकता है। दूर करना चाहिए। प्रक्षाल करते समय पबासन में स्वच्छ पानी के कलश के एकत्रित 'नमण' को स्पर्श भी अभिषेक कर निर्माल्य आदि को दूर नहीं करना चाहिए। करने का प्रयत्न करना चाहिए। प्रक्षाल अथवा पूजा करते समय फिर भी प्रभु के अंग-उपांग में मुखकोश, वस्त्र व शरीर का यदि केशर आदि रह जाए तो खूब कोई भी भाग प्रभुजी को स्पर्श कोमलता से वाला-डूंची का पक्षाल पश्चात् जल से शुद्धीकरण करें। इस तरह २७ डंके बजाये। नही करना चाहिए। उपयोग करना चाहिए। कलश नीचे नहीं गिरना चाहिए । गिर जाए तो उपयोग नहीं अष्टपड मुखकोश बांधकर दोनों हाथों में कलश पकड़कर करना चाहिए। प्रभुजी के मस्तक से पंचामृत-दूध आदि का प्रक्षाल करना न्हवण जल पर किसी का भी पैर न लगे, वैसी व्यवस्था चाहिए। करनी चाहिए। प्रक्षाल करते समय सम्पूर्ण मौन धारण करना चाहिए । तथा न्हवण जल का विसर्जन प्रभुजी की भक्ति में उपयोगी बाग अपना शरीर निर्मल हो रहा है, ऐसी भावना रखनी चाहिए। बगीचे में नहीं करना चाहिए । शायद वही पर करना जरुरी • प्रक्षाल करते समय यदि सम्भव हो तो अन्य भाविक हो, तो उसमें से उत्पन्न हुए फूल आदि 'निर्माल्य देव-द्रव्य' घंटनाद-शंखनाद-नगारा आदि वाद्य लय में बजाए। होने से यथोचित द्रव्य देवद्रव्य में जमाकर के ही प्रभु-भक्ति पंचामृत अथवा दूध का अभिषेक यदि चल रहा हो तो उस में लेना चाहिए। १२१ in Education Internet FOE Private & Personal use onny Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • न्हवण जल के विसर्जन हेतु ८ फुट गहरी व ३-४ फुट लंब-चोरस कुंडी ढक्कन के साथ बनानी चाहिए। • पंचामृत व दूध से प्रक्षाल करते समय गर्भगृह से बहार योग्य अंतर मे खडे हुए महानुभाव प्रक्षाल करनेवाले भाग्यशाली की अनुमोदना करते हुए बोले...... (सिर्फ पुरुषो 'नमोऽर्हत्.....' बोले ) मेरु शिखर न्हवरावे, हो सुरपति ! मेरु शिखर न्हवरावे जन्मकाल जिनवरजी को जाणी, पंचरूपे करी आवे... हो रत्न प्रमुख अडजातिना कलशा, • औषधि चूरण मिलावे... हो... खीर-समुद्र तीर्थोदक आणी, स्नात्र करी गुण गावे ... हो ..... एणि परे जिन पडिमा को न्हवण करी, बोधि-बीज मानुं वावे ... हो . अनुक्रमे गुण रत्नाकर फरसी, जिन उत्तम पद पावे ... हो प्रक्षाल करनेवाले खुद ही 'सुरपति' बनकर जन्माभिषेक कर रहे होने से अपने आप के लिए 'सुरपति आए' ऐसा संबोधन करे, यह उचित नही हैं। प्रक्षाल करते समय अपने कर्म मल इस से दूर हो रहे, ऐसी भावना जरुर भाए । अन्य भाग्यवान प्रक्षाल करनेवाले को 'सुरपति' का संबोधन कर सकते हैं। • निर्मल जल से अभिषेक करते समय मन मे खुद और गर्भगृह के बाहर खड़े महानुभाव उच्चारपूर्वक दुहा बोले...... (सिर्फ पुरुष पहले 'नमोऽर्हत्' बोलें ) ज्ञानकलश भरी आतमा, समता रस भरपूर । श्री जिन ने नवरावतां, कर्म थाये चकचूर ॥ १॥ जल - पूजा जुगते करो, मेल अनादि विनाश । जल - पूजा फल मुज होजो, मांगु एम प्रभु पास ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं परम पुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा ॥ (२७ बार डंका बजाएँ) अंगलुंछन करते समय ध्यान रखने योग्य बातें • अंगलुंछन दशांग आदि सुगन्धित धूप से सुवासित करना चाहिए तथा अपने दोनों हाथों को सुगन्धित करना चाहिए । • प्रभुजी का इसी समय साक्षात जन्म हुआ हो, ऐसे भावों के साथ कोमलता पूर्वक अंगलुंछन करना चाहिए । १२२tion International. प्रभुजी के परिकर को पबासन को पाटलंछना सें । • पहला लुंछन थोड़ा मोटा, दूसरा उससे थोड़ा पतला 18 ( पक्के मलमल का) तथा तीसरा लुंछण सबसे अधिक पतला (कच्चे मलमल का) रखना चाहिए । • अंगलुंछन शुद्ध सूती, मुलायम, स्वच्छ, दाग तथा छिद्र से रहित रखना चाहिए। अंगलुंछन करते समय अपने वस्त्र - शरीरमुखकोश - नाखून आदि किसी का भी स्पर्श न होने अंगलुंछना को सुवासित करे पाए, इस का खास ध्यान रखना चाहिए। अगर हो जाए तो हाथ पानी से शुद्ध करने चाहिए । • काफी ध्यानपूर्वक अंगलुंछना करने पर भी यदि अंगलुंछना अपने शरीर-वस्त्र-पबासन अथवा भूमि को स्पर्श कर जाए तो उसका उपयोग प्रभुजी के लिए कभी नहीं करना चाहिए। यदि उसका स्पर्श पाटलुंछना - जमीनलुंछना आदि के साथ हो जाए तो उसका उपयोग नहीं किया जा सकता है । उसी प्रकार पबासन को साफ करने में उपयोगी पाटलुंछना का स्पर्श यदि फर्श को साफ करने के लिए उपयोगी लुंछना से हो गया हो तो उसका उपयोग पाटलुंछन के रूप में नहीं किया जा सकता । पहली बार अंगलुंछना करते समय प्रभुजी के ऊपर रहे हुए विशेष पानी को ऊपर-ऊपर से साफ करना चाहिए तथा दूसरी बार अंगलुंछना करते समय सम्पूर्ण शरीर को साफ करने के बाद अंग- उपांग, पीछे, हथेली के नीचे, कन्धे के नीचे आदि अंगों पर अंगलुंछना की ही लट बनाकर उसके आर-पार विवेकपूर्वक साफ करना चाहिए । • • यदि उस लट से साफ होना सम्भव न हो तो सुयोग्य - स्वच्छ सोने-चांदी तांबा अथवा पित्तल अथवा चन्दन के सूए से हल्के हाथों से साफ करना चाहिए । • तीसरी बार अंगलुंछना करते समय सम्पूर्ण रूप से स्वच्छ हो चुके प्रभुजी को हल्के हाथों से सर्वांग को स्पर्श कर विशेष रूप से स्वच्छ करना चाहिए । • अष्ट प्रातिहार्य सहित परमात्मा को अंगलुंछना करते समय प्रभुजी की अंगलुंछना करने के बाद अष्ट प्रातिहार्य आदि परिकर ( देव-देवी-यक्ष-यक्षिणीप्रासाददेवी आदि) की भी अंगलुंछना की जा सकती है। नीचे जमीन को जमीन लुंछना से पहला अंगलुंछन, ऐसे करें । दुसरा अंगलुंछन, ऐसे करें । सुए से अंगलुंछन, ऐसे करें तीसरा अंगलुंछन, ऐसे करें । . Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभुजी को सर्वांग पर विलेपन करें। यदि परिकर रहित सिद्धावस्था के प्रभुजी हों तथा विलेपन करने की विधि मूलनायक प्रभुजी के अधिष्ठायक देव-देवी तथा अंगलुंछना हो जाने के प्रासाददेवी को अलग से प्रतिष्ठित किया गया हो तो उनकी बाद सुगन्धित धूप को अंगलुंछना करते समय प्रभुजी में प्रयुक्त अंगलुंछना का प्रभुजी के समक्ष ले प्रयोग नहीं करना चाहिए। जाकर उन्हें सुगन्धित अंगलुंछना का उपयोग करने से पहले उसे रखने के लिए करना चाहिए। उपयोगी एक थाल साथ में रखना चाहिए और उसी में उसे देशी कपूर तथा चंदन रखना चाहिए । पबासन, दरवाजा, पाईप आदि में अंगलुंछना मिश्रित सुगन्धित करने के बाद या पहले नहीं रखना चाहिए। विलेपन को सुयोग्य अंगलुंछना करते समय एक हाथ को प्रभुजी से, दीवाल से, थाली में धूप देकर परिकर से या अन्य किसी वस्तु से नहीं टिकाना चाहिए। गर्भगृह में ले जाना पाटलुंछणा करने वाले को अंगलुंछना का स्पर्श नहीं करना चाहिए। चाहिए । प्रभुजी के पीछे का हिस्सा अथवा पबासन साफ आठ-पड-मुखकोश करते समय प्रभुजी के किसी भी अंग से पाटलुंछना का का सम्पूर्ण उपयोग स्पर्श हो जाए तो महान आशातना (पाप) लगती है। करते हुए दाहिने हाथ प्रक्षाल करने के बाद अंगलुंछना करने से पहले पंचधातु के की पाँचों ऊँगलियों से, नाखून न लगे, इस प्रकार प्रभुजी के प्रभुजी अथवा सिद्धचक्रजी आदि यन्त्रों में से पाणी साफ सर्वांग में विलेपन करना चाहिए ।(विलेपन करने से पहले दोनों करने के लिए उसे आड़ा-टेढ़ा, ऊँचा-नीचा अथवा एक हाथों को सम्पूर्ण स्वच्छ करना जरूरी है।) दूसरे के ऊपर नहीं रखना चाहिए । ऐसा करने से घोर विलेपन पूजा का नव-अंग के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता है। आशातना का पाप लगता है। समस्त अंगों का विलेपन करना होता है। अंगलुंछना करते समय स्तुति-स्तोत्रपाठ करने से अथवा विलेपन करनेवाले एक व्यक्ति के अतिरिक्त अन्य भाविकों को एक दूसरे को इशारे आदि करने से आशातना लगती है। एक दूसरे के स्पर्श दोष से बचने के लिए थोड़ी सी प्रतीक्षा करनी • अंगलुंछना का कार्य पूर्ण होने के साथ ही सम्पूर्ण स्वच्छ चाहिए। तथा अंगलुंछना सुखाने के लिए टगी हुई रस्सी पर इस विलेपन करनेवाला भाग्यशाली मन में दुहा बोलते हुए तथा प्रकार फैलाना चाहिए कि किसी के मस्तक आदि का गर्भगृह के बाहर खड़े भाविक (सिर्फ पुरुष) 'नमोऽर्हत् स्पर्श न हो। सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व-साधुभ्यः' बोलें अंगलुंछना, पाटलुंछना तथा जमीनलुंछना के लिए डोरी ___ 'शीतल गुण जेहमा रह्यो, शीतल प्रभु मुख रंग। अलग-अलग सुरक्षित रखनी चाहिए। अंगलुंछना को धोते समय योग्य थाल में अन्य वस्त्रों का आत्म शीतल करवा भणी, पूजो अरिहा अंग.. ॥१॥' स्पर्श न हो, इसका ध्यान रखना चाहिए। "ॐ ह्रीं श्रीं परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु-निवारणाय पाटलुंछना को धोते समय भी यही सावधानी रखनी चाहिए। श्रीमते जिनेन्द्राय चंदनं यजामहे स्वाहा" (२७ डंका बजाएँ) जमीनलुंछना उचित रूप से अलग ही धोना चाहिए। अर्थ : जो प्रभुजी शीतल गुणों से युक्त हैं तथा जिनका मुख यदि हो सके तो प्रभुजी की भक्ति में प्रयुक्त वस्त्र-बर्तन भी शीतल रंग से परिपूर्ण है, ऐसे श्री अरिहंत परमात्मा के अंग आदि का धोया हुआ पानी गटर या नाले में न जाए, इस की अपनी आत्मा की शीतलता के लिए चंदन-कपूर आदि बात का ध्यान रखना चाहिए। शीतल द्रव्यों से पूजा करे। अंगलुंछना सूख जाने के बाद दोनों हाथों को स्वच्छ कर विलेपन (चंदन) पूजा पूर्ण होने के बाद अंगलंछना के सिवाय मौन धारण करते हुए मात्र दो हथेलियों के स्पर्श से उसे अत्यन्त स्वच्छ वस्त्र (पक्के मलमल के कपड़े) से प्रभुजी के मोड कर रखना चाहिए। सर्व-अंग में विलेपन दूर करना चाहिए। पाटलुंछना भी उसी प्रकार मोडकर तथा जमीनलुंछना को विलेपन करने के बाद तुरन्त ही यदि किसी भाग्यशाली को भी यथायोग्य तरह से रखना चाहिए। सोने-चांदी के वरख से भव्य अंगरचना करने की भावना हो तो अंगलुंछना को सुरक्षित रखने के लिए अलग से एक स्वच्छ विलेपन दूर करने की आवश्यकता नहीं है। थैली रखनी चाहिए । पाटलुंछना उससे अलग सुरक्षित विलेपन उतारने के लिए जिन वस्त्रों का उपयोग किया जाता है, रखना चाहिए। उसको उपयोग के बाद तुरन्त योग्य स्थान पर सूखने के लिए जमीनलुंछना का स्पर्श अन्य किसी भी वस्त्र अथवा रख देना चाहिए। उपकरण से न हो, इसका ध्यान रखते हुए, उसे मोड़कर. विलेपन वस्त्र को स्वच्छ पाणी से धोने के बाद अंगलूछना के रखना चाहिए। साथ धोकर व सुखाकर रखना चाहिए। Forte Personal Use Only womant923 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग-रचना (आंगी) विधि अत्यन्त धैर्यपूर्वक, गम्भीरता से , स्थिर चित्त से तथा कोमलता •चांदी आदि के खोखा, मुगट, पांखडे आदि के उपर आंगी करते पूर्वक प्रभुजी की पूजा करनी चाहिए। समय मुखकोश बांधना जरूरी है। सुवर्ण, चांदी, हीरा, माणेक, • यदि किसी भाविक ने प्रभुजी की भव्य आंगी की हो तो केशर मोती आदि उत्तम द्रव्यो से आंगी हो सकती है। • सुवर्ण-चांदी व पूजा का आग्रह नहीं रखना चाहिए, बल्कि उसकी अनुमोदना ताबे के टीके से भी हो शकती है। मगर क्रोम-लोहा आदि हलकी करनी चाहिए। धातु से नहीं। शुद्ध सुखड का पावडर, सुवर्ण व चांदी के बादले मंदिर में मूलनायक की पूजा में देरी हो तथा अन्य प्रभुजी की और शुद्ध रेशम के धागे (लच्छी) से कर सकते हैं। सुवर्ण व चांदी पूजा करनी हो तो थोड़ा सा केशर अलग से एक कटोरी में रख के शुद्ध वरख भी लगा शकते हैं। वरख को डबाने वाला कापूस (Cotton) शुद्ध व स्वच्छ होना जरुरी है । Cotton केशरवाला हो कर पूजा करनी चहिए। जाए, गीला हो जाए, अपने शरीर को छु जाए, नीचे गिर जाए तो केशर पूजा करते समय यदि परमात्मा के अंगों में केसर बह रहा उसका त्याग करना चाहिए।. केशर के प्रमाणोपेत तंतु से तैयार हो तो उसे स्वच्छ वस्त्र से पोंछ कर उसके बाद पूजा करनी घीसा हुआ केशर व देशी कपूर से हो सकती है। किसीने नही पहेने चाहिए। हो ऐसे सुवर्ण-चांदी के अलंकार प्रभुजी को चढा सकते हैं । वह पूजा के क्रम में सर्व प्रथम मूलनायकजी, उसके बाद अन्य अलंकार वापस लेने की संकल्पना के साथ चढाया हो, तो उसे अपने परमात्मा, उसके बाद सिद्धचक्रजी यन्त्र-गट्टा, वीशस्थानक लिए वापस ले सकते हैं। संपूर्ण स्वच्छ थाली में अथवा स्वच्छ वस्त्र यन्त्र-गट्टा, प्रवचनमुद्रा में गणधर भगवंत तथा अन्त में शासन पर प्रभुजी को बीराजमान करके आंगी कर सकते हैं। . पूजा की के अधिष्ठायक सम्यग्दृष्टि देव-देवियों के मस्तक पर अंगूठे से थाली आदि को उलटी करके उसमे प्रभुजी को नहीं बिठाना चाहिए। तिलक करना चाहिए। बादला लगाने हेतु प्रभुजी को आगे या पीछे झूकाना नहीं चाहिए। प्रभुजी की पूजा करने के बाद सिद्धचक्रजी की तथा सिद्धचक्रजी रुई (Cotton), मखमल (Welwet), उर्ण धागे (Woolen Thread), सूत्ती धागे (Cotton Thread), या मखमल के टीके की पूजा करने के बाद प्रभुजी की पूजा कर सकते हैं। आदि अतिजघन्य कोटि की चीजों से और खाने लायक सामग्री से प्रवचन मुद्रा वाले गणधर भगवंतों की करने के बाद उसी केशर कभी भी आंगी नहीं करनी चाहिए। बिना सुगंध के पुष्प, पुष्प की से सिद्धावस्था वाले गणधर भगवंतों की तथा सिद्धचक्रजी की कलियाँ व पर्ण केशरवाले गिले पुष्प, पूर्ण अविकसित पुष्प और पूजा नहीं करनी चाहिए । शासनदेव-देवी को अँगूठे से मस्तक पुष्पो के पीछे व वरख के पीछे का कागज़ लगाकर आंगी नहीं करनी के ऊपर तिलक करने के बाद उस केशर से किसी की भी पूजा चाहिए। दूसरे दिन आंगी उतारने के बाद उसमें से 'निर्माल्य देवद्रव्य' नहीं करनी चाहिए। का संचय हो, ऐसी भव्य आंगी करनी चाहिए। • शासनरक्षक देव-देवी की पूजा 'धर्मश्रद्धा में सहायक बने तथा केशरपूजा की विधि किसी भी प्रकार के विघ्नों में भी श्रद्धा अडिग बनी रहे ' ऐसा • हृदय के साथ सीधा सम्बन्ध रखनेवाले तथा नामकर्म को दूर आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए ही पूजा की जा सकती है। इसके करने की इच्छा रखनेवाली अनामिका ऊगली से ही प्रभुजी की अतिरिक्त अन्य आशय से नहीं। केशर पूजा करनी चाहिए। नाखून का स्पर्श नहीं होना चाहिए। प्रवचन मुद्रा में अथवा गुरु अवस्था में स्थित चरम भवीश्री के अंबर-कस्तूरी-केशर मिश्रित चंदन की कटोरी कुछ चौड़े गणधर भगवंतो की प्रभुजी के समक्ष वंदना कर सकते हैं। मुंहवाली होनी चाहिए । केशर न तो अधिक पतला और न ही • प्रभुजी के नव अंगों में क्रमशः पूजा करने से पहले उन उन अंगे अधिक गाढा होना चाहिए, बल्कि मध्यम कक्षा का (पानी नहीं के दोहे मन में दुहराकर उसके बाद उन अंगों की पूजा करन छूटे ऐसा) केशर होना चाहिए। चाहिए। प्रभु के नव अंगों में पूजा करते समय दाहिने बांए अंगों में (पैर, घुटना, कुहनी, कंधा) ऊँगली को एक बार केशर में भिगोकर दोनों स्थलों पर पूजा हो सकती है। परन्तु दाहिने अंगों पर पूजा होने के बाद केसर नहीं बढ़े तो बांए अंगों पर पूजा करते समय केसर में ऊंगली भिगोई जा सकती है। प्रत्येक अंग में अपना केसर होना जरूरी है। • दोनों पैरों के अंगूठों पर एक ही बार पूजा हो सकती है। बार बार अथवा अन्य ऊगली में पूजा नहीं की जा सकती है। पूजा करते समय सम्पूर्ण मौन धारण करना चाहिए । यहाँ तक कि किसी के साथ इशारे में भी बातें नहीं करनी । प्रभुजी पंचधातु के हो या बिल्कुल छोटे हो अथवा सिद्धचक्र का गट्टा हो, पूजा करते समय वह बिल्कुल नहीं हिलना चाहिए। अधिक भगवान की पूजा संक्षिप्त रूप से करने की बजाय थोड़े भगवान की पूजा विधिपूर्वक करने से विशेष लाभ होता हैं। इस तरह प्रभुजी के अंगुष्ठ में पूजा करें। गुरु गौतम स्वामीजी की केशर पूजा केशर लालघूम नहीं होना चाहिए। १२४ For Private Personnee Drily Jale Education temational swww.saneliorary.org Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) दो अँगूठों की पूजा : जल भरी संपुट पत्रमा, युगलिक नर पूजंत । ऋषभ चरण अँगूठडे, दायक भवजल अंत ॥ १ ॥ (२) दो घुटनों की पूजा : जानुबले काउस्सग्ग रह्या, विचर्या देश-विदेश । खडा-खडा केवल लघुं, पूजो जानु नरेश ॥ २ ॥ (३) दो हाथों की पूजा : लोकांतिक वचने करी, वरस्या वरसी दान । कर कांडे प्रभु पूजना, पूजो भवी बहुमान ॥ ३ ॥ (४) दो कन्धों की पूजा : मान गयुं दोय अंशथी, देखी वीर्य अनंत । भुजा बले भवजल तर्या पूजो खंध महंत ॥ ४ ॥ (५) शिरशिखा मस्तक की पूजा : 1 सिद्धशिला गुण ऊजली, लोकांते भगवंत । वसिया तिणे कारण भवि, शिरशिखा पूजंत ॥ ५ ॥ (६) ललाट की पूजा : तीर्थंकर पद पुण्यथी, त्रिभुवन जन सेवंत । त्रिभुवन तिलक समा प्रभु, भाल तिलक जयवंत ॥ ६ ॥ (७) कंठ की पूजा : सोल पहोर प्रभु देशना, कंठे विवर वर्तुल । मधुर ध्वनि सुरनर सुने, तेणे गले तिलक अमूल ॥ ७ ॥ (८) हृदय की पूजा : हृदय कमल उपशम बले, बाल्या राग ने रोष । हिम दहे वन खंड ने, हृदय तिलक संतोष ॥ ८ ॥ Jain Edu सम्यग्दष्टि देव-देवी को अंगुष्ठ से कपाल पर तिलक करें। (९) नाभि की पूजा : नत्रयी गुण कजली, सकल सुगुण विश्राम । नाभि कमल नी पूजना, करतां अविचल धाम ॥ ९ ॥ (१०) दोनों हाथ जोड़कर गाने योग्य नव-अंग पूजा का उपसंहार :उपदेशक नवतत्त्वना, तेणे नव-अंग जिणंद । पूजो बहुविध रागशुं, कहे शुभवीर मुनिंद ॥ १० ॥ • अधिष्ठायक देव - देवियों को अक्षत (चावल) चढाने या खमासमण देने का भी विधान नहीं है। उनके भंडार में उनके नाम से नगद रुपये पैसे आदि डाला जा सकता है। परमात्मा की आशातना हो, इस प्रकार अधिष्ठायक देव-देवी की आराधना-उपासना नहीं करनी चाहिए तथा प्रभुजी की दृष्टि गिरे, इस प्रकार सुखड़ी आदि न चढ़ाना चाहिए बाँटना चाहिए। पुष्पपूजा की विधि • सुगंधि, अखंड, जीवजंतु रहित, धूल, मलिनता आदि से रहित तथा ताजा फूल चढ़ाना चाहिए । • मूलविधि के अनुसार सहज भाव से योग्य स्वच्छ वस्त्र में (जमीन से ऊपर स्थित ) फूलों को चढ़ाना चाहिए । यदि फूल तोड़ना पड़े तो खूब कोमलता पूर्वक ऊँगलियों के ऊपर सोने, चांदी अथवा पित्तल की खोल चढ़ाकर तोड़ना चाहिए। • मलिन शरीर तथा दुर्गन्ध युक्त हाथों से तोड़े हुए पुष्प जहाँ तक सम्भव हो, प्रभु पूजा में प्रयोग नहीं करना चाहिए। इस तरह कुसुमांजली द्वारा पुष्प पूजा करें। स्नानादि से स्वच्छ हुए शरीर वाले खुले पैर ( जूते-चप्पल आदि पहने बिना) फूल तोड़ना चाहिए। फूल तोड़ने के बाद छाने हुए स्वच्छ पानी हल्के हाथों से छिड़ककर उसके ऊपर जमी हुई धूल साफ करनी चाहिए। फूलों को सोने-चांदी अथवा पित्तल की स्वच्छ डलिया में खुले रखने चाहिए। बांस या बेंत की बनी डलिया का प्रयोग नहीं करना चाहिए । स्वच्छ वस्त्र धारण कर, मौन रहकर, सुन्दर भावना से युक्त हृदय के साथ, योग्य मनोहर फूलों को धागे में गूंथकर माला बनानी चाहिए । सुई-धागे से गूथी हुई माला अयोग्य तथा हिंसक होती है। • माला गूथते समय सूत के धागे या फूलों का शरीर - वस्त्र अथवा अन्य किसी से स्पर्श न हो, इसका ध्यान रखना चाहिए । यदि स्पर्श हो जाए तो उन फूलों का त्याग करना चाहिए। • प्रभुजी को चढाया हुआ पुष्प दुबारा नहीं चढ़ाना चाहिए। दिन में चढाए हुए फूलों को एकत्र कर आंगी चढ़ाते समय पुनः उसी ढेर में से चुनकर प्रभुजी के अंग पर नहीं चढाना चाहिए । प्रभुजी की शोभा के लिए उन फूलों का प्रभुजी का स्पर्श न हो, इस प्रकार आगे रख सकते हैं। • प्रभुजी का मुखकमल ढंक जाए अथवा भाविकों को नवांगी पूजा करने में असुविधा हो, इस प्रकार फूल नहीं चढ़ाना चाहिए ary.org १२५ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । यदि ऐसे अनुचित स्थानों पर फूल चढाए गए हों तो उन्हें वहाँ से उठाकर यथोचित स्थान पर चढाया जा सकता है। परन्तु दूसरी बार चढ़ाने के लिए उन्हें संग्रह नहीं करना चाहिए। • फूल अपने शरीर वस्त्र, पबासन, भूतल अथवा अयोग्य स्थानों से स्पर्श हो गए हो अथवा नीचे गिर गए हो तो उन फूलों को प्रभुजी को चढाने से बहुत बड़ी आशातना लगती है। • फूलों को कभी भी प्लास्टिक की थैली में, अखबार में, रही कागज में, अन्य अयोग्य साधन में अथवा डिब्बी के अन्दर बन्द कर के भी नहीं लाना चाहिए। ऐसे फूल चढाना अयोग्य है । • फूलों की पंखुड़ियां अथवा केशर चंदन मिश्रित चावल, पुष्पपूजा अथवा कुसुमांजलि में प्रयोग नहीं करना चाहिए । • यदि फूल मिलना सम्भव न हो तो सोने-चांदी के फूलों से पुष्पपूजा की जा सकती है। • प्रभुजी को एक-दो फूल चढाने के बदले दोनों हाथों की अंजलि में फूल लेकर चढ़ाना चाहिए । (कुसुम - पुष्प, अंजलि - अंजलि - कुसुमांजलि ।) • प्रभुजी की पुष्पपूजा करते समय मन में गाने योग्य तथा प्रभुजी से थोड़ी दूरी पर खड़े भाविकों के द्वारा ● सुमधुर स्वरों में गाए जाने योग्य दोहे:(पुरुष पहले 'नमोऽर्हत्... ' बोले ) सुरभि अखंड कुसुम ग्रही, पूजो गत संताप । सुमजंतु भव्य ज परे, करीए समकित छाप ॥ १ ॥ 'ॐ ह्री श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु- निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय पुष्पाणि यजामहे स्वाहा' (२७ डंका बजाए) अर्थ : जिनके संताप मात्र नष्ट हो गए हैं, ऐसे प्रभुजी की आप सुगन्धित अखंड पुष्पों से पूजा करो। प्रभुजी के स्पर्श से फूलों का जीव भव्यता को प्राप्त करता है, उसी प्रकार आप भी समकित की प्राप्ति करनेवाले बनो । • यहाँ गर्भगृह के अन्दर प्रभुजी के बिल्कुल नजदीक में उतारने योग्य निर्माल्य से लेकर पुष्प पूजा तक की पूजा को अंगपूजा कही जाती है। उसमें सर्वथा मौन का पालन करना चाहिए तथा दोहे आदि मन में ही गाना जरूरी है। • प्रभुजी से कम से कम साढ़े तीन हाथ दूर (अवग्रह) में रहकर करने योग्य अग्रपूजा है। • स्वद्रव्य से अष्ट प्रकारी पूजा करनेवाले भाग्यशाली भी प्रभुजी से साढ़े तीन हाथ की दूरी पर रहकर ही अग्रपूजा करें। Ducation Internationa • सुगंधरहित अथवा जिसके जलाने से आँखें जलने लगे, ऐसे धूप का प्रयोग नहीं करना चाहिए । धूप-पूजा की विधि मालती - केशर-चंपा आदि उत्तम जाति की सुगन्ध से मिश्रित दशांगधूप प्रभुजी के समक्ष करना चाहिए । • • धूप प्रभुजी के नजदीक नहीं ले जाना चाहिए। थाली में धूप-दीप आदि रखकर प्रभुजी की अंगपूजा (= पक्षाल, केशर, पुष्पपूजा) नहीं करनी चाहिए । • मंदिर की धूपदानी में यदि धूप सुलग रहा हो तो दूसरा धूप नहीं सुलगाना चाहिए । यदि स्वद्रव्यवाला धूप हो तो उसे जलाया जा सकता है। • धूप जलाते समय उसका अग्रभाग घी में नहीं डुबाना चाहिए तथा धूपकाठी की लौ को फूक से बुझानी नहीं चाहिए । स्वद्रव्य से धूपपूजा करने वाला धूपकाठी के छोटे-छोटे टुकड़े कर जलाने की बजाय यथाशक्ति बड़ी धूपकाठी जलानी चाहिए । • धूपपूजा करते समय उसी थाली में दीपक भी साथ नहीं रखना चाहिए। उसी प्रकार दीपपूजा मे भी। पुरुषों को धूपपूजा प्रभुजी की बाई ओर तथा महिलाओं को भी बाई ओर खड़े रखकर करनी चाहिए। धूपकाठी जलाने के बाद उसे प्रदक्षिणा के समान गोलाकार घुमाने के बजाय अपने हृदय के नजदीक रखकर धूम्रसेर को उर्ध्वगति की ओर जाती देखनी चाहिए। • धूपकाठी हाथ में न रखकर ठीक तरह से धूपदानी में रखकर पूजा करनी चाहिए। धूपपूजा करते समय बोलने योग्य दुहा ( पुरुष पहले नमोऽर्हत्... बोले ) अमे धूपनी पूजा करीए रे, ओ मनमान्या मोहनजी । अमे धूपघटा अनुसरीए रे, ओ मनमान्या मोहनजी । प्रभु नहि कोई तमारी तोले रे, ओ मनमान्या मोहनजी । प्रभु अंते के शरण तमासं रे, ओ मनमान्या मोहनजी। "ध्यान घटा प्रगटावीए, वाम नयन जिन धूप । मिच्छत्त दुर्गन्ध दूर टले, प्रगटे आत्म स्वरूप ॥" • "ॐ ह्रीं श्रीं परम पुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु- निवारणाय श्रीम जिनेन्द्राय धूपं यजामहे स्वाहा " (२७ डंका बजाएँ) प्रभुजी की बाई ओर धूपदानी स्थीर रखकर इस तरह धूपपूजा करें। : अर्थ प्रभुजी की बांई आंख की ओर धूप को रखकर उस धूप में निकलनेवाले धुए की घटा के समान हम सब ध्यान की घटा प्रगट को जिससे ध्यान घटा के प्रभाव से मिथ्यात्व रूपी दुर्गन्ध नष्ट हो तथा आत का शुद्ध स्वरूप प्रगट हो । ( धूपपूजा करते समय नवकार - स्तुति-स्तो आदि कुछ भी नहीं बोलना चाहिए । ) धूपपूजा करने के बाद धूपदानी को प्रभुजी से उचित दूरी पर रखे । ( • Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीप-पूजा की विधि • गाय के शुद्ध घी तथा स्वच्छ रूई से तैयार किया गया दीपक योग्य फ़ानूस में रखना चाहिए। अशुद्ध वस्त्र धारण कर अथवा अपवित्र हाथों से तैयार किये गए दीपक तथा बोए का प्रयोग जहां तक हो सके, नहीं करना चाहिए। मंदिर में बारह मास जलनेवाले दीपक अथवा स्वद्रव्य से पूजा करनेवाले भाविकों के दीपक को चारों ओर तथा ऊपर-नीचे से बंद फानूस में जयणा पालन के हेतु से रखना चाहिए। जैनधर्म अहिंसा प्रधान है, अतः प्रभुजी की पूजा में अयोग्य विराधना से बचते हुए प्रभुजी की भक्ति करनी चाहिए। मंदिर के रंगमंडप तथा नृत्यमंडप में घी अथवा दीवेल का दीपक योग्य हांडी में ढककर रखना चाहिए। कांच के ग्लास में स्वच्छ छाना हुए पानी तथा देशी रंग के साथ घी अथवा दीवेल का दीपक उचित स्थान पर ढककर रखना चाहिए। मंदिर में विधिवत् स्थापित अखंड दीपक को अधिकृत व्यक्ति के अतिरिक्त किसी को भी स्पर्श नहीं करना चाहिए। स्वद्रव्य से अष्टप्रकारी पूजा करनेवालो को गर्भगृह के बाहर उचित दूरी पर खड़े होकर दीपक-पूजा करनी चाहिए। दीपक-पूजा पुरुषों को प्रभुजी की दाहिनी ओर तथा महिलाओं को बांई ओर खड़े होकर करनी चाहिए। एक हाथ में दीपक रखकर तथा दूसरे हाथ से घंट बजाते हुए कभी भी दीपक-पूजा नहीं करनी चाहिए। दीपक-पूजा करते समय प्रदक्षिणाकार में नाक से नीचे तथा नाभि से ऊपर दीपक रखकर पूजा करनी चाहिए। दीपक-पूजा करते समय घंटी बजाने का कोई नियम नहीं है। अन्य स्तुति-स्तोत्र आदि भी नहीं बोलना चाहिए। अग्रपूजा (धूप-दीप-अक्षत-नैवेद्य-फल आदि) करते समय मुखकोश बांधने की आवश्यकता नहीं है। • प्रभुजी के प्रति विनय का प्रदर्शन करते हुए आरती-मंगलदीप करनेवालों को सिर पर पगड़ी, टोपी तथा कन्धे पर दुपट्टा अवश्य रखना चाहिए। मूलनायक प्रभुजी के समक्ष आरती-मंगलदीपक उतारने के बाद घंटनाद करते हुए जिनालय में बिराजमान अन्य प्रभुजी के समक्ष भी आरती उतारनी चाहिए। अन्त में उसे उचित स्थान पर जालीदार ढक्कन से ढककर रखना चाहिए। दीपक - पूजा करने वाले पुरुषों के साथ मात्र हाथ लगाकर महिलाओं को दाहिनी ओर से फ़ानूस युक्त दिपक पूजा। इस तरह आरती-मंगल दीपक उतारें। दीपक-पूजा नहीं करनी चाहिए। उसी तरह पुरुषो को भी नहीं करना चाहिए। मंदिर में दीपक-पूजा करते समय बोलने योग्य दोहे : (पुरुष 'नमोऽर्हत्...' बोले) "द्रव्य दीप सुविवेक थी, करतां दुःख होय फोक। भाव प्रदीप प्रगट हुए, भासित लोकालोक..॥१॥" 'ॐ ही श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय दीपं यजामहे स्वाहा.' अर्थ : उचित रूप से विवेकपूर्वक प्रभुजी के आगे द्रव्य दीपक प्रगट करने से दुःख मात्र नष्ट हो जाता है तथा उसके प्रभाव से लोक-अलोक जिसमें प्रकाशित होता है, ऐसा भावदीपक रूप केवल ज्ञान प्रगट होता है। आरती जय जय आरती, आदि जिणंदा; नाभिराया मरूदेवी को नंदा.....१ पहेली आरती, पूजा कीजे; नरभव पामीने लाहो लीजे । __ दूसरी आरती दीन दयाळा, धूळेवा मंडप मां जग अजुवाळा ॥ तीसरी आरती त्रिभुवनदेवा, सुरनर किन्नर करे तोरी सेवा; चोथी आरती, चउगति चूरे, मनवांछित फल शिव सुख पूरे॥ पंचमी आरती पुण्य उपाया, मूलचंद्रे ऋषभ गुण गाया। मंगल-दीवो दीवो रे दीवो प्रभु मंगलिक दीवो, आरती उतारण, बहु चिरंजीवो, सोहामणो घेर, पर्व दिवाली अंबरखेले, अमरा बाली, दिपाल भणे, एणे कुल अजुवाले आरती उतारी राजा कुमारपाले अम घेर मंगलिक, तुम घेर मंगलिक, मंगलिक चतुर्विध, संघ ने होजो..... JITE १२७ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • एल्युमिनियम, तुच्छ कागज के गत्ते अथवा लोहे के स्क्रू-नट तथा प्लास्टिक से मढे हुए दर्पन नहीं रखना चाहिए । दर्पन व पंखा पूजा । दर्पन दर्शन तथा पंखे डुलाने की विधि · • सोना-चांदी अथवा पित्तल के गत्ते तथा नक्काशीदार दर्पण रखना चाहिए । • प्रभुजी के मुखदर्शन के लिए उपयोगी दर्पन में कभी भी अपना मुख नहीं देखना चाहिए। यदि भूल से भी देख लिया हो तो उस दर्पन का त्याग कर देना चाहिए । • यदि सम्भव हो तो मंदिर तथा स्वद्रव्यवाले दर्पन पर योग्य कवर से ढंककर रखें। १२८ चामर - पूजा करते समय ध्यान रखने योग्य बातें • दोनों हाथों में एक-एक चामर रखकर चामर के साथ आध झुककर 'नमो जिणाणं' कहना चाहिए । • स्वद्रव्य का चामर बहुत छोटा न हो तथा उसके बाल गंदे नह होने चाहिए। बड़े चामर से विशेष भाव प्रगट होता है । • सुयोग्य दर्पन को अपने हृदय के नजदीक पीछे का भाग रखकर आगे के भाग से प्रभुजी का दर्शन करना चाहिए । • प्रभुजी के दर्शन होने के साथ ही उचित रूप से चारों ओर सरलता से घूम सके, ऐसा पंखा झुलना चाहिए । • सेवक के हृदयकमल में प्रभुजी का वास है तथा प्रभुजी की करुणापूर्ण दृष्टि की सेवक तरसता है, इस आशय से प्रभुजी को दर्पन में अपने हृदय के पास दर्शन करें तथा तुरन्त सेवक बनकर पंखा झुलना चाहिए । • • दर्पन तथा पंखे का उपयोग करने के बाद दर्पन को उलटकर रख देना चाहिए तथा पंखे को उचित स्थान पर लटका देना चाहिए । • दर्पन-दर्शन तथा पंखा झुलते समय बोलने योग्य भाववाही स्तुति : प्रभु-दर्शन करवा भणी, दर्पण-पूजा विशाल । आत्मदर्शनथी जुए, दर्शन होय तत्काल ॥ १ ॥ अन्य आराधकों को असुविधा न हो, इस प्रकार उचित दूरी प तथा उचित स्थान पर खड़े होकर चामर डुलाना चाहिए । चामर डुलाते समय दोनों पैरों को नचाते हुए तथा शरीर व थोड़ा झुकाते हुए प्रभुजी के सेवक बनने की लालसा के सा ताल के अनुसार लयबद्ध होकर उचित रूप से नृत्य कर चाहिए । चामर नृत्य के समय ढोल-नगारा - तबला - हारमोनियम- शंख बांसुरी आदि वाजंत्र भी बजाया जा सकता है। चामर नृत्य करते समय प्रभुजी के समक्ष नाग-मदारी का नृ करना उचित नहीं है। चामर नृत्य करने में संकोच नहीं रखना चाहिए। दो चा सुलभ न हो तो एक चामर तथा एक हाथ से नृत्य कर चाहिए। • जब मंदिर में मात्र महिलाओं की ही उपस्थिति हो, उसी सम महिलाओं को रागविनाशक चामर नृत्य करना चाहिए। पर पुरुषों की उपस्थिति में दोनों हाथों में अथवा एक हाथ चामर लेकर दोनों पैरों को सीमित थिरकन के साथ सामा नृत्य करना चाहिए । चामर नृत्य करते समय सुमधुर स्वर से बोलने योग्य स्तोत्र कुन्दावदात-चल-चामर-चारु - शोभं, विभ्राजते तव वपुः कलधौत-कान्तम् । उद्यच्छशाङ्क- शुचि-निर्झर-वारि-धार, मुच्चै - स्तटं सुर-गिरे -रिव-शात कौम्भम् ॥ ३० ॥ अर्थ : हे प्रभुजी ! उदित होते हुए चन्द्रमा के समान निर्म झरने के पानी की धाराओं से शोभित, मेरु पर्वत के ऊँचे स्वर्ण शिखर की भांति, मोगरा के पुष्प के समान उज्ज्वल हिलते हुए चा की शोभायुक्त आपका कान्तिमय शरीर सुशोभित हो रहा है । ३० al Use Cly Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षत-पूजा करने की विधि LOW SAUNIL TIME AMPIRITAMIRRITY चामर नृत्य-पूजा मा उत्तम प्रकार के स्वच्छ-शुद्ध तथा दोनों ओर धारवाले अखंड चावल का अक्षत के रूप में उपयोग करना चाहिए। यदि सम्भव हो तो सोने अथवा चांदी के चावल बनाकर लाना चाहिए। तेल-रंग-केशर आदि से मिश्रित चावल का उपयोग नहीं करना चाहिए । पूजन आदि में भी वर्ण के अनुसार धान्य का उपयोग करना चाहिए। अक्षत पूजा करने के लिए उपयोगी अखंड चावल को इस तरह अक्षत पूजा करे। स्वच्छ थाल में रखकर दोनों हाथों में थाल को धारण कर, दोनों घुटने जमीन पर रखकर, प्रभुजी के समक्ष दृष्टि रखकर मधुर स्वर में ये दोहे बोलने चाहिए : (पुरुष पहले नमोऽर्हत्...बोले) शुद्ध अखंड अक्षत ग्रही, नंदावर्त विशाल । पुरी प्रभु सन्मुख रहो, टाली सकल जंजाल... ॥१॥ श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय अक्षतान् यजामहे स्वाहा...'(२७ डंका बजाए) अर्थ : शुद्ध तथा अखंड अक्षत लेकर प्रभुजी के पास विशाल नंदावर्त बनाना चाहिए तथा सब प्रकार के जंजालों का त्याग कर प्रभुजी के समक्ष शुभ भाव रखना चाहिए। दोहे-मन्त्र बोलने के बाद अक्षत को दाहिनी हथेली में रखकर हथेली के नीचे के भाग से क्रमशः मध्य में सम्यग् दर्शन-ज्ञान तथा चारित्र का ढेर करना चाहिए । ऊपर सिद्धशिला के लिए एक ढेर और अन्त में नीचे नंदावर्त अथवा स्वस्तिक के लिए एक ढेर करना चाहिए। सर्व प्रथम बीचवाले तीन ढेर को व्यवस्थित करते हुए निम्नलिखित दोहे मधुर स्वर में बोलने चाहिए-दर्शन-ज्ञान-चारित्र्यना आराधन थी सार...' उसके बाद ऊपर के ढेर में अष्टमी के चन्द्रमा के समान सिद्धशिला की रचना करते हुए मध्यभाग में मोटा तथा दाहिनी और बांई ओर पतला करते हुए दोनों कोनों पर मक्खी के पंख के समान पतला करना चाहिए । उनके ऊपर स्पर्श न करे, इस प्रकार (सिद्धशिला के उपर) एक पतली छोटी सी रेखा करनी चाहिए। सिद्ध भगवंतों का निवास सिद्धशिला इसकी रचना करते समय मधुर स्वर में बोलना चाहिए : 'सिद्धशिला नी ऊपरे, हो मुज वास स्वीकार...'। सबसे नीचे स्थित ढेरवाले चावल को अनामिका ऊँगली से चौकोर आकार ॐof श्री पार्श्वपंचकल्याणक पूजा की ढाल । बे बाजू चामर ढाले, एक आगळ वज्र उलाळे। जई मेरु-धरी उत्संगे, इन्द्र चौसठ मळिया रंगे॥ प्रभुपार्श्वनुं मुखडुंजोवा, भवोभवना पातिक खोवा • मंदिर की अथवा प्रभुजी की भक्ति के लिए लाए गए चामरों से पूज्य गुरु-भगवंत के समक्ष नृत्य नहीं करना चाहिए तथा वे चामरडुलाने भी नहीं चाहिए। स्नात्र-महोत्सव में राजा-रानी अथवा इन्द्रइन्द्राणी को भी वे चामर नहीं डुलाने चाहिए। यदि चामर डुलाने अथवा नृत्य करने की आवश्यकता पड़े तो देव-द्रव्य में यथायोग्य रुपये-पैसे रखकर ही उसका उपयोग करना चाहिए। www.jainerar९२९ ।। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैवेद्य-पूजा की विधि उत्तम मिठाईयों से नैवेद्य पूजा। में फैलाना चाहिए । परन्तु ढेर के बीच में गोलाकार कर चूड़ी के समान कभी नहीं बनाना चाहिए। ऐसा करने से भवभ्रमण बढ़ता है। यदि सम्भव हो तो नंदावर्त प्रतिदिन करना चाहिए। क्योंकि यह अत्यन्त लाभदायी तथा मंगलकारी कहलाता है। साथिया (स्वस्तिक) करने की भावना हो तो चावल का चौकोर ढेर करने के बाद चारों दिशाओं में एक-एक रेखा कर साथिया का आकार बनाना चाहिए । उसमें पहली पंखुड़ी दाहिनी ओर ऊपर की ओर मनुष्य गति की करनी चाहिए। दूसरी बांई ओर उपर की ओर देवगति की करनी चाहिए । तीसरी बांई ओर नीचे की ओर तिर्यंचगति की और चौथी दाहिनी ओर नीचे की ओर नरकगति की करनी चाहिए। मात्र स्वस्तिक बनाने की भावनावाले महानुभाव साथिया के चारों दिशाओं की पखुड़ियों को किसी भी प्रकार से मोड़ना नहीं चाहिए।卐 इस प्रकार करना उचित नहीं है।卐 इस प्रकार करना चाहिए। साथिया अथवा नंदावर्त की रचना करते समय दोहे बोलने चाहिए: "अक्षत पूजा करता थकां, सफल करुं अवतार। फल मांगु प्रभु आगळे, तार तार मुज तार। सांसारिक फल मांगीने, रडवडीयो बहु संसार। अष्टकर्म निवारवा, मांगु मोक्ष-फळ सार। चिहुं गति भ्रमण संसारमां, जन्म-मरण-जंजाल । पंचमी गति विण जीवने, सुख नहि तिहुं काल ॥" जो मनुष्य गति तिर्यंच गति -- - नरक गति नोट : स्वस्तिक दर्शन-ज्ञान-चारित्र के तीन ढेर के ऊपर कितने भी संख्या में करनी हो, तो भी नहीं करना चाहिए । विशेष विधि के लिए स्वस्तिक करने वाले नित्यक्रम के अनुसार एक स्वस्तिक अतिरिक्त करें। अष्टमंगल : १. स्वस्तिक, २. दर्पन, ३. कुंभ, ४. भद्रासन, ५. श्रीवत्स,६.नंदावर्त,७. वर्धमान तथा ८. मीनयुगल । मूलविधि के अनुसार प्रभुजी के समक्ष अष्टमंगल का आलेखन प्रतिदिन करना चाहिए। यदि यह सम्भव न हो तो अक्षत पूजा के समय अष्टमंगल की पाटली प्रभुजी के समक्ष रखकर अष्टमंगल के आलेखन का संतोष मानना चाहिए । पाटली की केसर-चंदन पूजा नहीं की जा सकती है। अक्षतपूजा के दरम्यान अन्य कोई भी क्रिया अथवा अन्यत्र दृष्टि भी नहीं करनी चाहिए। मंदिर में अनिवार्य कारण के बिना कटासणा बिछाकर अथवा बिना कटासणा के पालथी मारकर बैठना, यह आशातना है। शुद्ध द्रव्यों से निर्मित स्वादिष्ट मिठाइयों से नैवेद्य - पूजा की जाती है। घर में किसी भी प्रकारी की मिठाई बनाई गई हो तो सबसे पहले प्रभुजी के समक्ष चढानी चाहिए । परन्तु घर में जिन मिठाईयों का उपयोग हो चुका हो अथवा मिठाई बनाए हुए बहुत दिन बीत गए हों, ऐसी मिठाईयां प्रभुजी के समक्ष नहीं चढ़ानी चाहिए। • बाजार की अभक्ष्य मिठाईयाँ, पिपरमिन्ट, चॉकलेट, शक्कर की गोलियाँ, लॉलीपॉप आदि नहीं चढानी चाहिए। यदि ताजी मिठाईया ले जाना सम्भव न हो तो शक्कर, बताशे आदि भक्ष्य मीठी वस्तु ले जाई जा सकती हैं। नैवेद्य एक-दो रखने के बजाय थाल भर जाए, इस प्रकार शक्ति के अनुसार रखना चाहिए। सुयोग्य नैवेद्य के ऊपर सोने-चांदी के वरख आदि लगा सकते हैं। नैवेद्य से चावल, पाट, बाजोट आदि में चिकनाई न आए, इस हेतु से स्वच्छ थाल में ही मिठाई चढाना चाहिए। पारदर्शी कागज़ अथवा जाली से मिठाईयों को ढंककर मखी आदि से बचाना चाहिए। श्री वीशस्थानक तप, वर्धमान तप, ओली आदि के दौरान क्रिया में बतलाई गई विधि के अनुसार प्रत्येक स्वस्तिक पर कम से कम एक नैवेद्य-फल अवश्य चढाना चाहिए। स्वादिष्ट मिठाई को स्वच्छ थाल में रखकर दोहे बोले : (पुरुष पहले 'नमोर्हत्...' बोले) "न करी नैवेद्य पूजना, न धरी गुरुनी शीख। लेशे परभव अशाता, घर-घर मांगशे भीख ॥ अणाहारी पद में कर्या, विग्गह गई अनन्त । दूर करी ते दीजिए, अणाहारी शिवसंत ॥" 'ॐ ह्रीं श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्ट निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय नैवेद्यानि (एक हो तो नैवेद्यं यजामहे स्वाहा.'(२७ डंका बजाएं) अर्थ : हे, प्रभु ! एक भव से दूसरे भव में जाने के क्रम में एक-दो-तीन-चार समय के लिए विग्रह गति में मैंने अनंर बार आहार का त्याग स्वरूप अणाहारीपन (उपवास) किय है । परन्तु उससे मुझे कोई कार्य सिद्धि (मोक्षपद की प्राप्ति नहीं हुई । अतः इस नैवेद्य के द्वारा आपकी पूजा करके। चाहता हूं कि ऐसे क्षणिक नाशवंत अणाहारीपन को दूर क मुझे अक्षय ऐसे अशाहारीपद स्वरूप मोक्ष सुख प्रदान करें। देव गति १३० m alent methone Awwalior type Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फल-पूजा की विधि • उत्तम तथा ऋतु के अनुसार श्रेष्ठ फल चढाना चाहिए।। श्रीफल उत्तम है। निम्नकोटि के, सड़े हुए, गले हुए तथा छिद्र युक्त अथवा अक्षत-नैवेद्य-फल-पूजा के बाद बेर-जामुन आदि फल नहीं चढाने चाहिए। सुयोग्य फलों में गाय का घी लगाकर तथा उसके ऊपर ध्यान रखने योग्य बातें सोने-चांदी के वरख लगाकर उसे सुशोभित करना. प्रभुजी के समक्ष चढाए हुए अक्षत (चावल), नैवेद्य चाहिए। (मिठाई आदि), फल तथा रुपए-पैसे, वह निर्माल्य देवद्रव्य यदि सम्भव हो तो एक-दो केले के बजाय केले का कहा जाता है। पूरा समूह चढाना चाहिए। निर्माल्य देवद्रव्य की सारी सामग्रियों के द्वारा उपार्जित शत्रुजय तीर्थ आदि में जय तलेटी मंदिर के नजदीक रुपए-पैसे देवद्रव्य के भंडार में भरपाई करना चाहिए। फल बेचनेवालों के पास से खरीदकर फल नहीं चढाना यदि श्रीसंघ अथवा पेढी ऐसी व्यवस्था करने में समर्थ न हो तो निर्माल्य देवद्रव्य की यथायोग्य प्राप्त आय अपने हाथों से चाहिए। देवद्रव्य के भंडार में रखने के बाद चैत्यवन्दन आदि सिद्धशिला के ऊपर की पंक्ति पर सिद्धभगवंतों को भावपूजा प्रारम्भ करनी चाहिए। फल चढाना चाहिए । बदाम भी चल सकती है। . घर के प्रत्येक व्यक्ति में भी ऐसे संस्कार डालने का फलपूजा करते समय बोलने प्रयत्न करना चाहिए। योग्य दोहें: स्वयं चढाई हुई सामग्री की नगद राशि देवद्रव्य के (पुरुष पहले भंडार में रखने से वे श्रावक दर्शनाचार के अतिचार 'नमोर्हत्...' बोले।) स्वरूप देवद्रव्य की उपेक्षा के महान दोष से बच "इन्द्रादिक पूजा भणी, सकता है। फल लावे धरी राग। • मंदिर की कोई भी सामग्री उपयोग में लेने से पहले पुरुषोत्तम पूजी करी, स्वद्रव्य से करने की भावना वाले श्रद्धालु भंडार में मांगे शिवफल त्याग...॥" कुछ न कुछ द्रव्य अवश्य डाल देना चाहिए। 'ॐ ह्रीं श्री परमपुरुषाय मंदिर में उपयुक्त सामग्री का उपयोग पूजारी, उपाश्रय-आयंबिलशाला के कर्मचारी, चौकीदार, परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु साफ-सफाई करनेवाले मजदूर, पेढी के कर्मचारी निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय आदि यदि करते हों तो उन्हें अपना कोई भी कार्य फलानि (एक हो तो नहीं सौंपना चाहिए। 'फलं') यजामहे स्वाहा ।' । मंदिर में यदि पूजारी रखना ही पड़े तो वह श्रावक के (२७ डंका बजाएँ) बदले में कार्य करता है, अतः उसे सर्व साधारण अर्थ : हे, प्रभु ! उपरोक्त | उत्तम फलों से फल-पूजा। खाते में से ही वेतन देना चाहिए । देवद्रव्य में से नहीं भक्तिराग से इन्द्रादि देव देना चाहिए। प्रभुजी की फल पूजा करने के लिए अनेक प्रकार के श्रीसंघ के उदारदिल वाले भाग्यशालियों के द्वारा महीना उत्तम फलों से पूजा कर मोक्ष की प्राप्तिरूप फल को प्रारम्भ होने से पहले निर्माल्य देवद्रव्य के खाते में योग्य पाने में सहायभूत ऐसे त्यागधर्म अर्थात् चारित्रधर्म की राशी श्रीसंघ की ओर से देवद्रव्य की उपेक्षा के दोष से याचना करते हैं । अर्थात् मोक्षफल का दान मांगते हैं। श्रीसंघ को बचाने के लिए देवद्रव्य में डाली जा सकती है। Folamilap १३१ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवन्दन करने से पहले समझने योग्य बातें. पुरुषों को अपनी चादर के छोर पर स्थित करने की भावना हो तो मंदिर में आने-जाने से पानीझालर से तथा स्त्रियों को सुयोग्य रेशमी फूल आदि की विराधना नहीं हुई हो तो दूसरी बार साड़ी के छोर से तीन बार भूमि का 'ईरियावहियं' करने की आवश्यकता नहीं रहती है। यदि प्रमार्जन करना चाहिए। विराधना हुई हो अथवा १०० कदम से अधिक आनाचैत्यवन्दन का प्रारंभ करने से पहले जाना हुआ हो तो अवश्य 'ईरियावहियं' करनी चाहिए। द्रव्यपूजा के त्याग स्वरूप तीसरी निसीहि • 'ईरियावहियं' की शुरुआत करने के बाद पच्चक्खाण न तीन बार कहनी चाहिए। तो लेना चाहिए, न देना चाहिए तथा बीच में से खड़े यह निसीहि बोलने के बाद पाटले पर की होकर प्रक्षाल आदि द्रव्यपूजा करने के लिए भी नहीं गई अक्षतादि द्रव्यपूजा के साथ सम्बन्ध जाना चाहिए । चैत्यवन्दन पूर्ण होने के बाद प्रभुजी को नहीं रहता है । अतः उस पाटला का स्पर्श करने हेतु गर्भगृह आदि में नहीं जाना चाहिए संरक्षण आदि करने से अथवा ऊंगलियों यदि चैत्यवन्दन करने के बाद प्रक्षाल आदि द्रव्यपूज से उसे सीधा करने से निसीहि का भंग करने की अत्यन्त भावना हो तो प्रक्षाल आदि किए गए होता है। प्रभुजी को दूसरी बार पुनः अनुक्रम से अंग-अग्र-भाव • चैत्यवन्दन शुरु करने से पहले योगमुद्रा में पूजा करनी चाहिए। 'ईरियावहियं' अवश्य करनी चाहिए। मन को स्थिर कर चैत्यवन्दन के सूत्र तथा अर्थ के ऊपर इस तरह तीन बार मंदिर में एक चैत्यवन्दन करने के बाद विशेष ध्यान देना चाहिए तथा उसका चिन्तन करन भूमि-प्रमार्जन करें। तुरन्त ही दूसरा चैत्यवन्दन या देववन्दन चाहिए। चैत्यवंदन विधि यदि सम्भव हो तो मंदिर में एक 'खमासमण' सत्तर संडासा पूर्वक देना चाहिए। विराजमान प्रत्येक प्रभुजी को तीन - • खमासमण सूत्र. तीन खमासमण देना चाहिए। इच्छामि खमासमणो ! ॥१॥ उसके बाद ईरियावहियं करनी चाहिए। वंदिउं जावणिज्जाए निसिहिआए ॥२॥ .ईरियावहियं सूत्र. मत्थएण वंदामि ॥३॥ इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! ईरियावहियं पडिक्कमामि ? इच्छं, इच्छामि • खमासमण देने की विधि पडिक्कमिउं ॥ १ ॥ ईरियावहियाए • 'इच्छामि खमासमणो वंदिउँ' बोलते हुए आधे अंग को विराहणाए ॥२॥ गमणागमणे ॥३॥ झुकाना चाहिए। पाणक्कमणे, बीयक्कमणे, हरियक्कमणे, • फिर सीधे होकर 'जावणिज्जाए निसीहिआए' बोलकर दोनों ओसा-उतिंग पणग दग, मट्टी-मक्कडा पैर तथा घुटने रखने की भूमि को प्रमार्जन कर नीचे झुककर संताणा, संकमणे ॥ ४ ॥ जे मे जीवा बैठना चाहिए तथा विराहिया ॥ ५ ॥ एगिदिया, बेईदिया, उसके बाद दोनों तेइंदिया, चउरिदिया, पंचिंदिया ॥ ६॥ हाथों का प्रमार्जन अभिहया, वत्तिया, लेसिया, संघाइया, तथा मस्तक रखने संघट्टिया, परियाविया, किलामिया, की जगह का उद्दविया ठाणाओ ठाणं संकामिया, प्रमार्जन करना जीवियाओ ववरोविया तस्स मिच्छामि चाहिए। दुक्कडं ॥७॥ ऐसे ईरियावहियं करें। इस तरह पंचांग-प्रणिपात दे। . उसके बाद दो तस्स उत्तरी सूत्र पैर, दो हाथ तथा मस्तक रूप पंचांग को सुयोग्य रीति से तस्स उत्तरी-करणेणं, पायच्छित्त-करणेणं, विसोही-करणेण जमीन पर स्थापित करने के साथ ही 'मत्थएण वंदामि' विसल्ली-करणेणं, पावाणं-कम्माणं, निग्घायणढाए ठा बोलना चाहिए । उस समय पीछे का भाग ऊंचा न हो, काउस्सग्गं ॥१॥ इसका ध्यान रखना चाहिए। १३२ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • अन्नत्थ सूत्र. तो सेवक तर्या विना, कहो किम हवे सरसे ॥२॥ अन्नत्थ ऊससिएणं , नीससिएणं, खासिएणं, छीएणं एम जाणीने साहिबाए, नेक नजर मोहे जोय; जंभाईएणं, उड्डएणं, वायनिसग्गेणं, भमलिए, पित्तमुच्छाए ॥१ 'ज्ञानविमल' प्रभु नजरथी ते शुं जे नवि होय? ॥३॥ ॥ सुहुमाह अग-सचालाह, सुहुमाह खल-सचालाह, सुहुमाह (जो भगवान हो उसका अथवा जिस दिट्ठि-संचालेहिं ॥ २ ॥ एवमाइ एहिं आगारेहि, अभग्गो, भगवान के पांच में से कोई भी अविराहिओ हुज्ज मे काउस्सग्गो ॥३॥ जाव अरिहंताणं, कल्याणक हो उसका अथवा सुद -१ से भगवंताणं, नमुक्कारेणं न पारेमि ॥ ४ ॥ ताव कार्य ठाणेणं, दिन वृद्धि के हिसाब से संख्या गिनते मोणेणं, झाणेणं, अप्पाणं वोसिरामि ॥५॥ हुए, उस संख्यावाले (वद('जिनमुद्रा' में एक लोगस्स 'चंदेसु निम्मलयरा' तक, न आता १=१५+१=१६ में भगवान, वदहो तो चार बार श्री नवकार मंत्र का काउस्सग्ग करके 'नमो ९,१०,११ को २३वे भगवान और १२ अरिहंताणं' बोलकर पार के प्रगट लोगस्स सूत्र बोलना से अमावस्या तक २४ मे भगवान, चाहिए।) प्रभुजी का चैत्यवंदन बोलना चाहिए । •लोगस्स (नामस्तव) सूत्र. सामान्य जिन चैत्यवंदन किसी भी प्रभुजी लोगस्स उज्जोअगरे, धम्म तित्थयरे जिणे । अरिहंते कित्तइस्सं, स्सा के समक्ष बोला जा सकता है।) चउविसं पि केवली ॥१॥ उसभमजिअंच वंदे, संभवमभिणं •जं किंचि सूत्र. दणं च सुमई च । पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥२॥ जं किंचि नाम तित्थं, सुविहिं च पुष्पदंतं, सीअल सिज्जंस वासुपुज्जं च । मुक्तासुक्ति मुद्रा। विमलमणंतं च जिणं, धम्म संतिं च वंदामि ॥ ३ ॥ कुंथु अरंच सग्गे पायालि माणुस्से लोए। मल्लिं, वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च । वंदामि रिट्टनेमि, पासं तह जाइं जिण-बिंबाई, वद्धमाणं च ॥ ४ ॥ एवं मए अभिथुआ, विहुयरयमला ताई सव्वाई वंदामि ॥१॥ पहीणजरमरणा । चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ॥ • नमुत्थुणं सूत्र. ५ ॥ कित्तिय वंदिय महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । नमुत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं ॥१॥ आइगराणं, तित्थयराणं, आरुग्ग बोहिलाभं, समाहि-वर मुत्तं दितु ॥ ६ ॥ चंदेसु सयं-संबुद्धाणं ॥ २ ॥ पुरिसुत्तमाणं, पुरिससीहाणं, निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं-पयासयरा । सागर-वर-गंभीरा, पुरिसवरपुंडरिआणं, पुरिसवर-गंधहत्थीणं ॥ ३ ॥ लोगुत्तमाणं, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥७॥ लोगनाहाणं, लोगहियाणं, लोगपईवाणं, लोगपज्जोअ-गराणं ॥ ४ (फिर वापस तीन बार खमासमण देने है।) ॥ अभयदयाणं, चक्खुदयाणं, मग्गदयाणं शरणदयाणं, •खमासमण सूत्र. बोहिदयाणं, ॥ ५ ॥ धम्मदयाणं धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, इच्छामि खमासमणो !॥१॥ वंदिउं जावणिज्जाए निसिहिआए धम्म- सारहीणं, धम्मवर-चाउरंत-चक्कवट्टीणं ॥ ६ ॥ ॥२॥ मत्थएण वंदामि ॥३॥ अप्पडिहयवरनाण - दंसणधराणं विअट्ट-छउमाणं ॥७॥ जिणाणं -: चैत्यवंदन के प्रारंभ मे बोलने योग्य स्तोत्र : जावयाणं, तिन्नाणं - तारयाणं, बुद्धाणं-बोहयाणं, मुत्ताणं सकल-कुशल-वल्ली, पुष्करावर्त- मेघो; मोअगाणं ॥ ८ ॥ सव्वन्नूणं, सव्वदरिसीणं, सिव-मयल-मरुअ - दुरित-तिमिर-भानुः कल्पवृक्षोपमानः । मणंत - मक्खय - मव्वाबाह-मपुण-राविति-सिद्धिगइ-नामधेयं भवजल-निधि-पोतः, सर्व संपत्ति हेतुः, ठाणं संपत्ताणं नमो जिणाणं जिअभयाणं ॥ ९ ॥ जे अ अईया स भवतु सततं वः; श्रेयसे शान्तिनाथः ॥ सिद्धा, जे अ भविस्संति णागए काले, संपइ अ वट्टमाणा, सव्वे ('श्रेयसे पार्श्वनाथः'आदि बोलना अनुचित है।) तिविहेण वंदामि ॥१०॥ • सामान्य जिन चैत्यवंदन. • जावंति चेइआई सूत्र. तुज मुरतिने निरखवा, मुज नयणा तरसे; (ललाट प्रदेश मे हाथों को मोती की शीप की आकृति समान तुम गुणगणने बोलवा, रसना मुज हरखे ॥१॥ करके मुक्तासुक्ति मुद्रा में यह सूत्र बोले।) काया अति आनंद मुज, तुम युग पद फरसे; १३३ mation AASPORD www. til Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जावंति चेइआई, उड्ढे अ अहे अ तिरिअ लोए ए । सव्वाइं ताइं वंदे, इह संतो तत्थ संताई ॥ १ ॥ (एक खमासमण खडे होकर देना चाहिए ।) • जावंत के वि साहू सूत्र • (मुक्तासुक्ति मुद्रा में यह सूत्र बोले ) जावंत केवि साहू, भरहेरवय-महाविदेहे अ । सव्वेसिं तेसिं पणओ, तिविहेण तिदंड विरयाणं ॥ १ ॥ • पंच परमेष्ठि नमस्कार सूत्र • ( योग मुद्रा में) ( यह सूत्र सिर्फ पुरूष ही बोले ) नमोऽर्हत्-सिद्धाचार्योपाध्याय - सर्व साधुभ्यः ॥ • सामान्य जिन स्तवन ( योग मुद्रा में ) • चरण की सरण ग्रहुं... जिन तेरे.... चरण की सरण ग्रहुं ..... इस तरह चैत्यवंदन करे । हृदयकमल में ध्यान धरत हुं, शिर तुज आण वहुं.... जिन तेरे ॥१॥ तुम सम खोळयो देव खलक में, पेख्यो नाहि कबहुं... जिन तेरे ... ॥२॥ १३४ Binteducation तेरे गुणो की जपुं जपमाला, अहनिश पाप दहुं.... जिन तेरे ॥३॥ मेरे मन की तुम सब जानो, क्यां मुख बहोत कहूं... जिन तेरे... ॥४॥ कहे 'जस' विजय करो त्युं साहिब, जयं भवदुःख न लहुं... जिन तेरे ॥५॥ (चैत्यवंदन में बताई बातें स्तवन में भी समजना । ) • शास्त्रीय शुद्ध राग में पूर्वाचार्यों के द्वारा रचित अथवा स्वयं द्वारा रचित स्तवन मंदस्वर में, दूसरों को अंतरायभूत न हो इस प्रकार सुमधुर कंठ से भावविभोर होकर गाना चाहिए । • मंदिर में प्रभुजी के समक्ष पर्युषण आदि पर्वों के स्तवन (जैसेसुणजो साजन संत.... अष्टमी तिथि सेवो रे... ) तथा तीर्थ की महिमा के (जैसे- विमलाचल नितु वंदिए... ) वर्णन करनेवाले स्तवन नही गाने चाहिए । • प्रभु गुण वैभव का वर्णन तथा स्वयं के दोषों का स्वीकार जिसमें हो, ऐसे अर्थ सहित स्तवन प्रभुजी के समक्ष गाना चाहिए । फिल्मी तर्ज वाले स्तवन गाने योग्य नहीं हैं। • मंदिर में पूजन, पूजा-मंडल अथवा संध्याभक्ति आदि कार्यक्रमों में उपदेशप्रद गीत (जैसे- एक पंखी आवीने उडी गयुं.. मा-बापनो उपकार.. शोकगीत.. ) कभी नहीं गाने चाहिए । • जय वीयराय सूत्र (मुक्ताशुक्ति मुद्रा में ) • जय वीराय ! जग-गुरु ! होउ ममं तुह पभावओ, भयवं भवनिव्वेओ मग्गाणुसारिया इट्ठफलसिद्धि ॥ १ ॥ लोग विरुद्धच्चाओ, गुरुजणपूआ परत्थकरणं च, सुहगुरुजोगो तव्वयण सेवणा आभवमखंडा ॥ २ ॥ (अब यह शेष सूत्र 'योग' मुद्रा में) वारिज्जड़ जड़ वि, नियाण बंधणं वीयराय ! तुह समए, तह वि मम हुज्ज सेवा, भवे भवे तुम्ह चलणाणं ॥ ३ ॥ दुक्खक्खओ कम्मक्खओ समाहिमरणं च बोहिलाभो अ, संपज्जउ मह एअं, तुह नाह ! पणाम करणेणं ॥ ४ ॥ सर्व मंगल मांगल्यं, सर्व कल्याण कारणम् । प्रधानं सर्व धर्माणां, जैनं जयति शासनम् ॥ ५ ॥ ( अब खडे होकर योगमुद्रा में अरिहंत चेड्याणं सूत्र ) अरिहंत चेइआणं करेमि काउस्सग्गं ॥ १ ॥ वंदणवत्तियाए, पुअण-वत्तियाए, सक्कार - वत्तियाए, सम्माणवत्तियाए, बोहिलाभ-वत्तियाए, निरुवसग्ग-वत्तियाए ॥ २ ॥ सद्धाए, मेहाए, धिइए, धारणाए, अणुप्पेहाए, वड्ढमाणीए ठामि काउस्सग्गं ॥ ३ ॥ इस तरह अरिहंत चेइयाणं करें। • अन्नत्थ सूत्र • अन्नत्थ उससिएणं, नीससिएणं खासिएण छीएणं, जंभाईएणं, उड्डुएणं, वायनिसग्गेणं, भमलिए पित्तमुच्छाए ॥१॥ सुहुमेहिं अंग संचालेहिं, सुहुमेहिं खेल संचालेहिं, सुहुमेहिं दिट्टि संचालेहिं ॥ २ ॥ एवमाइ - एहिं आगारेहिं, अभग्गो, अविराहिओ हुज्ज मे काउस्सग्गो ॥ ३ ॥ जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेणं न पारेमि ॥ ४ ॥ ताव कार्य मोणेणं, ठाणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि ॥ ५ ॥ • जिन मुद्रा में नीचे बताई विधि अनुसार एक बार श्री नवकार मंत्र का काउस्सग्ग पूर्ण करके (पुरुष नमोऽर्हत् बोल के ) स्तुति बोलनी चाहिए। anelibrary.org Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काउस्सग्ग करने की विधि • काउस्सग्ग १९ दोष रहित तथा शरीर को एकदम स्थिर: श्री पार्श्वनाथ जिन स्तुति ( = थोय). रखकर, दृष्टि प्रभु के समक्ष अथवा नाक की नोंक की शंखेश्वर पार्श्वजी पूजीए, ओर रखनी चाहिए । होठ सहज ही एक दूसरे को स्पर्श नरभवनो ल्हावो लीजीए। करे, इस प्रकार बंद रखना चाहिए । जीभ को बीच में मन-वांछित पूरण सुरतरु, अथवा तालु में स्थिर रखना चाहिए । दांतों की दोनों जय वामा सुत अलवेसरूं ॥१॥ पंक्तिया एक दूसरे को स्पर्श न कर सके, इस प्रकार (थोय में भी चैत्यवंदन के अनुसार उस-उसरखकर काउसग्ग करना चाहिए। प्रभुजी की थोय बोलनी चाहिए ।) • काउसग्ग करते समय उच्चारण करते हुए, गुनगुनाते फिर वापस एक खमासमण देना चाहिए। हुए अथवा संख्या आदि गिनने के लिए ऊंगलियों की फिर खडे होकर योग मुद्रा में अपनी शक्ति गांठ को स्पर्श नहीं करना चाहिए। अनुसार पच्चक्खाण लेना चाहिए। में काउस्सग्ग करें। इस तरह जिनमु प्रभात के पच्चक्खाण नवकारशी : उग्गए सूरे, नमुक्कारसहिअं मुट्ठिसहिअं, पच्चक्खाइ ( तिविहार उपवास पच्चखामि) चउव्विहंपि आहारं , असणं, पाणं, खाइम, साइमं अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागाणेणं, सव्व-समाहि सूरे उग्गए अब्भत्तटुं पच्चक्खाइ वत्तिया-गारेणं,वोसिड (वोसिरामि।) (पच्चक्खामि), तिविहंपि आहारं, पोरिसि-साढपोरिसि-पुरिमड-अवड्ड असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, उग्गए सूरे नमुक्कारसहिअं, पोरिसिं, साढपोरिसिं, सूरे उग्गए पुरिम४, सहसागारेणं, पारिट्ठावणियग़ारेणं, महत्तरागारेणं, अवटुं मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाइ, (पच्चक्खामि), उग्गए सूरे सव्वसमाहि-वत्तियागारेणं, पाणहार, पोरिसिं, चउव्विहंपि आहारं, असणं, पाणं,खाइम, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, साढपोरिसिं, सूरे उग्गए पुरिमडे, अवढं मुट्ठिसहिअं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहूवयणेणं, पच्चक्खाइ (पच्चक्खामि), अन्नत्थणाभोगेणं, महत्तरागारेणं, सव्व-समाहि-वत्तिया-गारेणं,वोसिरह (वोसिरामि)। सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहूआयंबिल-निवि-एकासगुं-बियासणुं वयणेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि-वत्तियागारेणं, उग्गए सूरे नमुक्कारसहिअं, पोरिसिं, साढपोरिसिं सूरे उग्गए पुरिमडूं, पाणस्स लेवेण वा, अलेवण वा, अच्छेण वा, बहुलेवेण अवढं मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाइ (पच्चक्खामि), उग्गए सूरे वा,ससित्थेण वा, असित्थेण वा वोसिरइ ( वोसिरामि)। चउव्विहंपि आहारं, असणं,पाणं, खाइम, साइम, अन्नत्थणाभोगेणं, धारणा अभिग्रह सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहूवयणेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, आयंबिलं, निव्विगइओ धारणा अभिग्गहं पच्चक्खाइ (पच्चक्खामि) विगइओ पच्चक्खाइ (पच्चक्खामि), अन्नत्थणाभोगेणं, अरिहंत-सक्खियं, सिद्ध-सक्खियं साहु-सक्खियं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, गिहत्थसंसटेणं, उक्खित्तविवेगेणं, देव-सक्खियं, अप्प-सक्खियं, अन्नत्थणाभोगेणं, पडुच्चमक्खिएणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि-वत्तियागारेणं वत्तियागारेणं एगासणं, बियासणं, पच्चक्खाइ (पच्चाक्खामि), वोसिड(वोसिरामि)। चउव्विहंपि तिविहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, देशावगासिक अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, सागरियागारेणं, आउंटेण-पसारेणं, देसावगासियं, उवभोगं परिभोगं, पच्चखाइ गुरुअब्भुट्ठाणेणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि (पच्चक्खामि) अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, वत्तियागारेणं, पाणस्स लेवेण वा, अलेवेण वा, अच्छेण वा, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि - वत्तियागारेणं, वोसिरह बहुलेवेण वा,ससित्थेण वा असित्थेण वा, वोसिइ ( वोसिरामि।) (वोसिरामि)। चउविहार उपवास मुट्ठिसहिअं सूरे उग्गए अब्भत्तटुं पच्चक्खाइ (पच्चकखामि), चउव्विहंपि आहारं असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाइ (पच्चक्खामि) अन्नत्थणापारिट्ठा-वणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि- वत्तियागारेणं भोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवोसिड (वोसिरामि)। वत्तियागारेणं, वोसिड (वोसिरामि)। १३५ rivate & Personal use only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाम के पच्चक्खाण पाणाहार उसके बादखमासमण देने के बाद प्रभुजी की भक्ति से उत्पन्न आनन्द को पाणहारदिवसचरिम, पच्चक्खाइ,(पच्चक्खामि) व्यक्त करने के लिए स्तति बोलनी चाहिए। जैसे- आव्यो शरणे तमारा. अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, भवोभव तम चरणोनी सेवा...,जिने-भक्तिजिने भक्ति...,अद्य मे सफल सव्वसमाहि-वत्तियागारेणं,वोसिड(वोसिरामि)। जन्म..., पाताले यानि बिम्बानि..., अन्यथा शरणं नास्ति... अन्त में चउविहार-तिविहार-दुविहार उपसर्गाः क्षयं यान्ति तथा सर्व मंगल मांगल्यं बोलना चाहिए।) दिवसचरिमं पच्चक्खाइ, (पच्चक्खामि), अन्त में जमीन पर घुटनों को रखकर दाहिने हाथ की हथेली की मुट्ठी चउव्विहंपि, तिविहंपि, दुविहंपि आहारं, असणं, बनाकर "प्रभुभक्ति करते हुए यदि कोई भी अविधि-अशातना हुई हो, पाणं, खाइम, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि उन सब के लिए मैं मन-वचन-कायासे मिच्छामि दुक्कडंमांगता हूँ,"ऐसा वत्तियागारेणं, वोसिरह (वोसिरामि)। अवश्य बोलना चाहिए। (पच्चखाण करनेवाले को 'पच्चक्खामि व चैत्यवन्दन पूर्ण होने के बाद पाटला पर रखी हुई सारी सामग्री तथा वोसिरामि'अवश्य बोलना चाहिए) पाटला को योग्य स्थान परस्वयं व्यवस्थित रख देना चाहिए। प्रभुजी को बधाने की विधि चैत्यवन्दन स्वरूप भावपूजा की समाप्ति होने के बाद सोना-चांदीहीरा-माणेक-मोती आदि से प्रभुजी को दोनों हाथों को बधाया जाता है। बधाने के लिए उपरोक्त महगी सामग्री लाना सम्भव न हो तो चांदी अथवा सोने के रंग का वरख चढाए हुए कमल के आकार के फूल तथा सच्चे मोती व चावल से बधाया जा सकता है। स्वस्तिक आदि के चावल में से (पाटला पर से) चावल लेकर नहीं बधाया जा सकता है। • दोनों हाथों में बधाने योग्य सामग्री लेकर बोलने योग्य भाववाही दोहे: "श्री पार्श्व पंचकल्याणक पूजा के गीत". "उत्सव रंग वधामणां, प्रभु पार्श्वने नामे ॥ कल्याण उत्सव कियो, चढ़ते परिणामे, शत वर्षायु जीवीने अक्षय सुख स्वामी ।। तुम पद सेवा भक्ति मां, नवि राखं खामी, साची भक्ते साहिबा, रीझो एक वेळा ॥ श्री शुभवीर हुवे सदा, मनवांछित मेला" वधाते हुए दोहे बोले ....... तीरथ पद ध्यावो गुण गावो, पंचरंगी रयण मिलावो रे॥ थाल भरी भरी मोतीडे वधावो, गुण अनंत दिल लावो रे॥ भलुं थयु ने अमे प्रभु गुण गाया, रसना नो रस पीधो रे॥ रावण राये नाटक कीधो, अष्टापद गिरि उपर रे॥ इस तरह प्रभुजी को बधाया जाता है। थैया थैया नाटक करतां, तीर्थंकर पद लीधुं रे॥ मंदिर के बाहर निकलते समय की विधि प्रभुजी के सम्मुख दृष्टि रखकर हृदय में । आंतरिक आनन्द तथा शान्ति के अनुभव को प्रगट करने के लिए अन्य प्रभु का वास कराते हुए, प्रभुजी को अपनी आराधको को अंतराय न हो, इस प्रकार तीन बार घंटनाद करना चाहिए। पीठ नहीं दिखाई पड़े, इस प्रकार आगे-. घंटनाद के बाद बिना पलक झपकाए अनिमेष दृष्टि से प्रभु की निःस्पृह पीछे तथा दोनों ओर भली-भांति ध्यान करुणादृष्टि का अमीपान करते करते अत्यन्त दुःखपूर्वक प्रभु का सान्निध्य रखते हुए पूजा की सामग्री के साथ पीछे छोड़कर पाप से भरे संसार में वापस जाना पड़ रहा हो, इस प्रकार खेद की ओर चलते हुए प्रवेश द्वार के पास रहे प्रगट करते हुए पीछे पैर रखते हुए प्रवेशद्वार की ओर जाना चाहिए। हए मनोहर घंट के पास आना चाहिए। मौन-धारण, जयणा-पालन, दुःखार्त हृदय आदि का सहजता से अनुभव प्रभुजी की भक्ति करने से उत्पन्न असीम करते हुए आराधक के नेत्र अश्रुपूर्ण हो जाए, यह भी सम्भव है। १३६ १३६ - Educatiem ational Personal use only Ewww.jainelinaya Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्हवण जल लगाने की विधि मंदिर में प्रवेशद्वार के पास किसी भी दिशा से प्रभु की दृष्टि न पड़े, ऐसी जगह पर स्वच्छ कटोरे में ढक्कन के साथ न्हवण जल रखना घण्टनाद चाहिए। अपने शरीर को न्हवण जल का स्पर्श कराने के कारण, उस समय प्रभुजी की दृष्टि पड़े, तो अनादर होता है। साधन छोटा हो तो उस साधन के नीचे भी एक थाली रखनी चाहिए। • न्हवणजल को अनामिका ऊँगली से स्पर्श कर क्रमशः प्रत्येक अंग पर लगाना चाहिए। प्रभुजी के अंग को स्पर्श कर परम पवित्र हुआ न्हवण जल जमीन पर नहीं गिरना चाहिए। न्हवण जल को दाहिनी तथा बांई आंख को स्पर्श करते समय यह भावना रखनी चाहिए कि "मेरी आखों में रहनेवाली दोष दृष्टि तथा काम विकार पांचो अंगो में न्वहण जल लगाए। इसके प्रभाव से दूर हो।" उसके बाद दोनों कानों में स्पर्श करते हुए ऐसी भावना रखनी चाहिए कि "मेरे अन्दर रहनेवाली परदोष श्रवण तथा स्वगुण श्रवण के दोष दूर होकर जिनवाणी के श्रवण में मेरी रुचि जाग्रत हो।" उसके कंठ में स्पर्श करते हुए यह भावना रखनी चाहिए कि "मुझे स्वाद पर विजय प्राप्त हो, परनिन्दास्वप्रशंसा के दोष को निर्मूल होने के साथ गुणीजनों के गुण गाने की सदा तत्परता मिले।" उसके बाद हृदय पर स्पर्श करते हुए ऐसी भावना रखनी चाहिए कि "मेरे हृदय में सभी जीवों के प्रति मैत्रीभाव उत्पन्न हो तथा हे प्रभुजी ! आपका तथा आपकी आज्ञा का सदैव वास बना रहे।" तथा अन्त में नाभिकमल पर स्पर्श कराते हुए यह भावना रखनी चाहिए कि "मेरे कर्ममल मुक्त आठ रुचक प्रदेश की भांति सर्व-आत्मप्रदेश सर्वथा सर्व कर्म मल मुक्त हो।" ऐसी भावना इस तरह प्रभुजी से केशर तिलक अपने अंगो पर करते समय भी रखनी चाहिए। पीछे मडते समय चला जाना चाहिए। . न्हवण जल नाभि के नीचे अंगों पर नहीं लगाना चाहिए। RAO TOTHERE चबूतरे पर बैठने की विधि प्रभुजी अथवा मंदिर की ओर पीठ न रहे, इस प्रकार बैठना चाहिए। रास्ता अथवा सीढी छोड़कर एक ओर मौन धारण कर बैठना चाहिए। . आखें बंद कर मन में तीन बार श्री नवकार मन्त्र का जाप कर हृदय में प्रभुजी का दर्शन करना चाहिए। • मेरा दुर्भाग्य है कि प्रभुजी को छोड़कर घर जाना पड़ रहा है, ऐसा भाव रखकर खड़ा होना चाहिए। |१३७ Jain Educenterna Prive Pere Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. श्री कल्लाण कंदं सूत्र आदान नाम : श्री कल्लाणकंदं सूत्र गौण नाम : श्री पंच जिनस्तुति सूत्र | श्री पांच जिनेश्वरों, पद संपदा :१६ सर्व तीर्थंकरो, गुरु-अक्षर :२३ | श्रुतज्ञान और 'देववंदन-चैत्यवंदन में कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग में लघु-अक्षर : १५३ पारके बोलते समय की मुद्रा'। | श्रुतदेवी की स्तुति। सर्व अक्षर : १७६ सुनते समय की मुद्रा। __ छंद का नाम : इन्द्रवज्रा; राग : भोगी यदालोक नतोऽपि योगी...(श्री पार्श्व पंच कल्याणक पूजा श्लोक) मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ कल्लाण कंदंकल्-लाण-कन्-दम् कल्याण के मूल समान पढम जिणिदं, पढ-मम् जिणिन्-दम्, प्रथम जिनेश्वर(श्रीऋषभदेव) को, संतिं तओ नेमिजिणं- सन्-तिम्-तओ नेमि-जिणम् श्री शांतिनाथ को तथा मुनियों के स्वामी( तीर्थंकर) मुणीदं। मुणीन्-दम्। श्री नेमिनाथ जिनेश्वर को, पासं पयासं सुगुणिक्क-ठाणं, पासम् पया-सम् सु-गुणिक्-क ठा-णम्, प्रकाश स्वरूप एवं सद्गुणों के स्थान रूप श्री पार्श्वनाथ को, भत्तीइ वंदे भित्-तीइ वन्-दे श्री वर्धमान (महावीर) स्वामी को मैं, भक्तिभाव सिरि-वद्धमाणं ॥१॥ सिरि-वद्-ध-माणम् ॥१॥ पूर्वक वंदन करता हूँ। १. गाथार्थ : कल्याण के मूल समान प्रथम जिनेश्वर (श्री ऋषभदेव), श्री शांतिनाथ, मुनियों के स्वामी श्री नेमिनाथ जिनेश्वर, प्रकाश स्वरूप और सद्गुणों के स्थानरूप श्री पार्श्वनाथ एवं श्री महावीर स्वामी को मैं भक्तिभाव पूर्वक वंदन करता हूँ।१. छंद :-उपजाति; राग "भोगी यदालोकनतोऽपि योगी" (पंचकल्याणक पूजा श्लोक) अपार संसार समुद्दपारं, | अपा-र-सन्-सार-समुद्-द-पारम्, पार बिना के संसार समुद्र के किनारे को प्राप्त किये हुए, पत्ता सिवं दितुपत्-ता सिवम्-दिन्-तु शास्त्र के सार रूप शिव-सुख सुइक्कसारं। सुइक-क-सा-रम् । (मोक्ष) को प्रदान करें, सव्वे जिणिंदा सुरविंद-वंदा, सव-वे-जिणिन्-दा-सुर-विन्-द-वन्-दा, देव समूह से वंदित सर्व जिनेश्वरकल्लाण-वल्लीणकल्-लाण-वल्-लीण कल्याण रूपी लता के विसाल-कंदा ॥२॥ विसा-ल-कन्-दा ॥२॥ विशाल मूल समान । २. गाथार्थ : पार बिना के संसार समुद्र के किनारे को प्राप्त किये हुए, देव समूह से वंदित और कल्याण रुपी लता के विशाल मूल समान ऐसे सर्व जिनेश्वर शास्त्र के सार रुप शिव (मोक्ष) सुख को प्रदान करें । २. निव्वाण मग्गे वरजाण कप्पं, निव-वाण-मग्-गे वर जाण-कप्-पम्, निर्वाण (मोक्ष) मार्ग में श्रेष्ठ वाहन समान, पणासियासेस-कुवाइ-दप्पं । पणा-सिया-सेस-कुवा-इ-दप्-पम्। कवादियों के अभिमान को पूर्णतया नष्ट करने वाले, मयं जिणाणं सरणं बुहाणं, मयम्-जिणा-णम् सर-णम् बुहा-णम्, जिनेश्वर द्वारा प्ररूपित मत को विद्वानों को शरण रूप, नमामि निच्चंनमा-मि-निच-चम् मैं नित्य नमस्कार करता हूँ तिजगप्पहाणं ॥३॥ ति-ज-ग-प-प-हा-णम् ॥३॥ तीनों लोक में श्रेष्ठ । ३. गाथार्थ : निर्वाण मार्ग में श्रेष्ठ वाहन समान, कुवादियों के अभिमान को पूर्णतया नष्ट करने वाले, विद्वानों के शरण रूप और तीनों लोक में श्रेष्ठ जिनेश्वर द्वारा प्ररूपित मत को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ। ३. कुंर्दिदु-गोक्खीरकुन्-दिन्-दु-गोक्-खीर मचकुंद पुष्प, चंद्रमा, गाय के दूध और तुसार-वन्ना, तु-सार वन्-ना, हिम जैसे (श्वेत) वर्ण वाली, सरोजहत्थासरो-ज हत्-था (एक) हाथ में कमल को धारण करने वाली , कमले निसन्ना। कम-ले निसन्-ना। कमल पर बैठी हुई, वाए(इ)सिरी पुत्थयवाए (इ)-सिरी-पुत्-थय वागीश्वरी (सरस्वती) देवी (विद्या देवी)(दूसरे) वग्ग-हत्था, वग्-ग-हत्-था, हाथ में पुस्तकों के समूह को (धारण करने वाली) सुहाय सा अम्ह सया पसत्था ॥४॥ सुहा-य सा अम्-ह सया-पसत्-था ॥४॥ सुख देनेवाली (हो) वह हमें सदा प्रशंसनीय है। ४. गाथार्थ : मचकुंद पुष्प, चंद्रमा, गाय के दूधऔर हिम जैसे श्वेत वर्णवाली, (एक) हाथों में कमल को धारण करने वाली और कमल पर बैठी हुई तथा (दूसरे) हाथ में पुस्तकों के समूह को धारण करने वाली, वह प्रशंसनीय सरस्वती देवी हमें सदा सुख देने वाली हो । ४. १३८ Jain Education हा-णम्, कवादियों के मार्ग में हो Rate Personal use only jainolibrary.org Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोग के अभाव से होते अशुद्ध नोट :पूज्य साधु-साध्वीजी भगवंतों को विहार के वर्षों से यह स्तुति विविध उच्चारों के सामने शुद्ध उच्चार दौरान प्रतिदिन उपाश्रय परिवर्तन होता है, उस समय तथा रागों में बोलने की तथा उसमें अशुद्ध शुद्ध एक स्थान में से दूसरे स्थान जब संथारा करने की जगह फिल्मी रागों में बोलने की कल्याणकद कल्लाणकद बदले तब तथा चतुर्विध श्रीसंघ (साधु-साध्वी-श्रावक-कप्रथा प्रारम्भ हो गई है। यह पढमजिणंदं पढमं जिणिदि श्राविका) पक्खी-चौमासी तथा सांवत्सरिक प्रतिक्रमण इच्छित तथा शोभास्पद नहीं है। सुगणिकठाणं सुगुणिक्कठाणं के अगले दिन मांगलिक के रूप में देवसिअ प्रतिक्रमण छन्द के अनुसार उन अक्षरों में भत्तीय वंदे भत्तीई वंदे करे तब तथा चतुर्विध श्रीसंघ जब राइअ प्रतिक्रमण करे यथास्थल विराम लेकर शास्त्रीय अप्पारसंसार अपारसंसार तब 'श्री कल्लाण कंदं सूत्र' का उपयोग चार थोय के रागों के अनुसार अधिक लंबा सव्वे जिणंदा सव्वे जिणिंदा जोड़े के रूप में अवश्य करते हैं। किए बिना बोलना उचित है। IN.SE पदम जिदिन श्री ऋषभदेव प्रभु दर्शन ज्ञान-चारित्र क्षमा आदि कल्याण लताओं के कंद के समान हैं। (प्रभु से ही सारे कल्याण की उत्पत्ति होती है)। उनके नीचे श्री शांतिनाथ भगवान तथा श्री नेमिनाथ भगवान हैं। उसके बगल में ज्ञानप्रकाश के रूप में श्री पार्श्वनाथ भगवान हैं, जो अज्ञान तिमिर को दर करते हैं। उनके नीचे सदगणों के अर्करूप तथा प्रातिहार्य के वैभवयुक्त श्री महावीरस्वामी हैं । १. सामने अनंत जिनेश्वर देव समवसरण में विराजमान हैं, तथा उनकी आत्मज्योत भवसमुद्र पार कर मोक्ष में पहुंच रही है। वे दोनों ओर देवताओं से वंदित होते हैं। तथा उनके (चिंतनादि के द्वारा) प्रभाव से अपने में कल्याण लताएँ विकसित हो रही हैं, जो हाथ जोड़कर | प्रभु से प्रार्थना करती है कि 'शिवं दिंतु सुइक्कसारं' हमें शास्त्रों के सारभूत तथा समग्र प प्रधान जो मोक्ष है, वह प्रदान करें। २. अपार समार रामरवार पत्तासित दिन सहककसारा सळी मिणदा सुर-विद पद सतिमि बदमाण SIM कुदिदु गोक्खीर तुसार-चन्ना सरोजहत्या कमले निसण्णा । 'वाईसरी पुत्थयवानहत्था सुहाय सा अम्ह सया पसत्या ।। जिनागम, यह मोक्षमार्ग =ज्ञान दर्शन-चारित्र में विहार करने के लिए जहाजरूप है। बुद्धिमान लोग अपना जीवनरूपी नौका इसके साथ बांधकर इसकी शरण ली है, जिनमत के इस जहाज के द्वारा मिथ्यावादियों के मद को तोड़ दिए जाने के कारण वह इनके सामने न देखते हुए कदाग्रह में डुब रहा है। ऐसे विश्व में श्रेष्ठ जिनमत को मैं सदा नमस्कार करता हूँ। ३. सामने सफेद वर्णवाली सरस्वती देवी कमल पर बैठी है, उनके एक हाथ में कमल तथा दूसरे हाथ में पुस्तकों का समूह है । और हम प्रार्थना करते हैं कि हमारे सुख के लिए हो । ४. १३९ Jain Education Inter For Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमी तिथि में प्रतिक्रमण दौरान यह सूत्र थोय के रुप में बोलने की मुद्रा अष्टमी तिथि में प्रतिक्रमण दौरान यह सूत्र कायोत्सर्ग में सुनने की मुद्रा । पाक्षिक, चौमासिक व सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में सज्झाय स्वरुप यह सूत्र बोलने-सुनने की मुद्रा । २२. श्री संसारदावा सूत्र आदान नाम : श्री संसारदावानल स्तुति | विषय : गौण नाम : श्री महावीर स्वामी स्तुति आसन्नोपकारी श्री : १६ पद संपदा .: १६ मूल सूत्र संसार- दावा- नल-दाहनीरं, सन्-सार- दावा- नल-दाह- नीरम्, संमोह- धूली- हरणे - समीरं । सम्-मोह-धूली-हर-णे- समी-रम् । माया - रसा- दारण-सार-सीरं, माया-रसा-दार-ण-सार-सीरम्, नमामि वीरं गिरिसारधीरं ॥१॥ नमामि वीरम् - गिरि-सार- धीरम् ॥१॥ गाथा : ४ सर्व अक्षर : २५३ छंद : इन्द्र-वज्रा; राग : भोगी यगालोक नतोडपियोगी... ( श्री पार्श्व पंचकल्याणक पूजा श्लोक ) उच्चारण में सहायक भावा-वनाम - सुर-दानव-मान-वेन, चुला-विलोल - कमला बोधा-गाधं सुपद-पदवीनीर- पुराभिरामं, जीवा - हिंसा - विर-ल-ल-हरीसंग- मागाह - देहं । चुला-वेलं गुरु-गम- मणीसंकुलं- दूर-पारं, १४० Jaily Education International गाथार्थ : संसार रूपी दावानल के शांत करने में जल समान, प्रगाढ मोह रूपी धूल को दूर करने में वायु समान, पृथ्वी को चीरने में तीक्ष्ण हल समान और मेरु पर्वत समान स्थिर श्री महावीर स्वामी को मैं वंदन करता हूँ । १. वीर प्रभु, सर्व तीर्थंकरों आगम-सिद्धांत और श्रुतदेवी की स्तुति...। पद क्रमानुसारी अर्थ संसार रूपी दावानल के ताप को शांत करने में जल समान, प्रगाढ मोहरूपी धूल को दूर करने में वायु समान, माया रूपी पृथ्वी को चीरने में उत्तम तीक्ष्ण हल समान, श्री महावीर स्वामी को मैं नमस्कार करता हूँ, मेरु पर्वत के समान स्थिर । १. छंद : वसंत तिलका; राग : भक्तामर स्तोत्र भावा- वनाम - सुर- दानव-मान-वेन, चुला- विलो- ल-कम-लावलि-मालि-तानि । सम्- पूरि-ता- भिन-त-लोकसमी - हितानि, भाव पूर्वक नमन करने वाले वलि-मालि-तानि । संपूरिता- भिनत - लोकसमी - हितानि, मुकुट में स्थित चपल (डोलती हुई ) कमल श्रेणी (हार) से पूजित, नमन करने वाले लोगों का मनोवांछित संपूर्ण करने वाले जिनेश्वरों के उन चरणों में मैं श्रद्धा पूर्वक नमन करता हूं । २. कामं नमामि जिनराजपदानि तानि ॥२॥ कामम् नमामि - जिन-राजपदा-नि-तानि ॥ २ ॥ गाथार्थ : भाव पूर्वक नमन करने वाले सुरेंद्र, दानवेंद्र और नरेंद्रों के मुकुट में स्थित चपल कमल श्रेणियों से पूजित और नमन करने वाले लोगों के मनोवांछित संपूर्ण करने वाले जिनेश्वरों के उन चरणों में मैं श्रद्धा पूर्वक नमन करता हूँ । २. माया रूपी छंद : मन्दाक्रान्ता ; राग : रे पंखीडा सुखेथी ... ( लोक-गीत) बोधा - गाधम् - सुपद-पद-वी- ज्ञान से गंभीर सुंदर पद रचना रूपी नीर-पूरा-भिरा मम्, जल समूह से मनोहर, जीवा-हीन् -सा-विर-ल-ल-ह-री-जीवों के प्रति अहिंसा की निरंतर लहरों के सङ्-ग-मा- गा-ह-दे-हम् । संगम से अति गहन देह वाले, चूला-वेलम् गुरु-गम-मणीसङ् कुलम् - दूर-पारम्, चूलिका (शास्त्र परिशिष्ट) रूप भरती (ज्वार) वाले, उत्तम आलापक (बहुलतया समान पाठ) रूपी रत्नो से व्याप्त कठिनता से पार पाये जाने वाले, श्री महावीर स्वामी के श्रेष्ठ आगम रूपी समुद्र की सारम् - वीरा-गम-जल-नि-धिम्साद-रम् साधु-सेवे ॥३॥ मैं आदर पूर्वक अच्छी तरह से उपासना करता हूं । ३. सारं वीरा-गम-जल-निधिसादरं साधु सेवे ॥३॥ गाथार्थ : ज्ञान से गंभीर, सुंदर पद रचना रूप जल समूह से मनोहर, जीवों के प्रति अहिंसा की निरंतर लहरों के संगम से अति गहन देह वाले, चूलिका रूप भरती वाले, उत्तम आलाप रूपी रत्नों से व्याप्त और अति कठिनता पूर्वक पार पाये जानेवाले श्री महावीर स्वामी के आगम रूपी समुद्र की मैं अच्छी तरह से आदर पूर्वक उपासना करता हूँ । ३. amalibraty.org Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ छंद : स्रग्धरा; राग : अर्हत् वक्त्र प्रसूतं गणधर रचितं...(स्नातस्या स्तुति गाथा-३) आ-मू-ला-लोल-धूली-बहुल- आ-मू-ला-लो-ल-धूली-बहुल- मूल पर्यंत कुछ डोलने से (गिरे हुए) पराग की परिमला-लीढ-लोला-लि-माला, परि-मला-लीढ-लोला-लि-माला, अधिक सुगंध में आसक्त चपल भ्रमर समूह के झंका-रा-राव-सारा-मल-दल- झङ्-का-रा-राव-सारा-मल-दल- झंकार शब्द से युक्त उत्तम निर्मल पंखुड़ी वाले, कमला-गार भूमि-निवासे। कमला गार-भूमि निवासे । कमल गृह की भूमि पर वास करने वाले, छाया-संभार-सारेछाया-सम्-भार-सारे! कांति पुंज से रमणीय!, वर-कमल-करे!वर-कमल-करे! सुंदर कमल से युक्त हाथ वाली, तार-हारा-भि-रामे !, तार-हारा-भिरामे !, देदीप्यमान हार से सुशोभित !, वाणी-सं-दोह-देहे!वाणी-सन्-दोह-देहे! (तीर्थंकरों की) वाणी के समूह रूप देह वाली, भव-विर-हवरं-देहिभव-विरह-वरम्-देहि हे श्रुत देवी ! मुझे (श्रुतज्ञान का) सार रूप संसार मे-देवि ! सारं ॥४॥ मे देवि! सा-रम् ॥४॥ से विरह (मोक्ष) का श्रेष्ठ वरदान दो। ४. गाथार्थ : मूल पर्यंत कुछ डोलने से गिरे हुए पराग की अधिक सुगंध में आसक्त चपल भ्रमर समूह के झंकार शब्द से युक्त उत्तम निर्मल पंखुड़ी वाले कमल गृह की भूमि पर वास करने वाली, कांति पुंज से रमणीय, सुंदर कमल से युक्त हाथ वाली, देदीप्यमान हार से सुशोभित और (तीर्थंकरों की) वाणी के समूह रूप देहवाली हे श्रुतदेवी ! मुझे (श्रुत ज्ञान के) सार रूप मोक्ष का श्रेष्ठ वरदान दो। ४. अशुद्ध शुद्ध इस स्तुति के रचयिता के सम्बन्धमें जानने योग्य कुछ बातें। नम्मामि वीरं नमामि वीरं जैनधर्म के प्रगाढ द्वेषी व मिथ्याभिमानी हरिभद्र पुरोहित ज्ञान के गर्व के लिटुलोला लिमाला लीढ लोला लिमाला कारण अपनी चार वस्तुएँ लेकर ही गमनागमन करते थे । 'जामुन के वृक्ष की सुरपद पदवी सुपद पदवी डाली'- जंबद्वीप में मेरे जैसा कोई ज्ञानी नहीं है, यह प्रमाणित करने के लिए रखते थे, 'सीढ़ी' यदि कही प्रतिवादी आकाश में चला जाए, तो उसे जिसकी एक गाथा एक ग्रन्थ के बराबर है, ऐसी उतारने के लिए रखते थे। 'कुदाल'-यदि कोई प्रतिवादी डरकर 'संसारदावानल स्तुति' की तीन गाथाओं की रचना की । जमीन में घुस जाए तो उसे निकालने के लिए रखते थे तथा १४४४ ग्रंथ की रचना स्वरूप अन्तिम गाथा की एक पक्ति अपने पेट पर लोहे का पट्टा बांधते थे, क्योंकि उनके अन्दर जो की रचना कर समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुए । तब अगाधज्ञान है, वह कहीं फटकर बाहर न निकल जाए। शासनदेवी की सहायता से श्रीसंघ ने 'झंकारा....से' तीन पद इतना घमंड होने के बावजूद एक अभिग्रह था कि 'जो (पति) की रचना की । यही कारण है कि तीन पक्तिया कुछ मैं सुनूं, यदि वह मेरी समझ में न आए, तो जो व्यक्ति मुझे श्रीसंघ के साथ सज्झाय में बोलने की प्रथा है। वह समझा देगा, वही मेरा गुरु होगा।' इसीके प्रभाव से उन्होंने ___याकिनीमहत्तरासुनू के नाम से प्रसिद्ध पूज्यपाद जैनधर्म को प्राप्त किया । इतना ही नहीं बल्कि सर्वसंग का आचार्यदेव श्रीमद् विजय हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज द्वारा त्याग कर संयमी बनकर अनुक्रम से वे जैनशासन की धुरी को रचित इस स्तुति में एक भी सन्ध्यक्षर नहीं है । तथा संस्कृतसंभालनेवाले प्रकांड विद्वान पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् प्राकृत भाषा का मिश्रण भी है। श्रीमद्जी ने अपनी रचना के विजय हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराजा के रूप में प्रसिद्ध हुए । उनके अन्त में अपना नाम लिखने की जगह 'विरह' शब्द लिखा है। सांसारिक भांजे तथा शिष्यरत्न पू. मुनिराजश्री हंसविजयी तथा भगवान के निर्वाण से १७००-१८०० बाद स्वयं जैन शासन पू. मुनिराजश्री परमहंस विजयजी बौद्धों के द्वारा मारे गए। उस को पाए, वे श्रीमद् को सदा के लिए अखरता था। समय शास्त्रार्थ में बौद्धों को हराकर १४४४ बौद्ध भिक्षुओं को ★ यह 'संसारादावा स्तुति' चतुर्विध श्रीसंघ में आठम के जीवित ही गरमतेल की कड़ाही में डालने को तैयार हुए। दिन बोली जाती है । पक्खी-चौमासी तथा संवत्सरी जैनधर्म की प्राप्ति में सहायभूत मातृहृदया साध्वीजी प्रतिक्रमण में सज्झाय के रूप में बोली जाती है । तथा भगवंत श्री याकिनी महत्तरा वैरभाव के विपाक दर्शन के एक देवसिअ-राइअ प्रतिक्रमण में पू. साध्वीजी भगवंत तथा श्लोक को पढ़कर शान्त हुए तथा अपने गुरुभगवंत के पास महिलाएं पहली तीन गाथाए 'श्री नमोऽस्तु वर्द्धमानाय' तथा दुष्कृत की निन्दा करने के साथ-साथ प्रायश्चित मांगा, पूज्य श्री विशाल लोचन' के बदले (सामूहिक रूप में )बोली गुरुभगवंत ने प्रगाढ ज्ञानी अपने शिष्य को प्रायश्चित के रूप में जाती है। १४४४ ग्रंथों की रचना प्रतिज्ञा दी । दिन-रात की परवाह किए श्री प्रश्नोत्तर चिंतामणि में श्री वीरविजयजीमहाराज ने बिना वे शिष्य नूतन जैनशास्त्रों की रचना करने में मशगुल बन बतलाया है कि अन्तिम तीन पदों में स्थित मंत्र शक्ति से गए। अंतिम समय में १४४० ग्रंथों की रचना करते-करते । क्षुद्र-उपद्रव उपशांत होते हैं। s Private mesanal Use Only मा ४१ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमामि वीर गिरिसारधीरम् । समोहधुलीहरणे समीरम् । मायारसा दारणा सारसी गावागावाती .. बोधागाध सुपदपदवी-पीरपुराभिराम, जीवाहिसा-विरल लहरी संगमागाहदेहम् । चूलावेल गुरुगम-मणि-संकुल दूरपार सारे वीरारामजलनिधि सादर साधु सेवे ॥ परमात्मा की करूणादृष्टि रूपी वाणी से विषयकषाय रूपी दावानल से दग्ध भव्यात्मा का दाह शमन, परमात्मा की देशना रूपी हवा से मोह रूपी धूल का हरण, परमात्मा की वात्सल्यदृष्टि से माया रूपी पृथ्वी को 'खोदने के लिए तीक्ष्ण हल के समान तथा घोर-परिषह-उपसर्ग में भी मेरूपर्वत के समान निश्चल श्री वीरप्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ। १. नाथाभा पशवा દ્રષ્ટિવાદ अपनी पया भावातनाम सुरदानव-मानवेन-चूलाविलोलकमलावलिमालितानि । सपरिताऽभिनतलोकसमीहितानि काम नमामि जिनराजपदानि तानि ।।। BRRERRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRI लालसालानाARRORERNMEANINGRERA 15-05-25-20 Deliनान SHARE सागर के समान गम्भीर अर्थ तथा अहिंसा रूपी तरंगों से गाढ और जिसका पार नहीं पाया जा सके, ऐसे तथा चूलिका-पाठ आदि से युक्त जिनागम का हम आदरपूर्वक सेवन करते हैं । ३. पदविरहवर देहि दो देनि सारम् | मुकुट बद्ध देव-देवेन्द्र-नरेन्द्र की समृद्धि तथा देवी-इन्द्राणी-महारानी के समूह के द्वारा चरणों में नमन कराए गए परमात्मा को मेरा नमस्कार हो । २ कमल रूपी आवास में तथा कमल के आसन पर विराजमान जिनवचनमय सरस्वती देवी को प्रार्थना करनी कि हमें भव-विरह =मोक्ष का वरदान दें तथा मर्यादा में रखनेवाले श्रुतधर्म की वंदन करता हूँ। ४. १४२ Jain Ederation Internal MEET Private &disorial Use onlyay www. motorary.org. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. श्री पुक्ख र-वर-द्दीवड्डे सूत्र पद विषय: [आदान नाम : श्री पुक्खर-वर-द्दीवड्वे सूत्र गौण नाम : श्री श्रुतस्तव सूत्र अज्ञान रुपी अंधकार के संपदा : १६ समूह को नाश गुरु-अक्षर : ३४ करने में समर्थ, देववंदन, चैत्यवंदन प्रतिक्रमण में रत्नत्रयी की लघु-अक्षर : १८२ ऐसे श्रुतज्ञान रुप करते समय बोलते शुद्धि हेतु बोलते सर्व अक्षर : २१६ सुनते समय की मुद्रा। सुनते समय की मुद्रा। आगम की स्तुति । छंद : आर्या; राग : जिण जम्म समये मेरु सिहरे... (स्नात्र पूजा) मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ पुक्खर-वर-द्दीवड्डे, पुक्-खर-वरद्-दी-वड्-ढे, अर्ध पुष्कर-वर द्वीप में धायइ-संडे अ जंबू-दीवे अ।धाय-इ-सण-डे अजम्-बू-दीवे अ। और धातकी खंड में और जंबू द्वीप में भरहेरवय-विदेहे, भर-हे-रव-य विदे-हे, भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में धम्माइगरे नमसामि ॥१॥ धम्-माइ-गरे न-मम्-सामि ॥१॥ (श्रुत) धर्म की आदि करनेवालों को मैं नमस्कार करता हूँ। १. गाथार्थ : अर्ध पुष्कर-वर द्वीप, धातकी खंड और जंबू द्वीप में स्थित भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में (श्रुत) धर्म की आदि करनेवालों को मैं नमस्कार करता हूँ। १. तम-तिमिर-पडल-विद्धं-सणस्स, तम-तिमि-र पड-ल-विद्-धम् सणस्-स, अज्ञान रूपी अंधकार के समूह को नाश करने वाले, सुर-गण-नरिंद-महि-अस्स। सुर-गण नरिन्-द-महि-अस्-स । देवों और राजाओं के समूह से पूजित, सीमा-धरस्स वंदे, सीमा-धरस्-स वन्-दे, मर्यादा धारण करने वाले (श्रत धर्म) को मैं वंदन करता हूँ। पप्फो-डिय-मोह-जालस्स ॥२॥ पप्-फोडि-य-मोह-जा-लस्-स ॥२॥ मोह जाल को तोड़ने वाले, २. गाथार्थ : अज्ञान रूपी अंधकार के समूह को नाश करने वाले, देवों और राजाओं के समूह से पूजित, मर्यादा को धारण करने वाले और मोह जाल को तोड़ने वाले ( श्रुत धर्म ) को मैं वंदन करता हूँ। २. छंद : वसंततिलका; राग : भक्तामर स्तोत्र... जाई-जरा-मरण-सोग-पणा-सणस्स, जाई-जरा-मरण-सोग-पणा-सणस्-स, जन्म,जरा,मृत्युऔर शोक कानाश करनेवाले, कल्लाण-पुक्खल-विसाल कल्-लाण-पुक्-खल-विसा-ल- पुष्कल कल्याण और विशाल सुख सुहा-वहस्स। सुहा-वहस्-स। को देने वाले, को-देव-दाणव-नरिंदको-देव-दा-ण-व नरिन्-द कौन देवेंद्र, दानवेंद्र और गण-च्चिअस्स, गणच्-चिअस्-स, नरेंद्रों के समूह से पूजित धम्मस्स-सार-मुवलब्भ धम्-मस्-स-सार-मुव-लब्-भ- (श्रुत ) धर्म के सार को प्राप्त करे पमायं? ॥३॥ करे पमा-यम् ॥३॥ करके प्रमाद करेगा?।३. गाथार्थ : जन्म, जरा, मृत्यु और शोक को नाश करने वाले, पुष्कल कल्याण और विशाल सुख को देने वाले, देवेंद्र दानवेंद्र और नरेंद्रो के समूह से पूजित (श्रुत) धर्म के सार को प्राप्त कर कौन प्रमाद करेगा? । ३. Jain Echtention interni For Pride & Parsonaru Only १४३ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणमए छंद : शार्दूल-विक्रीडित; राग : स्नातस्या प्रतिमस्य... (वीर प्रभु स्तुति) सिद्धे भो! पयओणमो- सिद्-धे-भो! पय-ओ-णमो- । हेमनुष्यों ! सिद्ध( प्रख्यात )जिन मत (जैन दर्शन) जिण-मए | को मैं आदर पूर्वक नमस्कार करता हूँ, नंदी सया संजमे, नन्-दी सया सञ् (सन्)-जमे, संयम में सदा वृद्धि करने वाला, देवं-नाग-सुवन्न-किन्नर-गण- देवन्-नाग-सुवन्-न-किन्-नर-गण- देव, नाग कुमार, सुवर्ण कुमार और किन्नर देवों के स्सब्भूअ-भावच्चिए। स्सब्-भूअ-भावच्-चिए। समूह द्वारा सच्चे भाव से पूजित, लोगो-जत्थ-पइटिओ लोगो-जत्-थ-पइट-ठिओ जिसमें लोक (सकल पदार्थों का ज्ञान) प्रतिष्ठित (वर्णित) है, जगमिणं तेलुक्क मच्चासुरं, जग-मिणम् तेलुक्-क-मच्-चा-सुरम्, यह जगत तीनों लोक में मनुष्य, (देव) और असुरादि के आधार रूप, धम्मो वड्डउ सासओ विजयओ धम्-मो वड्-ढउ-सासओ-विज-य-ओ- शाश्वत ( श्रुत ) धर्म वृद्धि को प्राप्त हो, विजयों धम्मुत्तरं वड्डउ॥४॥ धम्-मुत्-तरम् वड्-ढउ॥४॥ से उत्तर( चारित्र ) धर्म वृद्धि को प्राप्त हो । ४. गाथार्थ : हे मनुष्यों ! मैं सिद्ध जैन मत को आदर पूर्वक नमस्कार करता हूँ। संयम में सदा वृद्धि करने वाला, देव, नाग कुमार, सुवर्ण कुमार और किन्नर देवों के समूह द्वारा सच्चे भाव से पूजित, जिसमें लोक और यह जगत प्रतिष्ठित है और तीनों लोक के मनुष्य और असुरादि का आधार रूप शाश्वत ( श्रुत) धर्म वृद्धि को प्राप्त हो । विजयों से चारित्र धर्म वृद्धि को प्राप्त हो । ४. मूल सूत्र उच्चारण में सहायक इस सूत्र के सम्बन्धमें कुछ जानकारी. सुअस्स भगवओ- सुअस्-स भगवओ सिद्धांत से ही परमात्मा को तथा उनके द्वारा कहे गए भावों करेमि काउस्सग्गं, करे-मि-काउस्-सग्-गम्, को जाना जा सकता है। यह श्रुतधर्म भरत वगेरे १५ क्षेत्रों में ही होता वंदण-वत्तियाए... वन्-दण-वत्-ति-याए... है, अतः प्रथम गाथा में इन पन्द्रह क्षेत्रों में श्रुतधर्म का प्रतिपादन अन्नत्थ... अन्-नत्-थ... करनेवाले श्री तीर्थंकरदेवों की स्तुति की गई है। दूसरी गाथा में गावार्थ : पूज्य श्रुत धर्म को वंदण आदि करने के श्रुतधर्म की स्तुति, तीसरी गाथा में ऐसे श्रुतधर्म को पाकरप्रमाद नहीं लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। करना चाहिए तथा चौथी गाथा में चारित्र धर्म की प्राप्ति होने के बाद ही श्रुतधर्म विशेष वृद्धि को प्राप्त करता है, ऐसा बतलाया गया है। अशुद्ध सिद्धेभो! पयणोअणमो सिद्धे भो! पयओणमो सूचना : 'देवं नाग' की जगह मतांगर से 'देवन्नाग' भी देखने किन्नरगण सब्भुअ किन्नरगणस्सब्भूअ मिलता है । इस लिए गुरु-अक्षर ३८ के बदले ३५ भी होते हैं। एमवयस्टीवो als सुस्मगलिक पुष्करवर के आधे द्वीप, धातकीखंड तथा जंबूद्वीप में धर्म की आदि करनेवाले अरिहंत प्रभु को भावपूर्वक नमस्कार । १. सीमाधार (आव) अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करनेवाले, सुरसुरेन्द्र के समुदाय के द्वारा पूजित, मोह रूपी अग्निज्वाला को शांत करनेवाले तथा मर्यादा में रखनेवाले श्रुतधर्म को मैं वंदन करता हूँ । २. १४४ Jain Education internati S aineliterary.org Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा रोग शोक मरण श्रत-धर्मी सुख जन्म,वृद्धावस्था, मृत्यु, रोग, शोक, आदि को नाश करनेवाले, सर्वविरतिराजवैभव-देवलोक तथा अन्त में मुक्तिनगर पहुंचाने में समर्थ ऐसे सर्वकल्याण-कर, देव -दानवों से पूजित ऐसे श्रुतधर्म को प्राप्त कर कौन प्रमाद करे?३. देव दानव पूजित कल्याण गाथा-४ सिद्धे भो गति राव झाब अवधिमापर्वय झाब केवल झाब सर्व अरिहंत भगवंतों के द्वारा अर्थ से देशना एक समान चौदह राजलोक में व्याप्त तथा पांच ज्ञान से युक्त होता है। ऐसे श्रुत को पाकर महामुनि सूर्य का तापमान, शिला पर संथारा, घोर उपसर्ग सहन करने की शक्ति, स्त्री परिषह में निर्लेप्तता, षट्कायों की रक्षा तथा जंगली प्राणियों के प्रति करुणा रखनेवाले होते हैं, अतः यह संयमधर्म देव-दान-नागेन्द्र-किन्नर आदि के द्वारा नम्र होने के कारण मुझे सदा संयम में आनंद देनेवाले बनें । ४. १४५ गणे Jan Education intematonal For Private &Personal use Only: Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. श्री सिद्धाणं बुद्धाणं सूत्र आदान नाम : श्री सिद्धाणं बुद्धाणं सूत्र विषय: गौण नाम : सिद्धस्तव सूत्र सर्व सिद्धो को, पद :२० श्री वीर प्रभु, संपदा :२० श्री नेमिनाथ और गाथा गुरु-अक्षर : २५ श्री अष्टापद तीर्थ की देववंदन, चैत्यवंदन प्रतिक्रमण में रत्नत्रयी की शुद्धि हेतु बोलते लघु-अक्षर करते समय बोलते : १५१ स्तवना के साथ सर्व अक्षर : १७६ सुनते समय की मुद्रा। सुनते समय की मुद्रा। मोक्ष की याचना। छंद : गाहा; राग : जिणजम्म समये मेरु सिहरे... (स्नात्र पूजा) मूल सूत्र । उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ सिद्धाणं बुद्धाणं, सिद्-धा-णम् बुद्-धा-णम्, सिद्ध गति को प्राप्त किये हुए सर्वज्ञ, पार गयाणं परंपरगयाणं। पार-गया-णम् परम्-पर-गया-णम् । (संसार समुद्र को) पार किये हुए , (गुणस्थानों की) परंपरा (क्रम) से (सिद्धि में ) गये हुए, लोअग्ग-मुवगयाणं, लोअग्-ग-मुव-गया-णम्, लोक के अग्र भाग पर गये हुए, नमो सया सव्व-सिद्धाणं ॥१॥ नमो सया सव-व-सिद्-धा-णम् ॥१॥ सर्व सिद्ध भगवंतों को सदा नमस्कार हो । १. गाथार्थ : सिद्ध गति को प्राप्त किये हुए, सर्वज्ञ, (संसार समुद्र को) पार किये हुए, परंपरा से (सिद्धि में ) गये हुए और लोक के अग्र भाग पर गये हुए सर्व सिद्ध भगवंतों को सदा नमस्कार हो । १. जो देवाण वि देवो, जो देवा-ण वि देवो, जो देवों के भी देव हैं, जं देवा पंजली नमसंति। जम्-देवा पज ( पन्)-जली-न-मन्-सन्-ति। जिनको देव अंजली पूर्वक नमस्कार करते हैं, तं देव-देव-महिअं, तम् देव-देव-महि-अम्, उन देवों के देव(इंद्र)द्वारा पूजित, सिरसावंदे महावीरं॥२॥ सिर-सा वन्-दे महा-वीरम् ॥२॥ मस्तक झुकाकर श्री महावीरस्वामी को मैं वंदन करता हू।२. गाथार्थ : जो देवों के भी देव हैं, जिनको देव अंजली पूर्वक नमस्कार करते हैं और जो इंद्रों से पूजित हैं, उन श्री महावीर स्वामी को मैं मस्तक झुकाकर वंदन करता हूँ। २. इक्कोविनमुक्कारो, इक्-को विनमुक्-कारो, किया हुआ एकही नमस्कार जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्स। जिण-वरवस-हस्-स वद्-ध-माणस्-स। जिनेश्वरों में उत्तम श्री महावीरस्वामी को संसार-सागराओ, सन्-सार-साग-राओ, संसारसमुद्र से तारेइ नरंव नारिंवा॥३॥ तारे-इ नरम्व नारिम्-वा ॥३॥ नरया नारी को तारता हैं। ३. गाथार्थ : जिनेश्वरों में उत्तम श्री महावीर स्वामी को किया हुआ एक ही नमस्कार नर या नारी को संसार समुद्र से तारता है। ३. उज्जित सेल-सिहरे उज्-जिन्-त-सेल-सिहरे, गिरनार पर्वत के शिखर पर दिक्खा नाणं निसीहिआ जस्स। दिक्-खानाणम् निसी-हिआ जस्-स। जिनकी दीक्षा, केवल ज्ञान और निर्वाण कल्याणक हुए हैं, तं धम्म चक्कवट्टि, तम्-धम्-म चक्-क-वट-टिम्, उन धर्म चक्रवर्तीअरिटुनेमि नमसामि ॥४॥ अरिट्-ठ-नेमिम् नमन्-सामि ॥४॥ श्री अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) को मैं नमस्कार करता हूँ। ४. गाथार्थ : जिनकी दीक्षा, केवल ज्ञान और निर्वाण कल्याणक गिरनार पर्वत के शिखर पर हुए हैं, उन धर्म चक्रवर्ती श्री नेमिनाथ को मैं नमस्कार करता हूँ। ४. चत्तारि-अट्ठ-दस-दोय, चत्-तारिअट्-ठ दस दोय, (अष्टापद पर्वत पर)चार, आठ, दस और दो के क्रम से वंदिया जिणवरा चउव्वीसं, वन्-दि-या जिण-वरा चउव-वी-सम्। वंदित चौबीसों जिनेश्वर, परमट्ठ-निट्ठि-अट्ठा, पर-मट्-ठ-निट-ठि-अट्-ठा, परम ध्येय(मोक्ष) को प्राप्त किये हुए सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥५॥ सिद्-धा-सिद्-धिम् ममदि-सन्-तु॥५॥ सिद्ध भगवंत मुझे सिद्धि (मोक्ष)प्रदान करें।५. गाथार्थ : चार, आठ, दस और दो के क्रम से वंदित चौबीसों जिनेश्वर और मोक्ष को प्राप्त किये हुए सिद्ध भगवंत मुझे मोक्ष प्रदान करें। ५. १४६ Nain duda a ForF o rld Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार तीन प्रकार से किया जाता हैं । १. इच्छा -योग नमस्कार : शुद्ध नमस्कार को समझे, मगर आचरण करने में समर्थ न हो, फिर भी आचरण करने की इच्छा प्रबल हो उसे 'इच्छा योग कहतै है ' । इससे पुण्यबन्ध होता है। २. शास्त्र- योग नमस्कार शुद्ध नमस्कार को समझे और आचरण भी करें, किन्तु उसमें विशेष शुद्धता नही होती है। उसे शास्त्र-योग नमस्कार कहते हैं। इससे कर्म-निर्जरा होती है। ३. सामर्थ्य योग नमस्कार शुद्ध नमस्कार को समझे और आचरण भी करने में समर्थ तथा उसकी प्रत्येक करणी भी शास्त्र बन जाती है, उसे सामर्थ्य योग नमस्कार कहते है। - इससे अन्तमुहूर्त में केवल - ज्ञान की प्राप्ति होती है। (एसो सामर्थ्य योग का नमस्कार प्रस्तुत सूत्र में अपेक्षित है। ) सिद्धाणं = इन बांधे हुए कर्मों को शुक्लध्यान के द्वारा भस्मी भूत करते हुए, बुद्धाणं = चार धार्मिक कर्मों के क्षय से केवलज्ञान व दर्शन को प्राप्त, पारगयाणं = संसार सागर पार किए हुए, परंपरा गयाणं श्रण स्थानक के क्रमानुसार अष्टकर्म का दहन करनेवाले, लोअग्गमुवगयाणं लोक के अग्रभाग को अर्थात् सिद्धावस्था को प्राप्त करनेवाले को मैं नमस्कार करता हूँ । १. ( संदर्भग्रन्थ पू. आ. श्री हरिभद्रसूरिजी कृत योगदष्टि समुच्चय ) जिज्ञासा : अतीत, अनागत, वर्तमान चौबीसी के कितने कल्याणक गिरनार पर्वत परहुए ? अन्तिम ३-३ कल्याक-२४ कुल=५५ परंपरगयाण fade ede पारगयाण बुद्धार्ण सिद्धाणं चला अ दुस- दोय *वंदिया Alter Jain Excalam majeru वि of ter dond apparta जो देवों के भी देव हैं, जो देवताओं की श्रेणी के द्वारा पूजित हैं, उन देवाधिदेव श्री वीरप्रभु को मैं मस्तक से नमस्कार करता हूँ। २. उपयोग के अभाव से होते अशुद्ध उच्चारों के सामने शुद्ध उच्चार शुद्ध लोअग्ग मुवगयाणं नरं बनारि वा तम-धम्मचक्क- वट्टीणं । तं धम्म चक्क वट्टि अशुद्ध लोअग मुवगयाणं नरं बनारि वा o Private तृप्ति वर्तमान चौबीसी के ३ कल्याणक (नेमिनाथ दीक्षा, केवल, मोक्ष ) - ३, अनागत चौबीसी के २२ भगवान के निर्वाण कल्याणक २२, अनागत चौबीसी के अन्तिम २ भगवान के अन्तिम ३-३ कल्याणक-६, अतीत चौबीसी के ८ भगवान के सामर्थ्ययोग द्वारा किया गया प्रभुजी को एक भी नमस्कार, वह नर हो या नारी उसे भावपार कराने में समर्थ बनता है। ३. उनको विभाज विष्णानावसहस् उज्जितसेल- सिहरे दिकस्वा प्राधनि fff ww.fa चार-आठ दस तथा दो की संख्या में चारों दिशाओं में श्री अष्टापद तीर्थ में विराजमान चौबीसों परमात्मा को मैं वंदन करता हूं. वे सिद्ध भगवंत मुझे | सिद्धपद प्रदान करे। ५. बिसीहिया लारस तं धम्मचक्कवट्टीं अरिट्टनेमि नमसमि गिरनार पर्वत पर दीक्षा केवलज्ञान और निर्वाण को प्राप्त तथा धर्म में चक्रवर्त्ती के समान श्री नेमिनाथ भगवान को मैं नमस्कार करता हू । ४. १४७ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. श्री वेयावच्चगराणं सूत्र विषय : आदान नाम : श्री वेयावच्चगराणं सूत्र गौण नाम : श्री सम्यग्दृष्टि-देव की स्तुति गाथा :१ सम्यग्दृष्टि देवों का स्मरण करके देववंदन, चैत्यवंदन गुरु-अक्षर : १८ प्रतिक्रमण में रत्नत्रयी की करते समय बोलते शुद्धि हेतु बोलते लघु-अक्षर : ४ धर्म में स्थिरता व सुनते समय की मुद्रा। सुनते समय की मुद्रा। | सर्व अक्षर : २२ समाधिकी याचना। मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पदक्रमानुसारी अर्थ वेयावच्चगराणं वेया-वच-च-गरा-णम् वैयावृत्त्य (सेवाशुश्रुषा)करने वालों के निमित्त से संतिगराणं सन्-ति-गरा-णम् शांति(उपद्रवादिका निवारण)करनेवालों के निमित्त से सम्म-द्दिट्ठि-समाहि-गराणं, सम्-मद्-दिट्-ठि-समा-हि-गरा-णम्, सम्यग्दृष्टियों को समाधिउत्पन्न करनेवालों के निमित्त से करेमिकाउस्सग्गं ॥१॥ करे-मिकाउस्-सग्-गम्॥१॥ मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।१. अन्नत्थ अन्-नत्-थ.. गाथार्थ : वैयावृत्त्य करने वालों के निमित्त से, शांति करने वालों के निमत्त से और सम्यग् दृष्टियों को समाधिउत्पन्न कराने वाले ( देवताओं) के निमित्त से मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।१. प्रभुजी की विशिष्ट भावपूजा में उपयोगी देववंदन की विधि • एक खमासमण दें, उसके बाद योगमुद्रा में : बोलते हुए पूर्ण कर पुरुष नमोऽर्हत्' सूत्र बोलकर चार थोयों के 'ईरियावहियं लोगस्स तक पूरा करें। जोड़े में से पहली थोय बोलें । उसके बाद पुनः लोगस्स सूत्र उसके बाद एक खमासमण देकर आदेश मांगें बोलकर सव्वलोए-अरिहंत चेइआणं' तथा अन्नत्थसूत्र बोलकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् चैत्यवंदन करूं ?' एकबार श्री नवकार मंत्रनो काउस्सग्ग करके पूर्णकर दूसरी थोय गुरुभगवंत कहें करेह'तब इच्छं' बोलें। बोलें। उसके बाद सकल कुशलवल्ली'बोलकर'तुज मुरतिने उसके बाद 'श्री पुक्खरवर दीवढे सूत्र', वंदणवत्तियाए-अन्नत्थ निरखवा...'आदि भाववाही एक चैत्यवंदन बोलें। सूत्र बोलकर एकबार श्री नवकारमंत्र का काउस्सग्ग कर उसे पूर्ण उसके बाद जंकिंचि नाम-तित्थं' तथा 'नमुत्थुणं सूत्र' कर तीसरी थोय बोलें, पुनः ‘सिद्धाणं बुद्धाणं' वेयावच्चबोलकर मुक्ताशुक्ति मुद्रा में 'जय वीयराय सूत्र' गराणं-अन्नत्थ सूत्र क्रमशः बोलकर एकबार-श्री नवकार-मंत्र 'आभवखंडा'तक बोलें। का काउस्सग्ग कर पूर्णकर पुरुष 'नमोऽर्हत्' सूत्र तथा महिलाएं उसके बाद एक खमासमण देकर पुनः आदेश मांगें। एकबार श्री नवकारमंत्र बोलकरचौथी थोय बोलें। कि 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन चैत्यवंदन करूं?'. फिर नीचे बैठकर चैत्यवंदन मद्रा में नमत्थणं सत्र बोलकर उसके गुरुभगवंत कहे करेह'तब'इच्छं'कहे। बाद खड़े होकरयोगमुद्रा में पहली चार थोय के जोड़े के समान ही फिर तुरन्त एक भाववाही चैत्यवंदन बोलकर अरिहंत चेइआणं से सिद्धाणं-बुद्धाणं आदि सूत्र तक चार थोय 'जंकिंचि' सूत्र तथा 'नमुत्थुणं' सूत्र बोलकर खड़े क्रमशः बोलकरचौथी थोय बोलें। होकर योगमुद्रा में 'अरिहंत चेइआणं' सूत्र बोलें, • फिर 'नमुत्थुणं' बोलकर 'जावंति चेइआई' मुक्ताशुक्ति मुद्रा में उसके बाद 'अन्नत्थ' बोलकर एकबार श्री नवकार बोलकर खड़े होकर सत्तर संडासा (प्रमार्जना) पूर्वक एक मंत्रनो काउस्सग्ग जिनमुद्रा में करें। 'नमो अरिहंताणं' खमासमणदें। १४८ M ISSION vijainelibrary.org Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • पुनः मुक्ताशुक्ति मुद्रा में जावंत के वि साह' सूत्र बोलकर चैत्यवंदन बोलकर 'जंकिंचि नाम-तित्थं' सूत्र बोलकर पुरुष 'नमोऽर्हत सूत्र' बोलें तथा महिलाए हाथ जोड़कर 'नमुत्थुणं सूत्र' बोलें. उसके बाद मुक्ताशुक्ति मुद्रा में जय एकबार श्री नवकाममंत्र बोलकर एक ही संख्या में सुमधुर वीयराय सूत्र आभवमखंडा तक तथा वारिज्जड़ से योगमुद्रा में स्वर में दूसरों को असुविधा न हो इस प्रकारस्तवन बोलें। पूर्ण सूत्र बोलें। . उसके बाद मुक्ताशुक्ति मुद्रा में 'जयवीय-राय सूत्र'. उसके बाद अंत में एक खमासमण देकर पैरों के पंजे के बल 'आभवखंडा' तक बोलें और फिर एक खमासमण देकर पर दाहिने हाथ की मुट्ठी बांधकर कटासणा, जमीन, चरवला, आदेश मांगें कि 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् चैत्यवंदन रजोहरण (ओघा) पर स्थापना कर देववंदन की विधि करते करूं?'गुरुभगवंत कहें करेह'तब इच्छं' बोलें। हुए जो कुछ अविधि हुई हो, उसके लिए मैं मन-वचन-काया फिर गुजराती, संस्कृत अथवा प्राकृत भाषा में भाववाही से करी मिच्छामि दुक्कडं'बोलें। नोंध : चार थोय के जोड़े का उपयोग श्री कल्लाणकंदं सूत्र श्री देववंदन में उपयोगी चैत्यवंदन -१ तथा संसार दावानल सूत्र की एक-एक गाथा क्रमशः किया जा जय चिंतामणि पार्श्वनाथ, जय त्रिभुवन स्वामी, सके । इसके अतिरिक्त गुजराती में चार थोय के जोड़े, जो नीचे अष्टकर्म रिप जीतीने, पंचमी गति पामी ॥२॥ बतलाए गए हैं, उन्हें तीन बार चैत्यवंदन बोलते समय पूर्व निर्दिष्ट प्रभु नामे आनंद कंद, सुख संपत्ति लईए, चैत्यवंदन विधिमें से 'सकल-कुशल-वल्ली' तथा 'तुज मुरतीने प्रभु नामे भवोभव तणां, पातिक सवि दहिए ॥२॥ निरखवा' का उपयोग किया जा सकता है. इसके अतिरिक्त दो ॐ ह्रीं वर्ण जोडी करी, जपीए पार्श्व नाम, चैत्यवंदन नीचे बतलाए गए हैं। विष अमृत थई परिणमे,लहिए अविचल धाम ॥३॥ श्री देववंदन में उपयोगी चैत्यवंदन - २ श्री देववंदन में उपयोगी चार थोय का जोडा-२ परमेश्वर परमात्मा, पावन परमीट्ठ, प्रह उठी वंदु, ऋषभदेव गुणवंत; जय जगगुरु देवाधिदेव, नयणे में दीट्ठ ॥१॥ प्रभु बेठा सोहे, समवसरण भगवंत । अचल-अकल-अविकार सार, करुणारस सिंधु, त्रण छत्र बिराजे चामर ढाले इंद्र; जगतजन आधार एक, निष्कारण बंधु ॥२॥ जिनना गुण गावे, सुर नर नारीना वृंद ॥१॥ गुण अनंत प्रभु ताहराए, किमही कह्या न जाय, बार पर्षदा बेसे, ईन्द्र ईन्द्राणी राय, रामप्रभु जिन ध्यानथी, चिदानंद सुख थाय ॥३॥ नव कमल रचे सुर, तिहां ठवतां प्रभु पाय । देवदुंदुभि वाजे कुसुम वृष्टि बहु हुंत; श्री देववंदन में उपयोगी चार थोय का जोडा - १ एवा जिन चोवीसे, पूजो एकण चित्त ॥२॥ शंखेश्वर पार्श्वजी पूजीए, नरभवनो लाहो लिजीए । जिन जोजण भूमि, वाणीनो विस्तार मन वांछित पूरण सुरतरु, जय वामा सुत अलवेसरूं ॥१॥ प्रभु अर्थ प्रकाशे रचना गणधर सार । दोय राता जिनवर अति भला, दोय धोला जिनवर गुण नीला। सो आगम सूणतां, छेदी जे गति चार; दोय नीला दोय श्यामल कह्यां,सोले जिन कंचन वर्ण लह्यां ॥२॥ जिन वचन वखाणी, लीजे भवनो पार ॥३॥ आगम ते जिनवर भाखीओ, गणधर ते हियडे राखीयो । जक्ष गौमुख गिरुओ, जिननी भक्ति करेव, तेहनो रस जेणे चाखीयो, ते हुवो शिख सुख साखीयो ॥३॥ तिहां देवी चक्केश्वरी विघ्न क्रोडी हरेव । धरणेन्द्रराय पद्मावती, प्रभु पार्श्व तणां गुण गावती । श्री तपगच्छनायक, विजय सेनसूरिराय, सहु संघना संकट चूरती, नयविमलनां वांछित पूरती ॥४॥ तस्स केरो श्रावक, ऋषभदास गुण गाय ॥४॥ प्रभुजी की भाव पूजा करते समय यदि सम्भव हो प्रभुजी की द्रव्यपूजा तथा भावपूजा के अतिरिक्त विशिष्ट तो चैत्यवंदन के बदले देववंदन करने का आग्रह आराधना का काउस्सग्ग - प्रदक्षिणा खमासमण - साथिया - रखें । यह विशेष लाभदायी कहलाता है. किसी चैत्यवंदन आदि किया जा सकता है. परन्तु जहाँ तक सम्भव भी विशिष्ट तप की आराधना में भाग्यशालियों हो नवकारवाली गिनने के लिए पालथी मारकर प्रभुजी समक्ष को तीनों समय देववंदन करना चाहिए। सुबह का नहीं बैठना चाहिए । हमारा शरीर अशुचि (अपवित्रता) का राइअ प्रतिक्रमण करने से पहले तथा शाम को भंडार होने के कारण किसी विशेष महत्त्वपूर्ण कारण के देवसिअ-पक्खी आदि प्रतिक्रमण करने के बाद अतिरिक्त पूजा के कपड़े में या स्वच्छ कपड़े में प्रभुजी के देववंदन भी नहीं किया जा सकता है। समक्ष अधिक समय तक नहीं बैठना चाहिए। Jal e ction International Horarks.९ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. श्री भगवानादि वंदन सूत्र आदान नाम : श्री भगवानादि वंदन सूत्र विषय : गौणनाम : श्रीपंच परमेष्ठि नमस्कार पंचपरमेष्ठि भगवंतों गुरु-अक्षर : ३ को नमस्कार करने लघु-अक्षर : १६ 'खमासमण' खड़े होकर योगमुद्रा में सर्व अक्षर : १९ स्वरुप है। देकर खड़े हो जाएँ। बोलते-सुनते समय की मुद्रा । मूलसूत्र उच्चारण में सहायक पदक्रमानुसारी अर्थ भगवान्हं, आचार्य हं, भग-वान्-हम्,आ-चार-य-हम्, भगवंतों को वंदन हो,आचार्यो को वंदन हो, उपाध्यायह,सर्वसाधुहं। उपा-ध्या-य-हम्,सर-व-साधु-हम्। उपाध्यायों को वंदन हो,सर्वसाधुओं को वंदन हो, गाथार्थ : भगवंतो को वंदन हो, आचार्यो को वंदन हो, उपाध्यायों को वंदन हो,सर्वसाधुओं को वंदन हो।१. नोट : देवसिअ तथा राइअ प्रतिक्रमण के समय दो-दो बार अशुद्ध शुद्ध आनेवाला यह सूत्र एक-एक खमासमण के बाद बोला भगवानं आचार्य उपाध्यायं भगवान्हं आचार्यहं उपाध्यायह जाता है। उस समय प्रायः बैठे-बैठे शरीर को अति सामान्य सर्वसाधुभ्य-सर्वसाधुभ्यं सर्वसाधुहं रूप से मोड़कर बोला जाता है, वह उचित नहीं है। हमारे परमोपकारी पंचपरमेष्ठि भगवंतों को अतिशय भावपूर्वक सत्तर संडासा (प्रमार्जना) के साथ खमासमण देते हुए वंदन करना चाहिए। शाम के प्रतिक्रमण में पहली बार आनेवाले इस सूत्र के बाद 'इच्छकारी समस्त श्रावक को वंदन करता हूँ' बोलने की प्रथा प्रचलित है। २७. श्री देवसिअपडिक्कमणे ठाउँसूत्र आदान नाम : श्री सव्वस्स वि देवसिअसूत्र, विषय: गौण नाम : संक्षिप्त प्रतिक्रमण स्थापना सूत्र अत्यन्त उपयोगी प्रतिक्रमण गुरु-अक्षर :८ कम शब्दों में करते समय यह लघु-अक्षर : १८ अगाध पापों सूत्र बोलने सुनने की मुद्रा। सर्व अक्षर : २६ की आलोचना। मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पदक्रमानुसारी अर्थ इच्छाकारेण संदिसहभगवन्! इच-छा-कारे-ण सन्-दि-सहभग-वन्! हेभगवान् ! स्वेच्छासे आज्ञा प्रदान कीजिए(कि मैं) देवसिअ ( राइअ) पडिक्कमणे । देवसिअ(राइअ) पडिक्कमणे दिन संबंधित/रात्रि संबंधित प्रतिक्रमण की ठाउं? ठाउम्? स्थापना करूँ? इच्छं, इच-छम्, मैं आपकी आज्ञा स्वीकार करता हूँ सव्वस्स वि, देवसिअ (राइअ), सव-वस्-स वि, देव-सिअ-(राइअ)- सभी दैवसिक/रात्रिक दुच्चितिअ, दुब्भासिअ, दुच्-चिन्-तिअ, दुब्-भा-सिअ, दुष्ट चितवन संबंधी, दुष्ट भाषण संबंधी, दुच्चिट्ठि दुच-चिट्-ठिअ दुष्ट चेष्टा संबंधी मिच्छा मि दुक्कडं ॥१॥ मिच्-छा मि दुक्-क-डम् ॥१॥ मेरे दुष्कृत्य मिथ्या हों । १. गाथार्थ : हे भगवंत ! आप अपनी स्वेच्छा से आज्ञा-प्रदान कीजिए कि मैं दिन संबंधित (=दैवसिक)/रात्रि संबंधित (=रात्रिक) प्रतिक्रमण की स्थापना करूँ? । तब गुरुभगवंत कहे-ठावेह (=स्थापना करो) आपकी आज्ञा प्रमाण है । मेरी सभी दैवसिक/रात्रिक आर्त-रौद्र ध्यान स्वरुप दुष्ट चितवन, पापकारी वचन स्वरुप दुष्ट-भाषण और नहीं करने योग्य क्रिया स्वरुप दुष्ट कायिक क्रिया संबंधित दुष्कृत्य मिथ्या हो । १. सारे दोषों का मूल कारण मन, वचन और काया है, अतः इन तीनों के दूषित व्यवहार से लगे हुए दोषों का इस सूत्र में अतिशय संक्षिप्त में मिथ्या दुष्कृत किया गया है। १५ pdfessnal use only. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभुजी की नवांगी पूजा क्रम →13 श्री सिद्धचक्र महायंत्र पूजा क्रम Inte rternational PESCE LE Only www.jainelibraflar Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. श्री इच्छामि ठामि सूत्र प्रतिक्रमण दौरान बोलते सुनते समय की मुद्रा। विषय: आदान नाम : श्री इच्छामि ठामि सूत्र गौण नाम : अतिचार आलोचन सूत्र | श्रावक धर्म संबंधित गुरु-अक्षर : २९ १२ व्रतों में लगे हुए | लघु-अक्षर : १३८ अतिचारों की क्षमा सर्व अक्षर : १६७ याचना। मूल सूत्र इच्छामि ठामि काउस्सग्गं जो मे, देवसिओ (राइओ) अइआरो कओ काइओ, वाइओ, माणसिओ उच्चारण में सहायक इच-छामि ठामि काउस्-सग्-गम् जो मे देव-सिओ (रा-इओ)अइ-आरो-कओ काइ-ओ वाइ-ओ, माण-सिओ पद क्रमानुसारी अर्थ मैं कायोत्सर्ग में स्थिर होना चाहता हूँ। मेरे द्वारा दिन में/रात्रि में जो अतिचार हुआ हो काया द्वारा, वाणी द्वारा, मन द्वारा, उस्सुत्तो, उम्मग्गो उस्-सुत्-तो, उम्-मग-गो उसूत्र (सूत्र केविरुद्ध) कहने से, उमार्ग में (मार्ग के विरुद्ध)चलने से. अकप्पो, अकरणिज्जो अ-कप्-पो, अ-कर-णिज्-जो अकल्पनीय (आचार के विरुद्ध) वर्तन करने से, अकरणीय (अयोग्य) कार्य करने से, दुज्झाओ, दुव्विचिंतिओ दुज्-झाओ, दुव्-वि-चिन्-तिओ दुष्ट ध्यान ( आर्त या रौद्र ध्यान ) करने से, दुष्ट चिंतन करने से, अणायारो, अणिच्छिअव्वो अणा-यारो, अणिच्-छिअव्-वो अनाचार(न आचारने योग्य आचरण) करने से, अनिच्छित (मन से न चाहने योग्य) वर्तन करने से असावगपाउग्गो असा-वग-पाउग्-गो श्रावक के योग्य व्यवहार से विरुद्ध आचरण करने से, यह अतिचार किस में लगा हो? नाणे, दंसणे नाणे, दन्-स-णे ज्ञान संबंधी, दर्शन संबंधी चरित्ताचरित्ते चरित्-ता-चरित्-ते देश-विरति चारित्र संबंधी सुए,सामाइए सुए, सामा-इए श्रुत ज्ञान संबंधी, दर्शन संबंधी तिण्हं गुत्तीणं तिण-हम् गुत्-ती-णम् तीन गुप्तियों संबंधी चउण्हं कसायाणं चउण्-हम्-कसा-याणम् चार कषाय संबंधी पंचण्ह-मणुव्वयाणं पञ् (पन्)-चण्-ह-म-णु-वया-णम् । पांच अणुव्रत में तिण्हं गुणव्वयाणं तिण्-हम् गुणव-वया-णम् तीन गुणव्रत में चउण्हं सिक्खावयाणं चउण्-हम् सिक्-खा-वया-णम् चार शिक्षाव्रत में बारसविहस्स सावग-धम्मस्स बारस-विहस-स-साव-ग-धम्-मस-स । बारह प्रकार के (व्रत रूपी) श्रावक धर्म में लगे हुए अतिचार की भाव- पूर्वक क्षमा याचना जं खंडिअंजं विराहि जम्-खण्-डि-अम् जम् विरा-हि-अम् जो खंडना हुई हो, जो विराधना हुई हो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। तस्-स मिच्-छा मि दुक्-क-डम् । मेरे वे दुष्कृत्य मिथ्या हो। १५२ Manduction Formate resonar use.com Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथार्थ : मैं कायोत्सर्ग में स्थिर होना चाहता है। १. काया द्वारा, २.वाणी द्वारा, ३. मन द्वारा, ४. उत्सूत्र कहने से, ५. उन्मार्ग में चलने से, ६. अकल्पनीय वर्तन करने से, ७. अकरणीय कार्य करने से, ८. दुष्ट ध्यान करने से, ९. दुष्ट चिंतन करने से, १०. अनाचार करने से, ११. अनिच्छित वर्तन करने से, १२. श्रावक के योग्य व्यवहार से विरुद्ध आचरण करने से, ज्ञान संबंधी, दर्शन संबंधी, देश-विरति चारित्र संबंधी, श्रुत ज्ञान संबंधी, सामायिक संबंधी, तीन गुप्तियों संबंधी, चार कषाय संबंधी और पांच अणुव्रत में, तीन गुणव्रत में, चार शिक्षाव्रत में =बारह प्रकार के श्रावक धर्म में खंडना हुइ हो, जो विराधना हुई हो, मेरे द्वारा दिन में /रात्रि में जो अतिचार हए हो, मेरे वे दुष्कृत्य मिथ्या हो। अशुद्ध शुद्ध उसुत्तो उमग्गो उस्सुत्तो उम्मग्गो दुविचिंतिओ दुविचिंतिओ तिण्ह तिण्हं मिच्छामिदुक्कडम् मिच्छा मि दुक्कडं श्रावक धर्म के १२ व्रतों का संक्षिप्त वर्णन पाँच अणुव्रत : पूर्णकर ठाम चौविहार एकासणा का पच्चक्खाण कर (१) स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत = बड़ी हिंसा से पूज्य साधु-साध्वीजी भगवंत को अपने गहांगण में बचना, (२) स्थूल मृषावाद व्रत = बडा झूठ बोलने बुलाकर सुपात्रदान करना । पूज्य महात्मा जो वस्तु से बचना, (३) स्थूल-अदत्तादान विरमणव्रत = नहीं ग्रहण करें उसी वस्तु के द्वारा एकासणा कर चौविहार दी गई वस्तु को लेने से बचना (४) स्वदारासंतोष- का पच्चक्खाण उसी समय ले लेना। परस्त्रीगमन विरमणव्रत = अपनी पत्नी में संतोष पूज्य महात्मा को मुझे 'अतिथि संविभाग व्रत है, मानकर पराई स्त्री के सेवन से बचना और (५) स्थूल ऐसा कहकर जरुर न हो तो भी सभी वस्तुओं को परिग्रह विरमण व्रत = बड़े परिग्रह से बचना । वहोराने का आग्रह करना अनुचित है।' पू. महात्माओं तीन गुणव्रत : का सर्वथा अभाव हो तो व्रतधारी श्रावक-श्राविका (६) दिग्परिमाणवत : दिशाओं में गमनागमन का को आमंत्रण देकर भोजन कराया जा सकता है। परिमाण निश्चित करना, (७) भोगोपभोग परिमाण मानवभव प्राप्त करने के बाद श्रावकधर्म को स्वीकार व्रत = भोग और उपभोग के परिमाण निश्चित करना कर १२ व्रत अथवा उसकी अल्पसंख्या में भी व्रत तथा (८) अनर्थदंड विरमण व्रत : व्यर्थ पाप से ग्रहण कर व्रतधारी बनना चाहिए । शास्त्रीय वचन के बचना। अनुसार व्रतधारी को ही श्रावक कहा जाता है, उसके चार शिक्षा व्रत : अतिरिक्त भाग्यशालियों को मात्र जैन कहा जाता है। (९) सामायिक व्रत : सामायिक की संख्या का पू. महात्मा आजीवन पाँच महाव्रतों को धारण परिमाण निश्चित करना। करनेवाले होते हैं। (१०) देशावगासिक व्रत : उपवास अथवा कम से यह 'इच्छामि ठामि' सूत्र देवसिअ, पक्खी, चौमासी कम एकासणा करके राइअ-देवसिअ प्रतिक्रमण की अथवा संवत्सरी प्रतिक्रमण करते समय यदि सामायिक के अतिरिक्त आठ सामायिक करना। पंचमहाव्रतधारी पूज्य गुरुभगवंत की निश्रा हो तो (११) पौषधोपवास व्रत : उपवास करके ८ प्रहर का प्रत्येक श्रावक-श्राविका श्रावक-धर्म (जीवन) को अहोरात्र पौधष करना। उद्देश्य कर निर्मित उपरोक्त सूत्र अवश्य मन में बोलना (१२) अतिथि-संविभाग व्रत : अहोरात्र (आठ पहर) चाहिए । क्योंकि पूज्य गुरुभगवंत अपने साधुधर्म पौषधव्रत में चौविहार उपवास करके दूसरे दिन पौधष (जीवन) को उद्देश्य कर इस सूत्र में उसके अनुसार परिवर्तन कर बोलते हैं। १५३ tion Internatta Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण में पंचाचार की शुद्धि के लिए कायोत्सर्ग में चिंतन करने की मुद्रा । मूल सूत्र नाणम्मि दंसणम्मि अ, चरणंमि तवंमि तह य वीरियंमि । आयरणं आयारो, इअ एसो पंचहा भणिओ ॥ १ ॥ २९. श्री नाणम्मि दंसणम्मि सूत्र विषय : पाँच आचारों का प्रभेद के साथ वर्णन तथा अतिचारों का स्मरण कर गर्भित रूप से मिथ्या दुष्कृत की याचना । आदान नाम : श्री नाणम्मि दंसणम्मि सूत्र गौण नाम : श्री पंचाचार की गाथा । १५४ Jain education International पद संपदा गुरु-अक्षर लघु-अक्षर सर्व अक्षर : ३५ : ३५ : ३३ : २५७ : २९० छंद : गाहा; राग : जिण जम्म समये मेरु सिहरे... ( स्नात्र पूजा) उच्चारण में सहायक नाणम्-मि दन्-सणम्-मि अ, चर - णम्-मि तवम्-मि तह य वीरि-यम्-मि । आय-रणम् आयारो, इअ एसो पञ्- ( पन्)- च-हा भणि-ओ ॥१॥ पद क्रमानुसारी अर्थ ज्ञान, दर्शन और चारित्र संबंधी तथा तप और वीर्य (आत्मबल) संबंधी आचरण आचार है । इस तरह यह ( आचार) पाच प्रकार का कहा गया है । १. गाथार्थ : ज्ञान संबंधित, दर्शन संबंधित, चारित्र संबंधित, तप संबंधित और वीर्य संबंधित जो आचरण, वह आचार कहलाता है । ज्ञानादि भेद से यह आचार पाँच प्रकार के कहे गए हैं । १. काले विणए बहु-माणे, उव-हाणे तह अ-निण्-ह व णे । वञ् (वन् ) - जण - अत्-थ-तदु-भए, अट्-ठ-विहो नाण- माया रो ॥२॥ काल, विनय, बहुमान संबंधी, उपधान और अनिह्नवता संबंधी, व्यंजण, अर्थ और इन दोनों संबंधी, आठ प्रकार का ज्ञानाचार है । २. काले विए बहुमाणे, उवहाणे तह अनिण्हवणे । वंजण- अत्थ-तदुभए, अट्ठविहो नाणमायारो ॥२॥ गाथार्थ : १. जो काल (समय) में पढ़ने की आज्ञा हो, उस काल में पढना, यह काल- आचार है । २. ज्ञान और ज्ञानी का विनय करना, यह विनय-आचार है । ३. ज्ञान और ज्ञानी के प्रति बहुमान भाव रखना, यह बहुमान आचार है। ४. सूत्र पढने की योग्यता प्राप्त करने हेतु तप विशेष करना, यह उपधान आचार है । ५. पढ़ाने वाले गुरु का लोप (= विस्मरण) न करना, यह अनिह्नव-आचार है । ६. सूत्र को शुद्ध पढना, यह व्यंजन - आचार है । ७. अर्थ को शुद्ध पढना, यह अर्थ आचार है और ८. सूत्र और अर्थ दोनों शुद्ध पढ़ना, यह तदुभय- आचार है । २. निस्संकिअ निक्कंखिअ, निस्-स-किअ निक्-क-खिअ, निःशंकता, निष्कांक्षता, निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठि अ । निव्-विति-गिच् छा अमू-ढ दिट्-िठि-अ । निर्विचिकित्सा और अमूढ दृष्टि, ववूह थिरिकरणे, उव- वूह थिरि-कर-णे, प्रशंसा, स्थिरीकरण, वच्-छल्-ल-पभा-वणे अट्-ठ ॥३॥ वच्छल्ल पभावणे अट्ठ ॥ ३ ॥ वात्सल्य और प्रभावना- ( दर्शनाचार) के आठ ३. गाथार्थ : १. वीतराग के वचन पर शंका नही करनी, यह निःशंकिता; २. जिनमत के सिवाय अन्यमत की इच्छा नही करनी, यह निष्कांक्षिता; ३. पूज्य महात्माओं के मल से मलीन शरीर देखकर दुर्गंछा नहीं करनी अथवा धर्म के फल प्रति संदेह का त्याग, यह निर्विचिकित्सा; ४. मिथ्याद्दष्टिवालों की ठाठमाठ (= जाहोजलाली) देखकर सत्यमार्ग से विचलित नहीं होना, यह अमूढ द्दष्टिता; ५. समकित धारी के थोडे से भी गुण की प्रशंसा करना, यह उपबृंहणा; ६. धर्म नहीं पानेवाले को और धर्म से च्युत (= गिरते ) जीवों को धर्म मे स्थिर करना, यह स्थिरीकरण; ७. साधर्मिक बंधुओं का अनेक प्रकार से हित का चितवन करना, यह स्थिरीकरण; और ८. दूसरे लोग भी जैनधर्म की अनुमोदना करे, ऐसा कार्य करना, यह प्रभावना है। इस तरह दर्शनाचार के आठ प्रकार विहित है । ३. yurg Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणिहाण जोग-जुत्तो, पणि-हाण-जोग जुत्-तो, चित्त की समाधिपूर्वक(=प्रणिधानयोगसे युक्त) पंचहि समिईहिं पञ्-(पन्)-चहिम्-समि-ईहिम्- पाँच समिति और तीहि गुत्तीहिं। तीहिम् गुत्-त्-हिम्। तीन गुप्तियों ( का पालन) एस चरित्तायारो, एस-चरित्-ता-यारो, यह चारित्राचार के अट्टविहो होइ नायव्वो ॥४॥ अट्-ठ वि-हो होइ नायव्-वो ॥४॥ आठ प्रकार जानने योग्य है ४. गाथार्थ : पांच समिति (= ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-मंडमत्त-निक्खेवणा और पारिष्ठापनिका समिति) और तीन गुप्ति (= मनो गुप्ति, वचन गुप्ति और कायगुप्ति) से मन-वचन-काया की एकाग्रता स्वरुप प्रणिधान योग से युक्त, यह चारित्राचार के आठ आचार जानने योग्य हैं। ४. बारस-विहम्मि वि तवे, बार-स-विहम्-मि वि-त-वे, बारह प्रकार का तप सभितर-बाहिरे कुसल-दिवें। सब-भिन्-तर-बाहि-रे कुसल-दिट्-ठे। आभ्यंतर और बाह्य तप कशल (जिनेश्वरों) द्वारा देखा गया (कथिन) है। अगिलाइ अणाजीवी, अगि-लाइ अणा-जीवी, ग्लानि रहित और आजीविका के हेतु रहित नायव्वो सो तवायारो॥५॥ नायव-वो सो तवा-यारो ॥५॥ वह तपाचार जानने योग्य है। ५. गाथार्थ : बारह प्रकार का आभ्यंतर और बाह्य तप जिनेश्वरों द्वारा कथित है । ग्लानि रहित और आजीविका के हेतु रहित वह तपाचार जानने योग्य है।५. अणसण-मूणो-अरिआ, अण-सण-मूणो-अरि-आ, अणसण, ऊनोदरिता, वित्ति-संखेवणं-रसच्चाओ। वित्-ति सङ्-खेव-णम् रसच्-चाओ। वृत्ति संक्षेप, रस त्याग, काय-किलेसो संली-णया य, काय-किले-सो सर्ल (सम्)-ली-णया य, काय क्लेश और संलीनता (संकोचन) बज्झो तवो होइ ॥६॥ बज्-झो तवो होइ॥६॥ । बाह्य तप है।६. गाथार्थ : १. उपवास, आयंबिल, एकासण आदि तप, वह अनसन तप; २. नियत भोजन परिमाण से कुछ कम खाना, वह उनोदरी तप; ३. आवश्यकता कम करनी और संतोष रखना, वह वृत्तिसंक्षेप तप; ४. घी, दूध, दही आदि का त्याग करना, यह रस त्याग तप ५. लोंच आदि कष्ट द्वारा काया का दमन करना, वह काय-कलेश तप और ६. विषय वासना को रोकना अथवा अपने अंग-उपांग का संकुचन करना, वह संलीनता तप है। इस प्रकार छह प्रकार के बाह्य तप हैं । ६. पायच्छित्तं विणओ, पा-यच-छित्-तम् विणओ, प्रायश्चित, विनय, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। वेया-वच्-चम् तहेव सज्-झाओ। वेयावृत्त्य और स्वाध्याय, झाणं उस्सग्गो वि अ, झाणम् उस्-सग्-गो वि अ, ध्यान और कायोत्सर्ग अब्भितरओ तवो होइ॥७॥ | अब्-भिन्-तरओ तवो होइ॥७॥ । अभ्यंतर तप है। ७. गाथार्थ : १. अपने पर लगे हुए दोषो को गुरु समक्ष निवेदन (= आलोचना) करके, उसकी शुद्धि के लिए तप करना, यह प्रायच्छित तप, यह विनय तप; २. देव-गुर-धर्म-संघ-साधर्मिक के प्रति नम्रता व भक्तिभाव धारण करना, यह विनय तप; ३. अरिहंत, आचार्य, साधु-साध्वी विगेरे की सेवा-शुश्रुषा-भक्ति करनी, यह वेयावच्च तप; ४. वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा स्वरुप पाँच प्रकार का अध्ययन करना, यह स्वाध्याय तप; ५. आर्त्त व रौद्र ध्यान का त्याग कर धर्म व शुक्ल ध्यान में प्रवर्तमान होना, यह ध्यान तप और ६. कर्म के क्षय हेतु कायोत्सर्ग करना, यह काउस्सग्ग तप है। इस तरह छह प्रकार के अभ्यंतर तप है। ७. अणिगूहिअ बलवीरिओ, अणि-गूहि-अ-बल-वीरि-ओ, बल (शारीरिक शक्ति) और वीर्य (आत्मबल) को न छिपाते हुए परक्कमइ जो परक्-क-म-इ जो यथोक्त (शास्त्र में कहे अनुसार उपर्युक्त विषय में) जहुत्तमाउत्तो। जहुत्-त-मा-उत्-तो। पराक्रम (विशेष प्रयत्न) करना गँजड़ अ जहाथाम, जुजु( जुन्)-जइ अ जहा-था-मम्, पालन में यथायोग्य शक्ति जोड़ना नायव्वो वीरिआयारो ॥८॥ नायव-वो वी-रि-आ-यारो ॥८॥ वीर्याचार जानने योग्य है। ८. गाथार्थ : (अपने) बल और वीर्य को छुपाए बिना शास्त्राज्ञा मुताबिक (पूर्वोक्त ज्ञानादि पाँच आचारों के पालन में ) सावधान बनकर उद्यम करे और शक्ति अनुसार प्रवृत्ति करे, वह वीर्याचार जानना । ८. (मन-वचन-काया की संपूर्ण शक्ति से शास्त्रानुसारी प्रवृति को भी वीर्याचार कहते हैं। ) इस प्रकार ज्ञानाचार-८, दर्शनाचार-८, चारित्राचार-८, तपाचार-१२ तथा वीर्याचार-३, कुल ३९ भेद हैं। • नोट : प्रायः वर्षो से प्रतिक्रमण करनेवाले महानुभाव अतिचार की आठ गाथा स्वरुप इस 'श्री नाणम्मि सूत्र' के बदले आठ बार श्री नवकार मंत्र का काउस्सग्ग करते हैं, वह उचित नहीं है। सम्भव हो तो पहले से ही आठ गवंत के पास शुद्ध-उच्चारण पूर्वक सीख लेनी चाहिए। www.jain५ ५ in Education international Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वांदणा में २५ आवश्यक की मुद्रा 'इच्छामि खमासमणो' बोलते-सुनते समय की मुद्रा। 'वंदिउं' बोलते-सुनते समय थोड़ा सा नीचे झुकें। 'निसीहि' बोलते समय गुरु के अवग्रह में प्रवेश करने के लिए जमीन/कटासणा पर बाएं से। दाहिने तीन बार क्रमशः प्रमार्जना करनी चाहिए। गुरु के अवग्रह में प्रवेश करते समय की मुद्रा। प्रवेश कर नीचे बैठने से पहले खमासमण के समान पैर के आगे-पीछे तीन-तीन बार प्रमार्जना करनी चाहिए। प्रमार्जना करके बैठते समय किसी का भी सहारा लिए बिना बैठना चाहिए। यथाजात मुद्रा में बैठने के बाद खमासमण की भांति मुख तथा दोनों हाथों की प्रमार्जना ( मुंहपत्ति से ) कर मुहपत्ति को चरवले पर स्थापन करने से पहले क्रमशः तीन बार प्रमार्जना करनी चाहिए। गुरुचरण पादुका की संकल्पना पूर्वक मुहपत्ति की चरवला पर स्थापना करनी। उस समय मुहपत्ति के बंद किनारे का भाग बाई ओर नीचे रहे, ऐसे रखना चाहिए। १५६ An Education inmanticial For Prime Pemphatony W arnierary.org Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वांदणा में २५ आवश्यक की मुद्रा १० _ 'अ', 'का', 'का' तथा 'ज'"ज्ज' बोलते समय दोनों हाथों की दसों ऊगलियों से (नाखून का स्पर्श न हो, इस प्रकार) चरवले पर स्थापित मुहपत्ति को स्पर्श करनी चाहिए। नीचे से ऊपर की ओर हथेली फिराते समय बीच में कहीं भी अलग नहीं होना चाहिए। 'त्ता''व' और 'च' बोलते समय मुंहपत्ति को पूंठ न लगे, उस तरह मध्यस्थान पर हथेली को एकत्रित करनी चाहिए। १४ १२ १३ । 'हो', 'यं"य' तथा 'भे', 'णि','भे' 'संफासं' तथा 'खामेमि' बोलते हुए शीर्षनमन बोलते समय दोनों हाथों की दसों ऊगलियों से करते समय दोनों हाथों की खुली (नाखन का स्पर्श न हो, इस प्रकार) (अंजलि जैसी) हथेली हल्के से मुहपत्ति पर कपाल प्रदेश पर स्पर्श करना चाहिए। स्पर्श करके मस्तक हथेली में रखना चाहिए। मस्तक हथेली पर स्पर्श करे, उस समय पीछे से थोड़ा भी ऊँचा नहीं होना चाहिए। (त्रस जीवों की हिंसा से बचने के लिए) ---- 'आवस्सियाए' बोलते समय पहले पीछे की ओर दृष्टि से पडिलेहणा कर, उसके बाद तीन बार बाए से दाहिने. क्रमशः प्रमार्जना करनी चाहिए। पहली वांदणा में तथा दूसरी वांदणा के अन्त में गुरु के अवग्रह से बाहर निकलते समय की मुद्रा। अवग्रह से बाहर निकलते समय की योगमुद्रा के समान दोनों पैरों के बीच में अन्तर रखना चाहिए। दुसरी वांदणा में ऐसा कोई नियम नहीं है। १५७ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. श्री सुगुरुवांदणा सूत्र पद आदान नाम : श्री सुगुरु वांदणा सूत्र विषय: गौण नाम द्वादशावर्त वंदन सूत्र | २५ आवश्यकों के साथ गुरु-अक्षर : २५ ३२ दोष रहित विनय वांदणा देते दशो उंगलीयों का लघु-अक्षर : २०१ भावयुक्त द्वादशावर्त्त समय की मुद्रा। सर्व अक्षर : २२६ ललाट पे स्पर्श। वंदन का वर्णन। मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ १. इच्छा-निवेदन स्थान इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं इच्-छा-मि-खमा-समणो-वन्-दि-उम् मैं चाहता हूँ , हे श्रमाश्रमण ! वंदन करना जावणिज्जाए निसीहिआए ॥१॥ जाव-णिज्-जाए-निसी-हि-आए ॥१॥ (अन्य प्रवृत्ति/व्यापार) त्याग कर शक्ति अनुसार। १गाथार्थ : हे श्रमाश्रमण !(अन्य व्यापार) त्याग कर शक्ति के अनुसार मैं वंदन करना चाहता हूँ। १. २. अनुज्ञा-स्थान अणुजाणह, अणु-जाण-ह, (मर्यादित भूमि / गुरु के समीपवर्ती भूमि ) में । मे मिउग्गहं मे मि-उग्-ग-हम् प्रवेश करने के लिये मुझे आज्ञा प्रदान करो निसीहि ॥२॥ नि-सी-हि ॥२॥ अशुभ व्यापार को त्याग करके । २. गाथार्थ : मुझे अवग्रह में प्रवेश करने के लिये आज्ञा प्रदान करो । अशुभ व्यापार को त्याग करके, आपके चरणों को मेरी काया ( मेरे हाथ ) द्वारा स्पर्श होने से हुए खेद के लिए आप क्षमा करें। २. अहो, कार्य, अ-हो, का-यम्, 1(आपके) अधो शरीर (शरीर का नीचला भाग/चरणों) काय-संफासं, का-य-सम्-फा-सम्, को मेरे शरीर (हाथ) द्वारा स्पर्श करने से खमणिज्जो भे ! किलामो खम्-णिज्-जो-भे ! कि-लामो, हुए खेद के लिये आप क्षमा करें। गाथार्थ : आपका दिन अल्प ग्लानि और अधिक सुख पूर्वक व्यतीत हुआ है ? आपकी (संयम ) यात्रा (ठीक चल रही है)? आपका मन और इंद्रिया पीड़ा रहित है ? हे क्षमाश्रमण ! दिन में हुए अपराधों की मैं क्षमा मांगता हूँ। २. ३. शरीर सुखशाता-पृच्छा स्थान अप्प-किलंताणं बहुसुभेण भे! अप्-प कि-लन् ता णम् बहु-सु-भेण-भे! आपका दिन अल्प ग्लानि दिवसो (राइओ) दि-वसो (रा-इओ) और अधिक सुख वईक्कंतो ॥३॥ व-इक्-कन्-तो ॥३॥ पूर्वक व्यतीत हुआ है ? । ३. गाथार्थ : आवश्यक क्रिया के लिये (मैं अवग्रह से बाहर जाता हूँ)। दिन में क्षमाश्रमण के प्रति तैंतीस में से जो कोई भी आशातना हुई हो (उसका) मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। ३. १५८ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४-संयम-यात्रा पृच्छा स्थान ज-त्ता भे!॥४॥ जत्-ता-भे!॥४॥ आपकी (संयम) यात्रा (ठीक चल रही है)४. ५. यापना पृच्छा स्थान ज-व-णिज्जंच भे! ॥५॥ जव-णिज्-जञ्-(जन्) च भे! ॥५॥ औरआपका(मन एवं इंद्रियाँ) उपघात पीड़ा ) रहित हैं? ५ ६. अपराधक्षमापना स्थान खामेमिखमासमणो! खामे-मिखमा-सम-णो! हेक्षमाश्रमण ! दिन में हुए व्यतिक्रम देवसिअं(राइअं)वइक्कम ॥६॥ देव-सिअं-(राइ-अं)-वइक्-क-मम् ॥६॥ (अपराधों ) की मैं क्षमा मांगता हूँ।६. गाथार्थ : आपकी (संयम ) यात्रा (ठीक चल रही है)? आपका मन और इंद्रियाँ पीड़ा रहित है ? हे क्षमाश्रमण ! दिन में हुए अपराधों की मैं क्षमा मांगता हूँ। ६. आवस्सिआए, पडिक्कमामि आ-वस्-सि-आए, पडिक्-क-मामि आवश्यक क्रिया के लिये(मैं अवग्रहसे बाहरजाता हूँ) मैं प्रतिक्रमण करता हूँ, खमासमणाणं देवसिआए,(राइआए) खमा-सम-णा-णम् देव-सिआए(राइ-आए) दिन में क्षमाश्रमण के प्रति आसायणाए, आ-सा-य-णाए तैंतीस में से जो कोई भी तित्तीसन्नयराए, तित्-ती-सन्-न-यरा-ए, आशातना की हो। गाथार्थ : आवश्यक क्रिया के लिये ( मैं अवग्रह में से बाहर जाता हूँ)। दिन में क्षमाश्रमण के प्रति तैंतीस में से जो कोई भी आशातना कि हो ( उसका ) मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। जं किंचि मिच्छाए । जङ्-किञ् (किन्)-चि मिच्-छाए, जो कोई मिथ्या भाव द्वारा मण-दुक्कडाए, वय-दुक्कडाए, मण-दुक्-क-डाए, वय-दुक्-क-डाए मन के दुष्कृत्यों द्वारा, वचन के दुष्कृत्यों द्वारा, काय-दुक्कडाए, काय-दुक्-क-डाए, काया से दुष्कृत्यों द्वारा, कोहाए, माणाए, को-हा-ए मा-णा-ए, क्रोध से, मान से, मायाए, लोभाए, मा-या-ए, लो-भा-ए, माया से या लोभ से, गाथार्थ : जो कोई मिथ्या भाव द्वारा, मन, वचन या काया के दुष्कृत्य द्वारा, क्रोध, मान, माया या लोभ से; सव्व-कालिआए, सव-व-कालि-आए, सर्व काल संबंधी सव्व-मिच्छोवयाराए सव-व-मिच-छो-वया-राए, सर्व प्रकार के मिथ्या उपचारों से सव्व-धम्माइक्कमणाए, सव-व-धम्-मा-इक्-कम-णाए सर्व प्रकार के धर्म (करने योग्य प्रवृत्तियों) के अतिक्रमण से आसायणाए आसा-यणा-ए हुए आशातना द्वारा जो मे अइयारो कओ, जो मे अइ-यारो कओ, मुझसे जो अतिचार हुआ हो, तस्स खमासमणो ! पडिक्कमामि, तस्-स खमा-सम-णा! पडिक्-कमा-मि उनका हे क्षमाश्रमण ! मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। निंदामि, गरिहामि निन्-दामि-गरि-हा-मि मैं निंदा करता हूँ , मैं गर्दा करता हूँ। अप्पाणं वोसिरामि ॥७॥ अप्-पाणं-वो-सि-रामि ॥७॥ (अशुभप्रवृत्तियोंवाली)आत्माका मैंत्यागकरताहूं।७. गाथार्थ : सर्व काल में , सर्व प्रकार के मिथ्या उपचारों से या सर्व प्रकार के धर्म अतिक्रमण से हुई आशातना द्वारा मुझ से जो कोई अतिचार हुआ हो, हे क्षमाश्रमण ! उनका मैं प्रतिक्रमण करता हूं, निंदा करता हूँ, गर्दा करता हूँ एवं (अशुभ प्रवृत्तियों वाली) आत्मा का त्याग क १५९ mainelibrary.org Jain Education Inter S Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक-अवश्य करने योग्य क्रिया का पालन वांदणां सूत्र के द्वारा होता है। ★ जिन आवश्यक सूत्रों का उच्चारण करने के क्रिया के लिए उपयोगी होने के कारण दो बार उसकी गिनती लिए श्री वांदणा सूत्र का विशेष पद होता है, की जाती है। वह आवश्यक दो बार करना चाहिए। जिन आवश्यक सूत्रों का उच्चारण करने के लिए वांदणासूत्र का उदाहरण=३, आवर्त्त-अहो कायं काय, ३ विशेष पद नहीं होता है, वह आवश्यक दोनों वांदणा में आने पर आवर्त्त जत्ता भे जवणिज्जं च भे ! इन दोनों भी एक ही बार गिनना चाहिए । उदाहरण के लिए वांदणा में आने के कारण, वह आवश्यक (१) यथाजात मुद्रा तथा (२) गुप्ति का पालन । इस सूत्र में आनेवाले तीन-तीन आवर्त्त के समय सावधानी रखने योग्य विधि: 'अ'- पू. महात्मा रजोहरण के ऊपर तथा श्रावक-श्राविकाएँ 'व' - निश्चित स्वर में बोलते समय चरणस्पर्श ( रजोहरण चरवले पर स्थापित मुंहपत्ति दसों ऊंगलियों से स्पर्श करे। / मुंहपत्ति ) से उठाकर लिए गए उल्टे हाथ को 'हो'- चतुर्विध श्री संघ दसों ऊँगलियों की नोंक से ललाटप्रदेश (रजोहरण) ओघा अथवा मुँहपत्ति से ललाट का स्पर्श करे, वैसी मुद्रा करे। (कपाल प्रदेश) के बीच में पीठ न पड़े, उस प्रकार 'का'- पू. महात्मा रजोहरण के ऊपर तथा श्रावक-श्राविकाएँ किया जाता है। चरवले पर स्थापित मुँहपत्ति दसों ऊँगलियों से स्पर्श करे। 'णि'- चतुर्विध श्री संघ दसों ऊँगलियों की नोंक से चतुर्विध श्री संघ दसों ऊँगलियों की नोंक से ललाटप्रदेश कपालप्रदेश का स्पर्श करे, ऐसी मुद्रा करे। का स्पर्श करे, वैसी मुद्रा करे।। 'ज्ज'- पू. महात्मा रजोहरण के ऊपर तथा श्रावक'का'- पू. महात्मा रजोहरण के ऊपर तथा श्रावक-श्राविकाए श्राविकाएं चरवले के ऊपर स्थापित मुंहपत्ति पर चरवले पर स्थापित मुंहपत्ति दसों ऊंगलियों से स्पर्श करे। दसों ऊँगलियों से स्पर्श करे। 'य'- चतुर्विध श्री संघ दसों ऊँगलियों की नोंक से ललाटप्रदेश 1 'च'- निश्चित स्वर में बोलते समय चरणस्पर्श ( रजोहरण का स्पर्श करे, वैसी मुद्रा करे। / मुँहपत्ति) से उठाकर लिए गए उल्टे हाथ को 'ज'- पू. महात्मा रजोहरण के ऊपर तथा श्रावक-श्राविकाए ( रजोहरण) ओघा अथवा मुंहपत्ति से ललाट चरवले पर स्थापित मुँहपत्ति दसों ऊँगलियों से स्पर्श करे। (कपाल प्रदेश ) के बीच में पीठ न पड़े, उस प्रकार 'त्ता'- निश्चित स्वर में बोलते समय चरणस्पर्श (रजोहरण / किया जाता है। मुंहपत्ति ) से उठाकर लिए गए उल्टे हाथ को (रजोहरण) 'भे'- चतुर्विध श्री संघ दसों ऊँगलियों की नोंक से ओघा अथवा मुँहपत्ति से ललाट (कपाल प्रदेश) के ललाटप्रदेश का स्पर्श करे, ऐसी मुद्रा करे। बीच में पीठ न पड़े, उस प्रकार किया जाता है। गुरु भगवंत से दूर रहने के 'भे'- चतर्विध श्री संघ दसों ऊंगलियों की नोंक से कपालप्रदेश श्रावक-श्राविकाएं चरवले के ऊपर मुहपत्ति में गुरुचरण का स्पर्श करे, ऐसी मुद्रा करे। की स्थापना करते हैं, जबकि पू. महात्मा गुरुभगवंत के 'ज'- पू. मात्मा रजोहरण के ऊपर तथा श्रावक-श्राविकाएं चरवले बिल्कुल निकट होने के कारण वांदणां में वे रजोहरण पर के ऊपर स्थापित मुंहपत्ति पर दसों ऊँगलियों से स्पर्श करे। गुरुचरण की स्थापना करते हैं। वांदणां सूत्र में आनेवाले २५ आवश्यक से सम्बन्धित जानकारी २ = अवनत, २ = प्रवेश, १ = यथाजातमुद्रा, १२ = आवर्त, ४ = शीर्षनमन तथा १ =निष्क्रमण और तीन गुप्ति का पालन = २+२+१+१२+४+१+३= इस प्रकार २५ आवश्यक होते हैं। Jak Escam Sonomy.org Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छामि खमासमणो से निसीहिआए निसीहि वांदणा लेने की मुद्रा २१ ला अवनत, २१ ला प्रवेश २ रा प्रवेश ११ यथाजात मुद्रा अहो कार्य काय संफासं जत्ता भे, जवणि, ज्जं च भे! ६ ३ आवर्त्त खामेमि खमासमणो आवस्सिआए प्रस्तुत सूत्र में यह निम्न प्रकार सम्भव है ? पहेली वांदणा में ६ ३ आवर्त्त २१ ला शीर्ष नमन मन में अर्थ का चिंतन स्पष्ट शुद्ध उच्चारण काया से २५ आवश्यक देना कुल २५ २३ रा शीर्षनमन १/१ निष्क्रमण Jam Education Tash immort ११ मन गुप्ति का पालन ११ वचन गुप्ति का पालन १ काय गुप्ति का पालन १ दूसरी वांदणा में | २ रा अवनत ('बंदिठं' बोलते समय झुकना) (गुरुभगवंत के मित- अवग्रह में प्रवेश करना। ) (माँ के गर्भ में जिस प्रकार बालक रहता है, उस प्रकार बैठकर वांदणा देना । ) ३ आवर्त १२ रा शीर्षनमन (नीचे उपर दसों ऊंगलियों का स्पर्श करना। ) ( यह बोलते हुए दोनों हथेलियों को नीचे स्थापित कर पीछे से ऊँचा हुए बिना, वहाँ मस्तक का स्पर्श करना) (नीचे ऊपर दसों ऊँगलियों के नाखून लगे, इस प्रकार स्पर्श न करें।) ३ आवर्त ४ था शीर्षनमन (ऊपर लिखे हुए शीर्षनमन के अनुसार करना ।) (पहली वांदणा में मित अवग्रह के बाहर निकलते समय की जानेवाली क्रिया) अवग्रह से सम्बन्धित सरल जानकारी पू. गुरुभगवंत तथा श्रावकों के बीच जो अन्तर रखा जाता है, वह अवग्रह कहलाता है। गुरु भगवन्त की आज्ञा के बिना उनके अवग्रह में प्रवेश करना, वह एक प्रकार का अविनय कहलाता है। वांदणा में आज्ञा माँगकर दो बार प्रवेश किया जाता है। साध्वीजी से साधु तथा श्रावक का १३ हाथ का । यदि कटासणा के पिछले छोड़ पर खड़े हों, तो उस समय गुरुवांदणा में अवग्रह के बाहर कहलाता है तथा 'निसीहि' कहने के बाद कटासणा के अगले छोड़ के पास आने से अवग्रह में प्रवेश करना कहा जाता है । अवग्रह में प्रवेश करने के बाद यथाजात मुद्रा में बैठना, मुँहपत्ति / रजोहरण के ऊपर गुरुचरण की स्थापना करनी चाहिए । द्वादशावर्त्त वंदन कब और किस प्रकार करना चाहिए द्वादशावर्त्त वन्दन करना चाहिए। यदि प्रतिदिन करना सम्भव न हो तो १५ दिनों में पक्खी प्रतिक्रमण के बाद अथवा चार महीने में चौमासी प्रतिक्रमण के बाद अथवा अन्त में एक वर्ष में संवत्सरी प्रतिक्रमण के बाद द्वादशावर्त्त वंदन अवश्य करना चाहिए । यदि द्वादशावर्त्त मन-वचन-काया की एकाग्रता के साथ प्रणिधान पूर्वक २५ आवश्यकों का भली-भांति पालन करने के साथ-साथ किया जाए तो यह मोक्ष फल देने में समर्थ होता है तथा संपूर्ण उपयोग रखते हुए भी यदि कहीं त्रुटि रह जाए तो अन्ततः वैमानिक देवलोक का आयुष्य अवश्य बँधाता है । परन्तु ध्यान होने पर भी इसका उपयोग नहीं रखने से चारित्राचार का दोष लगता है और शक्ति का पूर्ण सदुपयोग न करने के कारण वीर्याचार का दोष भी लगता है। । अवग्रह दो प्रकार के होते हैं (१) स्वपक्ष- अवग्रह- साधु से साधु का, साधु से श्रावक का, (साढ़े तीन हाथ का ) । साध्वीजी से साध्वीजी का, साध्वीजी से श्राविका का । (२) परपक्ष अवग्रह : साधु से साध्वीजी तथा श्राविका का ( १३ हाथ का ), पहली वांदणा छह आवर्त्त तथा दूसरी वांदणा छह आवर्त्त इस प्रकार कुल १२ आवर्त को द्वादशावर्त्त वंदन कहा जाता है। यह वन्दन पदवीधारी पदस्थ गुरुभगवंतों को नित्य एक बार करना चाहिए। पौषधव्रत में 'राइअ मुंहपत्ति' - की क्रिया की जाती है, उसे द्वादशावर्त्त वंदन कहा जाता है। पौषव्रत में मुनिभगवंत से ऊपरी पदवीधारी गुरुभगवंत के समक्ष स्थापनाचार्यजी (अक्षादि) के बिना भी यह क्रिया की जा सकती है, परन्तु पदवीधारी न हों तो उन गुरुभगवंत के आगे स्थापनाचार्यजी (अक्षादि) रखकर राइअ मुँहपत्ति (द्वादशावर्त) क्रिया की जा सकती है। पौषध में यह क्रिया अवश्य करनी चाहिए । यह (पौषध) के अतिरिक्त भी पदवीधारी गुरु भगवन्त को चरवला मुँहपत्ति का उपयोग रखने के साथ श्रावक-श्राविकाओं को आज्ञा प्राप्त कर Ate & Persarial Use Onlys १६१ www.jameliorary.org 737 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवन्दना से होनेवाले लाभ श्री हरिभद्रसूरिजी ने श्री ललितविस्तरा चैत्यस्तवन की वृत्ति में 'धर्म प्रतिमूल-भूता वंदना' शब्द के द्वारा वंदना को धर्म का मूल कहा है। कारण की गुरुवंदना से धर्म-चिंतनादि रूप अंकुर फूटते हैं । धर्मश्रवण, धर्म-आचरण रूप शाखाओं -प्रशाखाओं का विस्तार होता है तथा अंत में स्वर्ग और मोक्ष के सुखों की प्राप्ति रूप फूल व फल प्रगट होते हैं। सुगुरु वन्दना से होनेवाले ६ गुणों की प्राप्ति रूप लाभ (१) विनय (२) अहंकार भंग (३) गुरुजन की पूजा (४) जिनाज्ञा का पालन, (५) श्रुतधर्म की आराधना तथा (६) सिद्धिपद की प्राप्ति होती है। सुगुरु की वन्दना नहीं करने से लगनेवाले ६ दोषों की प्राप्तिरूप हानि १. (१) अविनय ( २ ) अभिमान (३) निंदा (४) नीचगोत्रकर्म बंधन ( ५ ) अज्ञानता तथा (६) संसार की वृद्धि प्राप्त होती है। छह आवश्यक में वांदणां (गुरुवन्दन) का समावेश क्यों ? आत्म-विशुद्धि के लिए आयोजित छह आवश्यक की लोकोत्तर क्रिया में (समता की प्राप्ति के लिए जिसका निर्धारण किया है, ऐसे कर्मों से छूटने की इच्छावाला) मुमुक्षु सामायिक आवश्यक की सुन्दर साधना करता हैं। उस समय समत्व की अनुभूति करने के साथ ही इस मार्ग का उपदेश देनेवाले श्री अरिहंत भगवंत के द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का पूर्ण पालन करने से सर्व कर्म-मल से मुक्त श्री सिद्धभगवंतों की भावपूर्वक वन्दना कर चतुर्विंशतिस्तव ( चउविसत्थो) आवश्यक की उपासना से दर्शनाचार की शुद्धि करता है तथा सुगुरुभगवंत की संयमयात्रा आदि से सम्बन्धित प्रश्र पूछकर स्वयं से जाने-अनजाने मन-वचन-काया से होनेवाली आशातना की क्षमा माँगने के द्वारा ज्ञानाचार की विशुद्धि करता है । इसप्रकार दर्शनाचार तथा ज्ञानाचार से विशुद्ध हुआ मुमुक्ष प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और पच्चक्खाण आवश्यक का५. सच्चा अधिकारी बनता है। जिसके द्वारा वह क्रमशः चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार की विशुद्धि करके अपना इच्छित ऐसा मोक्ष साधने में सफल बनता है । इस प्रकार वांदणा (वंदन) आवश्यक, आध्यात्मिक अनुष्ठान की संपूर्ण सफलता के लिए पूर्वसेवा रूप है, १६२ जिससे वह नित्य आवश्यक (अवश्य करने योग्य ) है । सुगुरु भगवंत की मिताक्षरी सुंदर व्याख्या : "जो संसार का शोषण तथा मोक्ष का पोषण करे, वे गुरु कहलाते हैं। " इस वांदणां सूत्र में प्रत्येक प्रतिक्रमण के समय करने योग्य परिवर्तन के सम्बन्ध में सामान्य जानकारी : देवसिअ प्रतिक्रमण में 'दिवसो वइक्कंतो' तथा 'देवसिअं वइक्कम्मं' और 'देवसिआए आसायणाए' बोलें । २. राइअ प्रतिक्रमण में 'राइओ वइक्कंतो' तथा 'राइअं वइक्कम्मं' 'राइआए आसायणाए' बोलना चाहिए। और ३. ४. पक्खी प्रतिक्रमण में 'पक्खो वइक्कंतो' तथा 'पक्खिअं वइक्कम्मं' और 'पक्खिआए आसायणाए' बोलना चाहिए । चौमासी प्रतिक्रमण में 'चउमासी वइक्कंतो' तथा 'चउमासिअं वइक्कम्मं' और 'चउमासीआए आसायणाए' 'बोलें । संवत्सरी प्रतिक्रमण में 'संवच्छरो वइक्कंतो' तथा 'संवच्छरिअं वइक्कम्मं' और 'संवच्छरिआए आसायणाए' बोलें । यह द्वादशावर्त्त वंदन कौन, कब तथा किस प्रकार किया जाता है उसका विस्तृत वर्णन 'श्री गुरुवंदनभाष्य' से जान ले। फिर भी ' श्री पंचिदियसूत्र' आदि में उस सम्बन्ध में कुछ आंशिक वर्णन किया गया है, वह देख लेना आवश्यक है। सुगुरु भगवंत को द्वादशावर्त वंदन करते हुए निम्नलिखित ३२ दोषों को अवश्य त्याग देना चाहिए । (१) आदर रहित वन्दन करे, वह अनाद्दत दोष, (२) अक्कडता रखकर वन्दन करे, वह स्तब्धदोष, (३) किरायेदार, की तरह वन्दन करके भाग जाए, वह अपविद्ध दोष, (४) एक वंदन से एकत्र सभी साधुओं की वन्दना करे, वह परिपिंडित दोष ( ५ ) तीड़ के समान उछलते हुए अथवा ढोल के समान उठ उठकर वन्दन करे, वह टोलगति दोष, (६) रजोहरण/चरवला को अंकुश के समान ग्रहण कर वन्दन करे, वह अंकुश दोष, (७) कछुए के समान रेंगते हुए वन्दन करे, वह कच्छपगति दोष, (८) मछली की भांति उछलते हुए वन्दन करे, वह मत्स्याद्वर्त दोष, (९) मन में आचार्यादि के दोषों का चिंतन करते हुए वंदन करे, वह मनःप्रदुष्ट दोष, (१०) हाथों को पैरों के बीच में रखकर वन्दन करने के बदले, बाहर रखकर वन्दन करे, वह वेदिका बद्ध दोष, (११) विद्यामन्त्र आदि की लालच से वन्दन करे, वह भजंत दोष, (१२) संघ से बाहर निकाल दिए जाने के भय से वन्दन करे, वह भयदोष, (१३) सामाचारी में स्वयं कुशल है, ऐसे अहंकार से वन्दन करे, वह गौरवदोष (१४) मित्रता के कारण से ( सम्मान के अभाव से) वन्दन करे, वह मित्र दोष, (१५) वन्दन करने से मुझे उत्तम वस्त्रादि मिलेंगे, इस आशय से वन्दन करे, वह कारण दोष, (१६) चौरों की भांति छिपकर वन्दन करे, वह स्तैन्य दोष, (१७) गुरुवंदन के अवसर के बिना अपनी ही अनुकूलता देखकर वन्दन करे, वह प्रत्यनीक दोष, (१८) स्वयं अथवा गुरुभगवंत जब क्रोधित हों तब वन्दन करे, वह रूष्ट दोष (१९) अंगुली से तर्जना करते हुए वन्दन करे, वह तर्जित दोष (२०) विश्वास पैदा करने के लिए कपट से वन्दन करे, वह शठ दोष, . Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) अवहेलना-अवज्ञा करते हुए वन्दन करे, वह हीलित दोष, वन्दन करे, वह आश्लिष्टानाश्लिष्ट दोष, (२८) कम अक्षर (२२) वांदणा के बीच विकथा करते हुए वंदना करे, वह बोलकर वन्दन करे, वह उण दोष (२९) बडी आवाज से विपरिकुंचित दोष, (२३) कोई देखे तो वन्दना करे और न देखे 'मत्थएण वंदामि' कहे, वह उत्तरचूलिका दोष, (३०) गूंगे तो वन्दन नहीं करे, वह दृष्टादृष्ट दोष, (२४) पशु की सिंग के के समान मन ही मन बोलकर वन्दन करे, वह मूक दोष, समान ललाट के दोनों ओर अलग-अलग हाथ रखते हुए वन्दन (३१) समस्त वन्दन बडे आवाज़ से बोलकर करे, वह ढड्डर करे, वह शृंगदोष (२५) राजा के कर के समान बेगार से वन्दन दोष तथा (३२) रजोहरण (चरवले) को मशाल के समान करे, तो कर दोष, (२६) इस वन्दन कार्य से कब मुक्त होऊंगा घुमाते हुए वन्दना करे, वह चुडलिक दोष कहलाता है। ? ऐसा सोचते हुए वन्दन करे, वह तन्मोचन दोष, (२७) उपरोक्त बत्तीस दोषों से रहित पच्चीश आवश्यक रजोहरण (श्रावक-श्राविकागण चरवले पर स्थापित मुहपत्ति सहित द्वादशावर्त्त वंदन करने से आत्मा सर्व कर्म-मुक्त समझें) तथा मस्तक पर हाथ लगाकर अथवा बिना लगाए बनकर मुक्तिपद को प्राप्त करती है। गुरुभगवंत के प्रति ३३ आशातना का त्याग करना चाहिए। (१) गुरुभगवंत के आगे जाना । (२) गुरुभगवंत के तब कठोर वचन से उत्तर दे । (२१) गुरुभगवंत जब आवाज आगे खड़े रहना । (३) गुरुभगवंत के आगे बैठना । (४) | दें तो अपने आसन पर बैठे-बैठे जवाब दे । (२२) गुरुभगवंत गुरुभगवंत के बगल में (बांई ओर-दाहिनी ओर) जाना। बुलाए तब 'क्या कहते हो । तुम ही कर लो, इस प्रकार (५) गुरुभगवंत के बगल में (बांए-दाए) खड़े रहना। उपेक्षापर्ण वचन कहे । (२३) गुरुभगवंत बुलाए अथवा (६) गुरुभगवंत के बगल में बैठना । (७) गुरुभगवंत बातचीत करते हों तब सामने जवाब दे अर्थात् तर्जना करे । के बिल्कुल नजदीक आगे चलना । (८) (२४) व्याख्यानश्रवण करते समय मन शुद्ध गुरुभगवंत के बिल्कुल नजदीक खड़े रहना। न रखे । (२५) गुरुभगवंत अथवा श्रेष्ठ साधु (९) गुरुभगंवत के बिल्कुल नजदीक बैठना भगवन्त कोइ काम बताए तो विनय रहित । (१ से ९ आशातना में गुरुभगवंत की भाषण करे । (२६) गुरुभगवन्त जब किसी आज्ञा से यदि ऐसा करना हो तो आशय शुद्ध को समझा रहे हों तब 'यह अर्थ आपको याद होने से दोष नहीं लगता है ।) (१०) नहीं आता है, यह कथा मैं आपको अच्छी गुरुभगवंत से पहले हाथ-पैर धो लेना । तरह समझाऊंगा' ऐसा कहकर कथा का छेद (११) बाहर जाकर आने के बाद गुरुभगवंत करे। (२७)'गोचरी का समय हो गया है...' के पहले 'ईरियावहियं' आलोचना करे । ऐसा कहकर गुरुभगवंत के पास बैठी हुई (१३) गृहस्थ को गुरुभगवंत के पास जाए पर्षदा (सभा) का भंग करे । (२८) उसके पहले अपने पास बुलाए । (१४) गुरुभगवंत के व्याख्या के बाद पर्षदा गोचरी अन्य साधुभगवंत के पास आलोचकर (सभा) में खड़े होकर अथवा बीच सभा में बाद में गुरुभगवंत के पास आलोचित करना श्रोताओं को आकर्षित करने के लिए 'मैं आपको बाद में ।(१५) गोचरी अन्य साधुभगवंत को दिखलाए ।(१६) अच्छी तरह समझ में आ जाए, इस प्रकार समझाऊंगा' ऐसा गुरुभगवंत से पहले अन्य साधुभगवंत को गोचरी वापरने कहे। (३०) गुरुभगवंत का संथारा-आसन-कपडा आदि को के लिए निमंत्रण (आमंत्रण) देना । (१७) गुरुभगवंत पैरों से स्पर्श करे। (३१) गुरुभगवंत के वस्त्रादि को गुरु की पधारे, इससे पहले बिना आज्ञा के अन्य साधुभगवंतों को आज्ञा के बिना उपयोग करे (बैठे-खड़े रहे-लेटे अथवा भोजन कराए । (१८) गुरुभगवंत पधारें इसके पहले | अनिच्छित व्यवहार करे ।) (३२) गुरुभगवंत के आसन से गोचरी में आई हुई अच्छी वस्तुएं स्वयं बिना किसी आज्ञा अधिक ऊँचे आसन पर बैठे तथा (३३) गुरुभगवंत के समान के खा ले । (१९) दिन में गुरुभगवंत के बुलाने पर भी वस्त्रादि का उपयोग करे । अथवा गुरुभगवंत के वस्त्रादि के (सुनने पर भी) उत्तर नहीं दे । (२०) गुरुभगवंत बुलाए समान कीमती अथवा विशेष महगे वस्त्रादि का उपयोग करे। १६३ tematica For Price & PESSEY www.jain Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. श्री देवसिअआलोउंसूत्र आदान नाम : श्री देवसिअं आलोउस विषय : गौण नाम : अतिचार व्रतों में लगे हुए प्रतिक्रमण के इस प्रकार आगे अतिचारों की - - आलोचना सूत्र समय बोलते-सुनते प्रमार्जना करनी, आलोचना के साथ समय की मुद्रा। वह अविधि है। क्षमा याचना। मूलसूत्र उच्चारण में सहायक पदक्रमानुसारी अर्थ इच्छाकारेण संदिसहभगवन् ! इच्-छा-कारे-णसन्-दि-सह-भग-वन्! स्वेच्छा से आज्ञा प्रदान कीजिए भग-वन्! देवसिअं(राइअं)आलोउं? देव-सिअ-(रा-इअम्-)आ-लो-उम्? दिनसंबंधी(रात्री में कीये अपराधों की)आलोचना करूं? इच्छं, इच्-छम्, मैं आपकी आज्ञा स्वीकारकरता हूँ। आलोएमि आ-लो-ए-मि मैं आलोचना करता हूँ। जो मे देवसिओ अइयारो... जो मे देव-सिओअइ-आरो... मेरे द्वारा दिन में जो अतिचार हुआ हो... अर्थः हे भगवंत ! आप (मुझे) इच्छापूर्वक आज्ञा प्रदान करें कि (मैं) दिन (या रात्रि) सम्बन्धी पापों की आलोचना करु ? (तब गुरुभगवंत कहे 'आलोवेह' =आलोचना भले करो) तब (शिष्य कहे) । आपकी आज्ञा प्रमाण है । जो (कुछ) दिन (या रात्रि) सम्बन्धी व्रतों में अतिचार रूप पाप लगे हों, उसकी मैं आलोचना करता हूँ। • नोट : इस सूत्र का अनुसंधान सूत्र'श्री इच्छामि ठामि' के साथ। • इस सूत्र के प्रारम्भ में बहुत से श्रद्धालु आगे चरवला / 'देवसि (राइओ) अइआरो कओ काइओ...' से सूत्र पूर्ण हो, रजोहरण से प्रमार्जना करते हैं । उसमें दूसरी वांदणा के वहां तक बोलना होता है । उसमें प्रतिक्रमण के अनुसार बाद आनेवाले इस सूत्र को लक्ष्य में रखकर योगमुद्रा के 'देवसिओ' शब्द में आवश्यक परिवर्त्तन करना चाहिए । जैसे अनुसार दोनों पैरों के पंजे को रखने के लिए प्रमार्जन देवसिअ प्रतिक्रमण में 'देवसिओ', राइअ प्रतिक्रमण में किया जा सकता है। अवग्रह के अन्दर रहकर यह सूत्र, 'राइओ,' पक्खी प्रतिक्रमण में 'पक्खिओ', चौमासी देवसिक आदि अतिचार तथा वंदित्तु सूत्र आदि बोलकर प्रतिक्रमण में 'चउमासिओ' तथा संवत्सरी प्रकिक्रमण में उसके बाद अवग्रह के बाहर जाने का विधान है, वह 'संवच्छरिओ'बोलना चाहिए। ध्यान में रखना चाहिए। १६४ For Pale & Personal use on Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. श्री सात लाख सूत्र। विषय : प्रतिक्रमण के समय आदान नाम : श्री सात लाख सूत्र | समस्त जीवराशि के प्रति मुँहपत्ति का गौण नाम : जीवराशि-आलोचना| हए हिंसादोष स्वरूप उपयोग पूर्वक बोलते-सुनते सूत्र प्रथम पापस्थानक की समय की मुद्रा। विस्तार से आलोचना। मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ सात लाख पृथ्वीकाय, सात लाख पृथ्-वी-काय, सात लाख पृथ्वी रूप शरीर वाले एक इंद्रिय के जीव, सात लाख अप्काय, सात लाख अप्-काय, सात लाख जल रूप शरीर वाले एक इंद्रिय के जीव, सात लाख तेउकाय, सात लाख तेउ-काय, सात लाख अग्नि रूप शरीर वाले एक इंद्रिय के जीव, सात लाख वाउकाय, सात लाख वाउ-काय, सात लाख वायु रूप शरीर वाले एक इंद्रिय के जीव, दश लाख प्रत्येक दश लाख प्र-त्-ये-क दस लाख स्वतंत्र शरीर से युक्त वनस्पतिकाय, वनस्-पति-काय, वनस्पति रूप एक इंद्रिय जीव, चौद लाख साधारण चौद लाख साधा-रण चौदह लाख अनंत जीवो के बीच एक शरीर से युक्त वनस्पतिकाय, वनस्-पति-काय, वनस्पति रूप के एक इंद्रिय, बे लाख बेइंद्रिय, बे लाख बे इन्-द्रिय, दो लाख दो इंद्रिय वाले जीव, बे लाख तेइंद्रिय, बे लाख ते इन्-द्रिय दो लाख तीन इंद्रिय वाले जीव, बे लाख चउरिंद्रिय, बेलाख चउ-रिन्-द्रिय, दो लाख चार इंद्रिय वाले जीव, चार लाख देवता, चार लाख देव-ता चार लाख (पाच इंद्रिय वाले) देव लोक के जीव, चार लाख नारकी, चार लाख नार-की, चार लाख (पाँच इंद्रिय वाले) नारक के जीव, चार लाख तिर्यंच पंचेंद्रिय, चार लाख तिर्-यञ् (यन्)- चार लाख (देव, मनुष्य और नारक च पञ् (पन्)-चेन्-द्रिय, सिवाय के) पाच इंद्रिय वाले पशु-पक्षी आदि जीव, चौद लाख मनुष्य चौद लाख मनु-ष्य. चौदह लाख मनुष्य, एवंकारे, चोराशी लाख जीव योनि मांहे माहरे जीवे जे कोई जीव हण्यो होय, हणाव्यो होय, हणतां प्रत्ये अनुमोद्यो होय, ते सवि हुं मन-वचन-कायाए करी मिच्छा मि दुक्कडं ॥ गाथार्थ : सात लाख प्रकार के (पृथ्वीरुप जीव) पृथ्वीकाय के जीव (= मट्टी, रेत, पथ्थर इत्यादि), सात लाख प्रकार के (पानी रुप जीव) अप्काय के जीव (= पानी, ओजस, बरफ, कोहरा इत्यादि), सात लाख प्रकार के (अग्निरुप जीव) अग्निकाय के जीव (= लाईट, बल्ब, बेटरी, मशाल इत्यादि), सात लाख प्रकार के (वायुरुप जीव), वायुकाय के जीव (= हवा, पवन, वायरा इत्यादि), दश लाख प्रकार के (एक शरीर में एक जीव रुप) साधारण वनस्पतिकाय के जीव (= जमीनकंद, नील, निगोद इत्यादि), दो लाख प्रकार के (सिर्फ स्पर्श और रस का अनुभव कर सके, ऐसे जीव रुप) बेइन्द्रिय जीव (= शंख, कोडी, कीडे इत्यादि), दो लाख प्रकार के (सिर्फ स्पर्श, रस व गंध का अनुभव कर सके, ऐसे जीव रुप ) तेइंद्रिय जीव (= कीडी (चिंटी), मंकोडा इत्यादि), दो लाख प्रकार के (सिर्फ स्पर्श, रस, गंध और रुप का अनुभव कर सके, ऐसे जीव रुप) चउरिद्रिय जीव (= मक्खी, मच्छर, खटमल, भ्रमर, बिच्छु इत्यादि), चार लाख प्रकार के देवता (= वैमानिक, भवनपति इत्यादि), चार लाख प्रकार के नारकी (= रत्नप्रभा इत्यादि), चार लाख प्रकार के (स्पर्श, रस, गंध, रुप और शब्द स्वरुप पांचो इन्द्रियों का अनुभव कर सके, ऐसे पशु रुप जीव) तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव (= सर्प, पंखी, हाथी इत्यादि) और चौदह लाख प्रकार के मनुष्य; इस तरह (= ७+७+७+७+१०+१४ + २ + २ + २ + ४ + ४ + ४ + १४ = ८४) चोंराशी लाख प्रकार के जीव के योनि (उत्पत्ति) स्थान होते हैं । उस में से मेरे द्वारा किसी भी जीव की हिंसा हुई हों, किसी के पास हिंसा करवाई हो अथवा हिंसा करनेवालों की अनुमोदना की हो, वह सभी मन-वचन-काया से मिथ्या दृष्कृत्य करता हु। १६५ F ilterational For Private & Personal use only www.jainerary.org Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण के समय मुँहपत्ति का उपयोग पूर्वक बोलते-सुनते समय की मुद्रा। आदान नाम : श्री पहेले प्राणातिपात सूत्र गौण नाम :१८ पाप स्थानक सूत्र ३३. श्री अढार पापस्थानक सूत्र विषय: समस्त पापस्थानकों का गुरु के समक्ष निवेदन कर मिथ्यादुष्कृत कहना। मूल सूत्र उच्चारणमें सहायक पहेले प्राणातिपात, बीजे मृषावाद, पहेले प्राणा-ति-पात, बीजे मृषा-वाद त्रीजे अदत्तादान, चौथे मैथुन, त्रीजे अदत्-ता-दान, चोथे मै-थुन पांचमे परिग्रह, छटे क्रोध, पांच-मे परि-ग्रह, छट्-ठे क्रोध सातमे मान, आठमे माया, सात-मे मान, आठ-मे माया नवमे लोभ, दशमे राग, नव-मे लोभ, दशमे राग अग्यारमे द्वेष, बारमे कलह, अग्-यार-मे द्वेष (वे-ष), बार-मे कल-ह तेरमे अभ्याख्यान, चौदमे पैशुन्य, तेर-मे अभ-या-ख्या-न, चौ-द-मे पै-शुन्-य पंदरमे रति-अरति, सोलमे पर-परिवाद, पन्-दर-मे रति-अ-रति, सोल-मे पर-परि-वाद सत्तरमे माया मृषावाद, सत्-तरमे माया-मृषा-वाद, अढारमे मिथ्यात्वशल्य अढारमे मिथ्-यात्-व-शल्-य ए अढार ए अढार, पापस्थानकमांहे पाप-स्था-नक-माहे म्हारे जीवे, जे कोइ पाप सेव्यु होय, म्हा-रे-जीवे, जे कोइ पाप सेव्युं होय, सेवराव्यु होय, सेवतां प्रत्ये सेव-राव्यु होय, सेवता प्रत्ये अनुमोद्यु होय, अनु-मोडु ( ) होय, ते सवि हुमन वचन कायाए करी ते सवि-हु मन वचन-कायाए करी मिच्छा मि दुक्कडं॥ मिच्छामि दुक्-क-डम्॥ गाथार्थ : १. जीव हिंसा करना, वह प्राणातिपात; २. करना, वह कलह; १३. दोषारोपण करना, वह अभ्याख्यान; | असत्य बोलना, वह मृषावाद, ३. मालिक द्वारा स्वेच्छा से १४. चुगली करनी, वह पैशुन्य; १५. सुख प्राप्त हो, तब हर्ष न दी हुई वस्तु को ग्रहण करना, अर्थात चोरी करना, वह करना, वह रति और दुख प्राप्त हो, तब उद्वेग करना, वह अरति; अदत्तादान; ४. कामक्रीडा-विषय सेवन करना, वह मैथुन; १६. दूसरो की निंदा करनी, वह परपरिवाद; १७. कपट से युक्त ५. धन-धन्य-सुवर्ण आदि की ममता, वह परिग्रह; ६. झुठ बोलना, वह माया-मृषावाद और १८. देव-गुरु-धर्म के गुस्सा करना, वह क्रोध; ७. अहंकार करना, वह मान;८. प्रति अश्रद्धा रुप बहेंस करना, वह मिथ्यात्व-शल्य है । इन छल, कपट, प्रपंच करना, वह माया; ९. संग्रह वृति, । अठारह पाप स्थानों में से मेरे जीव ने जिस किसी पाप का सेवन असंतोष रखना, वह लोभ; १०. प्रीति, मोह रखना, वह किया हो, कराया हो, करते हुए का अनुमोदन किया हो, वे सभी राग; ११. अरुचि-तिरस्कार रखना, वह द्वेष; १२. झगडा मेरे दुष्कृत्य मन-वचन-काया से मिथ्या हो । १६६ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक एक पापस्थानक प्रवृत्ति, योग, करण तथा कषाय ३ प्रकार के योग = मन, वचन और काया। से गिनने से कुल १९४४ होते हैं। ३ प्रकार के करण = करण-करावण और अनुमोदन । ३ प्रकार की प्रवृत्ति ४ प्रकार के कषाय = क्रोध, मान, माया और लोभ १.संरंभ = पाप प्रवृत्ति के आचरण की इच्छा होना। इस प्रकार = ३xxx ४ = १०८ होते हैं। २. समारंभ = जो इच्छा हुई, उसे पूर्ण करने की तैयारी करना। १८ पाप स्थानक १०८ से गिनने से १९४४ की ३. आरंभ = प्रवृत्ति प्रारम्भ करना। । संख्या प्राप्त होती है। नोट:. वर्षों से यह सूत्र बोलते समय बोलनेवाले सात लाख, अठारह पापस्थानक, सामाइय-वय-जुत्तो, अतिचार भाग्यशाली '१४ लाख मनुष्य' तक पहुँचे, उस (गुजराती में), सागरचंदो कामो (पौषध पारने के सूत्र) में अन्त में समय उपस्थित सभी आराधक आगे के वाक्य एक 'मन-वचन-काया ए करी तस्स मिच्छा मि दुक्कडं' बोलना, अत्यन्त साथ बोलते हैं, जो योग्य नहीं है। क्योंकि एक अशुद्ध पाठ है। परन्तु उसमें नियमा मन-वचन-काया ए करी मिच्छा साथ बोलनेवालों में शब्द-उच्चारण का ढंग मि दुक्कडं' बोलना, वह अणिशुद्ध पाठ है, इसका ध्यान रखें। अलग-अलग होने के कारण अधिक स्पष्ट शब्द सर्व जीवों के आश्रय से उत्पन्न होने के स्थान असंख्य हैं, परन्तु सुनने की सम्भावना कम होती है। तथा इस सूत्र वर्ण, गंध, रस, स्पर्श तथा आकृति से जो उत्पत्ति स्थान समान को कंठस्थ नहीं करनेवाले आराधकों को शब्दों के होते हैं, उन सबों का एक-एक स्थान माना जाता है । इस प्रकार अस्पष्ट उच्चारण के कारण इतना धारण करने की कुल उत्पत्तिस्थान ८४ लाख हैं । उदा. पृथ्वीकाय के मूल भेद अधूरी सम्भावना रहती है । अतः आदेश लेनेवाले ३५०x= ५ वर्ण (=लाल, पीला, नीला, काला तथा सफेद)x भाग्यशालियों को ही पूर्ण सूत्र बोलने का आग्रह २ रंग (-सुंगध व दुर्गंध)x ५ रस (-तीखा, कडवा, खट्टा, मीठा रखना चाहिए तथा अन्त में 'मिच्छा मि दुक्कडं' एक व खट्टा (=कषाय) x ८ स्पर्श (=स्निग्ध, रुक्ष, उष्ण, शीत, साथ सबको बोलना चाहिए । इस प्रकार अठारह कर्कस, लेसेदार, कठोर तथा नरम) x ५ आकृति = संस्थान पापस्थानकों में, सामायिक पारने के सूत्र में, (=वृत्त, परिमण्डल, चौरस, लंबचौरस तथा त्रिकोण) अतिचार बोला जाए तब प्रत्येक अतिचार की ७,००,००० (सात लाख) होता है। उसके अनुसार प्रत्येक जीवों समाप्ति के समय तथा पौषधव्रत पारते समय, यह के मूलभेद के साथ २००० (५४२४५४८४५) को गिनने से उन ध्यान रखना उचित प्रतीत होता है। संख्याओं की प्राप्ति होती है। जो निम्नलिखित हैं: प्रत्येक जीवों का गुणस्थानकक्रम २ गुणस्थानकतक ★८४,००,००० योनिया पृथ्वीकाय जीव के मूल भेद ३५०x२,०००= ७,००,००० अप्काय जीवों के मूल भेद ३५०x२,०००= ७,००,००० तेउकाय जीवों के मूल भेद ३५०x२,०००= ७,००,००० वाउकाय जीवों के मूल भेद ३५०x२,०००= ७,००,००० प्रत्येक वनस्पतिकाय जीवों के मूल भेद ५००x२,००० = १०,००,००० साधारण वनस्पतिकाय जीवों के मूल भेद ७००४२,००० = १४,००,००० द्विइन्द्रिय जीवों के मूल भेद १००x२,०००= २,००,००० त्रि इन्द्रिय जीवों के मूळ भेद १००x२,०००= २,००,००० चतुरिन्द्रिय जीवों के मूल भेद १००x२,०००= २,००,००० देवता के जीवों के मूल भेद २००४२,०००= ४,००,००० नारकी जीवों के मूल भेद २००४२,०००= ४,००,००० तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों के मूल भेद २००४२,००० = ४,००,००० मनुष्य जीवों के मूल भेद ७००x२,०००= १४,००,००० कुल ८४,०००,०० २ गुणस्थानक तक ४गुणस्थानकतक ५गुणस्थानकतक १४ गुणस्थानक तक जीवयोनियां है। PASEO Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. श्रीसव्वस्स वि सूत्र विनम्रता पूर्वक गुरुभगवंत को निवेदन करने की मुद्रा। आदान नाम : श्री सव्वस्स वि सूत्र विषयः गौण नाम :पाप आलोचना पाप की आलोचना करने हेतु गुरुभगवंत सूत्र को निवेदन। मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ सव्वस्स वि देवसिअ (राइअ) सव-वस्-स-वि-देव-सिअ (राइअ) सभी ही दिन/रात्री संबंधित... दुच्चितिअ, दुष्भासिअ, दुच-चिन्-तिअ, दुब्-भा-सिअ, दुष्ट चितवन, दुष्ट भाषण, दुच्चिट्ठिअ, दुच्-चिट्-ठिअ, दुष्ट चेष्टा संबंधि... इच्छाकारेण संदिसह भगवन् इच्-छा-कारण-सन्-दिसह-भग-वन् ! हे गुरुभगवंत ! मै चाहता हूँ कि आप मुझे पाप से पीछे मुडने की अनुमति दें ! (पडिक्कमेह) इच्छं, । (पडिक्-कमेह) इच्-छम्, (गुरु भगवंत कहे-आप पाप से मुडो) तब शिष्य कहे-आपकी आज्ञा प्रमाण है। तस्स मिच्छा मि दुक्कडं॥ तस्-स-मिच्-छा-मि-दुक्-कडम् ॥ ' वह मेरे आचरित दुष्कृत्य मिथ्या हों। गावार्थ : हे क्षमाश्रमण गुरु भगवंत ! आप अपनी स्वेच्छा से मुझे अनुमति दीजिए कि, मैं सभी ही दिन/रात्रि संबंधित आर्त्तरौद्र ध्यान स्वरुप दृष्ट चितवन से, असत्य व कठोर वचन स्वरुप दुष्ट भाषण से और न करने योग्य क्रिया के आचरण स्वरुप दुष्ट चेष्टा स्वरुप पाप से पीछे मुडूं ? (गुरुभगवंत कहे - पडिक्कमेह = आप पाप से पीछे मुडो ।) (तब शिष्य कहे-) आपकी आज्ञा प्रमाण है। मैं उन सभी पाप से पीछे मुडता हूँ और वह मेरे सभी दुष्कृत्य मिथ्या हों। । प्रस्तुत सूत्र संबंधित सरल जानकारी • यह सूत्र खडे रहकर योगमुद्रा में बोलना चाहिए। नव नीवि, बारह एकासणा, चौबीस बियासणा अथवा • पू. गुरुभगवंत 'पडिक्कमेह' बोले, तब सभी आराधको को 'इच्छं, छह हजार स्वाध्याय करके लेखा शुद्धि तस्स मिच्छा मि दक्कडं' एक साथ में अवश्य बोलना चाहिए। निवेदन करना। • यह सूत्र पक्खी, चौमासी और संवत्सरी प्रतिक्रमण में अतिचार . पू. गुरुभगवंत के उत्तर अनुसार तप पूर्ण क्रिया हो, तो पूर्ण होने के बाद बोला जाता है। उसके बाद शिष्य प्रश्न पूछते. "तहत्ति बोलें । तप चालु किया हो और पूर्ण करने की है - 'इच्छकारी भगवन् पसाय करी पक्खी/चौमासी/ संवत्सरी भावना हो तो 'पइट्ठिओ' (= आपकी आज्ञा अनुसार तप प्रसाद करनाजी ।' तब गुरुभगवंत उत्तर देते है - "पक्खी तप में मैं प्रस्थापित हुआ हूँ।) बोलें-तप किया न हो लेखे-चोथ-अब्भत्तद्रेणं-एक उपवास - दो आयंबिल -तीन और करने की संभावना भी न हो तो मौन रहना चाहिए। लुक्खी नीवि-चार एकासणा, आठ बियासणा अथवा दो हजार . पक्खी-चौमासी और संवत्सरी के प्रायच्छित स्वरुप स्वाध्याय करके लेखाशुद्धि करके हमे निवेदन करना।" तप करने से जिनाज्ञा का पालन होता है और नहीं करने चौमासी लेखे छट्ठ-अब्भत्तटेणं-दो उपवास, चार आयंबिल, छह से अनादर का पाप लगता है। लुक्खी नीवि, आठ एकासणा, सोलह बियासणा अथवा चार • लेखा शुद्धि = गुरु की आज्ञा अनुसार किये हुए तप हजार स्वाध्याय करके लेखाशुद्धि करके हमें निवेदन करना। को लिखकर गुरुभगवंत को दिखाना चाहिए अथवा संवत्सरी लेखे अट्ठम-अब्भत्तटेणं-तीन उपवास, छह आयंबिल, मुख से निवेदन करना चाहिए । १३ n gryptions For Private &Personal use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध आवश्यक क्रिया की सही मुद्रा-३ १. चैत्यवंदन के समय की मुद्रा। २. मुक्ताशुक्ति मुद्रा । मुँहपत्ति मुख से संपुट रखना चाहिए। प्रभुजी/ स्थापनाचार्यजी के सम्मुख दृष्टि रहे, इस प्रकार आखें रखनी चाहिए। ललाट को छुना दो ऊगली या न छुना। दूर रखनी चाहिए। संपुट जैसा आकार करते समय आगे से हथेली बंध रखे। हाथ ललाट से उपर नही जाना चाहिए। दोनों कुहनियों को इकट्ठी रखनी चाहिए। दोनों कुहनियों को इकट्ठा कर पेट के ऊपर स्थापित करना चाहिए। दाहिना पैर जमीन को स्पर्श करे तथा बायां पैर थोड़ा ऊपर रहे, वैसे रखना चाहिए। हर क्रिया में चरवला शरीर को स्पर्श करना चाहिए। कटासणा समचोरस होना चाहिए। ३. वांदणा के समय की मुद्रा। ४. वंदित्तु सूत्र बोलते समय की मुद्रा । दृष्टि हमेशा महपत्ति के समक्ष दोनों हाथ दोनों पैरों के नीचे की ओर ही रखनी चाहिए। बीच में ही रखना चाहिए। नख के स्पर्श के बिना दसों ऊंगलियों से मुहपत्ति को स्पर्श करना चाहिए। बाएँ घुटने की अपेक्षा दाहिना घुटना थोड़ा ऊचा रखना चाहिए। दाहिने पैर के पंजे को डंडी से स्पर्श करना चाहिए। कोर मुड़ा हुआ नहीं बल्कि खुला रखना चाहिए। महपत्ति स्थापना करने के बाद बीच में से उठाना अथवा खिसकाना नहीं चाहिए। महपत्ति में गुरुचरणपादुका दोनों पैरों के पंजे के की कल्पना करनी चाहिए। आधार पर ही शरीर का संतुलन बनाए रखना चाहिए। प्रतिक्रमण में कटासणा नहीं हो तो चलेगा, परन्तु चरवला का होना अनिवार्य है। १६९ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० प्रतिक्रमण के समय बोलते सुनते समय की मुद्रा । मूल सुत्र वंदित्तु सव्वसिद्धे, अरिहंत २) उपाध्याय पैर के पंजे पर शरीर का संतुलन साधु बनाए रखकर एकाग्रता से सूत्र बोलना । जो मे वयाइ-यारो, नाणे तह दंसणे चरित्ते अ । सुमो अ बायरोवा, तं निंदे तं च गरिहामि ॥२॥ cation International वन्-दित्-तु सव्-व-सिद्धे, धम्मायरिए अ सव्वसाहू अ । धम्-माय-रिए अ सव्-व- साहू-अ । इच्छामि पडिक्कमिडं, इच् छा मि पडिक्-कमि- उम्, सावग धम्माइ- आरस्स ॥१॥ साव-ग धम्-मा-इ-आ-रस्-स ॥१॥ गाथार्थ : सर्वज्ञ ऐसे श्री अरिहंत परमात्मा, श्री सिद्ध भगवंत, श्री धर्माचार्य (श्री आचार्य भगवंत, श्री उपाध्याय भगवंत और सर्व-साधु भगवंत को वंदन करके ( मैं ) श्रावक धर्म में लगे हुए अतिचारों (रुप पाप) से पीछे मुडने की इच्छा रखता हूँ । १. वंदितु सबसि જો મે વયાઉયારો वंदित आचार्य देखकर भाव से मस्तक झुकाकर 'शुद्ध आलोचना करने का सामर्थ्य' मिले, यह प्रार्थना करनी चाहिए । १. ३५. श्री वंदित्तु सूत्र विषय : आचार तथा व्रतों में लगे 'अतिचार की हुए निंदा-गर्दा तथा आत्मा को पवित्र करे। ऐसी भावनाएँ हैं । प्रतिक्रमण के हार्द रूप इस सूत्र के प्रारम्भ में पंचपरमेष्ठि के नमस्कार के द्वारा मंगलाचरण किया जाता है । पाँचों परमेष्ठि को अपनी विशिष्ट मुद्रा में आदान नाम : श्री वंदित्तु सूत्र गौण नाम : श्रावक गाथा पद संपदा अपवादिक मुद्रा 1 छंद का नाम : गाहा; राग : शान्ति शान्ति निशान्तं (लघु शांति स्तव) उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ वंदन कर के सर्व सिद्ध भगवंतों को और धर्माचार्यों को तथा सर्व साधुओं को मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ । श्रावक के धर्म में लगे अतिचारों का । १. प्रतिक्रमण : ५० : २०० : २०० नाणे तह दन्-सणे चरित्-ते अ । सुहु- मो अबाय-रो वा, तम् - निन्-दे तम् च गरि हामि ॥२॥ ज्ञान सूत्र चारित्र दर्शन ( सर्व व्रतों तथा आचारों में लगे हुए अतिचारों का प्रतिक्रमण ) जो मे वया-इया-रो, मुझे व्रत में जो अतिचार लगे हों तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि में सूक्ष्म (छोटे) या बादर (बड़े) मैं उनकी (मेरे उन अतिचारों की ) निंदा करता हूँ और मैं उनकी गर्हा करता हूँ । २. गाथार्थ : व्रतो में, ज्ञानाचार- दर्शनाचार और चारित्राचार संबंधी आचार में (तपाचार, वीर्याचार और संलेखना में ) जानने में न आए ऐसे सूक्ष्म प्रकार के और जान सके ऐसे बादर प्रकार के अतिचार जो (कोई) मुझे लगा हो, उसकी मे आत्मसाक्षी से (निंदा) करता हूँ और गुरु की साक्षी से विशेष निंदा (गर्हा) करता हूँ । २. देव - गुरुकृपा से प्राप्त ज्ञान- दर्शन - चारित्र के योग से तथा भाव में आई हुई मलिनता को दूर कर निर्मलता को प्राप्त करने का पुरुषार्थ मिले । इसके लिए पश्वाद्ध में अंधेरे में से उजाले की तरफ गति बतलाई गई है । २. /www.jainelibrary org Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रह तथा आरंभ का प्रतिक्रमण दुविहे परिग्गहम्मि, दुवि-हे परिग्-गहम्-मि, दो प्रकार के परिग्रहों के कारण सावज्जे बहुविहे अ आरंभे । सावज्-जे बहु विहे अ आरम्-भे। और अनेक प्रकार के पापमय कार्य कारावणे अकरणे, कारावणे-अ-कारणे कराने से या करने से पडिक्कमे देसि सव्वं ॥३॥ पडिक्-कमे देसि-अम् सव-वम् ॥३॥ दिवस में लगे सर्व (पापों) का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। ३. गाथार्थ : दो प्रकार के परिग्रह (= सचित और अचित अथवा बाह्य और अभ्यंतर = धन-धान्यादि बाह्य परिग्रह और मिथ्यात्व, अविरति कषायादि अभ्यंतर परिग्रह कहलाता है।) और उनके प्रकार के सावध आरंभो (= कृषि, वाणिज्य आदि) दूसरों के पास करवाने से और स्वयं करने से और करनेवालों की अनुमोदना (प्रशंसा, तारीफ) करने से दिन संबंधित लगे हुए सभी (अतिचारों) का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। ३. जं बद्ध-मिदिएहिं, जम्-बद्-ध-मिन्-दि-ए हिम्, | जो बंधे हो इंद्रियों से चउहिं कसाएहिं अप्पसत्थेहिं। चउ-हिम् कसा-एहिम् अप्-पसत्-थेहिम्। चार प्रकार के अप्रशस्त कषायों से रागेण व दोसेण व, रागे-ण व दोसेण व, और राग से या द्वेष से तं निंदे तं च गरिहामि ॥४॥ तम् निन्-दे तम् च गरि-हामि ॥४॥ मैं उनकी ( मेरे उन अतिचारों की) निंदा करता हूँ और मैं उनकी गर्दा करता हूँ। ४. गाथार्थ : अप्रशस्त भावों से प्रवृत इन्द्रियों, चार कषायों, (तीन योगों) राग अथवा द्वेष से जो कर्म बांधा हो, उसकी मैं निंदा और गृहा करता हूँ। ४. सम्यग्दर्शन के अतिचार का प्रतिक्रमण आगमणे-निग्गमणे, आग-मणे निग्-गम-णे, आने से, जाने से ठाणे चंकमणे अणाभोगे। ठाणे चङ-कम-णे अणा-भोगे। खड़े रहने से, इधर-उधर फिरने से अभिओगे अनिओगे, अभि-ओगे अनिओ-गे, भूल जान से, (किसी के) दबाव से और बंधन (नौकरी आदि) के कारण पडिक्कमे देसिअंसव्वं ॥५॥पडिक-कमे देसि-अम सव-वम ॥५॥ दिन में लगे सर्व (पापों) का मैं प्र गाथार्थ : शून्य चित्त से ( राजादिक के) आग्रह से और (नौकरी विगेरे की) पराधीनता से (मिथ्याद्दष्टिओं के स्थान आदि में) आने में, निकलने में, खडे रहने में और फिरने में दिन संबंधित लगे हुए सभी (अतिचारो) का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।५. दुविहे परिगाहम्मित आगमणे निग्गमणे अनुपयोग तथा लापरवाही से जीवयक्त अथवा जीवरहित भूमि पर सकारण या निष्कारण आना, जाना, खड़े रहना तथा हिलना-डुलना । घर तथा पीछे उद्यान के लोगों को देखें । अभियोग में राजा के आदेश को नत मस्तक होकर स्वीकार करता हुआ सेवक है तथा नियोग में रामचंद्रजी के आदेश से सीताजी को जंगल में रखने के परिग्रह तथा आरंभ के प्रतिकों से लिए जाते समय अपने कर्त्तव्य से बंधा हुआ; वापस लौटती हुई आत्मा को देखना । ३. कृतांतवंदन सेनापति दिखाई देता है। ५. चेकमणे सचित्त परिग्रह अचित्त परिग्रह ठिाणे आगमणे निगमणे सावज्जे बहुबिहे गारने अनिओगे निओगे पडिक्कमे संका कंख विगिच्छा, संङ्-का कङ्-ख वि-गिच-छा, शंका, आकांक्षा, विचिकित्सा पसंस तह संथवो कुलिंगीसु । पसन्-स तह सन्-थवो कुलिङ्-गीसु । कुलिंगियों की प्रशंसा और परिचय से सम्मत्तस्स-इआरे, सम्-मत्-तस्-स-इ-आरे, सम्यक्त्व के (इन पाच) अतिचारों से पडिक्कमे देसिअं सव्वं ॥६॥ पडिक्-कमे देसि-अम् सव्-वम् ॥६॥ दिवस में लगे सर्व(पापों) का मैं प्रतिक्रमण करता गाथार्थ : शंका : श्री जिनवचन में झुठी शंका; २. कांक्षा : अन्यमत की प्रशंसा; ३. विचिकित्सा : मिथ्यादर्शनकारों की तारीफ ४. प्रशंसा : कृलिंगियों की प्रशंसा और ५. संस्तव : पाखंडी आदि मिथ्यादर्शनकारों का परिचय; (इस तरह) सम्यक्त्व के (पाँच) अतिचारों में से दिन संबंधित लगे हुए सभी अतिचारों का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। ६. Jan Education 'For Private & Personal use only www.jairamitrary.४.७१ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष साधु प्रति द्वेषभाव विचिकित्सा सड़क इच्छा-काक्षा अन्य दर्शनीयों का परिचय-प्रशंसा सकाकखबिगिच्छा इस लोक के विषय में देव-गुरु के वचन पर तथा परलोक विषय में मोक्ष, देवलोक तथा नरक के प्रति शंका हो... अन्य धर्मस्थानों की चमत्कारिक बातों को सुनकर मन आकर्षित हो, जिस प्रकार प्रसिद्ध हिंदु देवस्थान तथा अन्य धर्म की चर्च दिखलाई देता है, साधु के मलिन वस्त्र-शरीर देखकर मुह बिचकाता हुआ युवक तथा अन्य दर्शन वाले लोगों की यज्ञादि क्रिया देखकर उससे प्रभावित होते हुए तथा उसकी ओर प्रभावित होते हुए जीव । ६. तीसरे अणुव्रत के अतिचारो का प्रतिक्रमण छक्काय-समारंभे, छक्-काय-समा-रम्-भे, । छह काय के जीवों की विराधना से पयणे अ पयावणे अ जे दोसा। पय-णे अपया-वणे अजे दोसा। तथा पकाने से, पकवाने से जो दोष (लगे हों) अत्तट्ठा य परट्ठा, अत्-तट्-ठा य परट्-ठा, अपने लिये या दूसरों के लिये और उभयट्ठा चेव तं निंदे ॥७॥ उभ-यट्-ठा चेव तम् निन्-दे ॥७॥ साथ ही दोनों के लिये उनकी मैं निदा करता हूँ। ७. गाथार्थ : स्वयं के लिए, दूसरों के लिए, (और) वह दोनों के लिए (स्वयं) खाना पकाते, (दूसरो के पास) पकवाते (और पकानेवाले की अनुमोदना करते ) षट्काय (= पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय (= दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रियवाले) का समारंभ (प्राणी के वधका संकल्प = संरंभ; उसको परिताप देना = समारंभ; उसके प्राण का वियोग करना अर्थात् नाश करना = आरंभ) में (जो कुछ भी दोष लगा हो) उसकी मैं निंदा करता हूँ। ७. सामान्य से श्रावक के बारह व्रतों के अतिचारों का प्रतिक्रमण : पंचण्ह-मणुवव्याणं, पञ् (पन्)-चण हमणु-व-याणम्, पाच अणु-व्रत संबंधी गुणव्वयाणं च तिण्हमइयारे । गुणव-वया-णम् च तिण-ह-मइ-यारे। और तीन गुण-व्रत संबंधी अतिचारों का सिक्खाणं च चउण्हं, सिक्-खा-णम् च चउण्-हम्, और चार शिक्षा-व्रत संबंधी पडिक्कमे देसिअंसव्वं ॥८॥ पडिक्-कमे देसि-अम्-सव-वम्॥८॥ दिन में लगे सर्व(पापों )का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।८. गाथार्थ : पाच अणुव्रत, तीन गुणव्रत (और) चार शिक्षाव्रत संबंधित अतिचारों में से दिन संबंधित लगे हुए सभी (अतिचारों) का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।८. प्राचीन काल में पशु सम्पत्ति में माना जाता था, विच्छेए अतः पशु का अनुसरन कर चित्र बतलाया गया है । आज गलियों में घूमते हुए कुत्ते-बिल्ली, घर के नौकर-चाकर आदि के साथ होनेवाले व्यवहार भी भित्तपाणवुच्छए छक्कायसमारंभ इसीमें गिना जाता है । पाँचवे चित्र में पानी-घास भोजन समारोह के दृश्य के द्वारा|| खाते हुए घोड़ों में से कुछ । रसोइ करनी, करानी तथा छ काय | मुंह चमड़े से बंधा हुआ जीवों की हिंसा बतलाइ गई है।७. दिखाई देता है।९-१०. पढमे अणुव्वयम्मि पहले अणुव्रत के अतिचार का प्रतिक्रमण पढमे अणुव्वयंमि, पढ-मे अणुव्-वयम्-मि, प्रथम अणु-व्रत में थूलग-पाणाइ-वाय-विरईओ। थूल-ग-पाणाइ-वाय-विर-ईओ। स्थूल (आंशिक रूप में ) प्राणातिपात से विरमण (निवृत्ति ) में आयरिय-मप्पसत्थे, आय-रिय-मप-प-सत्-थे, अतिचारों का अप्रशस्त भाव के कारण इत्थप-मायप्प-संगेणं॥९॥ इत्-थ-पमा-यप-प-सङ्-गे-णम्॥९॥ यहा प्रमाद के कारण।९. रपयावणे अइभारे पयणे १७२ Fospriyalo o nly. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारने से, बांधने से, अंगोपांग के छेदने से, अधिक बोझ लादने से, आहार- पानी का विच्छेद करने से (भुखा-प्यासा रखने से ) प्रथम व्रत में लगे अतिचारों का पढम वयस् स इयारे, पढम-वयस्स- इयारे, पडिलमे देसिअं सव्वं ॥ १० ॥ दिनमें लगे सर्व (पापो ) का में प्रतिक्रमण करता हूँ। १०. पडिक्-कमे-देखि- अम् सव्वम् ॥१०॥ गाथार्थ : पहले अणुव्रत में प्राणों के विनाश से स्थूल विरति के आश्रय से आचरण (होता है) उसमें प्रमाद से व अप्रशस्त भाव से व १. (जीव ) वध२. बंधन ३. अवयव छेदन, ४. अतिभार (आरोपण) और ५. अन्न-जल में अवरोधरुप पहले (अणु) व्रत के अतिचार हैं। ( उसमें) दिन संबंधित (लगे हुए) सभी (अतिचारो) का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ । ९-१०. दूसरे अणुव्रत में वह बंध- छविच्छेए अइ-भारे भत्त-पाण-वुच्छेए। अइ-भारे भत्-त पाण- वुच् छेए । दूसरे अणुव्रत के अतिचारों का प्रतिक्रमण वह बन्-ध-छविच्-छेए, बीए अणुव्वयंमि, परिधूलग-अलिअ वयण विरईओ । आयरिय-मप्यसत्थे, बीए अणुव्-वयम्-मि, परि-धूल-ग-अलि-अवयण - विरई - ओ । आय-रिब-मप्-प-सत्-थे, इत्थ-प-मायप्प-संगेणं ॥ ११ ॥ इत्-थपमा-यप्-प-स-गे - णम् ॥११॥ सहस्सा रहस्स-दारे, सह- सा - रहस्-स-दारे, मोसुवएस मोसुवएसे अ कूड लेहे अ । मोसु वए-से अ कूड-लेहे अ । बीय वयस् स-इआरे, - बीय वयस्स-इआरे, पक्किमे देसिअं सव्वं ॥ १२ ॥ पडिक्कमे देसि अम् सव्वम् ॥१२॥ गाथार्थ : दूसरे अणुव्रत में स्थूल (अतिशय बड़े) प्रकार से असत्य वचन से विरति के आश्रय से आचरण (होता है) उस में प्रमाद से व अप्रशस्त भाव से (१) बिना विचारे किसी के उपर झुठा दोषारोपण करना; (२) गुप्त बातों को जाहिर करना; (३) अपनी स्त्री की गुप्त बातें, दूसरों को कहनी (४) झुठा उपदेश देना और (५) झुठे लेख लिखना व झूठे दस्तावेज लिखने रुप दूसरे (अणु) व्रत के अतिचार हैं। (उसमें) दिन संबंधित (लगे हुए) सभी (अतिचारो) का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ । ११-१२. कूटसाक्षी बीए अणुव्वयम्मि कन्या- गौ- भूम्यालिक स्थूल मृषावाद (असत्य बोलने से ) विरमण में अतिचारों का अप्रशस्त भाव के कारण यहाँ प्रमाद के कारण । ११. सहसाभ्याख्यान (बिना विचारे दोषारोपण करने) से, रहस्याभ्याख्यान (किसी के रहस्य का मनमाना अनुमान लगाकर कहने) से, स्वदारा मंत्र भेद (स्व स्त्री की गुप्त बातों को प्रकाशित करने ) से और मिथ्या उपदेश (झुठी सलाह) देने से और झुठे लेख लिखने से दूसरे व्रत में लगे अतिचारों का दिन में लगे सर्व (पापों) का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। न्यासापहार विवाह योग्य स्त्री, जमीन तथा गाय बड़े झूठ के तीन कारण बतलाए गए हैं। न्यासापहार में धनवान व्यक्ति के साथ भली-भांति व्यवस्था कर निर्बल व्यक्ति की गिरवी पहचानता हुआ शेठ दिखलाई पड़ता है । मोसुवएसे में गांव के चौराहे पर बैठकर पंचायत कर झूठी सलाह देता हुआ व्यक्ति है। सहसा रहस्सदारे कूडलेहे १७३ . Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jair९-७४ तीसरे अणुव्रत के अतिचार का तइ ए अणुव्-वयम्-मि, तइए अणु-व्वयम्मि, थूलग-परदव्व-हरण-विरईओ । थूल-ग-पर- दव्-व-हर-ण- विर- ईओ । आयरिअ-मप्पसत्थे, इत्थ पमाय- प्पसंगेणं ॥ १३ ॥ तेना-हडप्प-ओगे, आय-रिअ-मप्-पसत्-थे, अतिचारों का अप्रशस्त भाव के कारण इत्-थ पमा-यप् - प-सङ्-गे - णम् ॥१३॥ यहाँ प्रमाद के कारण । १३. तेना-हड-प्प-ओ-गे, चौर द्वारा लायी वस्तु रखने से और ( चोर को ) प्रोत्साहक वचन बोलने से, नकली (या मिलावटी) माल बेचने से, और (राज्य) विरुद्ध कार्य करने से, गलत तोलने से और गलत मापने से, दिन में लगे सर्व (अतिचारो) का मैं प्रतिक्रमण करता हू । १४. आश्रय से आचरण (होता है।), उसमें प्रमाद से व गाथार्थ : तीसरे अणुव्रत में स्थूल से दूसरे के द्रव्य का हरण से विरति के अप्रशस्त भाव से ( १ ) चौर द्वारा लायी वस्तु को रखने से, (२) चौर को चोरी करने के लिए प्रोत्साहक वचन बोलने से, (३) असली बोलकर नकली माल बेंचने से (४) दानचोरी, स्मग्लिंग आदि राज्य विरुद्ध कार्य करने से और (५) गलत तोलने से व गलत मापने से व्यवहार किया हो, (वह) तीसरे (अणु) व्रत के अतिचार (होते हैं।), उसमें दिन संबंधित (लगे हुए) सभी ( अतिचारों) का मैं प्रतिक्रमण करता हुँ । १३-१४. तप्पडिरुवे विरुद्ध-गमणे अ । कूल कूड माणे, पक्किमे देसिअं सव्वं ॥ १४॥ तइए अणुव्वयम्मि तेना हडप्पओगे SR वेश्या के घर जाता हुआ विवाह, कामी पुरुष, कामचेष्टा आदि के द्वारा सारे अतिचार जान लेने चाहिए। त-प्प-डि- रुवे-वि-रुद्ध-गम-णे-अ कूड- तुल- कूड-माणे, पडिक्कमे देसि अम् सव्वम् ॥१४॥ उत्थ वयस्स-इआरे, पक्किमे देसिअं सव्वं ॥ १६ ॥ कूडतुल कूडमाणे चउत्थे अणुव्वयम्मि, प्रतिक्रमण अणंग तीसरे अणुव्रत के बारे में बादरपन से दूसरों के द्रव्य का हरण से विरति का उल्लंघन करके चौरी का माल ( सस्ते में मिलने के कारण ) लेने वाला व्यापारी, उसे प्रेरणा देते हुए बतलाया गया है । आज के चोर बाजार या कबारी का माल लेनेवालों को सावधान हो जाना चाहिए । विवाह चौथे अणुव्रत के अतिचार का प्रतिक्रमण चउत्-थे अणुव्-वयम्-मि, निच्-चम् पर-दार-गमण - विरई -ओ। आय-रिय-मप्-प-सत्-थे, तिव्व-अणुरागे चउत्थे - अणुव्वयंमि, निच्चं पर-दार-गमण - विरईओ। आयरिअ-मप्पसत्थे, इत्थ-प-मायप्प-संगेणं ॥ १५ ॥ इत्-थपमा यप्-प-सङ्-गे - णम् ॥१५॥। यहाँ प्रमाद के कारण । १५. अपरिग्गहिया इत्तर, अप-रिग्-गहि-या इत्-तर, अपरिग्गहिआ इत्तर चौथे अणु-व्रत में नित्य पर दारा गमण के विषय में विरति अतिचारों का अप्रशस्त भाव के कारण अविवाहित (स्त्री, कन्या या विधवा) के साथ गमन करने से, अल्प समय के लिये रखी स्त्री (वेश्या या रखैल) के साथ गमन करने से, अणंग-विवाह-तिव्व-अणुरागे। अणङ्ग विवाह तिव्-व- अणु-रागे। काम वासना जाग्रत करने वाली क्रियाओं से, दूसरों के विवाह कराने से, विषय भोग मैं तीव्र अनुराग रखने से चौथे व्रत में लगे अतिचारों का चउत्-थ वयस्-स-इआ-रे, पडिक्-कमे देसि-अम् सव्वम् ॥१६॥ दिन में लगे सर्व (पापों) का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। १६. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथार्थ : चोथे अणुव्रत में नित्य पर-स्त्री से निवृति और स्वदारा में संतोषरुप विरति के आश्रय से आचरण (होता है।), उसमें प्रमाद से व अप्रशस्त भाव से (१) अपरिगृहिता-गमन : किसी ने भी जिस स्त्री को ग्रहण नहीं किया है, वैसी कुंवारी कन्या अथवा विधवा आदि के साथ मैथुन सेवन करना, (२) इत्वर-परिगृहिता गमन : थोड़े दिनों के लिए दूसरो ने रखी हुई वेश्या ( रखैल) आदि के साथ मैथुन सेवन करना, ('स्वद्वारा संतोष' के नियमवाले को यह दोनो ही अतिचार, अनाचार स्वरुप समझना चाहिए।) (३) अनंग-क्रीडा : दूसरो की स्त्रीयों के अंग उपांग आदि को विकार द्रष्टि से देखना तथा सृष्टि विरुद्ध (सजातीय संबंध आदि) कामचेष्टा करना, (४) परविवाह करण : अपने पुत्र-पुत्री आदि के सिवाय दूसरों के पुत्र-पुत्री का विवाह करना-करवाना और (५) कामभोग-तीव्र अभिलाषा : विषय वासना से काम-क्रीडा आदि की तीव्र अभिलाषा करने (रुप) (वह) चोथे (अणु) व्रत के अतिचारों ( होते हैं।), उसमें दिन संबंधित (लगे हुए) सभी (अतिचारों) का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। १५-१६. पांचवे अणुव्रत के अतिचार का प्रतिक्रमण इत्तो अणुव्वए पंच मम्मि, इत्-तो अणुव्-वए पञ् (पन्)-च-मम्-मि, अब पांचवें अणु-व्रत में आयरिय-मप्प-सत्थंमि । आय-रिअ-मप्-पसत्-थम्-मि । अतिचारों का अप्रशस्त भाव के कारण परिमाण-परिच्छेए, परि-माण-परिच-छे-ए, परिग्रह के परिमाण (मर्यादा) में इत्थ-प-मायप्प-संगेणं ॥१७॥ इत्-थ पमा-यप्-प-सङ्-गे-णम् ॥१७॥ यहा प्रमाद के कारण । १७. धण-धन्न-खित्त-वत्थू, धण-धन्-न-खित्-त-वत्-थू, धान,धन्य, जमीन, मकान के, रुप्प-सुवन्ने अ-कुविअ-परिमाणे। रुप्-प-सुवन्-ने अ कुवि-अ-परि-माणे। चांदी, सुवर्ण और (अन्य) धातुओं के, दुपए चउप्पयंमि य, दुप-ए चउप-प-यम्-मि य, द्विपद ( दो पांव वाले-पशु आदि) प्राणियों के परिमाण में पडिक्कमे देसिअंसव्वं ॥१८॥ पडिक-कमे देसि अम् सव्-वम् ॥१८॥ दिन में लगे सर्व (अतिचारों ) का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।१८. गाथार्थ : उसके बाद पाँचवे अणुव्रत में धन-धान्य आदि के परिग्रह का परिमाण रुप विरति के आश्रय से आचरण (होता है।), उसमें प्रमाद से व अप्रशस्त भाव से (१)धन, (२) धान्य खेती करने योग्य जमीन, घर विगेरे (३) चांदी-सोना (४) तांबा, पित्तल, कांसा आदि अन्य धातुओ के परिमाण मैं और गृह आदि सजावट की सामग्री के परिमाण में और(५) द्विपद = (नोकर, सेवक, मुनिम आदि) तथा चतुष्पद (= गाय, भैंस, घोडा, कुत्ता, बिल्ली, पोपट आदि) के परिमाण से अधिक रखने (रुप),(वह) पांचवे (अणु) व्रत के अतिचारों ( होते हैं।), उसमें दिन संबंधित (लगे हुए) सभी (अतिचारों) का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।१७-१८. इतो अणुव्वए पंचमम्मि न धन्न वत्थु खित्त धण दुपए चउप्पयम्मी य रुप्प-सुक्ने सअकुविअपरिमाणे उड़ गमणरसयपरिमाणे अहे अ. तिरिअंच ऊर्ध्वगमन के लिए एयरोप्लेन,अधोगम न के लिए सबमरीन या डाइवर्स आदि तथा तिछागमन के लिए गाडी-मोटरआदि बतलाए गए हैं।१७-१८. १७५ SODEucationiinterdational For Penal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्टे व्रत (=पहला गुणवत)के पांच अतिचारों का प्रतिक्रमण गमणस्स उ परिमाणे, गम-णस्-स उपरि-माणे, और गमन के परिमाण में हे अतिरिअंच। दिसा-स उड-ढम अहे अ-तिरि-अम-च। ऊर्ध्व और अधो तथा तिर्यग दिशाओं में वुड्डि सइ अंतरद्धा, वुड्-ढि सइ-अन्-त-रद्-धा, | वृद्धि होने से और विस्तृति होने से ( भूल जाने से) पढमंमि गुणव्वए निंदे ॥१९॥ पढ-मम्-मि गुणव्-वए निन्-दे ॥१९॥ प्रथम गुण व्रत में मैं निंदा करता हूँ। १९. गाथार्थ :(१) उपर की,(२)नीचे की और(३) तिर्यग् (= तिर्थी) दिशाओं में गमन के परिमाण से अधिक जाने से (एक दिशा में से कम करके दूसरी दिशा में वृद्धि करने से ) (४) बढ़ाने से और (५) विस्मृति होने से पहले गुणव्रत (दिक्परिमाण व्रत) में (लगे हुए) अतिचारों की मैं निंदा करता हूँ। १९. सातवें व्रत (दूसरा गुणवत) के २० अतिचारों का प्रतिक्रमण मसम्मि अ, मज्-जम्-मि अमन्-सम्-मि अ, मद्य (मदिरा-नशीले पदार्थ) औरमांस का पुष्फे अफले अगंधमल्लेअ। पुष्फे अफले अगन्-ध-मल्-ले । और पुष्प तथा फल का और गंध तथा माला का उवभोग-परिभोगे, उव-भोभ-परि-भोगे, उपभोग और परिभोग करने से बीयंमि गुणव्वओनिए॥२०॥ बीयम्-मि-गुणव-वए निन्-दे॥२०॥ दूसरेगुण-व्रत में (लगे अतिचारों का)मैनिंदा करता हूँ।२० गाथार्थ : मदिरा,मांस(और दूसरे भी अभक्ष्य पदार्थ), पुष्प, फल,सुगंधी पदार्थो और फुल की माला के उपभोग(= जिसका एक बारही उपभोग किया जाए, उसे उपभोग कहते है। जैसे कि भोजन, पानी, फूल, फल आदि), परिभोग (= जिसका बारबार उपयोग किया जाता है, उसे परिभोग कहते है। जैसे की गह, पस्तक, वस्त्र, दागीने स्त्री आदि ) से दूसरे अणुव्रत ( भोगोपभोग-परिमाण व्रत में (लगे हुए)अतिचारों की मैं निंद सचित्ते पडिबद्धे, सच्-चित्-ते पडि-बद्-धे, सचित (सजीव) आहार, (सचित से) संलग्न (सजीव से संलग्न निर्जीव) आहार अपोल-दुप्पोलिअंच आहारे। अपो-ल दुप्-पोलि-अम् च आहारे। अपक्व आहार और अर्ध पक्व आहार तुच्छो-सहि-भक्खणया, तुच्-छो-सहि-भक्-ख-णया, तुच्छ औषध(वनस्पति) के भक्षण से पडिक्कमे देसिअंसव्वं ॥२१॥ पडिक्-कमे देसिअम् सव्-वम् ॥२१॥ दिन में लगे सर्व( पापों) का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।२१. गाथार्थ : १. सचित्त आहार :सचित्त का त्याग होते हुए भी उसको खाए अथवा परिमाण से ज्यादा खाए, २. सचित्त-संबद्धः सचित्त के साथ मिश्रित वस्तु को खाना, जैसे कि गुटली के साथ आम्रफल इत्यादि, ३. अपक्व आहारः बिना पकाई हुई वस्तु खानी,जैसे कि छाने बिना का गेहूं का आटा इत्यादि, ४. दुष्पक्व आहार ः थोडी कच्ची और थोडी पक्की अर्थात बराबर नही पकी हुए वस्तु खाना, जैसे कि थोडा सेका हुआ मक्काई का भुट्टा इत्यादि और ५. तुच्छ-औषधिभक्षण : तुच्छ पदार्थो का भक्षण करना, अर्थात् जिसमें खाने का कम हो और फेंकने का ज्यादा हो, ऐसी वस्तुएं जैसे कि बैर, सीताफल इत्यादि (इन पाँच अतिचारों में से) दिन संबंधित (लगे हुए) सर्व अतिचारों का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।२१. आइसक्रीम मद्य मज्जम्मि अमंसम्मि अ/ सचिचे पडिबद्ध मांस फल २२ अभक्ष्य, ३२ अनंतकाय, चार महाविगई, रात्रिभोजन आदि में से कुछ अभक्ष्य पदार्थ तथा अतिभोगासक्ति के प्रतिक रूप में पुष्प-फल दिखलाया गया है। २०. रात्रिभोजनशरिंगण कंदमूळ मक्खन १७६ ay.org Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंगाली -वण- साडी इङ् - गाली - वण - साडी, वाणिज्जं चेव दंत, -लक्ख-रस-केस भाडी - फोडी-सुवज्जए कम्मं । भाडी-फोडी सु-वज्-जए कम्-मम् । वाणिज्-जम् चेव दन् त, लक्-ख-रस-केसविस - विस- यम् ॥२२॥ विस-विसयं ॥२२॥ गाथार्थ : १. अंगार कर्म : ईंटे पकाना, भट्ठी रखना इत्यादि; २. वन-कर्म : वृक्ष कटाना आदि, ३. शकट कर्म : मोटर आदि वाहन बनाना, ४. भाटक कर्म : भाडे पर वाहन आदि फिराना, ट्रांसपोर्ट व ट्युरीस्ट व हेराफेरी व्यवसाय और ५. स्फोटक कर्म : सुरंग बनाना, गड्डा खोदना, बोम्ब स्फोट करना, पटाखे बेचना आदि, ये पांच प्रकार के त्याग करने योग्य 'कर्म' हैं । १. दंत वाणिज्य : हाथी दांत आदि का, २. लक्ख वाणिज्य : सील मारने में उपयोगी लाख (लाह) का और साबून का ३. रस वाणिज्य : शराब, तेल, घी आदि का ४. केश वाणिज्य : मनुष्य के और रोओ वाले पशुओं के केश आदि का और, ५. विष वाणिज्य : बेगोन स्प्रे, टिक-२० आदि जन्तुनाशक दवाईयाँ और तलवार, बंदूक आदि शस्त्रों का और जहर का व्यापार, व्यवसाय । ये पांच प्रकार के त्याज्य व्यवसाय हैं । २२. पंद्रह कर्मादान अंगार कर्म "दंत वाणिज्य विष वाणिज्य 'लक्ख वाणिज्य अंगार, वन, शाटक, भाटक, विस्फोटक त्याग करने योग्य हैं, कर्म, व्यापार इसी प्रकार दांत, लाख, रस, केश, विष संबंधि । २२. לנט रिस वाणिज्य केस वाणिज्य 23 असइपोस कट कर्म Versonal Use On निल्लछण कम्म दव- दार्ण भाटक कर्म जतपिल्लण कम्म सर- दह-तलाय सोसं महाहिंसक, महाआरंभ-समारंभ के कारक पन्द्रह कर्मादान के व्यापारों में से कुछ व्यवसायों की रूप रेखा... अंगार कर्म =ईंट का उद्योग तथा स्टील की फैक्टरी की भट्ठी । वन कर्म-वृक्ष कटाने का कोन्ट्रेक्ट, शकट कर्म=मोटर मेन्युफेरिंग, भाट कर्म= ट्रान्सपोर्टेशन की ट्रकें, स्फोटक कर्म=सुरंग बनाने का कार्य, गड्डा खोदना आदि । दंत वाणिज्य = हाथी दाँत का ढेर, लाह का वाणिज्य= साबुन की दुकान, रस वाणिज्य = शराब की बोतलों का व्यापार, केश वाणिज्य = केश तथा केशयुक्त जीवों की बिक्री, यहाँ रोओं वाले पशुओं की बिक्री के दृश्य दिखलाए गए हैं। विष वाणिज्य = बेगॉन स्प्रे, टिक-२० आदि तथा तलवार बंदूक आदि शस्त्रों का व्यापार । यंत्र पीलन कर्म=ईक्षु का रस निकालनेवाला मशीन, निर्लांछन कर्म-गाय को दागना, दावाग्नि दान=जंगल की आग । सरद्रह तडागशोषण कर्म = कुआँ-तालाब का पानी मोटर से खींचा जा रहा है । असतीपोषण=नीच काम करनेवाले मनुष्यों को बेचनेवाला दलाल । २२. prar MELOD Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं खु जंतपिल्लणएवम् खुजन्-त पिल्-लण वस्तुतः इसी प्रकार यंत्र द्वारा पीसने वाली कम्मं निलंछणं कम्-मम् निल्-लञ् (लन्)-छणम्- कार्य, निलांछन करने का च दवदाणं। च दव-दाणम्। और आग लगाने का। सर-दह-तलाय-सोसं, सर-दह-तलाय-सो-सम्, सरोवर, स्त्रोत, तालाब को सुखाने का असइपोसं च वज्जिज्जा ॥२३॥ असइ-पोसम् च वज्-जिज्-जा ॥२३॥ और असती पोषण का त्याग करने योग्य है। २३. गाथार्थ : १. यंत्र पीलन कर्म : ईक्षु का रस निकालना, यंत्र से तैयार होती सभी वस्तुए, २. निल्छन कर्म : गाय को दागना, घोडे के पैरो के नीचे पट्टी लगानी आदि, ३. दावाग्नि दान कर्म : जंगल को आग लगाना आदि, ४. सर-द्रह-तडाग-शोषन कर्म : कुआ, तलाब, नदी सरोवर को सुकाना और ५. असती-पोषक कर्म : नीचकाम करनेवाले मनुष्यों का पोषण करना, कुत्ते, बिल्ली आदि हिंसक प्राणिओं का पोषण करना आदि/ ये पांच सामान्य कर्म त्याग करने योग्य हैं । इस तरह महा हिंसक - महा आरंभ और महा समारंभ के पोषक पांच कर्म, पांच व्यवसाय और पांच सामान्य कर्म : पन्द्रह कर्मादान के व्यापारों को हमेंशा त्याग करना चाहिए । २३. आठवें व्रत (तीसरा गुणवत) के अतिचारों की आलोचना सत्थग्गि-मुसल-जंतग- सत्-थग्-गि-मुस-ल-जन्-तग- शस्त्र, अग्नि,मूसल, चक्की तण-कट्टे-मंत-मल-भेसज्जे तण-कट-ठे-मन-त-मल-भेसज-जे। तण,काष्ट.मंत्र मल और औषधिको दिन्ने दवाविए वा, दिन्-ने दवा विए-वा देने से और दिलाने से पडिक्कमे देसिअंसव्वं ॥२४॥ पडिक-कमे देसिअम् सव-वम् ॥२४॥ दिन मेंलगेसर्व अतिचारों का में प्रतिक्रमण करता हैं।२४. गाथार्थ : शस्त्र, अग्नि, मूसल, चक्की, तृण, काष्ठ, मंत्र, जडीबुट्टी (मूल) और औषध (प्रयोजन के बिना) देने से अथवा दूसरो के द्वारा दिलाने से (और देनेवाले की अनुमोदना करने से ) आठवा व्रत : (तीसरे अनर्थदंड विरमणगुण व्रत) मे लगे हुए दिन संबंधित सभी (अतिचारों)का मैं प्रतिक्रमण अब प्रमादाचरण कहते हैं। पहाणु-व्वट्टण-वन्नग- हा-णुव-वट-टण-वन्-नग- स्नान, उद्धर्तन, रंगाई विलेवणे सद-रुव-रस-गंधे। विले-वणे सद्-द-रुव रस-गन-धे। विलेपन, शब्द, रूप, रस, गंध वत्थासण-आभरणे, वत्-था-सण-आभ-रणे, वस्त्र, आसन, आभरण के, विषय में पडिक्कमे देसिअंसव्वं ॥२५॥ पडिक्-कमे देसि-अम्-सव्-वम् ॥२५॥ दिन में लगे सर्व अतिचारों का में प्रतिक्रमण करता हूँ। गाथार्थ : १. जयणा बिना (छाने बिना पानी से ) स्नान करना; २. पीठी वगेरे द्वारा उद्वर्तन करके मेल उतारना; ३. अबील गुलाल आदि से रंग करना, ४. केशर चंदन-क्रीम आदि से विलेपन करना; ५. वाजिंत्रों के शब्द सुनकर बहलना; ६. सुंदर रुप देखना; ७. अनेक रस का आस्वाद लेना; ८. विविधप्रकार के सुगंधित पदार्थों को सुंघना और ९. वस्त्र, आसन, अलंकार आदि में आसक्त बनने से तथा आरंभ करने से दिन संबंधित लगे हुए सभी (अतिचारों ) का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। २५. आठवें व्रत (तीसरे गुणव्रत) के पांच अतिचारो का प्रतिक्रमण कंदप्पे कुक्कुइए, कन्-दप्-पे कुक्-कु-इए, काम विकार, अधम चेष्टाओं के कारण, मोहरि-अहिगरण-भोग-अइरित्ते। मोह-रि अहि-गर-ण भोग-अइ-रित्-ते। वाचालता, हिंसक साधनों को तैयार रखने, भोग की अतिरेकता के कारण दंडम्मि अणट्टाए, दण्-डम्-मि-अणट्-ठाए, अनर्थ दंड द्वारा तइअंमि गुणव्वए निंदे ॥२६॥ तइ-अम्-मि-गुणव्-वए-निन्-दे ॥२६॥ तीसरे गुण-व्रत में मैं निंदा करता हूँ। २६. गाथार्थ : १. कंदर्प : काम-विकार बढ़े, ऐसी बाते करनी; २. कौकुच्च : काम-विकार उत्पन्न हो, ऐसी कुचेष्ठाएं करनी; ३. मौखर्य : मुख से हास्यादिक द्वारा जैसे-तैसै बोलना; ४. संयुक्तातिरिक्तता : स्वयं की आवश्यकता से ज्यादा शस्त्र प्राप्त करना और ५. उपभोग परिभोगातिरिक्तता : उपभोग और परिभोग में उपयोगी सामग्री जरुरत से ज्यादा रखनी, ये पांच प्रकार के अतिचार तीसरे अनर्थदंड-विरमण-गुणव्रत के बताए गए हैं । उसमें मुझे जो दोष लगा हो, उसकी मैं निंदा करता हूँ। २६. । १७८ Slammadurintimational For Protec tory Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तडअस्मि गुणवए निदेव सत्थ अग्गि मुसल तण-कढे सहरुव-रस-गंधे पहाणुबट्टण मत-मूल-भेसज्जे वन्नग आभरणे कदापे आसण वत्था कुक्कुइएअहिंगरण-भोग-अइरित्ते अनर्थदंड विरमण व्रत में हिंसाप्रधान तथा प्रमादाचरण के प्रकार बतलाए गए हैं तथा अतिचारों में प्रेमिका को पुष्प देकर काम चेष्टा करता हुआ व्यक्ति कंदर्प में बतलाया गया है तथा अन्य को हँसाने के लिए विचित्र चेष्टा करता हुआ तथा पशुओं का मुहर पहना हुआ व्यक्ति कौत्कुच्य में बतलाया गया है । लोक आकर्षण के लिए किए जानेवाली निरर्थक चेष्टाएँ होने के कारण अनर्थदंड में लिया गया है। अधिकरण में पाप प्रवृत्ति के लिए तैयार रखी गइ घंटी बतलाइ गई है तथा सबसे नीचे के विभाग में वर्तमानकाल में अत्यंत व्यापक बन चुके तथा लोक मानस में पाप प्रवृत्तिरूप नहीं लगनेवाले अनर्थदंड के प्रकार बतलाए गए हैं, जिनमें कोम्प्युटर संलग्न गेम-चेटिंग सर्किंग आदि आते हैं । गृहोपयोगी साधन, प्रसाधन के साधन, स्वीमिंगपुल, रेसकोर्स (घुड़दौड़) आदि सट्टे के प्रकार, फीज, टी.वी. पत्ते की जोड़ी, हाउझीगेम, टेपरेकोर्डर, थियेटर, होटल, सर्कस, टुरिस्ट स्पॉट (प्रवास स्थल), घर का अद्यतन फर्नीचर, क्रिकेट आदि क्रीडाओं में अत्यंत रूचिपूर्वक बतलाए गए हैं । २७. १७९ For Private & Personal use only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमें व्रत ( पहले शिक्षाव्रत ) के पांच अतिचारों का प्रतिक्रमण तिविहे दुप्पणिहाणे, तिवि-हे दुप्-पणि-हाणे, तीन प्रकार के दुष्प्रणिधान से, अणवट्ठाणे तहा सइ विहूणे। अण-वट्-ठाणे तहा सइ-विहू-णे। अविधिपूर्वक करने से और विस्मति के कारण, सामाइअ वितहकए, सामा-इअ वितह-कए, सामायिक की विराधना द्वारा, पढमे सिक्खावए निंदे ॥२७॥ पढ-मे सिक्-खा-वए निन्-दे ॥२७॥ प्रथम शिक्षा-व्रत में मैं निंदा करता हूँ। २७. गाथार्थ : १. मन का दुष्ट प्रणिधान, २. वचन का दुष्ट प्रणिधान, ३. काया का दुष्ट प्रणिधान (व्यापार) ४. (दो घडी से ज्यादा समय तक) अविनीत बनकर सामायिक करना और ५. याद न रहने से सामायिक व्रत को भूल जाने स्वरुप स्मृतिभ्रंश; इस तरह सामायिक गलत तरह से किया हो तो वह पहले सामायिक शिक्षा व्रत में लगे हुए पांच अतिचारों में से जो कोई दोष लगा हो, उसकी में आत्मसाक्षी से निंदा करता हूँ। २७. दशवें व्रत (दूसरे शिक्षाव्रत) के पांच अतिचारों का प्रतिक्रमण आणवणे पेसवणे, आण-वणे पेस-वणे, वस्तु को बाहर से मंगवाने से और बाहार भेजने से सद्दे रुवे अपुग्गलक्खेवे। सद्-दे रूवे अ पुग्-ग-लक्-खेवे । शब्द करके, रूप दिखाकर या देसा-वगासिअंमि, देसा-वगा-सि-अम्-मि, देशावगासिक के वस्तु फेंककर अपनी उपस्थिति बताने से बीए सिक्खावए निंदे ॥२८॥ बीए सिक्-खा-वए निन्-दे ॥२८॥ दूसरे शिक्षा व्रत में मैं निंदा करता हूँ। २८. गाथार्थ : १. आनयन प्रयोग : नियम बाहर की भूमि से वस्तु मंगवाने से; २. प्रेष्य प्रयोग : हद के बाहर वस्तु भेजने से; ३. शब्दानुपात : आवाज करके बुलाने से; ४. रुपानुपात : अपना रुप दिखाने से; ५. पुद्गल-प्रक्षेप : वस्तु को फेंककर अपनी उपस्थिति बताने से; इस तरह दूसरे देशावगासिक शिक्षाव्रत में लगे हुए पांच अतिचारों में से जो कोई भी अतिचार लगा हो, उसकी मै आत्मसाक्षी से निंदा करता हूँ। २८. आणवणेपेसवणे पेसवणे आणवणे पुग्गलको वस्त्र लाता हुआ, पुस्तक ले जाता हुआ, किसी को बुलाते हुए, कंकड़ फेंकनेवाला क्रियाशील | सामायिक व्रतधारी देशावगासिक व्रतधारी बताया गया है। २८. अग्यारहवा व्रत (तीसरे शिक्षा व्रत) के पांच अतिचारों का प्रतिक्रमण संथारुच्चार-विहिसन्-था-रुच्-चार-विहि संथारा और उच्चार की विधि में हुए प्रमाद के कारण, पमाय, तह चेव भोयणाभोए। पमा-य, तह चेव भोय-णा-भोऐ। और इसी प्रकार भोजन आदि की चिंता के कारण पोसह-विहि-विवरीए, पोस-ह-विहि-विवरीए, पौषध की विधि में विपरीतता से सिक्खावए निंदे ॥२९॥ तड़-ए-सिक-खा-वए निन-दे ॥२९॥ तीसरे शिक्षा व्रत में मैं निंदा करता ह । २९ माथार्थ : संथारा संबंधित विधि में (१) पडिलेहण-प्रमार्जन नही करने रुप; (२) पडिलेहण-प्रमार्जन जैसे तैसे करने स्वरुप प्रमाद करने से तथा लघुनीति (मूत्र) और बडीनीति (संडास) संबंधित विधि में (विसर्जन भूमि के विषय में ) (३) पडिलेहणप्रमार्जन नही करने रुप तथा (४) पडिलेहण-प्रमार्जन जैसे-तैसे करने रुप प्रमाद करने से और (५) भोजन चिंता करने रुप; इस तरह पौषध-विधि विपरीत करने से तीसरे पौषधोपवास शिक्षाव्रत के इन पांच अतिचारों में से लगे हुए अतिचारो की मैं निंदा करता हूँ। २९. je tocationem rate & Personal use only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (संथारुच्चारविही+-अप्पडिलेहिय-दप्पडिलेहिय संथारए पौषधव्रत में अविधिपूर्वक की जानेवाली क्रियाओं के प्रतिक रूप में संथारा बिछाना, काजा लेना तथा मूत्र विसर्जित करने की क्रियाए बताई गयी है। २९. अप्पडिलेहिय-दुप्पेडिंलेहिय उच्चार-पासवणभूमि अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहिय सिज्जा बारहवें व्रत (चोथे शिक्षाव्रत) के पांच अतिचारो का प्रतिक्रमण सच्चित्ते निक्खिवणे, सच्-चित्-ते निक्-खि-वणे, सजीव वस्तु डालने से और सजीव वस्तु से ढांकने से पिहिणे ववएस मच्छरे चेव । पिहि-णे वव-एस मच-छरेचेव। इसी प्रकार बहाना और मत्सर करने से कालाइक्कम-दाणे, काला-इक्-कम-दाणे, समय बीत जाने के बाद दान देने से चउत्थे सिक्खावए निंदे ॥३०॥ चउत्-थे सिक्-खा-वए निन्-दे ॥३०॥ चौथे शिक्षाव्रत में मैं निंदा करता हूँ। ३०. गाथार्थ : (१) साधु को देने योग्य भोजन के उपर सचित वस्तु रखने से; (२) देने योग्य वस्तु के उपर सचित वस्तु ढंकने से; (३) देने की बुद्धि से दूसरो की वस्तु अपनी कहने से तथा नहीं देने की बुद्धि से अपनी वस्तु दूसरों की कहने से; (४) क्रोध, ईर्ष्या और गर्व करके दान देने से और ५. मुनि को गोचरी का समय व्यतित होने के बाद बुलाने जाने से... इस तरह चौथे अतिथि-संविभाग शिक्षाव्रत के पांच अतिचारों मे से, जो कोई भी अतिचार लगा हो, उसकी मैं आत्मसाक्षी से निंदा सुहिएसु अ दुहिएसुअ, सुहि-एसु अदुहि-एसु अ, सुविहित और दुःखी जा मे अस्संजएसु जा मे अस्-सञ् (सन्)-ज-एसु और गुरु की निश्रा में विहरते सुसाधु के अणुकंपा। अणु-कम्-पा। विषय में अणुकंपा (दया) की हो, रागेण व दोसेण व, रागे-ण व दोसे-ण व, राग से अथवा दोष से तं निंदे तं च गरिहामि ॥३१॥ तम् निन्-दे तम् च गरि-हामि ॥३१॥ उसकी मैं निंदा और गर्दा करता हूँ। ३१. गाथार्थ : ज्ञानादि गुणो में हित है जिन्हो को, ऐसे सुविहितों के प्रति, व्याधि से पीडित, तप से दुर्बल और तुच्छ उपाधिवाले दुःखिओं के प्रति, तथा गुरु की निश्रा में विहार करनेवाले सुसाधु के प्रति अथवा वस्त्रादिक से सुखी और रोगादिक से दुःखी, ऐसे असंयती-पासत्था (= छह जीवनिकाय का वधकरनेवाले) जीवों के प्रति राग से या द्वेष से जो (अन्नादि देने रुप) अनुकंपा (दया) हो गई हो, तो उसकी में निंदा और गर्दा करता हूँ।३१. साहूसु संविभागो, साहू-सु सर्वे-विभा-गो, साधुओं की कुछ भक्ति न की हो न कओ तव-चरण-करण-जुत्तेसु। न कओ-तव-चरण-करण-जुत्-तेसु। तप, चारित्र और क्रिया से युक्त को संते फासुअदाणे, सन्-ते फासु-अ दाणे, | देने योग्य निर्दोष आहारादि दान होने पर भी तं निंदे तं च गरिहामि ॥३२॥ तम् निन्-दे तम्-च गरि-हामि ॥३२॥ उसकी मैं निंदा और गर्दा करता हूँ। ३२. गाथार्थ : निर्दोष आहार आदि होते हुए भी तप, चरण सित्तरी और करण-सित्तरी से युक्त ऐसे साधुओं के प्रति दान (सुपात्रदान ) न किया हो, उसकी मे निंदा और गर्दा करता हूँ। ३२. अतिथि संविभाग इहलोए परलोए पाँच प्रकार की आशंसा : इहलोक की आशंसा में राज्य सुखादि की आशंसा दिखती है। ऐसे अनुक्रम से देवसुख, जीवितसुख, आपघात तथा कामभोग की प्राप्ति की आशंसा देखना ।३३. Education intentional For Private spermontumDily १८१ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलेषणा के पांच अतिचारों का प्रतिक्रमण इहलोए परलोए, इह-लोए पर-लोए, इस लोक, पर लोक की, जीविअ-मरणेजीवि-अ-मरणे अ जीवित की, मरण की और काम-भोग आसंस-पओगे। आ-सन्-स-पओ-गे। संबंधित आशंसा की हो, पंचविहो अइआरो, पञ् (पन्)-च-विहो अइ-आरो, ये पांच प्रकार के अतिचार मा मज्झ हुज्ज मरणंते ॥३३॥ मा मज्-झ हुज्-ज मर णन्-ते ॥३३॥ मुझे मृत्यु के समय में न हों- ३३. गाथार्थ : १. आलोक = धर्म के प्रभाव से इस लोक में सुखी बनने की इच्छा करनी; २. पर-लोक = धर्म के प्रभाव से परलोक में देव-देवेन्द्र आदि सुख मिले, ऐसी इच्छा करनी; ३. जीवित = अनसन आदि तप के कारण सन्मान देखकर जीने की इच्छा करनी; ४. मरण-वाच्छा = स्वीकारे हुए अनसन व्रत में दुःख से गभराकर मरने की इच्छा करनी और ५. काम-भोगआशंसा = कामभोग की अभिलाषा करनी; इन संलेषणा के पांच अतिचारों में से एक भी मुझे मरणांत तक न हो । ३३. सभी व्रत के अतिचारो का प्रतिक्रमण काएण काइअस्स, काए-ण काइ-अस्-स, काया द्वारा, काया से पडिक्कमे वाइअस्स वायाए। पडिक्-कमे वाइ-अस्-स वाया-ए। वचन से, वचन द्वारा मणसा माणसिअस्स, मण-सा माण-सि-अस्-स, मन द्वारा मन से सव्वस्स वयाइआरस्स ॥३४॥ सव-वस्-स वया-इआ-रस्-स ॥३४॥ सर्व व्रतों में लगे अतिचारों का । ३४.. गाथार्थ : (१) अशुभ काया से लगे हुए अतिचारों को शुभकाय योग से, (२) अशुभ वचन से लगे हुए अतिचारों को शुभ वचन योग से और (३) अशुभ मन से लगे हुए अतिचारों को शुभ मनोयोग से, इस तरह सर्व (सभी) व्रत के अतिचारों का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। ३४. वंदणवय-सिक्खागा-वेस वन्-दण-वय-सिक्-खा-गार-वेसु, वंदन, व्रत, शिक्षा, और गारव संबंधी सन्ना-कसाय-दंडेसु। सन्-ना कसा-य दण्-डेसु। संज्ञा, कषाय और दंड संबंधी गुत्तीसु अ समिइसु अ, गुत्-तीसु अ समि-इ-सु अ, गुप्ति और समितियों संबंधी जो अइआरो अतं निंदे ॥३५॥ जो अइ-आरो अ तम् निन्-दे ॥३५॥ जो अतिचार लगे हो । ३५. गाथार्थ : १. वंदन = दो प्रकार के देववंदन, गुरुवंदन । २. व्रत = बारह प्रकार के ५ अणुव्रत + ३. गुणव्रत और + ४. शिक्षाव्रत । शिक्षा : दो प्रकारकी १. ग्रहण शिक्षा : सूत्र और अर्थ का अभ्यास करना; २. आसेवन शिक्षा : कर्तव्यों का पालन करना, ४. गारव : तीन प्रकार के १. रस गारव : घी, दूध आदि रसवाले पदार्थो मिलने से अभिमान करना और नही मिलने पर उसकी लालसा (इच्छा) करनी, २. ऋषिगारव : धन आदि मिलने से अभिमान करना और नहीं मिलने से उसकी इच्छा करनी और ३. शातागारव : सुख, आरोग्य आदि मिलने से उसका अभिमान और न मिलने से उसकी इच्छा करनी। ५. संज्ञा = संक्षेप से चार प्रकार की १. आहार, २. भय ३. मैथुन ४. परिग्रह संज्ञा तथा १०,१५ और १६ प्रकार से भी कही गई हैं। ६. कषाय : = चार प्रकार के हैं। जिससे संसार बढे, उसे कषाय कहते हैं। १.क्रोध २. मान ३. माया और ४ लोभ । ७. दंड: = जो अशुभ योग से आत्मा धर्मभ्रष्ट होती हैं, उसे दंड कहते हैं। वह तीन प्रकार के हैं। १. मन दंड, २. वचनं दंड, और ३. काय दंड। ८. गुप्ति : = जिस शुभयोग से आत्मा धर्मोत्थान पाती है, वह गुप्ति तीन प्रकार की है। १. मन-गुप्ति, २. वचन गुप्ति और ३. काय गुप्ति । ९. समिति = जिसको पालने से सद्गति निश्चित हो जाती है, वह समिति पांच प्रकार की है। १. इर्या समिति, २. भाषा समिति, ३. एषणा समिति, ४. आदान-मंडमत्त-निक्खेवणा समिति और ५. उच्चार-पासवन-खेल-जलसिंधान-पारिष्ठापनिका समिति । इस विषयों के प्रति करने योग्य न करने से और न करने योग्य करने से, जो अतिचार लगा हो, उसकी मैं निंदा करता हूँ। ३५. सम्यग्दपि जीवात्मा को कर्म के अल्प बंध का कारण सम्मद्दिट्टी जीवो, सम्-म हिट्-ठी जीवो, सम्यग्दृष्टि जीव जइ वि हु पावं समायरे किंचि। जइ-विहु पावम्-समा-यरे किन्-चि। जो कोई भी पाप करता है। अप्पो सि होइ बंधो, अप्-पो सि होइ-बन्-धो, उसे थोडा ही कर्म बंध होता है। जेण न निद्धंधसं कुणइ ॥३६॥ जेण न निद्-धन्-धसम् कुणइ ॥३६॥ क्योंकि निर्दयता पूर्वक पाप नहीं करता है। ३६. गाथार्थ : जो कि सम्यग्दृष्टि (सम्यक्त्वी) जीव कुछ भी पाप करें, तो उसको कर्म बंध कम (अल्प) होता है, क्योंकि (वह) । निर्दयता से (कभी भी) पाप नही करता है । ३६. 47 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तं पि हु सपडिक्कमणं, तम्-पि हुस-पडिक्-कम-णम्, उस को भी अवश्य प्रतिक्रमण कर के सप्परिआवं सउत्तरगुणं च । सप्-परि-आवम् स उत्-तर-गुणम् च। पश्चाताप करके और उत्तर गुण सहित खिप्पं उवसामेइ, खिप्-पम् उव-सामे-इ, शीघ्र उपशांत करता है। वाहिव्वसुसिक्खिओ विज्जो॥३७॥ वा-हिव-वसु-सिक्-खिओविज्-जो॥३७॥ जैसै शिक्षित वैद्य व्याधिको नष्ट करता है।३७. गाथार्थ : अल्पकर्म बंधवाले सम्यग्दष्टि जीव वह (अल्पकर्म बंध) को अच्छी तरह से शिक्षित वैद्य जिस तरह से व्याधि को, वैसे प्रतिक्रमण नियमित करने से, किये हुए पाप का घोर पश्चाताप करने से और गुरुभगवंत द्वारा दिए गए पाप के प्रायच्छित को शुद्ध उपयोग के साथ करने से जल्दी से दूर करते हैं । ३७. श्रावक किस तरह से कर्म का नाश करता है? जहा विसं कुट्टगयं, | जहा विसम् कुट्-ठ-ग-यम्, जैसे पेट में गये हुए विष को मंत-मूल-विसारया। मन्-त मूल-विसा-रया। मंत्र और मूल का जानकर विज्जा हणंति मंतेहिं, विज्-जा हणन्-ति मन्-ते-हिम्, वैद्य मंत्र से नष्ट करता है। तो तं हवइ निव्विसं ॥३८॥ तो तम् हव-इ निव्-वि-सम् ॥३८॥ उससे वह निर्विष, होता हैं । ३८. एवं अट्टविहं कम्म, एवम्-अट्-ठ-विहम्-कम्-मम्, इसी प्रकार आठ प्रकार के कर्म को, राग-दोस-समज्जिअं। राग-दोस-सम-जिअम् । राग द्वेष से उपार्जित आलोअंतो अनिदंतो, आलो-अन्-तो अनिन्-दन्-तो, आलोचना और निंदा करता हुआ, खिप्पं हणइ सुसावओ ॥३९॥ खिप्-पम् हण-इ सु साव-ओ ॥३९॥ । सुश्रावक शीघ्र नष्ट करता है। ३९. गाथार्थ : मंत्र और जडीबुट्टी (मूल) के ज्ञात वैद्य जैसे शरीर में व्याप्त जहर को मंत्रो से नाश करते हैं, और उससे वे निर्विष बनते हैं। वैसे गुरुभगवंत के पास आलोचना करनेवाला और आत्मसाक्षी से निंदा करनेवाला सुश्रावक राग-द्वेष से बांधे हुए आठों प्रकार के कर्मों का शीघ्रतया नाश करता है। ३८-३९. तं पिहुसपडिक्कमणी जहाविसीगुज्याय பர்ப்ப ணி आलोचना करनेवाला पाप रुपी भार से रहित (हलका) बनता है। कयपावो वि मणुस्सो, कय-पावो वि मणुस्-सो, पाप किया हुआ मनुष्य भी आलोइअनिदिअ गुरु सगासे।। आलो-इअनिन्-दिअगुरु-सगासे । गुरु समक्ष आलोचना और निंदा करके होइ अरेग-लहुओ, होइ अइ-रेग-लहु-ओ, । बहुत हलका होता है। ओहरिअ-भरु व्व भारवहो ॥४०॥ ओह-रिअ-भरुव-व भार-वहो ॥४०॥ भार उतारे हुए भारवाहक की तरह । ४०. गाथार्थ : जिस तरह वजन (भार) उठानेवाला (मजूर, हमाली आदि) वजन उतारकर हलका बनता है, वैसे पाप करनेवाला मनुष्य भी गुरुभगवंत के पास पाप की आलोचना करके और आत्मसाक्षी से निंदा करके अत्यंत भारहीन (हलका) बनता है। ४०. प्रतिक्रमण आवश्यक का फल आवस्सएण एएण, आवस्-स-एण ए-एण, इन आवश्यकों द्वारा सावओ जइ वि बहुरओ होइ। साव-ओ जइ वि बहु-रओ होइ। यद्यपि श्रावक बहुत, कर्म-रज वाला हो तो भी, दुक्खाणमंत-किरिअं, दुक्-खाण-मन्-त-किरि-अम्, वह दुःखो का अंत काही अचिरेण कालेण ॥४१॥ काही अचि-रेण काले-ण ॥४१॥ थोडे समय में करता है। ४१. गाथार्थ : श्रावक शायद बहुत पापवाला हो (तो भी) यह (प्रतिक्रमण) आवश्यक से थोडे ही समय में दुःखो का नाश करेंगा। ४१. printerma _Personal Use Only १८३ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोअणा बहुविहा, आलो- अणा बहु-विहा, न य संभरिआ पडिक्कमण-काले । न य सम्-भ रिआ पडिक्-कम् ण काले । मूलगुण- उत्तरगुणे, आलोचना बहुत प्रकार की है। परन्तु प्रतिक्रमण के समय याद न आई हो ऐसी मूल गुण और उत्तर गुण संबंधी उसकी मैं निंदा और गर्हा करता हूँ । ४२. मूल-गुण- उत् तर-गुणे, तम् - निन्-दे तम्-च गरि हामि ॥ ४२ ॥ तं निंदे तं च गरिहामि ॥ ४२ ॥ गाथार्थ : (प्रतिक्रमण ) आवश्यक के समय पर मूल गुण और उत्तर गुण के प्रति (जो ) अनेक प्रकार की आलोचना याद न आई हो, उसकी मैं निंदा और गर्हा करता हूँ । ४२. तस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स-तस्-स-धम्-मस् स केव-लि- पन् नत्-तस्-स-: उस धर्म की केवली भगवंत द्वारा प्ररूपित अब्-भुट्-ठिओ मि आरा-हणा-ए, विर-ओमि विरा-हणा-ए, तिवि-हेण पडिक्-कन्-तो, मैं आराधना के लिए उपस्थित हुआ हूँ, मैं विराधनाओं से विराम पाता हूँ अब्भुट्टिओमि आराहणाए, विरओमि विराहणाए, तिविहेण पडिक्कतो, तीन प्रकार से प्रतिक्रमण करते हुए चोबीस जिनेश्वरों को मैं वंदन करता हूँ । ४३. वन्दामि जिणे चउव्वी सम् ॥४३॥ वंदामि जिणे चउव्वीसं ॥४३॥ गाथार्थ : केवली भगवंत द्वारा प्ररूपित उस धर्म की आराधना के लिये मैं तत्पर हूँ और विराधनाओं से मैं निवृत्त होता हूँ । तीन प्रकार से प्रतिक्रमण करते हुए मैं चौबीस जिनेश्वरों को वंदन करता हूँ । ४३. ('अब्भुट्टिओमि' बोलते हुए योगमुद्रा में खडे रहना है ।) सर्व चैत्य वंदना जा-वन्-ति चेड़-आ इम्, जितने जिन बिंब उड् ढे अ अहे अ तिरि-अ-लोए अ । सव्-वा-इम्-ताइम् वन्-दे, उर्ध्व लोक, अधोलोक और तिर्च्छा लोक में उन सबको मैं वंदन करता हूँ । यहां रहा हुआ वहां रही हुई को । ४४. इह सन्-तो तत्-थ सन्-ता- इम् ॥४४॥ इह संतो तत्थ संताई ॥४४॥ गाथार्थ : ऊर्ध्व लोक, अधो लोक और तिर्यग् लोक में जितनी जिन प्रतिमाएं हैं, यहां रहा हुआ मैं, वहां रही हुई उन सब (प्रतिमाओं) को वंदन करता हूँ । ४४. जावंति चेइआई, उड्ढे अ अहे अ तिरिअलोए अ । सव्वाइं ताइं वंदे, सर्व साधु वंदना जावंत के वि साहू, भरहेरवय-महाविदेहे अ । सव्वेसिं तेसिं पणओ, जा-वन्-त के वि साहू, भर-हे-रव-य-महा-विदे-हे अ । सव्-वे-सिम् तेसिम् पण-ओ, तिविहेण तिदंड विरयाणं ॥ ४५ ॥ तिवि-हेण ति-दण्ड- विर- या - णम् ॥४५ ॥ गाथार्थ : भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में जितने कोई भी साधु तीन प्रकार हूँ। ४५ चिर- संचिय - पावपणासणीड़, भवसयसहस्स-महणीए । चडवीस-जिण - विणिग्गय-कहाइ, श्रावक किस तरह से दिन व्यतित करने की भावना रखे ? चिर-सञ (सन्) -चिय-पाव-पणा सणीइ, भव-सय-सहस्-स-मह-णीए । चउ-वीस जिण - विणिग्-गय-कहाइ, जितने कोई भी साधु भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में उन सबको मैं प्रणाम करता हूँ । तीन प्रकार से तीन प्रकार के दंड से निवृत्त । ४५ से, तीन दंड से निवृत्त हैं, उन सबको मैं प्रणाम Personal Use Only चीरकाल से संचित पाप को नाश करने वाली लाखो भवों का मंथन करने वाली चौबीस जिनेश्वरों के मुख से प्रकाशित धर्म कथाओं से वोलंतु मे दिअहा ॥४६॥ वोलन्-तु मे दि-अहा ॥४६॥ मेरे दिन व्यतित हों । ४६. गाथार्थ : चिर काल से संचित पाप नष्ट करने वाली और भव को नष्ट करने वाली चौबीस जिनेश्वरों के मुख से कथित कथाओं से मेरे दिन व्यतीत हो । ४६ Jal Cove Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल-भावना मम मंगल-मरिहंता, मम मङ्-गल-मरि-हन्-ता, मुझे मंगल रूप हो अरिहंत सिद्धा साहू सुअंच धम्मो अ। सिद्-धा साहू सुअम् च धम्-मो अ। सिद्ध, श्रुत और धर्म, साधु, सम्मद्दिट्टि देवा, सम्-मद्-दिट्-ठि देवा, सम्यग्दृष्टि देव दितु समाहिं च बोहिं च ॥४७॥ दिन्-तु समा-हिम् च बो-हिम् च ॥४७॥ समाधि और बोधि प्रदान करें। ४७. गाथार्थ : १. अरिहंत परमात्मा, २. सिद्ध भगवंतो, ३. साधु भगवंतो, ४. श्रुत (ज्ञान) धर्म और ५. चारित्र धर्म, ये पांचों मेरे लिए मंगलभूत हो तथा सम्यग्दष्टि देवता (मुझ को) समाधि और सम्यकत्व दीजिए। ४७. प्रतिक्रमण किस लिए करना जरुरी है ? पडिसिद्धाणं करणे, पडि-सिद्-धाणम् करणे, निषिद्ध कार्य करने से किच्चाणमकरणे पडिक्कमणं। किच-चाण-म-कर-णे पडिक-कम-णम्। करने योग्य कार्यनकरनेसे, प्रतिक्रमण करना चाहिए असहहणे अतहा, असद-दहणे अ तहा, और जिन वचन पर अविश्वास करने से । विवरीअ-परूवणाए अ॥४८॥ विव-रीअ-परू-वणा-ए अ॥४८॥ और शास्त्र विरुद्ध विपरीत प्ररूपणा के कारण। ४८. गाथार्थ : १. शास्त्रो में निषिद्ध कार्य किया हो, २. शास्त्रों मे विहित कार्य न किया हो, ३. जिनेश्वर परमात्मा के वचन पर अविश्वास किया हो और ४. शास्त्र विरुद्ध प्ररुपणा की हो, इन चार कारणों से उपार्जित किये गए पापों से पीछे फिरने के लिए प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए। ४८. विकलेन्द्रिय ATAसार खामेमिसजीव तिर्यंच देव. J तिर्यंच नरक चउब्दीसजिणविणिग्गयकहाइ बोलतु मे दिअहा दिदेवा समाहित घोहिच सभी जीवों के साथ क्षमा याचना खामेमि सव्व जीवे, खामे-मि सव-व-जीवे, । सर्व जीवों को मैं क्षमा करता हूँ। सव्वे जीवा खमंतु मे। सव-वे जीवा खमन्-तु मे। सर्व जीव मुझे क्षमा करे, मित्ती मे सव्वभूएसु, मित्-ती मे सव-व-भूए-सु, सर्व जीवों के साथ मेरी मैत्री है वेरं मज्झ न केणइ ॥४९॥ वेरम्-मज्-झन केणइ ॥४९॥ मेरा किसी के साथ वैर नहीं है। ४९. गाथार्थ : सर्व जीवों को मैं क्षमा करता हूँ। सर्व जीव मुझे क्षमा करे। सर्व जीवों के साथ मेरी मैत्री है। मेरा किसी के साथ वैर नहीं है। ४९. प्रतिक्रमण का उपसंहार और अंतिम मंगल एवमहं आलोइअ, एव-महम्-आलो-इअ, इस तरह आलोचना, निदिअगरहिअनिन्-दिअ-गर-हिअ सम्यग् प्रकार से निंदा, गर्हा, दुगंछिअंसम्मं । दुगञ् (गन्)-छिअम्-सम्-मम्। और दुर्गंछा करके तिविहेण पडिक्कंतो, तिवि-हेण पडिक्-कन्-तो, तीन प्रकार से प्रतिक्रमण करते हुए, वंदामि जिणे चउव्वीसं ॥५०॥ वन्-दामि जिणे चउव-वीसम् ॥५०॥ वंदन करता है। जिनेश्वरों चौबीस को।५०. गाथार्थ : इस तरह सम्यक् प्रकार से (पापो की) आलोचना, निंदा, गर्दा और अरुचि व्यक्त करके, तीन प्रकार से (मनवचन-काय से) प्रतिक्रमण करते हुए चौबीस जिनेश्वरों को मैं वंदन करता हूँ।५०. १८५ dation temalaman Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोग के अभाव से होते अशुद्ध उच्चारों के सामने शुद्ध उच्चार अशुद्ध. शुद्ध अशुद्ध वंदितु सव सिद्धे वंदित्तु सव्व सिद्धे भाडी फोडी सुवजेए कम्मं भाडी फोडी सुवज्जए कम्म इच्छामि पाडीकमिउ इच्छामि पडिक्कमिउं वाणिज्ज चेव दंतं वाणिज्जं चेव दंत सावगधमाइयारस्स सावगधम्माइयारस्स एवं खु जंतापिल्लण एवं खु जंत-पिल्लण सुहमो अ बायरो वा सुहमो अ बायरो वा निलंछणं निलंछणं पडिकमे देवसिअंसव्वं पडिक्कमे देसिअंसव्वं तणकंठे तणकटे अप्सत्थेहि अप्पसत्थेहिं कंदप्पे कुकुइए कंदप्पे कुक्कुइए आगमणे निगमणे आगमणे निग्गमणे अहिगरण भोगइरित्ते अहिगरण भोग अइरित्ते छकायसामारंभ छक्कायसमारंभे सचित्ते निखवणे सचित्ते निक्खिवणे बीएणुवयमि बीए अणुव्वयम्मि वायस्स वायाए वाइअस्स वायाए आयरियमपसत्थे आयरियमप्पसत्थे पाव पणासणीया पावपणासणीड़ इत्थ पमायपसंगेण इत्थ पमायप्पसंगेणं विणिगय कहाइ विणिग्गय कहाइ अपरिगणिआ इतर अपरिग्गहिआ इत्तर विरिओमि विराहणाए विरओमि विराहणाए दुपए चउपयम्मि दुपए चउप्पयम्मि दुगंछिअंसव्वं दुगंछिअं सम्म उवभोगे परिभोगे उवभोग-परिभोगे ३६. श्री आयरिय उवज्झाए सूत्र प्रतिक्रमण के समय बोलनेवाली मुद्रा तथा 'भगवओ अंजलि' बोलते समय मस्तक पर हाथ का स्पर्श करना। आदान नाम : श्री आयरिअ उवज्झाए सूत्र गौण नाम : जीवराशि खामणा सूत्र पद : १२ संपदा :१२ विषय: आवश्यक क्रिया में सर्व जीवराशि तथा पूज्यों को क्षमापना करते हुए क्षमा देने की विशिष्ट क्रिया। गाथा : ३ मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ आयरिय-उवज्झाए, आय-रिय-उवज्-झाए, आचार्य, उपाध्याय के प्रति, सीसे साहम्मिए कुल-गणे अ। सीसे साहम्-मिए कुल-गणे अ। शिष्य सार्मिक के प्रति, जे मे केइ कसाया, जे मे केइ कसाया, मैंने जो कोई कषाय किये हो, सव्वे तिविहेण खामेमि ॥१॥ सव्-वे तिवि-हेण खामे-मि ॥१॥ उन सबकी मैं तीन प्रकार से, क्षमा मांगता हूँ। १. गाथार्थ : आचार्य भगवंतों, उपाध्याय भगवंतों, उनके शिष्यों, सार्मिकों, कुल (एक आचार्य के परिवार को 'कुल' कहते हैं।) और गण (बहुत सारे आचार्य के परिवार को 'गण' कहते हैं।) के प्रति मेरे द्वारा कोई भी प्रकार का कषाय हुआ हो, उन सभी का मैं मन-वचन-काया से क्षमा ( माफी ) मांगता हूँ।१. १८६ FOCPrime Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वस्स समण संघस्स, सव-वस्-स समण-सङ्-घस्-स, पूज्य सकल श्रमण संघ को, भगवओ अंजलिं करीअ सीसे । भगव-ओ-अन्-जलिम्-करी-अ सी-से। मस्तक पर अंजलि करके सव्वं खमावइत्ता, सव-वम्-खमा-व-इत्-ता, सब से क्षमा मांगकर, खमामि सव्वस्स अहयं पि ॥२॥ खमा-मि सव-वस्-स अह-यम् पि ॥२॥ मैं भी सबको क्षमा करता है गाथार्थ : मस्तक के उपर दो हाथ जोडकर पूज्यश्री श्रमण संघ के प्रति (किए हुए) सभी (अपराधों) की क्षमा (माफी) मांगकर मैं भी सभी को क्षमा (माफ) करता हूँ। २. सव्वस्स जीवरासिस्स, सव-वस्-स जीव-रा-सिस्-स, सर्व जीवों के समूह से भावओ धम्म-निहिअभाव-ओ धम्-म-निहि-अ अपने मन को धर्म भावना में स्थापित निअ-चित्तो। निअ-चित्-तो। कर/अंतःकरण से धर्म भावना पूर्वक सव्वं खमावइत्ता, सव-वम् खमा-वइत्-ता, सभी अपराधों की क्षमा मागकर, खमामि सव्वस्स अहयं पि ॥३॥ खमा-मि सव्-वस्-स अह-यम् पि ॥३॥ मैं सभी के अपराधों की क्षमा करता हूँ।३ अशुद्ध शुद्ध गाथार्थ : भाव से धर्म के प्रति स्थापित किया है, चित्त (मन) को जिसने, ऐसा मैं भगवो अंजलि भगवओ अंजलि सभी जीवसमूह के सभी (अपराध) की क्षमा मांगकर, मैं उन सभी के अपराधों को निअ निअ निहिअ निअ माफ (क्षमा) करता हू। ३. अहियंपि अहयंपि ३७ श्री श्रुत देवता स्तुति आदान नाम: श्री सुअदेवया स्तुति गौण नाम : श्री श्रुतदेवता स्तुति श्रुतज्ञान के प्रति पद आदर रखनेवालों के संपदा गुरु-अक्षर : २ प्रति सहानुभूति प्रतिक्रमण के समय प्रतिक्रमण के समय लघु-अक्षर : ३५ दिखाने के लिए कायोत्सर्ग में योगमुद्रा में सर्व अक्षर : ३७ सुनने की मुद्रा। बोलने की मुद्रा। श्री संघ स्तुति करता है। मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पदक्रमानुसारी अर्थ सुअदेवयाए करेमि सुअ-देव-याएकरे-मि श्रुत देवता की आराधना (स्मरण) के लिए काउस्सग्गं! अन्नत्थ..., काउस्-सग्-गम् अन्-नत्-थ। । मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।अन्नत्थ... छंद का नाम: गाहा; राग : जिण जम्मसमये....(स्नात्र पूजा) सुअदेवया भगवई, सुअ-देव-या भग-वई, भगवती (सरस्वती) ऐसी श्रुतदेवता नाणावरणीय-कम्म-संघायं। नाणा-वर-णीय-कम्-म सङ्-घा-यम्। ज्ञानावरणीय कर्म के समूह को तेसिं खवेउ सययं, तेसिम्-खवेउ सय-यम्, उनके नित्य क्षय करो जेसिं सुअसायरे भत्ती ॥१॥ जेसिम्-सुअ-साय-रे भत्-ती ॥१॥ जिनको श्रुतज्ञानरुप समुद्र पर भक्ति है। १. १८७ Jain Education international For Private aasaanonly Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथार्थ : श्रुत देवता की आराधना के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूँ । जिनको श्रुतज्ञानरुप समुद्र पर भक्ति है । उन के ज्ञानावरणीय कर्म के समुह को श्रुत देवता (= सर्वज्ञ भगवंतों द्वारा प्ररुपित आगम-सिद्धांतों आदि श्रुतज्ञान की अधिष्ठायक देवी को श्रुतदेवता = सरस्वती कहते हैं) नित्य क्षय करो । १. नोट : इस सूत्र के प्रारम्भ में 'करेमि काउस्सग्गं' के बाद अन्नत्थ सूत्र बोलकर एकबार श्री नवकार मंत्र का जिनमुद्रा में कायोत्सर्ग करके तथा पारकर सुअदेवया...' गाथा बोलनी चाहिए । यहाँ इस सूत्र में, क्षेत्रदेवता की स्तुति में, कमलदल की स्तुति में, भवनदेवता की स्तुति में , क्षेत्रदेवता की स्तुति में 'अन्नत्थ सूत्र' बोलने से पहले 'वंदण वत्तियाए...' सूत्र बोलने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि शासन रक्षक सम्यग्दृष्टि देव का स्मरण करके प्रार्थना होती है, परन्तु अविरतिवाले होने के कारण वंदन-नमन नहीं होता है। इसी तरह कुसुमिण-दुसुमिण' का, 'देवसिअ पायच्छित्त' का, कर्मक्षय' का, 'दुःखक्षय' का तथा 'क्षुद्रोपद्रव उड्डावणार्थ' का काउस्सग्ग करने से पहले 'वंदण वत्तियाए...' सूत्र बोलने की आवश्यकता नहीं है। किसी भी विशिष्ट तप की आराधना के लिए, चैत्यवंदन-देववंदन आदि के लिए कायोत्सर्ग करने से पहले ही अवश्य 'वंदणवत्तियाए...' सूत्र बोलना चाहिए। ३८.श्री क्षेत्रदेवता स्तुति आदान नाम : श्री खित्तदेवया स्तुति | विषय: गौण नाम : श्री क्षेत्रदेवता स्तुति | उन-उन क्षेत्रों के गाथा सम्यग्दृष्टि देवों को पद मुनि भगवंतों की संपदा साधना निर्विघ्नता गुरु-अक्षर :३ पूर्वक सम्पन्न हो, प्रतिक्रमण के समय प्रतिक्रमण के समय लघु-अक्षर : ३३ इसके लिए कायोत्सर्ग में योगमुद्रा में सर्व अक्षर : ३६ सुनने की मुद्रा। बोलने की मुद्रा। प्रार्थना। मूलसूत्र उच्चारण में सहायक पदक्रमानुसारी अर्थ खित्तेदेवयाएकरेमि खित्-त देव-याए-करे-मि क्षेत्र देवता की आराधना ( स्मरण ) के लिए काउस्सग्गं अन्नत्थ..., काउस्-सग्-गम्।अन्-नत्-थ..., मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।अन्नत्थ... छंद का नाम : गाहा; राग : जिण जम्मसमये मेरु सिहरे... (स्नात्र पूजा) जीसे खित्ते साहू, जीसे खित्-ते साहू, जिस के क्षेत्र के प्रति साधु-मुनिराज दंसण-नाणेहिं चरणस-हिएहिं। दन्-सण-नाणे-हिम् चरण-सहि-एहिम्। दर्शन-ज्ञान-चारित्र सहित साहति मुक्खमग्गं, साहन्-ति मुक्-ख-मग्-गम्, मोक्ष मार्ग की साधना करते हैं, सा देवी हरउ दुरिआई ॥१॥ सा देवी हर-उ दुरि-आ-इम् ॥१॥ वह देवी पापों का नाश करो । १. गाथार्थ: श्री क्षेत्रदेवता की आराधना (स्मरण) के लिए मै कायोत्सर्ग करता हूँ। अन्नत्थ... जिस के क्षेत्र में साधु-मुनिराज दर्शन-ज्ञान और चारित्र स्वरुप रत्नत्रयी सहित मोक्षमार्ग की आराधना-साधना करते हैं, वह क्षेत्र की अधिष्ठायक देवी पापों का नाश करो । १. १८ For Pro Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९. श्री कमल दल स्तुति आदान नाम : श्री कमलदल स्तुति | विषय: गौण नाम : श्री श्रुतदेवता स्तुति श्रुत देवी : ४ (सरस्वती) का संपदा : ४ गुरु-अक्षर : ४ मनोहर वर्णन लघु-अक्षर : ४० के साथ सिद्धि सर्व अक्षर : ४४ की प्रार्थना। मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ कमल-दल-विपुल-नयना, कमल-दल-विपुल-नयना, कमल पत्र जैसे विशाल नेत्रों वाली कमल-मुखी कमलक-मल-मुखी-कमल कमल जैसे मुखवाली कमल के मध्य भाग गर्भ-समगौरी। गर्-भ-सम-गौरी। समान गौर वर्ण वाली, कमले स्थिता भगवती, कमले-स्थिता भग-वती, कमल पर स्थित भगवती ददातु श्रुतदेवता सिद्धिम् ॥१॥ द-दातु श्रुत-देवता सिद्-धिम् ॥१॥ प्रदान करे, श्रुत देवी हम को सिद्धि । १. गाथार्थ : कमल पत्र जैसे विशाल नेत्रोंवाली, कमल जैसे मुखवाली, कमल के मध्य भाग जैसे गौर मुखवाली और कमल पर स्थित श्रुत देवी भगवती (सरस्वती) हम को सिद्धि प्रदान करें। १. ( देवसिअ प्रतिक्रमण में स्त्री वर्ग यह स्तुति बोलते हैं।) ४०. श्री नमोऽस्तु वर्द्धमानाय सूत्र आदान नाम : श्री नमोऽस्तु वर्द्धमानाय सूत्र विषयः गौण नाम : श्री सायंकालीन वीर स्तुति शाम के प्रतिक्रमण के गाथा | यह सूत्र पूर्व में से | समय छह आवश्यक पद : १२ | उदधृत किया गया हैं। की पूर्णाहूति का संपदा :१२ | अतः बहेनो यह सूत्र के गुरु-अक्षर : ३० बदले संसार दावानल हर्ष व्यक्त करने मात्र पुरुषों के लिए लघु-अक्षर : ९४ | सूत्र की प्रथम तीन | हेतु गुणगणगर्भित प्रतिक्रमण के समय सर्व अक्षर : १२५ गाथाए बोलें। वीरविभु की स्तुति । बोलनेवाले की मुद्रा। अपवादिका मुद्रा। सामायिक, चउवीसत्थो, वांदणा, प्रतिक्रमण, काउस्सग्ग, पच्चक्खाण किया है, जी। मूल सूत्र उच्चारण में सहायक 1 पद क्रमानुसारी अर्थ इच्छामो अणुसट्टि इच्-छामो अणु-सट्-ठिम्, हम गुरु का अनुशासन चाहते हैं। नमो खमासमणाणं, नमो खमा-सम-णा-णम् । नमस्कार हो, क्षमाश्रमणों को। नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपा-ध्याय- नमोर्-हत्-सिद्-धा-चार-योपाध्याय- अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय सर्वसाधुभ्यः। । सर्-व-साधु-भ्यः ।। (और) सभी साधु भगवंतों को नमस्कार हो । गाथार्थ : हम गुरु का अनुशासन (आज्ञा) चाहते हैं । हे क्षमाश्रमणों ! आपको नमस्कार हो । ( परम मंगल स्वरुप) श्री अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सभी साधु भगवंतों (पंच परमेष्ठि) को नमस्कार हो। SIDE १८९ osjagaranya M Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छंद का नाम : अनुष्टप; राग : दर्शनं देव देवस्य.. (प्रभु स्तुति) नमोऽस्तु वर्द्धमानाय, नमो-स्तु वर्-द्ध-माना-य, श्री वर्धमान स्वामी को नमस्कार हो स्पर्द्धमानाय कर्मणा। स्पर-द्ध-माना-य कर-मणा। कर्मों के साथ स्पर्धा करते हुए तज्जया-वाप्त-मोक्षाय, तज्-जया-वाप्-त-मोक्-षाय, उन पर विजय द्वारा मोक्ष प्राप्त किये हुए परोक्षाय कुतीर्थिनाम् ॥१॥ परोक्-षाय कुतीर-थिनाम् ॥१॥ कुतीर्थियों के लिए अगम्य गाथार्थ : कर्मो के साथ स्पर्धा करते हुए और उन पर विजय द्वारा मोक्ष प्राप्त किये हुए और मिथ्यात्वियों के लिए अगम्य श्री महावीर स्वामी को नमस्कार हो । १. स्पद्धमानाय कर्मणा HAN 'नमोऽस्तु वर्द्धमानाय' बोलते हुए, अष्ट प्रातिहार्य युक्त श्री प्रभु को देखकर सिर झुकाकर वंदन करना चाहिए । 'स्पर्द्धमानाय कर्मणा' बोलते हुए, प्रभु को सज्जयावाप्तमोक्षारा कर्म के साथ लड़ते हुए अर्थात् उपद्रव (उदा. दुष्ट देव के द्वारा मस्तक पर घूमता हुआ कालचक्र, सिंह-बाघ का आक्रमण-सर्पदंश, पैरों के बीच अग्नि आदि) के समय स्थिर चित्त समाधि से देखना चाहिए । 'तज्जयावाप्त मोक्षाय' बोलते हुए, इन उपद्रवों में अद्भुत उपशम-समता से विजय अर्थात् कर्मध्वंस कर मोक्ष प्राप्त करते हुए देखना चाहिए । 'परोक्षाय...' बोलते हुए, मिथ्यादर्शी प्रभु से मुंह फिरा लेते हैं, प्रभु को देख नहीं सकते हैं, ऐसे प्रभु को देखना । १. पशेपास तालिबाना नमोऽस्तु वर्द्धमानाय छंद का नाम : औपच्छन्दसिक; राग : वंदे मातरम् सुजलाम्-सुफलाम् (देश-गीत) येषां विकचार-विंद-राज्या, येषाम्-विकचा-र-विन्-द-राज्-या, जिनकी विकसित कमल पंक्तियों ने ज्यायः क्रमकमलावलिं दधत्या। ज्या-य:-क्रम-कमला-वलिम्-दधत्-या। उत्तम चरण कमल की श्रेणी को धारण करनेवाली सदशैरिति संगतं प्रशस्यं, सद्-ऋशै-रिति सङ्-गतम्-प्र-श-स्-यम्, कहा कि समान के साथ इस प्रकार समागम होना प्रशंसनीय है कथितं सन्तु शिवाय ते- कथि-तम् सन्-तु शिवाय ते कहा कि वे जिनेश्वर मोक्ष के लिये हो । २. जिनेन्द्राः ॥२॥ जि-नेन्-द्राः ॥२॥ 'येषां विकचार...' के समय, हमारे गाथार्थ : वे जिनेन्द्र मोक्ष के लिए हो, सामने अनंत तीर्थंकरदेव हैं, उनके | जिनकी उत्तम चरण कमल की श्रेणी को चरणकमल के आगे कमलों की धारण करनेवाली, विकसित कमलों की पंक्ति है, इनकी अपेक्षा से प्रभुचरण | पंक्ति ने कहा कि समान के साथ इस प्रकार रुप कमलपंक्ति अधिक सुन्दर है, समागम होना प्रशंसनीय है।२. फिर भी दोनों कमल के रूप में समान होते हुए कमलपंक्ति बोलती है कि 'समान के साथ हमारा योग रोषा विकतारविन्दराज्या प्रशंसनीय है।' ऐसे प्रभु से शिव मोक्ष कल्याण मागें।२. hos Privale & Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा-दित छंद का नाम : वंशस्थ; राग : कल्लाण कंदं (पंच जिन स्तुति) कषाय-तापा-दितकषाय-तापार-दि-त कषाय रूपी ताप से पीड़ित जन्तु-निर्वृति, जन्-तु निर्-वृतिम्, प्राणियों की शांति करता है, करोति यो-जैन-मुखाम्बुदोद्-गतः। करो-ति यो-जैन-मुखाम्-बुदोद्-गतः। जो जिनेश्वर के मुख रूपी मेघ से प्रगटित स शुक्र-मासोद्-भव-वृष्टि-सन्निभो, स शुक्र-मासोद्-भव वृष्-टि सन्-निभो, ज्येष्ठ मास में होने वाली वृष्टि समान दधातु तुष्टिं मयि विस्तरो गिराम् ॥३॥ दधातु तुष्-टिम् मयि विस्-तरो गिराम् ॥३॥ मुझ पर अनुग्रह धारण करो वाणी का । विस्तार / समूह । ३. 'कषायतापा...' बोलते हुए, प्रभु देशना दे रहे हैं, गाथार्थ : ज्येष्ठ मास में होनेवाली दृष्टि के समान उनका मुख मानो जो कषाय रूपी ताप से पीडित प्राणियों की बादल है तथा उसमें से || शांति करता है, वैसी जिनेश्वरके मुख रूपी मेघ से निकलनेवाली वाणी प्रगटित वाणी का वह समूह मुझ पर अनुग्रह मानो शीतल जल की वृष्टि की तरह वह श्रोता धारण करो।३. के ऊपर गिरकर उसके अशुद्ध कषाय-ताप को शांत कर देती है। ज्येष्ठ माह ज्यायकमकमलावलि ज्यायःक्रमकमलावलिं की बरसात भूमि को सदशैरिति सदृशैरिति कैसी ठंडी कर देती है? जन्तुनिवृति जन्तुनिर्वृति वैसे।३ व्रष्टिसन्निभो वृष्टिसन्निभो PID काय तापा पार्दित ज विशाल MEEG पूर्वकाल की अनंत मेरू-अवस्था पर अनंत प्रभु को इन्द्र जन्माभिषेक करते हुए देखें, तथा यह उनके असीम आनंद में स्वर्ग सुख को तृण समान तुच्छ मानते हुए देखें।२. भगवान का मुखकमल देखें, जिसमें दो नेत्र पंखुड़ियों के समान हैं तथा दांतों में उछलते हुए किरणों को पराग के समान देखना चाहिए।१. A कलक निर्मुक्त-ममुक्तपूपात कुतकराचमनं सदादयम् । यूँ देखें की दुनिया का चंद्रमा तो कलंकित तथा पूर्णता को छोड़कर छोटा होते हुए राहु के मुंह में निगला जाकर अस्त हो जाता है, जबकि जिनेश्वर भाषित आगम रूपी चंद्रमा निष्कलंक है । यह कभी अपनी पूर्णता को नहीं छोड़ता है तथा कुतर्क रूपी राहु के मस्तक को निगलकर साफ करनेवाला तथा सदा उदय होनेवाला है, तथा सुबुद्धि (विशुद्ध बुद्धि के स्वामि ) देवताओं तथा मानवों से वंदित है। ३. हिनामा अपूसा जिसवकारितम् हिदागदी पीमि पुधिनमस्कृतम् ॥ (www.jamalibrary.or? Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ Jain Edu मात्र पुरुषों के लिए प्रतिक्रमण के समय बोलनेवाले की मुद्रा । मूल सूत्र विशाल - लोचन - दलं, प्रोद्यद्दन्तांशु-केसरम् । प्रातर्वीर - जिनेन्द्रस्य, अपवादिक मुद्रा । अशुद्ध प्रद्यत्तांशु त्रणमपि अपूर्वचन्द्र बुधैनमस्कृतम् ४१. श्री विशाललोचन सूत्र : श्री विशाललोचन सूत्र विषय : : प्रातःकालीन वीरस्तुति इस प्रभातिक स्तुति : ३ : १२ यह सूत्र पूर्व में से उद्धृत किया गया है । अतः बहेनो (छह आवश्यक के बाद : १२ इसके 'संसार दावानल गुणगण-गर्भित : २३ १०१ी स्तवना के साथ की : १२४ | तीन गाथाए बोलें । जानेवाली प्रार्थना है । : आदान नाम गौण नाम गाथा पद संपदा छंद का नाम : अनुष्टुप्; राग उच्चारण में सहायक विशाल - लोचन - दलम्, प्रोद्-यद्-दन्-तान्-शु केस - रम् । प्रातर् - वीर- जिनेन्द्र-स्य, कलंक-निर्मुक्त-ममुक्त पूर्णतं, कुतर्क - राहु-ग्रसनं सदोदयम् । अपूर्व-चंद्रं जिनचंद्र - भाषितं, दिनागमे नौमि बुधैर्नमस्कृतम् ॥३॥ गुरु-अक्षर लघु-अक्षर सर्व अक्ष शुद्ध प्रोद्यद्-दंतांशु तृणमपि अपूर्वचन्द्र बुधैर्नमस्कृतम् देदीप्यमान दांतों की किरण रूपी पुष्प केशरवाला प्रातः काल में जिनेश्वर का मुखपद्मं पुनातु वः ॥१॥ मुख-पद्-मम् पुनातु वः ॥१॥ मुख तुम्हे पवित्र करो । १. गाथार्थ : विशाल नेत्र रूपी पत्रवाला और देदीप्यमान दंत-किरण रूपी केसर वाला, श्री महावीर जिनेश्वर का मुख रूपी कमल प्रातः काल में तुम्हे पवित्र करो । १. छंद का नाम : औपच्छन्दसिक; । राग : वंदे मातरम् ! सुजलां सुफलाम् (देश गीत ) जिनकी अभिषेक क्रिया करके येषाम-भिषेक-कर्म कृत्वा, येषामभिषेक-कर्म कृत-वा, मत्ता हर्षभरात् सुखं सुरेन्द्राः । मत्-ता हर्ष-भरात्-सुखम् सुरेन्द्राः । तृणमपि गणयन्ति नैव नाकं, तृण-मपि गण-यन्-ति नै व नाकम्, प्रातः सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः ॥२॥ प्रातः सन्-तु शिवाय ते जिनेन्द्राः ॥२॥ गाथार्थ : जिनकी अभिषेक क्रिया करके हर्ष समुह से मत्त बने हुए सुरेन्द्र प्रातः काल में शिव सुख के लिये हो । २. में बदले दर्शन देव देवस्य (प्रभु स्तुति ) पद क्रमानुसारी अर्थ विशाल नेत्र रूपी पत्रवाला हर्ष के समूह से मत्त बने हुए सुरेन्द्र सुख को तृण मात्र भी नहीं मानते स्वर्ग के छंद का नाम : वंशस्थ; राग : कल्लाण कंदं (पंच जिनस्तुति) क- लङ् क निर् मुक् त म मुक्-तपूर्ण-तम्, कुतर्क राहु-ग्रस-नम् सदो -दयम् । अ-पूर्-व चन् द्रम् जिन- चन्द्र-भाषितम्, दिना-गमे - नौमि - बुधैर्-नमस्-कृतम् ॥३॥ प्रातः काल में शिव सुख के लिए हो वे जिनेश्वर । २. स्वर्ग सुख को तृण मात्र भी नहीं मानते, वे जिनेश्वर कलंक से रहित पूर्णता का त्याग न करने वाले कुतर्क रूपी राहुको ग्रसने वाले सदा उदयवान अपूर्व चंद्र (श्रुत) को जिनेश्वरों द्वारा कथित प्रातः काल में, मैं स्तुति करता हूँ । ३. गाथार्थ : कलंक से रहित पूर्णता का त्याग न करने वाले, कुतर्क रूपी राहु को ग्रसने वाले, सदा उदयवान, जिनेश्वरों द्वारा कथित और पंडितों द्वारा नमस्कृत अपूर्व चंद्र (श्रुत) की मैं प्रातः काल में स्तुति करता हूँ । ३. www.Minelibrary.org Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. श्री वरकनक सूत्र आदान नाम : श्री वरकनक सूत्र विषय : गौण नाम : एकसो सित्तेर जिनस्तुति गाथा उत्कृष्ट काल में पद विहार करनेवाले संपदा : ४ १७० जिनेश्वरों की गुरु-अक्षर : ४ उनके वर्गों के प्रतिक्रमण के लघु-अक्षर : ४० समय बोलने की मुद्रा। अपवादिक मुद्रा। सर्व अक्षर : ४४ अनुसार स्तुति । छंद का नाम : गाहा; राग : दर्शनं देव-देवस्य...(प्रभु स्तुति) मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ वरकनक-शंख-विद्रुमवर-कनक-श-ख विद्-रुम, श्रेष्ठ सुवर्ण, शंख, विद्रुम, मरकत-घन-सन्निभं विगतमोहम्। मर-कत-घन-सन्-निभम्-विगत-मोहम्। नीलम और मेघ जैसे वर्णवाले मोह से रहित सप्तति-शतं जिनानां, सप्-तति-शतम् जिना-नाम्, एक सो सत्तर जिनेश्वरों को सर्वामर-पूजितं वंदे ॥१॥ सर-वा-मर-पूजि-तम् वन्-दे ॥१॥ सर्व देवों से पूजत मैं वंदन करता हूँ। १. गाथार्थ : श्रेष्ठ सुवर्ण, शंख, विद्रुम, नीलम और मेघ जैसे वर्णवाले, मोह से रहित सर्व देवों से पूजित एक सो सत्तर जिनेश्वरों को मैं वंदन करता हूं। १. (छह आवश्यक सायंकालीन प्रतिक्रमण में पूर्ण होने बाद भगवान् हं' आदि पंच परमेष्ठि को वंदन करने से पहले यह सूत्र सामुहिक बोला जाता है।) ४३. श्री भवनदेवता स्तुति : १ आदान नाम : श्री ज्ञानादि गुण सूत्र गौण नाम : भवनदेवता स्तुति गाथा विषय: पद स्वाध्याय-संयमरत संपदा मुनि महाराजों का गुरु-अक्षर : २(४) लघु-अक्षर : ३५ (४७) भवनदेवी कल्याण सर्व अक्षर : ३७ (५१) करें, ऐसी प्रार्थना। मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ भवणदेवयाए करेमिकाउस्सग्गं, भ-वण-देव-याए करे-मि काउस्-सग्-गम्, भवनदेवी निमित्त कायोत्सर्ग करता हूँ, अन्नत्थ अन्-नत्-थ... अन्नत्थ... छंद का नाम : गाहा; राग : दर्शनं देव देवस्य (प्रभु स्तुति) ज्ञानादि-गुण-युतानां, ज्ञाना-दि-गुण-युता-नाम्, ज्ञान आदि गुणों से युक्त नित्यं स्वाध्याय-संयम-रतानाम्। नित्-यम् स्वा-ध्या-य संयम-रता-नाम्। नित्य स्वाध्याय और संयम में लीन विदधातु भवनदेवी, वि-दधा-तु भव-न-देवी, करे भवन देवी शिवं सदा सर्व साधूनाम् ॥१॥ शिवम् सदा सर-व-साधू-नाम् ॥१॥ कल्याण सदा सर्व साधुओं का । १. गाथार्थ : ज्ञान आदि गुणों से युक्त, नित्य स्वाध्याय और संयम में लीन सर्व साधुओं का भवन देवी सदा कल्याण करे। १. • यह स्तुति पक्खी-चौमासी-संवत्सरी प्रतिक्रमण के समय देवसिअ प्रतिक्रमण में 'सुअदेवया भगवई' के बदले में बोली जाती है तथा पू. महात्मा जब एक स्थान से दूसरे स्थान पर संथारा करते हैं, उस समय भी 'सुअदेवया भगवई' के बदले यह स्तुति बोली जाती है। १९३ vrait ol emational wwwjamallary Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. श्री क्षेत्रदेवता स्तुति आदान नाम : श्री यस्याः क्षेत्रं स्तुति | विषय : गौण नाम : क्षेत्र देवता स्तुति | जिस क्षेत्र का आश्रय गाथा पद लेकर मुनि महाराज संपदा संयम साधना करते हो, गुरु-अक्षर :३(५) प्रतिक्रमण के समय प्रतिक्रमण के समय वे क्षेत्र देवता सुख लघु-अक्षर : २९ (४०) जिनमुद्रा में सुनते योगमुद्रा में बोलते सर्व अक्षर : ३२ (४५) देनेवाले हो, ऐसी प्रार्थना। समय की मुद्रा। समय की मुद्रा। मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ खित देवयाए करेमिकाउस्सग्गं, खित्-त-याए-करेमि काउस्-सग्-गम्, क्षेत्रदेवता की आराधना हेतु, अन्नतत्थ... अन्-नत्-थ... में कायोत्सर्ग करता हूँ। गावार्थ : क्षेत्र देवता की आराधना हेतु में कायोत्सर्ग करता हूँ। छंद का नाम : गाहा; राग : जिण-जम्म-समये मेरु-सिहरे... (स्नान पूजा) यस्याः क्षेत्रं समाश्रित्य, यस-याःक्षे-त्रम् समा-श्रि-त्य, जिसके क्षेत्र का आश्रय लेकर / जिसके क्षेत्र में साधुभिः साध्यते क्रिया। साधु-भि: सा-ध्य-ते क्रिया। साधुओं द्वारा साधना की जाती है, सा क्षेत्र-देवता नित्यं, सा क्षेत्र देवता नित्-यम, वह क्षेत्र -देवता सदा | भूयान्नः सुख-दायिनी ॥१॥ भू-यान्-नः सुख-दायिनी ॥१॥ सुख देनेवाला हो । १. गाथार्थ : जिनके क्षेत्र में साधुओं द्वारा क्रिया की साधना की जाती है, वह क्षेत्र देवता हमें सदा सुख देनेवाला हो ।१. । पक्खी, चौमासी तथा संवत्सरी प्रतिक्रमण में देवसिअ प्रतिक्रमण के समय 'जिसे खित्ते साहू' के स्थान पर बोली जाती है तथा पू. महात्मा जब एक स्थान से दूसरे स्थान पर संथारा करे, उस समय भी 'जिसे खित्ते साह स्तुति बोली जाती है। ४५. श्री अड्डाइज्जेसु सूत्र आदान नाम : श्री अड्डाइज्जेसु सूत्र । सत्र विषय: गौण नाम : श्री मुनिवंदन सूत्र ढाईद्वीप में स्थित गाथा अठारह हजार शीलांगपद : ८ रथ-धारण करने वाले संपदा :८ गुरु-अक्षर : १३ सर्व साधुभगवंतों को प्रतिक्रमण के समय लघु-अक्षर : ७२ विविधगुण स्मरण सुनते समय की मुद्रा। सर्व अक्षर :८५ करके वंदना। छंद का नाम : गाहा; राग : जिण-जम्म-समये मेरु-सिहरे...(स्नात्र पूजा) मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ अड्डाइज्जेसु दीवसमुद्देसु, अड्-ढा-इज्-जेसु दी-व स-मुद्-देसु, ढ़ाई द्वीप और दो समुद्र की पनरससु कम्मभूमिसु। पन-रस-सु कम्-म-भूमि-सु। पन्द्रह कर्म भूमियों में जावंत के वि साहू, जा-वन्-त के वि-साहू, जे कोई भी साधु रयहरण-गुच्छ-पडिग्गहस्य-हरण-गुच्-छ-पडिग्-गह रजोहरण, गुच्छक और पात्रा को धारा ॥१॥ धारा ॥१॥ धारण करने वाले ।१. गाथार्थ : ढाई द्वीप और दो समुद्र की पन्द्रह कर्मभूमियों में जो कोई भी साधु भगवंत रजोहरण (= ओघा), गुच्छक (= पात्रा की जोड के उपर-नीचे बांधने योग्य अर्ण वस्त्र) और पात्रा (आदि) को धारण करनेवाले । १. Jaingaanemational Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध पंच-महव्वय-धारा, पञ् (पन्)-च महव-वय-धारा, पाँच महाव्रतों को धारण करने वाले, अट्ठारस-सहस्स-सीलंग-धारा । अट्-ठा-रस-सहस्-स सी-लङ्-ग-धारा । अट्ठारह हजार शील के अंगों को धारण करने वाले, अक्खुया-यार-चरित्ता, अक्-खुया-यार-चरित्-ता, अखंड आचाररुप चारित्र को धारण करने वाले. ते सव्वे सिरसा मणसा- ते सव-वे सिरसा मण-सा उन सब को मैं शिर,मन मत्थएण वंदामि ॥२॥ मत्-थ एण वन्-दामि ॥२॥ और मस्तक द्वारा वंदन करता हूँ। २. गाथार्थ : पाँच महाव्रतों को धारण करने वाले, अट्ठारह हजार शील के अंगों को धारण करने वाले, अखंड़ आचार रुप चारित्र को धारण करने वाले हैं, उन सबको शिर, मन और मस्तक से वंदन कर उपयोग के अभाव से होते अशुद्ध यह सूत्र बोलते-सुनते समय करने योग्य उच्चारों के सामने शुद्ध उच्चार शुभ मानसिक संकल्प अढाइ जेसु अड्राइज्जेसु ढ़ाईद्वीप में स्थित मानवभव को सार्थक करनेवाले पूज्य महात्माओं का पनरसु ध्यान करे । उनके आत्मगण वैभव को पहचानने के लिए बाह्य-अभ्यन्तर पनरससु पडिगहधारा पडिग्गहधारा स्वरूप का निरीक्षण करे । उसमें रजोहरण का ध्यान करते हुए 'जीवनरक्षा पंचमहावयधारा पंचमहव्वयधारा हेतु प्रमार्जना से रजकण को दूर करने के साथ-साथ अनादिकाल से आत्मा अठार सहस अट्ठार ससहस्स के ऊपर लगे हुए कर्म रूपी रजकण को दूर करनेवाले महात्माओं की अक्खयायारचरित्ता - अक्खुयायारचरित्ता कल्पना करे । काष्ठ (लकड़ी) के पात्र के ऊपर नीचे ऊन का टुकड़ा रखते मथेण वंदामि । मत्थएण वंदामि हुए विशिष्ट जयणा का पालन करते हुए (गुच्छक धारण करनेवाले )। तथा |जिनेश्वरों के द्वारा बतलाए हुए ४२ दोष रहित आहार की करावण-अनुमोदन = ) x ३ करण =९x ४ (आहार, भय, गवेषणा करते समय, उस आहार-पानी को धारण करने में मैथुन और परिग्रह) संज्ञा = ३६ x ५ इन्द्रिया( स्पर्शनेन्द्रिय, समर्थ काष्ठ के पात्र से सुशोभित । तथा गोचरी ग्रहण करते रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरेन्द्रिय तथा श्रोत्रेन्द्रिय) = १८० हुए कर्म निर्जरा को साधते हुए अहिंसा, जूठ, चोरी, मैथुन- १० पृथ्वीकायादि (पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, परिग्रह से सर्वथा विराम पाने के लिए पाँच महाव्रतों को वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्विइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, धारण करते हुए । तथा ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, पंचेन्द्रिय तथा अजीव) = १८०० x १० यतिधर्म (= क्षमा, तपाचार तथा वीर्याचार रूप पंचाचार का सुविशुद्ध रूप से नम्रता, सरलता, मुक्ति (संतोष), तप, संयम, सत्य, शौच, पालन करने के साथ-साथ शुद्ध निर्विकार (विकार रहित) अकिंचन तथा ब्रह्मचर्य) = १८०००( अठारह हजार) शील हृदय वृत्ति को अखंडित धारण करनेवाले महात्माओं को के अंग को धारण करनेवाले पू. महात्माओं को मन से तथा वन्दन करें। तथा (मन-वचन-काया=)३ योग... (करण- मस्तक से भावपूर्वक वंदना करनी चाहिए। १९५ Jain Foucatio n al or Pate & F Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ गौण नाम गाथा प्रतिक्रमण में प्रतिक्रमण करते पद सुनने की मुद्रा । समय बोलनेवाली मुद्रा । संपदा मूल सूत्र शान्ति शान्ति - निशान्तं, ४६. श्री लघुशांति स्तव सूत्र आदान नाम : श्री शांतिं शांति विषयः श्री शांतिनाथ भगवान की स्तवना विविध विशेषणों से करके क्षुद्रोपद्रवादि | की शांति हेतु प्रार्थना है । निशान्तम् सूत्र : श्री शांति जिन स्तुति : १९ : ७६ : ७६ छंद का नाम : गाहा; राग : जिण जम्म समये मेरु सिहरे... (स्नात्र पुजा ) उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ श्री शांतिनाथ भगवान को शांति के गृह समान शांत रस से युक्त अशिव शांत हो चुके हैं। नमस्कार करके शान्-तिम् शान्-ति-नि-शान्-तम्, शान्तं शान्ता - शिवं नमस्कृत्य । शान् तम् शान्ता शिवम् नमस्कृत्य । ओमिति निश्चित-वचसे, नमो नमो भगवतेऽर्हते पूजाम् । स्तोतुः शान्-ति-निमित्-तम्, मन्त्र- पदैः शान्तये स्तौमि ॥१॥ स्तुति करनेवालों की शांति में निमित्त भूत मंत्र पदों से शांति के लिए में स्तुति करता हूँ ।१. स्तोतुः शान्ति-निमित्तं, मन्त्रपदैः शांतये स्तौमि ॥ १ ॥ गाथार्थ : शांति के गृह समान, शान्त रस से युक्त, अशिव शांत हो चूके हैं जिनके और स्तुति करनेवालों की शांति के लिये है जो, ऐसे श्री शांतिनाथ भगवान को नमस्कार करके, शांति में निमित्तभूत मंत्र पदों से मैं स्तुति करता हूँ । १. ओमि-ति निश् चित वचसे, नमो नमो भग-व-तेर्-हते पूजाम् । शान्ति - जिनाय जयवते, शान्-ति-जिना-य जय-वते, यशस्-विने स्वामिने दमि-नाम् ॥२॥ गाथार्थ : ॐ ऐसे निश्चित वचन वाले, पूजा के योग्य भगवान, जयवान, यशस्विने स्वामिने दमिनाम् ॥२॥ वारंवार नमस्कार हो । २. 'ॐ' ऐसे, निश्चित वचनवाले नमस्कार हो, नमस्कार हो / वारंवार नमस्कार हो पूजा के योग्य भगवान श्री शांतिनाथ जिनेश्वर को जयवान, यशस्वी और दमन करनेवालों के स्वामी । २. यशस्वी और योगीश्वर श्री शांतिनाथ जिनेश्वर को सकलातिशेषक-महा सक-ला- तिशे-षक-महा सर्व अतिशय रूपी महा संपत्ति समन्विताय शस्याय । सम्-पत्-ति-समन्- विताय शस्-याय । संपत्ति से युक्त प्रशस्त और त्रैलोक्य- पूजिताय च त्रैलोक्-य-पू-जिताय च, त्रैलोक्य पूजित नमो नमः शान्तिदेवाय ॥३॥ ! नमो नमः शान्-ति- देवाय ॥३॥ वारंवार नमस्कार हो, श्री शांतिनाथ भगवान को । ३. गाथार्थ : सर्व अतिशय रूपी महा संपत्ति से युक्त, प्रशस्त और त्रैलोक्य पूजित श्री शांतिनाथ भगवान को वारंवार नमस्कार हो । ३. सर्वामर-सुसमूह सर्-वा-मर-सु-समूह सर्व देव समूह के स्वामियों द्वारा स्वामिक-संपूजिताय (नि)न जिताय । स्वा-मिक-सम् - पूजिताय (नि) न जिताय । विशिष्ट रूप से पूजित, अजय, भुवन-जन-पालनोद्यत भुवन-जन- पाल-नो-द्य (द्य ) -त विश्व के लोगों का पालन करने में तत्पर रहने वाले, उनको सदा नमस्कार हो । ४. तमाय सततं नमस्तस्मै ॥४॥ तमा-य-सत-तम् नमस्तस्मै ॥४॥ गाथार्थ : सर्व देव समूह के स्वामियों द्वारा विशिष्ट प्रकार से पूजित, अजेय, विश्व के लोगों का रक्षण करने में सदा तत्पर रहने वाले... उनको सदा नमस्कार हो । ४. www.janeling Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वदुरितौ-घनाशन-कराय, सर-व-दुरि-तौ-घ-नाश-न-करा-य, सर्व प्रकार के भय के समूह को नाश करने वाले सर्वाशिव-प्रशमनाय। सर-वा-शिव प्र-शम-नाय । सर्व उपद्रवों का शमन करनेवाले दुष्ट-ग्रह-भूत-पिशाच- दुष्-ट ग्रह-भूत-पिशा-च- दुष्ट ग्रह भूत, पिशाच औरशाकिनीनां प्रमथनाय ॥५॥ शाकि-नी-नाम् प्रम-थ-नाय ॥५॥ शाकिनियों के उत्पात का, संपूर्ण नाश करने वाले ।५. गाथार्थ : सर्व प्रकार के भयों का नाश करनेवाले, सर्व उपद्रवों का शमन करनेवाले, दुष्ट ग्रह, भूत, पिशाच और शाकिनियों के उत्पात का संपूर्णतया नाश करने वाले (ऐसे श्री शान्तिनाथ भगवान को नमस्कार हो।) ५. यस्तयेति नाम-मन्त्र- यस्-येति-नाम-मन्-त्र जो शान्तिनाथजी का पहले कहा हुआ नाम रुपी मंत्र सेप्रधान-वाक्यो-पयोग- प्रधान-वाक्-यो-पयोग प्रधान वाक्य के उपयोग से संतुष्ट बनी कृत-तोषा। कृत-तोषा। हुई (स्तुति की हुई) विजया कुरुते जन हित- विजया-कुरुते-जन हित विजया देवी करें, लोगो का हित मिति च नुता नमत तं- मिति-च-नुता-नमत-तम्- इसलिए (आप) उस शांतिनाथजी को शान्तिम् ॥६॥ शान्-तिम्॥६॥ नमस्कार करो।६. गाथार्थ : जो श्री शान्तिनाथजी के पहले कहे गए नाम रुप मंत्र से सर्वोत्तम (प्रधान) वचन के उपयोग से जिस को संतुष्ठित की गई है तथा (आगे की गाथा में कही जानेवाली विधि अनुसार) स्तुति की हुई श्री विजयादेवी लोगों का कल्याण (हित) करती है। ऐसे श्री शान्तिनाथजी को आप नमस्कार करो । ६. भवतु नमस्ते भगवति !, भवतु-नमस्-ते-भग-वति !, । हो नमस्कार, वह हे भगवति ! विजये सुजये परपरैरजिते। विजये-सुजये-परापर-रजिते।। अच्छी जयवाली और दूसरे देवों से पराजय नहीं पानेवाली हे विजयादेवी ! अपराजिते ! जगत्यां, अपरा-जिते !-जगत्-याम, इस जगत में कही पर भी पराजय नही पानेवाली जयतीति जयावहे!जय-तीति-जया-वहे! 'आप जय पाती हो !'इस तरह स्तुति करने से स्तुति भवति ॥७॥ भवति ॥७॥ करनेवाले को 'जय' देनेवाली, ऐसी हे विजयादेवी ! ७ गाथार्थ : हे भगवति विजयादेवी ! अच्छी जयवाली (सुजयादेवी), दूसरे देवों से पराभव नहीं पानेवाली (अजिता-देवी) और जगत में पराभव नहीं पानेवाली (अपराजिता देवी)'आप जयवती हो', इस तरह स्तुति करनेवाले को 'जय' देनेवाली, (ऐसी हे देवी!) आपको नमस्कार हो । ७.. सर्वस्यापि च सयस्य, सर्-वस्-यापि-च-सङ्-घस्-य, (चतुर्विध) श्री संघ को भी, भद्र कल्याण मगल-प्रददे। भद्-र-कल्-याण-मङ्-गल-प्रददे। सुख,उपद्रव रहितता और मंगल को देनेवाली, साधूणां च सदाशिव- साधू-नाम् च-सदा-शिव और साधुओ को सदा के लिए निरुपद्रवतासुतुष्टि-पुष्टि-प्रदे ! जीयाः ॥८॥ सु-तुष्-टि-पुष-टि-प्रदे ! जीयाः॥८॥ चित्त की शांति और धर्म की वृद्धि करनेवाली हे देवी! आप जयवंता हो!। ८. गाथार्थ : (चतुर्विध) सभी संघ को भी सुख, उपद्रव रहितता और मंगल को देनेवाली ऐसी (हे देवी!) आप जयवती हो। ८. भव्यानां कृत-सिद्धे!भव्-या-नाम्-कृत-सिद्-धे! भव्य प्राणिओं को सिद्धि देनेवाली, निर्वृत्ति-निर्वाण-जननि ! निर्-वृत्-ति-निर्-वाण-जननि !- चित्त की समाधि, मोक्ष को उत्पन्नसत्त्वानाम् । सत्-त्वा-नाम्। करनेवाली तथा प्राणिओं को अभय-प्रदान-निरते !, अभय-प्रदान-निरते !, निर्भयता देने में तत्पर तथा नमोऽस्तु स्वस्ति प्रदे!नमोस्-तु-स्व-स्ति-प्रदे कल्याण को देनेवाली हे देवी! तुभ्यम् ॥९॥ तुभ्-यम् ॥९॥ आपको नमस्कार हो । ९. गाथार्थ : भव्यप्राणिओं को सिद्धि देनेवाली, चित्त की समाधि और मोक्ष को उत्पन्न करनेवाली, निर्भयता देने में तत्पर तथा कल्याण को देनेवाली हे देवी! आपको नमस्कार हो । ९. For Private & Personal www.janelibrark९७ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सफा भक्तानां जन्तूनां, भक्-ता-नाम्-जन्-तू-नाम्, भक्त जीवों का शुभावहे ! नित्यमुद्यते ! देवि !। शुभा-वहे ! नित्-य-मुद्-यते ! देवि !। कल्याण करने में नित्य ( हमेंशा ) तत्पर, ऐसी हे दे सम्यग्दष्टीनां धृतिसम्-यग्-दष्-टी-नाम्-धृति सम्यग्दृष्टि जीवों को धैर्यरति-मति-बुद्धि-प्रदानाय ॥१०॥ रति-मति-बुद्-धि-प्रदा-नाय ॥१०॥ प्रीति-मित औरबुद्धि देने के लिए(सदातत्पर हो)। गाथर्थ : हे देवी! आप भक्त जीवों का कल्याण करनेवाले, तथा सम्यग्दष्टि जीवों को धीरता, प्रीति, मित और बुद्धि में सदा तत्पर हो । १०. जिन-शासन-निरताना, जिन-शासन-निरता-नाम्, जिनशासन के प्रति प्रेमवाले शान्ति-नतानां च जगति- शान्-ति-नता-नाम् च-जगति तथा श्री शान्तिनाथजी को नमन जगतानाम्। जन-ता-नाम्। करनेवाले जगत के जन समुदायों के श्री सम्पत्कीर्ति-यशोश्री-सम्-पत्-की-ति-यशो लक्ष्मी, संपत्ति, कीर्ति और यश को वर्द्धनि ! देवि! विजयस्व ॥११॥ वर-द्ध-नि!जय-देवि!-विज-यस्-व-॥११॥ बढानेवाली,हे जयादेवी!आपजयपाओ। गाथार्थ : जिनशासन के प्रति प्रेमवाले तथा श्री शान्तिनाथजी को नमस्कार करनेवाले ऐसे जगत के जन समुदायों के ला संपत्ति, कीर्ति और यश को बढानेवाली हे जयादेवी ! आप जय पाओ ! ११. सलिला-नल-विष-विषधर- सलिला-नल-विष-विषधर- जल, अग्नि, विष, सर्पदुष्ट-ग्रह-राजरोग-रण-भयतः। दुष्-ट-ग्रह-राज-रोग-रण-भयतः। दुष्ट ग्रह, दुष्ट राजा, रोग, रण (युद्ध ) के भय सेराक्षस-रिपु-गण-मारी- राक्-षस-रिपु-गण-मारी- राक्षस,शत्रुओ का समुह-मरकीचौरेति-श्वापदा-दिभ्यः ॥१२॥ चौरे-ति श्वा-पदा-दिभ्-यः ॥१२॥ चोर, सात ईतिओ और जंगली प्राणीओ के भय से १ गाथार्थ : जल, अग्नि, विष, सर्प, दुषित (दुष्ट) ग्रह, उपद्रवी (दुष्ट) राजा, दुष्ट रोग, युद्ध के भय से, राक्षस, शत्रुओं समुह, मारी-मरकी, चोर, सात ईतिओं (१. अतिवृष्टि, २. अनावृष्टि, ३. चुहे, ४. तीड़, ५. तोता (पोपट), ६. स्वचक्र (अ सैन्य ) के भय से और ७. परचक्र ( दूसरे राजा के सैन्य ) के भय से और जंगली प्राणीओं के भय से...) १२. अथ रक्ष रक्ष अथ-रक्-ष-रक्-ष उन सब से अब रक्षण करो, और अतिशय सुशिवं, सुशि-वम्, निरुपद्रवता निरंतर करो, कुरु कुरुशान्तिंच कुरु कुरु-सदेति। कुरु-कुरु-शान्-तिम् च कुरु-कुरु-सदेति। शान्ति करो,शान्ति करो,इस तरह नित्य करोतुष्टिं कुरु कु पुष्टिं, तुष्-टिम्-कुरु-कुरु-पुष्-टिम्, संतुष्टि करो, पुष्टि करो, कुरु-कुरु स्वस्ति च कुरु- कुरु-कुरु-स्व-स्-तिम् च कुरु- करो-करो कल्याण, करो-करो कुरु त्वम् ॥१३॥ कुरु-त्वम् ॥१३॥ हे देवी ! १३. गाथार्थ : हे देवी ! अब आप उन सभी से मेरा रक्षण करो-रक्षण करो, अतिशय-निरुपद्रवता करो-करो, संतुष्टि करो, पुष्टि और कल्याण करो-करो, इस तरह नित्य करते रहो-करते रहो।१३. भगवति! गुणवति!-शिवशान्ति- भग-वति!गुण-वति! शिव-शान्-ति- हेगुणसंपन्न भगवतिदेवी,आपकल्याण-शान्तितुष्टि-पुष्टि-स्वस्तीहतुष्-टि-पुष्-टि-स्व-स्तीह संतुष्टि-पुष्टि-कुशलता ! कुरु कुरु-जनानाम्। कुरु-कुरु-जना-नाम्। इस जगत के मनुष्यों को अनवरत करो... ओमिति नमो नमः हा ही- ओमि-ति-नमो-नमः हाम्-ह्रीम्- ॐ रुप ज्योति स्वरुपिणी हे देवी ! हा-हीहु हः यः क्षः ही फुट फुट्- ह-रुम्-ह-र:-यः क्षः ह्-रीम्- हूँ हूँः यः क्षः ही मंत्राक्षरों (फट्-फट् स्वाहा ॥१४॥ फुट-फुट (फट-फट) स्वा-हा ॥१४॥ सहित आपको सदा नमस्कार हो-नमस्कार हो। गाथार्थ : हे गुणसंपन्न भगवति देवी ! आप यहाँ जगत के मनुष्यों को निरुपद्रवता, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि और कल्याण-कुश करनेवाली बनो-बनो । ॐ रुप ज्योति स्वरुपिणी देवी ! हाँ, ही आदि मंत्राक्षरों ('हाँ, ही हुँ हः यः क्षः हीं - ये सात मंत्राक्षर के बीज रुप हैं और 'फट् फट् स्वाहा' = यह विघ्ननाशक बीज मंत्र है। ) सहित आपको सदा नमस्कार हो-नमस्कार हो ।१६ १९८ For Private &Personal usery www.jainelio Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं यन्नामाक्षरपुरस्सरं संस्तुता जयादेवी । कुरुते शान्ति नमतां, एवम् यन्-ना- माक्षरपुरस्- सरम् - सन्- स्तुता जया देवी । कुरुते - शान्- तिम्-नम - ताम्, नमो नमः शान्तये तस्मै ॥ १५ ॥ नमो-नमः शान्-तये-तस्-मै ॥१५॥ गाथार्थ : इस तरह जिस की नामाक्षर मंत्र सहित स्तुति की गई है, ऐसी श्री जयादेवी ! ( श्री शान्तिनाथजी को ) नमस्कार करनेवाले (लोगों ) को शान्ति देती है। उस श्री शान्तिनाथ भगवान को नित्य नमस्कार हो । १५. इति - पूर्व-सूरि-दर्शितमंत्र-पद- विदर्भितः स्तव:- शान्ते: । इति- पूर्व-सूरि-दर्-शितमन्-त्र-पद- विदर्-भितःस्त-व:- शान्तेः । सलिला-दि-भय-वि-नाशी, शान्-त्या-दि-करश्-चभक् ति मताम् ॥१६॥ सलिलादि-भय-विनाशी, शान्त्यादि-करश्च भक्तिमताम् ॥१६॥ गाथार्थ : इस तरह पूर्वाचार्यों ने बताए हुए मंत्रों के पद से गर्भित, श्री शान्तिनाथ भगवान का स्तव पानी विगेरे के भय का नाश करनेवाला और भक्ति करनेवाले मनुष्यों को शान्ति विगेरे सुख देने वाला है । १६. यश्- चैनम् - पठ-ति-सदा, उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिद्यन्ते विघ्न-वल्लयः । मनः प्रसन्न - तामेति, इस तरह जिस की नामाक्षर मंत्र सहितस्तुति की गई है, ऐसी श्री जयादेवी ! श्री शान्तिनाथजी को नमन करनेवाले लोगो को शान्ति देती है, उस शान्तिनाथजी को नित्य नमस्कार हो । १५. बृहद् गच्छ के प्रसिद्ध प्रभावक, अनंतकरुणा सागर, पूज्यपाद आचार्य देव श्रीमद् विजय मानदेवसूरिजी महाराज साहेब नाडुल नगर में चातुर्मास रहे थे। उस समय दौरान शाकंभरी नगरी के शाकिनी व्यंतरी ने श्री संघ में मरकी-रोग उत्पन्न कर पीडा देने लगी। तब श्री संघ की विनति से (जया - विजया और अपराजिता देवी जिनके सान्निध्य में नित्य रहती थी इस तरह पूर्वाचार्योंने बताए मंत्रों के पद से गर्भित, यश्चैनं पठति सदा, शृणोति भावयति वा यथायोगं । शृणो-ति-भाव-यति-वा-यथा-योगम् । सुनता है अथवा मनन करता है, वह अवश्य शान्ति के स्थान को पाता है, स हि शान्ति पदं यायात्, सूरिः श्रीमान - देवश्च ॥१७॥ गाथार्थ : और जो मनुष्य इस (श्री स-हि-शान्-ति-पदम् - या यात्, सूरि :- श्री - मान-देवश्च ॥१७॥ श्री मानदेवसूरि भी शान्ति को पाते हैं । १७. लघु शान्ति स्तव) स्तवन को विधिपूर्वक पढ़ता है, सुनता है अथवा मनन करता है, वह (मनुष्य) अवश्य शान्ति के स्थान (मोक्ष) को पाता है और श्री मानदेवसूरि ( इस स्तोत्र के रचयिता ) भी शान्ति पद को पाते हैं । १७. सभी उपसर्ग नाश पाते हैं, उप-सर्गाः क्षयम्-यान्-ति, छिद्यन्-ते-विघ्-न-वल्-लयः । मनः प्रसन्-न-ता-मेति, विघ्न रुपी लताओं का छेदन होता हैं। मन प्रसन्नता को पाता है, श्री जिनेश्वर के पूजन से । १८. पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥१८॥ पूज्य - माने-जि-नेश् वरे ॥ १८ ॥ गाथार्थ : श्री जिनेश्वर देव के पूजन के प्रभाव से उपसर्ग नष्ट होते हैं, विघ्न रुपी लताओं का छेदन होता हैं और मन प्रसन्नता को पाता है । १८. ,ऐसे) श्री मानदेवसूरिजीनें 'श्री लघुशान्तिस्तव' की रचना की और उस " स्तव के प्रभाव से मरकी रोग का उपद्रव भी शान्त हुआ । यह स्तव पढ़ने से, सुनने से और स्तव से अभिमंत्रित जल को छिटकने से सभी उपद्रव नाश पाने लगे । अतः यह स्तव बोलना प्रारंभ हुआ । हुए श्री शान्तिनाथजी का स्तव जल विगेरे के भय का नाश करनेवाला, और भक्ति करनेवाले मनुष्यों को शान्ति विगेरे सुख देनेवाला है । १६. और जो मनुष्य ईस स्तव को विधिपूर्वक नित्य पढ़ता है, सर्व मंगल मांगल्यं, सर्व कल्याण कारणम् । सर्-व-मङ्-गल-माङ्-गल्-यम्, सर्व-कल्याण-कार-णम् । प्रधानम्-सर्व-धर्माणाम्, जै-नम् - जयति - शास-नम् ॥१९॥ सर्व मंगलों में परम मंगल, सर्व कल्याण के कारणभूत, सर्व धर्मों में प्रधान धर्म (ऐसा ) श्री जैन धर्म जयवंत है । १९. प्रधानं सर्व-धर्माणां, जैनं जयति शासनम् ॥१९॥ गाथार्थ : सर्व (सभी ) मंगलों में श्रेष्ठ मंगलभूत, सभी कल्याण के कारणभूत और सभी धर्मों में प्रधानभूत, ऐसा श्री जैन धर्म जयवंत है । १९. यह 'श्री लघुशान्ति स्तव' मांगलिक रुप से सर्वत्र बोलना शुरु हुआ । प्रायः ५०० वर्ष पहले एक यति के पास उदयपुर में बारबार श्रावक आकर यह 'स्तव' सुनाने की विनति करने लगे । तब यतिजी ने देवसिअ प्रतिक्रमण में दुक्खक्खय-कम्मक्खय के कायोत्सर्ग के बाद यह 'स्तव' सुनने का और बोलने का ठराव किया । उस दिन से यह बोलने सुनने की प्रथा प्रचलित है, ऐसा वृद्ध-वाद है । prayer Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध शुद्ध यःक्ष अशुद्ध मन्त्र-पदे भगवते हते नमो नमो शान्तिदेवाय पालनाध्यत प्रथमनाय वाक्यो-प्रयोग विजिया करुते निवृतिनिर्वाणनित्य-मुध्यते देवि! सम्यग्द्रष्टीनाम् कुरु कुरु सदेति पुष्टि-स्वस्ती शुद्ध मन्त्र-पदैः भगवतेऽर्हते नमो नमः शान्तिदेवाय पालनोद्यत प्रमथनाय वाक्यो-पयोग विजया कुरुते निर्वृति-निर्वाण नित्य-मुद्यते देवि! सम्यग्दृष्टीनाम् कुरु कुरु सदेति पुष्टि-स्वस्तीह कुरुते शान्ति नमो नमो शान्तये विदर्भित स्तव यश्चेनं पढति शान्ति पदं यायात सूरि श्रीमान देवस्य उप्सर्गा छिध्यन्ते सर्व धर्माणं जेति मंगल्यम् यःक्षः कुरुते शान्तिम् नमो नमः शान्तये विदर्भितः स्तव यश्चैनं पठति शान्ति-पदं यायात् सूरिः श्रीमान-देवश्च उपसर्गाः छिद्यन्ते सर्वधर्माणाम् जयति मांगल्यम् पद ४७. श्री चउक्कसाय सूत्र आदान नाम : श्री चउक्कसाय सूत्र । | विषय : गौण नाम : श्री पार्श्वजिन स्तुति | सुंदर अलंकार युक्त गाथा :२ भाषा में मंत्रगर्भित :८ श्री पार्श्वनाथ प्रतिक्रमण के अंत में सामायिक संपदा ८ पारते समय बोलते सुनने की मुद्रा। अपवादिक मुद्रा। प्रभु की स्तुति है। छंद का नाम : पादालुक; राग : शंखेश्वर ना पार्श्व प्रभु, तारु नाम जगतमां अमर छे...(भक्ति गीत) मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ चउक्कसाय-पडि-मल्लुल्लू-रणु, चउक्-कसा-य-पडि-मल-लुल-लूर-णु, चार कषाय रूपी शत्रुओं का नाश करने वाले, दुज्जय-मयण-बाण-मुसु-मूरणु। दुज्-जय-मय-ण-बाण-मुसु-मूर-णु। दुर्जेय काम देव के बाणों को तोड़ने वाले, सरस-पियंगु-वन्नु गय-गामिउ, सर-स पि-यङ्-गु-वन्-नु गय-गामिउ, नवीन प्रियंगु लता जैसे वर्ण वाले, हाथी जैसी गति वाले, जयउ पासु भुवणत्तयजयउ पासु भुव-णत्-तय तीनों भुवन के स्वामी श्री पार्श्वनाथ प्रभु सामिउ॥१॥ सामि-उ॥१॥ जय को प्राप्त हो । १. गाथार्थ : चार कषाय रूपी शत्रुओं का नाश करने वाले, दुर्जेय काम देव के बाणों को तोड़ने वाले, नवीन प्रियं वर्ण वाले, हाथी जैसी गति वाले तीनों लोक के नाथ श्री पार्श्वनाथ प्रभु जय को प्राप्त हो । १. छंद का नाम : अडिल; राग :शंखेश्वर ना पार्श्व प्रभु... (भक्ति-गीत) जसु-तणु-कंति-कडप्प-सिणिद्धउ, जसु तणु-कन्-ति कडप्-प सिणिद्-धउ, जिसके शरीर का तेजो मंडल मनोहर है, सोहइ फणिमणि-किरणा-लिद्ध। सोह-इ फणि-मणि-किर-णा-लि-द्-धउ। शोभित नाग-मणि की किरणों से युक्त, नं नव-जलहरनम्-नव-जलहर सच ही बिजली से युक्त तडिल्लय-लंछिउ, तडिल-लय लञ् (लन्)-छिउ, नवीन मेघ समान है, सो जिणु पासु पयच्छउसो जिणु पासु प-यच-छउ वे श्री पार्श्वनाथ जिनेश्वर मनोवांछित वंछिउ ॥२॥ वञ् (वन्)-छिउ ॥२॥ प्रदान करे। २. गाथार्थ : जिसके शरीर का तेजो मंडल मनोहर है, शोभित है, नागमणि की किरणों से युक्त है, मानो बिजली से युक्त नवीन मेघ समान है, ऐसे श्री पार्श्वनाथ जिनेश्वर मनोवांछित प्रदान करे। २. २०० Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध शुद्ध • प्राकृत भाषा से रूपांतरित अपभ्रंश भाषामय पार्श्वजिन का चैत्यवंदन है। चउकसाय चउक्कसाय चतुर्विधश्री संघ 'संथारा पोरिसी' पढ़ाते हो तो श्रेष्ठ पुरुष यह सूत्र बोलें, उसके अतिरिक्त 'सामायिक भुवणतय भुवणत्तय पारते समय लोगस्स सूत्र के बाद खमासमण दिए बिना यह सूत्र चैत्यवंदन के रूप में बोला जाता है। पयच्छिउ पयच्छउ श्रावकों को खेस का उपयोग यह चैत्यवंदन (जय वीयराय सूत्र पूरा) हो तब तक करना चाहिए।' राइअ प्रतिक्रमण के उपयोगी आदेश १. इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! इच्-छा-कारण-सन्-दिसह-भग-वन् ! इच्छापूर्वक मुझे आप आज्ञा दे, हे गुरुभगवंत कुसुमिण दुसुमिण-उड्डावणी- कुसु-मिण-दुसु-मिण-उड्-डावणी- मैं कुस्वप्न-दुस्वप्न संबन्धी पाप दूर करने के लिए राइअ-पायच्छित्तरा-इअ-पायच-छित्-त रात्रि दौरान हुए अतिचारों के विसोहणत्थंविसो-हणत्-थम् प्रायश्चित की विशिष्ट काउस्सग्गं करूं? काउस्-सग्-गम्-करुम्? शुद्धि करने के लिए कायोत्सर्ग करूँ ? इच्छं, इच्-छम् ? आपकी आज्ञा मुझे प्रमाण है। कुसुमिण-दुसुमिण-उड्डावणी- कुसु-मिण-दुसु-मिण-उड्-डावणी- मैं कुस्वप्न-दुस्वप्न संबंन्धी पाप दूर करने के लिए राइअ-पायच्छित्त विसोहणत्थं- रा-इअ-पायच-छित्-त विसो-हणत्-थम्- रात्रि दौरान हुए अतिचारो के प्रायश्चित की विशिष्ट करेमि काउस्सग्गं, अन्नत्थ... १. करेमि-काउस्-सग्-गम्, अन्-नत्-थ... १. शुद्धि करने हेतु कायोत्सर्ग करता हूँ।१. अर्थ : हे भगवंत ! आप इच्छापूर्वक आज्ञा प्रदान करो कि मैं कुस्वप्न (कामभोगादि की अभिलाषा सम्बन्धी) तथा दुःस्वप्न (भूत-पिशाच) से उत्पन्न पापों को दूर करने तथा रात्रि सम्बन्धी लगे अतिचारों के प्रायश्चित्त की विशुद्धि हेतु कायोत्सर्ग करु ? (तब गुरुभगवंत कहे-करेह (हा, करो) (शिष्य कहे) आज्ञा-प्रमाण है । (मैं) कुस्वप्न (कामभोगादि की अभिलाषा सम्बन्धी) तथा दुःस्वप्न (भूत-पिशाच) से उत्पन्न पापों को दूर करने हेतु रात्रि सम्बन्धी अतिचारों के प्रायश्चित्त की विशुद्धि हेतु कायोत्सर्ग करता हूँ। • रात्रि में कामभोग-स्वप्नदोष आदि चतुर्थव्रत सम्बन्धी कुस्वप्न आया हो तथा ध्यान में हो तो उपरोक्त आदेश मांगकर चार बार लोगस्स सूत्र ‘सागरवर-गंभीरा' तक का कायोत्सर्ग करें । रात्रि में चतुर्थव्रत के अतिरिक्त भूत-पिशाच-सौम्य-कुरूप (स्वप्न रहित) आदि सम्बन्धी दुःस्वप्न अथवा सुस्वप्न हो तो उपरोक्त आदेश मांगकर चार बार लोगस्स सूत्र 'चंदेसु - निम्मलयरा' तक का कायोत्सर्ग करना चाहिए। श्री लोगस्स सूत्र नहीं आता हो तो १६ बार श्री नवकारमंत्र का कायोत्सर्ग दोनों (कुस्वप्न-दुःस्वप्न) में करना चाहिए । • राइअ प्रतिक्रमण करने से पहले मंदिर नहीं जाना चाहिए । गुरुवंदन भी नहीं करना चाहिए । प्रतिक्रमण से पूर्व एक-दो-चार सामायिक की भावनावाले भाग्यवानों को उपरोक्त कायोत्सर्ग करने के बाद ही किसी प्रकार की आराधना करनी चाहिए। प्रतिक्रमण (राइअ) से पहले देववंदन-चैत्यवंदन भी नहीं किया जा सकता है। देवसिअ प्रतिक्रमण में उपयोगी आदेश मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पदक्रमानुसारी अर्थ १.इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! इच-छा-कारण-सन्-दिसह-भगवन् ! इच्छापूर्वक मुझे आप आज्ञा दे, हे भगवंत ! देवसिअ पायच्छित्तदेव-सिअ-पायच्-छित्-त दिन से संबंधित अतिचार के विसोहणत्थंविसो-हणत्-थम् प्रायश्चित की विशेष शुद्धि हेतु काउस्सग्गं करूं? काउस्-सग्-गम् करुम् ? मैं कायोत्सर्ग करूँ? इच्छं, इच-छम्, आपकी आज्ञा प्रमाण है। देवसिअ-पायच्छित्तदेव-सिअ-पायच-छित्-त दिन से संबंधित अतिचारों के विसोहणत्थं करेमि विसो-हणत्-थम्-करेमि प्रायश्चित की विशेष शुद्धि हेतु काउस्सग्गं, अन्नत्थ... । काउस्-सग्-गम्, अन्-नत्थ... मै कायोत्सर्ग करता हूँ। १. अर्थ : हे भगवंत ! आप इच्छापूर्वक मुझे आज्ञा प्रदान करें कि मै दिन सम्बन्धित (लगे हुए) अतिचारों के प्रायश्चित की विशेष शुद्धि हेतु कायोत्सर्ग करूँ? (तब गुरुभगवंत कहे-'करेह' (हा, करो) तब शिष्य कहे ) आप की आज्ञा प्रमाण है। मैं दिन संबंधित लगे हुए अतिचारों के प्रायश्चित की विशेष शुद्धि हेतु कायोत्सर्ग करता हूँ। १. - |२०१ imwearn Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! इच्छा-कारेण सन्-दिसह-भग-वन् ! दुक्खक्खय कम्मक्खय निमित्तं इक् खक्खय-कम् - मक्खय-निमित् तम् काउस्-सग्-गम्-करुम् ? काउस्सग्गं करूं ? इच्छं, इच्छापूर्वक मुझे आप आज्ञा दें, हे गुरुभगवंत ! दुख के क्षय तथा कर्म के क्षय हेतु कायोत्सर्ग करूँ ? आप की आज्ञा प्रमाण है । मैं 'दुःख के क्षय हेतु कायोत्सर्ग अन्नत्थ... अन्-नत्-थ... करता हू । २. अर्थ : हे गुरुभगवंत ! आप इच्छापूर्वक मुझे आज्ञा प्रदान करे कि मैं दुःख के क्षय तथा कर्म के क्षय हेतु कायोत्सर्ग करूँ ? ( तब गुरुभगवंत कहे - करेह ( हाँ, करो ) तब शिष्य कहे) आपकी आज्ञा प्रमाण है। मैं दुःख के क्षय तथा कर्म के क्षय हेतु कायोत्सर्ग करता हूँ । २. २०२ दुक्खक्खय कम्मक्खयनिमित्तं करेमि काउस्सग्गं, इच-छम्, दुक्खक्खय-कम् - मक्खयनिमित्-तम् करेमि काउस्-सग्-गम्, इच्छापूर्वक मुझे आप आज्ञा दें, हे गुरु भगवंत ! मैं 'क्षुद्र ऐसे उपद्रव को दूर करने के लिए कायोत्सर्ग करूँ ? इच्छं, इच्-छम्, आपकी आज्ञा प्रमाण है । क्षुद्रोपद्रव उड्डावणार्थं मैं 'क्षुद्र ऐसे उपद्रव को दूर करने के लिए कायोत्सर्ग करता हूँ । ३. क्षुद्-रो-पद्-व उड् - डाव-णार्थम्करेमि काउस्सग्गं, अन्नत्थ... ३ करे-मि-काउस्- सग्-गम्, अन्-नत्-थ... ३ अर्थ : हे गुरुभगवंत ! आप ईच्छापूर्वक आज्ञा प्रदान करे कि मैं क्षुद्र ऐसे उपद्रव को दूर करने के लिए कायोत्सर्ग करूँ ? (गुरुभगवंत कहे-करेह - (हाँ, करो !) तब शिष्य कहे- (आपकी आज्ञा प्रमाण है। मैं क्षुद्र ऐसे उपद्रव को दूर करने के लिए कायोत्सर्ग करता हूँ । ३) • यह तीसरा आदेश मांगने के बाद चार लोगस्स का काउस्सग्ग 'सागर वर गंभीरा' तक करे तथा पूराकर नमोऽर्हत् (पुरुष ही बोले ) पूर्वक निम्नलिखित गाथाएँ (श्रेष्ठजन) बोले..... सर्वे यक्षाम्बिकाद्या ये, वैयावृत्त्य-कराधीने । क्षुद्रोपद्रव-संघातं, सर्वे यक्षाम्-बिकाद्-या-ये, वैया - वृत्-त्य-करा-धी-ने । क्षुद्-रो- पद्-रव-सङ्-घा-तम्, सभी अधिष्ठायकदेव तथा अंबिकादि जो वेयावच्च करने के स्वभाव वाले हैं। क्षुद्र उपद्रवों के समूह को ते द्रुतं द्रावयन्तु नः ॥१॥ ते दू-रू-तम् - द्-राव-यन् - तु नः ॥१॥ वे शीघ्र नाश करने वाले हों हमारे लिए । १. अर्थ : चतुर्विध श्री संघ के वेयावच्च ( भक्ति-सेवा) करने में तत्पर जो शासन रक्षक अधिष्ठायक सम्यग्दृष्टि यक्ष तथा अंबिका देवी आदि हैं, वे शीघ्र हमारे क्षुद्र उपद्रवों के समूह को नाश करनेवाले हो । १. ० पू. माहात्मा कालधर्म पाने के बाद पालखी निकलने के बाद होनेवाले सामूहिक देववंदन के समय अंत में इस तीसरे आदेश तथा गाथा बोलने के साथ बृहत्-शांति स्तोत्र बोलने का विधान है तथा पक्खी-चौमासी और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के दौरान प्रतिक्रमण स्थापित होने से अतिचार पूर्ण होने के बाद प्रतिक्रमण के साथ ठावनार (स्थापना करनेवाले) किसी भाग्यशाली को बृहत्-शांतिस्तोत्र का पाठ पूर्ण होने से पहले यदि छींक आ जाए, तो उपरोक्त तीसरा आदेश मांगकर कायोत्सर्ग कर यह गाथा बोली जाती है. • जिस भाग्यशाली को छींक आई हो, उसे प्रतिक्रमण पूर्ण होने के बाद पू. गुरुभगवंत के पास आलोचना लेनी चाहिए । क्षय तथा कर्म के ३. इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! इच्छा-कारेण-सन्- दिसह-भग वन् ! क्षुद्-रो-पद्-व- उड् - डाव णार्-थम् क्षुद्रोपद्रव उड्डावणार्थं - काउस्सग्गं करु ? काउस्-सग्-गम् करुम् ? www.ja ibrary.org Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. श्री मन्नह जिणाणं सज्झाय आदान नाम : श्री मन्नह जिणाणं विषयः गौण नाम : श्रावक कर्तव्य सूत्र मांगलिक श्रावक जीवन को पद :२० प्रतिक्रमण सुशोभित करनेवाले संपदा : २० और पौषध में अवश्य करने योग्य गुरु-अक्षर : २८ सुनते-बोलते लघु-अक्षर : १६२ ३६ कर्त्तव्यों का समय की मुद्रा। सर्व अक्षर : १९० वर्णन। छंद का नाम : गाहा; राग : जिण जम्म समये मेरु सिहरे...(स्नात्र पूजा) मूल सूत्र । उच्चारण में सहायक : पद क्रमानुसारी अर्थ मन्नह जिणाण-माणं, मन्-नह जिणाण-माणम्, जिनेश्वर की आज्ञा को मानना, मिच्छं परिहरह धरह सम्मतं। मिच्-छम् परि-हर-हधरह सम्-मत्-तम्। मिथ्यात्व का त्याग करना,सम्यक्त्व को धारण करना, छव्विह-आवस्सयम्मि, छव-विह-आवस्-सयम्-मि, छह प्रकार के आवश्यकों में उज्जुत्तो होइ पइदिवसं ॥१॥ उज्-जुत्-तो होइ पइ-दिव-सम् ॥१॥ प्रतिदिन उद्यमी होना । १. गाथार्थ : १. श्री जिनेश्वर भगवंत की आज्ञा को मानना २. मिथ्यात्व का त्याग करना; ३. सम्यकत्व को धारण करना; (४ से ९) छह प्रकार के आवश्यक में प्रतिदिन उद्यमी होना । १. पव्वेसु पोसह-वयं, प-वेसु पोस-ह-वयम्, पर्व दिनों में पौषधव्रत करना, दाणं सीलं तवो अभावो अदाणम् सीलम्-तवो अभावो अ। और दान देना, शीयल पालना, तप करना और उत्तम भावना रखना। सज्झाय-नमुक्कारो, सज्-झाय नमुक्-कारो, स्वाध्याय करना, नवकार मंत्र का जाप करना परोवयारो अजयणा अ॥२॥परो-वया-रो अजय-णा अ॥२॥ और परोपकार करना और जयणा का पालन करना। २. गाथार्थ : १०. पर्वतिथि में पौषध करना; ११. दान देना; १२. शीयल पालना; १३. तप करना और १४. उत्तम भावना रखना; १५. स्वाध्याय करना; १६. श्री नवकार मंत्र का जाप करना; १७. परोपकार करना और १८. जयणा का पालन करना । २. जिण-पूआ जिण-थुणणं, जिण-पूआ जिण-थुण-णम्, जिनेश्वर की पूजा करना, जिनेश्वर की स्तुति करना, गुरुथुअ साहम्मिआणगुरु-थुअ साहम्-मि-आण गुरु की स्तुति करना, साधर्मिक के प्रति वच्छल्लं। वच-छल्-लम्। वात्सल्य रखना ववहारस्स य सुद्धि, वव-हारस्-स य सुद्-धि, और व्यवहार शुद्धि रखना, रह-जत्ता तित्थ-जत्ता य॥३॥ रह-जत्-ता तित्-थ-जत्-ता य॥३॥ रथ यात्रा और तीर्थ यात्रा करना।३. गाथार्थ : १९. जिनेश्वर की पूजा; २०. जिनेश्वर की स्तुति; २१. गुरु भगवंत की स्तुति; २२. सार्मिक के प्रति वात्सल्य; २३. व्यवहार में शुद्धि रखना; २४. रथयात्रा और २५. तीर्थ यात्रा करना । ३. उवसम-विवेग-संवर, उव-सम-विवे-ग-सर्वं (सम्)-वर, उपशांत रहना, विवेक रखना, संवर करना भासा-समिई, भासा-समि-ई, भाषा समिति रखना और छह छ जीव-करुणा य। छ-जीव-करुणा य। कायो के जीवों के प्रति करूणा रखना, धम्मिअ-जण-संसग्गो, धम्-मिअ-जण-सन्-सग्-गो, धार्मिक जनों के संसर्ग में रहना, करण-दमो चरणकरण-दमो चरण इंद्रियों का दमन करना, चारित्र ग्रहण करने की परिणामो॥४॥ परि-णामो॥४॥ भावना रखना। ४. गाथार्थ: २६. उपशांत रहना; २७. विवेक रखना; २८. संवर करना; २९. भाषा समिति का पालन; ३०. छह काय जीवों के प्रति दया; ३१.धार्मिक जनों के संसर्ग में रहना; ३२. इन्द्रियों का दमन करना, ३३. चारित्र (संयम )ग्रहण करने की भावना रखना। ४. २०३ E Only International Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघोवरि बहुमाणो, सङ्-घो-वरि बहु-माणो, संघ का बहुमान करना, पुत्थय-लिहणं पभावणा तित्थे । पुत्-थय-लिह-णम्-पभा-वणा तित्-थे। पुस्तक लिखना और तीर्थ प्रभावना करना सड्डाण किच्चमेअं, सङ्-ढाण किच-च-मेअम्, ये श्रावक के नित्य निच्चं सुगुरु-वएसेणं ॥५॥ निच-चम् सु-गुरु-व-ए-सेणम् ॥५॥ कर्तव्य सद्गुरु के उपदेश से जानना ।५. गाथार्थ : ३४. श्री चतुर्विध संघ के प्रति बहुमान भाव; ३५. पुस्तके लिखना और ३६. तीर्थ स्थानों में प्रभावना करनी, ये श्रावकों के ३६ कर्तव्य हैं । इनको सद्गुरुभगवंत के उपदेश से जानकर सदा करने चाहिए । ५. अशुद्ध शुद्ध परिहरधर समत्तं परिहरह धरह सम्मत्तं भासासमिय छजीव भासासमिई छज्जीव सढाण किच्चमेअंसड्डाण किच्चमेअं ★यह सज्झाय पौषधव्रतधारी श्रावक-श्राविकागण प्रातःकाल देववंदन करने के बाद, दोपहर का पडिलेहण करते समय और पच्चक्खाण पारते समय बोलते हैं। साथ ही पक्खी, चौमासी तथा संवत्सरी प्रतिक्रमण के अगले दिन देवसिअ प्रतिक्रमण मैं सज्झाय के रूप में यह सूत्र बोला जाता है। नोट :- यह श्रावक के ३६ कर्तव्यों की सज्झाय भी हैं। ४९. श्री भरहेसरबाहुबली सज्झाय गाथा आदान नाम : श्री भरहेसर विषय: बाहुबली सूत्र शीलव्रत का दृढता से गौण नाम : महापुरुषो का स्मरण पालन करनेवाले उत्तम गुरु-अक्षर :५५ सत्त्वशाली महापुरुष राइअ प्रतिक्रमण के लघु-अक्षर : ४३० समय बोलते-सुनते तथा महासतियों के सर्व अक्षर :४८५ समय की मुद्रा। नाम स्मरण। छंद का नाम : गाहा; राग : जिण-जम्म-समये मेरु-सिहरे.... (स्नात्र पूजा) मूल सूत्र | उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ भरहेसर बाहुबली, भर-हे-सर बाहुबली, भरतेश्वर और बाहुबली अभयकुमारो अढंढणकुमारो। अभय-कुमारो-अ-ढण्-ढ-ण कुमारो। राजकुमार अभय कुमार और राजकुमार ढंढणकुमार सिरिओ अणिआउत्तो, सिरि-ओ अणि-आ उत्-तो, मंत्रि पुत्र श्रीयककुमार और अर्णिकापुत्र अइमुत्तो नागदत्तो अ॥१॥ अइ-मुत्-तो नाग-दत्-तो अ॥१॥ अतिमुक्त मुनि और नागदत्त शेठ । १. गाथार्थ : भरत चक्रवर्ती, बाहुबली, अभयकुमार, ढंढणकुमार, श्रीयक, अर्णिका पुत्र, अतिमुक्त, नागदत्त और । १. V atan tema For Private &Personal use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेअज्ज थूलभद्दो, मेअज्-ज-थूल-भद्-दो, मेतार्य मुनि और मंत्री पुत्र स्थूलभद्र वयररिसी नंदिसेण सिंहगिरी । वयर-रिसी नन्-दि-सेण सिंह-गिरी। वज्र ऋषि, मुनि नंदिषेण और सिंहगिरि आचार्य, कयवन्नो अ सुकोसल, कय-वन्-नो अ सुकोसल, कयवन्ना शेठ और सुकोशल मुनि, पुंडरिओ केसि करकंडू ॥२॥ पुण्-ड-रिओ केसि कर-कण-डू ॥२॥ राजकुमार पुंडरीक, केशी गणधर और करकंडू राजर्षि २. गाथार्थ : मेतार्य मुनि, स्थूलभद्र, वज्र ऋषि, नंदिषेण, सिंहगिरि, कृतपुण्य (कयवन्न), सुकोशल, पुंडरीक, केशी, करकंडू और । २. हल्ल विहल्ल सुदंसण, हल्-ल विहल्-ल सु-दन्-सण, राजकुमार हल्ल, राजकुमार विहल्ल और सुदर्श शेठ, साल महासाल सालिभद्दो अ। साल महा-साल सालि-भद्-दो अ। राजकुमार शाल, राजकुमार महाशाल और शालिभद्र , भद्दो दसन्नभद्दो, भद्-दो द-सन्-न-भद्-दो, शेठ भद्र और दशार्णभद्र राजा, पसन्न चंदो अजसभद्दो ॥३॥ पसन्-न चन्-दो अजस-भद्-दो ॥३॥ प्रसन्नचंद्र राजर्षि और यशोभद्रसूरि। ३. गाथार्थ : हल्ल, विहल्ल, सुदर्शन शेठ, शाल, महाशाल, शालिभद्र, शेठ भद्र, राजा दशार्णभद्र, प्रसन्नचन्द्र राजर्षि और यशोभद्र सूरि और । ३. जंबुपहू वंकचूलो, । जम्-बु-पहू वङ्-क-चूलो, जंबू स्वामी और राजकुमार वंकचूल, गयसुकुमालो अवंतिसुकुमालो। गय-सुकु-मालो, अवन्-ति सुकुमालो। राजकुमार गजसुकुमाल और अवंतिसुकुमाल, धन्नो ईलाईपुत्तो, धन्-नो ईलाई-पुत्-तो, श्रेष्ठि पुत्र धन्य कुमार और श्रेष्ठि ईलाची का पुत्र, चिलाईपुत्तो अ बाहुमुणी ॥४॥ चिला-ई-पुत्-तो अ बाहु-मुणी ॥४॥ दासी चिलाती का पुत्र और बाहु मुनि । ४. गाथार्थ : जम्बू स्वामी, वंकचूल राजकुमार, गजसुकुमाल, अवन्तिसुकुमाल, धन्यकुमार, इलाचीपुत्र, चिलातीपुत्र, बाहु मुनि और । ४. अज्जगिरी अज्जरक्खिअ, अज्-ज-गिरी अज्-ज-रक्-खिअ, आर्य महागिरि और आर्य रक्षितसूरि अज्जसुहत्थी उदायगो मणगो। अज्-ज-सुहत्-थी उदा-यगो मण-गो। आर्य सुहस्तिसूरि, उदायन राजर्षि और मनक मुनि कालयसूरी संबो, काल-य-सूरी सम्-बो, आचार्य कालक और राजकमार शांब पज्जुन्नो मूलदेवो अ॥५॥ पज्-जुन्-नो मूल-देवो अ॥५॥ राजकुमार प्रद्युम्न और राजकुमार मूलदेव । ५. गाथार्थ : आर्य महागिरि, आर्यरक्षित, आर्य सुहस्तिसूरि, उदायन राजर्षि, मनक कुमार, कालकसूरि, शाम्ब कुमार, प्रद्युम्न कुमार, राजा मूलदेव और । ५. पभवो विण्हुकुमारो, पभ-वो विण्-हु-कुमा-रो, प्रभव स्वामी और विष्णु कुमार मुनि अद्दकुमारो दढप्पहारी अ। अद्-द-कुमारो दढप्-पहारी अ। | राजकुमार आर्द्र कुमार और ब्राह्मण पुत्र दृढप्रहारी सिज्जंस कूरगडू अ, सिज्-जन्-स कूर-गडू अ, राजकुमार श्रेयांस और कूरगडू मुनि सिज्जंभव मेहकुमारो अ॥६॥ सिज्-जम्-भव मेह-कुमा-रो अ॥६॥ शय्यंभवसूरि और मुनि मेघ कुमार। ६. गाथार्थ : प्रभव स्वामी, विष्णु कुमार, आर्द्र कुमार, दृढ प्रहारी, श्रेयांस, कूरगडु मुनि, शय्यंभव स्वामी और मेघ कुमार। ६. एमाइ महासत्ता, एमाइ महा-सत्-ता, इत्यादि महापुरुष दितु सुहं गुण-गणेहि-संजुत्ता। दिन्-तु सुहम् गुण-गणे-हिम् सञ् (सन् )-जुत्-ता। प्रदान करे सुख गुणों के समूह से युक्त जेसिं नामग्गहणे, जेसिम्-नामग्-ग-ह-णे, जिनका नाम लेने से पावप्पबंधा विलयं जंति ॥७॥ पावप्-प-बन्-धा- विल-यम् जन्-ति ॥७॥ पाप के बंधन नष्ट होते हैं । ७. गाथार्थ : गुणों के समूह से युक्त इत्यादि महापुरुष सुख को प्रदान करे; जिनका नाम लेने से पाप के बंधन नष्ट हो जाते हैं । ७. २०५ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राविका सुलसा और राजकुमारी चंदनबाला, शेठाणी मनोरमा, राणी मदनरेखा और राणी दमयंती, श्रेष्ठी पत्नी नर्मदा सुंदरी और राणी सीता, नन्-दा भद्-दा सु-भद्-दा-य ॥८॥ राणी नंदा, श्रेष्ठी पत्नी भद्रा और श्रेष्ठी पत्नी सुभद्रा ८. मनोरमा, मदनरेखा, दमयंती, नर्मदा सुंदरी, सीता, नंदा, भद्रा, सुभद्रा और । ८. राइ-मई रिसिदत् ता, राजकुमारी राजीमती और राणी ऋषीदत्ता, राइमई रिसिदत्ता, राणी ज्येष्ठा और राजकुमारी सुज्येष्ठा और राणी मृगावती, राणी प्रभादेवी और राणी चेल्लणा देवी । ९. पउमावइ अंजणा सिरीदेवी । पउ-मा-वइ अञ्( अन्) -जणा सिरी देवी । राणी पद्मावती, राणी अंजना सुंदरी और राणी श्रीदेवी, जिट्ठ सुजिट्ठ मिगावई, जिट् ठ सु-जिट्-ठ मिगा-वई, पभावई चिल्लणा देवी ॥९॥ पभा वई चिल्-लणा - देवी ॥९॥ गाथार्थ : राजीमती, ऋषिदत्ता, पद्मावती, अंजना सुंदरी, श्रीदेवी, बंभी सुंदरी रुप्पिणी, बम्-भी 'सुन्दरी रुप्-पिणी, रेवई कुंती सिवा जयंती अ । रेवई कुन्-ती सिवा जयन्ती अ । देवई - दोवई धारणी, देव-ई, दोव-ई- धार णी, कलावई पुप्फचूला य ॥१०॥ कला-वई पुप्-फ-चूला य ॥१०॥ गाथार्थ : ब्राह्मी, सुंदरी, रुक्मिणी, पउमावई य गोरी, गंधारी लक्खमणा सुसीमा य । गन्-धारी लक्-ख-मणा सुसी मा य । राणी गंधारी, राणी लक्ष्मणा और राणी सुसीमा, जंबुवई सच्चभामा, जम्-बू-वई सच्-च-भामा, राणी जंबूवती और राणी सत्यभामा, रुप्पिणी कण्हटु महिसीओ ॥ ११ ॥ रूप-पिणी कण्-हठ्-महिसीओ ॥११॥ गाथार्थ: पद्मावती, गौरी, गांधारी, लक्ष्मणा, सुसीमा, जंबूवती, सत्यभामा जक्खा य जक् ख दिन्-ना, भूआ तह चेव भूअ-दिन्-ना य । सेणा वेणा रेणा, ज्येष्ठा, सुज्येष्ठा, मृगावती, प्रभावती, चेल्लणा देवी और । ९. राजकुमारी ब्राह्मी, राजकुमारी सुंदरी और सती स्त्री रूक्मिणी, श्राविका रेवती, राणी कुंती, राणी शिवा और राजकुमारी जयंती, राणी देवकी, राणी द्रौपदी, और राणी धारणी राणी कलावती और वणिक् पत्नी पुष्पचूला । १०. रेवती, कुंती, शिवा, जयंती, देवकी, द्रौपदी, धारणी, कलावती, पुष्पचूला और । १०. पउ-मा-वई य गोरी, राणी पद्मावती और राणी गौरी, राणी रुक्मिणी, श्री कृष्ण की आठ पटराणियां हैं । ११. औररुक्मिणी ये आठ श्री कृष्ण की पटराणियां और । ११. कुमारी यक्षा और कुमारी यक्षदत्ता, कुमारी भूता और इसी तरह कुमारी भूतदत्ता, कुमारी सेना, कुमारी वेना और कुमारी रेना मंत्री पुत्र स्थूलभद्र की बहनें । १२. सुलसा चंदनबाला, मणोरमा मयणरेहा दमयंती। नमयासुंदरी सीया, नंदा भद्दा सुभद्दा य ॥८ ॥ गाथार्थ : सुलसा, चंदनबाला, जक्खा य जक्खदिन्ना, भूआ तह चेव भूअदिन्ना य । सेणा वेणा रेणा, २०६ भईणीओ थूल-भद्-दस्-स ॥१२॥ भणीओ थूलभद्दस्स ॥१२॥ गाथार्थ : यक्षा, यक्षदत्ता, भूता, भूतदत्ता, सेना, वेना और रेना-स्थूलभद्र की ( ये सात ) बहनें । १२. इच्चाइ महासइओ, जयंति अकलंक सील - कलिआओ । अज्ज वि वज्जइ जासिं, अज्-ज वि वज्-जड़ जा-सिम्, आज तक बज रहा है, जस-पडो तिहुअणे सयले ॥१३॥ | जस-पड-हो तिहु-अणे सयले ॥१३॥ जिनके यश का पटह समस्त तीनों भुवन में । १३. गाथार्थ : इत्यादि निष्कलंक शीयलव्रत को धारण करने वाली महा सतिया जय पाती हैं, जिनके यश का पटह समस्त तीनों भवनों में आज भी बज रहा है । १३. अशुद्ध वयरिसि सुल-सा चन्दन - बाला, मणो-रमा मय-ण-रेहा दम यन् ती । नम-या-सुन्दरी सीया, एमाइ महासता गुणगणेहि संजुत्ता जेसिं नामगहणे पावबंधा कणट्ठ शुद्ध वयररिसि इच्-चाइ महा-सड़-ओ, ज-यन्- ति अक-लङ्-कसील-कलिआओ । एवमाइ महासत्ता गुणगणेहिं संजुत्ता जेसिं नामग्गहणे पावप्पबंधा कण्हट्ठ इत्यादि महा सतियां जय को प्राप्त होती हैं, निष्कलंक शीयलव्रत को धारण करने वाली • प्रातःकाल राइअ-प्रतिक्रमण के समय सात्त्विकता तथा खुमारी की प्राप्ति हेतु सज्झाय (स्वाध्याय ) रूप में यह बोला जाता है। यह सज्झाय बोलते समय उन-उन महापुरुषों तथा महासतियों के सदगुणों को याद करना चाहिए तथा वैसा बनने का संकल्प करना चाहिए। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) बाहुबली: भरत चक्रवर्ती के छोटे भाई। F . .. . . . .. . . . .. . . . .. . .. . .. . . . . प्रभु भरहसर ऋषभदेव ने तक्षशिला बाहुबली का राज्य दिया था । बाहुबली असाधारण होने के कारण तथा ९८ भाईयों के अन्याय का प्रतिकार करने के लिए चक्रवर्ती की आज्ञा नहीं मानी, जिसके कारण भयंकर युद्ध हुआ । अन्त में दृष्टियुद्ध, वाग्युद्ध, बाहुयुद्ध तथा दण्डयुद्ध किया, जिसमें भरत चक्रवर्ती ने हारते हुए चक्ररत्न फेंका, परन्तु वह चक्र स्वगोत्रीय का नाश नहीं कर सकता था । अतः वापस लौट गया । बाहुबली क्रोध में मुट्ठी बांधकर उसे मारने दौड़े । परन्तु विवेकबुद्धि जागृत होने पर केशलोच कर दीक्षा ग्रहण किया । केवली छोटे भाईयों को वन्दन नहीं करना पड़े। इसके लिए काउस्सग्ग ध्यान में खड़े रहे। १ वर्ष के बाद प्रभु के द्वारा प्रेषित ब्राह्मी-सुंदरी बहन साध्वियों के द्वारा 'वीरा मोरा गज थकी उतरो रे, गज चड्ये केवल न होय' इस प्रकार प्रतिबोध करने पर वंदन करने के लिए पैर उठाते ही, उन्हें केवलज्ञान | प्राप्त हुआ और ऋषभदेव भगवान के साथ मोक्ष में गए। (१) भरत चक्रवर्ती : श्री ऋषभदेव प्रभु के ज्येष्ठपुत्र तथा प्रथम चक्रवर्ती । अप्रतिम ऐश्चर्य के स्वामि होते हुए भी वे एक सजाग साधक थे । ९९ भाइयों की दीक्षा के बाद वे सदा वैराग्य भावना में रमण करते रहते थे। एक बार आरीसा भवन में अलंकृत शरीर को देखते हुए अगठी निकल जाने के कारण शोभा रहित हुई, ऐसी ऊँगली को देखते हुए अन्य अलंकार भी उतारें तथा उनका सम्पूर्ण शरीर शोभारहित देखकर अनित्य भावना में रमण करते हुए केवलज्ञान प्राप्त किया । देवताओं के द्वारा दिया गया साधुवेष स्वीकार कर समस्त विश्व पर उपकार किया तथा अन्त में अष्टापद पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया। KOROMANI अभयकुमार (४) ढंढणकुमार: श्री कृष्ण वासुदेव की ढढणकुमारा ढंढणा नामकी रानी के पुत्र । ढंढणकुमार ने प्रभु नेमिनाथ के पास दीक्षा ग्रहण की। परन्तु लाभांतराय कों का उदय ( होने के कारण शुद्ध भिक्षा नहीं मिलती थी। अतः अभिग्रह किया कि 'स्वलब्धि से जो भिक्षा मिले, वही ग्रहण करूंगा' छह महीने का उपवास किया । एकबार भिक्षा हेतु द्वारिका पधारे थे, तब नेमिनाथ ने अपने अठारह हजार साधुओं | में सर्वोत्तम के रूप में उनका नाम दिया । उससे नगर में वापस | फिरते श्री कृष्ण वासुदेव ने उनको देखकर हाथी पर से नीचे उतरकर विशेष भाव से वंदन किया। यह देखकर एक श्रेष्ठि ने उत्तम भिक्षा वहोराई। परन्तु प्रभु के श्रीमुख से 'यह आहार अपनी लब्धि से नहीं मिला है।'ऐसा जानकर कुम्हार की शाला में उसे परठने गए। परठते हुए उत्तमभावना पैदा होने के कारण केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। (३) अभयकुमार : नंदा रानी से हुआ श्रेणिक राजा के पुत्र । बाल्यावस्था में ही पिता के गूढ वचन का समाधान कर पिता के नगर में आए तथा बुद्धिबल से खाली कुएं में से अँगूठी निकालकर श्रेणिक राजा के मुख्यमंत्री बने । औत्पातिकी, वैनयिकी, कार्मिकी तथा पारिणामिकी बुद्धि के स्वामी होने के कारण उन्होंने अनेक समस्याओं का समाधान किया था । आखिर अंत:पुर जलाने के बहाने पिता के वचन से मुक्त होकर प्रभु वीर के पास दीक्षा लेकर उत्कृष्ट तप कर अनुत्तर विमान में देव हुए । वहा से च्यवन कर महाविदेह में चारित्र ग्रहण कर मोक्ष को प्राप्त करेंगे। २०७ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिओ (६) अर्णिकापुत्र अणिआउत्तो आचार्य : देवदत्त वणिक् तथा अर्णिका के पुत्र । नाम था संधिकरण परन्तु लोक में अर्णिकापुत्र के रूप में प्रसिद्ध हुए । जयसिंह आचार्य के पास दीक्षा लेकर अनुक्रम (५) श्रीयक : शकटाल मंत्री के छोटा पुत्र तथा से शास्त्रज्ञ आचार्य हुए । रानी पुष्पचूला को आए हुए स्वर्गस्थूलभद्रस्वामी व यक्षादि सात बहनों के भाई । पिता की |नरक के स्वजों का ज्यों का त्यों वर्णन कर प्रतिबोध दिलाकर मृत्यु के बाद नंदराजा का मंत्रीपद स्वीकार कर धर्म के दीक्षा ग्रहण कराई । दुष्काल में अन्य मुनियों को देशांतर अनुराग से लगभग १०० जिनमंदिर तथा तीन सौ धर्मशालाए भेजकर वृद्धत्व के कारण स्वयं वहीं रहे । पुष्पचुला साध्वीजी बनवाई थी । और भी अनेक अनेक सुकृत कर चारित्र वैयावच्च करती थी । कालांतर में केवलज्ञानी साध्वीजी के अंगीकार किया। एक बार संवत्सरी पर्व में यक्षा साध्वीजी के |द्वारा वैयावच्च लिए जाने का ध्यान आने पर मिच्छा मि दुक्कडं आग्रह से उपवास का पच्चक्खाण किया । सुकमारता के |मांगकर स्वयं का मोक्ष गंगानदी पार करते समय होगा । यह कारण, कभी भूख सहन नहीं किए होने के कारण उसी रात्रि | जानकर गंगानदी पार उतरते हुए व्यंतरी द्वारा शूली चुभ जाने के शुभध्यानपूर्वक कालधर्म को प्राप्त किया। कारण समताभाव से अंतकृत केवली होकर मोक्ष में पधारे। अइमुत्तो मेअज्ज (७) अतिमुक्तमुनि : पेढलापुर नगर में विजय राजा-श्रीमती राणी के पुत्र अतिमुक्तक । माता-पिता की अनुमति से आठ वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण की। जे जाणुं ते नवि जाणु, नवि जाणुं ते जाणुं' मृत्यु निश्चित है, यह जानता हूँ, परन्तु कब आएगी यह नहीं जानता । इस सुप्रसिद्ध वाक्य के द्वारा श्रेष्ठी की पुत्रवधू को प्रतिबोध दिलानेवाले मुनि बाल्यावस्था में वर्षाऋतु में भरे हुए गट्ठों में पात्रा की नाव चलाने लगे । तब स्थविरों ने साधुधर्म समझाते हुए वीर प्रभुजी के पास ऐसे तीव्र पश्चात्तापपूर्वक ईरियावहिया का 'दगमट्टी' शब्द बोलते हुए केवलज्ञान प्राप्त किया। (९) मेतार्यमुनि : चांडाल के घर जन्म लिया, परन्तु श्रीमंत शेठ के यहाँ उसका (८) नागदत्त : वाराणसी नगरी के लालन-पालन हुआ । पूर्वभव के | मित्रदेव की सहायता से अद्भुत कार्यों यज्ञदत्त शेठ तथा धनश्री शेठानी के पुत्र ।। को सिद्ध करने के कारण श्रेणिक राजा नागवसु कन्या के साथ विवाह किया। का दामाद बना । अंत में देव के ३६ नगर का कोतवाल नागवसु को चाहता वर्षों के प्रयत्नों से प्रतिबोध पाकर दीक्षा था । उसने राजा के गिरे हए कंडल को ग्रहण की। श्रेणिक राजा के स्वस्तिक कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े निःस्पृही के लिए सोने का ज्वार बनानेवाले नागदत्त के पास रखकर राजा के समक्ष सुनार के घर गोचरी जाने पर सोनी उस पर चोरी का आरोप लगाया। शूली भिक्षा वहोराने के लिए उठा, तभी क्रौंच पर चढ़ाते हुए नागदत्त के सत्य के पक्षी सारा ज्वार खा गया । ज्वार नहीं प्रभाव से प्रगट हुई शासनदेवता ने देखकर सुनार को शंका हुई। पूछने पर 'प्राण चले जाएं परन्तु पराई वस्तु को पक्षी के प्रति दया की भावना से मौन स्पर्श नहीं करे।' इस वाक्य को प्रमाणित | रहने के कारण शिर पर गीले चमरे की कर दिया। यह जानकर उसका यश चारो पट्टी बांधकर धूप में खड़े रखे । दोनों ओर फैल गया। अंत में दीक्षा लेकर आखें बाहर निकल जाने पर भी असह्य समस्त कर्मों का क्षय कर केवल ज्ञानी यातना को समताभाव से सहन कर बनकर मोक्ष को प्राप्त किया। अंतकृत केवली होकर मोक्ष में गए।। २०८ Jan Education International le erschall Ise Only punistrary ary Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ and RANAMA AAINA (१०) स्थूलभद्र : थलभद्दा नंदराजा के मंत्री शकटाल के बड़े पुत्र । युवावस्था में कोशा गणिका के मोह में लिप्त । परन्तु पिता की मृत्यु की घटना के कारण वैराग्य पाकर आर्य संभृतिविजय के पास दीक्षा लेकर एकबार कोशा गणिका के यहाँ गुरु की अनुमति से चातुर्मास किया । काम के घर में जाकर काम को हराकर कोशा को धर्म में स्थिर कर गुरु के श्रीमुख से 'दुष्कर-दुष्क रकारक' उपाधि को प्राप्त कर ८४ चौबीसी तक अपना नाम अमर किया । आर्य भद्रबाहुस्वामी के पास अर्थ से दस पूर्व तथा सूत्र से शेष चार पूर्व, इस प्रकार चौदह पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया था। कालधर्म प्राप्त कर पहले देवलोक में गए। (११) वज्रस्वामी : वयन तुंबवन गाँव के धनगिरि व सुनंदा के पुत्र, पिता के द्वारा उसके जन्म से पहले ही दीक्षा ग्रहण करने की बात जानकर हमेंशा रोते रहने के कारण माता का मोह भंग किया । माता ने धनगिरि मुनि को वहोरा दिया। साध्वी के उपाश्रय में रहकर ११ अंग कंठस्थ किया । माता ने बालक को वापस लेने के लिए राजदरबार में झगड़ा किया। संघ के समक्ष गुरु के हाथ में से रजोहरण को लेकर नाचने लगा, और आखिर दीक्षा ग्रहण की । राजा ने बालक की इच्छानुसार न्याय किया । उसके संयम से प्रसन्न होकर देवताओं ने आकाशगामिनी तथा वैक्रियलब्धि विद्या दिया । भयंकर दुष्काल के समय सारे संघ को आकाशगामी पट के द्वारा सुकाल के क्षेत्र में ले गए, तथा बौद्ध राजा को प्रतिबोध देने के लिए अन्यक्षेत्र से लाखों पुष्प लाकर शासन प्रभावना की । अन्तिम दशपूर्वधर बनकर अंत में कालधर्म को प्राप्त किया । इन्द्र ने महोत्सव किया। (१२)नंदिषेण : इस नाम के दो महापुरुष हुए हैं। एक अद्भुत वेयावच्ची नंदिषेण, जिसने देवताओं के द्वारा ली गई कठोर परीक्षा भी अपूर्व समता भाव से उत्तीर्ण किया तथा दूसरे श्रेणिक राजा के पुत्र नंदिषेण । जिसने प्रभुवीर से प्रतिबोध पाकर अद्भुत सत्त्व दिखाते हुए चारित्र ग्रहण किया तथा कर्मवश उठने वाली भोगेच्छाओं को दबाने के लिए उन विहारसंयम तथा तपश्चर्या के योग का सेवन किया, जिसके प्रभाव से उन्हें अनेक लब्धिया प्राप्त हुई । एक बार गोचरी के प्रसंग पर वेश्या के घर पहुच गए, वहा धर्मलाभ का प्रतिभाव 'यहा अर्थलाभ की आवश्यकता है।' वाक्य से मिला । मानवश एक तिनका खींचकर साढे बारह करोड स्वर्णमुद्राओं की वर्षा की । वेश्या के आग्रह से संसार में रहे, परन्तु देशना लब्धि से प्रतिदिन १० व्यक्ति को प्रतिबोध करते थे । १२ वर्षों में एक दसवां व्यक्ति एक ऐसा सुनार आया, जिसने प्रतिबोध पाया ही नहीं । आखिर गणिका ने 'दसवें आप' ऐसा मजाक करते हुए उनकी मोहनिद्रा टूटने से दीक्षा लेकर आत्मकल्याण की साधना की। नंदिसेण सिंहगिरी (१३) सिंहगिरिः प्रभु महावीरदेव की बारहवी पाट पर बिराजमान प्रभावशाली आचार्य । अनेक प्रकार के शासनसेवा के कार्य करने के साथ-साथ वे वज्रस्वामी के गुरु भी बने थे। (१४) कृतपुण्यक (कयवन्ना शेठ): पूर्वभव में मुनि को तीन बार खंडित दान देने के कारण धनेश्वर शेठ के वहा पधारे हुए कृतपुण्यक को वर्तमान भव में वेश्या के साथ, पुत्ररहित चार श्रेष्ठि पुत्रवधूओं के साथ तथा श्रेणिक राजा की पुत्री मनोरमा के साथ, इस प्रकार तीन बार खंडित भोग तथा श्रेणिकराजा का आधा राज्य प्राप्त हुआ था । संसार के विविधभोगों को भोगकर प्रभु वीर के पास पूर्वभव का वृतांत सुनकर दीक्षा ग्रहण कर स्वर्गवासी हुए। कयवन्नी dain Education International wwwjanelibrarpR Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशीस्वामी सुकोसल (१५) सुकोशलमुनि : अयोध्या के कीर्तिधर राजा तथा सहदेवी रानी के पुत्र । पिता के बाद सकोशल भी दीक्षा लेने के कारण वियोग आर्तध्यान में मृत्यु को प्राप्त कर सहदेवी जंगल में बाघिन बनी । एक बार सूकोशल उसी जंगल में जाकर कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े थे, तभी उसी बाघिन ने आकर हमला किया और उसका शरीर फाड़ डाला । उपसर्ग को अपूर्व समता से सहन करते हुए अंतकृत् केवली होकर सुकोशल मुनि ने मोक्ष को प्राप्त किया। (१६) पुंडरीक: ਕੇਸ पिता के साथ दीक्षा लेने की भावना होते हुए भी छोटे भाई कंडरीककी तीव्र भावना गौतमस्वामी देखकर उसे दीक्षा की सहमति प्रदान की तथा स्वयं वैराग्यपूर्वक राज्य का पालन किया। एक हजार वर्षों के संयम के बाद कंडरीक मुनि रोग (१७) केशी गणधर : श्री ग्रस्त हो गए । उनका सुन्दर उपचार किया तथा पार्श्वनाथ स्वामी की परम्परा अनुपानादि से भक्तिपूर्वक उनकी सेवा की । परन्तु के इस महापुरुष ने राजसी भोगों की लालसा के कारण चारित्रभ्रष्ट महानास्तिक प्रदेशी राजा को होकर कंडरीक के घर आते ही उसे राजगद्दी सौंपी प्रतिबोध किया था तथा श्री तथा स्वयं संयम जीवन स्वीकार ग्रहण किया ।। गौतमस्वामी भगवंत के साथ गुरुभगवंत जब तक नहीं मिलें तब तक चारों प्रकार धर्मचर्चा कर पाच महाव्रत के आहार का त्याग कर विहार किया । उत्तम भाव युक्त प्रभुवीर के शासन को चारित्र का पालन कर, तीन दिनों में काल धर्म स्वीकार कर अनुक्रम से पाकर सर्वार्थसिद्ध विमान में देव हुए। सिद्धपद को प्राप्त किया। हल ल्ला सुदसण (१८) राजर्षि करकंडु : (२१) सुदर्शन शेठः अर्हद्दास तथा अर्हद्दासी माता-पिता के चंपानगरी के राजा दधिवाहन सन्तान तथा बारह व्रतधारी श्रावक थे । कपिला दासी ने जब तथा रानी पद्मावती के पुत्र । वासना पूर्ति के लिए निवेदन किया, तब 'मैं नपुंसक हूँ.' ऐसा परन्तु उन्मत्त हाथी के द्वारा (१९-२०) हल्ल-विहल्ल कहकर छिटक गए । दूसरी बार राजरानी अभया ने पौषध में जंगल में माता को छोड़ देने काउस्सग्ग स्थित सुदर्शन को दासी से कहकर वहा से उठाकर के कारण, माता ने साध्वीजी |: श्रेणिक की पत्नी लाया । और विचलित करने के अनेक प्रयत्न किए । परन्तु के पास दीक्षा लेने पर जन्म चेल्लणा के पुत्र । श्रेणिक निष्फलता मिली, तब उसके ऊपर शील-भंग का आरोप के बाद स्मशान में रख दिया के द्वारा सेचनक हाथी लगाया । बहुत पूछने पर भी खुलासा नहीं करने के कारण राजा गया तथा चांडाल के यहा की भेंट देने के कारण ने फांसी की सजा सुनाई । अपनी आराधना तथा धर्मपत्नी उसका पालन-पोषण हुआ । मनोरमा के काउस्सग्ग की आराधना के बल से शूली भी शरीर पर खुजलाहट बहुत कोणिक ने युद्ध किया। सिंहासन बन गई । एक बार प्रभुवीर के पास जाते हुए नवकार होने के कारण करकंडु नाम पितामह चेडा राजा की महामंत्र के प्रभाव से प्रतिदिन सात हत्या करनेवाले अर्जुनमाली पड़ा । अनुक्रम से कंचनपुर के || मदद से लड़ते हुए वहाँ| के शरीर से यक्ष को दूर कर उसे दीक्षा प्रदान की । अंत में वे तथा चंपापुर के राजा बने । रात्रियुद्ध किया। सेचनक महाव्रतों की आराधना करते हुए मोक्ष में गए। अतिप्रिय रूपवान तथा हाथी के खाई में गिरने बलवान सांढ की वृद्धावस्था से मर जाने के कारण को देखकर वैराग्य हुआ तथा प्रत्येकबुद्ध होकर दीक्षा | दीक्षा लेकर सर्वार्थसिद्ध लेकर मोक्ष को प्राप्त किया। विमान में देव हुए। - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - २१० e n international Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सालिमही (२४) शालिभद्र : भरवाडपुत्र संगम के रूप में पूर्वभव के मुनि को दिए गए खीर के दान के प्रभाव से राजगृह नगरी में गोभद्र शेठ तथा भद्रा शेठानी के पुत्र के रूप में जन्म लिया । अतुल संपत्ति तथा उच्च कुलीन ३२ सुंदरिओं का स्वामी होने के कारण नित्य देवलोक से गोभद्रदेव के द्वारा भेजा गया दिव्य वस्त्र आभूषण आदि भोग सामग्री से युक्त ९९ पेटी का भोक्ता थे। एक बार श्रेणिक महाराजा उनकी स्वर्गीय समृद्धि देखने के लिए आए । उस समय हमारे ऊपर स्वामी हैं, यह जानकर दीक्षा की भावना से एक-एक पत्नी का त्याग करने लगे । तब बहनोई धन्यशेठ की प्रेरणा से एक साथ सबकुछ त्याग कर चारित्र स्वीकार किया तथा उग्र संयम-तपश्चर्या का पालन कर वैभारगिरि पर अनशन स्वीकार किया और सर्वार्थसिद्धि विमान में उत्पन्न हुए। भद्दो सालमहासाल (२२-२३) शालमहाशाल : दोनों भाई थे। परस्पर प्रेम था । भांजे गांगलि को राज्य सौंपकर दीक्षा ग्रहण की थी। एक बार प्रभु गौतमस्वामी के पास गांगलि को प्रतिबोध देने पृष्ठचंपा में आए । माता-पिता के साथ गांगलि ने दीक्षा ली। रास्ते में उत्तमभावना के कारण सबको केवलज्ञान प्राप्त हुआ । अंत में मोक्ष प्राप्त किया। (२५)भद्रबाहुस्वामी : अंतिम चौदह पूर्व के ज्ञाता तथा आवश्यक आदि दस सूत्रों पर नियुक्ति की रचना करनेवाले महाप्राण ध्यान की साधना करनेवाले महापुरुष ने वराहमीहिर के अधकचरे ज्योतिष ज्ञान का प्रतिकार कर आकाश से मंडल के बीच में नहीं बल्कि मंडल के अंत में मछली का गिरना तथा राजपुत्र का १०० वर्ष का आयुष्य नहीं बल्कि सात दिन में बिल्ली से उसकी मृत्यु होना आदि सचोट भविष्य बतलाकर जिनशासन की प्रभावना की तथा वराहमीहिर कृत उपसर्ग को शांत करने के लिए 'उवसग्गहरं' स्तोत्र की रचना की। कल्पसूत्र मूलसूत्र के रचयिता भी वही हैं। दसन्नभद्दो (२६)दशार्णभद्र राजा : दर्शाणपुर के राजा, नित्य त्रिकालपूजा का नियम था । एक बार गर्व सहित अपूर्व ऋद्धि के साथ वीरप्रभु | को वंदन करते हुए इन्द्र ने अपूर्व समृद्धि का प्रदर्शन कर उसके गर्व को भंग किया। इससे वैराग्य उत्पन्न हो जाने के कारण चारित्र ग्रहण किया। अंत में सम्यग् आराधना कर मोक्ष को प्राप्त किया। (२८) (२७) प्रसन्नचंद्र राजा : पसन्नचंदो सोमचंद्र राजा तथा धारणी के संतान, बालकुंवर को राज्य सौंपकर चारित्र ग्रहण किया । एक बार राजगृही के उद्यान में कायोत्सर्ग के ध्यान में थे, उसी समय प्रभु वीर को वंदन करने को निकला हुआ राजा श्रेणिक के दो सैनिकों के मुख से सुना कि 'मंत्रियों के बेवफा होने के कारण चंपानगरी के राजा दधिवाहन के बालपुत्र को युद्ध में मारकर राज्य ले लेगा.।' इसके कारण पुत्रमोह से मानसिक युद्ध करते हुए सातवी नरक के योग्य कर्म इकट्ठा किया। सारा शस्त्र समाप्त हो गया जानकर माथे पर से लोहे का टोप निकालने के लिए हाथ फिराते हैं, तभी मुंडित मस्तक से साधुता का ख्याल आते ही पश्चात्ताप करते हुए केवलज्ञान प्राप्त किया। जसभहा यशोभद्रसूरिः शय्यंभवसूरि के शिष्य तथा भद्रबाहुस्वामी के गुरुदेव। चौदह पूर्वो के अभ्यासी। उन्होंने अनेक योग्य साधुओं को पूर्वो की वाचना दी थी । अंत में शत्रुजय गिरि की यात्रा करते हुए कालधर्म पाए औरस्वर्गपधारें। २११ Folio/ PATI Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबुपहू (२९) जंबूस्वामी : निःस्पृह तथा वैराग्य वासित होते हुए भी ऋषभदत्त - धारिणी के इस पुत्र को माता के आग्रह से आठ कन्याओं के साथ विवाह करना पड़ा । परन्तु पहली ही रात में वैराग्यपूर्ण उपदेश देकर उन सभी के मन में वैराग्य जगाया । उसी समय पाँच सौ चोरों के साथ चोरी करने आया हुआ प्रभव चोर भी उनकी बातें सुनकर विरक्त बन गया। दूसरे दिन ५२७ शिष्यों के साथ जंबूकुमार ने सुधर्मास्वामी के पास दीक्षा ली। इस अवसर्पिणी काल के भरतक्षेत्र के वे अन्तिम केवली हुए । १२व (३१) गजसुकुमाल : सात-सात पुत्रों को जन्म देने पर भी एक का भी लालन | पालन करने का सौभाग्य नहीं मिलने के कारण विषाद को प्राप्त देवकी ने कृष्ण को बतलाया । कृष्ण ने हरिणैगमेषी देव की आराधना की । महर्द्धिक देव देवकी की कुक्षि में आया । वही गजसुकुमाल था । बाल्यावस्था में वैराग्य प्राप्त किया । मोहपाश में बांधने के लिए माता-पिता ने विवाह करा दिया । परन्तु युवावस्था में ही नेमिनाथ प्रभु के पास दीक्षा लेकर स्मशान में कायोत्सर्ग के ध्यान में रहे । 'बेटी का जीवन बिगाड़ दिया...' ऐसा सोचकर सोमिल ससुर ने शिर पर मिट्टी की पट्टी बांधकर चिता में से धधकते हुए गयसुकुमालो | अंगारे निकालकर माथे पर रखे । समताभाव से अपूर्व कर्मनिर्जरा कर अंतकृत केवली होकर मोक्ष में पधारें। अवंतिसुकुमालो (३२) अवंतिसुकुमाल : उज्जयिनी के निवासी भद्रशेठ तथा भद्राशेठानी के संतान । ३२ पत्नियों के स्वामी एक बार आर्यसुहस्तिसूरि को अपनी यानशाला में उसे स्थान दिया । तब 'नलिनीगुल्म' अध्ययन सुनते हुए उसे जातिस्मरण ज्ञान हुआ । चारित्र ग्रहण किया । शरीर की सुकुमारता के कारण तथा लम्बे समय तक चारित्र पालने की अशक्ति के कारण | स्मशान में काउस्सग्ग ध्यान में खड़े रहे । सुकोमल शरीर की गंध से आकर्षित होकर एक सियारिन बच्चे के साथ वहा आई और शरीर दांतों से काटने लगी। परन्तु शुभ ध्यान में मग्न रहकर काल किया तथा नलिनीगुल्म विमान में देव के रूप में उत्पन्न हुए । विकचूलो (३०) वंकचूल: विराट देश का राजकुमार पुष्पचूल, परन्तु जुआ-चोरी आदि वक्रता के कारण लोगों ने नाम रखा था वंकचूल । पिता के द्वारा राज्य से निष्कासित कर दिए जाने के कारण पत्नी और बहन के साथ निकलकर जंगल में पल्लीपति हुआ । एक बार आर्य ज्ञानतुंगसूरि के पधारने पर किसी को उपदेश नहीं देने की शर्त पर चातुर्मास कराया । | विहार करते समय वंकचूल की सीमा पार कर रहे थे । तब वंकचूल की इच्छा से आचार्य भगवंत ने (१) अज्ञात फल नहीं खाना । ( २ ) प्रहार करने से | पहले सात कदम पीछे हट जाना । ( ३ ) राजरानी के साथ भोग नहीं भोगना । ( ४ )कौए का मांस नहीं खाना, ये चार नियम दिए । अनेक प्रकार के कष्ट सहते हुए भी दृढता से नियम का पालन कर अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त कर वंकचूल स्वर्गवासी हुआ । (३३) धन्यकुमार : धनसारशीलवती के पुत्र । भाग्यबल से तथा बुद्धिबल लक्ष्मी का उपार्जन किया। एक बार साला शालिभद्र की दीक्षा की भावना से, पत्नी सुभद्रा रो धन्नो रही थी । उस समय उन्होने कहा वह कायर है, जो एक-एक करके छोड़ रहा है । यह सुनकर इस प्रकार सुभद्रा ने व्यंग्य किया 'कथनी सरल है, करनी कठिन है'। पत्नी की ये बातें सुनकर सारी भोगसामग्री को एक साथ त्यागकर शालिभद्र के साथ दीक्षा लेकर उत्तम आराधना करते हुए अनुत्तर देवलोक में गए। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलाइपुत्तो (३४ ) इलाचीपुत्र : इलावर्धन नगर के शेठधारिणी के पुत्र । वैराग्य वासित देखकर पिता ने नीच मित्रों की संगत कराने से लंखीकार नट की पुत्री पर मोहित हुआ । नट ने नाट्यकला में प्रवीण होकर राजा को रिझाने की शर्त रखी। जिससे उसकी नाट्यकला सीखकर बेनातट के महीपाल राजा के पास नटकला दिखलाया । अद्भुत खेल करते हुए नटी के मोह में पड़कर राजा बारम्बार खेल कराता है । तब परस्त्री लंपटता तथा विषयवासना पर वैराग्य आया। तभी अत्यंत निर्विकार भाव से गोचरी वहोरते हुए साधु को देखकर भक्तिभाव जाग्रत हुआ तथा | क्षपकश्रेणी चढ़कर केवलज्ञान प्राप्त किया। बाहुमणी ( ३६ ) बाहुमुनि : | जिसका मूल नाम युगबाहु था । वह पाटलिपुत्र के विक्रमबाहु राजा मदनरेखा रानी के पुत्र । पूर्वभव की ज्ञानपंचमी की आराधना के पुण्यबल से सरस्वती देवी तथा विद्याधरों की कृपा प्राप्त होने | पर अनेक विद्याएँ प्राप्त कर तथा चार प्रश्नों का प्रत्युत्तर देने की प्रतिज्ञा पूतली के पास कराई । अनंगसुंदरी के साथ विवाह किया । अंत में चारित्र ग्रहण कर ज्ञानपंचमी की आराधना कर केवली बने । भाविकों पर उपकार कर मोक्ष में पधारें । अज्जरक्खिअ CLAS (३५) चिलातीपुत्र : विवाह पुणे राजगृही में चिलाती दासी के पुत्र । धन सार्थवाह के यहा नौकरी करते थे । परन्तु अपलक्षण देखकर निकाल दिए जाने के कारण जंगल में चोरों का सरदार बना। 'धन तुम्हारा, श्रेष्ठिपुत्री सुसीमा मेरी' ऐसा करार कर चोरों को साथ लेकर धावा बोला और सबकुछ उठाकर ले चला। शोरगुल होने पर राजा के सैनिकों ने पीछा किया । अतः धन का पोटला छोड़कर तथा सुसीमा का मस्तक | काटकर उसका शरीर वहीं छोड़कर भागा। रास्ते में मुनिराज के मिलते ही तलवार की नोंक पर धर्म पूछा 'उपशम-विवेकसंवर' तीन पद देकर चारणलब्धि से साधुमहाराज वहाँ से उड़ गए। चिलातीपुत्र तीन पदों का ध्यान करते हुए, वहीं शुभ ध्यान में मग्न हो गया । रक्त की सुगंध से वहाँ आई हुई चीटिंयों | का उपद्रव ढ़ाई दिनों तक सहन कर स्वर्गवासी हुए । अज्जसुहत्थी अज्ज गिरी ( ३७ ) आर्यमहागिरि तथा (३८) आर्यसुहस्तिसूरि : दोनों श्री स्थूलभद्रजी के दसपूर्वी शिष्य थे । आर्य महागिरि ने गच्छ में रहकर जिनकल्प की तुलना की, कड़े से कड़ा चारित्र पालन करते तथा कराते थे। अंत में गजपद तीर्थ में 'अनशन' कर स्वर्ग में गए । आर्य सुहस्तिसूरि ने एक भिक्षुक को दुष्काल के समय में भोजन निमित्तक दीक्षा दी, जो अगले जन्म में संप्रति महाराज हुए तथा अविस्मरणीय शासन प्रभावना की । आचार्यश्री ने भी भव्य जीवों को प्रतिबोध देकर शासन प्रभावना के विशिष्ट कार्य कर अंत में स्वर्गवासी बनें । (३९) आर्यरक्षितसूरि : ब्राह्मण शास्त्रों में प्रकांड विद्वत्ता प्राप्त कर राजसम्मान प्राप्त किया । परन्तु आत्महितेच्छु माता के द्वारा दृष्टिवाद पढ़ने की प्रेरणा दिए जाने के कारण आचार्य तोसलिपुत्र के पास आकर चारित्र लेकर उनके पास तथा वज्रस्वामिजी के पास साढ़े नौ पूर्व तक का ज्ञान प्राप्त किया। दशपुर के राजा, पाटलिपुत्र के राजा आदि राजाओं को जैन बनाया। अपने परिवार को भी दीक्षा दिलाकर आराधना में स्थिर किया । जैन श्रुतज्ञान का द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरणानुयोग तथा धर्मकथानुयोग, इस प्रकार चार अनुयोगों में विभाजित किया। अंत में स्वर्गवासी हुए । www.jainelibrar Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) उदायनराजर्षि: वीतभय नगरी के राजा थे । अपनी दासी सहित प्रभुवीर की देवकृत जीवित प्रतिमा उठाकर ले गए । उज्जयिनी के राजा चंडप्रद्योत को में युद्ध हराकर बंदी बनाया था । परन्तु साधर्मिक जानकर संवत्सरी के दिन क्षमापना पूर्वक छोड़ दिया था । उसके संकल्प 'प्रभु पधारें तो दीक्षा लूँ' को उसी दिन प्रभुवीर ने पधारकर सफल किया । 'राजेश्वरी वह नरकेश्वरी' ऐसा मानकर पुत्र को राज्य न देते हुए भांजे केशी को राज्य दिया । अंतिम राजर्षि बने । एक बार विचरण करते हुए स्वनगर में पधारें तब 'यह राज्य वापस लेने आया है ।' ऐसा मानकर भांजे ने विष प्रयोग किया, उसमें दो बार बच गए, तीसरी बार असर हुई । परन्तु शुभध्यान में आरूढ़ होकर केवलज्ञान को प्राप्त किया । * संबो- पज्जुन्नो २१४ उदायगो International Trime ( ४३ / ४४ ) शांब और प्रद्युम्न : श्रीकृष्ण के दोनों पुत्र, शांब की माता जंबूवती, प्रद्युम्न की माता रुक्मिणी । बाल्यावस्था में अनेक प्रकार की लीलाएँ कर, कौमार्यावस्था में विविध पराक्रम कर, अन्त में प्रभु नेमिनाथ के पास दीक्षा लेकर शत्रुंजय गिरि पर मोक्ष प्राप्त किया। मणगो मूलदवा कालयसूरि ( ४१ ) मनक: शय्यंभवसूरि के संसारी पुत्र तथा शिष्य । उनका आयुष्य मात्र छह महीने का होने का जानकर कम समय में सुंदर आराधना कर सके, इसलिए शय्यंभवसूरि ने श्री दशवैकालिक सूत्र की रचना की । वे छह महीने तक चारित्र का पालन कर देवलोक सिधारें। अंतःपुर में कैद कर लिया। तब अनेक प्रकार से समझाने पर भी जब नहीं माना, तब सूरिजी ने वेशपरिवर्तन कर ९६ शकराजाओं को प्रतिबोध देकर, गर्दभिल्ल पर चढ़ाई कर साध्वीजी को छुड़ा लिया। सूरिजी अत्यंत प्रभावक पुण्यपुरुष थे । (४२/२) कालकाचार्य : प्रतिष्ठानपुर के राजा शालिवाहन के निवेदन से चौथ के दिन संवत्सरी प्रवर्तन किया तथा सीमंधरस्वामी के आगे 'निगोद का हूबहू स्वरूप | आचार्य कालकसूरि ही कह सकते हैं' ऐसा बतलाते हुए ब्राह्मण का रूप लेकर इन्द्र वहाँ आए। आचार्य ने निगोद का यथार्थ स्वरूप बतलाने से इन्द्र प्रसन्न हुए । (४५/४६ ) मूलदेव : विविध कलाओं में प्रवीण परन्तु बहुत बड़ा जुआरी था। पिता ने देश निकाल दे दिया, तो उज्जयिनी में आकर देवदत्ता गणिका तथा कलाचार्य विश्वभूति को पराजित किया । पुण्यबल, कलाबल तथा मुनि को दान के प्रभाव से विषम परिस्थितियों का सामना कर हाथियों से समृद्ध विशाल राज्य तथा कलाप्रिय चतुर गणिका देवदत्ता के स्वामी बने । बाद में वैराग्य पाकर चारित्र का पालन कर देवलोक में गए। भविष्य में मोक्ष में जाएँगे । For Private & Personalise Only (४२/१) कालकाचार्य : कालकाचार्य ने बहन सरस्वती सहित गणधरसूरि के पास दीक्षा ली थी । उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल ने अत्यंत रूपवती सरस्वती साध्वीजी पर मोहांध होकर, पभवो (४६) प्रभवस्वामी : जंबूस्वामी के यहाँ | चोरी करने जाते हुए पति-पत्नी के बीच का वैराग्य प्रेरक संवाद सुनकर प्रतिबोध पाया । ५०० चोरों के साथ दीक्षा ली । जंबूस्वामी के बाद शासन का समस्त भार संभालनेवाले पूज्यश्री चौदह पूर्वो के ज्ञाता थे । जैनशासन की धुरा को सौंपने के लिए श्रमण तथा श्रमणोपासक संघ में विशिष्ट पात्र व्यक्तित्व नहीं दिखते हुए, उन्होंने शय्यंभव ब्राह्मण को प्रतिबोध कर चारित्र देकर शासननायक बनाया था । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sर (४७) विष्णुकुमार : पद्मोत्तर राजा तथा ज्वालादेवी के कुलदीपक। महापद्म चक्रवर्ती के भाई। दीक्षा लेकर घोर तप कर अनेक लब्धियों के धारक बने । शासनद्वेषी नमुचि ने श्रमण संघ को षट्खंड की सीमा छोड़कर जाने विण्हुकुमारो को बतलाया तब मुनिवर ने पधारकर काफी समझाने पर भी नहीं मानने पर नमुचि के पास तीन पैर भूमि मांगी । मांग स्वीकृत होने पर १ लाख योजन का विराट शरीर बनाकर एक पैर समुद्र के पूर्वी किनारे पर तथा दूसरा पैर समुद्र के पश्चिमी किनारे पर रखा । तीसरा पैर कहाँ रखें ऐसा कहकर तीसरा पैर नमुचि के मस्तक पर रखकर संघ को उपद्रव से मुक्त किया । आलोचना से शुद्ध होकर उत्तम चारित्र पालन कर अंत में मोक्ष को प्राप्त किया। (४८) आर्द्रकुमार : आर्द्रक नामक अनार्यदेश के राजकुमार । पिता आर्द्रक तथा श्रेणिकराजा की मैत्री को बढ़ाने के लिए अभयकुमार के साथ मैत्री का हाथ बढ़ाया । तब हलु कर्मी जानकर अभयकुमार ने रत्नमय जिनप्रतिमा भेजी । प्रभुदर्शन से जाति स्मरण ज्ञान होने पर आर्यदेश में आकर दीक्षा ग्रहण की। वर्षों तक चारित्र पालन करने के बाद भोगावली कर्म का उदय होते ही संसारवास स्वीकार करना पड़ा । पुनः चारित्र की भावना हुई, तब पुत्रस्नेह के कारण अगले बारह वर्षों तक संसार में रुकने के बाद पुनः दीक्षा लेकर अनेकों को प्रतिबोध देकर आत्मकल्याण की साधना की थी। कूरगड आ (४९) दृढप्रहारी : यज्ञदत्त ब्राह्मण के पुत्र, कुसंगति के कारण बिगड़कर प्रसिद्ध चौर बन दढपहारी गया । एक बार लूट चलाते हुए ब्राह्मण गाय, सग स्त्री अर्थात् स्त्री+गर्भस्थ बालक इस प्रकार चार महाहत्याए की । परन्तु हृदय द्रवित होने के कारण चारित्र ग्रहण किया और जब तक पाप की स्मृति हो, तब तक कायोत्सर्ग ध्यान में रहने का अभिग्रह लेकर हत्यावाले गांव की सीमा में ही काउस्सग्ग में खड़े रहे। असह्य कठोर शब्द कहकर, पत्थर, रोड़ा आदि से प्रहार कर लोगों ने बहुत परेशान किया । परन्तु सब कुछ समताभाव से सहन कर छह महीने के अन्त में केवलज्ञान प्राप्त किया। (५१) कूरगडु मुनि : धनदत्त श्रेष्ठि के पुत्र, धर्मधोषसूरि के पास छोटी उम्र में दीक्षित हुए थे । क्षमागुण अद्भुत था, परन्तु तपश्चर्या जरा भी नहीं कर सकते थे। एक बार पर्व के दिन प्रातःकाल घड़ा भरकर चावल लेकर आए और खाने बैठे, तभी साथ में रहे मासक्षमण के तपस्वी मुनि ने 'मुझे बलगम निकालने का साधन क्यों नहीं दिया ? अब तुम्हारे पात्र में ही बलगम निकालूगा.' ऐसा कहकर भोजन में ही बलगम डाल दिया।' दूसरी जगह कथानक में लाई हई गोचरी साथ के चार मासक्षमण तपस्वियों को बतलाने के लिए गए, तब उनको भोजन रसिक होने की निन्दा करते हुए, उनके पात्र में यूंक डालते है। ऐसा निर्देश भी आता है। कूरगडु मुनिने अद्भुत क्षमा का भाव रखते हुए, स्वनिंदा करते करते, उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। सिज्जंस (५०) श्रेयांसकुमार : बाहुबली के पौत्र तथा सोमयश राजा के पुत्र । श्री आदिनाथ परमात्मा के वार्षिक तप के बाद इक्षुरस से पारणा जाति स्मरण के ज्ञान से कराया था । आत्मसाधना कर अंत में सिद्धपद को प्राप्त किया। (५२) शय्यंभवसूरि : पूर्वावस्था सज्जभव में कर्मकांडी ब्राह्मण थे, परन्तु उनकी पात्रता देखकर प्रभवस्वामी ने दो साधुओं को भेजकर प्रतिबोधित कर चारित्र देकर शासन की धुरा सौंप दिया था । बालपुत्र मनक चारित्र के मार्ग पर आया । तब उसकी अल्पायु देखकर सिद्धांत से उद्धार कर श्री दशवैकालिक सत्र की रचना की थी । शासनसेवा के अनेकों कार्यों से जीवन सफल बनाया था। Jain Education internation For Private & Personal use www.jainelibrary.be Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेहकुमारो (५३) मेघकुमार : श्रेणिक राजा की धारिणी नामक रानी के पुत्र । आठ राजकुमारियों से विवाह करने पर भी प्रभुवीर की | देशना से प्रतिबोध पाकर चारित्र स्वीकार किया । नवदीक्षित मुनि का संथारा अन्तिम होने के कारण सारी रात साधुओं के आवागमन से धूल उड़ने के कारण निद्रा नहीं आई थी । अतः इससे खिन्न चारित्र नहीं पाला जा सकता है, ऐसा समझकर रजोहरण वापस करने का विचार किया। प्रातः काल प्रभु सामने से बुलाकर किया गया दुर्ध्यान बतलाकर पूर्वजन्म के | हाथी के भव में खरगोश को बचाने की दया से कैसा कष्ट सहन किया था, वह बतलाया । प्रतिबोध पाकर आँख और पैर के अतिरिक्त शरीर के किसी भी अंग का उपचार नहीं कराने की घोर प्रतिज्ञा लेकर निर्मल चारित्र का पालन कर स्वर्गवासी हुए। ने चंदनबाला २१६ JUUDE ( २ ) चंदनबाला : चंपापुरी के दधिवाहन राजा - धारिणी रानी की कुलदीपिका । कौशांबी के राजा शतानिक के हमले में पिता भाग गए, माता ने शीलरक्षा हेतु बलिदान दिया और बाजार में खड़ीखड़ी बिक गई। धनवाह शेठ ने खरीदकर उसे बेटी की तरह रखा । परन्तु श्रेष्ठिपत्नी मूला को शंका हुई कि भविष्य में शेठ इसके साथ विवाह करेगा। इसलिए उसने चंदनबाला का मुंडन कर पैरों में बेडी डाल दिया। अंधेरे कमरे में बंद कर दिया। तीसरे दिन शेठ को इस बात का पता चला तो सूपडे में उड़द के बाकुले देकर जंजीर तुड़वाने के लिए लुहार को बुलाने गए। तभी प्रभु वीर के अभिग्रह की पूर्ति उड़द से करने के लिए बाकुला वहोराते हुए पंचदिव्य प्रगट हुए। आखिर प्रभु वीर के हाथों दीक्षित होकर ३६,००० साध्वियों। में प्रमुख हुई, अनुक्रम से केवली होकर मोक्ष में गई । For Phyalu सुलसा (१) सुलसा : श्रेणिक की सेना का मुख्य रथी नागरथ की धर्मपत्नी । प्रभु महावीरदेव के प्रति परमभक्ति तथा श्रद्धा रखती थी । देवसहाय से हुए ३२ पुत्रों की श्रेणिक की रक्षा के लिए युद्ध में एक साथ मृत्यु हुई जानकर, भवस्थिति का विचार कर, न तो स्वयं किसी प्रकार का शोक किया, न पति को ही शोक करने दिया । प्रभु वीर ने अंबड के द्वारा धर्मलाभ कहलाया । तब अंबड द्वारा इन्द्रजाल से ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा तीर्थंकर की समवसरण ऋद्धि देखकर भी सुलसा श्रद्धा से जरा भी विचलित नहीं हुई । अतः घर जाकर धर्मलाभ पहुँचाया । देवकृत सम्यक्त्व परीक्षा में लक्षपाक तेल की ४ बोतल फूट जाने पर भी कषाय नहीं किया । मृत्यु को प्राप्त कर देवलोक में गई। अनागत चौबीसी में निर्मम | नामक १५ वे तीर्थंकर होंगे। मणारमा (३) मनोरमाः सुदर्शन शेठ की पतिव्रता पत्नी, जिसने सहायता के लिए काउस्सग्ग ध्यान में शासनदेवता को आकर्षित किया था । (४) मदनरेखा : मणिरथ राजा के छोटे भाई युगबाहु की अत्यंत रूपवती तथा शीलवती धर्मपत्नी । मणिरथ ने मदनरेखा को मयणरेहा विचलित करने के अनेक प्रयत्न किए। परन्तु उसमें निष्फल | होने पर अन्त में युगबाहु की हत्या की। पति को अंत समय में अद्भुत समाधि देकर गर्भवती मदनरेखा वहाँ से भाग गई । जंगल में जाकर एक पुत्र को जन्म दिया। जो बाद में नमि राजर्षि हुए। उसके बाद मदनरेखा ने दीक्षा लेकर आत्म कल्याण की साधना की । thelotary.org Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीया (७) सीता : विदेहराजा जनक की पुत्री तथा रामचंद्रजी की पत्नी । अपर सास केंकेयी को दशरथ के द्वारा दिए गए (५) दमयंती : विदर्भनरेश भीमराज की नमयासुंदरी वरदान के कारण राम के साथ वनवास पुत्री तथा नल राजा की धर्मपत्नी । स्वीकार किया । रावण ने अपहरण किया। पूर्वभव में अष्टापद पर चौबीसों भगवान विकट संयोगों के बीच शील की रक्षा की। को सुवर्णमय तिलक चढ़ाने के कारण रावण के साथ युद्ध के बाद जब राम वापस अयोध्या लौटे तब लोकनिंदा के उसके कपाल में जन्म से ही स्वयं कारण सगर्भा अवस्था में सीता को जंगल प्रकाशित तिलक था । राजा नल जुए में (६) नर्मदासुंदरी : पिता सहदेव तथा में छोड़ दिया । संतानों ने पिता और चाचा सब कुछ हार जाने के कारण दोनों ने पति महेश्वरदत्त । स्वपरिचय से सास-| के साथ युद्ध में पराक्रम दिखलाकर वनवास स्वीकार किया । जहा बारह वर्षों ससुर को दृढ जैनधर्मी बनाये । साधु पर |पितृकुल को उजाला । उसके बाद भी तक दोनों का वियोग हुआ । अनेक | पान की पिचकारी उड़ाने के कारण |सतीत्व के लिए अग्निपरीक्षा देनी पड़ी। संकटों के बीच शीलपालन करती हुई पतिवियोग की भविष्यवाणी मिली ।। विशुद्ध शीलवती प्रमाणित होने के बाद दमयंती का आखिर नल के साथ मिलन भविष्यवाणी सफल होने पर पतिवियोग तुरन्त चारित्र ग्रहण कर बारहवें देवलोक हुआ। अंत में चारित्र ग्रहण कर स्वर्गवासी होकर अगले भव में कनकवती नामक में इन्द्र बनी । वहा से च्यवन कर रावण का में शील पर अनेक संकट आए परन्तु जीव तीर्थंकर होगा, तब उनके गणधर वसुदेव की पत्नी बनकर मोक्ष मे गई। कष्ट उठाकर भी सहनशीलता तथा बुद्धि बनकर मोक्ष को प्राप्त करेंगी। के प्रभाव से शील की रक्षा की। अंत में| चारित्र ग्रहण कर अवधिज्ञानी बनी और नदा प्रवर्तिनी पद को सुशोभित किया। भहा (८) नंदा : श्रेणिकराजा पिता से नाराज होकर गोपाल नाम धारण कर बेनातट गए। तब धनपति शेठ की पुत्री नंदा से विवाह किया था। नंदा का पुत्र अभयकुमार था, जिसने वर्षों के वियोग के बाद माता-पिता का मिलन कराया । अखंड शील का पालन कर आत्म कल्याण की साधना की। (९) भद्रा : शालिभद्र की माता, जैनधर्म की अनुरागिणी थी। पति और पुत्र के वियोग में शीलधर्म का पालन कर आत्म कल्याण की साधना की थी। (१०) सुभद्रा : जिनदास पिता तथा तत्त्वमालिनी माता की धर्मपरायण सुपुत्री। उसके ससुरालवाले बौद्ध धर्मावलम्बी होने के कारण उसे अनेक प्रकारसे परेशान करते थे। परन्तु वह अपने धर्म से विचलित नहीं हुई। एक बारवहोरने के लिए पधारेहुए एक जिनकल्पी मुनि की आखों में पड़ा हुआ तिनका निकालते हुए मस्तक के तिलक की छाप उस साधु के मस्तक परपड़ी।तथा सती के शिर पर झुठा दोषारोपण हुआ। उसे दूर करने के लिए शासनदेवी की आराधना करते हुए दूसरे दिन नगरका दरवाजा बंद हो गया । आकाशवाणी हुई कि 'यदि कोई सती स्त्री कच्चे सूत की डोरी से चलनी के द्वारा कुएं से पानी निकालकर छिड़केगी तभी यह दरवाजा खुलेगा। कोई भी स्त्री जब ऐसा नहीं कर सकी तो अन्त में सती सुभद्रा ने यह कार्य करके दिखाया तथा शीलधर्म का जय जयकार फैलाया और अन्त में दीक्षा लेकरमोक्षगामी हुई। राइमई (११) राजिमती : उग्रसेन राजा की सौंदर्यवती पुत्री तथा नेमिनाथ प्रभु की वाग्दत्ता । हरिणियों की पुकार सुनकर नेमिकुमार वापस लौटे तब मन से उनका शरण लेकर सतीत्व का पालन करती हुई राजिमती ने चारित्र ग्रहण किया। श्री नेमिनाथ प्रभु के छोटे भाई रथनेमि गुफा में निर्वस्त्र अवस्था में उसे देखकर विचलित हो गए। तब सुन्दर हितशिक्षा देकर संयम में स्थिर किया। आखिर सती ने कर्मक्षय कर मुक्तिपद पाया। २१७ jain temelina For Fival & Per ese and Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिसिदत्ता (१२) ऋषिदत्ता : हरिषेण तापस की अत्यंत सौंदर्यवती पुत्री तथा कनकरथ राजा की धर्मपत्नी । कर्मोदय के कारण सुलसा योगिनी द्वारा डाकिन का कलंक लगाया गया था, जिसके कारण अनेक कष्ट सहन करने पड़े । परन्तु प्रभुभक्ति तथा शीलधर्म के प्रभाव से सारे संकटों से पार उतर गई । आखिर संयम धारण कर सिद्धिपद पाया । सिरिदेवी (१५) श्रीदेवी : श्रीधर राजा की परम शीलवती स्त्री । विद्याधरों ने तथा देवों ने उसका अपहरण कर शील से डिगाने की बहुत कोशिश की, परन्तु वह पर्वत के समान निश्चल रही । अन्त में चारित्र | लेकरपांचवें देवलोक में गई । मिगावडी २१८ in Education International पडमावई : (१३) पद्मावती बेडा राजा की पुत्री तथा चंपापुरी के दधिवाहन राजा की धर्मपत्नी । सगर्भावस्था में 'हाथी के हौदे पर बैठकर राजा से छत्र धारण करवा कर स्वयं वनविहार करे' ऐसी भविष्यवाणी होने पर उसे पूर्ण करने की व्यवस्था हुई, परन्तु जंगल देखकर हाथी भाग गया और राजा एक वृक्ष की डाल पकड़कर लटक गया। परन्तु रानी ऐसा नहीं कर सकी । अन्त में हाथी पानी पीने के लिए खड़ा रहा, उसी समय वह उतरकर तापस के आश्रम में गई । वहाँ साध्वीजी का परिचय होते ही गर्भ की बात बतलाए बिना दीक्षा ले ली। बाद में गुप्त रूप से बालक को जन्म देकर स्मशान में रख दिया, जो प्रत्येकबुद्ध करकंडू बने। एक बार पिता-पुत्र के बीच हो रहे युद्ध में वहां जाकर सच्ची जानकारी देकर युद्ध को रुकवाया । निर्मल चारित्र का पालन कर अंत में आत्मकल्याण को साधा । जिल (१६) ज्येष्ठा : चेडा राजा की पुत्री, प्रभुवीर के बड़े भाई नंदिवर्धन राजा की धर्मपत्नी प्रभु वीर की बारह व्रतधारी श्राविका, इसके अडिग शील की शक्रेन्द्र के द्वारा प्रशंसा किए जाने पर एक देव ने बहुत ही भयंकर परीक्षा ली। परन्तु सफलता से पार उतरने के बाद महासती के रूप में घोषित की गई। दीक्षा लेकर कर्मो का क्षय कर शिवपुर (मोक्ष) में गई । अंजणा or Privics Personal Only (१४) अंजनासुंदरी : राजा महेन्द्र तथा हृदयसुंदरी रानी की पुत्री, पवनंजय की धर्मपत्नी । छोटी सी बात को बड़ा रूप देकर विवाह के २२ वर्षों तक पवनंजय से दूर रही। फिर भी अखंड शील का पालन किया तथा धर्मध्यान किया । युद्ध में गया हुआ पति चक्रवाक मिथुन की विरह व्याकुलता देखकर गुप्त रूप से अंजना के पास आए । परन्तु इस मिलन का परिणाम अत्यन्त कष्टकर हुआ । गर्भवती होते ही उसे कलंकिनी घोषित कर दी गई ! सास-ससुर ने पिता के घर भेज दिया । वहाँ से भी वन में भेज दी गई। वन में तेजस्वी पुत्र 'हनुमान' को जन्म दिया । शीलपालन में अडिग सती को ढूंढने निकले हुए पति को वर्षों बाद काफी प्रयास से मिलन हुआ । आखिर दोनों ने चारित्र लेकर मुक्तिपद पाया । सवित (१७) सुज्येष्ठा : चेडा राजा की पुत्री संकेत के अनुसार श्रेणिक राजा भूल से उसकी बहन चळणा को लेकर जाने लगा । इससे वैराग्य पाकर श्री चंदनबाला के पास दीक्षा ली । एक बार घर की छत पर धूप का सेवन करते हुए उसके रूप पर मोहित पेढाल विद्याधर ने भ्रमर का रूप धारण कर योनि में प्रवेश करने के कारण उसे गर्भ ठहर गया । परन्तु ज्ञानी महात्मा ने सत्य बतलाकर शंका दूर की तीव्र तपश्चर्या कर कर्मों का क्षय करके मोक्ष में गई । | (१८) मृगावती : चेडा राजा की पुत्री तथा कौशांबी के राजा शतानीक की धर्मपत्नी । रूपलुब्ध चंडप्रद्योत ने युद्ध हेतु चढ़ाई की। उसी रात शतानीक अपस्मार के रोग से मृत्यु पाए भोग की आशा से चंडप्रद्योत ने उसके पास ही किला बनवाना शुरु किया । | मृगावती ने अनाज पानी भराकर किले का द्वार बंद कराकर प्रभुवीर की प्रतीक्षा करने लगी। प्रभु के पधारते ही दरवाजा खुलवाकर देशना सुनकर वैराग्य प्राप्त कर दीक्षा ग्रहण | की। एक बार सूर्य-चंद्र मूल विमान में प्रभुजी के दर्शन करने के लिए आए तब प्रकाश के कारण रात्रि का ख्याल न होने के कारण उपाश्रय में आने में विलम्ब होने पर, आर्या | चंदनबाला के द्वारा डांटे जाने के बाद पश्चात्ताप करते हुए केवलज्ञान प्राप्त किया । www.atelibrary.org Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिल्लणादेवी बंभीसुंदरी (१९) पभावई प्रभावती: चेडा राजा की पुत्री तथा सिंधु-सौवीर के राजर्षि उदायन की धर्मपत्नी। - कुमारनंदी देव के द्वारा बनाई हुई जीवितस्वामि की प्रतिमा की पेटी उसके हाथों से ही खुली । वह परमात्मा के मन्दिर में स्थापन कर प्रतिदिन अपूर्व जिनभक्ति करती थी । एक बार दासी के द्वारा मंगाए हुए वस्त्र सफेद रंग के होते हुए भी लाल वर्ण के दिखने के कारण तथा नृत्यभक्ति के समय धड़ मस्तक से रहित दिखने के कारण मृत्यु नजदीक जानकर प्रभुवीर के पास दीक्षा लेकर देवलोक में गई। (२०) चेल्लणा : चेडा महाराजा की पुत्री तथा श्रेणिक राजा की धर्मपत्नी । प्रभु महावीरदेव की परमश्राविका तथा परम धर्मानुरागिणी थी। एक बार शीत (२१-२२) ब्राह्मी सुंदरी : ऋषभदेव ऋतु की तीव्र ठंडी में तालाब के किनारे भगवान की विदुषी पुत्रियाँ, एक नंगे बदन सारी रात कायोत्सर्ग ध्यान में लिपिज्ञान में तथा दूसरी गणित में प्रवीण रहनेवाले साधु की चिंता करते हुए | थी । सुंदरी ने चारित्र प्राप्ति के लिए श्रेणिक को उसके चरित्र पर शंका उत्पन्न ६०,००० वर्षों तक आयंबिल का तप हुई । परंतु प्रभुवीर के वचन से उसे किया था। दोनों बहनों ने दीक्षा लेकर अखंड शीलवती जाना तब वह शंका जीवन उज्ज्वल बनाया । बाहुबली को दूर हो गई । चेल्लणाने विशुद्ध आराधना उपदेश देने के लिए दोनों साध्वी बहनें एक कर आत्मकल्याण की साधना की थी। साथ गई थी।अंत में मोक्ष को प्राप्त किया। रेवड कुती (२४) रेवती : भगवान महावीर स्वामी की परमश्राविका । गोशालक की तेजोलेश्या से प्रभु को छह महीने तक हुई वेदना काल में भक्तिभाव से कुष्मांडपाक वहोराकर प्रभुवीर को शाता देकर तीर्थंकर नामगोत्र बांधा था । अनागत चौबीसी में समाधि नामक सत्रहवें तीर्थंकर होंगे। (२५) कुंती : पांच पांडवों की माता। अनेक कष्टमय प्रसिद्ध जीवन प्रसंगों के बीच भी धर्मश्रद्धा की ज्योत प्रज्वलित रखी थी। अन्त में पत्रों तथा पुत्रवधूओं के साथ चारित्र ग्रहण कर मोक्ष में गई थी। (२३)रुक्मिणी : कृष्ण की पटरानी से भिन्न विशुद्ध शीलवती सन्नारी । FARMIND (२६) सिवा शिवादेवी : चेडा महाराज की पुत्री तथा चंडप्रद्योत राजा की परम शीलवती पटरानी। देवकृत उपसर्ग में भी अचल रही । उज्जयिनी नगरी में प्रगट हुई अग्नि इस सती के हाथों से पानी छिड़कने से शान्त हुई थी। अन्त में चारित्र लेकर सिद्धिपद को प्राप्त किया। (२७) जयंति : शतानिक राजा की बहन तथा रानी मृगावती की ननंद । तत्त्वज्ञ तथा विदुषी इस श्राविका ने प्रभुवीर को अनेक तात्त्विक प्रश्न पूछे थें । प्रभुवीर ने उसके प्रत्युत्तर दिए थे । वह कौशांबी के प्रथम शय्यातर के रूप में प्रसिद्ध थी। अंत में दीक्षा लेकर सिद्धिगति पाई। For PrhatokPersoriouTony -artoor Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० देवई (२८) देवकी वसुदेव की पत्नी तथा श्रीकृष्ण की माता । 'देवकी का पुत्र कंस को मारेगा।' ऐसा किसी मुनि से जानकर उसके छह पुत्रों को, भाई कंस ने मार डालने के लिए ले लिया। सातवां संतान कृष्ण देवकी के पुत्रपालन की तीव्र इच्छा से हरिणैगमेषी देव को प्रसन्न कर कृष्ण ने गजसुकुमाल संतान दिलाया । जिसने छोटी उम्र में दीक्षा ली । उस समय 'भवचक्र की अन्तिम माँ बनाना' ऐसा वरदान दिया। देवकी ने शील को अखंड रखकर, चारित्र ग्रहण कर अंत में देवलोक गई। दोवई धारणी कलावई पुप्फचूला कण्हटुमहिसीओ (३२) पुष्पचूला : पुष्पचूलपुष्पचूला दोनों जुड़वें भाई-बहनों में अत्यन्त स्नेह होने के कारण पिता के द्वारा दोनों का विवाह करा दिया गया। अघटित होता देखकर माता को आघात लगने के कारण वह दीक्षा लेकर स्वर्ग में गई। वहाँ से स्वर्ग-नरक के सपने दिखलाकर पुष्पचुला को प्रतिबोधित किया। अणिकापुत्र आचार्य के पास दीक्षा दिलाया। स्थिरवास करते हुए अणिकापुत्र आचार्य की आदरपूर्वक सेवा-भक्ति करते हुए एक दिन केवलज्ञान हुआ। उसके बाद आचार्यश्री को जब तक ख्याल नहीं आया तब तक वेयावच्च करती रही । अंत में सिद्धिपद को प्राप्त किया - - | गौरी(३३) पद्मावती गांधारी लक्ष्मणा सुसीमा जंबूवती सत्यभामा और रुक्मिणीः ये आठों कृष्ण की अलग-अलग देश में जन्म ली हुई पटरानी श्री अलग-अलग समय में हुई शील की परीक्षा में प्रत्येक पार उतरी थी । अन्त में प्रत्येक ने दीक्षा लेकर आत्मकल्याण किया था । 1 (२९) द्रौपदी पूर्वजन्म में किए गए नियाणा के प्रभाव से पांच पांडवों की पत्नी बनी। नारद के द्वारा निर्धारित व्यवस्था के अनुसार जिस दिन जिस पति के साथ रहना हो, उस दिन अन्य के साथ भाई के समान व्यवहार करने का अत्यन्त दुष्कर कार्य करने के कारण महासती कहलाती थी। अनेक कष्टों के | बीच भी शील को अखंड रखकर, चारित्र ग्रहण कर, अंत में देवलोक में गई। (३०) धारिणी चंदनबाला की माता, एक बार शतानीक राजा के द्वारा नगर पर चढ़ाई करने के कारण अपनी पुत्री वसुमती के साथ भाग गईं। परन्तु सैनिकों के द्वारा पकड़ी गई। उसके द्वारा जंगल में अनुचित मांग करने के कारण शीलरक्षा के लिए जीभ काटकर प्राणत्याग किया था । (३१) कलावती : शंख राजा की शीलवती स्त्री । भाई के द्वारा भेजे गए कंगनों की जोड़ी पहनकर प्रशंसा से कहे गए वाक्यों के सम्बन्ध में गलत फहमी होने के कारण पति को उसके शील पर शंका उत्पन्न हुई। उसने कंगन के साथ कलाई भी काट डालने की आज्ञा की। जल्लादों ने उसे जंगल में ले जाकर वैसा किया, परन्तु शील के प्रभाव से उसके हाथ फिर ज्यों के त्यों हो गए। जंगल में पुत्र को जन्म दिया तथा तापसों के आश्रम में आश्रय लिया। कंगन पर लिखे गए नाम पढ़कर शंका दूर होने के बाद राजा ने बहुत पश्चात्ताप किया। वर्षों बाद दोनों का मिलन हुआ, तब जीवन का रंग बदल जाने के कारण दीक्षा लेकर आत्मकल्याण किया तथा देवलोक में गई। शंखकलावती अन्त में पृथ्वीचंद्र-गुणसागर होकर मोक्ष में गए । (३४ ) यक्षा, यक्षदत्ता, येणा भूअदित्रा भूता, भूतदत्ता, सेणा, वेणा और रेणा स्थूलभद्र की सात बहनें । स्मरणशक्ति अत्यन्त तीव्र । क्रमशः एक, दो, तीन तक सात बार सुने तो याद रह जाए। सातों बहनों ने दीक्षा स्वीकार की । यक्षासाध्वी की प्रेरणा से भाई मुनि श्रीयक पर्वतिथि का उपवास करते हुए कालधर्म पाकर देवलोक में गए तब संघ की सहायता से प्रायश्चित हेतु श्री सीमंधरस्वामी के पास गए। आशय शुद्धि के कारण प्रायश्चित नहीं दिया। परन्तु भगवान ने भरतक्षेत्र में संघ के लिए चार अध्ययन दिए । सातों बहन साध्वियां पूर्व पड़ते स्थूलभद्रस्वामी को एक बार वन्दन करने गई । तब अहंकार के कारण वे सिंह का रूप धारण कर बैठे थे गुर्वाज्ञा से पुनः वंदन करने गई, वे मूलरूप गए थे। सातों साध्वियाँ निर्मल संयम जीवन का पालन कर आत्मकल्याण की साधना की । । । में आ भयणीओ थूलभद्दस्स क्वा सेना रेणा inetitary.org Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण के समय बोलने की मुद्रा । ५०. श्री सकलतीर्थ वंदना सूत्र आदान नाम : श्री सकलतीर्थ सूत्र : श्री तीर्थ वंदना सूत्र गौण नाम गाथा पद संपदा गुरु अक्षर लघु अक्षर कुल अक्षर : १५ : ६० : ६० : ५५ : ५७८ ६३३ उच्चारण में सहायक मूल सूत्र सकल तीर्थ वंदूं कर जोड, सकल तीर्थ वन्-दुं कर- जोड, जिनवर - नामे कोड । जिन - वर नामे मङ्-ग-ल कोड । पहेले स्वर्गे लाख बत्रीश, पहेले स्वर्गे लाख बत्-रीश, जिनवर चैत्य नमुं निशदिश ॥१॥ जिन-वर- चै -त्य नमुं निश-दिश ॥१॥ गाथार्थ : सकल तीर्थों को हाथ जोड़कर मैं वंदन करता हूँ। जिनेश्वर के नाम बत्तीस लाख जिनेश्वर के चैत्यों को रात दिन मैं नमस्कार करता हूँ । १. बीजे लाख अट्ठावीश कह्यां, बीजे लाख अट्-ठा-वीश कह्यां, त्रीजे बार लाख सद्दह्यां । त्रीजे बार लाख सद्-दह्यां । चोथे स्वर्गे अडलख धार, चोथे स्वर्गे अड-लख-धार, पांचमे वंदुं लाख ज चार ॥२॥ पाञ्- ( पान् ) - चमे वन्-दुं लाख ज चार ॥२॥ गाथार्थ : दूसरे स्वर्ग मैं अट्ठाईस लाख, तीसरे (स्वर्ग) में बारह लाख, चौथे जिनमंदिरों का वर्णन किया गया है। उनको मैं वंदन करता हूँ । २. छट्ठे स्वर्गे सहस पचाश, सातमे चालीश सहस प्रासाद । आठमे स्वर्गे छ हजार, अपवादिक मुद्रा । छंद का नाम : चोपाई; राग : दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोई ... (कबीर दुहें) पद क्रमानुसारी अर्थ सब तीर्थों को हाथ जोड़ कर मै वंदन करता हूँ । जिनवर के नाम से करोड़ों मंगल होते हैं। पहले स्वर्ग में (स्थित) बत्तीस लाखजिनवर के चैत्यों को में नमस्कार करता हूँ । १. से करोड़ों मंगल होते हैं। पहले स्वर्ग में ( स्थित ) अग्- यार- बार मे त्रण से सार; नव-ग्रैवेयके त्रण-सें अढार । विषयः तीन लोकवर्ती शाश्वत अग्यार बारमे त्रण से सार, नव ग्रैवेयके त्रण से अढार । पांच अनुत्तर सर्वे मली, लाख चोराशी अधिकां वली ॥४॥ गाथार्थ : ग्यारहवें और बारहवें (स्वर्ग) में तीन सौ, नव ग्रैवेयक (विमानों) (विमानों) में पांच एवं सभी मिलकर चौरासी लाख से अधिक चैत्य हैं। उनको मैं | अशाश्वत अरिहंतप्रभु | के चैत्य तथा बिंबों की वंदना व | गुरु की वन्दना । दूसरे में अट्ठाईस लाख कहे हैं, तीसरे में बारह लाख माने हैं, चौथे स्वर्ग में आठ लाख को धारण कर, पाञ् (पान्)-च अनुत्-तर सर्-वे मली, लाख चोराशी अधिकां वली ॥४॥ Private & Personal Lis पाँचवें में चारलाख को मैं अवश्य वंदन करता हूँ । २. स्वर्ग में आठ लाख, पांचवे (स्वर्ग) में चार लाख, छट्-ठे स्वर्गे सहस पचाश, सा- तमे चाली-श सहस प्रासाद । आठमे स्वर्गे छ हजार, नव-दश-मे वन्-दुं शत चार ॥३॥ नव दशमे वंदुं शत चार ॥ ३ ॥ गाथार्थ छट्ठे स्वर्ग में (स्थित) पचास हजार (चैत्यों ) को, सातवें (स्वर्ग) में (स्थित) चालीस हजार चैत्यों को आठवें स्वर्ग में (स्थित) छह हजार (चैत्यों) को एवं नौवें दसवें (स्वर्ग) में (स्थित) चारसो (चैत्यों) को मैं वंदन करता हूँ । ३. छट्ठे स्वर्ग में पचास हजार को सातवें में चालीस हजार प्रासाद को आठवें स्वर्ग में छह हजार को नौवें और दशवे में चार सौ को । ३. ग्यारहवें और बारहवें में तीन सौ सार रूप हैं, नव ग्रैवेयक में तीन सौ अट्ठराह, पांच अनुत्तर में सब मिलाकरचौरासी लाख और अधिक । ४. में तीन सौ अट्ठारह और (पांच) अनुत्तर वंदना करता हूँ । ४. सहस सत्ताणुं त्रेवीश सार, जिनवर भवन तणो अधिकार । लांबा सो जोजन विस्तार, पचास ऊंचां बहोंतेर धार ॥५॥ गाथार्थ : शास्त्रोक्त वचन अनुसार सौ योजन लंबे, पचास योजन चौडे और बहतर योजन ऊंचे, ऐसे सत्तानवे हजार और तेवीस संख्या में श्री जिनमंदिर हैं । ५. सहस - सत्-ताणुं त्रेवीश सार, जिन - वर भवन- तणो-अधि-कार । लाम्बा सो जोजन विस् तार, सत्तानवे हजार तेईस सार, जिनेश्वर के भवनों का अधिकार हैं। एक सौ योजन लंबे चौडे पचास योजन ऊंचे बहत्तर । ५. पचा-स ऊञ् (ऊन्)-चां बहोन्-तेर धार ॥५ ॥ Jain Education/ 238 praty Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध अनंत नमुं निशदिश सकलतीर्थ धातुच्छप जोक पाच (वय) वद कर जोड वैमानिक देवलोक में कुल जिनमंदिर-८४,९७,०२३ कुल जिनबिंब-१,५२,९४,४४,७६० पांच (चैत्य) - अनुत्तरे अनुत्तरे नवग्रैवेयके त्रणसें अढार (३१८) -(११-१२ में ३००) - (९-१० में ४००) ८ में स्वर्गे ७में ६ ठे स्वर्ग ५में वंदु ६००० ४०,००० ५०,००० ४ लाख त्रीजे १२ लाख चोथे ८ लाख पहेले स्वर्गे लाख ३२ बीजे लाख २८ ज्योतिषी असंख्य मंदिर बिंब तिथी मसदर DDDDDDDDDDDD लोक मे ३२५९ मदिर ३९१३२० METEव्यंतर-असंख्य मंदिर बिंब. भवनपति में ७,७२ लाख मंदिर १३८९ करोड ६० लाख बिंब २२२ SETTEducation intemational FP PHOnly bry.org Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसो एंशी बिंब प्रमाण, एकसो एञ् (एन्)-शी बिम्-ब-प्रमा-ण, एक सौ अस्सी प्रतिमाओं का प्रमाण सभा-सहित एक चैत्ये जाण। सभा-सहित एक चैत्-ये जाण । सभा सहित प्रत्येक चैत्य में जानना सो कोड बावन कोड संभाल, सो कोड बावन कोड सम्-भाल, एक सौ करोड़ बावन करोड़ को याद कर लाख चोराणु सहस चौंआल ॥६॥ लाख चोराणुं सहस चौंआल ॥६॥ चौरानवे लाख चौंवालीस हजार। ६. गाथार्थ : एक सौ अस्सी प्रतिमाओं का प्रमाण सभा सहित प्रत्येक चैत्य में जानना । एक सौ करोड़ बावन करोड़ चौरानवे लाख चौंवालीस हजार को याद करके वंदन करता हूँ। ६. सातसें उपर साठ विशाल, सातसें उपर साठ विशाल, सात सौ के उपर साठ विशाल सवि बिंब प्रणमुंत्रण काल। सवि बिम्-ब-प्रण-मुंत्रण काल। सर्व प्रतिमाओं को तीनों काल मैं प्रणाम करता हूँ, सात कोडने बहोंतेर लाख, सात कोडने बहोन्-तेर लाख, सात करोड और बहत्तर लाख भवनपति मां देवल भाख ॥७॥ भवन पति मां देवल भाख ॥७॥ मंदिर भवनपति में बोल । ७. गाथार्थ : सात सौ साठ (७६०) ऐसे विशाल सर्व जिन प्रतिमाओं को तीनों काल में वंदन नपति देवलोक में सात करोड और बहतर लाख (७,७२ लाख) जिनमंदिर हैं । ७. एकसो एंशी बिंब प्रमाण, एक-सो एञ् (एन्)-शी बिम्-ब प्रमाण, एक सौ अस्सी प्रतिमाओं के प्रमाण से एक एक चैत्ये संख्या जाण। एक एक चै-त्ये सङ्-ख्या जाण । प्रत्येक चैत्य में संख्या जानना तेरसे कोड नेव्याशी कोड, तेरसें कोड नेव्-याशी कोड, तेरह सौ करोड़ नव्यासी करोड साठ लाख वंदूं कर जोड ॥८॥ साठ लाख वन्-दुं कर-जोड ॥८॥ साठ लाख को हाथ जोडकर वंदन करता हूँ। ८. गाथार्थ : उन (७,७२ लाख) जिन मंदिरों में एक सौं अस्सी (१८०) जिन प्रतिमाए हैं । अतः सर्व जिनमंदिरों में रही हुई जिनप्रतिमाओं की कुल संख्या तेरह सौ करोड नव्यासी करोड़ और साठ लाख होती हैं। उनको में दो हाथ जोडकर वंदन करता हूँ। ८. बत्रीसें ने ओगणसाठ, बत्-रीसें ने ओगण-साठ, बत्तीस सौ और उनसठ तिर्छा-लोकमां चैत्यनो पाठ। तिर्च-छा लोकमां चैत्-य-नो पाठ। तिर्छा लोक में चैत्यों का पाठ है। त्रण लाख एकाणुं हजार, त्रण लाख एकागुं हजार, तीनलाख इकानवे हजार त्रणसें वीश ते बिंब जुहार ॥९॥त्रणसें वीश ते बिम्-ब जुहार ॥९॥ तीन सौ बीस उन प्रतिमाओं को तुम वंदन करो।९ गाथार्थ : ति लोक (मनुष्य लोक) में तीन हजार, दो सौ और उनसठ (३,२५९) शाश्वत जिनमंदिरों में तीन लाख, इकानवे हजार, तीन सौ और बीस जिनप्रतिमाएं हैं, उनको मैं वंदन करता हूँ।९. व्यंतर ज्योतिषीमां वळी जेह, व्यन्-तर-ज्यो-तिषीमां वळी जेह, व्यंतर और ज्योतिष्क में जो शाश्वता जिन वंदुं तेह। शाश्-वता जिन वन्-दुं तेह। शाश्वत जिनेश्वरों की हैं उन्हें मैं वंदन करता हूँ। ऋषभ चंद्रानन वारिषेण, ऋषभ चन्-द्रा-नन वारि-षेण, श्री ऋषभदेव, श्री चंद्रानन, श्री वारिषेण, वर्धमान नामे गुणसेण ॥१०॥ वर-धमान-नामे गुण-सेण ॥१०॥। और वर्धमान नामक गुणों की श्रेणी रूप ॥१०॥ गाथार्थ : व्यंतर और ज्योतिष्क देवलोक में दिव्य गुणों के साम्राज्य से शोभित ऐसे श्री ऋषभ, चंद्रानन, वारिषेण और वर्धमान नाम के शाश्वत जिन प्रतिमा को मैं वंदन करता हूँ। १०.. समेतशिखर वंदुं जिन वीश, समे-त शिख-र वन्-दुं जिन-वीश, सम्मेत शिखर पर्वत पर बीस जिनेश्वरों को मैं वंदन करता हूँ, अष्टापद वंदुं चोवीश। अष्-टा-पद वन्-दुं चोवीश। अष्टापद पर्वत पर चौबीस को मैं वंदन करता हू, विमलाचलने गढ गिरनार विमला-चल ने गढ गिर-नार, विमलाचल और गिरनारगढ आबु उपर जिनवर जुहार ॥११॥ आबु उपर जिन-वर जुहार ॥११॥ आबु पर्वत के जिनेश्वरों को तुं जुहार।११. गाथार्थ : श्री सम्मेत शिखर तीर्थ में (रहे हुए) बीस जिनेश्वरों की, श्री अष्टापद तीर्थ में (रहे हुए) चौबीस जिनेश्वरों की, श्री शत्रुजय गिरिराज में, श्री गिरनार तीर्थ में, श्री आबु तीर्थ में रहे हुए जिनेश्वरों की और तीर्थ की मैं स्तुति करता हूँ। अर्थात् वंदना करता हूँ।११ शंखेश्वर केसरिओ सार, शंखेश्-वर केस-रिओ सार, सार रूप श्री शंखेश्वर और श्री केशरियाजी को, तारंगे श्री अजित जुहार। ता-रङ्-गे श्री अजि-त जुहार। तारंगा पहाड़ पर श्री अजितनाथ को जुहार, अंतरिक्ख वरकाणो पास, अन्-त रिक्ख वर-काणो पास, श्री अंतरिक्ष और श्री वरकाणा श्री पार्श्वनाथ को, जीराउलो ने थंभण पास ॥१२॥ जीरा-उलो ने थम्-भणपास ॥१२॥ श्रीजीरावला और श्रीस्थंभन में श्री पार्श्वनाथ को।१२. गाथार्थ : जगत में सारभूत ऐसे श्री शंखेश्वर तीर्थ, श्री केशरीयाजी तीर्थ, श्री तारंगा तीर्थ पर श्री अजितनाथ भगवान, श्री अंतरीक्ष पार्श्वनाथ, श्री जीराउला पार्श्वनाथ और श्री स्तंभन पार्श्वनाथ भगवान को मैं वंदना करत | २२३ a n imational For Private & Personal Lise only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाम नगर पुर पाटण जेह, गामनगर पुर पाटण जेह, ग्राम,नगर, पुरऔर पत्तन में जो जिनवर चैत्य नमुंगुणगेह। जिनवर चैत्-यनमुंगुण-गेह। गुणों के गृहरूपजिनेश्वर के चैत्यों को में वंदन करता हूँ, विहरमान वंदुंजिन वीश, विह-रमान वन्-दुंजिन वीश, बीस विहरमान जिनेश्वरों को मैं वंदन करता हूँ, सिद्ध अनंत नमुंनिशदिश॥१३॥ सिद्-धअनन्-तनमुनिश-दिश॥१३॥ रातदिनअनंत सिद्धभगवंतों को।१३. गाथार्थ : ग्राम, नगर, पुर और पतन में जहाँ-जहाँ सद्गुणो के स्थानभूत श्री जिनेश्वर भगवंतों के जिनमंदिरों हैं , उनको मैं वंदन करता हूँ। तथा महाविदेहक्षेत्र में साक्षात् विहरते ऐसे श्री सीमंधरस्वामी आदि बीस विहरमान भगवंतों को और सिद्धिगति को प्राप्त हुए अनंत सिद्ध भगवंतों की मैं नित्य प्रतिदिन वंदन करता हूँ। १३. अढीद्वीपमा जे अणगार, अढी-द्वीपमा जे अण-गार, ढाई द्वीप में जो साधु अढार सहस सीलांगना धार। अढा-र सहस सी-लाङ्-ग-ना धार। अठारह हजार शीयल के अंगों को धारण करनेवाले, व्रत समिति सार, पञ् (पन्)-च महा-व्रत समि-ति सार, सार रूप पाच महाव्रत, पाच समिति, पाळे पळावे पंचाचार ॥१४॥पाळे पळावे पञ् (पन्)-चा-चार ॥१४॥ पालते हैं और पलाते हैं पांच आचारों को ।१४. गाथार्थ : ढाई द्वीप मैं जो साधु भगवंतों अठारह हजार शीलांग को धारण करनेवाले, आगार (घर) छोडकर अणगार (घर रहित ) बने हैं, सारभूत ऐसे पाँच महाव्रत को धारण करनेवाले, पांच समिति का पालन करनेवाले । ज्ञानाचार आदि पांच आचारों का पालन करनेवाले और अपने आश्रितों को पालन करानेवाले..... १४. बाह्य-अभ्यंतर तप उजमाल, बाह-य-अभ-यन्-तर-तप-उजमाल, बाह्य और अभ्यंतर तप में उज्जवल, ते मुनि वंदुं गुणमणिमाल। ते मुनि वन्-दुं गुण-मणि-माल। गुण रूप माला जैसे उन मुनियों को मैं वंदन करता हूँ। नित नित ऊठी कीर्ति करूं, नित नित ऊठी कीर-ति करूं, प्रतिदिन ऊठकर कीर्तन करता हूँ, 'जीव' कहे भव-सायर तरूं ॥१५॥ 'जीव' कहे भव-सायर तरूं ॥१५॥ श्री जीव विजयजी कहते हैं भव सागर को तीरजाऊंगा।१५. गाथार्थ : बाह्य और अभ्यंतर तप से उज्ज्वल हैं, गुण रूपी रत्नों की माला जैसे उन मुनियों को मैं वंदन करता हूँ । प्रतिदिन उठकर (उनका मैं ) कीर्तन करता हूँ। श्री जीव विजयजी कहते हैं (कि मैं ) भव सागर को तीर जाऊंगा । १५ स्वर्ग, पाताल तथा मर्त्यलोक में स्थित शाश्वत चैत्य तथा शाश्वत बिंबों की संख्या लोक शाश्वत चैत्य शाश्वत बिंब ८४,९७,०२३ १,५२,९४,४४,७६० पाताल भवनपतियों के आवास में ७,७२,००,००० १३,८९,६०,००,००० मर्त्यलोक में ३२५९ ३,९१,३२० (१) स्वर्ग में स्थित शाश्वत जिनचैत्य तथा शाश्वत बिंब चैत्यसंख्या प्रत्येक कुलबिंब नाम चैत्यसंखा प्रत्येक कुल बिंब चैत्य में चैत्य में बिंब संख्या बिंब संख्या पहले देवलोक में ३२,००,००० x १८० ५७,६०,००,०० नौवें देवलोक में ४०० x ८० ७२,००० दूसरे देवलोक में २८,००,००० x १८० ५०,४०,००,०० दसवें देवलोक में १८० तीसरे देवलोक में १२,००,००० x १८० २१,६०,००,००० ग्यारहवें देवलोक में ३०० x १८० ५४,००० चौथे देवलोक में ८,००,००० x १८० १४,४०,००,००० बारहवें देवलोक में १८० पाँचवें देवलोक में ४,००,००० x १८० ७,२०,००,००० नौ ग्रैवेयक में ३१८ x १२० ३८,१६० छठे देवलोक में ५०,००० x १८० ९०,००,००० पाँच अनुत्तर में ५ x १२० ६०० । सातवें देवलोक में ४०,००० x १८० ७२,००,००० आठवें देवलोक में ६,००० x १८० १०,८०,००० कुल ८४,९७,०२३ १,५२,९४,४४,७६० स्वर्ग नाम २२४ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री देवसिअ-प्रतिक्रमण विधि के क्रम का हेतु (कारण) • देवसिअ-प्रतिक्रमण शाम के समय किया जाता है। प्रतिक्रमण का समय (काल) सूर्य आधा अस्त हो • यह उपाश्रय में पूज्य गुरुभगवंत की निश्रा में करना चाहिए। जाए तब श्री वंदित्तु सूत्र आना चाहिए, इस प्रकार है। .दो-पाँच माईल की दूरी पर भी यदि प. गरुभगवंत की अर्थात् सूर्यास्त से २०-२५ मिनट पहले प्रतिक्रमण निश्रा मिलती हो तो पाठशाला में, पौषधशाला में अथवा आरम्भ करना चाहिए । राइअ प्रतिक्रमण सूर्योदय के अपने घर में देवसिअ-प्रतिक्रमण आदि नहीं करना चाहिए। २० मिनट पहले पूर्ण हो, इसका ध्यान रखना चाहिए। (वृद्धावस्था/अस्वस्थता के अतिरिक्त) अपवाद से (अनिवार्य संयोगों में आवश्यक से • उपाश्रय में प्रवेश करते हुए जयणापूर्वक 'निसीहि' बोलना वंचित रह जाए, तब पू. गुरुभवगंवत की आज्ञा से चाहिए तथा संसार के साथ का सम्बन्ध छोड़ना चाहिए। की जा सकती है। ) देवसिअ प्रतिक्रमण दिन के पू. गुरु भगवंत की निश्रा न हो तो गुरु भगवंत की स्थापना मध्यभाग (पुरिमड्ड के पच्चक्खाण के बाद) से स्वरूप स्थापनाचार्यजी के समक्ष क्रिया करनी चाहिए। मध्यरात्रि (रात्रि के १२.०० बजे के आसपास) तक प्रश्न १ पू. गुरुभगवंत की निश्रा में ही प्रतिक्रमण करने का किया जा सकता है। तथा राइअ-प्रतिक्रमण रात्रि के क्या कारण है? मध्यभाग (रात्रि के १२.०० बजे के बाद) से दिन के उत्तर: पू. गुरूभगवंत की निश्रा में प्रतिक्रमण करने से मध्यभाग (पुरिमड पच्चक्खाण से पहले) तक किया अनुष्ठान अधिक दृढ बनता है तथा प्रमाद-आलस्य का जा सकता है। त्याग होता है। प्रश्न ६ प्रतिक्रमण में सबसे पहले सामायिक किस लिए प्रश्न २ प्रतिक्रमण शब्द का रूढ (प्रयोग) क्या है ? लिया जाता है? उत्तरः प्रतिक्रमण शब्द छह आवश्यक (सामायिक, उत्तर: अविरति (पाप-व्यापार) का त्याग कर विरति चउविसत्थो, वांदणां, प्रतिक्रमण, काउस्सग्ग तथा (निरवद्य व्यापार) में प्रवेश करने के लिए सामायिक पच्चक्खाण) हेतु रूढ है । परन्तु शास्त्रीय वचन लेना आवश्यक है। विरति अवस्था में की गई सारी के अनुसार छह आवश्यक में से चौथा प्रतिक्रमण क्रियाएँ पुष्टिकारक तथा फलदायी होती हैं, जिससे कहलाता है। उन छह आवश्यक के विषय में श्रावक प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में सामायिक लिया जाता है। को सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए। प्रश्न ७. पच्चक्खाण छठा आवश्यक होने के बावजूद (आधार :- मन्नह जिणाणं सज्झाय) प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में वांदणां देते हुए पच्चक्खाण प्रश्न३ प्रतिक्रमण किस लिए करना चाहिए? क्यों लिया जाता है? उत्तर: ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा उत्तर : शाम के पच्चक्खाण में 'दिवसचरिमं' (दिवस के वीर्याचार स्वरूप पाँच आचारों की शुद्धि हेतु अंतिमभाग से पहले) का पाठ होने के कारण प्रतिक्रमण करना चाहिए। सूर्यास्त से पहले पच्चक्खाण अवश्य कर लेना प्रश्न ४ प्रतिक्रमण में छह आवश्यक के किस सूत्र से किस चाहिए । क्योंकि छठे आवश्यक तक पहुंचने में आचार की शुद्धि होती है? काफी समय लग सकता है । पू. गुरुभगवंत के उत्तरः १ सामायिक (करेमि भंते !) से चारित्राचार की; २. विनय स्वरूप द्वादशावत वंदन (वांदणां) करते हुए चउवीसत्थो (लोगस्स) से दर्शनाचार की, ३. वांदणा पच्चक्खाण लिया जाता है। शाम के सामायिक लेने (द्वादशावर्त्त वंदन) से ज्ञानाचार की, ४. प्रतिक्रमण के बाद मुहपत्ति पडिलेहण तथा वांदणा करते (वंदित्तु) से ज्ञानादि पाच आचार की, ५. काउस्सग्ग हुए पच्चक्खाण लिया जाता है । अतः शाम का (अप्पाणं वोसिरामि) से तपाचार-वीर्याचार की तथा सामायिक लेने के बाद महपत्ति पडिलेहण तथा ६. पच्चक्खाण (नवकारशी से चोविहार उपवास वांदणापूर्वक पच्चक्खाण लिया जाता है। तथा पाणहार से दुविहार तक के) से तपाचार की प्रश्न ८ प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में ही चार थोय का देववंदन शुद्धि होती है। इन छह आवश्यकों का विधिपूर्वक किस लिए किया जाता है? सेवन करने से वीर्याचार की शुद्धि होती है। उत्तर : श्री चैत्यवंदन भाष्य में वर्णित बारह अधिकारों से ४ प्रश्न ५ प्रतिक्रमण का काल (समय) उत्सर्ग तथा अपवाद से थोय का देववंदन प्रारम्भ करने से देव-गुरु का क्या है? आदर-विनय होता है तथा सारी धर्मक्रियाए ( देवउत्तरः उत्सर्ग से (मूलविधि के अनुसार) देवसिअ- | गुरु के वंदन से) सफल होती है। mensional ww २२९ raduadra Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ له الله ه م م م م प्रश्न ९. देववंदन के १२ अधिकार कौन-कौन से हैं ? उत्तर: क्रम किसे वंदन-स्मरण होता है? किस पद से होता है? १ला भाव-जिन 'नमुत्थुणं से जिअभयाणं' तक। द्रव्य-जिन 'जे अ अईया सिद्धा'से 'तिविहेण वंदामि' तक। चैत्यस्थापना-जिन अरिहंत-चेइआणं सूत्र। नाम-जिन लोगस्स सूत्र। तीनों भुवनों के स्थापना-जिन सव्वलोए। विहरमान-जिन 'श्री पुक्खर-वद-दीवड़े से 'नमंसामि' तक। श्रुत ज्ञान 'तमतिमिरि' से 'अंतिम' तक। सर्व-सिद्ध भगवंत 'सिद्धाणं बुद्धाणं' से 'सव्वसिद्धाणं' तक। तीर्थाधिपति श्री वीर भगवान 'जो देवाण...' से 'नरं व नारिं वा' तक। १० वा उज्जयंत (गिरनार) तीर्थ 'उज्जितसेल' से 'नमंसामि तक। ११ वा अष्टापद तीर्थ 'चत्तारि-अट्ठ' से 'दिसंतु' तक। १२ वा सम्यग्दृष्टिदेव स्मरण 'वेचावच्चगराणं' से 'करेमि काउस्सग्गं' तक । प्रश्न १०. चार खमासमण में भगवान्हं आदि का क्या अर्थ है? प्रश्न १४. 'सव्वस्स वि देवसिअ... इच्छाकारेण...' सूत्र उत्तर: 'भगवान्हं' का अर्थ 'अरिहंत तथा सिद्धभगवंत', बोलने का हेतु क्या है? 'आचार्यहं' का अर्थ 'आचार्य भगवंत', 'उपाध्यायह' उत्तर: इस सूत्र में दिन संबन्धी मन-वचन-और का अर्थ 'उपाध्याय भगवंत' तथा 'सर्वसाधुहं' का अर्थ काया के सर्व अतिचारों का संग्रह होने से 'सर्व साधुभगवंत' को नमस्कार हो, ऐसा होता है। पूज्य गुरुभगवंत के पास प्रायश्चित मांगा प्रश्न ११. 'सव्वस्स वि देवसिअ' सूत्र को प्रतिक्रमण का बीज सूत्र जाता है । पूज्य गुरुभगवंत 'पडिक्कमेह' क्यों कहा जाता है? बोलने से उन अतिचारों के प्रायश्चित स्वरुप उत्तर: मन से दुश्चिंता की, वचन के दुर्भाषण की तथा काया प्रतिक्रमण करने को कहते हैं । तब शिष्य से दुष्ट चेष्टा की आलोचना, इस लघुसूत्र के द्वारा की 'इच्छं, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं' कहता है। गई है तथा इसका विस्तार ही प्रतिक्रमण की क्रिया में फिर १० प्रकार के प्रायश्चित में प्रतिक्रमण आता है । इसीलिए इस संक्षिप्त सूत्र को बीजसूत्र कहा नाम का दूसरा प्रायश्चित करने के लिए जाता है। योगमुद्रा पूर्वक गोदो हिका आसन प्रश्न १२. पाच आचारों में सबसे पहले चारित्राचार की शद्धि के (वीरासन) मैं बैठकर, समभाव मे रहकर, लिए आठ गाथाओं का काउस्सग्ग किया जाता है? उपयोग के साथ पद-पद में संवेग की प्राप्ति उत्तर: मुक्ति का महत्त्वपूर्ण कारण तथा पाँच आचारों में करते हुए, डांस-मच्छर आदि के दंश परिषह सर्वप्रधान तथा सर्वश्रेष्ठ होने के कारण दिन से को सहन करते पूज्य महात्माओ 'पगामसम्बन्धित लगे हुए दोषों में सबसे पहले चारित्राचार की सज्जाय' सूत्र और श्रावक-श्राविका गण 'श्री शुद्धि हेतु आठ गार्थों का काउस्सग्ग किया जाता है। वंदित्तु' सूत्र बोलें। पूज्य महात्माओं के साधुजीवन को अनुलक्ष्य कर प्रश्न १५. पूज्य महात्मा 'श्रमण सूत्र' बोलने से पहले 'सयणा...' की एक गाथा का एक बार चिंतन किया 'श्री नवकार मंत्र, करेमि भंते !, चत्तारिजाता है । पंचाचार की गाथा का चिंतन करते समय मंगलं, इच्छामि पडिक्कमिउं और ईरियावहियं' श्रावक अपने पर लगे हुए अतिचारों को और पू. सूत्र किसलिए बोलते हैं? महात्माओं को अपने पर लगे हुए अतिचारों का एक उत्तर: श्री पंच परमेष्ठि भगवंतों को नमस्कार करके गाथा का चिंतन करते समय छोटे से बड़े के क्रम में सभी कार्य करने चाहिए, इसलिए प्रारंभ में व्यवस्थित करना चाहिए। 'श्री नवकार मंत्र' बोलते हैं। समता भाव में प्रश्न १३. यहां पर तीसरे आवश्यक वांदणा देने का हेतु क्या है? स्थिर होकर प्रतिक्रमण करना चाहिए, उत्तर: बत्तीस दोष रहित और पच्चीस आवश्यक सहित वांदणा इसलिए 'करेमि भंते !' सूत्र बोलते हैं । फिर पूज्य गुरुभगवंत को कायोत्सर्ग में छोटे-बडे के क्रम में मांगलिक के लिए 'चत्तारि मंगलं' बोलते हैं। व्यवस्थित चिंतित कर अतिचारों का निवेदन करने से उसके बाद दिन सम्बन्धी अतिचार की पहले विनय-बहुमान हेतु दिया जाता है। आलोचना करने के लिए 'इच्छामि २३० For Private & Persona se only stion International Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न १०. चार खमासमण में भगवान्हं आदि का क्या अर्थ है ? उत्तर: 'भगवान्हं' का अर्थ 'अरिहंत तथा सिद्धभगवंत', 'आचार्यहं' का अर्थ 'आचार्य भगवंत', 'उपाध्यायहं' का अर्थ 'उपाध्याय भगवंत' तथा 'सर्वसाधुहं' का अर्थ 'सर्व साधुभगवंत' को नमस्कार हो, ऐसा होता है। प्रश्न ११. 'सव्वस्स वि देवसिअ' सूत्र को प्रतिक्रमण का बीज सूत्र क्यों कहा जाता है? .उत्तर: मन से दुश्चिंता की, वचन के दुर्भाषण की तथा काया से दुष्ट चेष्टा की आलोचना, इस लघुसूत्र के द्वारा की गई है तथा इसका विस्तार ही प्रतिक्रमण की क्रिया में आता है। इसीलिए इस संक्षिप्त सूत्र को बीजसूत्र कहा जाता है। प्रश्न १२. पाँच आचारों में सबसे पहले चारित्राचार की शुद्धि के लिए आठ गाथाओं का काउस्सग्ग किया जाता है ? उत्तर: मुक्ति का महत्त्वपूर्ण कारण तथा पाच आचारों में सर्वप्रधान तथा सर्वश्रेष्ठ होने के कारण दिन से सम्बन्धित लगे हुए दोषों में सबसे पहले चारित्राचार की शुद्धि हेतु आठ गाथों का काउस्सग्ग किया जाता है । पूज्य महात्माओं के साधुजीवन को अनुलक्ष्य कर 'सयणा...' की एक गाथा का एक बार चिंतन किया जाता है । पंचाचार की गाथा का चिंतन करते समय श्रावक अपने पर लगे हुए अतिचारों को और पू. महात्माओं को अपने पर लगे हुए अतिचारों का एक गाथा का चिंतन करते समय छोटे से बड़े के क्रम में व्यवस्थित करना चाहिए। प्रश्न १३. यहां पर तीसरे आवश्यक वांदणा देने का हेतु क्या है? उत्तर: बत्तीस दोष रहित और पच्चीस आवश्यक सहित वांदणा पूज्य गरुभगवंत को कायोत्सर्ग में छोटे-बडे के क्रम में व्यवस्थित चिंतित कर अतिचारों का निवेदन करने से पहले विनय-बहुमान हेतु दिया जाता है। प्रश्न १४. 'सव्वस्स वि देवसिअ... इच्छाकारेण...' सूत्र बोलने का हेतु क्या है? उत्तरः इस सूत्र में दिन संबन्धी मन-वचन-और काया के सर्व अतिचारों का संग्रह होने से पूज्य गुरुभगवंत के पास प्रायश्चित मांगा जाता है। पूज्य गुरुभगवंत 'पडिक्कमेह' बोलने से उन अतिचारों के प्रायश्चित स्वरुप प्रतिक्रमण करने को कहते हैं । तब शिष्य 'इच्छं, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं' कहता है । फिर १० प्रकार के प्रायश्चित में प्रतिक्रमण नाम का दूसरा प्रायश्चित करने के लिए योगमुद्रा पूर्वक गोदोहिका आसन (वीरासन ) मैं बैठकर, समभाव मे रहकर, उपयोग के साथ पद-पद में संवेग की प्राप्ति करते हुए, डांस-मच्छर आदि के दंश परिषह को सहन करते पूज्य महात्माओ पगामसज्जाय' सूत्र और श्रावक-श्राविका गण 'श्री वंदित्तु' सूत्र बोलें। प्रश्न १५. पूज्य महात्मा श्रमण सूत्र' बोलने से पहले 'श्री नवकार मंत्र, करेमि भंते !, चत्तारि-मंगलं, इच्छामि पडिक्कमिउं और ईरियावहियं' सूत्र किसलिए बोलते हैं? उत्तर : श्री पंच परमेष्ठि भगवंतों को नमस्कार करके सभी कार्य करने चाहिए, इसलिए प्रारंभ में 'श्री नवकार मंत्र' बोलते हैं । समता भाव में स्थिर होकर प्रतिक्रमण करना चाहिए, इसलिए 'करेमि भंते !" सूत्र बोलते हैं। फिर मांगलिक के लिए 'चत्तारि मंगलं' बोलते हैं । उसके बाद दिन सम्बन्धी अतिचार की आलोचना करने के लिए 'इच्छामि पडिक्कमिउं..' सूत्र बोलते हैं । मार्ग में आने-जाने से हुई विराधना की आलोचना के लिए 'ईरियावहियं' सूत्र बोलते हैं । फिर समस्त अतिचारों से पीछे मुडने के लिए 'श्रमण सूत्र' बोलते हैं । इसी हेतु के लिए श्रावक-श्राविकागण भी 'श्री नवकार मंत्र, करेमि भंते ! और इच्छामि पडिक्कमिउं' सूत्र बोलने के बाद 'श्री वंदित्तु सूत्र' बोलते हैं। प्रश्न १६ श्रमण सूत्र तथा वंदित्तु सूत्र में 'अब्भुट्ठिओमि आराहणाए' बोलने के साथ ही शेष सूत्र खड़े-खड़े क्यों बोला जाता है? उत्तर: अतिचार रूप पापों के भार से हल्का होने के लिए खड़ा होकर शेष सूत्र बोला जाता है। अथवा द्रव्य (शरीर) से खड़े होकर भाव से आराधना करने के लिए खड़ा हुआ हूं, यह सूचित करने के लिए भी बोला जाता है । यह चौथे प्रतिक्रमण आवश्यक से चार प्रकार के कर्म दूर होते हैं । ('अब्भुट्ठिओ मि' बोलने के साथ ही खड़े होकर गुरुभगवंत के अवग्रह से बाहर निकलकर शेष सूत्र बोलना चाहिए।) प्रश्न १७. श्रमण सूत्र तथा वंदित्तु सूत्र के बाद तुरन्त दो वांदणां किसलिए दिया जाता उत्तर: वंदन आठ कारणों से किया जाता है। १. प्रतिक्रमण, २. स्वाध्याय, ३. काउस्सग्ग करना, ४. अपराध की क्षमापना, ५. अतिथि साधु आए तब, २३१ - FEEdse only Home Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. आलोचना लेते समय, ७. पच्चक्खाण लेते रखता है, उसी प्रकार चारित्राचार की शुद्धि के समय और ८. अनसन करते समय गुरुवंदन किया लिए दो लोगस्स के काउस्सग्ग के बाद प्रथम एक जाता है। यहाँ 'तस्स धम्मस्स...' के द्वारा अतिचार लोगस्स का काउस्सग्ग दर्शनाचार की शुद्धि के का प्रतिक्रमण करने के बाद पू. गुरुभगवंत के लिए किया जाता है । इसके लिए श्री ऋषभदेव प्रति हुए अपने अपराधों की क्षमापना के लिए आदि चौबीस तीर्थंकरों के नाम स्मरण रूप श्री गुरुवंदन किया जाता है, अर्थात् पहले लोगस्स सूत्र पूरा बोलकर 'सव्वलोए' के द्वारा (प्रतिक्रमण) तथा चौथे (अपराध क्षमापना) के तीनों लोक में स्थित स्थापना जिन को वंदन करते कारण वांदणा दिया जाता है। हुए काउस्सग्ग किया जाता है । दर्शनाचार की प्रश्न १८ 'अब्भुट्टिओ मि अभितर' गुरुवंदन के बाद दो शुद्धि के बाद प्राप्त ज्ञान, सम्यग्ज्ञान के रूप में वांदणा किस हेतु से दिये जाते हैं? परिणत हो, उसके लिए बाद के एक एक लोगस्स उत्तर: वंदन करने के आठ कारणों में से तीसरा का काउस्सग्ग ज्ञानाचार की शुद्धि के लिए किया काउस्सग्ग करने के लिए दो वांदणा दिया जाता है जाता है । यह काउस्सग्ग करने से पहले विहरमान जिनभगवंतों की स्तुति, सम्यग्ज्ञान की स्तवना कर प्रश्न १९. श्री आयरिय-उवज्झाए सूत्र किस हेतु से बोला श्रुतदेवता के स्मरण स्वरूप 'श्री पुक्खर वरजाता है? द्दीवड़े' सूत्र आदि बोला जाता है। उत्तर: कषाय परिणति यदि बहुत भारी हो तो चारित्र का प्रश्न २३. तीनों काउस्सग्ग पूर्ण होने के बाद किस हेतु से पर्याय रस निकाले हुए ईक्षु के समान व्यर्थ हो 'सिद्धाणं-बुद्धाणं' सूत्र बोला जाता है? जाता है । अतः चारित्र की सफलता हेतु तथा उत्तर: उसमें सर्वकर्ममल से मुक्त श्री सिद्धभगवंतों का कषायों को शान्त करने के लिए यह सूत्र बोला स्मरण करने के लिए 'श्री सिद्धाणं-बुद्धाणं' सूत्र जाता है। बोला जाता है। श्री जिनेश्वरभगवंतों के वचन के प्रश्न २०. दो लोगस्स सूत्र का काउस्सग्ग किस हेतु से किया। अनुसार समस्त सुविशुद्ध विधिपूर्वक क्रिया का जाता है? अंतिमफल मोक्ष सुख की प्राप्ति है। उत्तर: श्रमण सूत्र अथवा वंदित्तु सूत्र में आए हुए प्रश्न २४ श्री श्रुतदेवता का काउस्सग्ग किसलिए किया चारित्राचार की अशुद्धि को दूर करने के लिए दो जाता है? लोगस्स का काउस्सग्ग 'चंदेसु निम्मलयरा' तक उत्तर: समस्त धर्म क्रियाओं का आधार श्रुत है। अतः हमारे किया जाता है। अन्दर श्रुतज्ञान की वृद्धि हो, इसलिए 'सुअदेवया प्रश्न २१. देवसिअ प्रतिक्रमण समाप्त होने के बाद 'करेमि । भगवई' की स्तुति के द्वारा श्रुतदेवता का भंते !' बोला जाता है तथा दूसरी बार श्री वंदित्तु काउस्सग्ग किया जाता है। सूत्र के पहले बोला जाता है, तो फिर वापीस प्रश्न २५ श्री श्रुतदेवता-क्षेत्रदेवता-भवनदेवता का मात्र तीसरी बार यहाँ करेमि भंते !' किस हेतु से बोला एक श्री नवकार महामंत्र का काउस्सग्ग क्यों जाता है ? किया जाता है? उत्तरः समताभाव में रहकर की जानेवाली सारी उत्तरः सम्यग्दृष्टि युक्त देवता अल्प परिश्रम से सिद्ध धर्मक्रियाएँ सफल होती है, उस बात को बारम्बार (प्रसन्न) होने के कारण आठ श्वासोच्छास प्रमाण याद कराने के लिए प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में, श्री नवकार महामंत्र का काउस्सग्ग किया जाता है। मध्य में तथा अन्त में तीन बार करेमि भंते !' सूत्र प्रश्न २६ श्री श्रुतज्ञान की वृद्धि हेतु 'श्रुत' को स्मरण करने बोला जाता है। के बदले 'श्रुतदेवता' को किस हेतु से स्मरण प्रश्न २२ दो लोगस्स के काउस्सग्ग के बाद एक-एक किया जाता है? लोगस्स का काउस्सग्ग किस हेतु से किया जाता उत्तर : श्री द्वादशांगी के अधिष्ठायक सम्यग्दृष्टि श्रुतदेवता का स्मरण करने से ज्ञानावरणीय कर्म का उत्तर: जिस प्रकार कतक का चूर्ण गंदे पानी को शुद्ध क्षयोपशम प्रगट होता है, इसीलिए श्रुतदेवता का करता है तथा जिस प्रकार अंजन आंख को साफ स्मरण किया जाता है। हा Jane temation of Private B on Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न २७ श्री क्षेत्रदेवता का काउस्सग्ग किस हेतु से किया जाता है ? उत्तर : प्रश्न २८ अविरतिधर श्रुतदेवता तथा क्षेत्रदेवता का स्मरण रूप काउस्सग्ग करने से क्या मिथ्यात्व लगता है ? श्री आवश्यक सूत्र की बृहद्वृत्ति के प्रारम्भ में ही १४४४ ग्रंथ के रचयिता सूरिपुरंदर पू. आ. श्री. हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज ने श्रुतदेवता को नमस्कार किया है तथा पक्खीसूत्र आदि व श्री आवश्यकसूत्र की पंचांगी में श्रुतदेवता आदि का काउस्सग्ग करना चाहिए, ऐसा बतलाया गया है । श्री पूर्वधर (वाचक उमास्वातिजी महाराज आदि ) के काल में भी यह काउस्सग्ग होता था । उसका निषेध कभी नहीं किया गया है। यह काउस्सग्ग करने से मिथ्यात्व लगने की तो कोई संभावना ही नहीं है । परन्तु यह काउस्सग्ग करने से गुण की उपबृंहणा होती है । अर्थात् ज्ञानाचार का पालन होता है । ( सर्व अथवा देशविरतिधर उपरोक्त देवताओं का मात्र स्मरण किया जाता है । परन्तु 'वंदण - वत्तियाए' आदि पदों के द्वारा वंदन - नमनपूजन नहीं किया जाता है। अतः दोष की कोई संभवाना नहीं रहती । ) प्रश्न २९ यहाँ चौथी बार दो बार वांदणा किस हेतु से जाता है ? उत्तर : उत्तर : हम जिस क्षेत्र (स्थान) के आश्रय में धर्मक्रिया करते हैं, उसके अधिष्ठायक क्षेत्रदेवता होते हैं, अतः उन्हें कृतज्ञता के रूप में याद किया जाता है तथा पू. महात्मा भी तीसरे अदत्तादान विरमण महाव्रत की भावना में क्षेत्र के स्वामी की बारम्बार आज्ञा लेने का विधान होने के कारण श्री क्षेत्रदेवता का स्मरणरूप काउस्सग्ग करते हैं। प्रश्न ३० उत्तर : जिस प्रकार राजा (मालिक) की आज्ञा से कार्य पूर्ण करने के बाद सेवक राजा को प्रणाम करके कार्य पूर्ण होने का निवेदन करता है, उसी प्रकार पू. गुरुभगवंत की आज्ञा से चारित्र आदि की विशुद्धि करने वाले इन छह आवश्यकों को मैंने पूर्ण किया है, यह बतलाने के लिए द्वादशावर्त्त वंदन स्वरूप दो बार वांदा यहाँ दिया जाता है। 'इच्छामो अणुसट्ठि' का क्या अर्थ है ? 'मैं पू. गुरुभगवंत के अनुशासन को चाहता हूँ ।' अर्थात् पू. गुरुभगवंत की आज्ञा के अनुसार मैंने संपूर्ण उपयोगपूर्वक छह आवश्यक स्वरूप प्रतिक्रमण किया है । प्रश्न ३१ 'नमोऽस्तु वर्द्धमानाय' सूत्र किस हेतु से बोला जाता है ? श्री वीरविभु का शासन जयवंत है । उन जिनेश्वर भगवंत की आज्ञा से प्रतिक्रमण किया जाता । वह प्रतिक्रमण किसी प्रकार के विघ्न के बिना पूर्ण हुआ है, उस आनंद को अभिव्यक्त (प्रगट) करने के लिए यह स्तुति (सूत्र) बोली जाती है। प्रश्न ३२ 'नमोऽस्तु वर्द्धमानाय' सूत्र (स्तुति) ऊँचे स्वर में क्यों बोला जाता है ? उत्तर : कृतज्ञ गुणसंपन्न महानुभावों का ऐसा व्यवहार होता है कि गुरुजनों की आज्ञा से निर्विघ्न रूप से पूर्ण किए गए कार्य की मंगल पूर्णाहुति हो, तब आनंद व्यक्त करने हेतु ऊँचे स्वर से देव- गुरु की स्तुति करनी चाहिए । साथ ही सांसारिक व्यावहार में भी आनन्द व्यक्त करने के लिए वाद्य-संगीत बजाये जाते है, नृत्य-संगीत आदि किए जाते हैं । इसी प्रकार छह आवश्यक की पूर्णाहुति का आनंद व्यक्त करने के लिए ऊँचे स्वर में ये तीन स्तुतियाँ एक साथ बोली जाती हैं । (सूर्यास्त के बाद बोली जानेवाली इन स्तुतियों के सामूहिक आवाज त्रसजीवों आदि के लिए कष्टकारक बने, ऐसा नहीं होना चाहिए । ) देवसिअ - प्रतिक्रमण में पू. महात्माओं में श्रेष्ठ गुरुभगवंत एक स्तुति बोलें, पक्खीचौमासी-संवत्सरी प्रतिक्रमण करते समय तीनों स्तुतियाँ बोले, उसके बाद ही समूह में बैठे अन्य महानुभाव एक स्वर में लयबद्ध रूप से मधुर स्वर में तीनों स्तुतियाँ बोलें । प्रश्न ३३ पू. साधु भगवंत तथा श्रावक 'नमोऽर्हत्' बोलकर 'नमोऽस्तु वर्द्धमानाय' स्तुति बोलते हैं । जबकि पूज्य साध्वीजी भगवंत तथा श्राविकाएँ 'नमो खमासमणाणं' के बाद 'संसार दावानल' की प्रथम तीन गाथाएँ बोलते हैं, ऐसा भेद किसलिए है ? 'नमोऽर्हत्' 'नमोऽस्तु वर्द्धमानाय (विशाल लोचन दलं) स्तुति (सूत्र) पूर्व में से उद्धृत किया गया है । अर्थात् १४ पूर्वों में से ली गई हैं। स्त्रियों को पूर्व के दृष्टिवाद पढ़ने-बोलने उत्तर : उत्तर : & Personal Use Only २३३ ary.org Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राइअ-प्रतिक्रमण का हेतु रात्रि के अन्तिम प्रहर में (लगभग तीन बजे के आसपास)। प्रश्न ५. 'इच्छकार सुहराई' सूत्र यहाँ बोलने का क्या हेतु निद्रा का त्याग कर श्री नवकार महामन्त्र का स्मरण कर बिस्तर का है? त्याग कर अशुद्धि के सूचक अंगों की अल्प पानी से शुद्धि करनी उत्तर: प्रतिक्रमण के बीजमंत्र स्वरूप 'सव्वस्स वि' चाहिए । उसके बाद सामायिक के लिए १००% सूती शुद्ध वस्त्र बोलने से पहले पू. गुरुभगवंत की रात्रि पहनकर ईर्यासमिति का पालन करते हुए उपाश्रय की ओर प्रस्थान सुखपूर्वक व्यतीत होती है या नहीं ? इत्यादि करना चाहिए । पूज्य गुरुभगंवत की आज्ञा प्राप्तकर विधिपूर्वक पृच्छा हेतु तथा विनय व आदर का भाव पैदा सामायिक ग्रहण करना चाहिए। करने के लिए यह सूत्र यहा बोला जाता है। (यहाँ देवसिअ-प्रतिक्रमण में निर्दिष्ट हेतओं में से राइअ- प्रश्न ६. देवसिअ प्रतिक्रमण में 'स्थापन' के बाद प्रतिक्रमण में जो कुछ विशेष परिवर्तन होगा, वही बतलाया जाएगा 'करेमि भंते !' सूत्र बोला जाता है। तो फिर । इसके अतिरिक्त अन्य सारे हेतु देवसिअ-प्रतिक्रमण के अनुसार यहा 'जग चिंतामणि' चैत्यवंदन के द्वारा समझना चाहिए।) मांगलिक करने पर भी 'करेमि भंते !' के पूर्व प्रश्न १. पू. साधु महात्मा तथा श्रावकादि (सामायिक लेने से 'नमुऽत्थुणं' सूत्र किस हेतु से बोला जाता है ? पहले) प्रारंभ में 'ईरियावहियं' किसलिए करते हैं? उत्तर: 'श्री जग चिंतामणि' का चैत्यवंदन स्वाध्याय उत्तर: 'इरियावहिय' के द्वारा सर्व जीवराशि के प्रति क्षमापना आदि करने के लिए मांगलिक के रूप में तथा मैत्रीभावना को सुदृढ किया जाता है । जिससे बोला जाता है। जबकि यहा 'नमुऽत्थुणं' सूत्र चैत्यवंदन, सज्झाय, आवश्यक आदि सुविशुद्ध रूप से स्वरूप देववंदन राइअ प्रतिक्रमण के पूर्व तथा वैरभाव से मुक्त होकर किया जा सके । जिस प्रकार प्रारम्भिक मंगल स्वरूप बोला जाता है । द्रव्यपूजा के लिए शरीर की बाह्यशुद्धि आवश्यक है, उसी सर्वत्र-सर्वदा देवभक्ति करनी चाहिए, इस प्रकार भावपूजा के लिए आन्तरिक शुद्धि भी अत्यन्त सुविहित परंपरा को प्रस्थापित करने के लिए आवश्यक है । इस आन्तरिक शुद्धि में सहायक भी यहा 'नमुऽत्थुणं' सूत्र बोला जाता है। 'ईरियावहियं' है, अतः वह प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में किया प्रश्न ७ देवसिअ-प्रतिक्रमण में चारित्राचार की शुद्धि जाता है, श्री महानिशीथ सूत्र में भी कहा गया है कि हेतु दो लोगस्स सूत्र का काउस्सग्ग किया 'ईरियावहियं के बिना की गई सारी क्रियाए (चैत्यवंदन, जाता है। तो फिर राइअ-प्रतिक्रमण में इस सज्झाय, आवश्यक आदि) निष्फल हो जाती है। शुद्धि के लिए 'स्थापन' के बाद लोगस्स का प्रश्न २. प्रारंभ में कुसुमिण-दुसुमिण का काउस्सग्ग किस हेतु से एक काउस्सग्ग किस हेतु से किया जाता है? किया जाता है? उत्तर: रात्रि के समय गमनागमन नहीं करना चाहिए, उत्तर: रात्रि के समय निद्रा के दौरान स्वप्न आदि से उत्पन्न पापों अजयणा का कारण होने से दिन की अपेक्षा की शुद्धि के लिए प्रायश्चित के रूप में यह काउस्सग्ग रात्रि में अल्प (थोड़ा) गमनागमन की क्रिया किया जाता है। (यह काउस्सग्ग किए बिना प्रातःकाल कम होने के कारण चारित्राचार का अतिचार (सुबह में) कोई भी क्रिया करने से उसका फल प्राप्त अल्प (थोड़ा) लगता है। अतः दो लोगस्स नहीं होता है । राइअ-प्रतिक्रमण के पहले मंदिर में नहीं के बदले एक लोगस्स सूत्र का काउस्सग्ग जाना चाहिए।) 'चंदेसु निम्मलयरा' तक किया जाता है। प्रश्न ३. 'श्री जग चिंतामणि' का चैत्यवंदन प्रारंभ में क्यों किया । प्रश्न ८. देवसिअ प्रतिक्रमण में प्रतिक्रमण समाप्त होने जाता है? के बाद तुरंत 'नाणम्मि सूत्र' की आठ गाथा से उत्तर: समस्त धर्मक्रियाएँ देव-गुरु को वंदन करके करने से काउस्सग्ग किया जाता है, तो फिर राइअसफल होती हैं। इसीलिए यह महामंगल स्वरूप 'श्री जग प्रतिक्रमण में दो बार एक-एक लोगस्स सूत्र चिंतामणि' चैत्यवंदन प्रारंभ में किया जाता है । का काउस्सग्ग करने के बाद अन्त में 'नाणम्मि 'भगवान्हं आदि भी इसी कारण से किया जाता है। सूत्र' का काउस्सग्ग क्यों किया जाता है? प्रश्न ४. भरहेसर की सज्झाय किसलिए बोली जाती है ? उत्तर: रात्रि के समय निद्रा का त्याग कर उठनेवाले उत्तर: शील के दृढ पालन में स्वयं को समर्पित करनेवाले लोगों में कुछ अंशों में प्रमाद (आलस्य) की महापुरुषों तथा महासतियों के प्रातःकाल नाम स्मरण सम्भावना होती है, अतः ऐसी अर्धजाग्रत करने से सारा दिन सदाचार तथा सद्विचार से युक्त रहता अवस्था में 'नाणम्मि सत्र' की आठ गाथाओं है, इसीलिए यह भरहेसर की सज्झाय बोली जाती है। के काउस्सग्ग की अपेक्षा से छोटे-बड़े २३४ Manmadinaationuifemational For Private Personal use only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिचारों को क्रमबद्ध करने में शायद असुविधा हो सकती है, इसीलिए यहाँ राइअ-प्रतिक्रमण के अन्त में यह काउस्सग्ग करने का विधान है। प्रश्न ९. तप चिंतवणी काउस्सग्ग किस हेतु से किया जाता है ? दर्शनाचार, ज्ञानाचार व चारित्राचार की शुद्धि करने के बाद दिन से सम्बन्धित आहार- पानी का कितने अंशों में त्याग करने की सम्भावना है, वह अपने आत्मबल व तपाचार की विशेष शुद्धि के लिए यह काउस्सग्ग किया जाता है। उत्तर : प्रश्न १० इस तप चिंतवणी' का काउस्सग्ग किस तरह करना चाहिए ? 'तप चिंतवणी' का काउस्सग्ग भविष्यकाल ( भावना है), भूतकाल (शक्ति है) तथा वर्तमानकाल ( परिणाम है) को लक्ष्य में रखकर प्रभुजी की आज्ञा के अनुसार, इस पंचमकाल में यथासम्भव उत्कृष्ट (छह महिने के चउविहार उपवास) तप से जघन्य ( नवकारशी ) तप तक अपनी आत्मशक्ति को लक्ष्य में रखकर (बाह्यतप सम्बन्धी ) चिंतन करना चाहिए । उसकी उचित विधि निम्नलिखित है। उत्तर : प्रभु महावीर स्वामीजी ने उत्कृष्ट तप छह महीने का किया है, तो हे जीव ! तुम ऐसा कर सकोगे ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। एक दिन कम छह महीने का तप तुम कर सकोंगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है । दो दिन कम छह महीने का तप तुम करोगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। तीन दिन कम छह महीने का तप तुम करोगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। इस प्रकार एक एक दिन कम छह महीने का तप तुम कर सकोगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। २९ दिन कम छह महीने का तप तुम कर सकोगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। पाँच महीने का तप तुम कर सकोगे क्या ? १-२-३-४-५ दिन कम छह महीने को तप तुम कर सकोगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। ६-७-८-९-१० दिन पाँच महीने का तप तुम कर सकोगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है । ११-१२-१३-१४-१५ दिन कम पांच महीने का तप तुम कर सकोगे क्या ?भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। १६-१७-१८-१९-२० दिन कम पाँच महीने का तप तुम कर सकोगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है । २१-२२-२३-२४-२५ दिन कम पाँच महीने का तप तुम कर सकोगे क्या ?भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। २६-२७-२८-२९-३० दिन कम पाँच महीने का तप तुम कर सकोगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। चार महीने का तप तुम कर सकोगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। • यहाँ पाँच महीने के समान ५-५ दिन कम करते हुए विचार कर उत्तर दें । तीन महीने का तप तुम कर सकते हो क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। • • दो महीने का तप तुम कर सकोगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। यहाँ एक एक दिन कम करके विचार करते हुए उत्तर दें कि (किसी भाग्यशाली ने भूतकाल में यदि ५०-४५ उपवास लगातार उपवास किया हो और यदि वह संख्या आए तो जवाब में भावना है, शक्ति है, परिणाम नहीं है, ऐसा कहना चाहिए । ) एक महीने ( मासक्षमण) का उपवास तुम कर सकते हो क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। • ( यहाँ से आगे बढ़ते हुए एक-एक उपवास कम करते हुए १३ उपवास कम एक महीने के उपवास तक पहुँचना चाहिए | उनमें जिस भाग्यशाली को मासक्षमण आदि विशिष्ट तप हो उसे उस उपवास की संख्या आए तब 'भावना है, शक्ति है, परिणाम नहीं है' ऐसा उत्तर प्रत्येक में चिंतन कर काउस्सग्ग में ही आगे बढ़ना चाहिए । इस प्रकार का उत्तर ६ महीने के उपवास से लेकर पोरिसी पच्चक्खाण तक कहना चाहिए, परन्तु जब नवकारशी आए तब 'भावना है, शक्ति है, परिणाम है' ऐसा बोलकर काउस्सग्ग पारना चाहिए। जिस दिन जो पच्चक्खाण करने की इच्छा हो उस पच्चक्खाण तक तपचिंतन करते हुए पहुँचें हो तब तीनों उत्तर ' भावना है, शक्ति है, परिणाम है' में चिंतन कर काउस्सग्ग 'नमो अरिहंताणं' बोलते हुए पारना चाहिए । १३ दिन कम १ महीने का उपवास तुम कर सकोंगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। चौतीस अब्भत्त (१६ उपवास) तुम कर सकेंगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। बत्तीस अब्भत्त (१५ उपवास) तुम कर सकोंगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। तीस अमत्त (१४ उपवास ) तुम कर सकोंगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है । अट्ठाईस अब्मत्त (१३ उपवास) तुम कर सकोंगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। छब्बीस अब्भत्तट्ठे (१२ उपवास) तुम कर सकोंगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है । चौबीस अम्मत्त (११ उपवास) तुम कर सकेंगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है । बाईस अब्भत्तट्टं (१० उपवास) तुम कर सकोंगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। बीस अब्भत्तट्ठे (९ उपवास) तुम कर सकेंगे क्या ? & Personal Use Only २.३८५ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। नवकारशी तुम कर सकोंगे क्या ? भावना है, शक्ति है, परिणाम है। काउस्सग्ग की यह विधि गुरुगम से सीखकर, इसप्रकार काउस्सग्ग करना चाहिए। यदि यह सम्भव हो तो १६ बार श्री नवकारमंत्र का काउस्सग्ग करना चाहिए। भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। अठारह अब्भत्तटुं(८ उपवास) तुम कर सकोंगे क्या? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। सोलह अब्भत्त₹ (७ उपवास) तुम कर सकोंगे क्या? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। चौदह अब्भत्तटुं (६ उपवास) तुम कर सकोंगे क्या? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। बारह अब्भत्तटुं ( ५ उपवास) तुम कर सकोंगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। दशम अब्भत्त₹ (४ उपवास) तुम कर सकोंगे क्या? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। अट्ठम अब्भत्तटुं ( ३ उपवास) तुम कर सकोंगे क्या? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। छ8 अब्भत्तटुं (२ उपवास) तुम कर सकोंगे क्या? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। चोथ अबभत्तटुं (एक उपवास के आगे-पीछे एकासणा) कर सकोगे क्या? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नही है। अब्भत्तटुं (उपवास के आगे-पीछे एकासणा रहित १ उपवास) कर सकोगे क्या? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। आयंबिल तुम कर सकोंगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। लुखी नीवि तुम कर सकोंगे क्या ? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। एकलठाण का एकासणा तुम कर सकोंगे क्या? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। ठाम चउविहार आयंबिल तुम कर सकोंगे क्या? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। ठाम चउविहार एकासणा तुम कर सकोंगे क्या? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। एकासणा तुम कर सकोगे क्या? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। बियासणा तुम कर सकोंगे क्या? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। अवड्ढ तुम कर सकोंगे क्या? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। पुरिमड्ढ तुम कर सकोंगे क्या? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। साड-पोरसी तुम कर सकोंगे क्या? भावना है, शक्ति नहीं है, परिणाम नहीं है। पोरिसी तुम कर सकोंगे क्या ? प्रश्न ११.'चौतीश अब्भत्त' से 'चोथ अब्भत्तट्ट' तक उपवास की संख्या की अपेक्षा पच्चक्खाण सूत्र की संख्या (जैसे चौतीश =१६ उपवास, अट्ठम = ३ उपवास) अधिक किस कारण से होती है? उत्तर: सामान्यतः भोगी महानुभाव को दिन में मात्र दो बार ही भोजन लेने का विधान शास्त्रों में बतलाया गया है । (एकबार खाए = योगी, दो बार खाए भोगी तथा तीन बार खाए-रोगी कहलाता है)। उसके अनुसार १६ उपवास करनेवाला व्यक्ति प्रतिदिन दो बार भोजन का त्याग करने के कारण १६x२ = ३२ बार भोजन का त्याग करता है तथा उपवास के प्रारम्भ में अगले दिन भी एकासणा का तप करने से तथा पारणा के दिन एक ही बार भोजन लेना अर्थात् एकासणा का तप करने के कारण आगे-पीछे के दिन के एक-एक बार के भोजन का त्याग करने के कारण ३२+२ = ३४ बार भोजन का त्याग करने से १६ उपवास करनेवाले को ३४ अब्भत्तट्ट का पच्चक्खाण दिया जाता है, उसके अनुसार अन्य सारी बातें चौथ अब्भत्तट्ट पच्चक्खाण तक समझ लेना चाहिए। (जीताचार के अनुसार आगे-पीछे एकासणा नहीं करनेवाले को भी उपर्युक्त पच्चक्खाण दिया जाता है।) प्रश्न १२ 'सकलतीर्थ' सूत्र यहा किस हेतु से बोला जाता है? उत्तर: जगत में स्थित शाश्वत-अशाश्वत जिन चैत्यों तथा जिनबिंबों। को प्रातःकाल वन्दना करने से तीर्थों के प्रति विशेष आदरभाव उत्पन्न होता है तथा बोलते-सुनते समय उन तीर्थों को नजर के समक्ष रखकर भावपूर्वक वन्दना करने से हृदय से पावन बना जाता है । अतः यहा महामंगलकारी सकलतीर्थ वन्दना सूत्र मंदस्वर में बोला जाता है। प्रश्न १३ 'सामायिक... काउस्सग्ग पच्चक्खाण किया है जी !' बोलना चाहिए कि 'पच्चक्खाण धारण किया है जी!'बोलना चाहिए? उत्तर: सकलतीर्थ वंदना के बाद तप चिंतवणी काउस्सग्ग में । निर्णित पच्चक्खाण उच्चारपूर्वक लिया हो तो 'पच्चक्खाण किया है जी' बोलना चाहिए तथा पच्चक्खाण सूत्र नहीं आता हो और उसने पच्चक्खाण की धारणा की हो तो 'पच्चक्खाण धारण किया है जी' बोलना चाहिए। २३६ ation International ate & Personal Use Only ory.org. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्झाय एक ही बोली जाती है, अर्थात् मांगलिक सज्झाय में बोले । खड़े होकर अन्य भाग्यशाली जिन मुद्रामें सुनें, स्तव बोलकर दूसरी सज्झाय नहीं बोलनी चाहिए । प्रतिक्रमण | पूर्ण होने के साथ ही सबको एक स्वर में एक साथ जिनमुद्रा विधि पूर्ण होने के बाद गुरु के आदेश से कोई भी कितनी में 'नमो अरिहंताणं' बोलकर कायोत्सर्ग पारना चाहिए तथा भी संख्या में सज्झाय बोल सकता है।) प्रगट रूप से पूर्ण 'लोगस्स सूत्र' बोलना चाहिए। (१२) दुःखक्षय तथा कर्मक्षय हेतु कायोत्सर्ग (१३) क्षमा-याचना उसके बाद सत्रह संडासापूर्वक एक खमासमण देकर उसके बाद एक खमासमणा देकर पंजों के बल पर घुटनों खड़े होकर योगमुद्रा में आदेश मांगे कि.. 'इच्छाकारेण के सहारे नीचे बैठकर दाहिनी हथेली की मुट्ठी बांधकर संदिसह भगवन् ! दुक्खक्खय-कम्मक्खय निमित्तं चरवला/कटासणा पर स्थापित कर तथा बाई हथेली में काउस्सग्ग करूं?' गुरु भगवंत कहें 'करेह' तब कहे 'इच्छं', मुहपत्ति मुख के आगे रखकर बोलें.. 'दुक्खक्खय-कम्मक्खय निमित्तं करेमि काउस्सग्गं... अन्नत्थ' 'प्रतिक्रमण विधि करते हुए जो कुछ अविधि हुई हो, सूत्र बोलकर जिनमुद्रा में चार बार श्री लोगस्स सूत्र (संपूर्ण) उसके लिए मन - वचन - काया से मिच्छा मि दुक्कडं' का काउस्सग्ग करना चाहिए । जिन्हें लोगस्स सूत्र नहीं आता। (प्रतिक्रमण करते हुए जाने अनजाने प्रमाद वश जो कुछ हो, उन्हें सोलह बार श्री नवकार महामंत्र का काउस्सग्ग करना अविधि हुई हो वह नजर के समक्ष लाकर 'याद कर' क्षमा चाहिए। आदेश प्राप्त करनेवाला एक भाग्यशाली योगमुद्रा में मांगनी चाहिए।) (मात्र पुरुष) 'नमोऽर्हत् कहकर 'श्री लघुशांति स्तव प्रत्यक्ष श्री देवसिअ-प्रतिक्रमण विधि समाप्त (१४) सामायिक पारने की विधि एक खमासमण देकर ईरियावहियं पडिक्कमण कर (चैत्यवंदन या देववंदन के समय पुरुषों को चादर (खेस) का काउस्सग्ग कर प्रत्यक्ष में लोगस्स सूत्र बोलें। उपयोग करना आवश्यक है।) ____उसके बाद नीचे चैत्यवंदन मुद्रा में बैठकर योगमुद्रा में उसके बाद एक खमासमण देकर खड़े-खड़े योगमुद्रा में 'चउक्साय सूत्र' चैत्यवंदन के रूप में बोलकर 'नमुत्थुणं- आदेश मांगें.. 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! मुँहपत्ति पडिलेहुं जावंति चेइआई'-एक खमासमण-'जावंत के वि साहू', ?'गुरु भगवंत कहें - 'पडिलेवेह' तब 'इच्छं' कहकर मुहपत्ति के 'नमोऽर्हत्', 'उवसग्गहरं स्तोत्र' तथा पूर्ण 'जय वीयराय सूत्र'। ५० बोल से पडिलेहण करें। उसके बाद एक खमासमण देकर बोलना चाहिए । (उसमें 'जावंति चेइआई, जावंत के वि खड़े-खड़े योगमुद्रा में आदेश मांगे - 'इच्छाकारेण संदिसह साहू' तथा 'जय वीयराय सूत्र आभवमखंडा' तक भगवन् ! सामायिक पारुं ?' भगवंत कहे 'पुणो वि कायव्वं' मुक्तासुक्ति-मुद्रा में बोलना चाहिए। (= पुनः दूसरी बार सामायिक करने योग्य है ।) तब (देवसिअ प्रतिक्रमण प्रारंभ होने के बाद अनिवार्य 'यथाशक्ति' (=मेरी शक्ति के अनुसार सामायिक करने का संजोगों के कारण प्रतिक्रमण में देर से आए हुए भाग्यशाली प्रयत्न करूगा ।) कहे। उसके बाद एक खमासमण देकर खड़ेको यदि सबके साथ प्रतिक्रमण स्थापन करने की भावना हो | खड़े योगमुद्रा में आदेश मांगे - 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! तो सामायिक लेकर, मुहपत्ति पडिलेहण कर पच्चक्खाण सामायिक पार्यु ?' गुरुभगवंत कहें 'आयारो न मोत्तव्यो' कर, सकल कुशल-वल्ली चैत्यवंदन के साथ भाववाही (=आचार छोड़ना नहीं चाहिए।) तब तहत्ति' (=आपकी बात चैत्यवंदन बोलकर, 'जं किंचि नाम तित्थं' तथा 'नमुत्थुणं' यथोचित है, मुझे विश्वास है।) कहना चाहिए। (यथाशक्ति तथा सूत्र बोलकर 'भगवान्हं' आदि चार खमासमण देकर एक तहत्ति' बोलने के बाद 'इच्छं 'बोलने की आवश्यकता नहीं है। साथ प्रतिक्रमण स्थापन करनेवाले भाग्यशाली को यदि चार बोलने से अविधि कहलाती है।) थोय करनी बाकी हो, वे सामायिक पारते समय चउक्कसाय उसके बाद नीचे पैरों के पंजे के सहारे घटनों के आधार चैत्यवंदन तथा नमुत्थुणं सूत्र बोलकर अरिहंत-चेइआणं...से पर बैठकर दाहिनी हथेली की मुट्ठी बनाकर चरवला/कटासणा सिद्धाणं बुद्धाणं-वेयावच्चगराणं अन्नत्थ बोलकर, चौथी। के ऊपर स्थापित करनी चाहिए तथा बाई हथेली में मुख के आगे थोय बोलकर नीचे बैठकर नमुत्थुणं से जय वीयराय तक उन मुहपत्ति रखकर श्री नवकार महामंत्र एक बार बोलकर (अन्य मुद्राओं में बोलना चाहिए । यह अपवादिक क्रिया होने के मत के अनुसार श्री नवकारमंत्र खड़े-खड़े योगमुद्रा में बोलकर कारण वर्ष में एकाध दिन पू. गुरुभगवंत की आज्ञा से की जा नीचे बैठकर) सामाइय-वय-जुत्तो सूत्र' बोलना चाहिए। सकती है। परन्तु बारम्बार इस प्रकार करना उचित नहीं है। यदि ज्ञान-दर्शन अथवा चारित्र के उपकरण की स्थापना प्रतिक्रमण एक साथ स्थापन करनेवाले भाग्यशाली ही की गई हो तो दाहिनी हथेली सीधी रखकर एक बार श्री नवकार प्रतिक्रमण दरम्यान सूत्र बोल सकते है । पौषधव्रत धारण महामंत्र प्रत्यक्ष रूप में उत्थापन मुद्रा में बोलना चाहिए। करनेवाले साथ ही प्रतिक्रमण स्थापन करें। (श्री सामायिक पारने की विधि समाप्त) २४१ Jain Ethecation interminal For Private & Personal use only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राइअ-प्रतिक्रमण विधि (१)सामायिक | भाव के साथ 'इच्छकार सुहराइ' सूत्र बोलकर आदेश मांगें विधिपूर्वक सामायिक लेना। 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! राइअ पडिक्कमणे-ठाउं ?' (२) कुस्वप्न-दुःस्वप्न के निमित्त कायोत्सर्ग गुरुभगवंत कहें - 'ठावेह' तब ‘इच्छं' बोलकर नीचे पैरों के उसके बाद खमासमण देकर खड़े होकर योगमुद्रा में पंजे के सहारे घुटने के आधार पर बैठे । दाहिने हाथ की मुट्ठी आदेश मांगे - ‘इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! कुसुमिण- बांधकर चरवला/कटासणा पर स्थापित कर तथा बाएं हाथ दुसुमिण उड्डावणिय राइअ पायच्छित्त विसोहणत्थं काउस्सग्गं | की हथेली में मुख के आगे योग्य दूरी पर मुँहपत्ति (बंद किनारे करूं ?' गुरुभगवंत कहें करेह' तब ‘इच्छं' कुसुमणि-दुसुमिण | बाहर से दिखे, इस प्रकार) रखकर 'सव्वस्स वि राइअ उड्डावणिय राइअ-पायच्छित्त विसोहणत्थं करेमि । दुच्चितिय...' सूत्र बोलें। काउस्सग्गं...अन्नत्थ' सूत्र बोलकर जिनमुद्रा में कामभोगादि (६) देव-वंदन के कुस्वप्न आए हों तो 'सागर वर गंभीरा' तक तथा अन्य । उसके बाद योग-मुद्रा में पैरों के पंजों के सहारे बैठकर दुःस्वप्न आए हों या न आए हों तो भी चंदेसु निम्मलयरा' तक । चादर (खेस) का उपयोग करते हुए 'नमुत्थुणं सूत्र' बोलें। चार बार श्री लोगस्स सूत्र का काउस्सग्ग करें । जिन्हें श्री। (७) पहला सामायिक तथा दूसरा चउविसत्थ आवश्यक लोगस्स सूत्र न आते हो, वे १६ बार श्री नवकार महामंत्र का उसके बाद चादर (खेस) का त्याग कर खड़े होकर काउस्सग्ग करे । यथाविधि काउस्सग्ग पारकर श्री लोगस्स सूत्र | योगमुद्रा में करेमि भंते !'- 'इच्छामि ठामि काउस्सग्गं, जो मे प्रगट रूप में पूर्ण बोलना चाहिए। । राइओ'- 'तस्स उत्तरी-अन्नत्थ सूत्र' क्रमशः बोलकर एक बार (३) चैत्यवंदनादि 'श्री लोगस्स सूत्र' का 'चंदेसु निम्मलयरा' तक का कायोत्सर्ग उसके बाद एक खमासमण देकर खड़े होकर योगमुद्रा में ; करें । श्री लोगस्स सूत्र नहीं आता हो तो चार बार श्री नवकार आदेश मांगें - ‘इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! चैत्यवंदन | महामंत्र का काउस्सग्ग करें । विधिपूर्वक कायोत्सर्ग पारना करूं?' गुरुभगवंत कहे 'करेह' त्यारे 'इच्छं' कहकर श्री जग । चाहिए । उसके बाद श्री लोगस्स सूत्र'- 'सव्वलोए अरिहंत चिंतामणि सूत्र से जय वीयराय सूत्र' पूर्ण निश्चित मुद्रा में बोलें। चेइआणं-अन्नत्थ सूत्र' क्रमशः बोलकर एक बार श्री लोगस्स (चैत्यवंदन के समय चादर का उपयोग करें।) उसके बाद | सूत्र' का 'चंदेसु निम्मलयरा' तक का कायोत्सर्ग जिनमुद्रा में सत्रह संडासा पूर्वक चार खमासमण देते समय एक-एक करें । जिन्हें श्री लोगस्स सूत्र' नहीं आता हो वे चार बार श्री खमासमण के बाद भगवान्हं' से 'सर्व साधु हं' तक अनुक्रम । नवकार महामंत्र का कायोत्सर्ग करें । तथा विधिपूर्वक पूर्ण करें से बोलकर वंदना करें। उसके बाद श्रावक दोनों हाथ जोड़कर । उसके बाद 'श्री पुक्खर-वर द्दीवड्डे सूत्र-सुअस्स भगवओ'इच्छकारी समस्त श्रावकने वांदुं छु ?' ऐसा कहें। वंदणवत्तियाए-अन्नत्थ' क्रमशः बोलकर 'श्री नाणम्मि (४) सज्झाय (स्वाध्याय) दंसणम्मि' की आठ गाथाओं का जिनमुद्रा में कायोत्सर्ग करें। उसके बाद सत्रह संडासापूर्वक एक खमासमण देकर। जिन्हें यह गाथा नहीं आती हो वे आठ बार श्री नमस्कार योगमुद्रा में आदेश मांगें - ‘इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! । महामंत्र का कायोत्सर्ग करें। उसके बाद विधिपूर्वक पूर्ण क सज्झाय संहिसाहुं ?' गुरु भगवंत कहें-'संहिसावेह' तब 'इच्छं। योगमुद्रा में श्री सिद्धाणं बुद्धाण' सूत्र बोलें। कहकर, पुनः एक बार विधिपूर्वक खमासमण देकर खड़े होकर। (८) तीसरा वांदणां आवश्यक योगमुद्रा में आदेश मांगें - 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् !। उसके बाद यथाजात मुद्रा में तीसरे (वांदणां) आवश्यक सज्झाय करूं?' गुरुभगवंत कहें 'करेह' तब ‘इच्छं' कहें ।। की मुंहपत्ति के ५० बोल से पडिलेहण करें तथा बाद में २५ उसके बाद यथाजात मुद्रा में बैठकर श्री नवकार महामंत्र | आवश्यक सम्भालकर ३२ दोषों को टालकर द्वादशावत प्रत्यक्ष एक बार बोलकर 'भरहेसर-बाहुबली' सज्जाय बोलें । (वांदणां) वंदन करें। तथा उसके बाद एक बार श्री नवकार महामंत्र प्रत्यक्ष बोलें। । (९) चोथु प्रतिक्रमण आवश्यक (५) रात्रि-प्रतिक्रमण स्थापना उसके बाद योगमुद्रा में आदेश मांगें-'इच्छाकारण। उसके बाद खड़े होकर योगमुद्रा में प्रश्न पूछने के हाव- ' संदिसह भगवन् ! राइअं आलोउं ?' गुरुभगवंत को Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ECCre 'आलोवेह' तब 'इच्छं', आलोएमि, जओ मे राइओ... सूत्र पूर्ण बोलें । उसके बाद मुँहपत्ति के उपयोग के साथ क्रमशः 'सात लाख सूत्र' तथा 'अढार पाप स्थानक सूत्र' । (१२) मंगल-स्तुति बोलकर योगमुद्रा में आदेश मांगें-'सव्वस्स वि राइअ | ___ उसके बाद 'इच्छामो अणुसटुिं' बोलकर पुरुष चादर का दुच्चिंतिअ दुब्भासिअ दुच्चिद्विअ इच्छाकारेण संदिसह । उपयोग कर चैत्यवंदन मुद्रा में बैठकर योगमुद्रा में दोनों हाथ भगवन् !' गुरु भगवंत कहें 'पडिक्कमेह' तब 'इच्छं, तस्स | जोड़कर नम्रता पूर्वक 'नमो खमासमणाणं' बोलकर श्रेष्ठजन मिच्छा मि दुक्कडं' कहकर बाद में गोदोहिका (वीरासन ) में | (मात्र पुरुष ) 'नमोऽर्हत्' सूत्र बोलकर 'विशाल लोचन-दलं सूत्र' बेठकर योगमद्रा में दोनों हाथ जोडकर बोले... श्री नवकार बोले । स्त्रिया 'नमो खमासमणाणं' बोलकर 'श्री संसार महामंत्र' 'करेमि भंते ! इच्छामि पडिक्कमिउं, जो मे | दावानल' की प्रथम तीन गाथाए बोलें। राइओ...' सूत्र क्रमशः बोलकर श्री वंदित्तु सूत्र (सावग (१३) देव-वंदन पडिक्कमण सुत्त ) बोलें । उसमें ४३वीं गाथा 'अब्भुट्ठिओमि | उसके बाद 'नमुत्थुणं सूत्र' बोलकर खड़े होकर योगमुद्रा में आराहणाए' बोलते हुए खड़े होकर शेष सत्र बोलें । उसके। 'अरिहंत चेइआणं' - 'अन्नत्थ सूत्र' बोलकर एक बार श्री नवकार बाद दो वांदणां देकर अवग्रह में रहकर गरुवंदन । महामंत्र का कायोत्सर्ग करें। विधिपूर्वक काउस्सग्ग पारकर (मात्र (अब्भुदिओ सूत्र के द्वारा) करके पुनः दो वांदणां देकर पुरुष ) नमोऽर्हत् बोलकर श्री कल्लाण कंदं सूत्र' की प्रथम गाथा 'आयरिय-उवज्झाए' सूत्र अवग्रह में रहकर बोलें। बोलें । उसके बाद श्री लोगस्स सूत्र - सव्वलोए अरिहंत चेइआणं (१०) पांचवां कायोत्सर्ग आवश्यक | अन्नत्थ सूत्र' क्रमशः बोलकर एक बार श्री नवकार महामंत्र का उसके बाद अवग्रह से बाहर निकलकर करेमि भंते ।। कायोत्सर्ग करें । विधिपूर्वक पारकर 'श्री कल्लाण कंदं सूत्र' की 'इच्छामि ठामि काउस्सग्गं, जो मे राइओ-तस्स उत्तरी' तथा । दूसरी गाथा बोलें । उसके बाद 'श्री पुक्खर-वर-हीवड्डे सूत्र''अन्नत्थ सूत्र'क्रमशः बोलकर तप चिंतवणी' का कायोत्सर्ग | 'सुअस्स भगवओ-वंदणवत्तियाए-अन्नत्थ सूत्र' क्रमशः बोलकर करें। यदि वह नहीं आता हो तो सोलह बार श्री नवकार। एक बार श्री नवकार महामंत्र का कायोत्सर्ग कर विधिपूर्वक मंत्र का कायोत्सर्ग करें। विधिपूर्वक कायोत्सर्ग पारकर श्री। पारकर श्री कल्लाण कंदं सूत्र' की तीसरी गाथा बोलें। लोगस्स सूत्र बोलें। उसके बाद श्री सिद्धाणं-बुद्धाणं सूत्र-वेयावच्चगराणं - (११) छठा प्रत्याख्यान आवश्यक अन्नत्थ सूत्र' क्रमशः बोलकर एक बार श्री नवकारमंत्र का उसके बाद यथाजात मुद्रा में बैठकर छठे। कायोत्सर्ग करें । विधिपूर्वक कायोत्सर्ग पारकर (मात्र (पच्चक्खाण) आवश्यक की मुहपत्ति के ५० बोल मन पुरुष) नमोऽर्हत्' बोलकर 'श्री कल्लाणकंदं सूत्र' की चौथी थोय में बोलते हुए पडिलेहण करें। उसके बाद दो वांदणारे बोलें। चैत्यवंदन मुद्रा में चादर (खेस) के उपयोग के साथ भावपूर्वक 'सकल तीर्थ-वंदन' सूत्र बोलें । फिर। अनुसार दोनों हाथ जोड़कर 'नमुत्थुणं' बोलें । उसके बाद क्रमशः गुरुभगवंत के पास अथवा श्रेष्ठजनों के पास, यदि दोनों न । सत्रह संडासा पूर्वक चार खमासमण दें। उसमें प्रत्येक खमासमण हों तो स्वयं तप चिंतवणी में निर्धारित किया गया के बाद पंच परमेष्ठि वंदना' स्वरूप 'भगवान्हं' से 'सर्व साधू हं' पच्चक्खाण उच्चारण पूर्वक लें और यदि वह पच्चक्खाण तक सूत्र बोले। सत्र नहीं आता हो तो उस पच्चक्खाण की धारणा करें।। (पौषधव्रतधारी श्रावक-श्राविका चार खमासमणा देने से उसके बाद बोलें-'सामायिक, चउविसत्थो, वांदणां.। पहले दो खमासमण निम्नलिखित आदेश मांगते हुए देंपडिक्कमण, काउस्सग्ग, पच्चक्खाण कर्य छ जी.' (यदि । इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! बहुवेल संदिसाहं ? गुरुभगवंत कहेपच्चक्खाण उच्चारण पूर्वक लिया हो तो) अथवा | “संदिसावेह' तब 'इच्छं' बोलें, उसके बाद एक दूसरा खमासमण पच्चक्खाण धार्य छ जी (यदि पच्चक्खाण उच्चारण पर्वका देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! बहवेल करशं ?' लेने की जगह मात्र धारणा की हो तो।) गुरुभगवंत कहें करजो' तब 'इच्छं' बोलें।) For Private & Personal D wow.jamab४३ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके बाद दाहिनी हथेली को चरवला/कटासणा पर उल्टा रखकर तथा बाई हथेली में मुंहपत्ति मुख के पास रखकर 'श्री अड्डाइज्जेसु सूत्र' श्रेष्ठ जन भावपूर्वक बोलें। (१४) श्री सीमंधरस्वामी के दोहे तथा चैत्यवंदन विधि अनंत चउवीशी जिन नमुं, सिद्ध अनंत क्रोड। केवलधर मुगते गया, वंदु बे कर जोड ॥१॥ बे कोडी केवलधरा, विहरमान जिन वीश। सहस कोडी युगल नमुं, साधु नमुं निशदिश ॥२॥ जे चारित्रे निर्मळा, जे पंचानन सिंह। विषय कषायने गंजीया, ते प्रणमं निशदिश ॥३॥ उपरोक्त दोहे (ईशान कोने की ओर मुख कर अथवा ईशान कोने की ओर मुख है, इसकी कल्पना कर) में से एक दोहा योगमुद्रा में खड़े-खड़े बोलकर एक खमासमण दें । उसी प्रकार क्रमशः तीन दोहे बोलकर तीन खमासमण दें । (विषम संख्या में अलग-अलग अधिक खमासमण श्री सीमंधरस्वामीजी के दोहे बोलकर दिया जा सकता है। उसके बाद एक खमासमण देकर आदेश मांगें - 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! श्री सीमंधरस्वामी जिन आराधनार्थं चैत्यवंदन करूं?' गुरुभगवंत कहें करेह' तब 'इच्छं' बोलें। उसके बाद नीचे चैत्यवंदन मुद्रा में बैठकर योगमुद्रा के अनुसार दोनों हाथ जोड़कर मात्र श्री सीमंधरस्वामीजी का भाववाही चैत्यवंदन बोलें । उसके बाद 'जं किंचि नाम तित्थं', 'नमत्थणं', 'जावंति चेड्याई', एक 'खमासमण', 'जावंत केवि साहू', 'नमोऽर्हत्' क्रमशः बोलकर श्री सीमंधरस्वामीजी का भाववाही स्तवन बोले । ( अन्य किसी परमात्मा का स्तवन नहीं बोलना चाहिए ।) उसके बाद श्री जय वीयराय सूत्र' बोलकर खड़े होकर योगमुद्रा में 'अरिहंत चेइआणं...अन्नत्थं' सूत्र बोलकर एक बार श्री नवकार मंत्र का काउस्सग्ग कर, पारकर 'नमोऽर्हत्' बोलकर श्री सीमंधरस्वामीजी की थोय बोले। (१५) श्री सिद्धाचलजी के दोहे तथा चैत्यवंदन विधि ___ एकेकुं डगलुं भरे, शेजूंजा समु जेह। ऋषभ कहे भवक्रोडना, क्रर्म खपावे तेह... ॥१॥ शत्रुजय समो तीर्थ नहि, ऋषभ समो नहि देव । गौतम सरीखा गुरु नहि, वळी वळी वंदु तेह...॥२॥ सिद्धाचल समरूं सदा, सोरठ देश मोझार।। मनुष्य जन्म पामी करी, वंदु वार हजार ॥३॥ श्री सिद्धाचल गिरिराज की दिशा में मुँह रखकर एक-एक दोहा भावपूर्वक बोलें साथ ही एक-एक खमासमण दें । (यहाँ भी विषम संख्या में दोहे तथा खमासमण दिया जा सकता है।) ___उसके बाद एक खमासमण देकर खड़े-खड़े योगमुद्रा में आदेश मांगे - 'इच्छाकारेण भगवन् श्री सिद्धाचल महातीर्थ आराधनार्थं चैत्यवंदन करूँ ?' गुरुभगवंत कहे 'करेह' तब ‘इच्छं' बोलकर श्री सिद्धाचलजी की महिमा का वर्णन करते हुए चैत्यवंदन बोले । उसके बाद 'जंकिंचि नाम तित्थं'-'नमुत्थुणं''जावंति चेइआई' एक-खमासमण-'जावतं के वि साहू बोली 'नमोऽर्हत्' कहकर 'श्री शत्रुजय गिरिराज की महिमा का वर्णन करते हुए भाववाही स्तवन (श्री ऋषभदेव भगवान का ही स्तवन नहीं ) बोलें। ____ उसके बाद पूर्ण जय वीयराय सूत्र बोलकर खड़ेखड़े योगमुद्रा में अरिहंत चेइआणं...''अन्नत्थ' बोलकर एक बार श्री नवकार महामंत्र का कायोत्सर्ग कर, विधिपूर्वक पारकर नमोऽर्हत्' बोलकर श्री सिद्धाचलजी की थोय बोलनी चाहिए। (१६)क्षमा-याचना उसके बाद सत्रह संडासा पूर्वक खमासमणा देकर पैरों के पंजे के बल पर नीचे बैठकर दाहिनी हथेली की मुट्ठी बांधकर चरवला/कटासणा पर रखकर तथा बाई हथेली में मुंहपत्ति मुख के आगे रखकर निम्नलिखित प्रकार से क्षमा याचना करें । 'राइअ-प्रतिक्रमण करते हुए यदि कोई अविधि -आशातना हुई हो, तो उस सबके लिए मन-वचन-काया से मिच्छा मि दुक्कडं'। (राइअ-प्रतिक्रमण रात्रि के समय सूर्योदय से पहले होने के कारण अतिशय मंद स्वर में मात्र साथ करने वाले भाग्यशाली ही सुन सकें, इस प्रकार बोलना चाहिए।) (१७) सामायिक पारना आगे बतलाई गई विधि के अनुसार सामायिक पारे यहा 'चउक्कसाय' चैत्यवंदन की आवश्यकता नहीं है। -: इति श्री राइअ-प्रतिक्रमण विधि समाप्त : २४४ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनमुद्रा में सुनते समय की मुद्रा । योगमुद्रा में बोलते समय की मुद्रा । ५३. श्री स्नातस्या स्तुति tional आदान नाम : श्री स्नातस्या स्तुति गौण नाम : श्री वर्द्धमान जिन स्तुति छंद : शार्दूल-विक्रीडित; राग - 'सिद्धे भो पयओ.... ' ( पुक्खर वर द्दीवड्ढे सूत्र, गाथा-४ ) स्नातस्या- प्रतिमस्य मेरुशिखरे - स्ना-तस्-या-प्रति-मस्-य-मेरु-शिख-रे- स्नान कराये हुए अनुपम ऐसे मेरु पर्वत के शिखर पर शच्या विभोः शैशवे, शच् या विभोः शै-शवे, रुपालोकन - विस्मया हृत-रस रुपा लोक-न- विस्मया-हृत-रस भ्रान्त्या भ्रमच्चक्षुषा । उन्मृष्टं नयन-प्रभा - धवलितं क्षीरोदका शङ्कया, भ्रान्-त्या भ्रमच्-चक्षुषा । उन्- मृष्टम् नय-न-प्रभा-धव-लितम्क्षीरोदका - शङ् - कया, इन्द्राणी द्वारा प्रभु के बाल्यकाल में रुप को देखकर आश्चर्य के कारण उत्पन्न अद्भुत रस की भ्रान्ति से, फिरते हुए नयनोवाली पोंछा है, आँख की निर्मल कांति से उज्ज्वल क्षीर समुद्र का पानी रह तो नही गया ? एसी शंका से जिनके मुख 'को बारम्बार, वह जय को प्राप्त हो, श्री वर्द्धमान जिनेश्वर । १. वक्त्रं यस्य पुनः पुनः स जयति-वक्-त्रम् यस्य पुनः पुनः स जय-तिश्री वर्द्धमानो जिनः ॥ १ ॥ श्री- वर्द्ध-मानो जिनः ॥ १ ॥ अर्थ : बाल्यावस्था में मेरु पर्वत पर स्नात्र - अभिषेक कराये हुए प्रभु के रूप का अवलोकन करते हुए उत्पन्न हुई अद्भुत रस की भ्रान्ति से चञ्चल चबने हुए नेत्रोंवाली क्षीरसागर का जल रह तो नहीं गया ? एसी शङ्का से अपनी नेत्रकान्ति से ही उज्ज्वल बने हुए जिनके मुख को बार-बार पोंछा, वे श्री महावीर जिन जय को प्राप्त हो । १. हंसां-साहत-पद्मरेणु-कपिश- हन्-साम्-सा-हत-पद्म-रेणु-कपि-श- हंस पक्षी की पाँखो से उडे हुए कमल पराग से पीते ऐसे क्षीरार्ण-वाम्भो-भृतैः, क्षीरार्ण-वाम्-भो-भृतैः, क्षीर समुद्र के जल भरे हुए, (और) कलशो से अप्सराओं के स्तन समूह की । स्पर्धा करनेवाले सुवर्ण के, कुम्भ-रप्सरसां पयोधर-भर- कुम् - भै-रप्-सर-साम् पयो-धर-भरप्रस्पर्धिभिः काञ्चनैः । प्रस्-पर्-धि-भिः काञ् - (कान् ) - चनैः येषां मन्दर-रत्नशैल-शिखरे - येषाम् मन्दर-रत्-न-शैल- शिख-रेजन्माभिषेकः कृतः, जन्मा-भिषेकः कृतः, जो तीर्थंकरो को मेरुपर्वत के शिखर पर जन्माभिषेक किया है। सर्वैः सर्व-सुरासुरेश्वर-गणै सर्वैः सर्व-सुरा-सुरेश्वर-गणस्तेषां नतोऽहं क्रमान् ॥ २ ॥ स्ते षाम् नतो-हम् क्रमान् ॥ २ ॥ सर्व जाति के सुर और असुरों के इन्द्रोने उनके चरणो में मैं नमन करता हूँ । २. विषय : श्री वर्द्धमानस्वामी की भाववाही जन्माभिषेक आदि संबंधित स्तुति । अर्थ : सर्व जाति के सुर और असुरों के इन्द्रों ने जिनका जन्माभिषेक हंस की पाँखों से उड़े हुए कमल-पराग से पीत ऐसे क्षीर समुद्र के जल से भरे हुए और अप्सराओं के स्तन-समूह की स्पर्धा करनेवाले सुवर्ण के घड़ों से मेरुपर्वत के रत्नशैल नामक शिखर पर किया है, उनके चरणों में मैं नमन करता हूँ । २. 歷 For Private & Peranan Only २४५ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छंद : स्रग्धरा; राग : 'आमूला-लोल-धूली...' (संसारदावानल. सूत्र, गाथा-४) अर्हद्वक्त्र-प्रसूतंअर-हद्-वक्-त्र-प्रसू-तम् अरिहंत के मुख से अर्थ रुप में प्रगटित (और) गणधर-रचितंगण-धर-रचि-तम् गणधरों द्वारा सूत्ररुप में गुथे हुए द्वादशाङ्ग विशालं, द्वा (द्वा)-द-शाङ्-गम् विशा-लम्, बारह अङ्गोंवाले, विस्तृत अद्भुत रचना शैली वाले, चित्रं बह्वर्थ-युक्तं मुनिगण- चित्रम्-बह-वर्-थ-युक्-तम् मुनि-गण- बहुत अर्थो से युक्त, विधि विधान ऐसे श्रेष्ठ मुनि वृषभै-र्धारितं बुद्धिमद्भिः । वृष-भैर-धारि-तम्-बुद्-धि-मद्-भिः। के समूह से धारण किये हुए, मोक्षाग्र-द्वारभूतं व्रत-चरण-मोक्-षा-ग्र द्-वार-भू-तम् व्रत-चर-ण- मोक्ष के द्वार समान, व्रत और चारित्र रुप फलवाले फलं-ज्ञेय-भाव-प्रदीपं, फलम्-ज्ञेय-भाव-प्रदी-पम्, जानने योग्य पदार्थो को प्रकाशित करने में दीपक समान भक्त्या नित्यं प्रपद्ये- भक-त्या नित्-यम् प्र-पद्ये (पद्-ये)- भक्तिपूर्वक अहर्निश स्वीकारता हूँ। श्रुत-मह-मखिलं- | श्रुत-मह-मखि-लम् श्रुत को मैं समस्त (और) सर्वलोकैक-सारम् ॥३॥ सर्-व-लोकै-क-सारम् ॥३॥ समस्त विश्व में अद्वितीय सारभूत ऐसे । ३. अर्थ : श्री जिनेश्वरदेव के मुख से अर्थरूप में प्रगटित और गणधरों द्वारा सूत्ररूप में गुथे हुए, बारह अङ्गोंवाले, विस्तृत, अद्भुत रचनाशैली वाले, बहुत अर्थो से युक्त, विधिविधान ऐसे श्रेष्ठ मुनि-समूह से धारण किये हुए, मोक्ष के द्वार समान, व्रत और चारित्ररूप फलवाले, जानने योग्य पदार्थों को प्रकाशित करने में दीपक समान ओर समस्त विश्व में अद्वितीय सारभूत ऐसे समस्त श्रुत का मैं भक्तिपूर्वक अहर्निश आश्रय ग्रहण करता हूँ। ३. निष्यङ्क-व्योम-नील- निष्-पङ्-क-व्यो-म-नी-ल बादल रहित स्वच्छ आकाश की नीलद्युति-मल-सदृशंधु (यु) ति-मल-सद्-रु-शम्- प्रभा को धारण करनेवाले, आलस्य से मन्द (मद्-पूर्ण) दष्टिवाले, बालचन्द्रा-भदंष्ट्र बाल-चन्-द्रा-भ-दन्-ष्ट्रम्, द्वितीया (दूज) के चन्द्र की कांति की तरह उज्ज्वल दाढोंवालें, मत्तं घण्टारवेण प्रसृत- मत्-तम् घण्-टार-वेण-प्रसृ-त- गले में बंधी हुई घण्टियों के नाद से मत्त, झरते हुए मदजलं पूरयन्तं समन्तात् । मद-जलम्-पूर-यन्-तम् समन्-तात्। मदजल को चारो ओर फैलाते हुए, ऐसे आरूढो दिव्यनागं विचरति- | आरू-ढो दिव-य-नागम् विच-रति- विराजित दिव्य हाथी पर विचरते गगने-कामदः कामरूपी, गग-ने-काम-दः-काम-रूपी, आकाश मार्ग पर मनोकामनाओं को पूर्ण करनेवाले (और) इच्छित रुप को धारण करनेवाले यक्षः सर्वानुभूति-र्दिशतु मम- यक्षः सर्-वानु-भूतिर-दिश-तु मम- यक्ष सर्वानुभूति दीजिए मुझे सदा सर्वकार्येषु सिद्धिम् ॥४॥ सदा-सर-व-कार-येषु सिद्-धिम् ॥४॥ सदा सर्व कार्यो में सिद्धि को । ४. अशुद्ध शुद्ध अशुद्ध अर्थ : बादल-रहित स्वच्छ आकाश की नील-प्रभा विस्मयाहूतरस विस्मयाहृतरस नित्यं प्रपध्ये नित्यं प्रपद्ये को धारण करनेवाले आलस्य से मन्द (मदपूर्ण) पस्पर्द्धिभि पस्पर्द्धिभिः दुतिमलसद्रशं यतिमलसदशं दृष्टिवाले, द्वितीया के चन्द्र की तरह उज्ज्वल उन्मष्टं उन्मृष्टं बालचन्द्रभदष्ट्र बालचन्द्राभदंष्टं दाढोंवाले,गले में बधी हुई घण्टियों के नाद से मत्त. गणै तेषां गणैस्तेषां मन्तं घंटारवेण मत्तं घंटावेण झरते हुए मदजल को चारों ओर फैलाते हुए ऐसे वक्रं यस्य वक्त्रं यस्य क्षी-राणवांभोभत क्षीरार्ण-वांभो-भः प्रसूतमदजलं प्रसृतमदजलं दिव्य हाथी पर विराजित मनोकामनाओं को पर्ण वृषभैद्वारितं : वषभै-र्धारितं वृषभै-र्धारितं ... सर्वानुभूति दिशतु सर्वानुभूतिर्दिशत करनेवाले, इच्छित रूप को धारण करनेवाले और आकाश में विचरण करनेवाले सर्वानुभूति यक्ष मुझे सर्व कार्यो में सिद्धि प्रदान करें। ४. MR.Kation intemalond For Philame d ital sayww.janorycore Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. श्री सकलाऽर्हत् स्तोत्र आदान नाम : श्री सकलाऽर्हत स्तोत्र | विषय : गौण नाम : श्री चोवीश | वर्तमान चोवीशी देववंदन, चैत्यवंदन और देवसि, पक्खी, चौमासि, संवत्सरि जिन स्तवना | परमात्मा की प्रतिक्रमण के समय यह सूत्र भाववाही स्तवना। बोलते-सुनते समय की मुद्रा । अपवादिक मुद्रा। छंद : अनुष्टप, राग-दर्शनं देव-देवस्य-(प्रभुस्तुति) मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ सकलार्हत्-प्रतिष्ठानसक-लार्-हत्-प्रतिष्-ठान सर्व अरिहंतो में विद्यमान, मधिष्ठानं शिवश्रियः। मधिष्-ठानम् शिव-श्रियः । मोक्ष-लक्ष्मी के निवासस्थान, भूर्भुव:-स्वस्त्रयीशानभूर्-भुवः-स्वस्-त्रयी-शान तथा पाताल, मर्त्यलोक और स्वर्गलोक पर सम्पूर्ण प्रभुत्व धारण करनेवाले, मार्हन्त्यं प्रणिदध्महे ॥१॥ मार्-हन्-त्यम् प्रणि दधु-महे ॥१॥ । ऐसे अरिहंतपद का हम ध्यान करते हैं । १. अर्थ : सर्व अरिहंतो में विद्यमान, मोक्ष-लक्ष्मी केनिवासस्थान तथा पाताल, मर्त्यलोक और स्वर्गलोक पर सम्पूर्ण प्रभुत्व धारण करनेवाले ऐसे अरिहन्त पद का हम ध्यान करते हैं। १. नामाऽऽकृति-द्रव्य-भावैः, नामा-कृति-द्रव्य-भावैः, नाम-स्थापना-द्रव्य-भाव निक्षेपों के द्वारा पुनतस्त्रिजगज्जनम्। पुन-तस्-त्रि-जगज्-जनम्। पवित्र कर रहे है, तीनो जगत के प्राणियों को क्षेत्रे काले च सर्वस्मिन्न क्षेत्रे-काले-च सर्-वस्-मिन्- सर्व क्षेत्र में और सर्व काल में, उन र्हतः समुपास्महे ॥२॥ नर-हतः-समु-पास-महे ॥२॥ अरिहंतो की हम सम्यग् उपासना करते है। २. अर्थ : जो सर्वक्षेत्र में और सर्वकाल में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-निक्षेपों के द्वारा तीनों लोकों के प्राणियों को पवित्र कर रहे हैं, उन अर्हन्तो की हम सम्यग् उपासना करते है। २. आदिमं पृथिवीनाथआदि-मम् पृथि-वी-नाथ पहले पृथ्वी के नाथ (= राजा), मादिमं निष्परिग्रहम्। मादि-मम् निष्-परि-ग्रहम्। पहले निष्परिग्रही (=साधु), आदिम तीर्थनाथं च, आदिमम्-तीर-थ-नाथम् च, पहले तीर्थ के स्वामी (= तीर्थंकर), ऐसे ऋषभ-स्वामिनं स्तुमः ॥३॥ ऋ-षभ-स्वा-मिनम् स्तु-मः ॥३॥ ऋषभ देव स्वामी की हम स्तुति करते है। ३. अर्थ : पहले राजा, पहले साधु और पहले तीर्थङ्कर, ऐसे श्रीऋषभदेव की हम स्तुति करते है। ३. अर्हन्त-मजितं विश्व- अर-हन्-त-मजि-तम् विश्-व- अरिहंत अजितनाथ को जगत रुपीकमलकार-भास्करम् । कम-ल-कार-भास्-करम्। कमल के वन को विकसित करने के लिए सूर्य समान, अम्लान-केवलादर्श- अम्-लान-केव-ला-दर-श- निर्मल केवलज्ञान रुपी दर्पण में सारा जगत सङ्क्रान्त-जगतं स्तुवे ॥४॥ सङ्-क्रान्-त-जग-तम् स्तु-वे ॥४॥ प्रतिबिम्बित हुआ है, उनकी में स्तवना करता हूँ। ४. अर्थ : जगत् के प्राणी रूपी कमलों के समूह को विकसित करने के लिये सूर्य-स्वरुप तथा जिनके केवलज्ञान रुपी दर्पण में सारा जगत् प्रतिबिम्बित हुआ है, ऐसे पूजनीय श्रीअजितनाथ भगवान की मैं स्तुति करता हूँ। ४. २४७ N euonly Com.jahelibeo Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-भव्य-जनारामविश्-व-भव-य-जना-राम विश्व के भव्य जीव रुपी बगीचे के लिए कुल्या-तुल्या-जयन्ति ताः। कुल्-या-तुल्-या-जयन्-ति-ताः । नाली के समान, जय को प्राप्त करते है। देशना-समये वाचः, देशना-समये वाचः, उपदेश (देशना) समय के वचनोश्री सम्भव-जगत्पतेः ॥५॥ श्री-सम्-भव-जगत्-पतेः ॥५॥ श्री संभवनाथ स्वामी के।५. अर्थ : धर्मोपदेश करते समय जिनकी वाणी विश्व के भव्यजीव रूपी बगीचे को सींचने के लिये नाली के समान है, वे श्री सम्भवनाथ भगवन्त के वचन जय को प्राप्त हो रहे है। ५. अनेकान्त-मताम्भोधि- अने-कान्-त-मताम्-भोधि- अनेकान्त-मतरूपी समुल्लासन-चन्द्रमाः। समुल्-ला-सन-चन्-द्र-माः। महासमुद्र को पूर्णतया उल्लसित करने के लिये चन्द्र समान, दद्यादमन्द-मानन्दं, दद्-याद-मन्-द-मानन्-दम्, हमें परम आनन्द प्रदान करेंभगवानभिनन्दनः ॥६॥ भग-वा-न भि-नन्-दनः ॥६॥ भगवान् श्रीअभिनन्दन ।६. अर्थ : अनेकान्त-मत रूपी महासमुद्र को पूर्णतया उल्लसित करने के लिये चन्द्र-समान भगवान् श्री अभिनन्दन हमें परम आनन्द प्रदान करें।६. धुसत्-किरीट-शाणाग्रोत्- धु( यु)-सत्-किरी-ट-शाणा-ग्रोत्- देवों के मुकुट रूपी कसौटी के अग्रभाग से ते जितानि-नखावलिः। ते जि-ताङ्-घ्रि-नखा-वलिः। चमकदार हो गयी हैं, जिनके चरण की नखून-पङ्क्तियाँ-ऐसे भगवान् सुमतिस्वामी, भग-वान् स-मति-स्वा-मी, भगवान् श्री सुमतिनाथ तुम्हारेतनोत्वभिमतानि वः ॥७॥ तनोत्-व-भिम-तानि-वः ॥७॥ मनोरथ पूर्ण करें।७. अर्थ : जिनके चरण की नखून-पक्तियाँ देवों के मुकुट रूपी कसौटी के अग्रभाग से चमकदार हो गयी हैं, वे भगवान् श्री सुमतिनाथ तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करें। ७. पद्मप्रभ-प्रभोर्देहपद्-म-प्रभ-प्रभोर-देह श्री पद्मप्रभ स्वामी के शरीर की भासः पुष्णन्तु वः श्रियम् । भासः पुष्-णन्-तु वः श्रियम् । कान्ति पोषण करें तुम्हारी लक्ष्मी को । अन्तरङ्गारि-मथने, अन्-त-रङ्-गारि-मथ-ने, अभ्यंतर शत्रुओ का हनन करने के लिए कोपाटोपादि-वारुणाः ॥८॥ कोपा-टोपा-दि वा-रुणाः ॥८॥ आवेश से मानो लाल रंग की हो गई हो। ८. अर्थ : आन्तरिक शत्रुओं का हनन करने के लिये क्रोध के आवेश से मानो लाल-रङ्ग की हो गयी हो, ऐसी श्री पद्मप्रभ-स्वामी के शरीर की कान्ति तुम्हारी आत्म-लक्ष्मी को पुष्ट करें। ८. श्रीसुपार्श्व जिनेन्द्राय, श्री-सुपार-श्व-जिनेन्-द्राय, श्री सुपार्श्वनाथ स्वामी कोमहेन्द्र-महिताङ्घये। महेन्-द्र-महिताङ्-घ्रये। महेन्द्रों से पूजित चरण वाले। नमश्चतुर्वर्ण-सङ्घ नमश्-चतुर्-वर-ण-सङ्-घ नमस्कार हो, चतुर्विधश्री संघ रुपी गगनाभोग-भास्वते ॥९॥ गग-ना-भोग-भास्-वते ॥९॥ आकाश-मण्डल में सूर्य समान । ९. अर्थ : चतुर्विधश्री सङ्ग रूपी आकाश मण्डल में सूर्य सदृश तथा महेन्द्रों से पूजित चरणवाले श्री सुपार्श्वनाथ भगवंत को। नमस्कार हो । ९. चन्द्रप्रभ-प्रभोश्चन्द्रचन्-द्र-प्रभ-प्रभोश्-चन्-द्र श्री चन्द्रप्रभ स्वामी की चन्द्रमरीचि-निचयोज्ज्वला । मरी-चि-निच-योज-ज्वला। किरणों के समूह जैसी श्वेतमूर्तिर्मूर्त-सितध्यानमूर्-तिर्-मूर्-त-सित-ध्यान प्रतिमा साक्षात् शुक्लध्यान से बनायी हो, ऐसी निर्मितेव श्रियेऽस्तु वः ॥१०॥ निर्-मि-तेव-श्रिये-स्तु वः ॥१०॥ ज्ञान रुपी लक्ष्मी करनेवाली हो तुम्हारे लिये । १०. अर्थ : चन्द्र-किरणों के समूह जैसी श्वेत और साक्षात् शुक्लध्यान से बनायी हो, ऐसी श्री चन्द्रप्रभस्वामी की शुक्लमूर्ति तुम्हारे लिये आत्म-लक्ष्मी की वृद्धि करनेवाली हो । १०. करामल कवद् विश्वं, करा-मल-क-वद्-विश-वम्, हाथ में स्थित आवले के समान जगत को कलयन् केवल श्रिया। कल-यन्-केव-ल-श्रिया। देख रहे है, केवलज्ञान रुपी लक्ष्मी से, अचिन्त्य-माहात्म्य-निधिः, अचिन्-त्य-माहात्-म्य-निधिः, अचिन्त्य महात्म्य के निधान, ऐसे सुविधि-र्बोधयेऽस्तुवः ॥११॥ सुवि-धिर-बोध-ये-ऽस्तु वः ॥११॥श्री सुविधिनाथ बोधि (सम्यकत्व) के लिए हो तुम्हारे।११. अर्थ : जो केवल ज्ञान की सम्पत्ति से सारे जगत को हाथ में स्थित आवले के समान देख रहे हैं तथा जो कल्पनातीत प्रभाव के भण्डार हैं, वे श्री सुविधिनाथ प्रभु तुम्हारे लिये सम्यक्त्व की प्रप्ति करानेवाले हो । ११. २४८ wwwjasurariage Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्वानां-परमानन्द सत्-त्वा-नाम्-पर-मा-नन्-द- प्राणियों के उत्कृष्ट आनंद के कन्दोभेद-नवाम्बुदः। कन्-दोद्-भेद-नवाम्-बुदः। अंकुर को प्रगट करने के लिए नवीन मेघ समान, स्याद्वादामृत-निस्यन्दी, स्याद्-वादा-मृत-नि-स्यन्-दी, स्याद्वाद रुप अमृत के झरणा समान, ऐसेशीतलः पातु वो जिनः ॥१२॥ शीत-ल:- पातु-वो जिनः ॥१२॥ श्री शीतलनाथ रक्षण करें तुम्हारी जिनेश्वर । १३. अर्थ : प्राणियों के परमानन्द रूपी कन्द को प्रकटित करने के लिये नवीन मेघ-स्वरूपी तथा स्याद्वाद रूपी अमृत के झरणा समान, ऐसे श्री शीतलनाथ जिनेश्वर तुम्हारी रक्षा करें। १२. भव-रोगाऽऽर्त्त-जन्तूना- भव-रो-गात्-त-जन्-तू-ना- संसाररुप रोग से पीडित प्राणियो के लिएमगदुङ्कार-दर्शनः। मग-दङ्-कार-दर्-शनः । वैद्य के दर्शन जैसा है; जिन्हो का दर्शन, निःश्रेयस-श्री-रमणः, निः श्रे-यस-श्री-रम-णः, |जो निःश्रेयस (= मोक्ष) रुपी लक्ष्मी के स्वामी है, श्रेयांसः श्रेयसेऽस्तु वः ॥१३॥ श्रेयान्-स:-श्रेय-से-स्तु वः ॥१३॥ श्री श्रेयांसनाथ जी कल्याण के लिये हो, तुम्हारे।१३. अर्थ : जिनका दर्शन भव-रोग से पीडित प्राणियो के लिये वैद्य के दर्शन जैसा है तथा जो निःश्रेयस-(मुक्ति) रूपी लक्ष्मी के पति हैं, वे श्री श्रेयांसनाथ तुम्हारे श्रेय-मुक्ति के लिये हों । १३. विश्वोपकारकी भूतविश्-वो-पका-र-की-भूत विश्व पर महान् उपकार करनेवाले, तीर्थकृत्-कर्म-निर्मितिः। तीर-थ-कृत्-कर-म-निर्-मितिः।। तीर्थंकर नाम कर्म की उपार्जना करनेवाले, सुरासुर-नरैः-पूज्यो, सुरा-सुर-नरैः-पूज-यो, देव-असुर और मनुष्यों द्वारा पूजनीय, ऐसे वासुपूज्यः पुनातु वः ॥१४॥ वासु-पूज-यः-पुना-तु वः ॥१४॥ श्री वासुपूज्य स्वामी पवित्र करें तुम्हें । १४. अर्थ : विश्व पर महान् उपकार करनेवाले, तीर्थङ्कर-नाम-कर्म को बाँधने-वाले तथा सुर, असुर और मनुष्यों द्वारा पूजनीय, ऐसे श्री वासुपूज्यस्वामी तुम्हे पवित्र करें ।१४. विमलस्वामिनो वाचः, विम-ल-स्वा-मिनो वाचः, श्री विमलनाथ जी की वाणी कत-कक्षो-दसो-दराः। कत-क-क्षो द-सोद-राः। | कतक-फल के चूर्ण जैसी, जयन्ति त्रिजगच्चेतो जयन्-ति त्रि जगच्-चेतो- जय को प्राप्त हो रही हैं, तीन जगत के चित्त रुपी जल-नैर्मल्य-हेतवः ॥१५॥ जल-नैर्मल्य-हेतवः ॥१५॥ पानी को स्वच्छ करने में कारण रुप । १५. अर्थ : त्रिभुवन में स्थित प्राणियों के चित्तरुपी जल को स्वच्छ करने में कारणरूप कतक-फल के चूर्ण जैसी श्री विमलनाथ प्रभु की वाणी जय को प्राप्त हो रही है। १५. स्वयम्भूर मण-स्पर्धि, स्व-यम्-भू-रम-ण-स्पर-धि, स्वयंभूरमण (अंतिम) समुद्र की स्पर्धा करनेवाले, करुणारस वारिणा। करु-णा-रस-वारि-णा। करुणा-रस रुपी जल सेअनन्त-जिदनन्तां वः,. अनन्-त-जिद-नन्-ताम् वः,. श्री अनंतनाथजी अनंत तुम्हारे लियेप्रयच्छतु सुख-श्रियम् ॥१६॥ प्र-यच-छतु सुख-श्रियम् ॥१६॥ प्रदान करें सुख रुपी लक्ष्मी को । १६. अर्थ : करुणा रूपी जल से स्वयंभूरमण समुद्री स्पर्धा करनेवाले श्री अनन्तनाथ भगवंत तुम्हारे लिये अनंत सुख रुपी लक्ष्मी प्रदान करें। १६. कल्पद्रुम-सधर्माण- कल्-प-द्रुम-सधर-माण- कल्पवृक्ष समानमिष्ट-प्राप्तौ शरीरिणाम्। मिष्-ट्-प्राप्-तौ शरी-रिणाम्। इच्छित अर्थ की प्राप्ति में प्राणियों कोचतुर्धा धर्म-देष्टारं, चतुर्-धा-धर्-म-देष्-टारम्, चार प्रकार(=दान, शील, तप, भाव) के धर्म के उपदेशक, धर्मनाथ मुपास्महे ॥१७॥ धर्-म-नाथ-मु-पास्-महे ॥१७॥ ऐसे श्री धर्मनाथजी की हम उपासना करते है। १७. अर्थ : प्राणियों का इच्छित फल प्राप्त कराने में कल्पवृक्ष-समान और चार प्रकार (= दान, शील, तप, भाव) के धर्म के उपदेशक, ऐसे श्री धर्मनाथ प्रभु की हम उपासना करते हैं । १७. सुधा-सोदर-वाग्-ज्योत्स्ना- सुधा-सो-दर-वाग्-ज्योत्-स्ना- अमृत समान वाणी रुप चंद्रिका द्वारा निर्मलीकृत-दिङ्मुखः। निर्-मली-कृत-दिङ्-मुखः। निर्मल किया है, दिशाओं के मुख भाग को जिन्होंने मृग-लक्ष्मा तमः शान्त्यै, मृग-लक्-षमा-तमः-शान्-त्यै, हरिण के लांछनवाले, अज्ञान की शान्ति के लिए शान्तिनाथ-जिनोऽस्तु वः ॥१८॥ शान्-ति-नाथ-जिनो-स्तु वः ॥१८॥ श्री शान्तिनाथ जिनेश्वर हों, तुम्हारे लिए । १८. अर्थ : अमृत तुल्य धर्म-देशना रुप चंद्रिका से दिशाओ के मुख को उज्ज्वल करनेवाले तथा हरिण के लाञ्छन को धारण करनेवाले ऐसे श्री शान्तिनाथ भगवंत तुम्हारे अज्ञान का निवारण करने के लिये हों । १८. २४९ Jain E internal Cor Private &P RENCE Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकुन्थुनाथो भगवान्, श्री-कुन्-थु-नाथो भग-वान्, श्री कुंथुनाथ भगवंतसनाथोऽतिशयर्द्धिभिः। सना-थो-तिश-य-धि-भिः। युक्त अतिशयों की ऋषि से, सुरासुर-नृ-नाथानासुरा-सुर-नृ-नाथा-ना | देव-असुर-मनुष्यों के स्वामियों के भी मेकनाथोऽस्तु वःश्रिये ॥१९॥ मेक-नाथोऽस्तु-वः-श्रिये ॥१९॥ अनन्य स्वामी ऐसे हो, तुम्हारी लक्ष्मी के लिए । १९. अर्थ : अतिशयों की ऋद्धि से युक्त और सुर, असुर तथा मनुष्यों के स्वामियों के भी अनन्यस्वामी, ऐसे श्री कुन्थुनाथ भगवंत तुम्हें आत्म-लक्ष्मी के लिये हों । १९. अरनाथस्तु भगवाअर-नाथ-स्तु भग-वान् श्री अरनाथ भगवंत चतुर्थार-नभो-रविः । चतुर्-थार-नभो-रविः। चौथा आरा रुपी गमन-मण्डल में सूर्य समान । चतुर्थ-पुरुषार्थ-श्री चतुर्-थ-पुरु-षार-थ-श्री चौथे पुरुषार्थ (मोक्ष) रुप लक्ष्मी का विलासं वितनोतु वः ॥२०॥ विला-सम्-वित-नोतु-वः ॥२०॥ विलास विस्तारित करनेवाले बनें तुम्हें । २०. अर्थ : चौथा आरा रुपी गगन मण्डल में सूर्य रूप श्री अरनाथ भगवंत तुम्हें, चौथे पुरुषार्थ (मोक्ष) रुप लक्ष्मी का विलास विस्तारित करनेवाले बनें । २०. सुरासुर-नराधीशसुरा-सुर-नरा-धीश सूरों-असुरों और मनुष्यों के अधिपति रुप (इन्द्र-चक्रवर्ती) मयूर-नव-वारिदम्। मयू-र-नव-वारि-दम्। मयूरो के लिए नवीन मेघ समान (तथा) कर्मद्रून्मूलने हस्ति- कर-म-द्रून्-मूल-ने हस्-ति कर्म रुपी वृक्ष को मूल से उखाडने के लिए ऐरावत मल्लं मल्लि-मभिष्टमः ॥२१॥ मल्-लम्- मल्-लि मभिष्-टुमः ॥२१॥ हाथी समान, ऐसे श्री मल्लिनाथजी की हम स्तुति करते हैं। २१. अथ : सुरों, असुरों और मनुष्यों के अधिपति-रूप (इन्द्र-चक्रवर्ती आदि) मयूरों के लिये नवीन मेघ-समान तथा कर्म रूपी वृक्ष को मूल से उखाडने के लिये ऐरावत हाथी-समान, ऐसे श्री मल्लिनाथ की हम स्तुति करते हैं । २१. जगन्महामोह-निद्राजगन्-महा-मोह-निद्-रा संसार के प्राणियों की मोह रुपी निद्रा उड़ाने के लिए प्रत्यूष-समयोपमम्। प्रत्-यू-ष-सम-यो-पमम् । प्रभात काल की उपमा वाले, ऐसे मुनिसुव्रत-नाथस्य, मुनि-सु-व्रत-नाथ-स्य, श्री मुनिसुव्रत स्वामी की देशना-वचनं-स्तुमः ॥२२॥ देश-ना-वच-नम् स्तु-मः ॥२२॥ देशना के वचन की हम स्तुति करते है। २२. अर्थ : संसार के प्राणियों की महामोह रूपी निद्रा को उड़ाने के लिये प्रातःकाल की उपमा जैसे श्री मुनिसुव्रत स्वामी की देशना के वचन की हम स्तुति करते हैं । २२. लुठन्तो नमतां मूर्ध्नि, लु-ठन्-तो-नम-ताम् मूर्-ध्-नि फडकती हुई नमस्कार करनेवालों के मस्तक पर निर्मलीकार-कारणम्। निर-मली-कार-कार-णम् । निर्मल करने के कारण-रुप वारिप्लवा इव नमः, वारिप-लवा इव नमः, जल के प्रवाह की तरह निर्मल ऐसी श्री नमिनाथजी पान्तु पाद-नखांशवः ॥२३॥पान्-तु-पाद-नखां (नखान्)शवः ॥२३॥रक्षण करो चरण के नाखून की किरणे । २३. अर्थ : नमस्कार करनेवालों के मस्तक पर फड़कती हुई और जल के प्रवाह की तरह निर्मल करने में कारणभूत, ऐसी श्री नमिनाथ प्रभु के चरणों के नखून की किरणें तुम्हारा रक्षण करें।२३. यदुवंश-समुद्रेन्दुः, यदु-वंश (वन्-श)-समु-न्-द्रेन्-दुः, यदुवंश रुप समुद्र में चन्द्र समान, कर्म-कक्ष-हुताशनः । कर-म-कक्-ष-हुता-शनः । कर्म रुप वन के लिए अग्नि समान, अरिष्टनेमि-भगवान्, अरिष्-ट-नेमिर्-भग-वान्, श्री अरिहंत नेमि भगवंतभूयाद् वोऽरिष्टनाशनः ॥२४॥ भू-याद्-वो-रिष्-ट-नाशनः ॥२४॥ हो, तुम्हारे उपद्रव को नाश करनेवाले । २४. अर्थ : यदुवंश रुपी समुद्र में चन्द्र-तथा कर्म रूपी वन को जलाने में अग्नि-समान श्रीअरिष्टनेमि भगवान् तुम्हारे अमङ्गल का नाश करनेवाले हों। २४. कमठे घरणेन्द्रे च, कम-ठे-घर-णेन्-द्रे-च, कमठ ( तापस ) असुर पर, धरणेन्द्र देव पर और स्वोचितं कर्म कुर्वति। स्वो-चितम् कर-म कर-वति। अपने लिए उचित कत्य करनेवाले प्रभुस्तुल्य-मनोवृत्तिः, प्रभुस्-तुल्-य-मनोवृत्-तिः, भगवंत समान मनोवृत्ति धारण करनेवाले, पार्श्वनाथः श्रियेऽस्तु वः ॥२५॥ पार्-श्व-नाथः श्रिये-स्तु-वः ॥२५॥ ऐसे श्री पार्श्वनाथजी लक्ष्मी के लिए हों, तुम्हारी । २५. अर्थ : अपने लिए उचित कृत्य करनेवाले कमठासुर और धरणेन्द्र पर समान भाव धारण करनेवाले ऐसे श्री पार्श्वनाथ प्रभु तुम्हारी आत्म-लक्ष्मी के लिये हों । २५. जल के प्रवकारण-रुप शवः ॥ २५ For P onte & Personal use only ow.janelegry.org Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमते वीरनाथाय, श्री-मते-वीर-नाथा-य, श्रीमान् श्री महावीर स्वामीजीसनाथायाद्-भूतश्रिया। सना-थायाद्-भूत-श्रिया। युक्त अलौकिक लक्ष्मी सेमहानन्द-सरो-राजमहा-नन्-द-सरो-राज महा आनंद रुपी सरोवर में राजहंस स्वरुप (समान) मरालायाहते नमः ॥२६॥ मरा-लायार-हते-नमः ॥२६॥ अरिहंत को नमस्कार हों । २६. अर्थ : परमानन्द रुपी सरोवर में राजहंस-स्वरूप (समान) तथा अलौकिक लक्ष्मी से युक्त ऐसे पूज्य श्री महावीर स्वामी को नमस्कार हो । २६. कृतापराधेऽपि जने, कृता-परा-धेपि जने, अपराध किये हुए मनुष्य ( देव-असर) पर भी कृपा-मन्थर-तारयोः। कृपा-मन्-थर-तार-योः । अनुकंपा से मन्द कनीकिका-वाले (और) ईषद्-बाष्पार्द्रयो-भद्रं, ईषद्-बाष्-पार्-द्र-योर-भद्रम्, कुछ अश्रु से भीगे हुए, कल्याण के लिए हों। श्री वीर-जिन-नेत्रयोः ॥२७॥ श्री-वीर-जिन-नेत्र-योः ॥२७॥ श्री महावीर स्वामीजी के दो नेत्रों का । २७ अर्थ : अपराध किये हुए मनुष्य पर भी अनुकम्पा से मन्द कनीकिका वाले और कुछ अश्रु से भीगे हुए श्रीमहावीर प्रभु के नेत्रों का कल्याण हों । २७. जयति विजितान्य-तेजाः, जय-ति-विजि-तान्-य-तेजाः, जीतने-वाले अन्य-तीर्थिकों के प्रभाव को सुरासुराधीश-सेवितः श्रीमान् । सुरा-सुरा-धीश सेवि-तः श्री-मान् । सुरेन्द्रों और असुरेन्द्रों से सेवित, केवलज्ञान रुपलक्ष्मी से युक्त विमलस्त्रास-विरहित- विम-लस्-त्रास-विर-हित- निर्मल (अठारह दोषो से रहित), भय से रहित, स्त्रिभुवन-चुडामणि- स्त्रि-भुव-न-चुडा-मणिर- त्रिभुवन के मुकुट मणि समान , भगवान् ॥२८॥ भग-वान् ॥२८॥ ऐसे अरिहंत भगवंत हैं । २८. अर्थ : अन्यतीर्थिकों के प्रभाव को जीतने वाले सुरेन्द्रो और असुरेन्द्रों से सेवित, केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी से युक्त, अठारह दोषो से रहित, सातों प्रकार के भय से मुक्त और त्रिभुवन के मुकुटमणि समान , ऐसे अरिहंत भगवंत जय को प्राप्त हो रहे हैं । २८ छंद : शार्दूल-विक्रीडित; राग : स्नातस्या प्रतिमस्य...(गाथा-१) वीरः सर्व-सुरासुरेन्द्र-महितो- वीर:-सर्-व-सुरा-सुरेन्-द्र-महि-तो- श्री वीर प्रभु सर्व सुरेन्द्रों और असुरेन्द्रों से पूजित, वीरं बुधाः संश्रिताः, वीरम् बुधाः सं( सम्) श्रिताः, श्री वीर प्रभु का पण्डितों ने अच्छी तरह से आश्रय लिया है, वीरेणाभिहतः स्वकर्म- वीरे-णा-भि-हतः-स्व-कर-म श्री वीरप्रभु द्वारा अपने कर्म समूह का नाश किया है, निचयो-वीराय नित्यं नमः। निच-यो-वीरा-य नित्-यम् नमः। (ऐसे ) श्री वीरप्रभु को प्रतिदिन नमस्कार हो । वीरात्तीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं- वीरात्-तीस्-थ-मिदम् प्रवृत्-त-मतु-लम्-श्री वीर प्रभु से यह अनुपम श्री संघ प्रवर्तित है, वीरस्य घोरं तपो, वी-रस्य-घोरम् तपो, श्री वीर प्रभु का तप बहुत उग्र है, वीरे श्री-धृति-कीर्ति- वीरे श्री-धृति-कीर-ति श्री वीर प्रभु में ज्ञान रुपी लक्ष्मी, धैर्य, कीर्तिकान्ति-निचयःकान्-ति-निच-यः और कान्ति का समूह विद्यमान हैं। श्रीवीर ! भद्रं दिश ॥२९॥ श्री-वीर! भद्रम् दिश ॥२९॥ (ऐसे) हे वीर प्रभु ! मेरा कल्याण करों । २९. अर्थ : श्री महावीर स्वामी सर्व सुरेन्द्रों और असुरेन्द्रों से पूजित हैं, पण्डितों ने श्री महावीरस्वामी का अच्छी प्रकार से आश्रय लिया है; श्री महावीरस्वामी द्वारा अपने कर्म-समूह का नाश किया हुआ हैं ; श्री महावीरस्वामी को प्रतिदिन नमस्कार हो, यह अनुपम चतुर्विघ श्री सङ्घ रूपी तीर्थ श्री महावीरस्वामी से प्रवर्तित है; श्री महावीरस्वामी का तप बहुत उग्र हैं। श्री महावीरस्वामी में ज्ञान रूपी लक्ष्मी, धैर्य, कीर्ति और कान्ति का समूह विद्यमान है, ऐसे श्री महावीरस्वामी मेरा कल्याण करें।२९. छंद :मालिनी; राग : सकल-कुशल-वल्ली... (चैत्यवंदन) अवनितल-गतानांअव-नि-तल-गता-नाम् पृथ्वी तल पर विद्यमान कृत्रिमा-कृत्रिमानां, कृत्रि-मा-कृत्रि-मानाम्, शाश्वत (और) अशाश्वत वरभवन-गतानांवर-भव-न-गता-नाम् श्रेष्ठ भवन में (भवनपति आदि में ) विद्यमान दिव्य-वैमानिकानाम्। दिव-य-वैमा-निका-नाम् । देवलोक संबन्धी वैमानिक में विद्यमान इह मनुज-कृतानांइह मनु-ज-कृता-नाम् मनुष्यलोक में मनुष्य द्वारा किये हुए, देवराजार्चितानां, देव-राजार-चिता-नाम्, देवों (तथा) राजाओं से एवं देवराज-इन्द्र से पूजित, जिनवर-भवनानां| जिन-वर-भव-ना-नाम् जिनेश्वरदेव के चैत्यों कोभावतोऽहंनमामि॥३०॥ भाव-तो-हम् नमा-मि॥३०॥ मैं भावपूर्वक नमन करता हूँ।३०. SMunshinenerarp५१ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ : श्री जिनेश्वरदेव के चैत्यों को मैं भावपूर्वक नमन करता हूँ कि जौ अशाश्वत और शाश्वत रूप में पृथ्वी तल पर भवनपतियों के श्रेष्ठ निवास स्थान पर विद्यमान है, इस मनुष्यलोक मे मनुष्य द्वारा कराये गए हैं और देवों तथा राजाओ से एवं देवराज-इन्द्र से पूजित हैं। ३०. छंद : अनुष्टप; राग : दर्शनं देव देवस्य.... (जिन-स्तुति) सर्वेषां वेधसामाद्यसर-वे-षाम् वेध-सामाद्-य सर्व ज्ञाताओ में प्रथम, मादिमं परमेष्ठिनाम्। मादि-मम्-पर-मेष्-ठि-नाम् । प्रथम परमेष्ठिओ में, देवाधिदेवं सर्वज्ञं, देवा-धि-देवम् सर्-व-ज्ञम् , । देवों के देव, सर्वज्ञ, श्री वीरं प्रणिदध्महे ॥३१॥ श्री-वीरम् प्रणि-दध्-महे ॥३१॥ श्री वीर प्रभु का हम ध्यान करते हैं । ३१. अर्थ : सर्व ज्ञाताओ में श्रेष्ठ, परमेष्ठियों में प्रथम स्थान पर बिराजित होने वाले, देवों के भी देव और सर्वज्ञ, ऐसे श्री महावीरस्वामीजी का हम ध्यान करते हैं। ३१. छंद : शार्दूल विक्रीडित; राग : स्नातस्या प्रतिमस्य (वीर प्रभु स्तुति) देवोऽनेक-भवार्जितोर्जित-महा- देवो-नेक-भ-वार्-जितोर-जित-महा- जो देव अनेक भवों में एकत्र किये हुए तीव्र महापाप-प्रदीपानलो, पाप-प्रदी-पा-नलो, पापों को दहन करने के लिये अग्नि-समान हैं, देवः-सिद्धि-वधू-विशाल-हृदया- देवः-सिद्-धि-वधू-विशा-ल-हृद-या- जो देव मुक्ति रुपी स्त्री के विशाल वक्षःस्थल को लङ्कार-हारोपमः। लङ्-कार-हारो-पमः। अलंकृत करने के लिए हार के समान हैं, देवोऽष्टादश-दोष-सिन्धुर घटा- देवोष्-टा-दश-दोष-सिन्-धुर-घटा- अठारह दूषण रुपी हाथियों के समूह को निर्भेद-पञ्चाननो, निर्-भेद-पञ्-(पन्)-चा-ननो, भेदन करने के लिए सिंह समान हैं, भव्यानां विदधातुभव-या-नाम्-विद-धातु भव्यभीवों को प्रदान करें वाञ्छित फलंवाञ्-(वान्) छित-फलम् इच्छित फलश्री वितरागो जिनः ॥३२॥ श्री-वित-रागो-जिनः ॥३२॥ वे श्री वीतराग जिनेश्वर देव । ३२. अर्थ : जो देव अनेक भवो में एकत्र किये हुए तीव्र महापापों को दहन करने के लिये अग्नि-समान है, जो देव मुक्ति रूपी स्त्री के विशाल वक्षःस्थल को अलङ्कृत करने के लिये हार के समान हैं, अठारह दूषण रूपी हाथियों के समूह को भेदन करने के लिये सिंह सदृश हैं, वे श्री वीतराग जिनेश्वरदेव भव्य-प्राणियों को इच्छित फल प्रदान करें। ३२. क्रीडित; राग : स्नातस्या प्रतिमस्य (गाथा-१-२) ख्यातोऽष्टापदपर्वतोख्या-तो-ष्टा-पद-पर-वतो- प्रसिद्ध अष्टापद पर्वतगजपदः सम्मेतशैलाभिधः, गज-पदः-सम्-मेत-शैला भिधः, गजपद पर्वत, सम्मेत शिखर नामक पर्वत, श्रीमान् रैवतकः प्रसिद्धमहिमा- श्री-मान रैव-त-कः प्रसिद्-ध-महि-मा- श्री गिरनार पर्वत, प्रगट महिमावंतशत्रुञ्जयो मण्डपः। शत्-रुञ्-(रुन्)-जयो-मण्-डपः । श्री शत्रुजय पर्वत, मांडव गढ, वैभारः कनकाचलोऽर्बुदगिरिः- वैभा-रः कन-का-चलोर-बुद-गिरिः- वैभारगिरि, सुवर्णगिरि, आबु पर्वत, श्री चित्रकूटादयश्री-चित्र-कूटा-दय श्री चित्रकुट (चितोड) विगेरे, स्तत्र श्रीऋषभादयो जिनवरा:- स्त-त्र श्री-ऋष-भा-दयो जिन-वरा:- वहाँ पर श्री ऋषभदेव आदि जिनेश्वर कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ॥३३॥ कुर्-वन्-तु वो-मङ्-ग-लम् ॥३३॥ करें तुम्हारा कल्याण । ३३. अथ : प्रसिद्ध अष्टापद पर्वत, गजापद अथवा दशार्णकूट पर्वत, सम्मेतशिखर, शोभावान् गिरनार-पर्वत, प्रसिद्ध महिमावाला शत्रुञ्जय गिरि, मांडवगढ, वैभारगिरि, कनकाचल (सुवर्णगिरि), आबूपर्वत, श्री चित्रकूट आदि तीर्थ हैं, वहाँ स्थित श्री ऋषभदेव आदि जिनेश्वर तुम्हारा कल्याण करें। ३३. उपयोग के अभाव से होते अशुद्ध उच्चार के सामने शुद्ध उच्चार अशुद्ध अशुद्ध शुद्ध सकलारत् सकलात् निर्मलीकारकारिणम् निर्मलीकारकारणम् आदिमं पृथवीनाथ आदिमं पृथिवीनाथ कमठेधरणेन्द्रेग्च कमठे धरणेन्द्रेच शाणाग्रोतेजितांघ्रि शाणामोत्तेजितांघ्रि बाष्पादयोभद्रं बाष्पाईयोर्भद्रं मूर्ति मूर्तिसितध्यान मूर्तिर्मूर्तसितध्यान विशालदया विशालहृदया ध्युत्किरीट घुसत्किरीट ५२० onal शुद्ध Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५. श्री संतिकरं स्तोत्र आदान नाम : श्री संतिकरं स्तोत्र विषय: गौण नाम : श्री शांतिनाथ स्तवन शासन रक्षक देवगाथा : १४ देवियों के स्मरण के पद : ५६ साथ श्री शांतिनाथजी प्रतिक्रमण के समय अपवादिक मुद्रा । संपदा : ५६ बोलने की मुद्रा। की भाववाही स्तवना। छंद :- गाहा; रागः जिणजम्मसमये मेरु सिहारे.... (स्नात्र पूजा) मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पदक्रमानुसारी अर्थ संतिकरं संतिजिणं, सन्-ति करम् सन्-ति-जिणम्, शान्ति करनेवाले, श्री शान्तिनाथजी का, जगसरणं जय-सिरीइ दायारं। जग-सरणम् -जय-सिरीइ-दाया-रम्।। जगत के शरण रुप, जय और श्री दातार, समरामि भत्त-पालगसमरा-मि भत्-त-पालग स्मरण करता हूँ। भक्तजनों के पालनहार, निव्वाणी-गरुड-कय-सेवं ॥१॥ निव्-वाणी-गरुड-कय-सेवम् ॥१॥ निर्वाणी देवी और गरुड़ यक्ष द्वारा सेवित ।१ अर्थ : जो शान्ति करनेवाले हैं, जगत के जीवों के लिये शरण-रूप हैं, जय और श्री देनेवाले हैं तथा भक्तजनों का पालन करनेवाले, निर्वाणी-देवी और गरुड़-यक्ष द्वारा सेवित हैं, ऐसे श्री शान्तिनाथ भगवंत का मैं स्मरण करता हूँ, ध्यान करता हूँ। १. ॐ स नमो विप्पोसहि- ॐ स-नमो विप्-पो-सहि ॐ कार सहित नमस्कार, विपुडौषधि लब्धि कोपत्ताणं संतिसामि-पायाणं। पत्-ताणम् सन्-ति-सामि-पाया-णम् । प्राप्त करनेवाले, श्री शान्तिनाथ जी पूज्य को, झाँ स्वाहा मंतेणं, झ्-रौम्-स्वाहा-मन्-तेणम्, झौं स्वाहा मन्त्र द्वारासव्वासिव-दुरिय-हरणाणं ॥२॥ सव्-वा-सिव-दुरिय-हरणा-णम् ॥२॥ सभी उपद्रव और पाप को हरण करनेवाले । २. ॐ संति-नमुक्कारो, ॐ सन्-ति-नमु-क्-कारो, ॐ कार सहित श्री शान्तिनाथ को किया हुआ नमस्कार, खेलोसहि-माइ-लद्धि पत्ताणं । खेलो-सहि-माइ-लद्-धि-पत्-ता-णम् । श्लेष्मौषधि आदि लब्धि प्राप्त करनेवाले को, सौ ह्रीं नमो सव्वोसहि- सौम्-ह-रीम् नमो सव्-वो-सहि- सौं ह्रीं नमः' सर्वौषधि लब्धिपत्ताणं च देइ सिरिं॥३॥ पत्-ताणम् च देइ सिरिम् ॥३॥ प्राप्त करनेवाले और देते है, द्रव्य और भाव लक्ष्मी ।३. अर्थ : विप्रुडौषधि, श्लेष्मौषधि, सर्वौषधि आदि लब्धियाँ प्राप्त करनेवाले, सर्व उपद्रव और पाप का हरण करनेवाले, ऐसे श्री शान्तिनाथ भगवंत को 'ॐ नमः', झौं स्वाहा' तथा 'सौं ह्रीं नमः' ऐसे मन्त्राक्षर-पूर्वक नमस्कार हो; ऐसा श्री शान्तिनाथ भगवंत को किया हुआ नमस्कार जय और श्री को देता हैं। २-३. Ft Personal use only we lainelibrary.org Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी-तिहुयण-सामिणिवाणी-तिहुयण-सामिणि सरस्वती, त्रिभुवन स्वामिनी देवी, सिरिदेवी-जक्खराय-गणिपिडगा। सिरिदेवी-जक्-ख राय गणि-पिडगा। श्री देवी, यक्षराज गणिपिटक, गह-दिसिपाल-सुरिंदा, गह-दिसि-पाल-सुरिन्-दा, ग्रहादि, दिक्पाल एवं देवेन्द्रसया वि रक्खंतु जिणभत्ते ॥४॥ सया वि रक्-खन्-तु जिण-भत्-ते ॥४॥ सदा ही जिनभक्तों की रक्षा करें। ४. अर्थ : सरस्वती, त्रिभुवन स्वामिनी देवी, श्रीदेवी, यक्षराज गणिपिटक, नवग्रहादि, दिक्पाल एवं देवेन्द्र सदा ही जिनभक्तों की रक्षा करें । ४. रक्खंतु मम रोहिणिरक्-खन्-तु मम रोहिणि रक्षण करें, मेरा, रोहिणीपन्नती वज्जसिंखला य सया। पन्-नती वज्-ज्-सिङ्-खला य सया। प्रज्ञप्ति, वजश्रृंखला और सदा के लिए, वज्जंकुसि चक्केसरिवज्-जङ्-कुसि चक्-केसरि वज्रांकुशी, चक्रेश्वरी, नरदत्ता-कालि-महाकाली ॥५॥ नर-दत्-ता कालि-महा-काली ॥५॥ पुरुषदत्ता, काली, महाकाली । ५. अर्थ : रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वज्रश्रृंखला, वज्रांकुशी, पुरुषदत्ता, काली, महाकाली, मेरा रक्षण करें । ५. गोरी तह गंधारी, गोरी तह गन्-धा-री, गौरी, गान्धारी, महजाला माणवी य वइट्टा । महजाला माणवी य वइ-रुट-टा । महाज्वाला, मानवी और वैरोट्या अच्छुत्ता माणसिआ, अच्-छुत्-ता माण सिआ, अच्छुसा, मानसी, महामाणसिआ उ देवीओ॥६॥ महा-माण-सिआ-उ-देवीओ ॥६॥ महामानसी, ये सालह विद्यादेवियाँ । ६. अर्थ : गौरी, गान्धारी, महाज्वाला, मानवी, वैरोट्या, अच्छुप्ता, मानसी, महामानसी, ये सोलह विद्यादेवियाँ मेरा रक्षण करें ६. जक्खा गोमुह-महजक्खजक्-खा गो-मुह-मह-जक्-ख यक्ष, गोमुख, महायक्ष, तिमुह-जक्खेस-तुंबरू कुसुमो। ति-मुह-जक्-खेस-तुम्-बरू कुसुमो। त्रिमुख, यक्षेश, तुम्बरु, कुसुम, मायंग-विजय-अजिआ, मायङ्-ग विजय अजिआ, मातङ्ग, विजय, अजित, बंभो मणुओ सुरकुमारो ॥७॥ बम्-भो मणु-ओ सुर-कुमारो ॥७॥ ब्रह्म, मनुज, सुरकुमार।७. अर्थ : गोमुख, महायक्ष, त्रिमुख, यक्षेश, तुम्बरु, कुसुम, मातङ्ग, विजय, अजित, ब्रह्म, मनुज, सुरकुमार ७. छम्मुह पायाल किन्नर, छम्-मुह पा-याल किन्-नर, षण्मुख, पाताल, किन्नर, गरुलो गंधव्व तह य जक्खिदो। गरु-लो गन्-धव्-व तह-य-जक्-खिन्-दो। गरुड, गन्धर्व, उसी तरह यक्षेन्द्र, कूबर-वरुणो भिउडी, कू-बर-वरु-णो भि-उडी, कुबेर, वरुण, भृकुटि, गोमेहो पास-मायंगा॥८॥ गो-मेहो पास-मायङ्-गा ॥८॥ गोमेघ, पार्श्व और मातंग । ८. अर्थ : षण्मुख, पाताल, किन्नर, गरुड, गन्धर्व, यक्षेन्द्र, कुबेर, वरुण, भृकुटि, गोमेध, पार्श्व, और मातङ्ग, ये चौबीस यक्ष । ८. देवीओ-चक्केसरि-अजिआ- देवी-ओ-चक्-केसरि-अजि-आ- देवियाँ चक्रेश्वरी, अजिता, दुरिआरि-कालि-महाकाली। दुरि-आरिकालि महा-काली। दुरितारि, काली, महाकाली, अच्चुअ-संता-जाला, अच्-चुअ-सन्-ता जाला, अच्युता,शान्ता, ज्वाला, सुतारया-सोय-सिरिवच्छा ॥९॥ सता-रया-सोय-सिरि-वच-छा ॥९॥ । सुतारका, अशोका, श्री वत्सा । ९. अर्थ : चक्रेश्वरी, अजिता, दुरितारि, काली, महाकाली, अच्युता, शान्ता, ज्लाला, सुतारका, अशोका, श्रीवत्सा देवियाँ । ९. २५४ R ucation Betairersonaleonly w.jaineHEIRVARSHA Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंडा विजयंकुसिपन्नइति निव्वाणिअच्चुआ धरणी । वइरुट्ट - छुत्त-गंधारि अंब - पउमावई - सिद्धा ॥१०॥ इअ तित्थ - रक्खण-रया, अन्ने विसुरासुरीय चउहा वि। वंतर - जोइणि-पमुहा, अम्-ब-प-मा-वई सिद्धा ॥१०॥ अर्थ : चण्डा, विजया, अङ्कुशा, पन्नगा, निर्वाणी अच्युता (बला), धारिणी, वैरोट्या, अच्छुप्ता, गान्धारी, अम्बा, पद्मावती और सिद्धायिका । १०. इअ-तित्-थ-रक् खण-र-या, अन्-ने-वि सुरा-सुरी य चउ-हा-वि । वन्-तर- जोड़ - णि-पमु-हा, तु खं या अहं ॥ ११ ॥ कु णन् तु रक् खम् सया अम्-हम् ॥११॥ करें रक्षण सदा हमारी । ११. अर्थ : ये शासनदेवियाँ चतुर्विधश्री संघ स्वरुप तीर्थ के रक्षण करने में तत्पर, अन्य चारों प्रकार की देव - देवियाँ तथा व्यन्तर, योगिनी आदि हमारी रक्षा करें। ११. इअ संतिनाह- सम्मदिट्ठिरक्खं सरइतिकालं जो । सव्वोवद्दव-रहिओ, स लहइ सुह-संपयं परमं ॥ १३ ॥ चण् डा विजयङ् - कुसिपन्-न-इ-ति-निव्-वाणिअच्-चुआ धरणी । वइ-रुट्-ट छुत्-त-गन्-धारि एवं सुदिट्ठि-सुरगण एवम्-सु-दिट्-ठि- सुर-गण इस प्रकार सम्यग्दृष्टि देवों के समूह सेसहिओ संघस्स संति - जिणचन्दो । सहिओ सङ्घस् - स सन्-ति- जिण चन्-दो । सहित श्री संघ की श्री शान्ति जिनचन्द्र मज्झवि करेड रक्खं, मज्-झ वि करे-उ रक्-खम्, मुणिसुन्दरसूरि-थुअ महिमा ॥१२॥ मुणि-सुन् दर - सूरि थुअ - महिमा ॥ १२ ॥ मेरा भी करें रक्षण श्री मुनिसुंदरसूरि ने, श्रुतकेवलीओं द्वारा स्तुत । १२. अर्थ : सम्यग्दृष्टि देवो के समूह सहित, मुनिओं में प्रधान, ऐसे श्रुतकेवलियों द्वारा स्तुत है महिमा जिनका, ऐसे श्री शान्तिजिनचन्द्र श्री संघ को और मेरा भी रक्षण करें । १२. अशुद्ध खेलोसईमाई पत्ताणं च देइ सिरि सों रीं उपयोग के अभाव से होते अशुद्ध उच्चार के सामने शुद्ध उच्चार शुद्ध महाज्वाला मणवी अ इह तित्थरक्खणरया व्यन्तर जोईणि पमुहा इह संति नाह सम्मदिट्ठि ecration ternational इअ सन्-ति-नाह-सम्-म-दि-ठिरक् खम् सर-इतिका- -लम् जो I सव्- वो-वद् - दव- रहिओ, स लह-इ सुह-सम् पयम् पर-मम् ॥१३॥ चण्डा, , विजया, अंकुशापन्नगा, ऐसे, निर्वाणीअच्युता (बला), धारिणी, वैरुट्या, अच्छुप्ता, गान्धारी, अम्बा, पद्मावती, सिद्धायिका । १०. खेलोसहिमाइ पत्ताणं च देइ सिरिं इस तरह चतुर्विध श्री संघ रुप तीर्थ की रक्षा में रत, दूसरे भी देव-देवियाँ चारों प्रकार के भी, व्यंतर देव, योगिनी प्रमुख महजाला माणवी अ इअ तित्थ - रक्खण-रया वंतर जोइणि पमुहा इअ संति नाह सम्मदिट्ठि honal Use Only इस प्रकार श्री शान्तिनाथ की, सम्यग्दृष्टि मनुष्य रक्षण को स्मरण करता है, तीनों कालसर्व उपद्रव से रहित होकर, वह प्राप्त करता है, सुख-संपदा उत्कृष्ट । १३. अर्थ : इस प्रकार जो सम्यग्दृष्टि मनुष्य शान्तिनाथ की रक्षा को तीनों काल स्मरण करता है, वह सर्व उपद्रवों से रहित होकर उत्कृष्ट सुखसम्पदा को प्राप्त करता है । १३. २५५ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ भगवान श्री शान्तिनाथ भगवान NE এক ঋত্রিয়ক্সিক্স आदान नाम : श्री अजित-शांति स्तव विषय: गौण नाम : श्री अजितनाथ शत्रुजय पर श्री अजितनाथ शांतिनाथ स्तवना तथा शांतिनाथ भगवान की प्रतिक्रमण के समय अपवादिक मुद्रा। गाथा :४० बोलने की मुद्रा। विविध छंदो में स्तवना। छंद : प्रत्येक गाथा में विविध छंदो का समावेश किया गया हैं। राग : शास्त्रीय रागज्ञ के पास जानें । मूल सुत्र उच्चारण में सहायक पद क्रमानुसारी अर्थ अजिअं जिअ-सव्व-भयं अजि-अम् जिअ-सव्-व-भयम्, श्री अजितनाथ को, समस्त भयों को जीतनेवाले, संतिं चसन्-तिम् च श्री शान्तिनाथ को तथा पसंत-सव्व-गय-पावं । पसन्-त-सव-व-गय-पावम् । सर्व रोगों और पापों का प्रशमन करनेवाले, जयगुरू संति -गुणकरे, जय-गुरू सन्-ति गुण-करे, जगत के गुरु और विघ्नों का उपशमन करनेवाले, दो वि जिणवरेदो-वि जिण-वरे इन दोनो ही जिनवरों कोपणिवयामि ॥१॥(गाहा) पणि-वया-मि ॥१॥(गाहा) मैं प्रणाम करता हूँ। १. अर्थ: समस्त भयों को जीतनेवाले श्रीअजितनाथ को तथा सर्व रोगों और पापों का प्रशमन करनेवाले श्री शान्तिनाथ को, इसी प्रकार जगत के गुरु और विघ्नों का उपशमन करनेवाले, इन दोनों ही जिनवरों को मैं प्रणाम करता हूँ। १. ववगय-मंगुल-भावे, वव-गय-मङ्-गुल-भावे, चला गया है झुठा भाव जिनमें से (= वीतराग), ते हं विउल-तवते-हम् विउ-ल-तव ऐसे दोनों जिनवरों की, निम्मल-सहावे। निम्-मल-सहा-वे। विपुल तप से निर्मल स्वभाव निरुवम-महप्पभावे, निरु-वम-महप-प-भा-वे, निरुपम और महान् प्रभाव हैं जिनका, थोसामिथोसा-मि स्तुति करता हूँ। सुदिट्ठ-सब्भावे ॥२॥ सु-दिट्-ठ-सब-भा-वे ॥२॥ भली-भांति जाना है (गाहा) (गाहा) विद्यमान भावो को जिन्होने । २. अर्थ : वीतराग, विपुल तप से आत्मा के अनन्तज्ञानादि निर्मल स्वरूप को प्राप्त करनेवाले, (चौतीस अतिशयों के कारण) अनुपम महाम्त्य-महाप्रभाव वाले और सर्वज्ञ-सर्वदर्शी (ऐसे) दोनों जिनवरो की मैं स्तुति करता हूँ। २. Ecucatiotestion F ata SOLE Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्व-दुक्ख-प्पसंतीणं, । सव-व-दुक्-खप्-प-सन्-तीणम्, सर्व दुःखों का प्रशमन करनेवाले, सव्व-पाव-प्पसंतीणं। सव्-व-पा-वप्-प-सन्-तीणम् । सर्व पापों का प्रशमन करनेवाले, सया अजिअ-संतीणं, सया अजि-अ-सन्-तीणम्, सदा पराभव नही पानेवाले, उपशांत हुए, नमो अजिअनमो अजि-अ (ऐसे) नमस्कार हो, श्री अजितनाथजीसंतीणं ॥३॥(सिलोगो) सन्-तीणम् ॥३॥(सिलोगो) और श्री शान्तिनाथजी को ।३. अर्थ : सर्व दुःखों का प्रशमन करनेवाले, सर्व पापों का प्रशमन करनेवाले, सदा पराभव नहीं पानेवाले और अखण्ड शान्ति धारण करनेवाले श्री अजितनाथ और श्री शान्तिनाथ को नमस्कार हो।३ अजिअजिण ! सुह-प्पवत्तणं, अजिअ-जिण ! सुहप्-पवत्-तणम्, हे अजित जिनेश्वर ! सुख का प्रवर्तन करनेवाले हैं, तव पुरिसुत्तम ! नाम-कित्तणं । तव पुरि-सुत्-तम ! नाम-कित्-तणम्। आपका है पुरुषोत्तम ! नाम-स्मरण, तह य धिड्-मइ-प्पवत्तणं, तह य धिइ-मइप्-पवत्-तणम्, तथा और स्थिरतावाली बुद्धि को देनेवाला है, तव य जिणुत्तम ! संति! तव य जिणुत-तम ! सन्-ति ! आपका भी हे जिनोत्तम ! श्री शान्तिनाथ जी! कित्तणं ॥४॥ (मागहिआ) कित्-तणम् ॥४॥ (मा-गहि-आ) का कीर्तन । ४. अर्थ : हे पुरुषोत्तम ! हे अजितनाथ ! आपका नाम-स्मरण (सर्व) शुभ (सुख) का प्रवर्तन करनेवाला हैं, वैसे ही स्थिर-बुद्धि को देनेवाला हैं। हे जिनोत्तम ! हे शान्तिनाथ ! आपका नाम स्मरण भी ऐसा ही है। ४. किरिआ-विहि-संचिअ- किरि-आ-विहि-सञ् (सन्)-चिअ- कायिकी आदि पच्चीस प्रकार की क्रिया से उपार्जित कम्म-किले-सवि-मुक्खयर, कम्-म-किले-स-वि-मुक्-ख-यरम्, कर्म क्लेश से सर्वथा छुडाने वाले, अजिअं निचिअंच गुणेहि- अजि-अम्-निचि-अम्-च गुणे-हिम्- किसी से भी अपराजित, परिपूर्ण गुणों के द्वारा महामुणि -सिद्धिगयं। महा-मुणि-सिद् धि-गयम् । महामुनि संबन्धी अणिमादि सिद्धिओं को प्राप्त, अजिअस्स य संतिअजि-अस्-स य सन्-ति श्री अजितनाथ को और श्री शान्तिनाथ महमुणिणो वि य संतिकरं, मह-मुणि-णो-वि-य सन्-ति-करम्, महामुनि को भी, शान्ति करानेवाले, सययं मम निव्वुइसय-यम् मम निव-वुइ सदा मुझे निवृत्ति (मोक्ष) का कारणयं च-नमंसणयं ॥५॥ कार-ण-यम् च-नमम्-सण-यम् ॥५॥ कारण बनो, और नमस्कार ।५. (आलिंगणयं) (आ-लिङ्-गण-यम्) अर्थ : कायिकी आदि पच्चीस प्रकार की क्रियाओं से अर्जित कर्म को सर्वथा छुड़ानेवाले, सम्यग्दर्शनादि, अपराजित गुणों से परिपूर्ण, महामुनियों की अणिमादि आठों सिद्धिया को प्राप्त करनेवाले और शान्ति करानेवाले ऐसे श्री शान्तिनाथ महामुनि को किया गया नमन, सदा मेरे मोक्ष का कारण बनो । ५. पुरिसा ! जइ दुक्ख-वारणं, पुरिसा ! - जइ दुक्-ख-वार-णम्, हे मनुष्यों ! यदि तुम दुःख का निवारणजइय विमग्गह सुक्ख कारणं । जइ-य विमग्-गह सुक्-ख-कार-णम्। जो और खोजते हो सुख-प्राप्ति का कारणअजिअं संतिं च भावओ, अजि-अम् सन्-तिम्-च भाव-ओ, श्री आदिनाथजी को और श्री शान्तिनाथजी को भाव से अभयकरे सरणंअभ-य-करे सर-णम् अभय को देनेवाले, शरण को पवज्जहा ॥६॥(मागहिआ) पवज्-जहा.॥६॥(माग-हिआ) अंगीकृत करो । ६. अर्थ : हे मनुष्यों ! यदि तुम दुःख निवारण का उपाय और सुख-प्राप्ति का उपाय खोजते हो, तो अभय को देनेवाले श्री अजितनाथ और शान्तिनाथ के शरण को भाव से अंगीकृत करों । ६. २५७ Private a Pers Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरइ-इ-तिमिर-विरहिय- अर-इ-तिमिर-विरहिय अरति, रति और अज्ञान से रहित, मुवरय-जर-मरणं, मुवरय-जर-मरणम्, (जन्म) जरा और मृत्यु से निवृत, सुर-असुर-गरुल-भुय-गवइ-सुर-असुर-गरुल-भुय-गवइ सुर, असुर, नागकुमार आदि इन्द्रों से पयय-पणिवइयं । पयय-पणि-वइयम्। अच्छी तरह नमस्कार किये हुए, अजिअ -महमवि य- अजिअ-मह-मवि य श्री अजितनाथजी को मैं भीसुनय-नय-निउण-मभयकर, सुनय-नय-निउण मभय-करम्, सुनयों को प्रतिपादन करने में अतिकुशल, अभयदाता सरण-मुवसरियसरण-मुवस-रिय शरण पाकर, भुवि-दिविज-महिअं- भुवि-दिविज-महियम् मनुष्यों और देवों से पूजित सययमुवणमे॥७॥(संगययं) सयय-मुव-णमे॥७॥(सङ्-ग-गयम्) निरंतरसमीप स्थित मैं नमन करता हूँ।७. अर्थ : अरति, रति और अज्ञान से रहित, (जन्म), जरा और मृत्यु से निवृत्त; देव, असुरकुमार, नागकुमार आदि के इन्द्रों से अच्छी तरह नमस्कार किये हुए; सुनयों का प्रतिपादन करने में अतिकुशल; अभयदाता तथा मनुष्य और देवों से पूजित ऐसे श्री अजितनाथ की शरण पाकर निरंतर समीप स्थित मैं नमन करता हू । ७. तं च जिणुत्तम-मुत्तम तम्-च जिणुत्-तम-मुत्-तम- | उनको और सामान्य केवली मैं उत्तम, श्रेष्ठ, नित्तम-सत्त-धरं, नित् तम-सत्-त-धरम्, और निर्दोष सत्व को धारण करनेवाले अज्जव-मद्दव-खंति- अज्-जव-मद्-दव-खन्-ति सरलता, मृदुता, क्षमा और विमुत्ति-समाहि-निहिं। विमुत्-ति--समा-हि-निहिम्। निर्लोभता द्वारा समाधि के भण्डार संतिकरं पणमामिसन्-ति-करम् पण-मामि शान्ति करनेवाले, प्रणाम करता हु, दमुत्तम-तित्थयरं, दमुत्-तम-तित्-थ-यरं, इन्द्रियों के दमन द्वारा उत्तम, ऐसे तीर्थ को करनेवाले संतिमुणी ! मम संति- सन्-ति-मुणी! मम सन्-ति (ऐसे) श्री शान्तिनाथ मुनि! मुझे शान्ति द्वारा समाहि-वरं दिसउ॥८॥ समा-हि-वरम् दिस-उ॥८॥ समाधि का वरदान दो। ८. (सोवाणयं) (सोवा-णयम्) अर्थ : सामान्य केवली में उत्तम, श्रेष्ठ और निर्दोष सत्व को धारण करनेवाले; सरलता, मृदुता, क्षमा और निर्लोभता द्वारा समाधि के भण्डार; शान्ति करनेवाले; इन्द्रिय-दमन द्वारा उत्तम तीर्थ को करनेवाले, ऐसे प्रभु शान्तिनाथजी को मैं प्रणाम करता हूँ। वे मुझे शान्ति द्वारा समाधि का वरदान दें।८. सावत्थि-पुव्व-पत्थिवं च सावत्-थि-पु-व-प-त्-थि-वम् च- श्रावस्ती नगरी की प्राचीन काल की (अयोध्या के वरहत्थि-मत्थय-पसत्थ- वर-हत्-थि मत्-थय-पसत्-थ- जो राजा थे) (ऐसे) और शरीर की आकृति जिनकी श्रेष्ठ हाथी के मस्तक समान प्रशस्त (प्रशंसा करने योग्य) विच्छिन्न-संथियं, विच-छिन्-न-सन्-थियम्, और विस्तीर्ण हैं संस्थान, थिर-सरिच्छ-वच्छंथिर-सरिच-छ-वच्-छम् स्थिर श्री वत्स वाला हृदय है जिनका, मयगल-लीलायमाण- मय-गल-लीला-य-माण मद द्वारा उन्दत्त और लीला युक्त वरगंधहत्थि-पत्थाण वर-गन्-ध-हत्-थि-पत्-थाण- श्रेष्ठ गंध हस्ति (हाथी) के गमन जैसीपत्थियं संथ वारिहं। पत्-थि-यम् सन्-थ-वारि-हम् । चाल (गति )है जिनकी, स्तुति करने योग्य, हत्थि-हत्थ-बाहुंहत्-थि-हत्-थ-बाहुम् हाथी की सूंढ के समान भूजाए हैं जिनकी, धंत-कणग-रुअग निरु- धन्-त-कण-ग-रुअ-ग-निरु- तपाए हुए सुवर्ण की कान्ति जैसा शरीर का वहय-पिंजरंवह-य-पिञ् (पन्)-जरम् वर्ण स्वच्छ पीत वर्ण है, जिनकापवर-लक्खणो-वचिय पव-र-लक्-खणो-व चि-य- श्रेष्ठ लक्षणों द्वारा व्याप्त सोमचारु-रुवं, सोम-चारु-रुवम्, सौम्य और सुंदर रुप हैं, जिनकासुइ-सुह-मणाभिराम-परम- । सुइ-सुह-मणा-भि-राम-पर-म- कानों को प्रिय (और) मन को आनंददायकरमणिञ्ज-वर-देव-दुंदुहि- रम-णिज्-ज-वर-देव-दुन्-दुहि- अति रमणीय और श्रेष्ठ ऐसे देव दुंदुभि केनिनाय-महुरयर सुहनिना-य-महु-र-यर -सहु नाद से भी अति मधुर और कल्याणकारी है गिरं ॥९॥(वेड्ढओ) गिरम् ॥९॥(वेड्-ढओ) वाणी जिनकी। ९. अजियं जियारिगणं, अजि-यम् जिया-रि-गणम्, श्री अजितनाथ शत्रुओं पर विजय प्राप्त करनेवाले, जिय-सव्व-भयं भवो-हरिउं। जिय-सव-व-भयम्-भवो-ह-रिउम्। सर्व भयों को जीतनेवाले, भव परंपरा के प्रबल शत्र, पणमामि अहं पयओ, पण-मामि अहम् पय-ओ, प्रणाम करता हूँ मैं, आदर के साथ, पावं पसमेउ मे भयवं ॥१०॥ पावम् पस-मेउ मे भय-वम् ॥१०॥ पाप को शान्त करें मेरे भगवान । १०. (रासालुद्धओ) (रासा-लुद्-धओ) २५CEducation international AFor Private sPemgnal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ : जो दीक्षा से पूर्व श्रावस्ती (अयोध्या ) के राजा थे, जिनका संस्थान श्रेष्ठ हाथी के कुम्भस्थल जैसा प्रशस्त और विस्तीर्ण था, जो निश्चल और अविषम वक्षःस्थल वाले थे (जिनके वक्षःस्थल पर निश्चल श्रीवत्स था), जिनकी चाल मद झरते हुए और लीला से चलते हुए, श्रेष्ठ गन्धहस्ति जैसी मनोहर थी, जो सर्व प्रकार से प्रशंसा के योग्य थे, जिनकी भुजाएँ हाथी की सूढ के समान दीर्ध और मजबूत थी, जिनके शरीर का वर्ण तपाये हुए सुवर्ण की कान्ति जैसा स्वच्छ पीला था, जो लक्षणों से युक्त, शान्त और मनोहर रुपवाले थे, जिनकी वाणी कानों को प्रिय, सुखकारक, मन को आनन्द देनेवाली, अतिरमणीय और श्रेष्ठ ऐसे देवदुन्दुभि के नाद से भी अतिमधुर और मङ्गलमय थी, जो अन्तर के शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाले थे, जो सर्व भयों को जीतने वाले थे, जो भव-परम्परा के प्रबल शत्रु थे, ऐसे श्री अजितनाथ भगवान को मैं मन, वचन और काया के प्रणिधानपूर्वक नमस्कार करता हूँ और निवेदन करता हूँ कि 'हे भगवन् ! आप मेरे अशुभ कर्मो का प्रशमन करो । ९-१०. कुरु-जणवय-हत्थिणाउर- कुरु-जण-वय-हत्-थिणा-उर- कुरुदेश के हस्तिनापुर नगरी के नरीसरो पढमं, तओ नरी-सरो-पढ-मम्, तओ राजा प्रथम, उसके बाद महाचक्कवट्टि-भोए महा-चक्-क-वट्-टि-भोए महा चक्रवर्ती के राज्य को भोगनेवाले, महप्पभावो। महप-पभा-वो। बहुत प्रभाव है जिनका, जो बावत्तरि-पुरवर-सहस्स-वर- जो बावत्-तरि-पुर-वर-सहस्-स-वर- जो बहतर, शहर मुख्य, हजार, प्रधान, नगर-निगम-जणवय-वई- नगर-निग-म-जण-वय-वई नगर, निगम, और देश के स्वामी, बत्तीसा-रायवर-सहस्साणु- बत्-तीसा-राय-वर-सहस्-साणु- बत्तीस हजार भूप (राजा) अनुसरण करते याय-मग्गो। याय-मग्-गो। मार्ग कोचउदस-वर-रयणचउ-दस-वर-रय-ण चौदह श्रेष्ठ रत्नों, नव-महानिहिनव-महा-निहि नौ महान् निधि, चउसट्ठि-सहस्स-पवर चउ-सट्-ठि-सहस्-स-पव-र- चौसठ हजार सुंदरजुवईण-सुन्दरवई, चुलसी-हय- जुव-ईण-सुन्-दर-वई, चुल-सी-हय- स्त्रियों के स्वामी, चौरासी घोड़े गय-रह-सय-सहस्स-सामी- गय-रह-सय सहस्-स-सामी- हाथी, रथ, लाख के स्वामी, छन्नवई-गाम-कोडि-सामी, छन्-न-वई गाम-कोडि सामी- छियानवे गाँव क्रोड के स्वामी, आसी-जो भारहम्मि भयवं ॥११॥ आसी-जो-भार-हम्-मि भय-वम् ॥११॥ जो भरत क्षेत्र में भगवान्।११. (वेड्ढओ) तं संतिं संतिकरं, (वेड्-ढओ) तम् सन्-तिम् सन्-ति करम् वह उपशांत रुप, शान्ति को करनेवाले, संतिण्णं सव्वभया। सन्-तिण-णम् सव्-व-भया। शान्त हुए सर्व भयों से अच्छी तरह, संतिं थुणामि जिणं, सन्-तिम् थुणा-मि जिणम्, श्री शान्तिनाथजी की स्तवना करता हूँ, जिनेश्वर को संतिं (च) विहेउं मे ॥१२॥ सन्-तिम् (च) विहे-उम् मे ॥१२॥ शान्ति करने के लिए मेरे लिए।१२. (रासा-नंदिअयं) (रासा-नन्-दि-अ-यम्) अर्थ : जो भगवान् प्रथम भरतक्षेत्र में कुरुदेश के हस्तिनापुर के राजा थे और तदनन्तर महाचक्रवर्ती के राज्य को भोगने वाले, महान् प्रभाववाले, तथा बहत्तर हजार मुख्य शहर और हजारों नगर तथा निगम वाले देश के अधिपति बने; जिनके मार्ग का बत्तीस हजार उत्तम भूप (= राजा) अनुसरण करते और जो चौदह श्रेष्ठ रत्नों, नौ महानिधियों, चौंसठ हजार सुन्दर स्त्रियों के स्वामी बने तथा चौरासी लाख घोडे, चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख रथ और छियानवे करोड गांवों के अधिपति बने तथा जो मूर्तिमान् उपशम जैसे शान्ति करनेवाले, सर्व भयों से अच्छी तरह शान्त हुए और रागादि शत्रुओं को जीतनेवाले, उन श्री शान्तिनाथ भगवान की मैं शान्ति के निमित्त स्तुति करता हूँ।११-१२. इक्खाग ! विदेह-नरीसर !- इक्-खाग ! विदे-ह-नरी-सर !- हे ईक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न ! हे विदेह देश के राजा ! नर-वसहा ! मुणि-वसहा !, नर-वस-हा ! मुंणि वस-हा!, हे मनुष्यो में श्रेष्ठ ! हे मुनियों में श्रेष्ठ ! नव-सारय-रसि-सकलाणण!-नव-सार-य-रसि-सक-ला-णण! हे शरदऋतु के नवीन चन्द्र जैसे कलापूर्ण मुखवाले विगय-तमा ! विहुय-रया !। । विग-य-तमा ! विहु-यर-या!। हे अज्ञान रहित ! हे कर्म रहित ! अजि-उत्तम-तेअअजि-उत्-तम-तेअ हे अजितनाथ ! अति उत्तम तेजवालेगुणेहिं महामुणि!गुणे-हिम् महा-मुणि! गुणों द्वारा महामुनि! अमिअ-बला ! विउल-कुला! | अमि-अब-ला! विउ-ल-कुला! हे अपरिमित (=अनंत )बल वाले ! हे विशाल कुलवाले! Jain Education For Private &Parsampurn only ney२५९ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणमामि ते भव-भय-मरण!- पण-मामि ते भव-भय-मूर-ण!- प्रणाम करता हूँ, आपको हेभव के भय को नष्ट करनेवाले! जग-सरणा! मम सरणं॥१३॥ जग-सर-णा!मम-सरणं ॥१३॥ जगत केजीवों केशरणरुपमेरेशरणभूत हों।१३. (चित्त-लेहा) (चित्-त-लेहा) अर्थ : हे ईक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न ! हे विदेह देश के राजा ! हे नरेश्वर ! हे मुनियों में श्रेष्ठ ! हे शरऋति के नवीन चन्द्र जैसे कलापूर्ण मुखवाले ! हे अज्ञान-रहित ! हे कर्मरज-रहित ! हे उत्तम तेजवाले महामुनि ! हे अपरिमित बलवाले ! हे विशाल-गुणो से कुलवाले ! हे भव का भय नष्ट करनेवाले ! हे जगत के जीवों को शरण देनेवाले श्री अजितनाथ प्रभु ! मैं आपको प्रणाम करता हूं; आप मुझे शरणभूत हों । १३. देव-दाण-विंद-चंद-सूर-वंद !- देव-दाण-विन्-द-चन्-द-सूर-वन्-द! हे देव और दानव इन्द्र ! चंद्र और सूर्य के द्वारा वंदनीय ! हट्ठ-तुट्ठ! जिट्ठ! परम- हट्-ठ-तुट-ठ!जिट्-ठ! पर-म- हे आरोग्यवंत, प्रीतिवंत, प्रशस्य ! और अत्यंतलट्ठ-रूव!धंत-रूप्प-पट्ट- लट्-ठ-रूव ! धन्-त-रूप-प-पट-ट- कान्ति युक्त रुपवाले ! हे तपायी हुई चांदी की पट्टीयों सेय-सुद्ध-निद्ध-धवल!, सेय-सुद्-ध निद्-ध-धव-ल!, जैसी उत्तम-निर्मल-चमकदार और श्वेत दंत-पंति ! संति !दन्-त-पन्-ति ! सन्-ति! दंतपंक्ति वाले ! हे शान्तिनाथजी! सत्ति-कित्ति-(दित्ति)-मुत्ति- सत्-ति-कित्-ति-(दित्-ति)-मुत्-ति- हे शक्ति, कीर्ति, निर्लोभता, जुत्ति-गुत्ति-पवर!, जुत्-ति-गुत्-ति-पव-र!, युक्ति (न्याय युक्त वचन) और गुप्ति द्वारा श्रेष्ठ! दित्त-तेअ-वंद धेअ!- दित्-त-तेअ-वन्-द-धेअ! हे देदीप्यमान तेज के समूहवाले, ध्यान करने योग्य सव्व-लोअ-भाविसव्-व-लोअ-भावि सर्व लोगों ने जाना है अप्पभाव ! णेय !अप्-पभा-व! णेय ! प्रभाव जिनका, हे जानने योग्य, पइस मे समाहिं ॥१४॥ पइ-स मे समा-हिम् ॥१४॥ प्रदान करें मुझे समाधि। १४. (नारायओ) (नारा-यओ) अर्थ : हे देवेन्द्र, दानवेन्द्र, चन्द्र तथा सूर्य द्वारा वन्दन करने योग्य ! आरोग्य वंत ! प्रीतिवंत ! और प्रशंसनीय ! हे अत्यन्त कान्ति युक्त सुन्दर रूपवाले ! हे तपायी हुई चांदी जैसी उत्तम, निर्मल, चमकदार और धवल दन्त-पंक्तिवाले ! हे शक्तिमान ! हे कीर्तिशाली ! हे अत्यन्त तेजोमय ! हे मुक्तिमार्ग को बतलाने में श्रेष्ठ ! (अथवा हे परम त्यागी) हे युक्ति-युक्त-वचन बोलने में उत्तम ! हे गुप्ति द्वारा श्रेष्ठ ! हे देव-समूह से भी ध्यान करने योग्य ! हे समस्त विश्व में प्रकटित प्रभाववाले और जानने योग्य हे श्री शान्तिनाथ भगवान् ! मुझे समाधि प्रदान करें।१४. विमल-ससि-कलाइ-रेअ-सोमं, विम-ल-ससि-कला-इ-रेअ-सोमम्, निर्मल चन्द्रकला से भी अधिक सौम्य, वितिमिर-सूर-कराइ-रेअ-ते। विति-मिर-सूर-करा-इ-रेअ-तेअम्। आवरण रहित सूर्य किरणों से भी अधिक तेजवाले, तिअस-वइ-गणाइ-रेअ-रुवं, तिअ-स-वइ-गणा-इ-रेअ-रुवम्, इन्द्रों के समूह से भी अधिक रुपवान, धरणि-धरप्पव-राइधर-णि-धरप्-पव-राइ मेरु पर्वत से भी अधिकरेअ-सारं ॥१५॥(कुसुमलया) रेअ-सारम् ॥१५॥ (कुसुम-लया) दृढता वाले । १५. सत्ते असया अजिअं, सत्-ते असया अजि-अम्, निरन्तर आत्म-बल में अजित, सारीरे अ बले अजिअं। सारी-रे अ बले-अजि-अम् । शारीरिक बल में भी अजित, तव-संजमे अ अजिअं, तव-सञ्-(सन्)-जमे अ अजि-अम्, तप-संयम में भी अजित, एस थुणामि जिणंएस-थुणा-मि जिणम् ऐसे स्तुति करता हूँ, जिनेश्वरअजिअं॥१६॥ अजि-अम् ॥१६॥ श्री अजितनाथजी की।१६. (भूअग परिरिंगियं) (भुअग-परि-रिङ्-गियम्) अर्थ : निर्मल-चन्द्रकला से अधिक सौम्य, आवरण-रहित सूर्य की किरणों से भी अधिक तेज-वाले, इन्द्रों के समूह से भी अधिक रूपवान्, मेरू-पर्वत से भी अधिक दृढता वाले तथा निरन्तर आत्म-बल में अजित, शारीरिक बल में भी अजित और तप-संयम में भी अजित, ऐसे श्री अजित जिनेश्वर की मैं स्तुति करता हूँ। १५-१६. २३Rducation international malibrary.orgs Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोम-गुणेहिं पावइ नसोम-गुणे-हिम् पाव-इन सौम्य गुण द्वारा बराबरी नहीं कर सकतातं नव-सरय-ससी, तम् नव-सर-य-ससी, उनकी नया शरद् ऋतु का चन्द्र, तेअ-गुणेहिं पावइ नतेअ-गुणे-हिम् पाव-इन तेज गुण द्वारा बराबरी नहीं कर सकता, तं नव-सरय-रवी। तम् नव-सर-य-रवी। उनको नया शरद् ऋतु का सूर्य, रूव-गुणेहि पावइ नरूव-गुणे-हिम् पाव-इन रुप गुण द्वारा बराबरी नही कर सकता तं तिअस-गण-वइ, तम्-तिअ-स-गण-वइ, उनकी इन्द्रसार-गुणेहिं पावइ नसार-गुणे-हिम् पाव-इन दृढता गुणद्वारा जिनकी बराबरी नही कर सकता तं धरणि-धर-वई॥१७॥ तम्-धर-णि-धर-वई ॥१७॥ उनकी मेरु पर्वत । १७. (खिज्जिअयं) (खिज्-जिअ-यम्) तित्थवर-पवत्तयंतित्-थ-वर-पवत्-तयम् श्रेष्ठ तीर्थ के प्रवर्तक, तम-रय-रहियं, तम-रय-रहि-यम्, मोह आदि कर्म रुपी रज से रहित, धीर-जण-थुअच्चियंधीर-जण-थुअच्-चियम् धीर (प्राज्ञ ) पुरुषो के द्वारा स्तुत और पूजित, चुअ-कलि-कलुसं। चुअ-कलि-कलु-सम्। दूर किया है वैर और मलिनता जिन्होंने, संति-सुह-प्पवत्तयंसन्-ति-सुहप्-पवत्-तयम् शान्ति और सुख (मोक्ष) के प्रवर्तक, तिगरण-पयओ, तिग-रण-पय-ओ, तीन करणों से युक्त व सावधान, ऐसा मैं संतिमहं महामुणि सन्-ति-महम् महा-मु-णिम्- श्री शान्तिनाथजी महामुनि की सरण मुवणमे ॥१८॥ सर-ण-मुव-णमे ॥१८॥ शरण में जाता हू। १८. (ललिअयं) (ललि-अ-यम्) अर्थ : शरदऋतु का पूर्णचन्द्र आह्लादकता आदि गुणों से जिनकी बराबरी नहीं कर सकता, शरदऋतु का पूर्ण किरणों से प्रकाशित सूर्य तेज आदि गुणों से जिनकी बराबरी नहीं कर सकता, इन्द्र रूप आदि गुणों से जिनकी बराबरी नहीं कर सकता, मेरु-पर्वत दृढता आदि गुणों से जिनकी बराबरी नहीं कर सकता । जो श्रेष्ठ तीर्थ के प्रवर्तक हैं, मोहनीय आदि कर्म रज से रहित हैं, प्राज्ञ पुरुषों से स्तुत और पूजित हैं, जो वैर की कालिमा से रहित हैं, जो शान्ति और सुख (मोक्ष) के प्रवर्तक हैं, ऐसे महामुनि श्री शान्तिनाथ की शरण में मैं मन, वचन और काया के प्रणिधान-पूर्वक जाता हूँ। १७-१८. विणओणय-सिरविण-ओ-णय-सिर विनय द्वारा झुके हए, मस्तक पर -अंजलिइ-अञ् (अन्)-जलि रची है अंजलि जिन्होंने ( ऐसे) रिसिगण-संथुअंथिमियं, रिसि-गण-सन्-थुअम्-थिमि-यम्, ऋषिओं के समूह से स्तुत, निश्चल, विबुहाहिव-धणवइ-नरवइ- विबु-हा हिव-धण-वइ-नर-वइ इन्द्र, कुबेर, चक्रवर्ती राजा स्तवितथुअ-महिअच्चिअं बहुसो। थुअ-महि-अच्-चि-अम्- बहु-सो। वंदित, पूजित, बहुत बार, अइरुग्गय-सरय-दिवायर- अइ-रुग्-गय-सर-य-दिवा-यर तत्काल उदित शरद् ऋतु के सुर्य की समहिय-सप्पभं तवसा, समहि-य-सप्-प-भम्-त-वसा, प्रभा से अधिक कांतिवाले, तप द्वारा गयणं-गण-वियरण-समुइय- गय-णम्-गण-विय-रण-समु-इय- आकाश मार्ग में विहरते और एकत्रित हुए ऐसे चारण-वंदियं सिरसा ॥१९॥ चार-ण-वन्-दियम्-सिर-सा ॥१९॥ चारण मुनिओं के द्वारा वंदित मस्तक से । १९. (किसलयमाला) (किस-लय-माला) असुर-गरुल-परिवंदिअं, असु-र-गरु-ल-परि-वन्-दि-अम्, असुर-सुवर्ण आदि भवनपति देवों के द्वारा समस्त प्रकार से वंदित, किन्नरो-रंग-नमंसियं। किन्-न-रो-र-ग-नमम्-सियम्। किन्नर-महोरग व्यंतर देव से नमस्कृत, देव-कोडि-सय-संथुअं, देव-कोडि-सय-सन्-थुअम्, सैकडों करोड़ वैमानिक देवों के द्वारा स्तवित, समण-संघ-परिवंदिअं॥२०॥ सम-ण-सङ-घ-परि-वन्-दि-अम् ॥२०॥ श्रमण संघ द्वारा समस्त प्रकार से वंदित । २० (सुमुहं) (सुमु-हम्) अभयं अणहं, अ-भयम् अण-हम्, भय रहित, पाप रहित, अरयं अरु । अर-यम्-अरु-अम्। आसक्ति रहित, रोग रहित, अजिअं अजिअं, अजि-अम्-अजि-अम्, अपराजित ऐसे श्री अजितनाथजी को पयओ पणमे ॥२१॥ पय-ओ पण-मे ॥२१॥ आदर पूर्वक प्रणाम करता हूँ। २१. (विज्जु विलसिअं) (विज्-जु-विल-सिअम्) metucatioinden ६.४ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ : निश्चलता-पूर्वक भक्ति (=विनय) से झुके हुए तथा मस्तक पर दोनों हाथ जोड़े हुए ऐसे ऋषियों के समूह से अच्छी तरह स्तुति किये गये; इन्द्र-कुबेरादि लोकदिक्पाल और चक्रवर्तियों से अनेक बार स्तुत, वन्दित और पूजित; तप से तत्काल उदित शरदऋतु के सूर्य से भी अत्यधिक कान्तिवाले, आकाश में विचरण करते करते एकत्रित हुए चारण मुनियों से मस्तक के द्वारा वन्दित, असुरकुमार, सुवर्णकुमार आदि भवनपति देवों के द्वारा उत्कृष्ट प्रणाम किये हुए, किन्नर और महोरग आदि व्यन्तर देवों से पूजित; शत-कोटि वैमानिक देवों से स्तुति किये हुए, श्रमणप्रधान चतुर्विधसङ्घ द्वारा विधि-पूर्वक वन्दित, भयरहित, पाप-रहित, कर्म-रहित, रोग-रहित और किसी से भी पराजित नहीं होने वाले देवाधिदेव श्री अजितनाथ को मैं मन, वचन और काया के प्रणिधान पूर्वक प्रणाम करता हूं। १९-२०-२१ आगया वर-विमाण-दिव्व-कणग- आग-या-वर-विमा-ण-दिव्-व-कण-ग- आए हुए श्रेष्ठ विमान और दिव्य सुवर्णमय रह-तुरय-पहकर-सएहिं-हुलिअं, रह-तुर-य-पह-कर-सए-हिम्-हुलि-अम्, रथ और घोडों के समूह सैंकड़ों द्वारा शीघ्र ससंभमो-अरणससम्-भमो-अर-ण संभ्रम द्वारा आकाश से उतरते हुएखुभिअ-लुलिअ-चल-कुंडलं- खुभि-अ-लु-लि-अ-चल-कुण-डलम्- क्षुभित चित्तवाले होने से डुलते चंचल कुंडलगयतिरीड-सोहंत-मउलि- गय-ति-रीड-सोहन्-त-मउ-लि- बाजुबंध और मुकुट, शोभित है मस्तक की माला ॥ २२ ॥(वेड्ढओ) माला ॥ २२ ॥(वेड्-ढ-ओ) माला जिनकी ऐसे । २२. जं सुर-संघा सासुर-संघा- जम्-सुर-सङ्-घा-सासु-र-सङ्-घा- जो भगवंत को देव समुदाय, असुर समुदाय सहित, वेर-विउत्ता भक्ति-सुजुत्ता, वेर-विउत्-ता भत्-ति-सुजुत्-ता, वैर रहित, भक्ति से अच्छी तरह से युक्त, आयर-भूसिय-संभम-पिडिय- आय-र-भूसि-य-सम्-भम-पिण्-डिय- आदर से शोभित, शीघ्र एकत्रित हुए, सुट्ठ-सुविम्हिय-सव्व-बलोघा। सुट्-ठु-सु विम्-हिय-सव-व-बलो-घा। अतिशय विस्मित हए है,सभी प्रकारकेसैन्य हैं उत्तम-कंचण उत्-तम-कञ (कन्)-चण- (ऐसे) श्रेष्ठ सुवर्ण और रयण-परूवियरय-ण-परू-विय रत्न द्वारा विशेष रूप से युक्त किया हुआ, भासुर-भूसण-भासुरिअंगा, भासु-र-भूस-ण-भासु-रि-अङ्-गा, देदीव्यमान अलंकारों से शोभायमान हे अंग जिनके गाय-समोणय-भत्ति-वसागय- गाय-समो-णय-भत्-ति-वसा-गय- भक्ति भाव से आए हुए और शरीर द्वारा झुके हुए पंजलि-पेसिय-सीस पञ्-(पन्) जलि-पेसिय-सीस- अंजलि द्वारा किया है, मस्तक से पणामा ॥ २३ ॥ (रयणमाला) पणा-मा ॥२३॥ (रयण-माला) प्रणाम । २३. वंदिऊण थोऊण तो जिणं, वन्-दि-ऊण थो-ऊण-तो जिणम्, जो भगवंत को वंदना करके, स्तवना करके, तिगुणमेव य पुणो पयाहिणं। ति-गुण-मेव य पुणो पया-हिणम् । तीनबार पुनः प्रदक्षिणा देकर। पणमिऊण य जिणं सुरासुरा, पण-मि-ऊण य जिणम् सुरा-सुरा, प्रणाम करके और जिनेश्वर को सुर-असुरपमुइया सभवणाई तो- पमु-इया सभ-वणा-इम् तो आनंदित होते हुए, अपने भवन की ओर गया ॥२४॥(खित्तयं) गया ॥२४॥(खित्-त-यम्) गए। २४. हामणि-महं पि-पंजली, तम् महा-मणि-महम्-पिपजा( पन्)-जली, उन महामुनि को मैं भी अंजलि पूर्वक राग-दोष-भय-मोह-वज्जि। राग-दोष-भय-मोह-वज्-जिअम्। राग, द्वेष, भय, मोह रहित, देव-दाणव-नरिंद-वंदियं, देव-दाण-व-नरिन्-द-वन्-दि-अम्, । देव-दानव और राजाओं से वंदित, संतिमुत्तमं महातवंसन्-ति-मुत्त-मम्-महा-तवम् श्री शान्तिनाथजी को श्रेष्ठ और बड़े तप वाले को नमे ॥ २५ ॥ (खित्तयं) नमे ॥ २५ ॥(खित्-त-यम्) नमस्कार कर अर्थ : सैकड़ों श्रेष्ठ विमान, सैकड़ों दिव्य-मनोहर सुवर्णमय रथ और सैकड़ों घोडों के समूह से जो शीघ्र आये हुए हैं और वेग-पूर्वक नीचे उतरने के कारण जिनके कानों के कुण्डल, भुजबन्ध और मुकुट क्षोभ को प्राप्त होकर हिल रहे हैं और चंचल बने हैं; तथा जो (परस्पर) वैर-वृत्ति से मुक्त और पूर्ण भक्तिवाले हैं ; जो शीघ्रता से एकत्रित हुए हैं और बहुत आश्चर्यान्वित है तथा सकल-सैन्य परिवार से युक्त हैं, जिनके अंग उत्तम जाति के सुवर्ण और रत्नों से बने हुए तेजस्वी अललङ्कारों से देदीप्यमान हैं; जिनके गात्र भक्तिभाव से झुके हुए हैं तथा दोनों हाथ मस्तक पर जोड़कर प्रभु को वन्दन करके, स्तुति करके, वस्तुतः तीन बार प्रदक्षिणा-पूर्वक अत्यन्त हर्षपूर्वक अपने भवनो में वापस लौटते हैं, उन राग, द्वेष, भय और मोह से रहित, देवेन्द्र, दानवेन्द्र एवं नरेन्द्रों से वन्दित श्रेष्ठ महान तपस्वी और महामुनि श्री शान्तिनाथ भगवान को मैं भी अञ्जलिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। २२-२३-२४-२५. २६२ हू।२५. VIJPrivate areliarnal us Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंबरंतर-विआरणिआहिं, अम्-ब-रन्-तर-विआ-रणि-आहिम्, आकाश के अंतराल में-विचरण करनेवाली, ललिअ-हंस वहु ललि-अ-हंस (हन्-स)- वहु- मनोहर हंसी जैसी सुंदर गति से गामिणि-आहिं। गामि-णि-आहिम्। चलने वाली, पीण-सोणि-थण-सालिणि-आहि, पीण-सोणि-थण-सालि-णि-आहिम्, पुष्ट नितम्ब और भरावदार स्तनों से शोभित सकल-कमल-दल-लोअणि- सक-ल-कम-ल-दल-लोअ-णि- कलायुक्त कमल-पत्र के समान आहिं॥२६॥(दीवयं) आहिम् ॥२६॥(दीव-यम्) नेत्रवाली । २६. पीण-निरंतर-थणभरपीण-निरन्-तर-थण-भर पुष्ट और अन्तर रहित स्तनों के भार सेविणमिय-गाय-लयाहिं, विण-मिय-गाय-लया-हिम्, अधिक झुकी हुई गात्र लताओं वाली, मणि-कंण-पसिढिल मणि-कञ् (कन्) चण-पसि-ढिल- मणिरत्न और सूवर्ण की झुलती हुईमेहल-सोहिय-सोणि-तडाहिं। मेहल-सो-हिय-सोणि-तडा-हिम्।। मेखलाओं से शोभायमान नितम्ब प्रदेशवाली, वर-खिंखिणि-नेउरवर-खिङ्-खिणि-नेउ-र उत्तम प्रकार की घूघरी-वाले नूपुर और सतिलयसति-लय सुंदर टिपकीवाले कंकण आदि । वलय-विभूसणि-आहिं, वल-य-विभू-सणि-आहिम्, विविध आभूषण धारण करनेवाली, इकर-चउर-मणोहररइ-कर-चउर-मणो-हर प्रीति उत्पन्न करनेवाली, चतुरों के मन कासुंदर-दंसणि-आहिं॥२७॥ सुन्-द-र-दं (दन्)-सणि हरण करनेवाली, सुंदर दर्शन-वाली । २७. (चित्तक्खरा) आहिम् ॥२७॥ (चित्-तक्-खरा) देव-सुंदरीहिं पाय-वंदिआहिं- देव-सुन्-दरी-हिम् पाय-वन्-दि-आहिम्- देवांगनाओं द्वारा किरणों के समूहवाली से वंदिया य जस्स ते-सुविक्कमा कमा, वन्-दिया य जस्-स ते-सुविक्-कमा कमा, वंदित और जो वे दो पराक्रम वाले चरणो, अप्पणो निडालएहिअप्-पणो निडा-लए-हिम् अपने ललाट से मंडणोड्डणप्पमण-डणो-डणप्-प आभूषण की रचना के गारए-हिं-केहि केहिं वि? गा-र-ए-हिम्-केहिम्-केहिम् वि? कैसे कैसे प्रकारों से? अवंग-तिलय-पत्त-लेह-नाम- अवङ-ग-तिल-य-पत्-त-लेह-नाम- आंखो में काजल, ललाट पर तिलक एहि-चिल्लएहिं संग एहिम्-चिल्-ल-एहिम् सङ्-ग- और स्तन-मण्डल पर पत्र लेखा ऐसे विविध यंग-याहिं, य-ङ्ग-या-हिम्, प्रकार के आभूषणों वाली, प्रमाणोपेत अंगोंवाली, भक्ति-सन्निविट्ठभत्-ति-सन्-नि-विट्-ठ भक्ति पूर्ण वन्दन करने को आयी हुई वंदणा गयाहिंवन्-दणा-गया-हिम् देवांगणाओं, उन दो चरणों को हुंति ते (य) वंदिआहुन्-ति ते-(य) वन्-दिआ बारम्बार वन्दन करती है। २८. पुणो पुणो ॥ २८ ॥ (नारायओ) पुणो पुणो ॥ २८ ॥(नारा-यओ) तमहं जिणचंदं, तम-हम् जिण-चन्-दम्, उनको मैं जिनचन्द्र कोअजिअंजिअ-मोहं। अजि-अम् जिअ-मोहम् । श्री अजितनाथ को (जिन्होने )मोक्ष को जीता है। धुय-सव्व-किलेसं. धुय-सव्-व-किले-सम्, दूर किया है सब दुःखों को जिन्होंनेपयओ पणमामि ॥२९॥(नंदिययं) पप-ओपण-मामि॥२९॥(नन्-दिय-यम्) उनको मैं आदरपूर्वक नमस्कारकरता हू।२९. अर्थ : आकाश में विचरण करने वाली, मनोहर हंसी जैसी सुन्दर गति से चलने वाली, पुष्ट नितम्ब और भरावदार स्तनों से शोभित, कलायुक्त विकसित कमलपत्र के समान नयनोंवाली, पृष्ट और अन्तर-रहित स्तनों के भार से अधिक झुकी हुई गात्रलताओं वाली, रत्न और सुवर्ण की झूलती हुई मेखलाओं से शोभायमान नितम्ब-प्रदेश वाली, उत्तम प्रकार की घूघरी वाले नूपुर और टिपकी वाले कङ्कण आदि विविध आभूषण धारण करनेवाली, प्रीति उत्पन्न करनेवाली, चतुरों के मनको हरण करनेवाली; सुन्दर दर्शनवाली, जिनचरणों को नमन करने के लिये तत्पर, आखों मे काजल, ललाट पर तिलक और स्तनमण्डल पर पत्रलेखा ऐसे विविध प्रकार के बड़े आभूषणोंवाली, देदीप्यमान, प्रमाणोपेत अङ्गोंवाली अथवा विविध नाट्य करने के लिये सज्जित तथा भक्ति-पूर्ण वन्दन करने को आयी हुई देवाङ्गनाओं ने अपने ललाट से जिनके सम्यक् पराक्रमवाले चरणों का वन्दन किया है तथा बार-बार वन्दन किया है, ऐसे मोह को सर्वथा जीतनेवाले, सर्व क्लेशों को नाश करनेवाले जिनेश्वर श्री अजितनाथ को मन, वचन और काया के प्रणिधान पूर्वक मैं नमस्कार करता हूँ। २५-२६-२७-२८ . २६३ FOREVEResually Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थुअ-वंदिअस्सारिसि-गण-देव- गणेहिं, तो देव-वहुहिं, पयओ पणमिअस्सा | जस्स- जगुत्तम सासण अस्सा, सास-ण-अस्-सा, भत्-ति-वसा-गय पिण्- डिअ-या- हिम् । देव-वरच्-छ र-सा- बहु-आहिम्सुर-वर-इ-गुण-पण्-डि-अ या- हिम् ॥ ३० ॥ ( भासु-रयम् ) वंस-सद्द-तंति-ताल-मेलिए-वन्- स- सद्-द-तन्-ति-ताल-मेलि-ए ति उक्-ख- राभि-रामसद्-द-मीस-ए-कए (अ), सुइ-स-माण-णे असुद्-धसज्ज - गीय-पायजाल - घण्-टि-आहिम् । वल-य-मेह-ला-कला-वने- उराभि-राम- सद्-दमी-स-ए कए अ, देव-नट्- टि- आहिम्- हाव-भावविब्- भमप्-प-गार- एहिम्नच्-चि-ऊण अङ्-ग- हार - एहिम् । वन्- दिआ य जस्- स ते सुविक्-कमा-कमा, मी-सए कए अ देव-नट्टिआहिं हाव-भावविब्भम-प्पगारएहिंनच्चिउण अंगहारएहिं । वंदिआ य जस्स ते सुविक्कमा कमा तयं तिलोय-सव्व( सत्त ) - संतिकारयं । तयम् ति-लोय - सव्-व(सत्-त ) - सन्-ति-कार-यम् । पसंत-सव्व-पाव - दोसमेस हं, पसन्-त- सव्-व-पाव - दोस - मेस हम्, नमामि सन्-ति-मुत्-त-मम्जिणम् ॥ ३१ ॥ ( नारा-यओ) भक्ति-वसागय पिंडिअयाहिं । देव- वरच्छरसा - बहुआहिं, सुर-वर- रइगुण- पंडिअयाहिं ॥ ३० ॥ ( भासुरयं ) तिउक्खरा-भिराम सह-मीसए - कए (अ), सुइ- समाण-णे अ सुद्धसज्ज-गीय-पायजाल - घंटिआहिं । वलय- मेहला-कला-व ने- उराभिराम- सद्द नमामि संतिमुत्तमं जिणं ॥ ३१ ॥ (नारायओ) थुअ-वन्- दिअस्-सारिसि-गण-देव-गणे - हिम्, तो देव-वहु-हिम्, पय-ओ पण -मि-अस्- सा । जस्-स- जगुत्-तम २६४ स्तुत है, वंदित है, ऋषिओं के समुदाय द्वारा-देवों के समुदाय द्वारा उसके बाद देवियों द्वारा आदर पूर्वक प्रणाम किये हुए। जिनका जगत में उत्तम शासन हैं, भक्ति के वश से आकर एकत्रित हुई.... नर्तक वादक श्रेष्ठ देव और नृत्य कुशल देवांगनाओं सहित बहुत देवों के साथ श्रेष्ठ रति क्रीडा गुण के विषय में पण्डिता । ३०. वंशी का शब्द, कुच, ताल आदि वाद्यंत्र मिलने से त्रिपुष्कर नाम के वाद्यंत्र के मनोहर शब्द से मिश्रित होने के कारण सुनने की समानता, निर्दोष और गुण युक्त गीत गानेवाली, पैरों में जाली के आकार वाली घूघरियों वाली कंकण, मेखला, कलाप नुपुर की ध्वनि में मिलती जाती हैं। देवनर्तकियों के द्वारा हाव-भाव और विलास के प्रकाश द्वारा नृत्य करके अंगों के मरोड द्वारा वंदित, मोक्षदातार, वे पराक्रमवाले दो चरण कमल वे (श्री शान्तिनाथजी) तीनों लोकों के सभी प्राणियों को शान्ति प्रदान करनेवाले, विशेष शान्त हुए है, सभी पाप, ,दोष जिनके एसे उनको मैं नमस्कार करता हूँ। श्री शान्तिनाथजी उत्तम जिनेश्वर के । ३१. अर्थ : देवों को उत्तम प्रकार की प्रीति उत्पन्न करने में कुशल ऐसी स्वर्ग की सुन्दरियाँ भक्ति वश एकत्रित होती हैं। उनमें से कुछ वंशी आदि सुस्वर वाद्य बजाती हैं, कुच ताल आदि धानवाद्य बजाती हैं और कुछ नृत्य करती जाती हैं, पाँवों मे पहने हुए पायजेब की घुघरियों के शब्द को कंकण, मेखला-कलाप और नूपुर की ध्वनि में मिलाती जाती हैं। उस समय जिनके मुक्ति देने योग्य, जगत में उत्तम शासन करनेवाले तथा सुन्दर पराक्रमशाली चरणों को पहले ऋषि और देवताओं के समूह से स्तुत हैं-वन्दित हैं । बाद में देवियों द्वारा प्रणिधानपूर्वक प्रणाम किये जाते हैं और तत्पश्चात् हाव, भाव, विभ्रम और अङ्गहार करती देवनर्तकियों से वंदित, ऐसे तीनों लोकों के सर्व जीवों को शान्ति प्रदान करनेवाले, सर्व पाप और दोष से रहित उत्तम ऐसे श्री शान्तिनाथजी को मैं नमस्कार करता हूँ । २९-३०-३१-३२. www.jainelibrally org Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्त-चामर-पडागछत्-त-चाम-र-पडा-ग छत्र, चवर, पताकाजूअ-जव-मंडिआ, जूअ-जव-मण्-डि-आ, स्तम्भ, यव, लक्षणों के द्वारा शोभित, झयवर-मगर-तुरयझय-वर-मग-र-तुर-य श्रेष्ठ ध्वज, मगरमच्छ, अश्व, सिरि-वच्छ-सुलंछणा। सिरि-वच्-छ-सुलञ् (न्)-छणा। श्री वत्स, ऐसे शुभ लांछण है जिनके, दीव-समुद्द-मंदरदीव-समुद्-द-मन्-दर द्वीप, समुद्र, मेरु पर्वत और ऐरावत हाथी दिसागय-सोहिया, दिसा-गय-सोहि-या, आदि से शोभित, सत्थिअ-वसह-सीह-रहसत्-थिअ-वस-ह सीह-रह स्वस्तिक, वृषभ, सिंह, रथ और चक्क-वरंकिया॥३२॥(ललिययं) चक्-क-वरङ्-किया ॥३२॥(ललिययम्) श्रेष्ठ चक्र से अंकित ।३२. सहाव-लट्ठा सम-प्पइट्ठा, सहा-व-लट्-ठा समप्-पइट्-ठा, स्वभाव से सुंदर, समता भाव में स्थिर, अदोस-दुट्ठा गुणेहि जिट्ठा। । अदोस-दुट्-ठा गुणे-हिम् जिट्-ठा। दोष रहित, गुणों के द्वारा श्रेष्ठ, पसाय-सिट्ठा तवेण पुट्ठा, पसा-य-सिट्-ठा तवे-ण पुट्-ठा, निर्मलता में श्रेष्ठ, तप द्वारा पुष्ट, सिरीहिं इट्ठा रिसीहिंसिरी-हिम् इट्-ठा रिसी-हिम् लक्ष्मी से पूजित, ऋषियों से जुट्ठा ॥३३॥(वाण-वासिआ) जुट्-ठा ॥३३॥ (वाण-वासि-आ) सेवित । ३३. ते तवेण धुअ-सव्व-पावया, ते तवे-ण धुअ-सव-व-पावया, तप के द्वारा सर्व पापों को दूर करनेवाले, सव्वलोअ-हिअ-मूल-पावया। सव्-व-लोअ-हिअ-मूल-पाव-या। सर्व प्राणियों को हित का मार्ग दिखाने-वाले, संथुआ अजिअसन्-थुआ अजि-अ स्तुत श्री अजितनाथजी और संति पायया, सन्-ति-पाय-या, श्री शान्तिनाथजी पूज्य हुंतु मे सिव-सुहाणहुन्-तु मे सिव-सुहा-ण हों, मुझे शिव सुख को दायया ॥३४॥(अपरांतिका) दाय-या ॥३४॥(अप-रान्-तिका) देनेवाले । ३४. अर्थ : जो छत्र, चवर, पताका, स्तम्भ, यव, श्रेष्ठ ध्वज, मगरमच्छ, अश्व, श्रीवत्स, द्वीप, समुद्र, मेरु पर्वत और ऐरावत हाथी आदि के शुभ लक्षणों से शोभित जो स्वरुप से सुन्दर, समभाव में स्थिर, दोष-रहित, गुण-श्रेष्ठ, बहुत तप करनेवाले, लक्ष्मी से पूजित, ऋषियों से सेवित, तप के द्वारा सर्व पापों को दूर करनेवाले और समग्र प्राणि-समूह को हित का मार्ग दिखानेवाले हैं, वे अच्छी तरह स्तुत, पूज्य श्री अजितनाथ और श्री शान्तिनाथ मुझे मोक्षसुख को देनेवाले हों । ३२-३३-३४. एवं तव-बल-विउलं, एवम् तव-बल-विउलम्, इस तरह तप सामर्थ्य द्वारा विशाल थअंमए अजिअथुअम्मए अजिअ स्तुति की मैंने श्री अजितनाथ संति-जिण-जुअलं । सन्-ति-जिण-जुअ-लम् । श्री शान्तिनाथ जिनेश्वर युगल को, ववगय-कम्म-रय-मलं, वव-गय-कम्-म-रय-मलम्, कर्म रुपी रज और मल से रहित, गई गयं सासयंगइम् गयम् सास-यम् विस्तीर्ण और शाश्वत गति को प्राप्त । ३५. विउलं ॥ ३५ ॥(गाहा) विउलम् ॥३५॥(गाहा) अर्थ : तपोबल से महान्, कर्म रूपी रज और मल से रहित, शाश्वत और पवित्र गति को प्राप्त ऐसे श्री अजितनाथ और श्री शान्तिनाथ के युगल की मैंने इस प्रकार स्तुति की। ३५. तं बहु-गुण-प्पसायं, तम् बहु-गुणप्-प सा-यम्, वे अनेक गुणों के प्रसादवाले, मुक्ख-सुहेण परमेण-अविसायं। मुक्-ख-सुहे-ण पर-मेण-अवि-सायम्। मोक्ष सुख द्वारा उत्कृष्ट विषाद रहित, नासेउ मे विसायं, कुणउ अ- नासे-उ मे विसा-यम्, कुण-उ अ नाश करो मेरे विवाद को और परिसाविअ-प्पसायं ॥ ३६॥ (गाहा) परि-सावि-अप-पसा-यम् ॥३६॥ (गाहा) सभा पर अनुग्रह । ३६. अर्थ : अतः अनेक गुणों से समृद्ध और परम-मोक्ष-सुख के कारण, सकल क्लेशों से रहित (श्री अजितनाथ और शान्तिनाथ का युगल) मेरे विषाद का नाश करें ३६. २६५ Jan Education Interational P unal useonly Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तं मोएउ अनंदि, तम् मोए-उ अनन्-दिम्, वह युगल (भव्य जीवों को) हर्ष कराये, समृद्धि प्राप्त कराये, पोवेउ अनंदि- पोवे-उ अनन्-दि श्री नंदिषेण को समस्त प्रकार से सेण-मभिनंदि। सेण-मभि-नन्-दिम्। आनंद प्रदान करें। परिसा वि अ सुहनंदि, परिसा वि असुह नन्-दिम्, श्रोताजनों की सभा को भी सुख-समृद्धि प्रदान करें, मम य दिसउ संजमे- मम य दिस-उसञ् (सन्)-जमे- मुझे तथा दीजिए संयम में नंदि ॥ ३७॥ (गाहा) नन्-दिम् ॥ ३७॥ (गाहा) आनंद । ३७. अर्थ : ये युगल इस स्तोत्र का अच्छी तरह से पाठ करने वालों को हर्ष प्रदान करें। इस स्तोत्र के रचयिता श्री नन्दिषेण को अति आनन्द प्राप्त कराये और इसके सुनने वालों को भी सुख तथा समृद्धि प्रदान करें; तथा अन्तिम अभिलाषा यह है कि मेरे (नन्दिषेण के) संयम में वृद्धि करें। ३७. पक्खिअ-चाउम्मासिअ- पक्-खिअचाउम्-मासि-अ- पाक्षिक(१५ दिनके),चातुर्मासिक(चारमहीने के)और संवच्छरिए अवस्स सर्वं (सम्)-वच्-छ-रिए अवस्-स-सांवत्सरिक (एक वर्ष के) प्रतिक्रमण में अवश्य भणिअव्वो। भणि-अव-वो। पढना चाहिए और सोअव्वो सव्वेहिं, सो-अव्-वो सव-वेहिम्, सुनाना चाहिए सबकोउवसग्ग-निवारणो एसो॥३८॥ उव-सग्-ग निवा-रणो एसो॥३८॥ उपसर्गका निवारण करनेवाला यह।३८. अर्थ : उपसर्ग का निवारण करनेवाला यह (श्री अजित-शान्ति-स्तव) पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में अवश्य पढ़ना और सब को सुनाना चाहिये । ३८. जो पढइ जो अनिसुणइ, | जो पढ-इ जो अनिसु-णइ, जो बोलता है, और जो सुनता है, उभओ कालं पिउभ-ओ कालम्-पि सुबह शाम के उभय काल में भी यह अजिअ-संति-थयं । अजि-अ-सन्-ति-थयम्। श्री अजित शान्ति स्तव को न हु हुंति तस्स रोगा, न हु-हुन्-ति तस्-स रोगा, नहीं निश्चय से होते उसको रोग, पव्वुप्पन्ना वि नासंति ॥३९॥ पु-वुप्-पन्-ना वि-ना-सन्-ति ॥३९॥ पहले उत्पन्न हुए रोग भी नाश पाते हैं । ३९. अर्थ : यह "अजित -शान्ति-स्तव" जो मनुष्य प्रातःकाल और सायङ्काल बोलता है अथवा दूसरों के मुख से नित्य सुनता है, उसको निश्चय से रोग होते नहीं और पूर्वोत्पन्न हों, तो वे भी नष्ट हो जाते हैं । ३९. जइ इच्छह परम-पयं, जइ इच-छह परम-पयम्, यदि चाहते हो परम पद को अहवा कित्तिं सुवित्थडं भुवणे। अह-वा कित्-तिम् सुवित्-थडम् भुव-णे। अथवा कीर्ति सुविस्तृत जगत में तो तेलुक्कुद्धरणे, ता तेलुक्-कुद्-धर-णे, तो तीनों लोकों का उद्धार करने में समर्थ, जिण-वयणे आयरं कुणह॥४०॥ जिण-वय-णे आय-रम्-कण-ह॥४०॥ ऐसे जिन-वचन के प्रति आदर करो। ४०. अर्थ : यदि परम पद (मोक्ष) को चाहते हो अथवा इस जगत में अत्यन्त विशाल कीर्ति को प्राप्त करना चाहते हो तो तीनों लोकों का उद्धार करने में समर्थ, ऐसे जिन-वचन के प्रति आदर करो। ४०. अशुद्ध शुद्ध अशुद्ध अशुद्ध शुद्ध निरुवममहपभावे निरुवममहप्पभावे गुणेहिम जिट्टा । गुणेहिं जिट्टा आहवा कित्ति अहवा कित्तिं भाविअपभावणेअ भाविअप्पभावणेअ निचियं च गुणेहि निचियं च गुणेहिं ता तेलुकुधरणेता तेलुक्कुद्वरणे पंडिअयाहि पिंडिअयाहिं वंदिऊण तोऊण तो वंदिऊण थोऊण तो दुक्खपसंतीणं । दुक्खप्पसंतीणं गड़ गय सासयं गई गयं सासयं धरणिधरपवराईरअ धरणिधरप्पवराइरेअ समाहिनिहि समाहि निहिं पिंडिअयाहि पंडिअयाहिं सभवनाइ तो सभवणाई तो पावपसंतीणं पावप्पसंतीणं ते मोएउ अ नंदितं मोएउ अनंदिं पावइ नत्तं पावइ न तं विआरणिआहि विआरणिआहिं सुविकमकमा सुविक्कमा कमा पक्खिअ चउमासिअ पक्खिअ चाउम्मासिअ सुहपवतणं सुहप्पवत्तणं सुइसुअमणाभिराम । सूइसुहमणाभिराम सिरिरईअंजलि । सिररडअंजलि मंडणोडणपगारएहि मंडणोडणप्पगारएहिं विब्भमपगारएहि विब्भमप्पगारएहिं पुव्वुपन्ना पुव्वुप्पन्ना धिई मई पवतणं | धिई-मई-प्पवत्तणं दंत पंति दंतिपंति चलकुंडलगय । चलकुंडलंगय पत्तलेअनामेहि पत्तलेहनामएहिं २६६ forate & Personel Jain Ede s Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७. श्री बृहच्छान्ति सूत्र प्रतिक्रमण के समय जिनमुद्रा में सुनने की मुद्रा। प्रतिक्रमण के समय आदान नाम : श्री भो भो भव्याः सूत्र | विषय : सर्व विघ्न निवारक, योगमुद्रा में बोलने गौण नाम : बडी शांति सूत्र | परम मंगल वाचक, श्री शांतिनाथ की मुद्रा। गाथा : २२ | प्रभु की भाववाही स्तवना। छंद : गाहा-मंदाक्रान्ता, राग-भावावनाम सुरदानव....(संसारदावा सूत्र गाथा-२) मूल सूत्र | उच्चारण में सहायक पदक्रमानुसारी अर्थं भो भो भव्याः ! शृणुत वचनं- भो भो भव-याः ! श-णुत वच-नम्- हे भव्यजनो ! सुनिये (मेरा) वचनप्रस्तुतं सर्वमेतद्, प्रस्-तुतम् सर-व-मेतद्, प्रासंगिक यह सभी, ये यात्रायां-त्रिभुवन- । ये यात्-रायाम्-त्रि-भुवन जो यात्रा में त्रिभुवन गुरु ऐसे जिनेश्वर की, गुरोराहता-भक्ति-भाजः । गुरो-रार-हता-भक्-ति-भाजः । हे श्रावको ! भक्ति भाव से युक्त (हो)तेषां शान्ति-र्भवतुतेषाम्-शान्-तिर्-भव-तु उन्हों को शान्ति हो, भवता-महदादि-प्रभावा- भ-वता-मर-हदा-दि-प्रभा-वा- अरिहंत आदि पंच परमेष्ठि की प्रभा से दारोग्य-श्री-धृति-मति-करी- दारोग्-य-श्री-धृ-ति-मति-करी- आरोग्य, लक्ष्मी, संतोष, विशिष्ट बुद्धि को करनेवाली, क्लेश-विध्वंस-हेतुः॥१॥ क्ले-श-विधु-वन्-स-हेतुः ॥१॥ सभी कलेश-पीडा का नाश करने में कारणभूत । १. अर्थ : हे हे भव्यजनो! आप सब मेरा यह प्रासङ्गिक वचन सुनिये, जो श्रावक जिनेश्वर की रथयत्रा में भक्तिभाव वाले हैं। उन्हें अर्हद् आदि के प्रभाव से आरोग्य, लक्ष्मी, चित्त की स्वस्थता और बुद्धि को देनेवाले, सब क्लेश-पीडा का नाश करने में कारणभूत, ऐसी शान्ति प्राप्त हो । १. भो भो भव्य लोकाः! भो भो भव-य-लोकाः ! हे भव्यजनो! इह हि भरतैरावत-विदेह- इह हि भर-तै-रा-वत-वि-देह यही ढाई द्वीप में भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में सम्भवानां समस्त-तीर्थकृतां सम्-भ-वा-नाम् समस्-त-तीर-थ-कृताम्- उत्पन्न सर्व तीर्थंकरों के जन्मन्यासन-प्रकम्पानन्तर- जन्-म-न्या-सन-प्र-कम्-पा-नन्-तर- जन्म के समय अपना आसन कम्पित होने के कारण मवधिना विज्ञाय, मव-धिना विज्ञा-य, अवधिज्ञान से जानकरसौधर्माधिपतिः, सौ-धर्-मा-धि-ति:-, सौधर्माधिपति नेसुघोषा-घण्टा-चालनानन्तरं, सु-घोषा-घण्-टा-चाल-ना-नन्-तरम्, सुघोषा घण्टा बजवाकरसकल-सुरासुरेन्द्रैःसह समागत्य, सक-ल-सुरा-सुरेन्-द्रैः सह-समा-गत्-य, सभी सुर-असुरों के साथ आकर सविनयमहद्-भट्टारकं- स-विन-य-मर-हद्-भट्-टा-रकम्- विनयपूर्वक श्री अरिहंत भगवंत को गृहीत्वा, गत्वा कनकाद्रि शृङ्गे, गृहीत्-वा, गत्-वा कन-काद्रि-शृङ्-गे, ग्रहण करने के पश्चात् जैसे विहित-जन्माभिषेक:- वि-हित-जन्-मा-भिषे-कः जन्माभिषेक करने के पश्चात् शान्तिमुद्घोषयति, यथा शान्-ति-मुद्-घोष-यति, यथा शान्ति की उद्घोषणा करते है, वैसे ततोऽहं कृतानुततो-हम् कृता-नु मैं भी किये हुए का कारमिति कृत्वाकार-मिति कृत्-वा अनुकरण करना चाहिए, ऐसा मानकर "महाजनो येन गतः स पन्थाः " "महा-जनो येन गतः स पन्-थाः" 'महाजन जिस मार्ग से जाए, वही मार्ग' इति भव्यजनैः सह समेत्य, इति भव-य-जनैः सह समेत्-य-, एसा मानकर भव्यजनों के साथ आकर, स्नात्रपीठे स्नात्रं विधाय- स्ना-त्र-पीठे स्ना-त्रम् वि-धाय- स्नात्र पीठ पर स्नात्र करके, शान्ति मुद्घोषयामि, शान्-ति मुद्-घोष-यामि, शान्ति की उद्घोषणा करता हूँ। तत्पूजा-यात्रा-स्नात्रादि- तत्-पूजा-यात्रा-स्ना-त्रादि अतः सभी पूजा-यात्रा स्नात्र आदि महोत्सवा-नन्तरमिति महोत्-सवा-नन्-तर-मिति महोत्सव आदि की पूर्णाहुति कृत्वा कर्णं दत्त्वा कृत्-वा कर-णम् दत्-त्वा करके, कान देकर निशम्यतां निशम्यतां नि-शम्-य-ताम् नि-शम्-य-ताम् सुनिये ! सुनिये ! स्वाहा ॥२॥ स्वा-हा ॥२॥ स्वाहा!२. dalian intematomall www.jainelimary & Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ : हे भव्यजनों ! इसी ढाई द्वीप में भरत, ऐरावत, और महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न सर्व तीर्थङ्करों के जन्म के समय अपना आसन कम्पित होने के कारण सौधर्मेन्द ने अवधिज्ञान से (तीर्थङ्कर का जन्म हुआ ) जानकर, सुघोषा घण्टा बजवाकर (सूचना देते हैं, फिर) सुरेन्द्रों और असुरेन्द्रों के साथ आकर, विनय-पूर्वक श्री अरिहन्त भगवंत को हाथ में ग्रहण कर, मेरुपर्वत के शिखर पर जाकर, जन्माभिषेक करने के पश्चात् जैसे शान्ति की उद्घोषणा करते हैं, वैसे ही मैं (भी) किये हुए का अनुकरण करना चाहिये, ऐसा मानकर 'महाजन जिस मार्ग से जाएँ, वही मार्ग,' ऐसा मानकर भव्यजनों के साथ आकर, स्नात्र पीठ पर स्नात्र करकें, शान्ति की उद्घोषणा करता हूँ, अतः आप सब पूजा-महोत्सव, (रथ) यात्रा-महोत्सव, स्नात्र-महोत्सव आदि की पूर्णाहुति करके कान देकर सुनिये ! सुनिये ! स्वाहा । २. ॐ पुण्याहं पुण्याहं ओम् पुण्या-हम् पुण्या-हम् | ॐ आज का दिन पवित्र है-पवित्र हैप्रीयन्तां प्रीयन्तां, प्री-यन्-ताम् प्री-यन्-ताम्, प्रसन्न हों - प्रसन्न होंभगवन्तोऽर्हन्त:भग-वन्-तोर-हन्-त: अरिहंत भगवंतसर्वज्ञः सर्वदर्शिनसर-व-ज्ञः सर्-व-दर्-शि-न सर्व पदार्थ के ज्ञाता (= सर्वज्ञ), सर्वदर्शी, स्त्रिलोक नाथास्त्रि-लोक-नाथा तीन लोक के नाथ, स्त्रिलोकमहितास्त्रि-लोक-हि-ता तीन लोक से पूजित, त्रिलोक-पूज्यास्त्रिलोकेश्वरा- स्त्रि-लोक-पूज-या-स्त्रि-लोकेश्-वरा- तीन लोक के पूज्य, तीन लोक के इश्वर, स्त्रिलोकोद्योतकराः ॥३॥ स्त्रि-लोको-धो (द्यो)-त-कराः ॥३॥ तीन लोक में उद्योत करनेवाले । ३. अर्थ : ॐ पद से शोभित आज का दिन पवित्र है-पवित्र है, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, तीन लोक के नाथ; तीन लोक से पूजित, तीन लोक के पूज्य, तीन लोक के ईश्वर, तीन लोक में उद्योत करने वाले, ऐसे ऐश्वर्यादि युक्त श्री अरिहन्त भगवन्त प्रसन्न हों, प्रसन्न हों । ३. ॐ ऋषभ-अजितओम् ऋ-षभ-अ-जित ॐ पद से शोभित, ऐसे श्री ऋषभदेव, अजितनाथ, सम्भव-अभिनन्दनसम्-भव-अभि-नन्-दन संभवनाथ, अभिनन्दन स्वामी, सुमति-पद्मप्रभसु-मति-पद्-म्-प्रभ सुमतिनाथ, पद्मप्रभ स्वामी, सुपार्श्व-चन्द्रप्रभ-सुविधि सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ स्वामी, सुविधिनाथ, शीतल-श्रेयांस-वासुपूज्य- शीत-ल-श्रे-यान्-स-वासु-पूज्-य- शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्यस्वामी, विमल-अनन्त-धर्म-शान्ति- विमल-अनन्-त-धर्-म-शान्-ति- विमलनाथ, अनंतनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थु-अर-मल्लि-मुनिसुव्रत- कुन्-थु-अर-मल्-लि-मुनि-सु-व्रत- कुन्थुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतस्वामी, नमि-नेमि-पार्श्वनमि-नेमि-पार-श्व नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, वर्द्धमानान्ता जिना:- वर्द्-ध-मानान्-ता जिना: महावीर स्वामी पर्यंत (चोबीस) तीर्थंकर शान्ताः शान्तिकराशान्-ताः शान्-ति-करा उपशम पाए हुए, क्रोध आदि कषाय के उपद्रवों को भवन्तु स्वाहा ॥४॥ भवन्-तु स्वाहा ॥४॥ शान्त करनेवाले बनें । स्वाहा । ४. अर्थ : ॐ पद से शोभित, ऐसे श्री ऋषभदेव, अजितनाथ, सम्भवनाथ, अभिनन्दनस्वामी, सुमतिनाथ, पद्मप्रभस्वामी, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभस्वामी, सुविधिनाथ, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्यस्वामी, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कन्थनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मनिसव्रतस्वामी, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्धमानस्वामी पर्यंत, ऐसे चौबीस तीर्थकर उपशम पाए हुए, हमारे भी क्रोध आदि कषाय के उपद्रवों को शान्त करनेवाले बनें । स्वाहा । ४. ॐ मुनयो मुनिप्रवरा- ओम् मुन-यो मुनि-प्रवरा ॐ पद द्वारा नमस्कार करके, ऐसे हे मुनियों, मुनियों में श्रेष्ठ रिपुविजय-दुर्भिक्ष- रिपु-वि-जय-दुर्-भिक्-ष शत्रुओं के विजय संबन्धी, दुष्ट काल में, कान्तारेषु-दुर्गमार्गेषु- कान्-ता-रेषु-दुर्-ग-मार्-गेषु- गहन अटवी में, विकट मार्ग के उल्लंघन संबन्धीरक्षन्तु वो-नित्यं स्वाहा ॥५॥ रक्-षन्-तु वो-नित्-यम्-स्वा-हा ॥५॥ रक्षण करें, तुम्हारा-हमेंशा (नित्य) स्वाहा ।५ अर्थ : ॐ शत्रुओं के विजय-प्रसङ्ग में, दुष्काल में ( प्राण धारण करने के प्रसङ्ग में ), गहन-अटवी में (प्रवास करने के प्रसङ्ग में ) तथा विकट मार्ग का उल्लङ्घन करते समय, मुनियो में श्रेष्ठ ऐसे मुनि ! तुम्हारा नित्य रक्षण करें। स्वाहा । ५. २६८ For UEEL Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ श्री ही-धति-मति- ओम् श-री-ह-री-धुति-मति- ॐ-श्री ही संतोष, मति (= दीर्धदष्टि) कीर्ति-कान्ति-बुद्धि- कीर-ति-कान्-ति-बुद्-धि- कीर्ति, शोभा, बुद्धि, लक्ष्मी-मेधा-विद्या-साधन- लक्षु-मी-मेधा-विद्-या-सा-धन-संपत्ति, धारण करने की बुद्धि (= मेधा), विद्या की साधना में प्रवेश-निवेशनेषु- प्र-वेश-नि-वेश-नेषु योग के प्रवेश में, मन्त्र जापादि के निवेशन में सुगृहीत-नामानो- सु-गृहीत-नामा-नो जिनका नाम आदरपूर्वक ग्रहण किया जाता हैं। जयन्तु ते जिनेन्द्राः ॥६॥ जयन्-तु ते जिनेन्-द्राः ॥६॥ जय को प्राप्त हों, वे जिनेन्द्र ।६. अर्थ : ॐ श्री,हीं धृति, कीर्ति, कान्ति, लक्ष्मी और मेधा इन नौ स्वरूपों वाली सरस्वती की साधना में, योग के प्रवेश में तथा मन्त्र-जप के निवेशन में जिनके नामों का आदर-पूर्वक उच्चारण किया जाता है, वे जिनवर जय को प्राप्त हों-सान्निध्य करनेवाले हों । ६. ॐ रोहिणी-प्रज्ञप्ति-वज्रशृङ्खला- ओम् रोहि-णी-प्रज्ञप्-ति-वज्-र-शृङ्-खला- ॐ रोहिणी, प्रज्ञप्ति,वज्रश्रृङ्खला, वज्राङ्कुशी-अप्रतिचक्रा- वज्-राङ्-कुशी-अप्र-ति-चक्-रा- वज्राङ्कुशी, अप्रतिचक्रा, पुरुषदत्ता-काली-महाकाली- पुरु-ष-दत्-ता-काली-महाकाली पुरुषदत्ता, काली, महाकाली, गौरी-गान्धारीगौरी-गान्-धारी गौरी, गान्धारी, सर्वास्त्र महाज्वाला-मानवी- सर्-वास्-त्र-महाज-वाला-मानवी सभी अस्त्रोंवाली महाज्वाला, मानवी, वैरोट्या-अच्छुप्ता-मानसी- वैरोट्-या अच्-छुप्-ता-मान-सी वैरोट्या, अच्छुप्ता, मानसी, महामानसी-षोडश-विद्या-देव्यो- महा-मान-सी-षोड-श विद्-या-देव-यो- महामानसी, ये सोलह विद्यादेवियारक्षन्तु वो नित्यं स्वाहा ॥७॥ रक्-घन्-तु वो नित्-यम् स्वा-हा ॥७॥ रक्षण करें, तुम्हारा नित्य स्वाहा । ७.. अर्थ : ॐ रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वज्रशृङ्खला, वज्राकुशी, अप्रतिचक्रा, पुरुषदत्ता, काली, महाकाली, गौरी, गान्धारी, सर्व अस्त्रों वाली महाज्वाला, मानवी, वैरोट्या, अच्छुप्ता, मानसी और महामानसी, ये सोलह विद्यादेवियाँ तुम्हारा रक्षण करें। ७. ॐ आचार्योपाध्यायओम् आचार-यो-पा-ध्याय ॐ आचार्य, उपाध्याय प्रभृति-चातुर्वर्णस्यप्र-भृति-चातुर्-वर-णस्-य आदि चार प्रकार के श्रीश्रमण-सङ्घस्यश्री-श्र-मण-सङ्-घस्-य श्री श्रमण संघ के लिये शान्तिर्भवतु-तुष्टिर्भवतुशान्-तिर-भ-वतु-तुष्-टिर-भ-वतु शान्ति हों, तुष्टि हों, पुष्टिर्भवतु ॥८॥ पुष्-टिर-भ-वतु ॥८॥ | पुष्टि हों । ८. अर्थ : ॐ आचार्य; उपाध्याय आदि चार प्रकार के श्रीश्रमण-सङ्घ के लिये शान्ति हो, तुष्टि हो, पुष्टि हो । ८. ॐ ग्रहाश्चन्द्र-सूर्याङ्-गारक- ओम् ग्रहाश्-चन्-द्र-सूर्-याङ्-गा-रक- ॐ नौ ग्रहादि, चन्द्र-सूर्य, मंगल, बुध-बृहस्पति-शुक्र-शनैश्चर- बुध-बृहस्-पति-शुक्-र-शनैश्-चर- बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु-केतु-सहिताः सलोकपालाः राहु-केतु-सहि-ताः स-लोक-पालाः । | राहु, केतु सहित, लोकपाल के देव सहित, सोम-यम-वरुण-कुबेर- सोम-यम-वरु-ण-कु-बेर सोम, यम, वरुण, कुबेर, वासवादित्य-स्कन्दवास-वा-दित्-य-स्कन्-द इन्द्र, बारह संक्रान्ति के सूर्य, कार्तिकेय, विनयकोपेता-ये चान्येऽपि- वि-नय-को-पेता-ये चान्-ये-पि- गणेश सहित जो दूसरे भी ग्राम-नगर-क्षेत्र-देवताऽऽदयस्ते ग्-राम-नग-र-क्षेत्र-देव-ता-दयस्-ते- ग्राम, नगर और क्षेत्र के अधिष्ठायक देव आदि, सर्वे प्रीयन्तां प्रीयन्ताम्, स-वे प्रीयन्-ताम् प्रीयन्-ताम् वह सभी प्रसन्न हों- प्रसन्न हों, अक्षीण-कोश-कोष्ठागारा- अक्-षीण-कोश-कोष्-ठा-गारा- अक्षय भंडार, धान्य के कोठार वाले नरपतयश्च-भवन्तु स्वाहा ॥९॥ नर-पत-यश्च-भ-वन्-तु स्वा-हा ॥९॥ राजाओ प्राप्त हो । स्वाहा । ९. अर्थ : ॐ चन्द्र, सूर्य, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु सहित नौ ग्रह; लोकपाल के देव सहित, सोम, यम, वरुण, कुबेर, इन्द्र, बारह संक्रान्ति के सूर्य, कार्तिकेय और गणेश सहित, जो दूसरे भी ग्राम, नगर और क्षेत्र के अधिष्ठायक देव आदि, सभी पसन्न हों-प्रसन्न हों । राजाओ धान्य के कोठार वाले अक्षय भण्डार प्राप्त हों । स्वाहा । ९. २६९ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JIOAMAAVAT ॐ पुत्र-मित्र-भ्रातृ-कलत्र- ओम्-पुत्र-मित्र-भ्रातृ-कल-त्र ॐ पुत्र, हितेच्छु, सदोहर (भाई), स्त्री, सुहृत्-स्वजन-संबन्धिसु-हृत्-स्व-जन-सम्-बन्-धि मित्र, ज्ञातिजन, सगे बंधु-वर्ग-सहिता-नित्यं- बन्-धु-वर-ग सहि-ता-नित्-यम् स्वगोत्रीय स्नेहीजन, हमेशा (नित्य) चामोद-प्रमोद-कारिण:- चामो-द-प्रमो-द-कारि-ण: आमोद-प्रमोद करनेवाले हों। अस्मिश्च-भूमण्डलअस्-मिन्-श्च भूमण-डल इस पृथ्वी पर अपने अपने आयतन-निवासि साधु-साध्वी- आय-तन-निवा-सि साधु-साधू-वी स्थान पर विराजित-साधु-साध्वीजीश्रावक-श्राविकाणां, श्राव-क-श्रावि-काणाम् श्रावक-श्राविकाओं के रोगोपसर्ग-व्याधि-दुःख- रोगोप-सर्ग-व्याधि-दुःख रोग-उपसर्ग-व्याधि-दुःख, दुर्भिक्ष-दौर्मनस्यो-पशमनाय दुर-भिक्-ष-दौर-म-नस्-यो-पश-म-नाय- दुष्काल और विषाद के उपशमन द्वारा शान्ति-र्भवतु ॥१०॥ शान्-तिर्-भ-वतु ॥१०॥ शान्ति हो । १०. अर्थ : ॐ आप पुत्र (पुत्री), मित्र,भाई, (बहन) स्त्री, हितैषी, स्वजातीय, स्नेहिजन और सम्बन्धी परिवारवालों के सहित आनन्द-प्रमोद करनेवाले हों और इस भूमण्डल पर अपने अपने स्थान पर रहे हुए साधु, साध्वी, श्रावक-श्राविकाओं के रोग, उपसर्ग, व्याधि, दुःख, दुष्काल, और विषाद के उपशमन द्वारा शान्ति हो । १०.. ॐ तुष्टि-पुष्टि-ऋद्धि-वृद्धि ओम् तष-टि-पुष-टि-ऋद्-धि वद्-धि- ॐ तुष्टि, पुष्टि, ऋद्धि, वंशवृद्धि, माङ्गल्योत्सवाः सदामाङ्-गल्-योत्-सवाः-सदा कल्याणकारी उत्सव सदा के लिए प्रादुर्भूतानिप्रादुर्-भू-तानि उदय में आते पापानि शाम्यन्तु, दुरितानि, पापा-नि शाम्-यन्-तु, दुरि-तानि, पापकर्म शान्त-नष्ट हों, शत्रवः पराङ्मुखा भवन्तु-स्वाहा ॥११॥ शत्र-वः पराङ्-मुखा भ-वन्-तु-स्वाहा ॥११॥ शत्रुवर्ग विमुख बनें । स्वाहा । ११. अर्थ : ॐ आपको सदा तुष्टि हो, पुष्टि हो, ऋद्धि मिले, माङ्गल्य की प्राप्ति हो और आपका निरन्तर अभ्युदय हो । आपके प्रादुर्भूत पापकर्म नष्ट हों, भय-कठिनाईयाँ शान्त हों और आपके शत्रुवर्ग विमुख बनें । स्वाहा । ११. छंद : अनुष्टुप्; राग : दर्शनं देवदेवस्य... ( प्रभुस्तुति) श्रीमते शान्तिनाथाय, श्री-मते शान्-ति-नाथा-य, श्री शान्तिनाथ भगवंत कोनमः शान्ति-विधायिने। नमः शान्-ति-विधा-यिने । नमस्कार हो, शान्ति करनेवाले, त्रैलोक्यस्या-मराधीशत्रै-लोक-य-स्या-मरा-धीश तीनलोक के प्राणियों को, देवेन्द्रों केमुकुटाभ्य-चिंताघ्रये ॥१२॥ मुकु-टा-भ्यर-चिताङ्-घ्रये ॥१२॥ मुकुटों से पूजित चरणवाले । १२. अर्थ : तीन लोक के प्राणियों को शान्ति करनेवाले और देवेन्द्रों के मुकुटों से पूजित चरण वाले, पूज्य श्री शान्तिनाथ भगवंत को नमस्कार हो । १२. शान्तिः शान्तिकरः श्रीमान, शान्-तिः शान्-ति-करः श्री-मान्-, शान्तिनाथजी, शान्ति करनेवाले, श्रीमान्शान्ति दिशतु मे गुरुः। शान्-तिम् दि-शतु मे गुरुः। शान्ति को दीजीए, मुझे गुरु, शान्तिरेव सदा तेषां, शान्-ति-रेव सदा तेषाम्, शान्ति ही सदा उन्हें होती है, येषां शान्ति-गुहे गृहे ॥१३॥ येषाम्-शान्-तिर-गृहे गृहे ॥१३॥ जिनके घर-घर में होती है। १३. अर्थ : जगत में शान्ति करने-वाले, जगत को धर्म का उपदेश देने-वाले, पूज्य शान्तिनाथ भगवंत मुझे शान्ति प्रदान करें। जिनके घर घर में श्री शान्तिनाथ की पूजा होती है उनके (यहाँ) सदा शान्ति ही होती है। १३. उन्मृष्ट-रिष्ट-दुष्ट-ग्रह-गति- उन्-मृष्-ट-रिष्-ट-दुष्-ट-ग्रह-गति- दूर किये हैं उपद्रव जिन्होंने, दुष्ट ऐसे-ग्रह की गतिदुःस्वप्न-दुनिमित्तादि। दुः-स्वप्-न-दुर्-नि-मित्-तादि । दुष्ट स्वप्न, दुष्ट निमित्त आदि का नाश करनेवाला सम्पादित-हित-सम्पन्- सम्-पा-दित-हित-सम्-पन् आत्महित और संपत्ति को प्राप्त करनेवाला, नाम-ग्रहणं जयति नाम-ग्रह-णम् जय-ति नामोच्चार जय को प्राप्त होता है, शान्तेः ॥१४॥ शान्-तेः ॥१४॥ श्री शान्तिनाथ भगवंत का ।१४. अर्थ : उपद्रव, ग्रहों की दुष्टगति, दुःस्वप्न, दुष्ट अङ्गस्फुरण और दुष्ट निमित्तादि का नाश करने वाला तथा आत्महित और सम्पत्ति को प्राप्त कराने-वाला श्री शान्तिनाथ भगवंत का नामोच्चार जय को प्राप्त होता है।१४. २७० Jail Educan international er & Personal use Culty www.jainelimary.org Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सङ्घ- जगज्जनपद श्री - सङ्घ- जगज्-जन-पद श्री संघ, जगत, देश, राजा-महाराजा, , उनके निवास स्थान राजाधिप-राज-सन्निवेशानाम् । राजा-धिप-राज- सन् -नि-वेशा-नाम् । गोष्- ठिक-पुर-मुख्याणाम्, व्याह-रणैर्-व्या-हरे धर्मसभा के सदस्य, नगर के मुख्य नागरिकों के नाम ग्रहण करके उद्घोषणा करनी चाहिएशान्ति की । १५. च्छान्तिम् ॥ १५ ॥ च्-छान्-तिम् ॥ १५ ॥ अर्थ : श्री सङ्घ, जगत के जनपद, महाराजा और राजाओं के निवास-स्थान, धर्मसभा के सदस्य तथा अग्रगण्य नागरिकों के नाम लेकर शान्ति बोलनी चाहिये । १५. गोष्ठिक - पुरमुख्याणां, व्याहरणैर्व्याहरे श्री श्रमणसङ्घस्यशान्तिर्भवतु । श्री जनपदानांशान्तिर्भवतु । श्री राजाधिपानांशान्तिर्भवतु । श्री राजसन्निवेशानांशान्तिर्भवतु । श्री गोष्ठिकानांशान्तिर्भवतु । श्री पौरमुख्याणां - शान्तिर्भवतु । श्री पौरजनस्यशान्तिर्भवतु । श्री ब्रह्मलोकस्यशान्तिर्भवतु । ॐ स्वाहा ॐ स्वाहा ॐ श्री पार्श्वनाथाय स्वाहा ॥ १६ ॥ एषा शान्तिः प्रतिष्ठा - यात्रा स्नात्राद्यवसानेषु - शान्ति-कलशं गृहीत्वा श्री - श्रम-ण- सङ्घस्-यशान्-तिर्भवतु । श्री-जन-पदा-नाम्शान्-तिर्-भ-वतु । श्री- राजा-धिपानाम्शान्-तिर्भवतु । श्री-राज- सन् नि वेशा-नाम्शान्-तिर्-भ-वतु । श्री-गोष्- ठिका-नाम्शान्-तिर्भवतु । श्री पौर-मुख्याणाम्शान्-तिर्-भ-वतु । श्री- पौर-जनस्यशान्-तिर्-भ-वतु । श्री ब्रह-म लोकस्-यशान्-तिर्भवतु । ओम् स्वाहा ओम् स्वा-हा ओम् श्री पार्श्व ना-थाय स्वाहा ॥१६॥ कुङ्कुम-चन्दन कर्पूरागरु-धूपवास- कुसुमाञ्जलि समेत:स्नात्र - चतुष्किकायांश्रीसङ्गसमेतः, शुचि - शुचि - वपुः पुष्प - वस्त्र-चन्दना भरणालङ्कृतः पुष्पमालां कण्ठे कृत्वा - शान्ति मुद्घोषयित्वा - शान्ति - पानीयं श्री श्रमण संघ के लिए शान्ति हों । श्री जनपदों (देशों) के लिए शान्ति हों । श्री महाराजाओं के लिए शान्ति हों । श्री राजाओं के निवास स्थानो के लिए शान्ति हो । श्री राजाओं शान्ति हों । के निवासस्थानों के लिये शान्ति हो । श्री गोष्ठिकों के- धर्मसभा के सदस्यों श्री धर्मसभा के सदस्यों के लिए शान्ति हों । श्री अग्रगण्य नागरिको के लिए शान्ति हों । श्री नगरजनो के लिए शान्ति हों । श्री समस्त जीवलोक के लिए शान्ति हों । ॐ स्वाहा, ॐ स्वाहा ॐ श्री पार्श्वनाथ भगवंत को स्वाहा । १६. एषा शान्-तिः प्रतिष् ठा - यात्-रास्ना-त्रा-द्य (द्य ) -वसा - नेषु शान्-ति-कलशम् गृहीत्वा कुङ् - कुम- चन्- दनकर्पूरा-गरु-धूप वास- कुसुमाञ्- (मान्) -जलि - समे-त: स्नात्र चतुष् कि कायाम् श्री सङ्घ-समे-तः, शुचि - शुचि - वपुः पुष्-प-वस्-त्र-चन्-दनाभरणा लङ्कृतः पुष्प मालाम् कण्ठे कृत्-वा शान् ति मुद् घोष-यि-त्वा शान्-ति-पानी-यम् अर्थ : श्री श्रमणसङ्घ के लिये शान्ति हो । श्री जनपदों (देशों) के लिये शान्ति हो । श्री राजाधिपों ( महाराजाओं) के लिये For Private Persone Use Only के लिये शान्ति हो । श्री अग्रगण्य नागरिकों के लिये शान्ति हो । श्री नगरजनों के लिये शान्ति हो । श्री ब्रह्मलोक के लिये शान्ति हो । ॐ स्वाहा, ॐ स्वाहा, ॐ श्री पार्श्वनाथ भगवंत को स्वाहा । १६. यह शान्ति पाठ प्रतिष्ठा, यात्रा, स्नात्र आदि के अंत में शान्ति कलश को ग्रहण करकेकेशर, चन्दन, मस्तके दातव्यमिति ॥ १७ ॥ मस्तके दातव् य-मिति ॥ १७ ॥ अर्थ : यह शान्तिपाठ, जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा, रथयात्रा और स्नात्र आदि महोत्सव के अन्त में (बोलना, इसकी विधि इस प्रकार है कि) केसर - चन्दन, कपूर, अगर का धूप, वास (क्षेप) और कुसुमाञ्जलि में विविध रंगों के पुष्प रखकर, बाँये हाथ में शान्तिकलश ग्रहण करके ( तथा उस पर दाँया हाथ ढककर) श्री संघ के साथ स्नात्र मण्डप में खड़े होकर, बाह्य अभ्यन्तर मल से रहित तथा श्वेत वस्त्र, चन्दन और आभरणों से अलङ्कृत होना चाहिये । फूलों का हार गले में धारण करके शान्ति की उद्घोषणा करें और उद्घोषणा के पश्चात् शान्ति-कलश का जल, (अपने तथा अन्य के ) मस्तक पर लगाना चाहिये । १७. कपूर, अगर का धूप, वास (क्षेप), कुसुमांजलि सहित, स्नात्र मण्डप में श्री संघ के साथ अंदर बहार के मल से रहित पवित्र शरीरवाला श्वेतवस्त्र, चन्दन, पुष्प, अलंकारों से सुशोभित पुष्प माला कण्ठ में धारण करकेशान्ति की उद्घोषणा करके शान्ति कलश का जल (अपने व दूसरों के) मस्तक पर लगाना चाहिये । १७. २७१ 412440 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छंद : गाहा; राग : जिणजम्म समये मेरु सिहरे...(स्नात्र पूजा) अर्थ : पुण्यशाली लोग जिनेश्वर नृत्यन्ति नृत्यं- नृत्-यन्-ति नृत्-यम्- नृत्य करते हैं, नृत्य को की स्नात्र क्रिया के प्रसङ्ग पर मणि-पुष्प-वर्ष, मणि-पुष्-प-वर-षम्, रत्न और पुष्प की वर्षा करते हुए, विविध प्रकारके नृत्य करते हैं, रत्न सृजन्ति गायन्ति- स-जन्-ति गा-यन्-ति- रचना करते है और गीत गाते हैं और पुष्पों की वर्षा करते हैं, च मङ्गलानि। अष्ट मंगलों की। स्तोत्राणि गोत्राणि-स्तो-त्राणि गो-त्राणि- स्तोत्रों, तीर्थंकरों के गोत्रों, (अष्ट-मङ्गलादि का आलेखन पठन्ति मन्त्रान्, करते हैं तथा) माङ्गलिक-स्तोत्र बोलते हैं, मन्त्रप-ठन्-ति मन्-त्रान्, कल्याणभाजो हि-कल्-याण-भाजो हि कल्याण के भाजन बनते हैं, निश्चय से- गात ह आर ताथङ्कर के गात्र, जिनाभिषेके ॥१८॥ जिना-भि-के॥१८॥ जिनेश्वर भगवंत के अभिषेक में । १८. वंशावलि एवं मन्त्र बोलते हैं।१८. छंद : गाहा; राग : जिणजम्म समये मेरु सिहरे... (स्त्रात्र पूजा) शिवमस्तु सर्वजगतः, शिव-मस्-तु सर-व-जग-तः, कल्याण हो, अखिल विश्व का, पर-हित-निरता-भवन्तु भूतगणाः। पर-हित-नि-रता-भवन्-तु भूतगणाः। परोपकार में तत्पर-हो, प्राणी-समूह। दोषाः प्रयान्तु नाशं, दोषाः प्रयान्-तु नाशम्, दोष हो नष्ट, सर्वत्र सुखी-भवतु लोकः ॥१९॥ सर-वत्र सुखी भ-वतु लो-कः ॥१९॥ सर्वत्र सुखी हों लोग । १९. अर्थ : अखिल विश्व का कल्याण हो, प्राणी-समूह परोपकार में तत्पर बनें; व्याधि-दुःख-दौर्मनस्य आदि नष्ट हों और सर्वत्र चौदह राजलोक के जीव सुख भोगनेवाले बने । १९. छंद : आर्या; राग : सुपवित्रतीर्थनीरेण...(१०८ पार्श्वनाथपूजन स्तुति) अर्थ : मैं श्रीअरिष्टनेमि अहं तित्थयर-माया, अहम् तित्-थ-यर-माया, मैं तीर्थंकर की माता, की माता शिवादेवी सिवादेवी तुम्ह नयर- सिवा-देवी तुम्-ह नय-र- शिवादेवी तुम्हारे नगर में तुम्हारे नगर में रहती है। निवासिनी। नि-वासिनी। रहनेवाली, अतः हमारा और तुम्हारा अम्ह सिवं तुम्ह सिवं, अम्-ह सिवम् तुम्-ह सिवम्, हमारा कल्याण, तुम्हारा कल्याण, श्रेय हो, तथा उपद्रवों असिवोवसमं सिवं असि-वो-वस-मम् सिवम् विघ्न का नाश, का नाश और कल्याण भवतु-स्वा-हा ॥२०॥ भ-व-तु-स्वाहा ॥२०॥ कल्याण हो । २० हो ।२०. छंद : अनुष्टप; राग : दर्शनं देव देवस्य... (प्रभस्तुति) अर्थ : श्री जिनेश्वरदेव का उपसर्गाः क्षयं यान्ति, उप-सर्-गाः क्षयं यान्ति, उपसर्ग नष्ट होते हैं। पूजन करने से उपसर्ग नष्ट हो जाते हैं, विघ्न रुपी छिद्यन्ते विघ्न-वल्लयः। छिद्-यन्-ते विद्य-न-वल्-ल-यः छेदन होता है, विज रुपी लताओं का, लताओं का छेदन होता है मनः प्रसन्नतामेति, मनः प्रसन्-न-ता-मेति, मन प्रसन्नता को प्राप्त करता है, और मन प्रसन्नता को पूज्यमाने जिनेश्वरे॥२१॥ पूज्-य-माने जिनेश्-वरे॥२१॥ 'पूजन करने से जिनेश्वर का । २१. पाता सर्व-मङ्गल-माङ्गल्यं, सर-व-मङ्-गल्-माङ्-गल-यम्, सर्व मंगलो में मंगल रुप, सर्व-कल्याण-कारणम् । सर-व-कल्-याण-कार-णाम् । सर्व कल्याणों का कारण रुप, प्रधानं सर्व-धर्माणां, प्रधा-नम् सर्-व-धर्-मा-णम्, प्रधान (=श्रेष्ठ )सर्व धर्मो में जैनं जयति शासनम् ॥२२॥ जैनम्-ज-य-ति-शा-स-नम् ॥२२॥ ऐसा जैन धर्म का जय हो रहा है, शासन । २२. अर्थ : सर्व मङ्गलों में मङ्गल रूप, सर्व कल्याणों का कारण रूप और सर्व धर्मों में श्रेष्ठ ऐसे जैन शासन (प्रवचन) का जय हो रहा है। २२. उपयोग के अभाव से होते अशुद्ध उच्चारण के सामने शुद्ध उच्चारण अशुद्ध अशुद्ध शुद्ध अशुद्ध पुण्याहां पुण्याहां पुण्याहं पुण्याहं मेघा विध्यासाधन मेघा विद्या साधन उन्म्रष्टरिष्ट उन्मृष्टरिष्ट शान्तिरभवतु शान्तिर्भवतु मांगल्योत्स्वा मांगल्योत्सवाः अम्हशिवं तुम्हशिवं अम्हसिवं तुम्हसिवं भगवतो रन्तः भगवतोर्हन्तः कंठेक्रत्वा कंठेकृत्वा गोष्टिक पुरमुख्याणां गोष्ठिक-पुरमुख्याणां तृष्टिर भवतुं तुष्टिर्भवतु ब्रहस्पति बृहस्पति अशिवोवसमं शिवं भवतु असिवोवसमं सिवं भवतु लोकोध्योतकरा: लोकोद्योतकराः सुग्रहीतनामनो सुगृहीतनामानो व्याहरणैव्याहरेच्छान्तिम् व्याहरणैाहरेच्छान्तिम् पुष्टिरभवतु पुष्टिर्भवतु शान्तिर्ग्रहेगृहे शान्तिहेगृहे तित्थयरमाया शिवादेवी तित्थयरमाया सिवादेवी ध्रति मति धृति मति विध्यादेव्यो विद्यादेव्यो शान्तिकलशंग्रहीत्वा शान्तिकलशंगृहीत्वा २७२ sanitation international शुद्ध Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८. श्री पाक्षिकादि अतिचार सूत्र' नाणम्मिदंसणम्मि अ, चरणम्मितवम्मितहय वीरियम्म्मि। तणी अनुपबृंहणा कीधी । अस्थिरीकरण, आयरणं आयारो,इअएसो पंचहा भणिओ॥१॥ अवात्सल्य, अप्रीति, अभक्ति नीपजावी, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, अबहुमान कीg, तथा देवद्रव्य, गुरुद्रव्य, वीर्याचार ए पंचविध आचारमांहि अनेरो जे कोई ज्ञानद्रव्य, साधारण द्रव्य, भक्षित उपेक्षित, अतिचार पक्ष दिवसमांहि सूक्ष्म-बादर जाणतां प्रज्ञापराधे विणास्यां, विणसतां उवेख्यां, छती अजाणतां हुओ होय, ते सवि हु मन-वचन-कायाए शक्तिए सार संभाळ न कीधी । तथा साधर्मिक करी मिच्छा मि दुक्कडं॥१॥ साथे कलह कर्मबंध कीधो । अधोती, अष्टपड तत्र ज्ञानाचारे आठ अतिचार मुखकोश पाखे देवपूजा कीधी, बिंब प्रत्ये वासकूपी, धूपधाणुं, कळश तणो ठपको लाग्यो। काले विणए बहुमाणे, उवहाणे तह अनिण्हवणे। बिंब हाथ थकी पाड्यु, ऊसास-निःसास लाग्यो। वंजण अत्थ तदुभए, अट्ठविहो नाण-मायारो ॥१॥ देहरे, उपाश्रये मल-श्लेष्मादिक लोह्यं । देहरा मांहे ज्ञान काळ वेळाए भण्यो गण्यो नहीं, अकाळे हास्य,खेल, केलि, कुतूहल आहार नीहार कीधां। भण्यो, विनयहीन, बहमानहीन, योग-उपधानहीन, पान-सोपारी, निवेदीयां खाधां। ठवणायरिय हाथ अनेरा कन्हे भणी अनेरो गुरु कह्यो । देव गुरु वांदणे, थकी पाड्यां, पडिलेहवा विसार्यां । जिनभवने पडिक्कमणे सज्झाय करतां, भणतां, गुणतां, कूडो अक्षर चोराशी आशातना, गुरु गुरुणी प्रत्ये तेत्रीश काने मात्राए अधिको ओछो भण्यो । सूत्र कूडं कह्यु, आशातना कीधी होय, गुरुवचन 'तहत्ति' करी अर्थ कूडो कह्यो, तदुभय कूडां कह्या, भणीने विसार्यां। योगमुद्रा में पडिवज्युं नहीं ॥ दर्शनाचार विषइओ अनेरो जे साधु तणे धर्मे काजो अणउद्धर्ये, दांडो अणपडिलेहे, बोलते-सुनते कोई अतिचार पक्ष दिवस....॥२॥ वसती अणशोधे, अणपवेसे असज्झाय अणोज्झाय- समय की मुद्रा चारित्राचारेआठअतिचार माहे श्री दशवैकालिक प्रमुख सिद्धांत भण्यो गण्यो। पणिहाणजोगजुत्तो, पंचहिं समिईहिं तीहिं गुत्तीहि । श्रावक तणे धर्मे स्थविरावलि, पडिक्कमणां, उपदेशमाळा प्रमुख सिद्धांत भण्यो गुण्यो, काळवेळाए काजो अण-उद्धर्ये पढ्यो । एस चरित्तायारो, अट्ठविहो होइ नयव्वो ॥१॥ ज्ञानोपगरण पाटी,पोथी, ठवणी, कवली, नोकारवाळी, सापडा, 1 इर्यासमिति ते अणजोये हिंड्या । भाषा समिति ते सावध सापडी, दस्तरी, वही, ओलियां प्रमुख प्रत्ये पग लाग्यो, थूक वचन बोल्या । एषणा समिति ते तृण, डगल, अन्न-पाणी लाग्यु,धुंके करी अक्षर मांज्यो,ओशीसें धर्यो, कन्हे छतां आहार असूझतुं लीधुं, आदानभंडमत्त-निक्खेवणा समिति ते आसन, नीहार कीधो। शयन, उपकरण, मातरं प्रमुख अणपुंजी जीवाकुल भूमिकाए ज्ञानद्रव्य भक्षतां उपेक्षा कीधी । प्रज्ञापराधे विणश्यो, मूक्युं लीधुं । पारिष्ठापनिका समिति, ते मल-मूत्र श्लेष्मादिक विणसंतो उवेख्यो, छती शक्तिए सार संभाळ न कीधी । ज्ञानवंत / अणपूंजी जीवाकुल भूमिकाए परठव्यु । मनोगुप्ति-मनमां आर्त्त प्रत्येय द्वेष, मत्सरचिंतव्यो, अवज्ञा आशातना कीधी। कोई प्रत्ये रौद्र ध्यान ध्यायां । वचनगुप्ति-सावध वचन बोल्यां । भणतां-गणता अंतराय कीधो । आपणा जाणपणा तणो गर्व कायगुप्ति-शरीर अणपडिलेडं हलाव्यु, अणपूंजे बेठा । ए अष्ट चिंतव्यो । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, प्रवचनमाता साधुतणे धर्मे सदैव अने श्रावकतणे धर्मे सामायिक केवलज्ञान ए पंचविध ज्ञानतणी असहहणा कीधी। कोई तोतडो, पोसह लीधे रूडी पेरे पाळ्यां नहीं, खंडणा विराधना हुई ॥ बोबडो देखी हस्यो, वितयों, अन्यथा प्ररूपणा कीधी ॥ चारित्राचार विषईओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष दिवसमांहि ज्ञानाचार विषईओ अनेरोजे कोई अतिचार पक्ष दिवस... ॥१॥ सूक्ष्म बादर जाणतां अजाणतां हुओ होय, ते सवि हुमन-वचनदर्शनाचारे आठ अतिचार कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं॥३॥ विशेषतः श्रावकतणे धर्मे श्री सम्यक्त्व मूल बार व्रत निस्संकिय निक्कंखिय, निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी अ। सम्यक्त्व तणा पांच अतिचार ॥ संका कंख विगिच्छा ॥ उववूह थिरीकरणे, वच्छल्ल-प्पभावणे अट्ठ॥१॥ शंका =श्री अरिहंत-तणां बळ, अतिशय, ज्ञानलक्ष्मी, देव-गरु-धर्म तणे विषे निःशंकपणुं न की, तथा एकांत गांभीर्यादिक गुण, शाश्वती प्रतिमा, चारित्रीयानां चारित्र, श्री निश्चय न कीधो।धर्म संबंधिया फल तणे विषे निःसंदेह बुद्धिधरी जिनवचनतणो संदेह कीधो॥आकांक्षा=ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, नहीं । साधु-साध्वीनां मल-मलिन गात्र देखी दुर्गंछा निपजावी। क्षेत्रपाल, गोगो, आसपाल, पादर देवता, गोत्र-देवता, ग्रहकुचारित्रीया देखी चारित्रीया उपर अभाव हुओ। मिथ्यात्वी तणी पूजा, विनायक, हनुमंत, सुग्रीव, वाली, नाह, इत्येवमादिक पूजा प्रभावना देखी मूढदृष्टिपणुं कीधुं । तथा संघ माहे गुणवंत देश, नगर, गाम, गोत्र, नगरी, जूजूआ देव देहराना प्रभाव देखी २७३ For Private & Perse Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोग आतंक कष्ट आव्ये इहलोक-परलोकार्थे पूज्या - मान्या । सिद्ध विनायक जीराउलाने मान्युं इच्छ्युं । बौद्ध, सांख्यादिक, संन्यासी, भरडा, भगत, लिंगिया, जोगी, जोगिया, दरवेश, अनेरा दर्शनीयातणो कष्ट, मंत्र चमत्कार देखी परमार्थ जाण्या विना भूल्या व्यामोह्या । कुशास्त्र शीख्यां, सांभळ्यां । श्राद्ध, संवच्छरी, होळी, बलेव, माहि-पूनम, अजा-पडवो, प्रेत-बीज, गौरी- त्रीज, विनायक चोथ, नाग पंचमी, झीणला छुट्टी, शील-सातमी, ध्रुव-आठमी, नौली-नवमी, अहवा-दशमी, व्रत- अग्यारशी, वत्स- बारशी, धन-तेरशी, अनंत चतुर्दशी, अमावास्या, आदित्यवार, उत्तरायण नैवेद्य कीधां । नवोदक, याग, भोग, उतारणां कीधां, कराव्यां, अनुमोद्यां । पींपले पाणी घाल्यां, घलाव्यां, घरबाहिर क्षेत्र, खले, कूवे, तळावे, नदीए, द्रहे, वावीए, समुद्रे, कुंडे पुण्यहेतु स्नान कीधां, कराव्यां, अनुमोद्यां, दान दीधां । ग्रहण, शनैश्चर, माहमासे नवरात्रि न्हाया । अजाणनां थाप्यां, अनेराइ व्रत - व्रतोलां कीधां, कराव्यां ॥ पहेले स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रते पांच अतिचार || वहबंधछविच्छेए ॥ द्विपद, चतुष्पद प्रत्ये रीसवशे गाढो घाव धाल्यो, गाढे बंधने बांध्यो । अधिक भार घाल्यो । निर्लांछन कर्म कीधां । चारा-पाणी तणी वेळाए सार संभाळ न कीधी। लेहणे देहणे किणहि प्रत्ये लंघाव्यो, तेणे भूख्ये आपणे जम्या । कन्हेरही मराव्यो । बंदीखाने घलाव्यो । सळ्यां धान्य तावडे नाख्यां, दळाव्यां, भरडाव्यां, शोधी न वावर्या । इंधण, छाणां अणशोध्यां बाळ्यां । ते मांहि साप, विंछी, खजूरा, सरवला, मांकड, जूआ, त्रीजे स्थूल अदत्तादान-विरमण व्रते पांच अतिचार ॥ तेना हडप्पओगे ॥ घर-बाहिर क्षेत्रे-खले पराई वस्तु अणमोकली लीधी, वावरी, चोराई वस्तु वहोरी। चोर धाड प्रत्ये संकेत कीधो । तेहने संबल दीधुं । तेहनी वस्तु लीधी । विरुद्ध राज्यातिक्रम कीधो । नवा, पुराणा, सरस, विरस, सजीव, निर्जीव वस्तुना भेल संभेल कीधा । कूडे, काटले, तोले, माने, मापे I वितिगिच्छा-धर्म संबंधिया फल तणे विषे संदेह कीधो। जिन अरिहंत धर्मना आगार, विश्वोपकारसागार, मोक्षमार्गना दातार, इर्ष्या गुणभणी न मान्या, न पूज्या । महासती, महात्मा नीवहोर्या । दाणचोरी कीधी । कुणहिने लेखे वरांस्यो । साटे लांच इहलोक परलोक संबंधीया भोगवांछित पूजा कीघी । रोग, लीधी । कूडो करहो काढ्यो । विश्वासघात कीधो । पर- वंचना आतंक, कष्ट आव्ये खीण वचन भोग मान्या । महात्मा नां भात, कीधी । पासंग कूडां कीधां । दांडी चढावी, लहके - त्रहके कूडां पाणी, मल, शोभा तणी निंदा कीधी । कुचारित्रिया देखी काटलां, मान, मापां कीधां । माता-पिता, पुत्र, मित्र कलत्र वंची चारित्रिया उपरकुभाव हुआ । मिथ्यात्वी तणी पूजा प्रभावना देखी कूणहिने दीधुं । जुदी गांठ कीधी । थापण ओळवी । कुणहिने लेखे प्रशंसा कीधी, प्रीति मांडी । दाक्षिण्य लगे तेहनो धर्म मान्यो, पलेखे भूलव्यं । पडी वस्तु ओळवी लीधी ॥ त्रीजे स्थूल॥ श्री सम्यक्त्व व्रत विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष अदत्तादान - विरमण-व्रत विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष दिवसमांहि.....॥ दिवस... ॥३॥ गोडा साहतां मुआ, दुहव्या, रूडे स्थानके न मूक्या । कीडी मकोडीनां ईंडा विछोह्यां, लीख फोडी । उधही, कीडी मंकोडी, घिमेल, कातरा, चूडेल, पतंगियां, देडकां, अलसियां, इयल, कुंता, डांस, मसा, बगतरा, माखी, तीड प्रमुख जीव विणट्ठा | माला हलावतां चलावतां पंखी, चकला, कागतणां, ईंडा फोड्यां । अनेरा एकेंद्रियादिक जीव विणास्या, चांप्या, दुहव्या, कांई हलावतां-चलावतां, पाणी छांटतां, अनेरा कांई कामकाज करतां, निर्ध्वंसपणुं कीधुं । जीवरक्षा रूडी न कीधी । संखारो सूकव्यो। रूडुं गलणुं न कीधुं, अणगळ पाणी वावर्युं । रूडी जयणा न कधी । अणगळ पाणीए झील्या, लुगडां धोयां । खाटला तावडे नाख्या, झाटक्या । जीवाकुल भूमि लींपी । वाशी गार राखी । दलणे, खांडणे, लपणे रूडी जयणा न कीधी। आठम, चौदशना नियम भांग्या । धूणी करावी ॥ पहेले स्थूल प्राणातिपात-विरमणव्रत विषइओ अनेरो जे कोई अतिचारपक्ष दिवसमांहि ... ॥ १ ॥ बीजे स्थूल मृषावाद - विरमण-व्रते पांच अतिचार ॥ २७४ Jain Education r सहसा रहस्स दारे ॥ सहसात्कारे कुणही प्रत्ये अजुगतुं आळ अभ्याख्यान दीधुं । स्वदारा-मंत्रभेद कीधो । अनेरो कुहिनो मंत्र, आलोच मर्म प्रकाश्यो । कुणहीने अनर्थ पाडवा कूडी बुद्धि दीधी । कूडो लेख लख्यो । कूडी साख भरी । थापण मोसो कीधो । कन्या, गौ, ढोर, भूमि-संबंधी लेहणे-देहणे व्यवसाये वाद - वढवाड करतां मोटकुं जूटुं बोल्यां, हाथ- पग-तणी गाल दीधी, कडकडा मोड्या, मर्म वचन बोल्या ॥ बीजे स्थूल मृषावाद विरमण व्रत विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष... ॥२॥ चोथे स्वदारा- संतोष-परस्त्रीगमन विरमण व्रते पांच अतिचार ॥ अपरिग्गहियाइत्तर ॥ अपरिगृहिता - गमन, इत्वरपरिगृहिता - गमन कीधुं । विधवा, वेश्या, परस्त्री, कुलांगना, स्वदारा, शोकतणे विषे द्रष्टि विपर्यास कीधो । सराग वचन बोल्यां । आठम, चौदश, अनेरी तिथिना नियम लई भांग्या । घर घरणां कीधां, कराव्यां । वर- वहूवखाण्यां । कुविकल्प चिंतव्यो । अनंगक्रीडा कीधी । स्त्रीना अंगोपांग नीरख्या । पराया विवाह जोड्या । ढींगला ढींगली परणाव्या । कामभोग तणे विषे तीव्र अभिलाष कीधो । अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार सुहणे स्वप्नान्तरे हुआ । कुस्वप्न लाध्यां । नट, विट, स्त्रीशुं हासुं कीधुं ॥ चोथे स्वदारासंतोष-परस्त्रीगमन-विरमण व्रत विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष .... ॥४॥ पांचमे परिग्रह परिणाम व्रते पांच अतिचार ॥ धणधन्न खित्तवत्थू ॥ धन, धान्य, क्षेत्र, वास्तु, रूप्य, सुवर्ण, कुप्य, द्विपद, चतुष्पद ए नवविध परिग्रहतणा नियम उपरांत वृद्धि देखी मूर्च्छा लगे संक्षेप न कीधो । माता, पिता, पुत्र, स्त्री तणे लेखे कीधो । परिग्रह परिमाण लीधुं नहीं । लइने पढियुं नहीं, पढवु विसार्यु । अलीधुं मेल्युं । नियम विसार्या । पांचमे परिग्रह परिमाण व्रत विषइओ अनेरो जे कोई अतिचारपक्ष दिवस मांहि .... ॥५॥ छट्ठे दिग् परिमाण व्रते पांच अतिचार । गमणस्स उ परिमाणे ॥ ऊर्ध्व दिशि, अधो दिशि, तिर्यग् दिशिए जवा आववा Ery.org Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तणा नियम लइ भांग्या । अनाभोगे विस्मृति लगे अधिक भूमि प्रमादाचरण सेव्यां । अंघोले, नाहणे, दातणे, पग-धोअणे, खेल गया। पाठवणी आधी-पाछी मोकली। वहाण-व्यवसाय कीधो। पाणी तेल छांट्यां, झीलणे झील्या। जुगटे रम्या। हिंचोले हिच्या। वर्षाकाले गामतरु कीधुं । भूमिका एक गाममा संक्षेपी, बीजी नाटक-प्रेक्षणक जोयां । कण, कुवस्तु ढोर लेवराव्यां । कर्कश गाममां वधारी ॥ छट्टे दिग् परिमाण व्रत विषइओ अनेरो जे कोई वचन बोल्यां,आक्रोश कीधा ।अबोला लीधा करकडा मोड्या। अतिचारपक्षदिवस मांहि... ॥६॥ मच्छर धर्यो । संभेडा लगाड्या । शाप दीधा । भैंसा, सांढ, हुडु, सातमे भोगोपभोग परिमाण व्रते भोजन आश्रयी पांच कूकडा, श्वानादिक झुझार्या, झूझता जोयां, खादि लगे अदेखाइ अतिचार अने कर्म हुती पंदर अतिचार, एवं वीस अतिचार ॥ चितवी । माटी, मीठं, कण, कपासिया, काज विण चाप्या, ते सच्चित्ते पडिबद्धे। सचित्त नियम लीधे अधिक सचित्त लीधं । उपर बेठा, आली वनस्पति खूदी । सूई, शस्त्रादिक निपजाव्यां। अपक्वाहार, दुष्पक्वाहार, तुच्छौषधितणुं भक्षण कीर्छ । ओला, घणी निन्द्रा कीधी । राग द्वेष लगे एक ने ऋद्धि परिवार वांछी, उंबी, पोंक,पापडी खाधां॥ एकने मृत्यु हानि वांछी ॥आठमे अनर्थदंड विरमण व्रत विषडओ सच्चित्त दव्व-विगइ-वाहण तंबोल-वत्थ-कुसुमेसु। अनेरोजे काई अतिचारपक्षदिवसमांहि...॥८॥ वाणह-सयण-विलेवण-बंभ-दिसि-न्हाण-भत्तेसु॥१॥ नवमे सामायिक व्रते पांच अतिचार। एचौद नियम दिनगत,रात्रिगत लीधा नहीं।लइने भांग्या। तिविहे दुप्पणिहाणे ॥ सामायिक लीधे मने आहट्ट दोहट्ट बावीश अभक्ष्य, बत्रीश अनंतकाय मांहि आदु, मूला,गाजर, चिंतव्यं,सावध वचन बोल्यां। शरीर अणपडिलेह्य हलाव्यं । छती पिंड, पिंडालु, कचुरो, सूरण, कुणी आंबली, गलो, वाघरडां वेळाए सामायिक न लीधुं । सामायिक लई उघाडे मुखे बोल्यां । खाधां । वाशी कठोल, पोली रोटली,त्रण दिवस- ओदन लीधुं, उंघ आवी । वात विकथा घरतणी चिंता कीधी। वीज दीवा तणी महुडां, माखण, माटी, वेंगण, पीलुं, पीचुं, पंपोटा, विष, हिम, उजेहिहुइ।कण, कपासिया,माटी,मीठं,खडी,धावडी,अरणेटो करहा, घोलवडां, अजाण्यां फल, टिंबरुं, गुंदा, महोर, बोळ पाषाण प्रमुख चाप्यां । पाणी, नील, फूल, सेवाल, हरियकाय, अथाj, आम्बलबोर, काचुं-मीठं, तिल, खस-खस, कोठिंबडांबीयकाय इत्यादि आभड्यां । स्त्री तिर्यंचतणा निरंतर परंपर संघट्ट खाधां, रात्रि-भोजन कीधां । लगभग वेळाए वाळु कीर्छ । दिवस हुआ।मुहपत्ति उत्संघट्टी।सामायिक अणपूग्युं पार्यु, पारवू विसायु विण ऊगेशीराव्या। ॥ नवमे सामायिक व्रत विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष तथा कर्मतः पन्नर कर्मादान - इंगाल-कम्मे, वण-कम्मे, दिवस मांहि...॥९॥ साडी-कम्मे, भाडी-कम्मे, फोडी-कम्मे, ए पांच कर्म ॥ दशमे देशावगाशिक व्रते पांच अतिचार॥ दंत-वाणिज्जे, लक्ख-वाणिज्जे, रस-वाणिज्जे, केस- आणवणे पेसवणे ॥ आणवणप्पओगे, पेसवणप्पओगे, वाणिज्जे, विस-वाणिज्जे, ए पांच वाणिज्य, जंतपिल्लण- सद्दाणुवाइ-रुवाणुवाइ, बहिया-पुग्गल-पक्खेवे ॥ नियमित कम्मे, निलंछण-कम्मे, दवग्गि-दावणया, सरदह-तलाय- भूमिकामांहि बाहिरथी कांई अणाव्युं । आपण कन्हे थकी बाहेर सोसणया, असइ-पोसणया, ए पांच सामान्य, ए पांच कर्म, पांच कांई मोकल्युं अथवा रूप देखाडी, कांकरो नाखी, साद करी वाणिज्य, पांच सामान्य एवं पन्नर कर्मादान बहु सावद्य महारंभ, आपणपणुं छतुं जणाव्युं ॥ दशमे देशावगाशिक व्रत विषइओ रांगण लीहाला कराव्या, ईट निभाडा पकाव्या । धाणी, चणा, अनेरोजे कोई अतिचार पक्ष दिवस मांहि... ॥१०॥ पक्वान्न करी वेच्या, वाशी माखण तवाव्यां। तिल वहोर्या,फागण अग्यारमे पौषधोपवास व्रते पांच अतिचार ।। मास उपरांत राख्या, दलीदो कीधो । अंगीठा कराव्या । श्वान, संथारुच्चारविहि ॥ अप्पडिलेहिय, दुप्पडिलेहिय, सिज्जा बिलाडा, सूडा सालही पोष्यां । अनेरां जे कांइ बहु सावध संथारए, अप्पडिलेहिय दुष्पडिलेहिय उच्चार पासवण भूमि ॥ खरकर्मादिक समाचर्या । वाशी गार राखी । लींपणे गूंपणे महारंभ पोसह लीधे संथारा तणी भूमि न पूंजी । बाहिरलां लहुडां वडां कीधो ।अणशोध्या चूला संघूक्या । घी, तेल, गोळ, छाश-तणां स्थंडिल दिवसे शोध्या नहीं, पडिलेह्यां नहीं । मातरूं अणपूंज्यु भाजन उघाडां मूक्यां । ते मांहि माखी, कुंति, उंदर, गीरोली पडी, हलाव्यु, अणपूंजी भूमिकाए परठव्युं । परठवतां 'अणुजाणह, कीडी चडी, तेनी जयणा न कीधी ॥सातमे भोगोपभोग परिमाण जस्सुग्गहो' न कह्यो, परठाव्या पूंठे वार त्रण 'वोसिरे वोसिरे' न व्रत विषइओ अनेरोजे कोई अतिचारपक्ष दिवस मांहि... ॥७॥ का । पोसहशालामांहि पेसतां निसीहि', नीसरतां आवस्सहि' आठमें अनर्थदंड-विरमण-व्रते पांच अतिचार॥ वारत्रण भणी नहीं । पुढवी, अप, तेउ, वाउ, वनस्पति, जसकाय कंदप्पे कुक्कुइए ॥ कंदर्प लगे विट-चेष्टा हास्य, खेल, तणा संघट्ट, परिताप, उपद्रव हुआ । संथारा पोरिसि तणो विधि कुतूहल कीधां । पुरुष स्त्रीनां हाव-भाव, रूप-शृंगार, विषयरस भणवो विसार्यो । पोरिसिमांहे उघ्या। अविधिए संथारो पाथर्यो । वखाण्यां । राजकथा, भक्तकथा, देशकथा, स्त्रीकथा कीधी । पारणादिकतणी चिंता कीधी । काळ वेळाए देव न वांद्या । पराइ तांत कीधी तथा पेशुन्यपणुंकीर्छ । आर्त्त रोद्रध्यान ध्यायां । पडिक्कमणुंन कीर्छ । पोसह असूरो लीधो, सवेरो पार्यो । पर्वतिथिए खांडा, कटार, कोश, कुहाडा, रथ, उखल, मुशल, अग्नि, घरंटी, पोसहलीधो नहीं ॥अग्यारमे पौषधोपवास व्रत विषइओ अनेरोजे निशाहे, दातरडां प्रमुख अधिकरण मेली दक्षिण्य लगे माग्यां कोई अतिचारपक्ष... ॥११॥ आप्यां । पापोपदेश कीधों । अष्टमी चतुर्दशीए खांडवा-दळवा बारमे अतिथिसंविभाग व्रते पांच अतिचार ॥ सच्चित्ते तणा नियम भांग्या । मुखरपणा लगे असंबद्ध वाक्य बोल्यां ।। निक्खिवणे ॥ सचित्त वस्तु हेठ उपर छतां महात्मा महासती प्रत्ये २७५ www.jaimalitimaryierg Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । प्रातपय असूझतुं दान दीधुं । देवानी बुद्धिए असूझतुं फेडी सूजतुं वैयावच्च न कीधुं । वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा कीधुं, परायुं फेडी आपणुंकीर्छ । अण देवानी बुद्धिए सूझतुं लक्षण पंचविध स्वाध्याय न कीधो । धर्मध्यान, शुक्लध्यान न फेडी असूझतुं कीg, आपणुं फेडी परायुं कीधुं। वहोरवा वेला ध्यायां,,आर्तध्यान, रौद्रध्यान ध्यायां । कर्मक्षय निमित्ते लोगस्स दश टली रह्या ।असूर करी महात्मा तेड्या । मत्सर धरी दान दीधुं। वीशनो काउस्सग्ग न कीधो ॥ अभ्यंतर तप विषइओ अनेरो जे कोई गुणवंत आव्ये भक्ति न साचवी।छती शक्तिए स्वामीवात्सल्य अतिचारपक्ष दिवस मांहि... ॥१५॥ न कीर्छ । अनेरां धर्मक्षेत्र सीदातां छती शक्तिए उद्धर्यां नहीं। वीर्याचारना त्रण अतिचार॥ दीन क्षीण प्रत्ये अनुकंपा दान न दीर्छ। अणिगूहिअ-बलविरिओ ! पढ़वे, गुणवे, विनय, वैयावच्च, बारमे अतिथि संविभाग व्रत विषइओ अनेरो जे काई देवपूजा, सामायिक, पोसह, दान, शील, तप, भावनादिक धर्म अतिचारपक्षदिवसमांहि... ॥१२॥ कृत्यने विषे मन वचन कायातणुंछतुं बल, छतुं वीर्य गोपव्युं । रूडां संलेषणा तणा पांच अतिचार। पंचांग खमासमण न दीधां । वांदणा तणां आवर्त्त विधि साचव्या नहीं इहलोए परलोए ॥ इहलोगासंप्पओगे, परलोगा- अन्य चित्त निरादरपणे बेठा । उतावळु देववंदन, पडिक्कमणुंकीर्छ । संसप्पओगे, मरणा-संसप्पओगे, कामभोगा-संसप्पओगे, वीर्याचारविषइओ अनेरो जे कोई अतिचारपक्ष दिवस मांहि... ॥१६॥ इहलोके धर्मना प्रभाव लगे राजऋद्धि, सुख, सौभाग्य, नाणाइअट्ठपइवय-सम्मसंलेहणपण पन्नरकम्मेसु। परिवारवांछ्यां। परलोके देव देवेन्द्र, विद्याधर, चक्रवर्ती तणी बारस तप विरिअतिगं,चउव्वीससयं अडयारो॥१॥ पदवी वांछी, सुख आव्ये जीवितव्य-वांछ्युं, दुःख आव्ये पडिसिद्धाणं करणे॥ मरण वांछ्यं । कामभोग तणी वांछा कीधी ॥ संलेषणा व्रत प्रतिषेध अभक्ष्य, अनंतकाय, बहुबीज-भक्षण, महारंभविषड़ओ अनेरोजे कोई अतिचारपक्ष दिवस मांहि...॥१३॥ परिग्रहादिक कीधां । जीवाजीवादिक सूक्ष्म विचार सद्दह्या नहीं। तपाचार बार भेद-छ बाह्य, छ अभ्यंतर ॥ अणसण- आपणी कुमतिलगे उत्सूत्र-प्ररूपणा कीधी । तथा प्राणातिपात, मणोअरिया॥अणसण भणी उपवास विशेष पर्वतिथिए छती मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, शक्तिए कीधो नहीं । ऊणोदरी व्रत ते कोळिया पांच सात ऊणा द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, रति-अरति, परपरिवाद, रह्या नहीं। वृत्तिसंक्षेप ते द्रव्य भणी सर्व वस्तुनो संक्षेप कीधो मायामृषावाद, मिथ्यात्वशल्य ए अढार पापस्थान कीधां, कराव्यां नहीं । रसत्याग ते विगइत्याग न कीधो । कायक्लेश ते अनुमोद्यां होय । दिनकृत्य-प्रतिक्रमण, विनय,वैयावच्च न कीधां । लोचादिक कष्ट सहन कर्यां नहीं । संलीनता-ते अंगोपाग अनेरुंजे कांई वीतरागनी आज्ञा विरुद्ध कीर्छ,कराव्यं, अनुमोद्यं होय संकोची राख्या नहीं। पच्चक्खाण भांग्यां । पाटलो डगडगतो ॥ ए चिहुं प्रकार मांहे अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष दिवस मांहि, सूक्ष्म फेड्यो नहीं। गंठसी, पोरिसि, साड्डपोरिसि, पुरिमड्डू, एकासगुं, बादरजाणतां अजाणतां हुओ होय ते सवि हुमन-वचन-कायाए करी बिआसणुंनीवि।आंबिल प्रमुख पच्चक्खाण पारदुं विसायें। मिच्छा मि दुक्कडं ॥१७॥ बेसतां नवकार न भण्यो। उठतां पच्चक्खाण करवू विसायं। एवंकारे श्रावकतणे धर्मे श्री सम्यकत्व मूल बार व्रत एक सो गंठसियुं भांग्युं । नीवि, आंबिल उपवासादि तप करी काचुं चोवीश अतिचार मांहि अनेरोजे कोई अतिचार पक्ष दिवस मांहि सूक्ष्म पाणी पीधुं । वमन हुओ । बाह्य तप विषईओ अनेरो जे कोई बादर जाणतां अजाणतां हुओ ते सवि हु मन-वचन-कायाए करी अतिचारपक्ष... ॥१४॥ मिच्छा मि दुक्कडं। ____ अभ्यंतर तप, पायच्छित्तं विणओ ॥ मन शुद्धे गुरु कन्हे नोंघ : चोमासी प्रतिक्रमण में 'चउमासी-दिवसमांहि' और आलोअणा लीधी नहीं । गुरुदत्त प्रायश्चित तप लेखा शुद्धे संवच्छरी प्रतिक्रमण में 'संवच्छरी दिवसमांहि' समस्त अतिचार में पहुंचाड्यो नहीं । देव, गुरु, संघ, साहम्मीअ प्रत्ये विनय बोलने का ध्यान रखें। साचव्यो नहीं । बाल, वृद्ध, ग्लान, तपस्वी, प्रमुखनु इति श्री श्रावक पक्खी, चोमासी, संवच्छरी अतिचार समाप्त अतिचार में प्रयुक्त होनेवाले कठिन शब्दों के सरल अर्थ ज्ञानाचारे प्रज्ञापराधे = तुच्छ बुद्धि के कारण निवेदीआ = नैवेद्य अणउद्धर्ये = निकाले बिना विणाश्यो = नष्ट किया ठवणारिय = स्थापनाचार्य कवली = पन्नों की रक्षा के साधन उवेख्यो = उपेक्षा किया पडिवज्युं = अंगीकार किया दस्तरी = दोनों ओर के आवरण हस्यो = उपहास किया चारित्राचारे वही = बही खाता अन्यथा = सूत्र के विपरीत तृण = घास ओलिया = कागज के ऊपर रेखा दर्शनाचारे डगल = अचित्त मिट्टी के ढेले खींचने का साधन अधोती = धोती के अतिरिक्त श्लेष्मादिक = थूक, खखार आदि ओशीसे = तकिया सिले हुए वस्त्र जीवाफूल = अनेक जीवजन्तु से युक्त निहार = दस्त केलि = खेल सावध = पापयुक्त Socation Intematonal Im a mersarmer Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = स्त्री = आर्त्त अणपूंजे = प्रमार्जन किए बिना कलत्र कर्कश = कठोर सम्यकत्व के विषय में वांची = ठगी = बकरा गोगो = नागदेव-सर्पपादर संभेडा = एक दूसरे को सच-झूठ खादि लगे = प्रत्येक के लिए देवता = गाँव की देवी समझाकर बरगलाना आली = हरी विनायक ___ = गणेश चतुर्थ स्वदारा संतोष नवम सामायिक व्रत जूजूआ ____ = अलग-अलग अपरि-गृहीतागन = वेश्यागमन दोहट्ट जीराउला = अन्यमति देव विशेष इत्वरपरिगृहीतागमन = अल्पकाल के लिए उजेहि __= शरीर पर प्रकाश पड़ना भरडा ____ = ब्रह्मांड गृहीत स्त्री के आभड्या = स्पर्श किया लिंगिया ____ = वेषधारी साथ मैथुन निरंतर = अनंतर दरवेश = फकीर घरघरणां = पुनर्लग्न एकादश पौषधोपवास व्रत व्यामोह्या = बहलाना अनंगक्रीडा = सृष्टिविरुद्ध कर्म बाहिरला = विसर्जन करने का स्थान, संवच्छरी = मृतक के नाम पर पंचम परिग्रह परिमाण दिन में ही देखा वार्षिक भोजन वास्तु __= घर आदि इमारत 'अणुजाणह'= वे आज्ञा दें महासती =साध्वीजी भगवन्त ___= तांबा, पीतल आदि धातु 'जस्सुग्गहो' = जिसका अवग्रह हो महात्मा = साधु भगवन्त द्विपद = दास, दासी आदि पोरिसि = रात्रि का प्रथम प्रहर भोगवांछित = भोग प्राप्ति हेतु पढ्यु = सम्भाला असूरो = सूर्योदय के बाद खीण - = घाटी षष्ठ दिग्परिणाम सवेरो = सूर्योदय के पूर्व प्रथम स्थूल प्राणातिपात अनाभोगे = अनजाने में द्वादश अतिथि संविभाग गाढ़ो = दुष्कर पाठवणी = भेजने योग्य वस्तु असूझतुं = साधु के प्रयोग न घाव = प्रहार गामतरूं = दूसरे गाव जाना करने योग्य घाल्यो = किया सप्तम भोगोपभोग परिमाण = काल व्यतीत निलांछन = नाक-कान काटना __ = कुकली कच्ची असूर = गोचरी का समय कर्म ____ = खसी करना ओदन = दही मिश्रित भात बीतने के बाद तावडे सूर्योदय से पूर्व आम्बल बोर= खट्टे बैर सीदातां __ = निर्धन साहता = पकड़ते हुए शीराव्या = सुबह का नाश्ता = गरीब = जीव विशेष रांगण = रंगाने का कार्य क्षीण = निर्बल लींख फोडी = लीख के दो लीहाला = कोयला वीर्याचार संबंधि टुकड़े किया संधुक्या = सुलगाया = इन्द्रियजन्य शक्ति निर्वंशपणुं = निर्दयता अष्टम अनर्थ दंड-विरमण वीर्य = आत्मिक शक्ति झील्या स्नान किया भक्तकथा = भोजन आश्रयी की कथा अन्यचित्त = शून्य चित्त द्वितीय स्थूल मृषावाद तांत = वात नाणाइ अट्ठ गाथा अनर्थ = कष्ट में, नुकसानी में ऊखल __ = ओखली ज्ञानादि आचार = ८४३ = थापणा मोसो= मूल रकम मुसल = मूसल तपाचार +६ = १२ गायब करना निसाह = दाल पीसने का सिलबट्टा बारव्रत = १२४५ = ६० गाळ दीधी = हाथ-पैर टूटना मेली = इकट्ठा करके संलेषणा = १४५ = ५ ऐसा कहना मुखरपणा = वाचालता सम्यक्त्व = १४५ = ५ तृतीय स्थूल अदत्तादान अंधोले __= पीठी छीलना कर्मादान = ५४३ = १५ वहोरी =खरीद की खेल = श्लेष्म वीर्याचार = १४३ = ३ संबल खुराक प्रेक्षाणक = क्रीडा कुल १२४ सरांस्यो = ठगा कुवस्तु ___ = तुच्छ वस्तु ॥ इति श्री अतिचारसूत्र समाप्त ।। टली कुणी दीन उदेही बल Jan Education international For Fute Personal use my www.jainelibrary. 99 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ९. श्री पाक्षिक प्रतिक्रमण की विधि प्रथम देवसिय प्रतिक्रमण में वंदित्तु आए, वहाँ तक सब कहना चाहिए, परन्तु चैत्यवन्दन 'श्री सकलार्हत् ० ' कहना चाहिए व स्तुति श्री स्नातस्या०' की कहनी चाहिए । उसके बाद खमासमण देकर 'देवसिअ आलोइअ पडिकंता इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! पक्खि मुहपत्ति पडिलेहुं ? इच्छं' यह कहकर मुँहपत्ति पडिलेहन करना चाहिए । दो बार वन्दना करनी चाहिए ( उसमें देवसिओ के बदले पक्खो, देवसिअं के बदले पक्खिअं बोलना चाहिए)। उसके बाद 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् संबुद्धा खामणेणं, अब्भुट्ठिओमि अब्भितर पक्खिअं खामेउं ? इच्छं खामि पक्खिअं, एक पक्खस्स, पन्नरस राइ-दियाणं जं किंचि अपत्तिअं०' कहकर अब्भुट्टिओ खामना चाहिए । उसके बाद उठकर योगमुद्रा में बोलना चाहिए । इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पक्खिअं आलोउं ? इच्छं आलोएमि जो मे पक्खिओ अइयारो कओ० सूत्र कहकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन पक्खि अतिचार आलोउं ? इच्छं ' यह कहकर अतिचार कहना चाहिए। फिर खड़े होकर योगमुद्रा में 'सव्वस्सवि पक्खिअ दुच्चितिअ, दुब्भासिअ, दुच्चिट्ठिअ, इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! इच्छं तस्स मिच्छा मि दुक्कडं' कहकर - 'इच्छकारी ! भगवन् पसाय करी पक्खि तप पसाय करशोजी' ऐसा बोलते हुए इस प्रकार कहें- 'पक्खि लेखे चउत्थेणं, एक उपवास, दो आयंबिल, तीन नीवि, चार एकासणां, आठ बियासणां, दो हजार स्वाध्याय, यथाशक्ति तप, लेखाशुद्धि करके पहुँचाना चाहिए।' उसके बाद यदि तप किया हो तो 'पइट्ठिओ' कहना चाहिए और यदि करना चाहते हों तो 'तहत्ति' कहना चाहिए। यदि तप न करना हो तो मौन रहना चाहिए । उसके बाद दो बार वांदना देना चाहिए। उसके बाद 'इच्छाकारेण भगवन् पत्तेअ खामणेणं अब्भुट्टिओमि अब्भितर पक्खिअं खामेउं इच्छं, खामेमि पक्खिअं, एक पक्खस्स पन्नरस राइदियाणं जं किंचि अपत्तिअं०' कहकर. अब्भुट्ठिओ करना चाहिए। उसके बाद २७८ १०. 'सकल श्रीसंघ को मिच्छा मि दुक्कडं' बोलना चाहिए । दो वन्दना करने के बाद खड़े होकर योगमुद्रा में बोलना चाहिए कि..... ११. 'देवसिअ आलोइअ पडिक्कंता इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! पक्खिअं पडिक्कमामि ? सम्मं पडिक्कमेह ' कहकर 'करेमि भंते ! सामाइअं० ' कहकर 'इच्छामि पडिक्कमिडं जो मे पक्खिओ० 'सूत्र कहना चाहिए । १२. उसके बाद खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पक्खि सूत्र संभळेमि' ? इच्छं के बाद खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पक्खिसूत्र पढ़ें, इच्छं' कहकर पू. गुरु भगवंत 'पक्खि सूत्र' बोले, वह काउस्सग्ग में सुनना चाहिए । पू. गुरुभगवंत न हो तो तीन बार श्री नवकार मन्त्र गिनकर श्रावक वंदित्तु कहे। उसके बाद अन्त में सुअदेवया की थोय कहनी चाहिए । १३. उसके बाद गोदोहिका मुद्रा में नीचे बैठकर (दाहिना घुटना ऊपर कर) एक बार श्री नवकार मन्त्र गिनकर 'करेमि भंते ! इच्छामि पडि० ' कहकर श्री वंदित्तुसूत्र बोलना चाहिए । उसमें 'पडिक्कमे देवसिअं सव्वे० ' की जगह 'पडिक्कमे पक्खिअं सव्वं०' बोलना चाहिए । १४. उसके बाद खड़े होकर 'करेमि भंते० इच्छामि ठामि काउस्सग्गं जो मे पक्खिओ०तस्स उत्तरी० अन्नत्थ० कहकर बारह लोगस्स का काउस्सग्गं 'चंदेसु निम्मलयरा०' तक करना चाहिए। यदि न आता हो तो अड़तालीस बार श्री नवकार मन्त्र का काउस्सग्ग करना चाहिए, उसके बाद प्रत्यक्ष से लोगस्स कहना चाहिए । १५. फिर मुँहपत्ति पडिलेहण कर दो बार वादना देना चाहिए । Use १६. उसके बाद 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सम्मत्त खामणेणं अब्भुट्टिओमि अब्भितर पक्खिअं खामेउ; www.jamelibrary.org Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छं, खामेमि पक्खिअं, एक पक्खस्स पन्नरस राइ-दियाणं जं किंचि अपत्तिअं.... 'कहकर अब्भुट्ठिओ करना चाहिए। १७. उसकेबाद खमासमणा देकर 'इच्छाकारण संदिसह भगवन् पक्खि खामणा खामुं? इच्छं' एक बार कहकर चार बार एकएक खमासमणा के अंतर में चार खामणा करना चाहिए। १८. पूज्य मुनि महाराज खामणा कहें । यदि पूज्य गुरु महाराज न हों तो खमासमण देकर 'इच्छामि खमासमणो०' कहकर दाहिना हाथ चरवला या कटासणा पर रखकर एक बार श्री नवकार मन्त्र' कहकर 'सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि' कहना चाहिए । इस प्रकार चार बार खमासमण देना चाहिए। मात्र तिसरे खामणा के अन्त में 'तस्स मिच्छा मि दुक्कडं' कहना चाहिए। यहा पक्खि प्रतिक्रमण पूरा होता है।। उसके बाद देवसिअ प्रतिक्रमण में वंदित्तु०' के बाद के बाद दो वन्दना करके जबतक सामायिक पूरा न हो तबतक सब देवसिए प्रतिक्रमण के समान करना चाहिए । (परन्तु सुअदेवया० तथा जिसे खित्ते की थोय के स्थान पर 'ज्ञानादि०' तथा 'यस्याः क्षेत्रं' की थोय कहनी चाहिए।) श्री अजितशान्ति का स्तवन कहना चाहिए । सज्झाय के स्थान पर श्री नवकार मन्त्र, श्री उवसग्गहरं स्तोत्र तथा संसार दावानल की थोय चार बार कहनी चाहिए। उसमें झंकारा से सकल श्रीसंघ को साथ में बोलना चाहिए। लघु शान्ति केस्थान पर बड़ी शान्ति कहनी चाहिए। श्री चौमासी प्रतिक्रमण की विधि श्री संवच्छरी प्रतिक्रमण की विधि इसमें ऊपर कथनानुसार पक्खि की विधि के अनुसार इसमें भी ऊपर कथनानुसार पक्खि की विधि के करना चाहिए । परन्तु इतना विशेष रूप से ध्यान रखना अनुसार करना चाहिए। परन्तु इतना विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए कि बारह लोगस्स के काउस्सग्ग के स्थान पर बीस चाहिए कि बारह लोगस्स के काउस्सग्ग के स्थान पर चालीस लोगस्स का काउस्सग्ग करना चाहिए तथा पक्खि शब्द के लोगस्स का काउस्सग्ग तथा एक श्री नवकार मन्त्र, यदि न स्थान पर चउमासी शब्द कहना चाहिए । वन्दना में पक्खो आए तो एक सौ साठ श्री नवकार मन्त्र का काउस्सग्ग करना वइक्कंतो के स्थान पर 'चउमासी वइक्वंता' अथवा 'चउमासी चाहिए तथा तप के स्थान पर संवत्सरी के स्थान पर अट्ठमवइक्कम' कहना चाहिए । तप के स्थान पर चउमासी के भत्तेणं, तीन उपवास, छह आयंबिल, नौ नीवि, बारह अनुसार छटेणं, दो उपवास, चार आयंबिल, छह नीवि, आठ एकासणां, चौबीस बियासणां, छह हजार स्वाध्याय... इस एकासणां, सोलह बेयासणां, चार हजार स्वाध्याय... इस प्रकार कहना चाहिए, अब्भुट्टिओ करने में एक पक्खस्स पन्नरस प्रकार कहना चाहिए, अब्भुट्टिओ करने में एक पक्खस्स राइदियाणं के स्थान पर बार मासाणं, चौबीस पक्खाणं, तीन पन्नरस राइदियाणं के स्थान पर चार मासाणं, आठ पक्खाणं सौ साठ राइ दियाणं कहना चाहिए और पक्खि शब्द के स्थान तथा एक सौ बीस राइ दियाणं कहना चाहिए। पर संवच्छरो वइक्वंतो, संवच्छरिअं वइक्कम' कहना चाहिए। छींक आए तो पक्खी, चौमासी तथा संवत्सरी प्रतिक्रमण में अतिचार के पहले छींक आए तो चैत्यवन्दन से पुनः प्रारम्भ करनी चाहिए, और यदि अतिचार के बाद छींक आए तो दुक्खक्खय कम्मख्य के काउस्सग्ग से पहले छींक का काउस्सग्ग करना चाहिए। छींक के काउस्सग्ग की विधि सज्झाय करने के बाद खमासमणा देकर इच्छाकारेण संदिसह भगवन् क्षुद्रोपद्रव उड्डावणार्थं काउस्सग्गं करूँ ? इच्छं, क्षुद्रोपद्रव उड्डावणार्थं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थं० कहकर चार लोगस्स सागरवरगंभीरा तक का काउस्सग्ग, यदि यह न आए तो सोलह बार श्री नवकार मन्त्र का काउस्सग्ग कर नमोर्हत्० कहकर निम्नलिखित स्तुति कहनी चाहिए सर्वे यक्षाम्बिकाद्या ये, वैयावृत्यकराधिने । क्षुद्रोपद्रव संघातं, ते द्रुतं द्रावयंतु नः ॥१॥ अर्थ- 'जिनेश्वर के सम्बन्ध में वैयावच्च करनेवाले सभी यक्ष व अंबिकादि देवों शीघ्र हमारे क्षुद्र उपद्रव के समूह को दूर करें। उसके बाद लोगस्स कहकर आगे की विधि प्रारम्भ करें। ॥इति श्री आवश्यक क्रिया साधना समाप्त ॥ २७९ Jain Education Interational Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० Join सम्यग्ज्ञान रम्य पर्षदा जिनशासन के अमूल्य सिद्धान्तरूपी विरासत को अक्षुण्ण रखने की घर के प्रमुख सदस्य की जिम्मेदारी होती है, परन्तु आधुनिकता तथा पाश्चात्य संस्कृति में पलनेवाले बालकों के मानस पर पड़नेवाले दुष्प्रभाव के कारण प्रमुख सदस्यों की जिम्मेदारी गौण होने लगी है। इसके बावजूद भविष्य में जिनशासन के रक्षकरूप बालकों तथा युवकों को जैनधर्म के प्रति आकर्षित करने के लिए 'जैन पाठशाला' आदि संस्था की स्थापना की गई है। चतुर्विधश्रीसंघ में समाविष्ट तथा पूज्य साधुभगवन्तों-साध्वीजी भगवन्तों को गूढ़ रहस्य से भरे हुए जैन शास्त्रों का गहन अभ्यास कराने के लिए एवं मुमुक्षु श्रावक-श्राविकाएँ भी जैन तत्व का अभ्यास सरलता से कर सकें, इस हेतु से अपने जीवन का अमूल्य समय जैन तत्त्व का अभ्यास कराने में व्यतीत करनेवाले सूक्ष्म- तीक्ष्ण-विचक्षण बुद्धि से युक्त यदि कोई है तो श्रद्धालु अध्यापक शिक्षक-शिक्षिका हैं। जैनतत्त्व का अभ्यास कर, उसे अपनी अन्तरात्मा में स्थिर कर ज्ञानपिपासु श्रीसंघ में विनियोग करने में संपूर्ण जीवन समर्पित करने का महान् कार्य करनेवाले भी ये शिक्षक-शिक्षिका ही होते हैं । ट्रस्ट रजी. नं. / ३ / १६०९१९ / अहमदाबाद ये श्रद्धालु शिक्षक-शिक्षिका गृहस्थाश्रम में अनेक प्रकार की जिम्मेदारियों का वहन करते हैं । निर्धारित तथ मर्यादित आर्थिक उपार्जन के सहारे उनकी जीविका चलती है। अशुभ कर्मों के उदय के कारण कभी अस्वस्थता तो कभी असंभावी दुर्घटना आदि की सम्भावना बनी रहती है । सामाजिक स्तर होनेवाले प्रसंगों में कभी- कभी व्यावहारिक जिम्मेदारियाँ भी निभानी पड़ती हैं और इस हेतु से विशेष अर्थोपार्जन की आवश्यकता भी उत्पन्न होती है । इन परिस्थितियों में अपनी सीमित आय के कारण प्रायः आर्थिक परेशानियों का अनुभव होने के कारण अध्ययन अध्यापन की प्रवृत्ति में उत्साह की कमी की सम्भावना होती है । अतः उनके अध्यापन कार्य को सदा वेगवान तथ हर्षोल्लासपूर्वक आगे बढ़ाने के लिए 'सम्यग्ज्ञान रम्य पर्षदा' ने कुछ ऐसे ही आयोजन कर रखे हैं, इस पुनीत कार्य में सहयोग बनने का सौभाग्य भाग्यशाली व्यक्ति ही प्राप्त कर सकते हैं । अनायास आनेवाली अस्वस्थता, दुर्घटना, असाध्य बिमारी आदि आपत्ति के समय कुछ आर्थिक सहयोग के द्वा भक्ति तथा आर्थिक संकट में ब्याजरहित ऋण की व्यवस्था की गई है। वर्त्तमान में इस संस्था में लगभग ५०० (पाँच सौ) सदस्य हैं, विगत दो वर्षों में उन सदस्यों की अस्वस्थता आ विशेष परिस्थिति में लगभग १,५०,००० रुपयों की भक्ती की गई है। इसके अतिरिक्त अन्य सुन्दर कार्य भी चल रहे हैं कुछ सदस्यों को भक्ति के रूप में ब्याज रहित नगद रुपिये भी दिए गए हैं। इसके साथ-साथ 'सम्यग्ज्ञान रम्य पर्षदा' के द्वारा संचालित 'मोक्षपथ प्रकाशन' के द्वारा 'आवश्यक क्रिया साधन पुस्तक की प्रथम आवृत्ति ५००० प्रतियाँ (गुजराती) तथा द्वितीय आवृत्ति ५००० प्रतियाँ 'गुजराती' व ४००० प्रति हिन्दी के साथ-साथ जिनपूजा विधिप्रथम आवृत्ति १२,००० प्रतियाँ (गुजराती) तथा २००० प्रतियाँ (हिन्दी) का प्रकाशन किया गया है। इसके अतिरिक्त अनेक छोटी-बड़ी प्रवृत्तियाँ भी गतिशील रहती हैं। सम्पर्क स्थल : → ५०२, नालंदा ऐन्कलेव, सुदामा रीसोर्ट के सामने, प्रीतम नगर का पहेला ढाल, एलीसब्रीज, अहमदाबाद-६ (O) 079-26581521 E-mail: parshada 99@yahoo.com → जी- २, निर्मित एपार्टमेन्ट, जेठाभाई पार्क बस स्टैण्ड के पास, नारायणनगर रोड, पालडी, अहमदाबाद - ७. मो. 9825074889 लि. सम्य्याज्ञान रम्यपर्षदा एवम् मोक्ष पथ प्रकाशन ट्रस्टीग पंडितवर्य श्री चन्द्रकान्तभाई. अध्यापक श्री परेशकुमार जे. शाह, अहमदाबाद श्रेष्ठिवर्य श्री संजयभाई भरतभाई कोठारी, अहमदाबाद श्रेष्ठिवर्य श्री प्रदीपभाई कचराभाई शाह, अहमदाबाद श्रेष्ठिवर्य श्री मोहनभाई प्रभुलाल मालू, अहमदाबाद श्रेष्ठिवर्य श्री अरविंदभाई रमणलाल शाह, U.S.A. श्रेष्ठिवर्य श्री मितेशभाई चंद्रकांतभाई शेठ, कलकत्ता श्रेष्ठिवर्य श्री मोक्षभाई चंद्रकांतभाई शेठ, कलकत्ता hvate & Pamanan Only www.jaine Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मोक्ष पथ प्रकाशन के प्रतिदिन अवश्य उपयोगी साहित्य સંપૂર્ણ ચિત્ર संपूर्ण चित्र Y RCIS धा-साधन आवश्यक क्रिया साधना Gorbooc4वकी પંથ પતિને જાતા સુત્ર-અર્ચ, 28 સંપદા, ઉરચારણ યકતિ, દાન-ગૌણ નામ, વિવિધ પુલ, કંદના પ્રચલિત રામ, नि:-विस-पूरा विव, प्रतिम-विवि-२६य लिया. मयछह आवश्यक य yamantacharirnamaARAIMAHIMALA GanelencDeeonamaANT noA शाम MOHAAR) TOYI TANTER जिनापजा विधि femal weladiaveena जीवन को सार्थक बनाने में उपयोगी आराधना-साधना-उपासना को जिनाज्ञा मुताबिक ही करने की भावना रखनेवाले, द्रव्य क्रिया के माध्यम से भाव-क्रिया में प्रविष्ट करने का मनोरथ रखनेवाले, प्रत्येक सूत्र के शुद्ध-उच्चारण करने की कामना वाले,सूत्र के अर्थ युक्त नाम व छन्द की जानकारी के साथ उसे बोलने में सहायक प्रचलित रागों का ज्ञान प्राप्त करने की भावनावाले, प्रत्येक सूत्र बोलते व सुनते समय शास्त्रीय मार्गदर्शन अनुसार सुविशुद्ध मुद्रा करने की भावना वाले, प्रतिदिन जिन दर्शन-पूजा, सामायिक, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण इत्यादि छोटी से बड़ी समस्त आराधना भावमय बनाने की जिज्ञासा वाले समस्त आराधक महानुभावों को अवश्य उपयोगी साहित्य माने... सचित्र आवश्यक क्रिया साधना' एवं 'जिन पूजा विधि'। सुनिता HD प्रकाशन : मोक्षपथ प्रकाशन Cl.श्रीसम्यग्ज्ञानरम्य पर्षदा 502, नालंदा एन्कलेव, सुदामा रीसोर्ट के सामने, प्रितमनगर, एलीसब्रीज, अहमदाबाद-६ दूरध्वनि/फेक्स : 079-26581521 Mo. : 09825074889 e-mail: parshada99@yahoo.com