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स्थापना की महत्ता
गुणों की प्राप्ति हेतु किया जानेवाला कोई भी अनुष्ठान गुणवान् गुरुभगवन्त के समक्ष ही करना चाहिए । क्योंकि गुरु भगवन्त की उपस्थिति में धर्मक्रिया करने से प्रमाद (आलस्य) को स्थान नहीं मिलता है, भूलों से बचा जा सकता है तथा पुण्यप्रभावी गुरुभगवन्त की उपस्थिति में आनन्द व वीर्योल्लास की भी वृद्धि होती है । अतः यदि सम्भव हो तो हर
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पूज्यपाद श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने श्री विशेषावश्यक भाष्य में लिखा है कि “जब साक्षात् गुणवन्त गुरु भगवन्त की उपस्थिति न हो, तब गुरुभगवन्त की उपस्थिति का साक्षात् अनुभव करने हेतु स्थापना करनी चाहिए । जिस प्रकार जिनेश्वर के विरह में उनकी प्रतिमा का सेवन तथा आमंत्रण सफल होता है, उसी प्रकार गुरुभगवन्त के विरह में गुरुभगवन्त की स्थापना के समक्ष किया गया विनय तथा तमाम क्रियाओं के लिए आमंत्रण आत्मा के लिए हितकारी होता है।'
स्थापना से होनेवाले
पूज्यपाद श्री देवेन्द्रसूरिजी महाराज ने श्री गुरुवन्दन भाष्य में लिखा है कि ( धर्मानुष्ठान करते समय ) जब साक्षात् गुरुभगवन्त विद्यमान न हों तब गुरुभगवन्त के गुणों से युक्त हो, उसकी गुरुभगवन्त के रूप में स्थापना
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प्रकार की धर्मक्रिया गुरुभगवन्त की निश्रा में ही करनी चाहिए । यदि गुरुभगवन्तों की उपस्थिति न हो तब यह स्थापनासूत्र बोलकर, उसके एक-एक पद के विचार के द्वारा विद्यमान गुरुभगवन्त को दृष्टि के समक्ष लाकर गुरुस्थापना की जाती है। इस प्रकार स्थापना करने से हम गुरुभगवन्त की निश्रा में ही हैं, ऐसा अनुभव किया जा सकता है।
लाभों का वर्णन
करनी चाहिए अथवा उसके स्थान पर अक्षादि या ज्ञान-दर्शनचारित्र के उपकरणों की स्थापना करनी चाहिए ।
'मैं गुरुभगवन्त के समक्ष हूँ", ऐसा भाव यदि सूत्र बोलते समय उत्पन्न हो तो विनय अवश्य फलदायी होता है । परन्तु यदि सूत्र बोला जाए लेकिन सूत्र के द्वारा ऐसे गुरुभगवन्त को उपस्थित नहीं कर सके, ऐसे मनुष्य की क्रिया मात्र द्रव्यक्रिया कहलाती है। क्योंकि सूत्र से होनेवाले भाव उत्पन्न नहीं होने के कारण भाव गुरुभगवन्त की स्मृति उन्हें नहीं होती है और इसी कारण से गुरु भगवन्त के प्रति विनय अथवा सम्मान की क्रिया में कोई भाव नहीं आ सकता । अतः इस सूत्र 'के 'द्वारा भाव से गुरुभगवन्त को स्मृति में लाने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। स्थापना करने की मुद्रा को आह्वान (स्थापना) मुद्रा कहा गया है । स्थापना की उत्थापना करने की मुद्रा को उत्थापन मुद्रा कही जाती है ।
(२)
स्थापना के दो प्रकार चौदह पूर्वधर - श्रुतकेवली - कल्पसूत्र जैनागम रचयिता पूज्यपाद श्री भद्रबाहुस्वामीजी ने नौवें पूर्व से उद्धृत कर स्थापना- कल्प का वर्णन किया है, जो दो प्रकार का है। ( १ ) इत्वरकथित स्थापना : अल्पसमय के लिए की गई स्थापना । अपने गुरुभगवन्त जो अक्षवाले स्थापनाचार्यजी रखते हैं, उसमें श्री पंच परमेष्ठि भगवन्त की स्थापना की हुई होती है। यदि वह हो तो अन्य किसी प्रकार की स्थापना की आवश्यकता नहीं होती । उसके सामने सारी क्रियाएँ की जा सकती हैं। परन्तु यदि गुरु भगवन्त के स्थापनाचार्यजी न हो, तो क्रिया करने के लिए श्रीनवकार मन्त्र + पंचिदिय सूत्रवाली पुस्तक, यदि वह न हो तो अन्य कोई धार्मिक पुस्तक अथवा नवकारवाली अथवा चरवला जैसा कोई भी सम्यग्ज्ञानदर्शन - चारित्र का उपकरण अपने समक्ष रखकर अल्प • समय के लिए स्थापना की जाती है, उसे इत्वरकथित
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स्थापना कही जाती है । ( इस में प्लास्टिक, लोहा आदि जघन्यद्रव्य की स्थापना नहीं की जा सकती है)। यावत्कथित स्थापना : गुरु प्रतिमा अथवा अक्षादि की स्थापना को चिरकाल (लम्बे समय) तक की जाती है, उसको यावत्कथित स्थापना कही जाती हैं । उसमें दक्षिणावर्त्त आदि विशिष्ट लक्षणोंवाले अक्ष, वराटक विशिष्ट फलदायी होते हैं। यह स्थापना दो प्रकार से की जाती है । (१) सद्भाव = गुरुभगवन्त की प्रतिमाप्रतिकृति (चित्र) की स्थापना, (२) असद्भाव = अक्ष, वराटक, पुस्तक आदि में आकृति रहित स्थापना की जाती है।
अक्ष-गोल शंखाकृति, वर्त्तमान में यह प्रायः स्थापनाचार्यजी के रूप में प्रयुक्त होता है ।
वराटक-तीन रेखाओं से युक्त कौड़ी, इसकी स्थापना वर्त्तमान में प्रायः देखने में नहीं आती है।