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व उपकारियों का गुणगुंजन
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पिताश्री जशवंतलाल बचुभाई शाह माताश्री हंसाबेन जशवंतलाल शाह
अनन्त उपकारी, चरम तीर्थपति, श्रमण भगवान श्री महावीर प्रभु ने अपनी शक्ति से घातिकों का क्षय कर केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी का वरन किया । समवसरण की रचना होते ही करुणासिन्धु प्रभुजी वहाँ पधारे और सुयोग्य पात्र देखकर अपने पट्टधर शिष्यरत्नों को गणधर पद प्रदान करने के साथ-साथ उन्हें त्रिपदी प्रदान की। उस त्रिपदी के आधार पर बीज बद्धि निधान के स्वामि गणधर भगवन्तों ने अन्तर्महल में द्वादशांगी की रचना की, इसमें 'आवश्यक क्रिया' सम्बन्धित अधिकांश सूत्रों की रचना भी उनके द्वारा ही की गई है।
___ इन सूत्रों को कौन से राग में, किन प्रकार के शुद्ध उच्चारणों के द्वारा तथा कौन सी मुद्रा में बोलने से कर्म की निर्जरा होती है, इनसे संबंधी सम्पूर्ण माहिती प्रस्तुत पुस्तक में दी गई है। जो साधना आज मात्र क्रियारूप बन गई है तथा क्रिया न करनेवालों के लिए हसी का पात्र बन गई है, उस साधना को सम्पूर्ण भावमय बनाने के लिए प्रस्तुत पुस्तक में यत्किचित प्रयत्न किया गया है।
'सूरिरामचन्द्र' के शिष्यरत्न पूज्य मुनिराज श्री रम्यदर्शनविजयजी म. सा. से प्रस्तुत पुस्तक के विषय में मेरे हृदय की बात जामनगर चातुर्मास के समय करने पर उन्होंने अल्प परिचय में भी अत्यन्त उत्साह के साथ जैनशासन में अत्यन्त उपयोगी प्रस्तुत पुस्तक के सम्पादक-मार्गदर्शक बनने के निवेदन को स्वीकार कर मेरे उत्साह में अभिवृद्धि की । मैं सदैव उनका आभारी रहूँगा।
जीवन में धार्मिक संस्कारों का सतत सिंचन करनेवाले, परोपकारी पूज्य पिताश्री जशवन्तलालभाई तथा पूज्य माताश्री हंसाबेन का असीम वात्सल्य तथा उपकार कभी भुलाया नहीं जा सकता। समस्त कार्यों को गौण रखकर मेरे इस कार्य में सतत सहायक बननेवाली धर्मपत्नी श्री रूपा (दिल्पा) तथा कोमल पुष्प के समान सुपुत्री धन्या और सुपुत्र रत्न के सहयोग को भी इस प्रसंग पर स्मृतिपथ में लाकर आनन्द का अनुभव हो रहा है। यदि जिनाज्ञा के विरुद्ध कुछ भी लिखा या छापा गया हो अथवा चित्रादि का संयोजन किया गया हो, तो मिच्छा मि दुक्कडं ।
पूज्यों के चरणारविन्द में वन्दनावलि
परेश जे. शाह
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