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॥ श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः ॥
प्रस्तावना
नन्तानन्त परमतारक परमात्मा के द्वारा प्ररूपित प्रभुशासन विश्व में अद्वितीय-अमूल्य तथा प्रभु के समान ही परमतारक है। प्रभुशासन का छोटे से छोटा संयोग भी यदि मिले तो वह अमूल्य है । वह योग परमशाश्वत सुख का बीज है । इसीलिए पंचसूत्र के प्रथमसूत्र का नाम पापप्रतिघात तथा गुणबीजाधान रखा गया है । ज्ञानी-पुरुषों के वचन त्रिकरण शुद्ध आवश्यक क्रियाओं के माध्यम से गुणबीजाधान शीघ्र होता है । आवश्यक क्रियाओं की विधि शुद्ध करने के लिए सूत्रों के सूक्ष्म ज्ञान तथा सूत्र के सूक्ष्मार्थ का विचार करना आवश्यक है।
जिनशासन की प्रत्येक आराधना षडावश्यकमय है । परमात्मा की रथयात्रा हो या प्रतिक्रमण रूप अनुष्ठान हो, प्रत्येक आराधना में सूक्ष्म विचारणा से षडावश्यक हो सकता है। श्री विशेषावश्यक भाष्य (गाथा-८७३) में आवश्यक शब्द के विविध अर्थ तथा पर्यायवाची शब्दों का विशद वर्णन किया गया है। जिनशासन में आवश्यक का मूल्य अत्यधिक है । शरीर के प्रमादभाव को दूर करने के लिए तथा आत्मा में उर्जा प्रगट करने के लिए आवश्यक क्रियाएँ अनिवार्य हैं।
सूत्रों से व्याप्त इन क्रियाओं में सूत्रशुद्धि अत्यन्त आवश्यक है । सूत्र शुद्धि हेतु उच्चारज्ञान, पदज्ञान, वर्णज्ञान, अर्थज्ञान, संपदाज्ञान, छंदज्ञान इत्यादि अत्यन्त आवश्यक हैं । प्रस्तुत पुस्तक इन सारी की सारी आवश्यकताओं को पूर्ण करने में सक्षम है । विशेष में, प्रत्येक सूत्र में उच्चारण की शुद्धि के लिए संयुक्ताक्षरवाले पदों को अलग करके बतलाया गया है।
प्रस्तुत पुस्तक में जिनशासन के इतिहास में प्रथमवार छन्दज्ञान के साथ प्रत्येक सूत्र को दर्शाया गया है। श्रीसंघ में छन्दों का ज्ञान यदि शिष्य-परंपरा की अभ्यास प्रक्रिया में प्रारम्भ कर दिया जाए तो अभ्युदय होकर रहेगा। अप्रशस्त भावों की उपशान्ति तथा शुभभावों की उपलब्धि सहज हो जाएगी । छंदों के नियमों के साथ-साथ स्तवन
सज्झाय-स्तुति-स्नात्रपूजा आदि प्रचलित रागों के साथ समन्वय कर कठिन विषय को सरल बनाने का प्रयत्न किया गया है, जो प्रशंसनीय है । इसके अतिरिक्त खमासमण-अब्भुट्ठिओ-इच्छामि ठामि-वांदणा-सात-लाख जैसे जो गद्यात्मक सूत्र हैं, जिनकी सम्पदा आगमग्रन्थों में प्रसिद्ध नहीं थीं (अश्रुतप्रायः थीं), उन सूत्रों की संपदा भी बतलाई गई हैं।
इसके अतिरिक्त जिनपूजा का वर्णन-सम्यग्ज्ञान-चारित्र के उपकरण-खमासमण-वांदणा-अब्भुट्टिओ आदि के आसन कैसे हों, मुद्राएँ कैसी हों तथा कौन-कौन से पदों में कौन-कौन सी विधि करनी चाहिए -मुंहपत्ति-शरीर पडिलेहण विधि इत्यादि का सुरम्य चित्रसंपुट के द्वारा हूबहू ज्ञान जिनशासन में सर्वप्रथम बार इस पुस्तक में है, पुस्तक को रसप्रद-आनन्दप्रद-ज्ञानपद तथा बालभोग्य बनाने का सुकृत पूज्य मुनिराज श्री रम्यदर्शन विजयजी महाराज साहब ने अस्वस्थता में भी प्रसन्नतापूर्वक किया है, जो अत्यन्त प्रशंसनीय है । संकलक-संयोजक श्री परेशभाई जे. शाह ने सकल श्रीसंघ को यह अनमोल साहित्य अर्पण कर अनन्य भक्ति की है। वह अत्यन्त स्तुत्य है।
प्रस्तुत पुस्तक का हम सुन्दर उपयोग कर, आवश्यक क्रिया तथा जिनपूजा से सम्बन्धित अज्ञानता रुप अन्धकार को दूर कर, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की विशुद्ध आराधना के प्रभाव से चिरसंचित कर्मों का नाश कर अन्त में शांति, समाधि और जन्मान्तर में सद्गति तथा परंपरा से सिद्धिगति के स्वामी बनें, यही मंगल प्रार्थना है।
यदि जिनाज्ञा विरूद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो मिच्छा मि दुक्कडं...
प्रेषक : प्रा. श्री चन्द्रकान्त एस. संघवी श्री सिद्धहेमज्ञानपीठ वाडी जिन विद्यापीठ श्री नीतिसूरिजी संस्कृत पाठशाला, पाटण ( उ.गु.)
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