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सीया
(७) सीता : विदेहराजा जनक की पुत्री तथा रामचंद्रजी की पत्नी । अपर सास
केंकेयी को दशरथ के द्वारा दिए गए (५) दमयंती : विदर्भनरेश भीमराज की
नमयासुंदरी
वरदान के कारण राम के साथ वनवास पुत्री तथा नल राजा की धर्मपत्नी ।
स्वीकार किया । रावण ने अपहरण किया। पूर्वभव में अष्टापद पर चौबीसों भगवान
विकट संयोगों के बीच शील की रक्षा की। को सुवर्णमय तिलक चढ़ाने के कारण
रावण के साथ युद्ध के बाद जब राम
वापस अयोध्या लौटे तब लोकनिंदा के उसके कपाल में जन्म से ही स्वयं
कारण सगर्भा अवस्था में सीता को जंगल प्रकाशित तिलक था । राजा नल जुए में (६) नर्मदासुंदरी : पिता सहदेव तथा
में छोड़ दिया । संतानों ने पिता और चाचा सब कुछ हार जाने के कारण दोनों ने पति महेश्वरदत्त । स्वपरिचय से सास-|
के साथ युद्ध में पराक्रम दिखलाकर वनवास स्वीकार किया । जहा बारह वर्षों ससुर को दृढ जैनधर्मी बनाये । साधु पर |पितृकुल को उजाला । उसके बाद भी तक दोनों का वियोग हुआ । अनेक
| पान की पिचकारी उड़ाने के कारण |सतीत्व के लिए अग्निपरीक्षा देनी पड़ी। संकटों के बीच शीलपालन करती हुई
पतिवियोग की भविष्यवाणी मिली ।। विशुद्ध शीलवती प्रमाणित होने के बाद दमयंती का आखिर नल के साथ मिलन भविष्यवाणी सफल होने पर पतिवियोग
तुरन्त चारित्र ग्रहण कर बारहवें देवलोक हुआ। अंत में चारित्र ग्रहण कर स्वर्गवासी होकर अगले भव में कनकवती नामक
में इन्द्र बनी । वहा से च्यवन कर रावण का में शील पर अनेक संकट आए परन्तु
जीव तीर्थंकर होगा, तब उनके गणधर वसुदेव की पत्नी बनकर मोक्ष मे गई। कष्ट उठाकर भी सहनशीलता तथा बुद्धि
बनकर मोक्ष को प्राप्त करेंगी। के प्रभाव से शील की रक्षा की। अंत में|
चारित्र ग्रहण कर अवधिज्ञानी बनी और नदा
प्रवर्तिनी पद को सुशोभित किया।
भहा
(८) नंदा : श्रेणिकराजा पिता से नाराज होकर गोपाल नाम धारण कर बेनातट गए। तब धनपति शेठ की पुत्री नंदा से विवाह किया था। नंदा का पुत्र अभयकुमार था, जिसने वर्षों के वियोग के बाद माता-पिता का मिलन कराया । अखंड शील का पालन कर आत्म कल्याण की साधना की।
(९) भद्रा : शालिभद्र की माता, जैनधर्म की अनुरागिणी थी। पति और पुत्र के वियोग में शीलधर्म का पालन कर आत्म कल्याण की साधना की थी।
(१०) सुभद्रा : जिनदास पिता तथा तत्त्वमालिनी माता की धर्मपरायण सुपुत्री। उसके ससुरालवाले बौद्ध धर्मावलम्बी होने के कारण उसे अनेक प्रकारसे परेशान करते थे। परन्तु वह अपने धर्म से विचलित नहीं हुई। एक बारवहोरने के लिए पधारेहुए एक जिनकल्पी मुनि की आखों में पड़ा हुआ तिनका निकालते हुए मस्तक के तिलक की छाप उस साधु के मस्तक परपड़ी।तथा सती के शिर पर झुठा दोषारोपण हुआ। उसे दूर करने के लिए शासनदेवी की आराधना करते हुए दूसरे दिन नगरका दरवाजा बंद हो गया । आकाशवाणी हुई कि 'यदि कोई सती स्त्री कच्चे सूत की डोरी से चलनी के द्वारा कुएं से पानी निकालकर छिड़केगी तभी यह दरवाजा खुलेगा। कोई भी स्त्री जब ऐसा नहीं कर सकी तो अन्त में सती सुभद्रा ने यह कार्य करके दिखाया तथा शीलधर्म का जय जयकार फैलाया और अन्त में दीक्षा लेकरमोक्षगामी हुई।
राइमई
(११) राजिमती : उग्रसेन राजा की सौंदर्यवती पुत्री तथा नेमिनाथ प्रभु की वाग्दत्ता । हरिणियों की पुकार सुनकर नेमिकुमार वापस लौटे तब मन से उनका शरण लेकर सतीत्व का पालन करती हुई राजिमती ने चारित्र ग्रहण किया। श्री नेमिनाथ प्रभु के छोटे भाई रथनेमि गुफा में निर्वस्त्र अवस्था में उसे देखकर विचलित हो गए। तब सुन्दर हितशिक्षा देकर संयम में स्थिर किया। आखिर सती ने कर्मक्षय कर मुक्तिपद पाया।
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