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श्रीकुन्थुनाथो भगवान्, श्री-कुन्-थु-नाथो भग-वान्, श्री कुंथुनाथ भगवंतसनाथोऽतिशयर्द्धिभिः। सना-थो-तिश-य-धि-भिः। युक्त अतिशयों की ऋषि से, सुरासुर-नृ-नाथानासुरा-सुर-नृ-नाथा-ना
| देव-असुर-मनुष्यों के स्वामियों के भी मेकनाथोऽस्तु वःश्रिये ॥१९॥ मेक-नाथोऽस्तु-वः-श्रिये ॥१९॥ अनन्य स्वामी ऐसे हो, तुम्हारी लक्ष्मी के लिए । १९. अर्थ : अतिशयों की ऋद्धि से युक्त और सुर, असुर तथा मनुष्यों के स्वामियों के भी अनन्यस्वामी, ऐसे श्री कुन्थुनाथ भगवंत तुम्हें आत्म-लक्ष्मी के लिये हों । १९. अरनाथस्तु भगवाअर-नाथ-स्तु भग-वान्
श्री अरनाथ भगवंत चतुर्थार-नभो-रविः । चतुर्-थार-नभो-रविः।
चौथा आरा रुपी गमन-मण्डल में सूर्य समान । चतुर्थ-पुरुषार्थ-श्री चतुर्-थ-पुरु-षार-थ-श्री
चौथे पुरुषार्थ (मोक्ष) रुप लक्ष्मी का विलासं वितनोतु वः ॥२०॥ विला-सम्-वित-नोतु-वः ॥२०॥ विलास विस्तारित करनेवाले बनें तुम्हें । २०. अर्थ : चौथा आरा रुपी गगन मण्डल में सूर्य रूप श्री अरनाथ भगवंत तुम्हें, चौथे पुरुषार्थ (मोक्ष) रुप लक्ष्मी का विलास विस्तारित करनेवाले बनें । २०. सुरासुर-नराधीशसुरा-सुर-नरा-धीश
सूरों-असुरों और मनुष्यों के अधिपति रुप (इन्द्र-चक्रवर्ती) मयूर-नव-वारिदम्। मयू-र-नव-वारि-दम्।
मयूरो के लिए नवीन मेघ समान (तथा) कर्मद्रून्मूलने हस्ति- कर-म-द्रून्-मूल-ने हस्-ति
कर्म रुपी वृक्ष को मूल से उखाडने के लिए ऐरावत मल्लं मल्लि-मभिष्टमः ॥२१॥ मल्-लम्- मल्-लि मभिष्-टुमः ॥२१॥ हाथी समान, ऐसे श्री मल्लिनाथजी की हम स्तुति करते हैं। २१. अथ : सुरों, असुरों और मनुष्यों के अधिपति-रूप (इन्द्र-चक्रवर्ती आदि) मयूरों के लिये नवीन मेघ-समान तथा कर्म रूपी वृक्ष को मूल से उखाडने के लिये ऐरावत हाथी-समान, ऐसे श्री मल्लिनाथ की हम स्तुति करते हैं । २१. जगन्महामोह-निद्राजगन्-महा-मोह-निद्-रा
संसार के प्राणियों की मोह रुपी निद्रा उड़ाने के लिए प्रत्यूष-समयोपमम्।
प्रत्-यू-ष-सम-यो-पमम् । प्रभात काल की उपमा वाले, ऐसे मुनिसुव्रत-नाथस्य, मुनि-सु-व्रत-नाथ-स्य,
श्री मुनिसुव्रत स्वामी की देशना-वचनं-स्तुमः ॥२२॥ देश-ना-वच-नम् स्तु-मः ॥२२॥ देशना के वचन की हम स्तुति करते है। २२. अर्थ : संसार के प्राणियों की महामोह रूपी निद्रा को उड़ाने के लिये प्रातःकाल की उपमा जैसे श्री मुनिसुव्रत स्वामी की देशना के वचन की हम स्तुति करते हैं । २२. लुठन्तो नमतां मूर्ध्नि, लु-ठन्-तो-नम-ताम् मूर्-ध्-नि फडकती हुई नमस्कार करनेवालों के मस्तक पर निर्मलीकार-कारणम्। निर-मली-कार-कार-णम् ।
निर्मल करने के कारण-रुप वारिप्लवा इव नमः, वारिप-लवा इव नमः,
जल के प्रवाह की तरह निर्मल ऐसी श्री नमिनाथजी पान्तु पाद-नखांशवः ॥२३॥पान्-तु-पाद-नखां (नखान्)शवः ॥२३॥रक्षण करो चरण के नाखून की किरणे । २३. अर्थ : नमस्कार करनेवालों के मस्तक पर फड़कती हुई और जल के प्रवाह की तरह निर्मल करने में कारणभूत, ऐसी श्री नमिनाथ प्रभु के चरणों के नखून की किरणें तुम्हारा रक्षण करें।२३. यदुवंश-समुद्रेन्दुः,
यदु-वंश (वन्-श)-समु-न्-द्रेन्-दुः, यदुवंश रुप समुद्र में चन्द्र समान, कर्म-कक्ष-हुताशनः । कर-म-कक्-ष-हुता-शनः ।
कर्म रुप वन के लिए अग्नि समान, अरिष्टनेमि-भगवान्, अरिष्-ट-नेमिर्-भग-वान्,
श्री अरिहंत नेमि भगवंतभूयाद् वोऽरिष्टनाशनः ॥२४॥ भू-याद्-वो-रिष्-ट-नाशनः ॥२४॥ हो, तुम्हारे उपद्रव को नाश करनेवाले । २४. अर्थ : यदुवंश रुपी समुद्र में चन्द्र-तथा कर्म रूपी वन को जलाने में अग्नि-समान श्रीअरिष्टनेमि भगवान् तुम्हारे अमङ्गल का नाश करनेवाले हों। २४. कमठे घरणेन्द्रे च,
कम-ठे-घर-णेन्-द्रे-च, कमठ ( तापस ) असुर पर, धरणेन्द्र देव पर और स्वोचितं कर्म कुर्वति। स्वो-चितम् कर-म कर-वति। अपने लिए उचित कत्य करनेवाले प्रभुस्तुल्य-मनोवृत्तिः, प्रभुस्-तुल्-य-मनोवृत्-तिः, भगवंत समान मनोवृत्ति धारण करनेवाले, पार्श्वनाथः श्रियेऽस्तु वः ॥२५॥ पार्-श्व-नाथः श्रिये-स्तु-वः ॥२५॥ ऐसे श्री पार्श्वनाथजी लक्ष्मी के लिए हों, तुम्हारी । २५. अर्थ : अपने लिए उचित कृत्य करनेवाले कमठासुर और धरणेन्द्र पर समान भाव धारण करनेवाले ऐसे श्री पार्श्वनाथ प्रभु तुम्हारी आत्म-लक्ष्मी के लिये हों । २५.
जल के प्रवकारण-रुप
शवः ॥
२५
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