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विश्व-भव्य-जनारामविश्-व-भव-य-जना-राम
विश्व के भव्य जीव रुपी बगीचे के लिए कुल्या-तुल्या-जयन्ति ताः।
कुल्-या-तुल्-या-जयन्-ति-ताः । नाली के समान, जय को प्राप्त करते है। देशना-समये वाचः, देशना-समये वाचः,
उपदेश (देशना) समय के वचनोश्री सम्भव-जगत्पतेः ॥५॥ श्री-सम्-भव-जगत्-पतेः ॥५॥ श्री संभवनाथ स्वामी के।५. अर्थ : धर्मोपदेश करते समय जिनकी वाणी विश्व के भव्यजीव रूपी बगीचे को सींचने के लिये नाली के समान है, वे श्री सम्भवनाथ भगवन्त के वचन जय को प्राप्त हो रहे है। ५. अनेकान्त-मताम्भोधि- अने-कान्-त-मताम्-भोधि- अनेकान्त-मतरूपी समुल्लासन-चन्द्रमाः। समुल्-ला-सन-चन्-द्र-माः। महासमुद्र को पूर्णतया उल्लसित करने के लिये चन्द्र समान, दद्यादमन्द-मानन्दं, दद्-याद-मन्-द-मानन्-दम्, हमें परम आनन्द प्रदान करेंभगवानभिनन्दनः ॥६॥ भग-वा-न भि-नन्-दनः ॥६॥ भगवान् श्रीअभिनन्दन ।६. अर्थ : अनेकान्त-मत रूपी महासमुद्र को पूर्णतया उल्लसित करने के लिये चन्द्र-समान भगवान् श्री अभिनन्दन हमें परम आनन्द प्रदान करें।६. धुसत्-किरीट-शाणाग्रोत्- धु( यु)-सत्-किरी-ट-शाणा-ग्रोत्- देवों के मुकुट रूपी कसौटी के अग्रभाग से ते जितानि-नखावलिः। ते जि-ताङ्-घ्रि-नखा-वलिः। चमकदार हो गयी हैं, जिनके चरण की नखून-पङ्क्तियाँ-ऐसे भगवान् सुमतिस्वामी, भग-वान् स-मति-स्वा-मी, भगवान् श्री सुमतिनाथ तुम्हारेतनोत्वभिमतानि वः ॥७॥ तनोत्-व-भिम-तानि-वः ॥७॥ मनोरथ पूर्ण करें।७. अर्थ : जिनके चरण की नखून-पक्तियाँ देवों के मुकुट रूपी कसौटी के अग्रभाग से चमकदार हो गयी हैं, वे भगवान् श्री सुमतिनाथ तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करें। ७. पद्मप्रभ-प्रभोर्देहपद्-म-प्रभ-प्रभोर-देह
श्री पद्मप्रभ स्वामी के शरीर की भासः पुष्णन्तु वः श्रियम् । भासः पुष्-णन्-तु वः श्रियम् । कान्ति पोषण करें तुम्हारी लक्ष्मी को । अन्तरङ्गारि-मथने, अन्-त-रङ्-गारि-मथ-ने,
अभ्यंतर शत्रुओ का हनन करने के लिए कोपाटोपादि-वारुणाः ॥८॥ कोपा-टोपा-दि वा-रुणाः ॥८॥ आवेश से मानो लाल रंग की हो गई हो। ८. अर्थ : आन्तरिक शत्रुओं का हनन करने के लिये क्रोध के आवेश से मानो लाल-रङ्ग की हो गयी हो, ऐसी श्री पद्मप्रभ-स्वामी के शरीर की कान्ति तुम्हारी आत्म-लक्ष्मी को पुष्ट करें। ८. श्रीसुपार्श्व जिनेन्द्राय, श्री-सुपार-श्व-जिनेन्-द्राय,
श्री सुपार्श्वनाथ स्वामी कोमहेन्द्र-महिताङ्घये। महेन्-द्र-महिताङ्-घ्रये।
महेन्द्रों से पूजित चरण वाले। नमश्चतुर्वर्ण-सङ्घ नमश्-चतुर्-वर-ण-सङ्-घ
नमस्कार हो, चतुर्विधश्री संघ रुपी गगनाभोग-भास्वते ॥९॥ गग-ना-भोग-भास्-वते ॥९॥
आकाश-मण्डल में सूर्य समान । ९. अर्थ : चतुर्विधश्री सङ्ग रूपी आकाश मण्डल में सूर्य सदृश तथा महेन्द्रों से पूजित चरणवाले श्री सुपार्श्वनाथ भगवंत को। नमस्कार हो । ९. चन्द्रप्रभ-प्रभोश्चन्द्रचन्-द्र-प्रभ-प्रभोश्-चन्-द्र
श्री चन्द्रप्रभ स्वामी की चन्द्रमरीचि-निचयोज्ज्वला । मरी-चि-निच-योज-ज्वला। किरणों के समूह जैसी श्वेतमूर्तिर्मूर्त-सितध्यानमूर्-तिर्-मूर्-त-सित-ध्यान
प्रतिमा साक्षात् शुक्लध्यान से बनायी हो, ऐसी निर्मितेव श्रियेऽस्तु वः ॥१०॥ निर्-मि-तेव-श्रिये-स्तु वः ॥१०॥ ज्ञान रुपी लक्ष्मी करनेवाली हो तुम्हारे लिये । १०. अर्थ : चन्द्र-किरणों के समूह जैसी श्वेत और साक्षात् शुक्लध्यान से बनायी हो, ऐसी श्री चन्द्रप्रभस्वामी की शुक्लमूर्ति तुम्हारे लिये आत्म-लक्ष्मी की वृद्धि करनेवाली हो । १०. करामल कवद् विश्वं, करा-मल-क-वद्-विश-वम्, हाथ में स्थित आवले के समान जगत को कलयन् केवल श्रिया। कल-यन्-केव-ल-श्रिया। देख रहे है, केवलज्ञान रुपी लक्ष्मी से, अचिन्त्य-माहात्म्य-निधिः, अचिन्-त्य-माहात्-म्य-निधिः, अचिन्त्य महात्म्य के निधान, ऐसे सुविधि-र्बोधयेऽस्तुवः ॥११॥ सुवि-धिर-बोध-ये-ऽस्तु वः ॥११॥श्री सुविधिनाथ बोधि (सम्यकत्व) के लिए हो तुम्हारे।११. अर्थ : जो केवल ज्ञान की सम्पत्ति से सारे जगत को हाथ में स्थित आवले के समान देख रहे हैं तथा जो कल्पनातीत प्रभाव के भण्डार हैं, वे श्री सुविधिनाथ प्रभु तुम्हारे लिये सम्यक्त्व की प्रप्ति करानेवाले हो । ११.
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