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________________ ___ छंद : स्रग्धरा; राग : अर्हत् वक्त्र प्रसूतं गणधर रचितं...(स्नातस्या स्तुति गाथा-३) आ-मू-ला-लोल-धूली-बहुल- आ-मू-ला-लो-ल-धूली-बहुल- मूल पर्यंत कुछ डोलने से (गिरे हुए) पराग की परिमला-लीढ-लोला-लि-माला, परि-मला-लीढ-लोला-लि-माला, अधिक सुगंध में आसक्त चपल भ्रमर समूह के झंका-रा-राव-सारा-मल-दल- झङ्-का-रा-राव-सारा-मल-दल- झंकार शब्द से युक्त उत्तम निर्मल पंखुड़ी वाले, कमला-गार भूमि-निवासे। कमला गार-भूमि निवासे । कमल गृह की भूमि पर वास करने वाले, छाया-संभार-सारेछाया-सम्-भार-सारे! कांति पुंज से रमणीय!, वर-कमल-करे!वर-कमल-करे! सुंदर कमल से युक्त हाथ वाली, तार-हारा-भि-रामे !, तार-हारा-भिरामे !, देदीप्यमान हार से सुशोभित !, वाणी-सं-दोह-देहे!वाणी-सन्-दोह-देहे! (तीर्थंकरों की) वाणी के समूह रूप देह वाली, भव-विर-हवरं-देहिभव-विरह-वरम्-देहि हे श्रुत देवी ! मुझे (श्रुतज्ञान का) सार रूप संसार मे-देवि ! सारं ॥४॥ मे देवि! सा-रम् ॥४॥ से विरह (मोक्ष) का श्रेष्ठ वरदान दो। ४. गाथार्थ : मूल पर्यंत कुछ डोलने से गिरे हुए पराग की अधिक सुगंध में आसक्त चपल भ्रमर समूह के झंकार शब्द से युक्त उत्तम निर्मल पंखुड़ी वाले कमल गृह की भूमि पर वास करने वाली, कांति पुंज से रमणीय, सुंदर कमल से युक्त हाथ वाली, देदीप्यमान हार से सुशोभित और (तीर्थंकरों की) वाणी के समूह रूप देहवाली हे श्रुतदेवी ! मुझे (श्रुत ज्ञान के) सार रूप मोक्ष का श्रेष्ठ वरदान दो। ४. अशुद्ध शुद्ध इस स्तुति के रचयिता के सम्बन्धमें जानने योग्य कुछ बातें। नम्मामि वीरं नमामि वीरं जैनधर्म के प्रगाढ द्वेषी व मिथ्याभिमानी हरिभद्र पुरोहित ज्ञान के गर्व के लिटुलोला लिमाला लीढ लोला लिमाला कारण अपनी चार वस्तुएँ लेकर ही गमनागमन करते थे । 'जामुन के वृक्ष की सुरपद पदवी सुपद पदवी डाली'- जंबद्वीप में मेरे जैसा कोई ज्ञानी नहीं है, यह प्रमाणित करने के लिए रखते थे, 'सीढ़ी' यदि कही प्रतिवादी आकाश में चला जाए, तो उसे जिसकी एक गाथा एक ग्रन्थ के बराबर है, ऐसी उतारने के लिए रखते थे। 'कुदाल'-यदि कोई प्रतिवादी डरकर 'संसारदावानल स्तुति' की तीन गाथाओं की रचना की । जमीन में घुस जाए तो उसे निकालने के लिए रखते थे तथा १४४४ ग्रंथ की रचना स्वरूप अन्तिम गाथा की एक पक्ति अपने पेट पर लोहे का पट्टा बांधते थे, क्योंकि उनके अन्दर जो की रचना कर समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुए । तब अगाधज्ञान है, वह कहीं फटकर बाहर न निकल जाए। शासनदेवी की सहायता से श्रीसंघ ने 'झंकारा....से' तीन पद इतना घमंड होने के बावजूद एक अभिग्रह था कि 'जो (पति) की रचना की । यही कारण है कि तीन पक्तिया कुछ मैं सुनूं, यदि वह मेरी समझ में न आए, तो जो व्यक्ति मुझे श्रीसंघ के साथ सज्झाय में बोलने की प्रथा है। वह समझा देगा, वही मेरा गुरु होगा।' इसीके प्रभाव से उन्होंने ___याकिनीमहत्तरासुनू के नाम से प्रसिद्ध पूज्यपाद जैनधर्म को प्राप्त किया । इतना ही नहीं बल्कि सर्वसंग का आचार्यदेव श्रीमद् विजय हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज द्वारा त्याग कर संयमी बनकर अनुक्रम से वे जैनशासन की धुरी को रचित इस स्तुति में एक भी सन्ध्यक्षर नहीं है । तथा संस्कृतसंभालनेवाले प्रकांड विद्वान पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् प्राकृत भाषा का मिश्रण भी है। श्रीमद्जी ने अपनी रचना के विजय हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराजा के रूप में प्रसिद्ध हुए । उनके अन्त में अपना नाम लिखने की जगह 'विरह' शब्द लिखा है। सांसारिक भांजे तथा शिष्यरत्न पू. मुनिराजश्री हंसविजयी तथा भगवान के निर्वाण से १७००-१८०० बाद स्वयं जैन शासन पू. मुनिराजश्री परमहंस विजयजी बौद्धों के द्वारा मारे गए। उस को पाए, वे श्रीमद् को सदा के लिए अखरता था। समय शास्त्रार्थ में बौद्धों को हराकर १४४४ बौद्ध भिक्षुओं को ★ यह 'संसारादावा स्तुति' चतुर्विध श्रीसंघ में आठम के जीवित ही गरमतेल की कड़ाही में डालने को तैयार हुए। दिन बोली जाती है । पक्खी-चौमासी तथा संवत्सरी जैनधर्म की प्राप्ति में सहायभूत मातृहृदया साध्वीजी प्रतिक्रमण में सज्झाय के रूप में बोली जाती है । तथा भगवंत श्री याकिनी महत्तरा वैरभाव के विपाक दर्शन के एक देवसिअ-राइअ प्रतिक्रमण में पू. साध्वीजी भगवंत तथा श्लोक को पढ़कर शान्त हुए तथा अपने गुरुभगवंत के पास महिलाएं पहली तीन गाथाए 'श्री नमोऽस्तु वर्द्धमानाय' तथा दुष्कृत की निन्दा करने के साथ-साथ प्रायश्चित मांगा, पूज्य श्री विशाल लोचन' के बदले (सामूहिक रूप में )बोली गुरुभगवंत ने प्रगाढ ज्ञानी अपने शिष्य को प्रायश्चित के रूप में जाती है। १४४४ ग्रंथों की रचना प्रतिज्ञा दी । दिन-रात की परवाह किए श्री प्रश्नोत्तर चिंतामणि में श्री वीरविजयजीमहाराज ने बिना वे शिष्य नूतन जैनशास्त्रों की रचना करने में मशगुल बन बतलाया है कि अन्तिम तीन पदों में स्थित मंत्र शक्ति से गए। अंतिम समय में १४४० ग्रंथों की रचना करते-करते । क्षुद्र-उपद्रव उपशांत होते हैं। s Private mesanal Use Only मा ४१
SR No.002927
Book TitleAvashyaka Kriya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Spiritual, & Paryushan
File Size66 MB
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