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पणिहाण जोग-जुत्तो, पणि-हाण-जोग जुत्-तो,
चित्त की समाधिपूर्वक(=प्रणिधानयोगसे युक्त) पंचहि समिईहिं
पञ्-(पन्)-चहिम्-समि-ईहिम्- पाँच समिति और तीहि गुत्तीहिं। तीहिम् गुत्-त्-हिम्।
तीन गुप्तियों ( का पालन) एस चरित्तायारो, एस-चरित्-ता-यारो,
यह चारित्राचार के अट्टविहो होइ नायव्वो ॥४॥ अट्-ठ वि-हो होइ नायव्-वो ॥४॥ आठ प्रकार जानने योग्य है ४. गाथार्थ : पांच समिति (= ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-मंडमत्त-निक्खेवणा और पारिष्ठापनिका समिति) और तीन गुप्ति (= मनो गुप्ति, वचन गुप्ति और कायगुप्ति) से मन-वचन-काया की एकाग्रता स्वरुप प्रणिधान योग से युक्त, यह चारित्राचार के आठ आचार जानने योग्य हैं। ४. बारस-विहम्मि वि तवे, बार-स-विहम्-मि वि-त-वे,
बारह प्रकार का तप सभितर-बाहिरे कुसल-दिवें। सब-भिन्-तर-बाहि-रे कुसल-दिट्-ठे। आभ्यंतर और बाह्य तप कशल (जिनेश्वरों)
द्वारा देखा गया (कथिन) है। अगिलाइ अणाजीवी, अगि-लाइ अणा-जीवी,
ग्लानि रहित और आजीविका के हेतु रहित नायव्वो सो तवायारो॥५॥ नायव-वो सो तवा-यारो ॥५॥
वह तपाचार जानने योग्य है। ५. गाथार्थ : बारह प्रकार का आभ्यंतर और बाह्य तप जिनेश्वरों द्वारा कथित है । ग्लानि रहित और आजीविका के हेतु रहित वह तपाचार जानने योग्य है।५. अणसण-मूणो-अरिआ, अण-सण-मूणो-अरि-आ,
अणसण, ऊनोदरिता, वित्ति-संखेवणं-रसच्चाओ। वित्-ति सङ्-खेव-णम् रसच्-चाओ। वृत्ति संक्षेप, रस त्याग, काय-किलेसो संली-णया य, काय-किले-सो सर्ल (सम्)-ली-णया य, काय क्लेश और संलीनता (संकोचन) बज्झो तवो होइ ॥६॥ बज्-झो तवो होइ॥६॥
। बाह्य तप है।६. गाथार्थ : १. उपवास, आयंबिल, एकासण आदि तप, वह अनसन तप; २. नियत भोजन परिमाण से कुछ कम खाना, वह उनोदरी तप; ३. आवश्यकता कम करनी और संतोष रखना, वह वृत्तिसंक्षेप तप; ४. घी, दूध, दही आदि का त्याग करना, यह रस त्याग तप ५. लोंच आदि कष्ट द्वारा काया का दमन करना, वह काय-कलेश तप और ६. विषय वासना को रोकना अथवा अपने अंग-उपांग का संकुचन करना, वह संलीनता तप है। इस प्रकार छह प्रकार के बाह्य तप हैं । ६. पायच्छित्तं विणओ, पा-यच-छित्-तम् विणओ,
प्रायश्चित, विनय, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। वेया-वच्-चम् तहेव सज्-झाओ।
वेयावृत्त्य और स्वाध्याय, झाणं उस्सग्गो वि अ, झाणम् उस्-सग्-गो वि अ,
ध्यान और कायोत्सर्ग अब्भितरओ तवो होइ॥७॥
| अब्-भिन्-तरओ तवो होइ॥७॥ । अभ्यंतर तप है। ७. गाथार्थ : १. अपने पर लगे हुए दोषो को गुरु समक्ष निवेदन (= आलोचना) करके, उसकी शुद्धि के लिए तप करना, यह प्रायच्छित तप, यह विनय तप; २. देव-गुर-धर्म-संघ-साधर्मिक के प्रति नम्रता व भक्तिभाव धारण करना, यह विनय तप; ३. अरिहंत, आचार्य, साधु-साध्वी विगेरे की सेवा-शुश्रुषा-भक्ति करनी, यह वेयावच्च तप; ४. वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा स्वरुप पाँच प्रकार का अध्ययन करना, यह स्वाध्याय तप; ५. आर्त्त व रौद्र ध्यान का त्याग कर धर्म व शुक्ल ध्यान में प्रवर्तमान होना, यह ध्यान तप और ६. कर्म के क्षय हेतु कायोत्सर्ग करना, यह काउस्सग्ग तप है। इस तरह छह प्रकार के अभ्यंतर तप है। ७. अणिगूहिअ बलवीरिओ, अणि-गूहि-अ-बल-वीरि-ओ, बल (शारीरिक शक्ति) और वीर्य
(आत्मबल) को न छिपाते हुए परक्कमइ जो परक्-क-म-इ जो
यथोक्त (शास्त्र में कहे अनुसार उपर्युक्त विषय में) जहुत्तमाउत्तो। जहुत्-त-मा-उत्-तो।
पराक्रम (विशेष प्रयत्न) करना गँजड़ अ जहाथाम, जुजु( जुन्)-जइ अ जहा-था-मम्, पालन में यथायोग्य शक्ति जोड़ना नायव्वो वीरिआयारो ॥८॥ नायव-वो वी-रि-आ-यारो ॥८॥ वीर्याचार जानने योग्य है। ८. गाथार्थ : (अपने) बल और वीर्य को छुपाए बिना शास्त्राज्ञा मुताबिक (पूर्वोक्त ज्ञानादि पाँच आचारों के पालन में ) सावधान बनकर उद्यम करे और शक्ति अनुसार प्रवृत्ति करे, वह वीर्याचार जानना । ८. (मन-वचन-काया की संपूर्ण शक्ति से शास्त्रानुसारी प्रवृति को भी वीर्याचार कहते हैं। ) इस प्रकार ज्ञानाचार-८, दर्शनाचार-८, चारित्राचार-८, तपाचार-१२ तथा वीर्याचार-३, कुल ३९ भेद हैं। • नोट : प्रायः वर्षो से प्रतिक्रमण करनेवाले महानुभाव अतिचार की आठ गाथा स्वरुप इस 'श्री नाणम्मि सूत्र' के बदले आठ बार श्री नवकार मंत्र का काउस्सग्ग करते हैं, वह उचित नहीं है। सम्भव हो तो पहले से ही आठ गवंत के पास शुद्ध-उच्चारण पूर्वक सीख लेनी चाहिए।
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