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सत्त्वानां-परमानन्द
सत्-त्वा-नाम्-पर-मा-नन्-द- प्राणियों के उत्कृष्ट आनंद के कन्दोभेद-नवाम्बुदः।
कन्-दोद्-भेद-नवाम्-बुदः। अंकुर को प्रगट करने के लिए नवीन मेघ समान, स्याद्वादामृत-निस्यन्दी, स्याद्-वादा-मृत-नि-स्यन्-दी, स्याद्वाद रुप अमृत के झरणा समान, ऐसेशीतलः पातु वो जिनः ॥१२॥ शीत-ल:- पातु-वो जिनः ॥१२॥ श्री शीतलनाथ रक्षण करें तुम्हारी जिनेश्वर । १३. अर्थ : प्राणियों के परमानन्द रूपी कन्द को प्रकटित करने के लिये नवीन मेघ-स्वरूपी तथा स्याद्वाद रूपी अमृत के झरणा समान, ऐसे श्री शीतलनाथ जिनेश्वर तुम्हारी रक्षा करें। १२. भव-रोगाऽऽर्त्त-जन्तूना- भव-रो-गात्-त-जन्-तू-ना- संसाररुप रोग से पीडित प्राणियो के लिएमगदुङ्कार-दर्शनः।
मग-दङ्-कार-दर्-शनः । वैद्य के दर्शन जैसा है; जिन्हो का दर्शन, निःश्रेयस-श्री-रमणः, निः श्रे-यस-श्री-रम-णः, |जो निःश्रेयस (= मोक्ष) रुपी लक्ष्मी के स्वामी है, श्रेयांसः श्रेयसेऽस्तु वः ॥१३॥ श्रेयान्-स:-श्रेय-से-स्तु वः ॥१३॥ श्री श्रेयांसनाथ जी कल्याण के लिये हो, तुम्हारे।१३. अर्थ : जिनका दर्शन भव-रोग से पीडित प्राणियो के लिये वैद्य के दर्शन जैसा है तथा जो निःश्रेयस-(मुक्ति) रूपी लक्ष्मी के पति हैं, वे श्री श्रेयांसनाथ तुम्हारे श्रेय-मुक्ति के लिये हों । १३. विश्वोपकारकी भूतविश्-वो-पका-र-की-भूत
विश्व पर महान् उपकार करनेवाले, तीर्थकृत्-कर्म-निर्मितिः। तीर-थ-कृत्-कर-म-निर्-मितिः।। तीर्थंकर नाम कर्म की उपार्जना करनेवाले, सुरासुर-नरैः-पूज्यो, सुरा-सुर-नरैः-पूज-यो,
देव-असुर और मनुष्यों द्वारा पूजनीय, ऐसे वासुपूज्यः पुनातु वः ॥१४॥ वासु-पूज-यः-पुना-तु वः ॥१४॥ श्री वासुपूज्य स्वामी पवित्र करें तुम्हें । १४. अर्थ : विश्व पर महान् उपकार करनेवाले, तीर्थङ्कर-नाम-कर्म को बाँधने-वाले तथा सुर, असुर और मनुष्यों द्वारा पूजनीय, ऐसे
श्री वासुपूज्यस्वामी तुम्हे पवित्र करें ।१४. विमलस्वामिनो वाचः,
विम-ल-स्वा-मिनो वाचः, श्री विमलनाथ जी की वाणी कत-कक्षो-दसो-दराः।
कत-क-क्षो द-सोद-राः। | कतक-फल के चूर्ण जैसी, जयन्ति त्रिजगच्चेतो
जयन्-ति त्रि जगच्-चेतो- जय को प्राप्त हो रही हैं, तीन जगत के चित्त रुपी जल-नैर्मल्य-हेतवः ॥१५॥ जल-नैर्मल्य-हेतवः ॥१५॥ पानी को स्वच्छ करने में कारण रुप । १५. अर्थ : त्रिभुवन में स्थित प्राणियों के चित्तरुपी जल को स्वच्छ करने में कारणरूप कतक-फल के चूर्ण जैसी श्री विमलनाथ प्रभु की वाणी जय को प्राप्त हो रही है। १५. स्वयम्भूर मण-स्पर्धि, स्व-यम्-भू-रम-ण-स्पर-धि, स्वयंभूरमण (अंतिम) समुद्र की स्पर्धा करनेवाले, करुणारस वारिणा। करु-णा-रस-वारि-णा।
करुणा-रस रुपी जल सेअनन्त-जिदनन्तां वः,. अनन्-त-जिद-नन्-ताम् वः,. श्री अनंतनाथजी अनंत तुम्हारे लियेप्रयच्छतु सुख-श्रियम् ॥१६॥ प्र-यच-छतु सुख-श्रियम् ॥१६॥ प्रदान करें सुख रुपी लक्ष्मी को । १६. अर्थ : करुणा रूपी जल से स्वयंभूरमण समुद्री स्पर्धा करनेवाले श्री अनन्तनाथ भगवंत तुम्हारे लिये अनंत सुख रुपी लक्ष्मी प्रदान करें। १६. कल्पद्रुम-सधर्माण- कल्-प-द्रुम-सधर-माण- कल्पवृक्ष समानमिष्ट-प्राप्तौ शरीरिणाम्। मिष्-ट्-प्राप्-तौ शरी-रिणाम्। इच्छित अर्थ की प्राप्ति में प्राणियों कोचतुर्धा धर्म-देष्टारं, चतुर्-धा-धर्-म-देष्-टारम्, चार प्रकार(=दान, शील, तप, भाव) के धर्म के उपदेशक, धर्मनाथ मुपास्महे ॥१७॥ धर्-म-नाथ-मु-पास्-महे ॥१७॥ ऐसे श्री धर्मनाथजी की हम उपासना करते है। १७. अर्थ : प्राणियों का इच्छित फल प्राप्त कराने में कल्पवृक्ष-समान और चार प्रकार (= दान, शील, तप, भाव) के धर्म के उपदेशक, ऐसे श्री धर्मनाथ प्रभु की हम उपासना करते हैं । १७. सुधा-सोदर-वाग्-ज्योत्स्ना- सुधा-सो-दर-वाग्-ज्योत्-स्ना- अमृत समान वाणी रुप चंद्रिका द्वारा निर्मलीकृत-दिङ्मुखः। निर्-मली-कृत-दिङ्-मुखः। निर्मल किया है, दिशाओं के मुख भाग को जिन्होंने मृग-लक्ष्मा तमः शान्त्यै, मृग-लक्-षमा-तमः-शान्-त्यै, हरिण के लांछनवाले, अज्ञान की शान्ति के लिए शान्तिनाथ-जिनोऽस्तु वः ॥१८॥ शान्-ति-नाथ-जिनो-स्तु वः ॥१८॥ श्री शान्तिनाथ जिनेश्वर हों, तुम्हारे लिए । १८. अर्थ : अमृत तुल्य धर्म-देशना रुप चंद्रिका से दिशाओ के मुख को उज्ज्वल करनेवाले तथा हरिण के लाञ्छन को धारण करनेवाले ऐसे श्री शान्तिनाथ भगवंत तुम्हारे अज्ञान का निवारण करने के लिये हों । १८.
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