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________________ २६. श्री भगवानादि वंदन सूत्र आदान नाम : श्री भगवानादि वंदन सूत्र विषय : गौणनाम : श्रीपंच परमेष्ठि नमस्कार पंचपरमेष्ठि भगवंतों गुरु-अक्षर : ३ को नमस्कार करने लघु-अक्षर : १६ 'खमासमण' खड़े होकर योगमुद्रा में सर्व अक्षर : १९ स्वरुप है। देकर खड़े हो जाएँ। बोलते-सुनते समय की मुद्रा । मूलसूत्र उच्चारण में सहायक पदक्रमानुसारी अर्थ भगवान्हं, आचार्य हं, भग-वान्-हम्,आ-चार-य-हम्, भगवंतों को वंदन हो,आचार्यो को वंदन हो, उपाध्यायह,सर्वसाधुहं। उपा-ध्या-य-हम्,सर-व-साधु-हम्। उपाध्यायों को वंदन हो,सर्वसाधुओं को वंदन हो, गाथार्थ : भगवंतो को वंदन हो, आचार्यो को वंदन हो, उपाध्यायों को वंदन हो,सर्वसाधुओं को वंदन हो।१. नोट : देवसिअ तथा राइअ प्रतिक्रमण के समय दो-दो बार अशुद्ध शुद्ध आनेवाला यह सूत्र एक-एक खमासमण के बाद बोला भगवानं आचार्य उपाध्यायं भगवान्हं आचार्यहं उपाध्यायह जाता है। उस समय प्रायः बैठे-बैठे शरीर को अति सामान्य सर्वसाधुभ्य-सर्वसाधुभ्यं सर्वसाधुहं रूप से मोड़कर बोला जाता है, वह उचित नहीं है। हमारे परमोपकारी पंचपरमेष्ठि भगवंतों को अतिशय भावपूर्वक सत्तर संडासा (प्रमार्जना) के साथ खमासमण देते हुए वंदन करना चाहिए। शाम के प्रतिक्रमण में पहली बार आनेवाले इस सूत्र के बाद 'इच्छकारी समस्त श्रावक को वंदन करता हूँ' बोलने की प्रथा प्रचलित है। २७. श्री देवसिअपडिक्कमणे ठाउँसूत्र आदान नाम : श्री सव्वस्स वि देवसिअसूत्र, विषय: गौण नाम : संक्षिप्त प्रतिक्रमण स्थापना सूत्र अत्यन्त उपयोगी प्रतिक्रमण गुरु-अक्षर :८ कम शब्दों में करते समय यह लघु-अक्षर : १८ अगाध पापों सूत्र बोलने सुनने की मुद्रा। सर्व अक्षर : २६ की आलोचना। मूल सूत्र उच्चारण में सहायक पदक्रमानुसारी अर्थ इच्छाकारेण संदिसहभगवन्! इच-छा-कारे-ण सन्-दि-सहभग-वन्! हेभगवान् ! स्वेच्छासे आज्ञा प्रदान कीजिए(कि मैं) देवसिअ ( राइअ) पडिक्कमणे । देवसिअ(राइअ) पडिक्कमणे दिन संबंधित/रात्रि संबंधित प्रतिक्रमण की ठाउं? ठाउम्? स्थापना करूँ? इच्छं, इच-छम्, मैं आपकी आज्ञा स्वीकार करता हूँ सव्वस्स वि, देवसिअ (राइअ), सव-वस्-स वि, देव-सिअ-(राइअ)- सभी दैवसिक/रात्रिक दुच्चितिअ, दुब्भासिअ, दुच्-चिन्-तिअ, दुब्-भा-सिअ, दुष्ट चितवन संबंधी, दुष्ट भाषण संबंधी, दुच्चिट्ठि दुच-चिट्-ठिअ दुष्ट चेष्टा संबंधी मिच्छा मि दुक्कडं ॥१॥ मिच्-छा मि दुक्-क-डम् ॥१॥ मेरे दुष्कृत्य मिथ्या हों । १. गाथार्थ : हे भगवंत ! आप अपनी स्वेच्छा से आज्ञा-प्रदान कीजिए कि मैं दिन संबंधित (=दैवसिक)/रात्रि संबंधित (=रात्रिक) प्रतिक्रमण की स्थापना करूँ? । तब गुरुभगवंत कहे-ठावेह (=स्थापना करो) आपकी आज्ञा प्रमाण है । मेरी सभी दैवसिक/रात्रिक आर्त-रौद्र ध्यान स्वरुप दुष्ट चितवन, पापकारी वचन स्वरुप दुष्ट-भाषण और नहीं करने योग्य क्रिया स्वरुप दुष्ट कायिक क्रिया संबंधित दुष्कृत्य मिथ्या हो । १. सारे दोषों का मूल कारण मन, वचन और काया है, अतः इन तीनों के दूषित व्यवहार से लगे हुए दोषों का इस सूत्र में अतिशय संक्षिप्त में मिथ्या दुष्कृत किया गया है। १५ pdfessnal use only.
SR No.002927
Book TitleAvashyaka Kriya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Spiritual, & Paryushan
File Size66 MB
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