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________________ एवं खु जंतपिल्लणएवम् खुजन्-त पिल्-लण वस्तुतः इसी प्रकार यंत्र द्वारा पीसने वाली कम्मं निलंछणं कम्-मम् निल्-लञ् (लन्)-छणम्- कार्य, निलांछन करने का च दवदाणं। च दव-दाणम्। और आग लगाने का। सर-दह-तलाय-सोसं, सर-दह-तलाय-सो-सम्, सरोवर, स्त्रोत, तालाब को सुखाने का असइपोसं च वज्जिज्जा ॥२३॥ असइ-पोसम् च वज्-जिज्-जा ॥२३॥ और असती पोषण का त्याग करने योग्य है। २३. गाथार्थ : १. यंत्र पीलन कर्म : ईक्षु का रस निकालना, यंत्र से तैयार होती सभी वस्तुए, २. निल्छन कर्म : गाय को दागना, घोडे के पैरो के नीचे पट्टी लगानी आदि, ३. दावाग्नि दान कर्म : जंगल को आग लगाना आदि, ४. सर-द्रह-तडाग-शोषन कर्म : कुआ, तलाब, नदी सरोवर को सुकाना और ५. असती-पोषक कर्म : नीचकाम करनेवाले मनुष्यों का पोषण करना, कुत्ते, बिल्ली आदि हिंसक प्राणिओं का पोषण करना आदि/ ये पांच सामान्य कर्म त्याग करने योग्य हैं । इस तरह महा हिंसक - महा आरंभ और महा समारंभ के पोषक पांच कर्म, पांच व्यवसाय और पांच सामान्य कर्म : पन्द्रह कर्मादान के व्यापारों को हमेंशा त्याग करना चाहिए । २३. आठवें व्रत (तीसरा गुणवत) के अतिचारों की आलोचना सत्थग्गि-मुसल-जंतग- सत्-थग्-गि-मुस-ल-जन्-तग- शस्त्र, अग्नि,मूसल, चक्की तण-कट्टे-मंत-मल-भेसज्जे तण-कट-ठे-मन-त-मल-भेसज-जे। तण,काष्ट.मंत्र मल और औषधिको दिन्ने दवाविए वा, दिन्-ने दवा विए-वा देने से और दिलाने से पडिक्कमे देसिअंसव्वं ॥२४॥ पडिक-कमे देसिअम् सव-वम् ॥२४॥ दिन मेंलगेसर्व अतिचारों का में प्रतिक्रमण करता हैं।२४. गाथार्थ : शस्त्र, अग्नि, मूसल, चक्की, तृण, काष्ठ, मंत्र, जडीबुट्टी (मूल) और औषध (प्रयोजन के बिना) देने से अथवा दूसरो के द्वारा दिलाने से (और देनेवाले की अनुमोदना करने से ) आठवा व्रत : (तीसरे अनर्थदंड विरमणगुण व्रत) मे लगे हुए दिन संबंधित सभी (अतिचारों)का मैं प्रतिक्रमण अब प्रमादाचरण कहते हैं। पहाणु-व्वट्टण-वन्नग- हा-णुव-वट-टण-वन्-नग- स्नान, उद्धर्तन, रंगाई विलेवणे सद-रुव-रस-गंधे। विले-वणे सद्-द-रुव रस-गन-धे। विलेपन, शब्द, रूप, रस, गंध वत्थासण-आभरणे, वत्-था-सण-आभ-रणे, वस्त्र, आसन, आभरण के, विषय में पडिक्कमे देसिअंसव्वं ॥२५॥ पडिक्-कमे देसि-अम्-सव्-वम् ॥२५॥ दिन में लगे सर्व अतिचारों का में प्रतिक्रमण करता हूँ। गाथार्थ : १. जयणा बिना (छाने बिना पानी से ) स्नान करना; २. पीठी वगेरे द्वारा उद्वर्तन करके मेल उतारना; ३. अबील गुलाल आदि से रंग करना, ४. केशर चंदन-क्रीम आदि से विलेपन करना; ५. वाजिंत्रों के शब्द सुनकर बहलना; ६. सुंदर रुप देखना; ७. अनेक रस का आस्वाद लेना; ८. विविधप्रकार के सुगंधित पदार्थों को सुंघना और ९. वस्त्र, आसन, अलंकार आदि में आसक्त बनने से तथा आरंभ करने से दिन संबंधित लगे हुए सभी (अतिचारों ) का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। २५. आठवें व्रत (तीसरे गुणव्रत) के पांच अतिचारो का प्रतिक्रमण कंदप्पे कुक्कुइए, कन्-दप्-पे कुक्-कु-इए, काम विकार, अधम चेष्टाओं के कारण, मोहरि-अहिगरण-भोग-अइरित्ते। मोह-रि अहि-गर-ण भोग-अइ-रित्-ते। वाचालता, हिंसक साधनों को तैयार रखने, भोग की अतिरेकता के कारण दंडम्मि अणट्टाए, दण्-डम्-मि-अणट्-ठाए, अनर्थ दंड द्वारा तइअंमि गुणव्वए निंदे ॥२६॥ तइ-अम्-मि-गुणव्-वए-निन्-दे ॥२६॥ तीसरे गुण-व्रत में मैं निंदा करता हूँ। २६. गाथार्थ : १. कंदर्प : काम-विकार बढ़े, ऐसी बाते करनी; २. कौकुच्च : काम-विकार उत्पन्न हो, ऐसी कुचेष्ठाएं करनी; ३. मौखर्य : मुख से हास्यादिक द्वारा जैसे-तैसै बोलना; ४. संयुक्तातिरिक्तता : स्वयं की आवश्यकता से ज्यादा शस्त्र प्राप्त करना और ५. उपभोग परिभोगातिरिक्तता : उपभोग और परिभोग में उपयोगी सामग्री जरुरत से ज्यादा रखनी, ये पांच प्रकार के अतिचार तीसरे अनर्थदंड-विरमण-गुणव्रत के बताए गए हैं । उसमें मुझे जो दोष लगा हो, उसकी मैं निंदा करता हूँ। २६. । १७८ Slammadurintimational For Protec tory
SR No.002927
Book TitleAvashyaka Kriya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Spiritual, & Paryushan
File Size66 MB
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