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इस सत्र की प्रथम तीन पंक्तियाँ खडे-खडे. दोनों हाथ जोडकर, उठाने में समर्थ बनता है। यह अन्य किसी के वश की मस्तक झुकाकर बोलें, उसमें 'खामे' बोलते समय विशेष झुकना बात नहीं है। श्रावक-श्राविकाओं को भी गुरुभगवंत चाहिए । शेष 'जंकिंचि' से लेकर सम्पूर्ण सूत्र हाथ रोपकर बोलना को वंदन करने से विनय का गुण प्राप्त होता है । क्षमा चाहिए । हाथ रोपने में दाहिना हाथ जमीन पर खुला अथवा चरवला मांगना दीनता नहीं है, बल्कि यह जागृत आत्मा को पर स्थापित करना चाहिए । बायां हाथ मुख के पास रखना चाहिए। स्वस्थता प्राप्त कराने के लिए एक उत्तम प्रयत्न है तथा दोनों घुटनों को जमीन से टिकाकर तथा मस्तक झुकाकर रखना उससे चित्त-प्रसन्नता प्राप्त होती है। चाहिए । 'मिच्छा' 'मि' 'दुक्कडम्' ये तीन अलग-अलग पद हैं । इस उच्चारण से सम्बन्धित सूचनाए : बात का ध्यान रखना चाहिए।
१. 'अभ्यंतर' शब्द नहीं है। बल्कि 'अभितर' शब्द है। (१) सद्गुरु के पास अनेक प्रकार के अपराधों की क्षमा उसी समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए।
भावयुक्त होकर मांगी जा सकती है, जब गुरुभगंवत के प्रति२. इस सूत्र में दो स्थानों पर 'राइअं-देवसिअं' शब्द हृदय में पर्याप्त अहोभाव हो । इस प्रकार यह सूत्र गुरु के प्रति आते हैं। उसमें राइअं-पुरिमडू पच्चक्खाण से पहले सर्वोत्कृष्ट अहोभाव को सूचित करता है।
____ तथा 'देवसिअं' पुरिमड्ड पच्चक्खाण के बाद बोलना (२) एक के बाद एक सारे अपराधों को याद कर, उसकी क्षमा चाहिए।
मांगी जा सकती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जीव को पाप ३. 'मज्झ' पद में 'झ' का उच्चारण झंडे के 'झ' के का भय रखना चाहिए । शुद्धि की लालसा रखनी चाहिए। समान करना चाहिए। एक भी पाप का प्रायश्चित किए बिना नहीं रहना चाहिए। ४. 'अब्भितर देवसिअंखामे' कितने समय के दौरान इसके लिए हृदय में सच्चे अर्थों में पश्चात्ताप भी होना चाहिए। हुए अपराधों की क्षमा चाहते हैं ? वह इस पद के इस प्रकार जिनशासन में सद्गुरु तथा पाप के प्रायश्चित का द्वारा जाना जाता है। (एक दिन का, दिन-रात का, महत्व पर्याप्त दिया गया है यह इस सूत्र से स्पष्ट होता है।
पन्द्रह दिनों का, चार महीने का अथवा एक वर्ष के गुरुभगवंत के चरणों की सेवा में जो लीन है, गुरुभगवंत की अपराधों की क्षमा के लिए अनुक्रम से देवसिअं, आज्ञा का पालन आदि करने के लिए आराधना में जो सदा तत्पर रहता राइअं, पक्खिअं, चोमासिअं अथवा संवच्छरिअं है, वही साधु कहलाता है । वही साधु चारित्रजीवन का भारी बोझ बोला जाता है।)
गुरुवंदन विधि सर्व प्रथम दोनों हाथ जोड़कर तथा मस्तक झुकाकर [रुभगवंत 'खामेह' कहें, उसके बाद 'इच्छं, खामेमि देवसिअं' गुरुभगवंत को 'मत्थएण वंदामि' बोलना चाहिए । उसके बोलकर नीचे की भूमि की प्रमार्जना कर वहां घुटनों की स्थापना बाद उनकी वन्दना करने के लिए अनुज्ञा (अनुमति) कर चरवले के ऊपर चित्र के अनुसार दाहिना हाथ खुला रखकर मांगनी चाहिए । अनुमति मिलने पर सर्वप्रथम दो तथा बायां हाथ मुख के पास रखकर 'जंकिंचि...मिच्छा मि खमासमणां सत्रह संडासा पूर्वक विधि के साथ देना चाहिए दुक्कडं...' तक पूर्ण सूत्र बोलना चाहिए । (कोई भी श्रावक । फिर खड़े होकर दोनों पैरों के बीच आगे के भाग में अपने श्राविका अथवा (दीर्घकालीन मुमुक्षु हो या दीक्षा लेने की चार ऊंगलियों का अन्तर तथा पीछे के भाग में उससे कुछ तैयारी में हो तो भी) गुरुवंदन करते समय 'अब्भुट्टिओ' बोलते कम अन्तर रखकर, दोनों हाथों की ऊंगलियाँ एक दूसरे के समय गुरुभगवंत के चरण आदि का स्पर्श न करें। यदि ऐसा अन्दर रखकर, दोनों हाथों की कुहनियाँ एक दूसरे के साथ करे तो गुरुभगवंत की आशातना का दोष लगता है)। फिर सटाकर पेट पर रखकर 'इच्छकार...' सूत्र के द्वारा प्रश्न पूछ दूसरी बार (सत्रह संडासा पूर्वक) एक खमासमणा देना चाहिए। रहे हों, उस भाव के साथ बोलना चाहिए।
प्रतिदिन उपाश्रय में बिराजमान गुरुभगवंत की वंदना पू. साधु भगवंतों में कोई गणिवर्य अथवा कोई करनी चाहिए । जब वे न हों तब उनकी प्रतिकृति को तथा यदि पंन्यासप्रवर, कोई उपाध्याय अथवा आचार्य आदि पदस्थ वह भी न हो तो पुस्तक की स्थापना करके भी अवश्य गुरुवंदन हों तो 'इच्छकार !' सूत्र बोलने के बाद बीच में एक करना चाहिए । सारे दिन में तीन बार वंदन करना चाहिए । खमासमणा देना चाहिए । पदस्थ न हों तो ' इच्छकार...! सूर्यास्त के बाद जयणा पालन की सम्भावना कम होने के सूत्र के बाद तुरन्त 'इच्छा...संदिसह. भगवन् ! अब्भुट्ठिओमि कारण तीनों काल का वंदन करने की भावना से 'त्रिकाल अब्भितर देवसिअं खामेउं ?' ऐसा प्रश्न पूछने पर वंदना' दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर करना चाहिए।
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