________________
• पुनः मुक्ताशुक्ति मुद्रा में जावंत के वि साह' सूत्र बोलकर चैत्यवंदन बोलकर 'जंकिंचि नाम-तित्थं' सूत्र बोलकर
पुरुष 'नमोऽर्हत सूत्र' बोलें तथा महिलाए हाथ जोड़कर 'नमुत्थुणं सूत्र' बोलें. उसके बाद मुक्ताशुक्ति मुद्रा में जय एकबार श्री नवकाममंत्र बोलकर एक ही संख्या में सुमधुर वीयराय सूत्र आभवमखंडा तक तथा वारिज्जड़ से योगमुद्रा में
स्वर में दूसरों को असुविधा न हो इस प्रकारस्तवन बोलें। पूर्ण सूत्र बोलें। . उसके बाद मुक्ताशुक्ति मुद्रा में 'जयवीय-राय सूत्र'. उसके बाद अंत में एक खमासमण देकर पैरों के पंजे के बल 'आभवखंडा' तक बोलें और फिर एक खमासमण देकर पर दाहिने हाथ की मुट्ठी बांधकर कटासणा, जमीन, चरवला, आदेश मांगें कि 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् चैत्यवंदन रजोहरण (ओघा) पर स्थापना कर देववंदन की विधि करते करूं?'गुरुभगवंत कहें करेह'तब इच्छं' बोलें।
हुए जो कुछ अविधि हुई हो, उसके लिए मैं मन-वचन-काया फिर गुजराती, संस्कृत अथवा प्राकृत भाषा में भाववाही से करी मिच्छामि दुक्कडं'बोलें।
नोंध : चार थोय के जोड़े का उपयोग श्री कल्लाणकंदं सूत्र
श्री देववंदन में उपयोगी चैत्यवंदन -१ तथा संसार दावानल सूत्र की एक-एक गाथा क्रमशः किया जा जय चिंतामणि पार्श्वनाथ, जय त्रिभुवन स्वामी, सके । इसके अतिरिक्त गुजराती में चार थोय के जोड़े, जो नीचे अष्टकर्म रिप जीतीने, पंचमी गति पामी ॥२॥ बतलाए गए हैं, उन्हें तीन बार चैत्यवंदन बोलते समय पूर्व निर्दिष्ट प्रभु नामे आनंद कंद, सुख संपत्ति लईए, चैत्यवंदन विधिमें से 'सकल-कुशल-वल्ली' तथा 'तुज मुरतीने प्रभु नामे भवोभव तणां, पातिक सवि दहिए ॥२॥ निरखवा' का उपयोग किया जा सकता है. इसके अतिरिक्त दो ॐ ह्रीं वर्ण जोडी करी, जपीए पार्श्व नाम, चैत्यवंदन नीचे बतलाए गए हैं।
विष अमृत थई परिणमे,लहिए अविचल धाम ॥३॥ श्री देववंदन में उपयोगी चैत्यवंदन - २
श्री देववंदन में उपयोगी चार थोय का जोडा-२ परमेश्वर परमात्मा, पावन परमीट्ठ,
प्रह उठी वंदु, ऋषभदेव गुणवंत; जय जगगुरु देवाधिदेव, नयणे में दीट्ठ ॥१॥
प्रभु बेठा सोहे, समवसरण भगवंत । अचल-अकल-अविकार सार, करुणारस सिंधु,
त्रण छत्र बिराजे चामर ढाले इंद्र; जगतजन आधार एक, निष्कारण बंधु ॥२॥
जिनना गुण गावे, सुर नर नारीना वृंद ॥१॥ गुण अनंत प्रभु ताहराए, किमही कह्या न जाय,
बार पर्षदा बेसे, ईन्द्र ईन्द्राणी राय, रामप्रभु जिन ध्यानथी, चिदानंद सुख थाय ॥३॥
नव कमल रचे सुर, तिहां ठवतां प्रभु पाय ।
देवदुंदुभि वाजे कुसुम वृष्टि बहु हुंत; श्री देववंदन में उपयोगी चार थोय का जोडा - १ एवा जिन चोवीसे, पूजो एकण चित्त ॥२॥ शंखेश्वर पार्श्वजी पूजीए, नरभवनो लाहो लिजीए । जिन जोजण भूमि, वाणीनो विस्तार मन वांछित पूरण सुरतरु, जय वामा सुत अलवेसरूं ॥१॥ प्रभु अर्थ प्रकाशे रचना गणधर सार । दोय राता जिनवर अति भला, दोय धोला जिनवर गुण नीला। सो आगम सूणतां, छेदी जे गति चार; दोय नीला दोय श्यामल कह्यां,सोले जिन कंचन वर्ण लह्यां ॥२॥ जिन वचन वखाणी, लीजे भवनो पार ॥३॥ आगम ते जिनवर भाखीओ, गणधर ते हियडे राखीयो । जक्ष गौमुख गिरुओ, जिननी भक्ति करेव, तेहनो रस जेणे चाखीयो, ते हुवो शिख सुख साखीयो ॥३॥
तिहां देवी चक्केश्वरी विघ्न क्रोडी हरेव । धरणेन्द्रराय पद्मावती, प्रभु पार्श्व तणां गुण गावती । श्री तपगच्छनायक, विजय सेनसूरिराय, सहु संघना संकट चूरती, नयविमलनां वांछित पूरती ॥४॥
तस्स केरो श्रावक, ऋषभदास गुण गाय ॥४॥ प्रभुजी की भाव पूजा करते समय यदि सम्भव हो प्रभुजी की द्रव्यपूजा तथा भावपूजा के अतिरिक्त विशिष्ट तो चैत्यवंदन के बदले देववंदन करने का आग्रह आराधना का काउस्सग्ग - प्रदक्षिणा खमासमण - साथिया - रखें । यह विशेष लाभदायी कहलाता है. किसी चैत्यवंदन आदि किया जा सकता है. परन्तु जहाँ तक सम्भव भी विशिष्ट तप की आराधना में भाग्यशालियों हो नवकारवाली गिनने के लिए पालथी मारकर प्रभुजी समक्ष को तीनों समय देववंदन करना चाहिए। सुबह का नहीं बैठना चाहिए । हमारा शरीर अशुचि (अपवित्रता) का राइअ प्रतिक्रमण करने से पहले तथा शाम को भंडार होने के कारण किसी विशेष महत्त्वपूर्ण कारण के देवसिअ-पक्खी आदि प्रतिक्रमण करने के बाद अतिरिक्त पूजा के कपड़े में या स्वच्छ कपड़े में प्रभुजी के देववंदन भी नहीं किया जा सकता है।
समक्ष अधिक समय तक नहीं बैठना चाहिए।
Jal
e ction International
Horarks.९