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प्रभुजी समवसरण में देशना देते हुए
चार अतिशयों का वर्णन १. अपायापगमातिशय : प्रभुजी जहाँ विचरण करते हैं, वहां छहों दिशाओं को मिलाकर
सवा सौ योजन तक प्रभुजी के प्रभाव से छह महीने तक रोग, मृत्यु, वैर, अतिवृष्टि, दुष्काल, स्वराज्य तथा पर राज्य का भय आदि उपद्रव नहीं होता है, तथा यदि उसके
पूर्व हो चुका हो तो वह नष्ट हो जाता है। २. ज्ञानातिशय : प्रभुजी की वाणी पैंतीस गुणों से युक्त होती है, जिसके कारण भव्य
जीवों के संशयों का छेदन होता है। ३. पूजातिशय : नरेन्द्र, असुरेन्द्र तथा सुरेन्द्र भी प्रभुजी की पूजा करते हैं।
४. वचनातिशय : प्रभुजी की वाणी सभी जीव अपनी-अपनी भाषा में समझ सकते हैं।
परमात्मा की वाणी के पैंतीस गुण (१) शब्दालंकार तथा अर्थालंकार से युक्त 'संस्कारवाली' विवेचना के साथ भूमिका के साथ गम्भीर अर्थों से युक्त होने (२) स्पष्टतथा उच्च स्वरसे युक्त होने के कारण उदात्त'(३) कारण 'अभिजात्य'(२०) अमृत से भी मधुर तथा भूख-प्यासउदार-शिष्टाचारी-संस्कारी तथा विद्वानों को भाए ऐसी उपचार थकान-परेशानी तथा निद्रा को भूलानेवाली होने के कारण परीत' (४) समद्र का मंथन की तरह, ऐसी गम्भीर ध्वनि से स्निग्धमधर' (२१) चारों ओर लोगों के द्वारा गुणगान का घोष अलंकृत व मेघ के समान गम्भीर'(५)वाणी के पीछे-पीछे सुनने को मिले तथा श्रोतागण प्रशंसा करते हुए थकें नहीं अर्थात् मानो गम्भीर घंटानाद हो रहा हो, ऐसी ‘प्रतिनादयुक्त' (६) 'प्रशंसनीय'(२२)किसी भी श्रोता के मर्म को आहत न करने के बोलने तथा समझने में अत्यन्त सरल 'दाक्षिण्य गुण युक्त' कारण 'अमर्मवेधी' (२३) कहने का विषय महान तथा गम्भीर (७) अत्यन्त मधुर'मालकोश रागयुक्त' (८) विशाल तथा । होने के कारण 'उदार' (२४) वाणी-धर्म तथा उत्तम अर्थों से गम्भीर अर्थों से युक्त होने के कारण महार्थयुक्त'(९) बाद में संबद्ध होने के कारण धर्मार्थ प्रतिबद्ध'(२५) व्याकरण की दृष्टि कहे गए वचन पूर्व कथित वचन की अधिक पुष्टि करे तथा । से कर्त्ता-कर्म आदि विभक्ति, पुल्लिंग आदि लिंग, भूत, भविष्य, बिना किसी अवरोध के सतत प्रवाहित होती रहे, ऐसी वर्तमान आदि काल में कहीं भी स्खलना अथवा परिवर्तन रहित 'अव्याघातगुण युक्त'(१०)सिद्धान्तों का अनुसरण करने के होने के कारण 'कारकादि का अविपर्यास' (२६) भ्रान्ति, कारण तथा शिष्ट लोगों में प्रिय होने के कारण शिष्ट' (११) विक्षेप, क्षोभ, भय आदि दोषों से रहित होने के कारण श्रोताओं की शंकाओं को दूर करने में समर्थ तथा सन्देह रहित 'विभ्रमादिवियुक्त' (२७) श्रोता के दिल में सरसता, आतुरता ऐसी 'असंदेहकर' (१२) अनवरत प्रवाहित वाणी में से कोई तथा जिज्ञासा को जगाए रखने में समर्थ होने के कारण भी व्यक्ति किसी भी प्रकार का दोष निकालने में असमर्थ 'चित्रकारी'(२८) अन्य वक्ता की अपेक्षा श्रेष्ठ तथा चमत्कारपूर्ण अर्थात् 'अन्योत्तर-रहित' (१३) रुचिकर तथा सुगमतापूर्वक होने के कारण अद्भुत'(२९) न अत्यन्त शीघ्रता से, न अत्यन्त हृदयग्राह्य होने के कारण 'अतिहृदयंगम' (१४) पद तथा धीरे से, बल्कि सामान्य रूप से बोली जानेवाली वाणी होने के वाक्य एक दूसरे के साथ अपेक्षायुक्त तथा युक्तिसंगत होने के कारण 'अनतिविलम्बी' (३०) वास्तविकता का वर्णन रस पूर्ण कारण 'साकांक्ष'(१५) प्रत्येक शब्द में औचित्य का दर्शन व मधुर वाणी में प्रस्तुत करने के कारण विविधविचित्र'(३१) होने के कारण तथा श्रोतागण को चमत्कारपूर्ण रूप से प्रत्येक वचन में अन्य वचनों की अपेक्षा अधिक विशेषता निहित प्रभावित करने के कारण औचित्यपूर्ण'(१६) वस्तुतत्त्व को होने के कारण 'आरोपित विशेषतायुक्त' (३२) पराक्रमयुक्त
करने के लिए सदा अनुकरण करनेवाली होने से वाणी होने के कारण सत्त्व प्रधान'(३३) प्रत्येक अक्षर-वाक्य'तत्त्वनिष्ठ' (१७) सम्बन्धित पदार्थों का वर्णन करनेवाली पद भलीभांति अलग होने के कारण 'विविक्त' (३४) वाणी तथा अकारण अतिविस्तार से रहित होने के कारण अप्रकीर्ण युक्ति-तर्क-दृष्टान्त तथा प्रमाण से युक्त होने के कारण प्रस्तुत' (१८) आत्मप्रशंसा तथा परनिन्दा से रहित होने के 'अविच्छिन्न' और (३५) वक्ता को खेद अथवा परिश्रम नहीं कारण 'स्वश्लाघा-परनिन्दा रहित' (१९) उत्तम कोटि की। लगने के कारण अखेद होती है।
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1933