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१४. श्री सकलाऽर्हत् स्तोत्र
आदान नाम : श्री सकलाऽर्हत स्तोत्र | विषय :
गौण नाम : श्री चोवीश | वर्तमान चोवीशी देववंदन, चैत्यवंदन और देवसि, पक्खी, चौमासि, संवत्सरि
जिन स्तवना | परमात्मा की प्रतिक्रमण के समय यह सूत्र
भाववाही स्तवना। बोलते-सुनते समय की मुद्रा । अपवादिक मुद्रा।
छंद : अनुष्टप, राग-दर्शनं देव-देवस्य-(प्रभुस्तुति) मूल सूत्र उच्चारण में सहायक
पद क्रमानुसारी अर्थ सकलार्हत्-प्रतिष्ठानसक-लार्-हत्-प्रतिष्-ठान
सर्व अरिहंतो में विद्यमान, मधिष्ठानं शिवश्रियः। मधिष्-ठानम् शिव-श्रियः ।
मोक्ष-लक्ष्मी के निवासस्थान, भूर्भुव:-स्वस्त्रयीशानभूर्-भुवः-स्वस्-त्रयी-शान
तथा पाताल, मर्त्यलोक और स्वर्गलोक
पर सम्पूर्ण प्रभुत्व धारण करनेवाले, मार्हन्त्यं प्रणिदध्महे ॥१॥ मार्-हन्-त्यम् प्रणि दधु-महे ॥१॥ । ऐसे अरिहंतपद का हम ध्यान करते हैं । १. अर्थ : सर्व अरिहंतो में विद्यमान, मोक्ष-लक्ष्मी केनिवासस्थान तथा पाताल, मर्त्यलोक और स्वर्गलोक पर सम्पूर्ण प्रभुत्व धारण करनेवाले ऐसे अरिहन्त पद का हम ध्यान करते हैं। १. नामाऽऽकृति-द्रव्य-भावैः, नामा-कृति-द्रव्य-भावैः, नाम-स्थापना-द्रव्य-भाव निक्षेपों के द्वारा पुनतस्त्रिजगज्जनम्।
पुन-तस्-त्रि-जगज्-जनम्। पवित्र कर रहे है, तीनो जगत के प्राणियों को क्षेत्रे काले च सर्वस्मिन्न
क्षेत्रे-काले-च सर्-वस्-मिन्- सर्व क्षेत्र में और सर्व काल में, उन र्हतः समुपास्महे ॥२॥ नर-हतः-समु-पास-महे ॥२॥ अरिहंतो की हम सम्यग् उपासना करते है। २. अर्थ : जो सर्वक्षेत्र में और सर्वकाल में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-निक्षेपों के द्वारा तीनों लोकों के प्राणियों को पवित्र कर रहे हैं, उन अर्हन्तो की हम सम्यग् उपासना करते है। २. आदिमं पृथिवीनाथआदि-मम् पृथि-वी-नाथ
पहले पृथ्वी के नाथ (= राजा), मादिमं निष्परिग्रहम्। मादि-मम् निष्-परि-ग्रहम्।
पहले निष्परिग्रही (=साधु), आदिम तीर्थनाथं च, आदिमम्-तीर-थ-नाथम् च,
पहले तीर्थ के स्वामी (= तीर्थंकर), ऐसे ऋषभ-स्वामिनं स्तुमः ॥३॥ ऋ-षभ-स्वा-मिनम् स्तु-मः ॥३॥ ऋषभ देव स्वामी की हम स्तुति करते है। ३. अर्थ : पहले राजा, पहले साधु और पहले तीर्थङ्कर, ऐसे श्रीऋषभदेव की हम स्तुति करते है। ३. अर्हन्त-मजितं विश्व- अर-हन्-त-मजि-तम् विश्-व- अरिहंत अजितनाथ को जगत रुपीकमलकार-भास्करम् । कम-ल-कार-भास्-करम्।
कमल के वन को विकसित करने के लिए सूर्य समान, अम्लान-केवलादर्श- अम्-लान-केव-ला-दर-श- निर्मल केवलज्ञान रुपी दर्पण में सारा जगत सङ्क्रान्त-जगतं स्तुवे ॥४॥ सङ्-क्रान्-त-जग-तम् स्तु-वे ॥४॥ प्रतिबिम्बित हुआ है, उनकी में स्तवना करता हूँ। ४. अर्थ : जगत् के प्राणी रूपी कमलों के समूह को विकसित करने के लिये सूर्य-स्वरुप तथा जिनके केवलज्ञान रुपी दर्पण में सारा जगत् प्रतिबिम्बित हुआ है, ऐसे पूजनीय श्रीअजितनाथ भगवान की मैं स्तुति करता हूँ। ४.
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