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लोकोत्तर साधना का
सक्ष्मावलोकन
सम्पादक की कलम से
इस नश्वर शरीर के माध्यम से शाश्वत आत्मा के स्वरूप मेरे सर्व आत्मप्रदेश भी कर्मरहित हो, ऐसी शक्ति हमें देना" ऐसी की प्राप्ति हेतु जिनशासन की अनुपम साधना का आलम्बन भावना करनी चाहिए।" लेना चाहिए । ऐसे शास्त्रोक्त वचन अनेक स्थान पर देखने उपकरण के रहस्यों के सम्बन्ध में कटासना लम्बचोरस के को मिलते हैं। छोटे बालकों से लेकर वयोवृद्ध आराधक बदले समचौरस होना चाहिए । समता की साधना करने के लिए साधना करते रहते हैं। परन्तु उनमें कितनी अज्ञानता तथा एक बैठे हुए आराधक में विशेष प्रकार की शुभ-शुद्ध ऊर्जा उत्पन्न दूसरे का देखकर करने की वृत्ति के कारण विभिन्नता देखने होती रहती है। जब पालथी लगाकर बैठते हैं, तब घुटने का भाग को मिलती है। उसका मुख्य कारण साधना के रहस्य तथा बाहर रहने के कारण ऊर्जा के बाहर फैल जाने की सम्भावना गूढार्थों का अल्पज्ञान है । जिसके कारण साधना करने के रहती है, जब कि समचौरस में वैसा नहीं होता है । अतः बावजूद भी पर्याप्त भावोल्लास जागृत नहीं होता है । ऐसे समचौरस-अखण्ड, शुद्ध ऊन व सफेद कटासना होना चाहिए। संयोगों में जैन शासन के आराधकों को साधना का रहस्य मुहपत्ति भी सूती, सफेद व जिसका एक किनारा बंद हो, तथा गूढार्थों का ज्ञान सरल भाषा में प्रस्तुत करना आवश्यक वैसी तथा १६ अगुल की होनी चाहिए । चरवला भी दंडी २४ होने के कारण इस पुस्तक को प्रकाशित करने का पुरुषार्थ अंगुल की+८ अगुल की दशी अथवा दंडी+दशी का कुल माप किया गया है।
| ३२ अगुल का होना चाहिए । (खड़े रहे हुए किसी भी आराधक प्रस्तुत पुस्तक में शुद्ध उच्चारण का विशेष ध्यान रखा के हाथ की ऊगली से पैरों के तलुए तक का माप प्रायः ३२ गया है । साथ ही मुद्राज्ञान-छंदज्ञान इत्यादि विषयों का अगुल का होता है।) चरवले से कमर से नीचे का तथा मुहपत्ति वर्णन सरल भाषा में किया गया है। सामायिक के उपकरण से कमर के ऊपर के अंग-उपांगों का प्रमार्जन करना चाहिए। तथा प्रभुभक्ति हेतु उपयोगी 'दशत्रिक' का सुन्दर आलेखन कटासने के ऊपर पैरों का स्पर्श होने के कारण उसके ऊपर किया गया है। प्रत्येक क्रिया करते समय शरीर की शास्त्रोक्त पुस्तक, नवकारवाली, मुंहपत्ति-ज्ञान के उपकरण आदि नहीं अवस्था सुन्दर चित्रों के द्वारा जैन शासन में प्रथम बार दी गई रखने चाहिए । चरवले की डंडी में घुघरी-चाबी, नवकारवाली है । जिससे अल्पायु के साधक प्रारम्भ से ही शुद्ध क्रिया तथा ज्ञानोपकरण नहीं रखना चाहिए । मुहपत्ति को किसी भी सीख सकते हैं, इसके अतिरिक्त क्रियाओं के ज्ञाता भी इस प्रकार की पुस्तक-ज्ञानोपकरण तथा कटासना में साथ नहीं पुस्तक की सहायता से शुद्ध क्रिया कर सकते हैं। रखनी चाहिए।
उदाहरण:-"खमासमणा' देते समय जब पाचों अंग ऐसी अनेक बातों का संग्रह इस पुस्तक में किया गया है। एकत्र हों, तब त्रसकाय जीवों की विराधना की सम्भावना से चातुर्मास के समय जिनवाणी के माध्यम से पर्वाधिराज पर्युषण बचने हेतु पीछे से ऊचा नहीं होना चाहिए.....।" "वंदना करते से पहले तथा उन दिनों कभी-कभी आराधना हेतु आनेवाले समय 'अहो कायं' आदि बोलते हुए दसों ऊंगलिया मुहपत्ति श्रावकों को यथोचित समय पर क्रिया का कुछ आंशिक वर्णन (रजोहरण) तथा मस्तक-प्रदेश को स्पर्श करना चाहिए तथा करते समय श्रावकों के मुख से सहज व्यवहार से निकलने वाला 'संफासं, खामेमि' बोलते समय नीचे झुकते हुए पीछे से हृदयोद्गार तथा अनुपम आनन्द की अविस्मरणीय बातें आज शरीर को ऊपर नहीं उठाना चाहिए....।" "योगमुद्रा में दोनों भी याद करने से सारे शरीर में रोमांच हो जाता है । बस उस हाथों की ऊंगलिया एक दूसरे के अन्दर तथा कुहनी को आत्मिक आनन्द का रसास्वाद समस्त जैन संघ के महानुभाव एकत्र कर पेट पर रखना चाहिए । उस समय नाभि प्रदेश के अनुभव करें, ऐसी भावना वर्षों से मन में रमण कर रही थी।
पास स्थित सदा सर्व कर्म रहित आठ रुचक प्रदेशों की भांति उन्हीं दिनों जामनगर चातुर्मास के दौरान श्रद्धेय पण्डित श्री १०