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ਹਨ आवश्यककिया साधना
अनन्त उपकारी श्री जिनेश्वरदेव प्रणीत द्वादशांगी का प्रत्येक श्राविकाओं के द्वारा जो अवश्य करने योग्य क्रियाएँ हैं, वे अक्षर प्रभावकारी व पवित्र है । पाठसिद्ध मन्त्र का मात्र (सामायिक आदि) छह आवश्यक कहलाती हैं । सार यह है कि उच्चारण, उसके अर्थ के ज्ञान रहित होते हुए भी जिस प्रकार छह आवश्यक चतुर्विध श्रीसंघ के प्रत्येक व्यक्ति को अवश्य साधक को सिद्धि प्राप्त कराता है। उसी प्रकार द्वादशांगी के करना चाहिए। श्री तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि..."आवश्यक प्रत्येक अक्षर में पाप को धोकर आत्मा को पवित्र बनाने की की विशिष्ट आराधना में प्रमाद नहीं करनेवाली आत्मा तीर्थंकर शक्ति भरी पड़ी है। द्वादशांगी के इस महिमावन्त पदों के अर्थ नामकर्म का उपार्जन करती है।" 'मन्ह जिणाणं' की सज्झाय में भी यदि भली-भांति समझ में आ जाए तो इस परम तारक श्रावक के छत्तीस (३६) कर्त्तव्य कहे गए हैं । उसी प्रकार छह द्वादशांगी का अभ्यास, अनुष्ठानों को आशयशुद्ध तथा आवश्यकों को भी एक कर्त्तव्य के रूप में बतलाया गया है। ये विधिशुद्ध बनाने में अत्यन्त सहायक होता है । अवश्य करने छह आवश्यक कौन-कौन से हैं, यह देखते हैं। योग्य होने के कारण आवश्यक के रूप में प्रसिद्ध प्रतिक्रमण आवश्यक के सार्थक नाम क्रिया के सूत्रों का अर्थ के साथ अध्ययन किया जाए तो वह आवश्यक, अवश्यकरणीय, ध्रुव, निग्रह, विशोधि, षट् प्रतिक्रमण तथा अन्य धार्मिक क्रियाएँ भी कर्मनिर्जरा का अध्ययन, वर्ग, न्याय, आराधना तथा मार्ग । ये दस आवश्यक के अभूतपूर्व साधन बन जाती हैं । परमात्मा श्री महावीरदेव ने पर्यायवाची शब्द श्री विशेषावश्यक भाष्य में बतलाए गए हैं। केवली अवस्था में जो अर्थपूर्ण धर्मदेशना दी, उन्हें गणधर छह आवश्यकों के नाम, अर्थ तथा विवरण भगवन्तों ने सूत्ररूप में गुम्फित किया, जो आगमसूत्र के रूप में (१) सामायिक-सावधयोग की विरति । पू. साधु-साध्वीजी प्रसिद्ध हैं । आवश्यकसूत्र भी आगम कहलाता है । यह गणधर भगवन्तों ने तो जीवन भर के लिए सामायिक व्रत भगवन्त के द्वारा रचित है । परमात्मा के साथ साक्षात् सम्बन्ध स्वीकार किया होता है । श्रावक-श्राविकाओं को करानेवाले ये सूत्र मन्त्राक्षरों के रूप में अवस्थित हैं, जिसमें यथाशक्ति अधिक से अधिक सामायिक करनी चाहिए। तत्त्वज्ञान रूपी महासागर छिपा हुआ है। उसका अर्थ विशिष्ट है। पापयुक्त प्रवृत्ति के त्याग तथा पापरहित प्रवृत्ति के सेवन उसके पीछे विविध प्रकार के रहस्य भरे पड़े हैं।
से सामायिक के द्वारा चारित्र गुण की शुद्धि तथा वृद्धि छह आवश्यकों की महत्ता
होती है। सामायिक की प्रतिज्ञा 'करेमि भंते !' सूत्र के आवश्यक अर्थात् अवश्य करने योग्य । विश्वकल्याणकारी द्वारा की जाती है । "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! जगद्गुरु तारक तीर्थंकर भगवन्त गणधर भगवंतों को प्रश्न के देवसिअ पडिक्कमणे ठाउं?" इस सूत्र से प्रतिक्रमण की उत्तर में त्रिपदी देते हैं। (१) उपन्नेड वा-जगत के पदार्थ उत्पन्न क्रिया प्रारम्भ की जाती है। उसके बाद 'करेमि भंते !' से होने के स्वभाव से युक्त हैं। (२) विगमेइ वा-जगत् के पदार्थ 'नाणम्मि' तक की आठ गाथाओं के काउस्सग्ग तक नश्वरता के स्वभाव से युक्त हैं। (३) धुवेइ वा-जगत् के पदार्थ प्रथम आवश्यक कहलाता है। स्थिरतायुक्त स्वभाववाले हैं । इस त्रिपदी को सुनकर गणधर चउव्विसत्थो : चतुर्विंशतिस्तव-चौबीस तीर्थंकरों के नाम भगवंतों को द्वादशांगी (बारह अंग, जिसमें चौदह पूर्व भी ग्रहण पूर्वक कीर्तन । द्वादशांगी तथा छह आवश्यक के समाहित हैं।) का प्रद्योत (क्षयोपशम) होता है। यह द्वादशांगी मूल में तो तीर्थंकर परमात्मा का ही उपकार है । उन्हें कभी ज्ञानात्मक (ज्ञानस्वरूप) है । परन्तु उसका सार क्रियात्मक भुलाया नहीं जा सकता है। लोगस्स सूत्र' के द्वारा २४ (क्रियास्वरूप) छह आवश्यक हैं।
तीर्थंकरों की स्तवना की जाती है। उसके द्वारा दर्शन गुण चतुर्विध श्रीसंघ स्वरूप साधु-साध्वी तथा श्रावक
की शुद्धि तथा वृद्धि होती है । 'नाणम्मि' की आठ श्राविकाओं को यह क्रियात्मक छह आवश्यक अवश्य करना गाथाओं के काउस्सग्ग के बाद लोगस्स सूत्र बोला जाता चाहिए । विशिष्ट तप, लाखों रुपयों के दान आदि न हो सके तो है। यह लोगस्स' द्वितीय आवश्यक कहलाता है। अधिक चिन्ता की बात नहीं है, परन्तु सामायिक आदि छह । (३) वंदन-सद्गुरु को वंदन । ज्ञान चारित्र तथा तप में वीर्य आवश्यक तो नियमित रूप से करने ही चाहिए । इसीलिए (उत्साह-पराक्रम) दिखलाते हुए सद्गुरु को प्रतिदिन सामायिक आदि छह क्रियाओं को आवश्यक कहा गया है। दिन वंदन करना चाहिए । तीर्थंकरों की वाणी हमें सद्गुरु तथा रात्रि के अन्तिम प्रहर में साधु-साध्वी तथा श्रावक- भगवंतों से प्राप्त होती है। अत: उनके प्रति विनय प्रदर्शित
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