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-: श्री अरिहन्त परमात्मा सृष्टि कर्त्ता नहीं है :
परमात्मा जब केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, तब संसारी भव्य जीवों को धर्म का उपदेश देकर संसार का स्वरूप बतलाते हैं। परन्तु वे संसार को बनाते नहीं हैं । यह संसार अनादिकाल से विद्यमान है। इसका कोई कर्त्ता नहीं है। जो कुछ भी रूपान्तर होता है, वह काल का स्वभाव है। भले ही काल्पनिक विचार से एक बार यह मान भी लिया जाए कि तीर्थकर परमात्मा ही जगत् के स्पष्ट हैं, तो परम दयालु तथा स्वतन्त्र सर्वशक्ति सम्पन्न ऐसे परमात्मा ने किसी जीव को सुखी तथा किसी को दुःखी क्यों बनाये ? । अतः यह मानना ही उचित है कि सुखी-दुःखी, धनवान-निर्धन, स्वरूपवान - कुरूप इत्यादि में मुख्य कारण जीवात्मा के द्वारा स्वयं किए गए शुभ-अशुभ कर्म ही हैं।
श्री सिद्ध भगवन्तों का स्वरूप
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सिद्ध भगवन्त घाति तथा अघाति आठ कर्मों से सर्वथा मुक्त होने के कारण आठ गुणों से अलंकृत होते हैं कोई जीवात्मा जब सिद्ध होता है, तब अनादिकाल से अव्यवहार राशि- निगोद में स्थित एक जीवात्मा व्यवहार राशि में आता है। इसमें श्री सिद्धभगवन्तों का ही महान उपकार है। जिन मंदिर में प्रातिहार्य रहित जिन प्रतिमा को 'सिद्धावस्थावाली' कही जाती है।
आठ कर्मों का
१. अनन्तज्ञान २. अनन्तदर्शन
६. अदृश्यता
७. अगुरुलघु ८. अनन्तवीर्य
पंच परमेष्ठि में श्री अरिहन्त परमात्मा की प्रधानता के कारण
तीर्थों की स्थापना के द्वारा जगत के जीवों को सन्मार्ग दिखलानेवाले होने के कारण तथा तीर्थ के आलंबन से अनेक भव्यात्माओं को मोक्ष की ओर प्रयाण
३. अव्याबाधसुख = वेदनीय कर्मों का क्षय होने से सर्व प्रकार की पीड़ा रहित निरुपाधिता प्राप्त होती है।
४. अनन्तचारित्र
करने में समर्थ होने के कारण, अघाति कर्म सहित ऐसे श्री तीर्थंकर परमात्मा को पंच परमेष्ठियों में प्रधानता दी गई है।
पंच परमेष्ठि के क्रम का कारण
तीर्थस्थापना की प्रधानता के कारण श्री अरिहन्त परमात्मा को सर्वप्रथम स्मरण किया जाता है। तीर्थ के आलंबन के कारण धर्मोपदेश के प्रति सम्पूर्णतया समर्पित होकर अष्टकर्म से मुक्त होने के कारण श्री सिद्ध भगवन्तों को दूसरे क्रम में स्मरण किया जाता है। परमात्मा की अनुपस्थिति में परमात्मा के वचन के प्रति समर्पित सुविशुद्ध मोक्षमार्ग की देशना के द्वारा उपकार करने के कारण श्री आचार्य भगवन्तों को तीसरे क्रम में स्मरण किया जाता है। विनय-स्वाध्याय तथा स्थिरीकरण के गुणों से विशिष्ट योगदान देने के कारण श्री उपाध्याय भगवन्तों को चौथे क्रम में स्मरण किया जाता है। मोक्षमार्ग में सदा सहायक ऐसे श्री साधु भगवन्तों को पांचवें क्रम में स्मरण किया जाता है।
क्षय
करके जिन्होंने सिद्धिपद-मोक्षपद प्राप्त किया है,
उन सिद्ध भगवन्तों के आठ गुण
= ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय होने से यह गुण प्राप्त होता है, जिससे संसार के स्वरूप का ज्ञान होता है।
= दर्शनावरणीय कर्मों का क्षय होने से यह गुण प्राप्त होता है, जिससे संसार के स्वरूप को समस्त प्रकार से देखा जाता है।
५. अक्षयस्थिति = आयु:कर्म का क्षय होने से कभी नाश नहीं हो, ऐसी अनन्तस्थिति प्राप्त होती है। सिद्ध की स्थिति का आदि
(प्रारम्भ ) है, परन्तु अन्त नहीं है। अतः वे सादि अनन्त कहलाते हैं।
= नामकर्म का क्षय होने से वर्ण, गन्ध, रस तथा स्पर्श से रहित होता है। क्योंकि यदि शरीर हो, तभी ये गुण होते हैं। परन्तु सिद्ध को शरीर नहीं है। अतः अदृश्यता प्राप्त होती है।
= मोहनीय कर्मों का क्षय होने से यह गुण प्राप्त होता है, इसमें क्षायिक सम्यक्त्व तथा यथाख्यात चारित्र का समावेश होता है। इससे सिद्ध भगवन्त अपने स्वभाव में सदा अवस्थित होते हैं। यहाँ इसे ही चारित्र कहा जाता है।
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= गोत्रकर्म का क्षय होने से यह गुण प्राप्त होता है। जिससे भारी, हल्का तथा ऊंच-नीच का व्यवहार नहीं रहता है। = अन्तरायकर्म का क्षय होने के कारण अनन्त दान, अनन्त लाभ, अनन्त भोग, अनन्त उपभोग तथा अनन्त वीर्यशक्ति प्राप्त होती है। समस्त लोक को अलोक में तथा अलोक को लोक में परिवर्तित करने की स्वाभाविक शक्ति सिद्ध में होती है। फिर भी वे उस वीर्य का उपयोग नहीं करते हैं, और कभी करेंगे भी नहीं, क्योंकि पुद्गल के साथ प्रवृत्ति, यह उनका धर्म नहीं है। इस गुण से अपने आत्मिक गुणों को ज्यों का त्यों धारण करते हैं, उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है।
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