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श्री चैत्यवंदन विधि
(यह शुद्ध क्रिया जिनप्रतिमा अथवा उसकी स्थापना के समक्ष करनी चाहिए। ) १. ऐर्यापथिकी क्रिया : सत्रह संडासापूर्वक खमासमण देकर गमनागमन की क्रिया की विराधना अथवा त्रसकाय की विराधना की शुद्धि हेतु योगमुद्रा में 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! ईरियावहियं पडिक्कमामि ?... तस्सउत्तरी... अन्नत्थ' सूत्र बोलकर एक लोगस्स (चंदेसु निम्मलयरा तक), यदि नहीं आए तो चार बार श्री नवकार मंत्र का जिनमुद्रा में कायोत्सर्ग करना चाहिए। उसके बाद 'नमो अरिहंताणं' बोलने के साथ कायोत्सर्ग को पूर्णकर योगमुद्रा में श्री लोगस्स सूत्र संपूर्ण बोलना चाहिए। (१०० कदम के अन्दर गमनागमन के समय विराधना न हुई हो तो एक चैत्यवंदन के बाद दूसरा चैत्यवंदन ईरियावहियं के बिना करना चाहिए । )
२. प्रणिपात : योगमुद्रा में हाथ जोड़कर सत्रह संडासापूर्वक खमासमण (पंचांग प्रणिपात की क्रिया) तीन बार देना चाहिए । ३. क्रिया का आदेश माँगना : उसके बाद खड़े होकर योगमुद्रा में हाथ जोड़कर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! चैत्यवंदन करूँ ?' का विनम्रभाव से उच्चारण कर आदेश माँगना चाहिए ।
४. आदेश स्वीकार : 'इच्छं' पद बोलकर आदेश का स्वीकार करना । ५. आसन : उसके बाद खड़े पैर बैठकर दायां घुटना जमीन से स्पर्श
करे ऐसा तथा बायां घुटना जमीन से थोड़ा ( ५-६ अंगुल ) ऊँचा रखकर योगमुद्रा में हाथ जोड़कर 'चैत्यवंदन' के प्रारंभ में..... ( छंद का नाम : मालिनी : राग 'अवनितलगतानां कृत्रि... ' (सकलाऽर्हत् स्तोत्र ) सकल- कुशल- वल्लि-पुष्करावर्त्त - मेघो । दुरित तिमिर- भानुः कल्पवृक्षोप-मानः । भव-जल- निधि - पोतः, सर्वसंपत्ति-हेतुः । स भवतु सततं वः, श्रेयसे शांतिनाथः ॥ १ ॥ बोलकर पूर्वाचार्य द्वारा रचित भाववाही संस्कृत-प्राकृत-गुजराती अथवा हिन्दी भाषा में चैत्यवंदन बोलना चाहिए। (श्रेयसे पार्श्वनाथः आदि आगे बोलना उचित नहीं है । ) ६. सकलतीर्थ-वंदना : के बाद 'जं किंचि' सूत्र का पाठ योगमुद्रा में बोलना चाहिए ।
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मुक्ता = मोती, शुक्ति = सीप । सीप में मोती हो, उस समय उसका जैसा आकार दिखाई देता है, वैसी मुद्रा । दोनों हाथों की ऊँगलियों का सिरा एक दूसरे को स्पर्श करे तथा अंजलि के समान बीच का भाग गहरा हो तथा कनिष्ठा (सबसे छोटी) ऊँगली से हाथ के
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७. अर्हद्-वंदना : के बाद 'नमुत्थुणं सूत्र' का पाठ योगमुद्रा में बोलना चाहिए ।
८. सर्व चैत्यवंदना : के बाद 'जावंति चेइआई' सूत्र का पाठ
मुक्ताशुक्ति मुद्रा में बोलना चाहिए तथा उसके बाद पंचांग प्राणिपात स्वरूप एक खमासमण सत्रह संडासापूर्वक देना चाहिए ।
९. सर्वसाधुवंदना : के बाद 'जावंत के वि साहू' सूत्र का
पाठ मुक्ताशुक्ति मुद्रा में बोलना चाहिए ।
१०. अरिहंतादि स्तवना : के बाद पुरुष 'नमोऽर्हत्' सूत्र का पाठ तथा महिलाएँ श्री नवकारमंत्र स्तवन के मंगलाचरण के रूप में बोलें ।
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११. स्तवना : के बाद उवसग्गहरं सूत्र अथवा प्रभुगुण गर्भित अथवा स्वदोष गर्भित पूर्वाचार्यों के द्वारा रचित शास्त्रीय राग वाले भाववाही स्तवन मंदस्वर में ( अन्य को असुविधा न हो इस प्रकार) बोलना चाहिए । १२. प्रणिधान : बाद 'जय वीयराय' सूत्र का पाठ प्रथम दो गाथाएँ मुक्तिशक्ति मुद्रा में तथा अंतिम तीन गाथाएँ योगमुद्रा में बोलना चाहिए । ( महिलाएँ पूर्ण सूत्र योगमुद्रा में बोलें ।)
१३. कायोत्सर्ग : के बाद जयणापूर्वक (सहारा लिए
मुक्ताशक्ति मुद्रा
बिना) खड़े होकर योगमुद्रा में 'अरिहंत-चेइआणं' सूत्र का पाठ बोल कर तथा अन्नत्थ बोलकर जिनमुद्रा में श्री नवकारमंत्र का एक कायोत्सर्ग करना चाहिए । 'नमो अरिहंताणं' बोलते हुए कायोत्सर्ग पूर्णकर 'नमोऽर्हत् सूत्र' ( मात्र पुरुष) बोलकर एक भाववाही स्तुति बोलना चाहिए । (सामूहिक चैत्यवंदन करनेवाले स्तुति सुनने के बाद कायोत्सर्ग पारना चाहिए । ) १४. अंतिम प्रणिपात : के बाद सत्रह संडासा पूर्वक एक 'खमासमण' स्वरूप पंचांग- प्रणिपात देना चाहिए तथा पच्चक्खाण लेना हो तो लेना चाहिए।
किनारे तक का भाग बंद हो तथा दोनों कुहनियाँ एक दूसरे से मिली हुई हो, तब हाथ मस्तक को स्पर्श करे या नहीं करे तब यह मुद्रा कहलाती है। 'जावंति चेइआइ, जावंत' केवि साहू' तथा 'जय वीयराय ! आभवखंडा' तक के सूत्र इस मुद्रा में बोलने चाहिए ।
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