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'गुरुवंदन'
करते समय बोलते-सुनते समय की मुद्रा ।
मूल सूत्र
इच्छकार ! सुह-राइ ? (सुह-देवसि ? )
सुख-तप ? शरीर निराबाध?
४. श्री इच्छकार सूत्र
: श्री इच्छकार सूत्र
: सुगुर सुखशाता पृच्छा सूत्र
:
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आदान नाम
गौण नाम
Jan 2
पद
संपदा
गुरु-अक्षर
लघु-अक्षर सर्व अक्षर
उच्चारण में सहायक
इच्-छ-कार ! सुह-राइ ? (सुह-देव-सि ? ) सुख-तप ? शरीर - निरा- बाध?
१. पुरिमड्ड के पच्चक्खाण से पहले 'सुहराइ' तथा बाद में 'सुहदेवसि' बोलना चाहिए । दोनों एक साथ नहीं बोलना चाहिए ।
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२. 'सुहराइ / सुहदेवसि... से स्वामी ! शाता छे जी' तक के सारे वाक्य अलग-अलग प्रश्नों को सूचित करते हैं। अतः ये सारे वाक्य इस प्रकार बोलने चाहिए, मानो प्रश्न पूछ रहे हों। ये वाक्य बोलते समय मुख पर उन प्रश्नों के उत्तर जानने की इच्छा का भाव प्रगट होना चाहिए । जैनशासन में 'गुरु' की सुन्दर व्याख्या : जो संसार का शोषण करे और मोक्ष का पोषण करे, वे गुरु कहलाते हैं ।
जैनशासन में गुरुपद का गौरव अद्भुत है। परमात्मा के द्वारा बतलाए गए जैनशासन को आज हमारे तक पहुँचानेवाले यदि कोई है तो वे गुरुभगवन्त ही हैं। अज्ञान रूपी अंधकार का नाश करनेवाले गुरु हैं। विषय रूपी विष का वमन कराकर आराधना रूपी अमृत का पान करानेवाला यदि कोई है तो वह गुरु ही है। जो कंचन और कामिनी के सर्वथा त्यागी होते हैं, पाँच महाव्रतों का सुंदर
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सुख-सञ् (सन्) - जम-जात्-रा निर्वहो छो जी ? स्वामी ! शाता छे जी ?
भात- पाणी नो लाभ देजो-जी ॥१॥
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सुख संजम जात्रा
निर्व हो छो जी ?
स्वामी ! शाता छे जी ? भात पाणी नो लाभ देजोजी ॥४॥ गाथार्थ : (हे गुरुजी !) मैं (पूछना
चाहता हूँ । रात्रि में आप सुख पूर्वक रहे हो ? ( दिन में आप सुख पूर्वक रहे हो ? ) आपको तप सुख पूर्वक होता है ? आपका शरीर पीड़ा रहित है ? आप अपनी संयम यात्रा का सुख पूर्वक निर्वाह करते हो जी ? हे स्वामी, आप सुख- शांता में हो जी ? आहार, पानी आदि को ग्रहण कर लाभ देनाजी ।
सूत्र के संबंध में विवरण
विषय :
सद्गुरु को संयम यात्रा
की सुखशाता
पूछना ।
पद क्रमानुसारी अर्थ
मैं ( पूछना चाहता हूं। आप रात्रि में दिन में सुख पूर्वक रहे हो ? आपको तप सुख पूर्वक होता है ? आपका शरीर पीड़ा रहित है ? आप अपनी संयम यात्रा का सुख - पूर्वक निर्वाह करते हो जी ? हे स्वामी ! आप सुख शाता में हो ?
आहार, पानी आदि को ग्रहण कर लाभ देना जी । ४
पालन करते हैं, परमात्मा के द्वारा बतलाए गए मार्ग पर यथाशक्ति चलते हैं, परमात्मा की आज्ञा के विरुद्ध कभी नहीं बोलते हैं, मोक्ष प्राप्ति की जिन्हें लालसा होती है, सांसारिक जनों के हृदय का ताप शान्त कर दे, ऐसी प्रशान्त मुखमुद्रा को धारण करते हैं । संसार के समस्त पदार्थों के प्रति अनासक्त होकर, आत्मा के अद्भुत आनन्द को प्राप्त करने के साथ-साथ उसका रसास्वादन करते हैं, ऐसे गुरुभगवन्त के संसर्ग-परिचय से भवोभव के पाप क्षय हो जाते हैं। उनके चरणों में वंदना करने से भवोभव के कर्मबंधन टूट जाते हैं। उन्हें की जानेवाली वन्दना चंदन से भी अधिक शीतलता प्रदान करने में समर्थ है। चंदन तो शरीर को कुछ ही देर तक ठंडक देता है । परन्तु गुरुभगवंतों को की जानेवाली वंदना, कषाय के भावों को शांत कर, भवोभव के संताप का शमन कर, अद्भुत शीतलता प्रदान करती है। भूतकाल में दृष्टिपात करेंगे तो ज्ञात होगा कि सामान्य रूप से जो लोग महान बने हैं, उन सभी को सबसे पहले गुरु ही मिले थे । गुरुभगवंत के सत्संग के प्रभाव से वे पतन की खाई में से महानता के उच्च शिखर को सर कर सके थे ।