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गाथार्थ : मैं कायोत्सर्ग में स्थिर होना चाहता है। १. काया द्वारा, २.वाणी द्वारा, ३. मन द्वारा, ४. उत्सूत्र कहने से, ५. उन्मार्ग में चलने से, ६. अकल्पनीय वर्तन करने से, ७. अकरणीय कार्य करने से, ८. दुष्ट ध्यान करने से, ९. दुष्ट चिंतन करने से, १०. अनाचार करने से, ११. अनिच्छित वर्तन करने से, १२. श्रावक के योग्य व्यवहार से विरुद्ध आचरण करने से, ज्ञान संबंधी, दर्शन संबंधी, देश-विरति चारित्र संबंधी, श्रुत ज्ञान संबंधी, सामायिक संबंधी, तीन गुप्तियों संबंधी, चार कषाय संबंधी और पांच अणुव्रत में, तीन गुणव्रत में, चार शिक्षाव्रत में =बारह प्रकार के श्रावक धर्म में खंडना हुइ हो, जो विराधना हुई हो, मेरे द्वारा दिन में /रात्रि में जो अतिचार हए हो, मेरे वे दुष्कृत्य मिथ्या हो।
अशुद्ध
शुद्ध उसुत्तो उमग्गो उस्सुत्तो उम्मग्गो दुविचिंतिओ दुविचिंतिओ तिण्ह
तिण्हं मिच्छामिदुक्कडम् मिच्छा मि दुक्कडं
श्रावक धर्म के १२ व्रतों का संक्षिप्त वर्णन पाँच अणुव्रत :
पूर्णकर ठाम चौविहार एकासणा का पच्चक्खाण कर (१) स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत = बड़ी हिंसा से पूज्य साधु-साध्वीजी भगवंत को अपने गहांगण में बचना, (२) स्थूल मृषावाद व्रत = बडा झूठ बोलने बुलाकर सुपात्रदान करना । पूज्य महात्मा जो वस्तु से बचना, (३) स्थूल-अदत्तादान विरमणव्रत = नहीं ग्रहण करें उसी वस्तु के द्वारा एकासणा कर चौविहार दी गई वस्तु को लेने से बचना (४) स्वदारासंतोष- का पच्चक्खाण उसी समय ले लेना। परस्त्रीगमन विरमणव्रत = अपनी पत्नी में संतोष पूज्य महात्मा को मुझे 'अतिथि संविभाग व्रत है, मानकर पराई स्त्री के सेवन से बचना और (५) स्थूल ऐसा कहकर जरुर न हो तो भी सभी वस्तुओं को परिग्रह विरमण व्रत = बड़े परिग्रह से बचना ।
वहोराने का आग्रह करना अनुचित है।' पू. महात्माओं तीन गुणव्रत :
का सर्वथा अभाव हो तो व्रतधारी श्रावक-श्राविका (६) दिग्परिमाणवत : दिशाओं में गमनागमन का को आमंत्रण देकर भोजन कराया जा सकता है। परिमाण निश्चित करना, (७) भोगोपभोग परिमाण मानवभव प्राप्त करने के बाद श्रावकधर्म को स्वीकार व्रत = भोग और उपभोग के परिमाण निश्चित करना कर १२ व्रत अथवा उसकी अल्पसंख्या में भी व्रत तथा (८) अनर्थदंड विरमण व्रत : व्यर्थ पाप से ग्रहण कर व्रतधारी बनना चाहिए । शास्त्रीय वचन के बचना।
अनुसार व्रतधारी को ही श्रावक कहा जाता है, उसके चार शिक्षा व्रत :
अतिरिक्त भाग्यशालियों को मात्र जैन कहा जाता है। (९) सामायिक व्रत : सामायिक की संख्या का पू. महात्मा आजीवन पाँच महाव्रतों को धारण परिमाण निश्चित करना।
करनेवाले होते हैं। (१०) देशावगासिक व्रत : उपवास अथवा कम से यह 'इच्छामि ठामि' सूत्र देवसिअ, पक्खी, चौमासी कम एकासणा करके राइअ-देवसिअ प्रतिक्रमण की अथवा संवत्सरी प्रतिक्रमण करते समय यदि सामायिक के अतिरिक्त आठ सामायिक करना।
पंचमहाव्रतधारी पूज्य गुरुभगवंत की निश्रा हो तो (११) पौषधोपवास व्रत : उपवास करके ८ प्रहर का प्रत्येक श्रावक-श्राविका श्रावक-धर्म (जीवन) को अहोरात्र पौधष करना।
उद्देश्य कर निर्मित उपरोक्त सूत्र अवश्य मन में बोलना (१२) अतिथि-संविभाग व्रत : अहोरात्र (आठ पहर) चाहिए । क्योंकि पूज्य गुरुभगवंत अपने साधुधर्म पौषधव्रत में चौविहार उपवास करके दूसरे दिन पौधष (जीवन) को उद्देश्य कर इस सूत्र में उसके अनुसार
परिवर्तन कर बोलते हैं।
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