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परिग्रह तथा आरंभ का प्रतिक्रमण दुविहे परिग्गहम्मि, दुवि-हे परिग्-गहम्-मि,
दो प्रकार के परिग्रहों के कारण सावज्जे बहुविहे अ आरंभे । सावज्-जे बहु विहे अ आरम्-भे। और अनेक प्रकार के पापमय कार्य कारावणे अकरणे, कारावणे-अ-कारणे
कराने से या करने से पडिक्कमे देसि सव्वं ॥३॥ पडिक्-कमे देसि-अम् सव-वम् ॥३॥ दिवस में लगे सर्व (पापों) का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। ३. गाथार्थ : दो प्रकार के परिग्रह (= सचित और अचित अथवा बाह्य और अभ्यंतर = धन-धान्यादि बाह्य परिग्रह और मिथ्यात्व, अविरति कषायादि अभ्यंतर परिग्रह कहलाता है।) और उनके प्रकार के सावध आरंभो (= कृषि, वाणिज्य आदि) दूसरों के पास करवाने से और स्वयं करने से और करनेवालों की अनुमोदना (प्रशंसा, तारीफ) करने से दिन संबंधित लगे हुए सभी (अतिचारों) का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। ३. जं बद्ध-मिदिएहिं,
जम्-बद्-ध-मिन्-दि-ए हिम्, | जो बंधे हो इंद्रियों से चउहिं कसाएहिं अप्पसत्थेहिं। चउ-हिम् कसा-एहिम् अप्-पसत्-थेहिम्। चार प्रकार के अप्रशस्त कषायों से रागेण व दोसेण व, रागे-ण व दोसेण व,
और राग से या द्वेष से तं निंदे तं च गरिहामि ॥४॥ तम् निन्-दे तम् च गरि-हामि ॥४॥ मैं उनकी ( मेरे उन अतिचारों की) निंदा
करता हूँ और मैं उनकी गर्दा करता हूँ। ४. गाथार्थ : अप्रशस्त भावों से प्रवृत इन्द्रियों, चार कषायों, (तीन योगों) राग अथवा द्वेष से जो कर्म बांधा हो, उसकी मैं निंदा और गृहा करता हूँ। ४.
सम्यग्दर्शन के अतिचार का प्रतिक्रमण आगमणे-निग्गमणे, आग-मणे निग्-गम-णे,
आने से, जाने से ठाणे चंकमणे अणाभोगे। ठाणे चङ-कम-णे अणा-भोगे। खड़े रहने से, इधर-उधर फिरने से अभिओगे अनिओगे, अभि-ओगे अनिओ-गे,
भूल जान से, (किसी के) दबाव से और बंधन
(नौकरी आदि) के कारण पडिक्कमे देसिअंसव्वं ॥५॥पडिक-कमे देसि-अम सव-वम ॥५॥ दिन में लगे सर्व (पापों) का मैं प्र गाथार्थ : शून्य चित्त से ( राजादिक के) आग्रह से और (नौकरी विगेरे की) पराधीनता से (मिथ्याद्दष्टिओं के स्थान आदि में) आने में, निकलने में, खडे रहने में और फिरने में दिन संबंधित लगे हुए सभी (अतिचारो) का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।५. दुविहे परिगाहम्मित
आगमणे निग्गमणे अनुपयोग तथा लापरवाही से जीवयक्त
अथवा जीवरहित भूमि पर सकारण या निष्कारण आना, जाना, खड़े रहना तथा हिलना-डुलना । घर तथा पीछे उद्यान के लोगों को देखें । अभियोग में राजा के आदेश को नत मस्तक होकर स्वीकार करता हुआ सेवक है तथा नियोग में रामचंद्रजी के
आदेश से सीताजी को जंगल में रखने के परिग्रह तथा आरंभ के प्रतिकों से
लिए जाते समय अपने कर्त्तव्य से बंधा हुआ; वापस लौटती हुई आत्मा को देखना । ३.
कृतांतवंदन सेनापति दिखाई देता है। ५.
चेकमणे
सचित्त परिग्रह
अचित्त परिग्रह
ठिाणे आगमणे निगमणे
सावज्जे बहुबिहे गारने
अनिओगे
निओगे
पडिक्कमे
संका कंख विगिच्छा, संङ्-का कङ्-ख वि-गिच-छा, शंका, आकांक्षा, विचिकित्सा पसंस तह संथवो कुलिंगीसु । पसन्-स तह सन्-थवो कुलिङ्-गीसु । कुलिंगियों की प्रशंसा और परिचय से सम्मत्तस्स-इआरे, सम्-मत्-तस्-स-इ-आरे,
सम्यक्त्व के (इन पाच) अतिचारों से पडिक्कमे देसिअं सव्वं ॥६॥ पडिक्-कमे देसि-अम् सव्-वम् ॥६॥ दिवस में लगे सर्व(पापों) का मैं प्रतिक्रमण करता गाथार्थ : शंका : श्री जिनवचन में झुठी शंका; २. कांक्षा : अन्यमत की प्रशंसा; ३. विचिकित्सा : मिथ्यादर्शनकारों की तारीफ ४. प्रशंसा : कृलिंगियों की प्रशंसा और ५. संस्तव : पाखंडी आदि मिथ्यादर्शनकारों का परिचय; (इस तरह) सम्यक्त्व के (पाँच) अतिचारों में से दिन संबंधित लगे हुए सभी अतिचारों का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। ६.
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