SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्ष साधु प्रति द्वेषभाव विचिकित्सा सड़क इच्छा-काक्षा अन्य दर्शनीयों का परिचय-प्रशंसा सकाकखबिगिच्छा इस लोक के विषय में देव-गुरु के वचन पर तथा परलोक विषय में मोक्ष, देवलोक तथा नरक के प्रति शंका हो... अन्य धर्मस्थानों की चमत्कारिक बातों को सुनकर मन आकर्षित हो, जिस प्रकार प्रसिद्ध हिंदु देवस्थान तथा अन्य धर्म की चर्च दिखलाई देता है, साधु के मलिन वस्त्र-शरीर देखकर मुह बिचकाता हुआ युवक तथा अन्य दर्शन वाले लोगों की यज्ञादि क्रिया देखकर उससे प्रभावित होते हुए तथा उसकी ओर प्रभावित होते हुए जीव । ६. तीसरे अणुव्रत के अतिचारो का प्रतिक्रमण छक्काय-समारंभे, छक्-काय-समा-रम्-भे, । छह काय के जीवों की विराधना से पयणे अ पयावणे अ जे दोसा। पय-णे अपया-वणे अजे दोसा। तथा पकाने से, पकवाने से जो दोष (लगे हों) अत्तट्ठा य परट्ठा, अत्-तट्-ठा य परट्-ठा, अपने लिये या दूसरों के लिये और उभयट्ठा चेव तं निंदे ॥७॥ उभ-यट्-ठा चेव तम् निन्-दे ॥७॥ साथ ही दोनों के लिये उनकी मैं निदा करता हूँ। ७. गाथार्थ : स्वयं के लिए, दूसरों के लिए, (और) वह दोनों के लिए (स्वयं) खाना पकाते, (दूसरो के पास) पकवाते (और पकानेवाले की अनुमोदना करते ) षट्काय (= पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय (= दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रियवाले) का समारंभ (प्राणी के वधका संकल्प = संरंभ; उसको परिताप देना = समारंभ; उसके प्राण का वियोग करना अर्थात् नाश करना = आरंभ) में (जो कुछ भी दोष लगा हो) उसकी मैं निंदा करता हूँ। ७. सामान्य से श्रावक के बारह व्रतों के अतिचारों का प्रतिक्रमण : पंचण्ह-मणुवव्याणं, पञ् (पन्)-चण हमणु-व-याणम्, पाच अणु-व्रत संबंधी गुणव्वयाणं च तिण्हमइयारे । गुणव-वया-णम् च तिण-ह-मइ-यारे। और तीन गुण-व्रत संबंधी अतिचारों का सिक्खाणं च चउण्हं, सिक्-खा-णम् च चउण्-हम्, और चार शिक्षा-व्रत संबंधी पडिक्कमे देसिअंसव्वं ॥८॥ पडिक्-कमे देसि-अम्-सव-वम्॥८॥ दिन में लगे सर्व(पापों )का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।८. गाथार्थ : पाच अणुव्रत, तीन गुणव्रत (और) चार शिक्षाव्रत संबंधित अतिचारों में से दिन संबंधित लगे हुए सभी (अतिचारों) का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।८. प्राचीन काल में पशु सम्पत्ति में माना जाता था, विच्छेए अतः पशु का अनुसरन कर चित्र बतलाया गया है । आज गलियों में घूमते हुए कुत्ते-बिल्ली, घर के नौकर-चाकर आदि के साथ होनेवाले व्यवहार भी भित्तपाणवुच्छए छक्कायसमारंभ इसीमें गिना जाता है । पाँचवे चित्र में पानी-घास भोजन समारोह के दृश्य के द्वारा|| खाते हुए घोड़ों में से कुछ । रसोइ करनी, करानी तथा छ काय | मुंह चमड़े से बंधा हुआ जीवों की हिंसा बतलाइ गई है।७. दिखाई देता है।९-१०. पढमे अणुव्वयम्मि पहले अणुव्रत के अतिचार का प्रतिक्रमण पढमे अणुव्वयंमि, पढ-मे अणुव्-वयम्-मि, प्रथम अणु-व्रत में थूलग-पाणाइ-वाय-विरईओ। थूल-ग-पाणाइ-वाय-विर-ईओ। स्थूल (आंशिक रूप में ) प्राणातिपात से विरमण (निवृत्ति ) में आयरिय-मप्पसत्थे, आय-रिय-मप-प-सत्-थे, अतिचारों का अप्रशस्त भाव के कारण इत्थप-मायप्प-संगेणं॥९॥ इत्-थ-पमा-यप-प-सङ्-गे-णम्॥९॥ यहा प्रमाद के कारण।९. रपयावणे अइभारे पयणे १७२ Fospriyalo o nly.
SR No.002927
Book TitleAvashyaka Kriya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Spiritual, & Paryushan
File Size66 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy