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प्रतिक्रमण में
पंचाचार की
शुद्धि के लिए
कायोत्सर्ग में
चिंतन करने की मुद्रा ।
मूल सूत्र
नाणम्मि दंसणम्मि अ,
चरणंमि तवंमि तह य वीरियंमि । आयरणं आयारो,
इअ एसो पंचहा भणिओ ॥ १ ॥
२९. श्री नाणम्मि दंसणम्मि सूत्र
विषय :
पाँच आचारों का
प्रभेद के साथ वर्णन
तथा अतिचारों का
स्मरण कर गर्भित रूप से मिथ्या दुष्कृत की याचना ।
आदान नाम : श्री नाणम्मि दंसणम्मि सूत्र गौण नाम : श्री पंचाचार की गाथा ।
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पद
संपदा
गुरु-अक्षर
लघु-अक्षर सर्व अक्षर
: ३५
: ३५
: ३३
: २५७
: २९०
छंद : गाहा; राग : जिण जम्म समये मेरु सिहरे... ( स्नात्र पूजा) उच्चारण में सहायक
नाणम्-मि दन्-सणम्-मि अ,
चर - णम्-मि तवम्-मि तह य वीरि-यम्-मि । आय-रणम् आयारो,
इअ एसो पञ्- ( पन्)- च-हा भणि-ओ ॥१॥
पद क्रमानुसारी अर्थ
ज्ञान, दर्शन और चारित्र संबंधी तथा तप और वीर्य (आत्मबल) संबंधी आचरण आचार है ।
इस तरह यह ( आचार) पाच प्रकार का कहा गया है । १.
गाथार्थ : ज्ञान संबंधित, दर्शन संबंधित, चारित्र संबंधित, तप संबंधित और वीर्य संबंधित जो आचरण, वह आचार कहलाता है । ज्ञानादि भेद से यह आचार पाँच प्रकार के कहे गए हैं । १.
काले विणए बहु-माणे, उव-हाणे तह अ-निण्-ह व णे । वञ् (वन् ) - जण - अत्-थ-तदु-भए, अट्-ठ-विहो नाण- माया रो ॥२॥
काल, विनय, बहुमान संबंधी, उपधान और अनिह्नवता संबंधी, व्यंजण, अर्थ और इन दोनों संबंधी, आठ प्रकार का ज्ञानाचार है । २.
काले विए बहुमाणे, उवहाणे तह अनिण्हवणे । वंजण- अत्थ-तदुभए, अट्ठविहो नाणमायारो ॥२॥ गाथार्थ : १. जो काल (समय) में पढ़ने की आज्ञा हो, उस काल में पढना, यह काल- आचार है । २. ज्ञान और ज्ञानी का विनय करना, यह विनय-आचार है । ३. ज्ञान और ज्ञानी के प्रति बहुमान भाव रखना, यह बहुमान आचार है। ४. सूत्र पढने की योग्यता प्राप्त करने हेतु तप विशेष करना, यह उपधान आचार है । ५. पढ़ाने वाले गुरु का लोप (= विस्मरण) न करना, यह अनिह्नव-आचार है । ६. सूत्र को शुद्ध पढना, यह व्यंजन - आचार है । ७. अर्थ को शुद्ध पढना, यह अर्थ आचार है और ८. सूत्र और अर्थ दोनों शुद्ध पढ़ना, यह तदुभय- आचार है । २.
निस्संकिअ निक्कंखिअ,
निस्-स-किअ निक्-क-खिअ,
निःशंकता, निष्कांक्षता,
निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठि अ । निव्-विति-गिच् छा अमू-ढ दिट्-िठि-अ । निर्विचिकित्सा और अमूढ दृष्टि, ववूह थिरिकरणे,
उव- वूह थिरि-कर-णे,
प्रशंसा, स्थिरीकरण,
वच्-छल्-ल-पभा-वणे अट्-ठ ॥३॥
वच्छल्ल पभावणे अट्ठ ॥ ३ ॥ वात्सल्य और प्रभावना- ( दर्शनाचार) के आठ ३. गाथार्थ : १. वीतराग के वचन पर शंका नही करनी, यह निःशंकिता; २. जिनमत के सिवाय अन्यमत की इच्छा नही करनी, यह निष्कांक्षिता; ३. पूज्य महात्माओं के मल से मलीन शरीर देखकर दुर्गंछा नहीं करनी अथवा धर्म के फल प्रति संदेह का त्याग, यह निर्विचिकित्सा; ४. मिथ्याद्दष्टिवालों की ठाठमाठ (= जाहोजलाली) देखकर सत्यमार्ग से विचलित नहीं होना, यह अमूढ द्दष्टिता; ५. समकित धारी के थोडे से भी गुण की प्रशंसा करना, यह उपबृंहणा; ६. धर्म नहीं पानेवाले को और धर्म से च्युत (= गिरते ) जीवों को धर्म मे स्थिर करना, यह स्थिरीकरण; ७. साधर्मिक बंधुओं का अनेक प्रकार से हित का चितवन करना, यह स्थिरीकरण; और ८. दूसरे लोग भी जैनधर्म की अनुमोदना करे, ऐसा कार्य करना, यह प्रभावना है। इस तरह दर्शनाचार के आठ प्रकार विहित है । ३.
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