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(४७) विष्णुकुमार : पद्मोत्तर राजा तथा ज्वालादेवी के कुलदीपक। महापद्म चक्रवर्ती के भाई। दीक्षा लेकर घोर तप कर अनेक लब्धियों के धारक बने । शासनद्वेषी नमुचि ने श्रमण संघ को षट्खंड
की सीमा छोड़कर जाने विण्हुकुमारो
को बतलाया तब मुनिवर ने पधारकर काफी समझाने पर भी नहीं मानने पर नमुचि के पास तीन पैर भूमि मांगी । मांग स्वीकृत होने पर १ लाख योजन का विराट शरीर बनाकर एक पैर समुद्र के पूर्वी किनारे पर तथा दूसरा पैर समुद्र के पश्चिमी किनारे पर रखा । तीसरा पैर कहाँ रखें ऐसा कहकर तीसरा पैर नमुचि के मस्तक पर रखकर संघ को उपद्रव से मुक्त किया । आलोचना से शुद्ध होकर उत्तम चारित्र पालन कर अंत में मोक्ष को प्राप्त किया।
(४८) आर्द्रकुमार : आर्द्रक नामक अनार्यदेश के राजकुमार । पिता आर्द्रक तथा श्रेणिकराजा की मैत्री को बढ़ाने के लिए अभयकुमार के साथ मैत्री का हाथ बढ़ाया । तब हलु कर्मी जानकर अभयकुमार ने रत्नमय जिनप्रतिमा भेजी । प्रभुदर्शन से जाति स्मरण ज्ञान होने पर आर्यदेश में आकर दीक्षा ग्रहण की। वर्षों तक चारित्र पालन करने के बाद भोगावली कर्म का उदय होते ही संसारवास स्वीकार करना पड़ा । पुनः चारित्र की भावना हुई, तब पुत्रस्नेह के कारण अगले बारह वर्षों तक संसार में रुकने के बाद पुनः दीक्षा लेकर अनेकों को प्रतिबोध देकर आत्मकल्याण की साधना की थी।
कूरगड आ
(४९) दृढप्रहारी : यज्ञदत्त ब्राह्मण के पुत्र, कुसंगति के कारण बिगड़कर
प्रसिद्ध चौर बन दढपहारी
गया । एक बार लूट चलाते हुए ब्राह्मण
गाय, सग स्त्री अर्थात् स्त्री+गर्भस्थ बालक इस प्रकार चार महाहत्याए की । परन्तु हृदय द्रवित होने के कारण चारित्र ग्रहण किया और जब तक पाप की स्मृति हो, तब तक कायोत्सर्ग ध्यान में रहने का अभिग्रह लेकर हत्यावाले गांव की सीमा में ही काउस्सग्ग में खड़े रहे। असह्य कठोर शब्द कहकर, पत्थर, रोड़ा आदि से प्रहार कर लोगों ने बहुत परेशान किया । परन्तु सब कुछ समताभाव से सहन कर छह महीने के अन्त में केवलज्ञान प्राप्त किया।
(५१) कूरगडु मुनि : धनदत्त श्रेष्ठि के पुत्र, धर्मधोषसूरि के पास छोटी उम्र में दीक्षित हुए थे । क्षमागुण अद्भुत था, परन्तु तपश्चर्या जरा भी नहीं कर
सकते थे। एक बार पर्व के दिन प्रातःकाल घड़ा भरकर चावल लेकर आए और खाने बैठे, तभी साथ में रहे मासक्षमण के तपस्वी मुनि ने 'मुझे बलगम निकालने का साधन क्यों नहीं दिया ? अब तुम्हारे पात्र में ही बलगम निकालूगा.' ऐसा कहकर भोजन में ही बलगम डाल दिया।' दूसरी जगह कथानक में लाई हई गोचरी साथ के चार मासक्षमण तपस्वियों को बतलाने के लिए गए, तब उनको भोजन रसिक होने की निन्दा करते हुए, उनके पात्र में यूंक डालते है। ऐसा निर्देश भी आता है। कूरगडु मुनिने अद्भुत क्षमा का भाव रखते हुए, स्वनिंदा करते करते, उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया।
सिज्जंस
(५०) श्रेयांसकुमार : बाहुबली के पौत्र तथा सोमयश राजा के पुत्र । श्री आदिनाथ परमात्मा के वार्षिक तप के बाद इक्षुरस से पारणा जाति स्मरण के ज्ञान से कराया था । आत्मसाधना कर अंत में सिद्धपद को प्राप्त किया।
(५२) शय्यंभवसूरि : पूर्वावस्था सज्जभव
में कर्मकांडी ब्राह्मण थे, परन्तु उनकी पात्रता देखकर प्रभवस्वामी ने दो साधुओं को भेजकर प्रतिबोधित कर चारित्र देकर शासन की धुरा सौंप दिया था । बालपुत्र मनक चारित्र के मार्ग पर आया । तब उसकी
अल्पायु देखकर सिद्धांत से उद्धार कर श्री दशवैकालिक सत्र की रचना की थी । शासनसेवा के अनेकों कार्यों से जीवन सफल बनाया था।
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