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सवा लाख जिनचैत्यों तथा सवा करोड़ जब हम 'स्वामी शाता हैं ! जी' यह प्रश्न पूछते हैं तो गुरुभगवन्त जिनबिम्बों का सर्जन करनेवाले सम्राट् सम्प्रति उत्तर देते हैं-'देव-गुरु-पसाय' यह 'देव-गुरु-पसाय' जैन शासन का महाराज को गुरु के रूप में आर्य सुहस्तिसूरिजी मिले अद्भुत वाक्य है। अनादिकाल से मजबूत किए गए अहंभाव को नाश थे तथा गुर्जरेश्वर कुमारपाल को कलिकाल सर्वज्ञ श्री करने के लिए यह वाक्य एक अमोघ शस्त्र है। हेमचन्द्राचार्यजी मिले थे । क्रूर तथा खूखार मुगल जिस प्रकार 'देव-गुरु-पसाय' एक सुन्दर वाक्य है, उसी प्रकार दो सम्राट अकबर के हृदय में जीवदया का भाव अन्य सुन्दर वाक्य भी समझने जैसे हैं, जगानेवाले भी जगद्गुरु श्री हीरसूरीश्वरजी ही थे। १.वर्तमानजोग तथा २. कालधर्म ।
जिनशासन में गुरु की इच्छा के बिना कोई भी १. पू. गुरुभगवन्त की शाता पूछने के बाद गोचरी-पानी ग्रहण कार्य नहीं हो सकता है। यही कारण है कि गुरु करने के लिए 'भात-पानीनो लाभ देजो जी' वाक्य के द्वारा विनति की महाराज की शाता पूछने से पहले इसके सम्बन्ध में जाती है। (आहार-पानी माने पू.
: गुरुभगवन्त के संयम के प्रति योग्य उनकी इच्छा जाननी जरूरी है। अतः कहा गया है कि खाने-पीने की सारी वस्तु इस विनति को सुनकर पू. गुरुभगवन्त
छकार का शब्द रखा गया है। वर्तमान जोग' कहते हैं । अर्थात् उस समय जैसी अनुकूलता होगी, शाता पूछने के लिए भी गुरुजी की इच्छा आवश्यक 'आज', 'अभी' 'शाम' अथवा 'कल' आऊंगा, ऐसा कभी नहीं कहते होती है, यदि उनकी इच्छा न हो तो गुरुजी की शाता हैं। क्योंकि उस समय यदि कोई आकस्मिक कार्य उपस्थित हो जाए तो
भी नहीं पूछी जा सकती है, तो फिर गुरुजी की इच्छा श्रावक को दिया गया वचन व्यर्थ (झूठा) होने की सम्भावना होगी | के बिना अन्य कोई कार्य कैसे किया जा सकता है ? || अर्थात् मृषावाद विरमण महाव्रत में दोष लगता है। संक्षिप्त में कहा जाए तो गुरुजी की इच्छा के विरुद्ध २. पू. गुरुभगवन्त की आयु जब पूरी हो जाती है, तब 'मृत्यु को कार्य स्वप्न में भी नहीं किया जाए, इसका ध्यान रखा प्राप्त हुए' अथवा 'मर गए' ऐसा नहीं कहते हैं । बल्कि 'कालधर्म' को जाना चाहिए। इसीलिए कहा गया है कि
प्राप्त हुए, ऐसा कहा जाता है। कालधर्म-काल अर्थात् समय का धर्म है "गुरु की इच्छा का पालन अमृतकुम्भ के समान है, नये को पुराना करना, सड़न, गलन आदि भी काल के धर्म हैं । उसी जबकि गुरु का एक-एक निःश्वास वधस्तम्भ के प्रकार बाल्यावस्था, युवावस्था आदि भी काल के धर्म हैं। आयुष्यपूर्ण समान है"।
। होते ही काल ने अपना धर्म बजाया, इसलिए 'कालधर्म' कहा जाता है
सुखशाता पृच्छा के साथ जानने योग्य कुछ महत्त्वपूर्ण बातें | • पौषधार्थी भाई व बहनें भी भात-पानी बोलें।
'भात-पानी' की पृच्छा में आ जाता है। • इच्छकार सूत्र के द्वारा सूर्यास्त तक वन्दना करनी चाहिए। • साधु भगवन्त साधु भगवन्तों को तथा साध्वीजी भगवन्त
सूर्यास्त के बाद श्रावक-श्राविका अथवा साधु-साध्वीजी साधु-साध्वीजी भगवन्त को भात-पानी' नहीं बोलते हैं। भगवन्तों को थोभ-वन्दन नहीं करना चाहिए।
सूर्यास्त के बाद दोनों हाथ को जोड़कर गुरुभगवन्त को सूर्यास्त के समय वन्दना करते समय श्रावक-श्राविकाओं! 'त्रिकाल वन्दना' कहना चाहिए। को 'भात-पानी' अवश्य बोलना चाहिए । क्योंकि उस . साधुभगवन्त और साध्वीजी भगवन्त परस्पर 'त्रिकाल समय अथवा रात्रि के समय शरीर अस्वस्थ होने के कारण वन्दना' नहीं बोलते हैं, बल्कि 'मत्थएण वंदामि' बोलते हैं। अनिवार्य संयोगों में अनाहारी औषध अथवा डॉक्टर • सूर्यास्त होने के कुछ समय बाद तक गुरुवन्दन करने का आदि के उपचार की आवश्यकता पड़ती है, वह भी व्यवहार मिलता है।
Jain. Ett
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